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१३० ] श्रोप्रवचनसारटोका। ही उसीको कहते हैं जहां यह जीव द्रव्य मनुष्यादि पर्यायोंको धारण करकर उन पर्यायोके अनुकूल कार्य करता रहे । संसार ही विभाव क्रिया रूप है । यह जीव अनादिसे रागद्वेष मोहरूप परिगमन करता है इसी परिणमनसे गति आदि शुभ अशुभ कर्म बांधता है और उस कर्मके अनुसार चार गतिमें से किसी गतिमें कुछ कालके लिये जाता है। वहां फिर रागद्वेष मोहके द्वारा गति आदि कर्म बांधता है उस कर्मके अनुसार फिर किसी गतिमें चला जाता है, वहां फिर कर्म बांधता है, इस तरह संसारका प्रवाह वराबर चल रहा है । यह संसार रागद्वेष मई क्रियारूप है। जहां रागद्वेष रूप क्रियाका विलकुल अभाव है वहां ससारका भी अभाव है। मुक्तात्मामें रागद्वेष रूप क्रिया नहीं होती है । इसीसे सिद्ध भगवान सदाकाल अपने वीतराग परमानंदमई स्वभावमें स्थिर रहते हैं । वे कर्मबंध रहित है इसीसे क्रिया रहित हैं । संसारी जीव कर्मबंध सहित हैं, इसीसे क्रिया रूप हैं । इससे यह तात्पर्य है कि रागद्वेष मोहरूप क्रिया ही संसारके भ्रमणका हेतु है । वास्तवमे इसी रागद्वेष मोहके परिणमनको ही संसार कहते है । इसलिये निन अविनाशी ज्ञानानंदमई खभावके लाभके लिये हमको राग द्वेषके परिणमनको त्यागकर वीतरागमई समताभावमें ही वर्तन करना चाहिये । यही वर्तन संसारके नाशका उपाय है। खामी समंतभद्र स्वयंभूस्तोत्रमे संसारका खरूप कहते है:
अनित्यमत्राणमहं क्रियामः प्रसक्तमिथ्याध्यवसाय दोषम् । इद जगजन्मजरान्तकात निरजना शातिमजोगमस्त्वम् ॥१२॥ हे श्री संभवनाथ ! यह प्रतीतिमें आनेवाला संसार अनित्य