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, द्वितीय खंड ।
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तेन्द्रिय, चौन्द्रिय, पंचेंद्रियरूप तिर्यच, मनुष्य, देव, नारकीकी पर्यायोंमें अनन्तवार उत्पन्न होकर मरा है वही जीव इस समय इस मेरी मनुष्य पर्याय में है। यहां भी यह बाल अवस्थासे बदलता युवा वस्थामें आता है फिर युवावस्थासे वृद्धावस्थामें समय समय बदलता जारहा है । इसकी हरएक पर्याय क्षणभंगुर है जब कि जीव नित्य है । मोक्षपर्याय या सिद्धपर्याय जब पैदा होती है तब ही ससार पर्याय जो चौदहवें अयोग केवली गुणस्थानके अत समयमें जहा शेष तेरह प्रकृतियें नाश होती हैं - समाप्त होती है । अर्थात मोक्षमार्ग बदलकर मोक्षरूप पर्याय हो जाती है। पुद्गलमें यदि सुवर्ण धातुको द्रव्य माना जावे तो उस सुवर्णके पहले कड़े बनाओ, फिर तोडकर भुजबध बनाओ फिर मुद्रिका बनाओ इत्यादि चाहे जितनी अवस्थाओं में बदलो वह सुवर्णका सुवर्ण ही रहेगा। सुवर्णकी अपे
से नित्य है यद्यपि अपनी अवस्थाको बदलनेकी अपेक्षा अनित्य है । द्रव्यकी अपेक्षा हरएक द्रव्यकी पर्यायमें एकता है जब कि पर्यायी अपेक्षा अनेकता या भिन्नता है। ऐसा ही जगतका स्व-भाव है । यह पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है । जो कुछ रचना नगर मकान, कपडे, वर्तन आदिकी व चेतन पुरुष, स्त्री, घोड़ा, हाथी, ऊट, बंदर, आदिकी देख रहे हैं सो सब क्षणभंगुर है-इन अवस्थाओंको नित्य मानना अज्ञान है व इनके मोहमें फस जाना मूढ़ता या मिथ्यात्व है । मोही प्राणी इन ही अवस्थाओंमें राग करके इनका बना रहना चाहता है परन्तु वे एकसी रह नही सक्ती हैंअवश्य बदल जाती है तब इस मोहीको महा कष्ट होता है। एक गृहस्थ अपनी पत्नी के शरीरकी सुन्दरतासे अधिक मोह कर रहा
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