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________________ १२८] श्रीप्रवचनसारटीका । है। कालांतरमें रोगके कारण सुन्दरता बिगड़ जाती या शरीर छूट जाता है तब उसको महान कष्ठ होता है । संसारमें दुःखोका कारण पर्यायोमें राग द्वेष मोह है। जो ज्ञानी जगतकी क्षणभंगुरताका निश्चय करके द्रव्यको नित्य मानते हुए उसकी पर्यायोंको विनाशीक मानते हैं वे दिखनेवाली अवस्थाओंमे रागद्वेष नहीं करके समताभाव रखते हैं इसलिये चे ज्ञानी सदा शांत और संतोषी रहते है। यह जगत उत्पाद द्रव्य धौव्य खरूप है यही सत्य ज्ञान है । स्वामी समंतभद्र श्री मुनिसुव्रतनाथकी स्तुति करते हुए कहते हैं स्थितिजनननिरोधलक्षणं, चरमचर च जगत्प्रतिक्षणम् । इति जिन सकलज्ञलाछन, वचनामिद वदतां वरस्य ते ॥११॥ । हे मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्र ! आप तत्त्वके उपदेशकर्ताओमें बड़े हैं। आपका जो यह वचन है कि यह चेतन अचेतनरूप जगत् प्रतिक्षण उत्पाद व्यय ध्रौव्यस्वरूप है सोही इस बातका लक्षण है कि आप सर्वज्ञ हैं-सर्वज्ञने ऐसा ही देखा सो ही कहा, वैसा ही हम इस जगतको अनुभव कर रहे हैं ॥ २८ ॥ तात्पर्य यह है कि पर्यायबुद्धि छोड़कर मूल द्रव्यपर ध्यान रख पर्यायोमें रागद्वेष त्याग तत्वक विचारमें संलग्न रहना चाहिये। उत्थानिका-आगे.इस विनाश स्वरूप जगतके लिये कारण क्या है उसको संक्षेपमें कहते हैं अथवा पहले स्थलमें अधिकार सूत्रसे जो यह सूचित किया था कि मनुष्यादि पर्यायें कौके उदयसे हुई हैं इससे विनाशीक हैं इसी ही बातको तीन गाथाओंसे विशेष करके व्याख्यान किया गया अब उसीको संकोचते हुए । कहते हैं
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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