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द्वितीय खंड
[२८५ उत्यानिका-आगे कहते हैं कि आत्मा दो परमाणु - आदि धारी परमाणुओंके स्कंधोंको आदि लेकर अनेक प्रकारके स्कंधोका कर्ता नहीं है:
दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा वादा ससंठाणा'। पुढविजलेतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायते ॥ ७८ ॥ द्विप्रदेशादयः स्कन्धाः सूक्ष्मा वा यादरा संस्थानाः । पृथिवीजल्सेनोवायव स्वर परिणाम यन्ते ॥ ८ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थः-(दुपदेसादी खंधा) दो परमागुके स्कधसे आदि लेकर अनन्त परमाणुके स्कंध तक तथा (सुहमा वा वादरा) सूक्ष्म या बादर ( ससठाणा ) यथासमव गोल, चौखुटे भादि अपने अपने आकारको लिये हुए (पुढविजलतेउवाऊ) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ( संगपरिणमेंहि ) अपने ही चिकने रूखे परिणामोंकी विचित्रतासे परस्पर मिलते हुए (जायते ) पैदा होते रहते है।
विशेषार्थ-संसारी अनंत जीव यद्यपि निश्चयसे टाकीमें उकेरी मूर्तिके समान ज्ञायक मात्र एक स्वरूपकी अपेक्षासे शुद्ध बुद्धमई एक स्वभावके धारी है तथापि व्यवहारनयसे अनादि कर्मबंधकी उपाधिके वशसे अपने शुद्ध आत्मस्वभावको न पाते हुए पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायुकायिक होकर पैदा होते है । यद्यपि वे इन पृथ्वी आदि कायोंमें आकर जन्मते है तथापि वे जीव अपनी ही भीतरी सुखं दुःख आदि रूप परिणतिके ही अशुद्ध उपादान कारण है, पृथ्वी आदि कायोमें परिणेमने किये हुए पुगलोके नहीं । कारण यह है कि उनका उपादान कारण पुद्गलके