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द्वितीय खंड |
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है तथा अशरण है और इस अहंकार के कारण कि मैं पर पदार्थका कर्त्ता हूं मिध्या अभिप्रायके दोपसे भरा हुआ है अर्थात् संसारी जीव अनित्य और अशरण होकरके भी रातदिन धनादिके उपार्जन, रक्षण आदि अहंकार रूप मिथ्या भावमें अत्यन्त लगे हुए हैं इसीसे यह जगत् अर्थात् जगतके प्राणी जन्म, जरा मरणसे पीड़ित हैं परन्तु आपने कर्मोके बन्धन से रहित परम शांतिरूप कल्याणके स्थान स्वाधीन पदको जगतके प्राणियोको प्राप्त कराया है अर्थात् आपका उपदेश ध्यानमे लेकर अनेक ससारी प्राणी भवसागरके पार पहुंचकर परम सुखी होगए हैं।
श्री गुणभद्राचार्य आत्मानुशासन में संसारका स्वरूप बताते हैं । तादात्म्य तनुभिः सदानुभवन पाकस्य दुःकर्मणो । व्यापार: समय प्रति प्रकृतिभिगढ स्वयं बंधनम् || निद्राविश्रमण मृते प्रतिभय शमृतिश्च ध्रुव । जन्मिन् जन्मनि ते तथापि रमते तत्रैव चित्र महत् ॥५८॥
हे ससारी प्राणी ! यह ससार ऐना है कि जहां तू शरीरसे एकमेक होरहा है, पाप कर्मों के फलको भोगता है । समय २ स्वयं कर्मोकी प्रकृतियो से अच्छी तरहसे बन्धनमें पड़ना यही तेरा व्यापार है । निद्रासे विश्वाति लेता है । मरणसे सदा भय करता है तौमी 1 जहां सदा जन्म मरण होता रहता है तथापि तू ऐसे संसार में रमता है यही बड़ा आश्चर्य है ।
प्रयोजन यह है कि संसारको कष्टोंका मूल जानकर इससे उदासीन होना योग्य हैं ॥ २९ ॥
इस तरह शुद्धात्मासे भिन्न कसे उत्पन्न मनुष्यादि पर्याय