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श्रीप्रवचनसारीका |
स्कंध ही हैं । इसलिये यह जाना जाता है कि पुगलके पिडोंका कर्ता जीव नहीं है।
भावार्थ - यहां आचार्य ने यह बात दिखाई है कि आत्मा अमूर्तीक है तथा स्पर्श रस गंध वर्णसे रहित है इसलिये वह अपने ही ज्ञानादिगुणोंकी परिणतिके सिवाय किसी भी मूर्तीक पुगलकी पर्यायका उपादान कारण नही होसक्ता है । क्योकि कार्य उपादान कारणके समान होता है अर्थात् उपादान कारण ही दूसरे समयमे स्वयं कार्यमें बदल जाता है। मिट्टीका पिंड स्वयं ही घड़ा बनजाता है। गेहूंका आटा स्वयं ही रोटीमें बदल जाता है। सुवर्णकी डली स्वय कंकणरूप होजाती है । इसलिये जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु जगतमे दीख पडते हैं चाहे वे अचित्तरूप हो, अर्थात् जीव रहित हों या सचित्तरूप हों अर्थात् जीव सहित हो, चाहे वे सूक्ष्म हों अर्थात् इंद्रियगोचर न हो व बाधारहित हों, चाहे वे बादर हों अर्थात् इंद्रियगोचर व बाधासहित हों आहारक वर्गणा नामके स्कंधोके परस्पर मिलनेसे बनते हैं। तथा अनेक तरहके स्कंध परमाणुओंके मिलनेसे बनते हैं । श्री गोमटसारमें संख्याताणु, असंख्याताणु, अनंताणु, आहारक वर्गणा, तैजस वर्गणा, भाषा वर्गणा, मनो वर्गणा, कार्माण वर्गणा आदि बाईस प्रकारकी वर्गणाएं बताई हैं वे सब परमाणुओंके परस्पर मिलनेसे ही बनती हैं । इन वर्गणाओंसे ही जीवोंके औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, वैजस और कार्माण शरीर बनते है । अपने स्निग्ध रूक्ष गुणोके कारण पुद्गलोंमें परस्पर मिलकर बंध होनेकी व बिछुड़नेकी शक्ति - मौजूद है। पुद्गल स्वभावसे ही परिणमन करते है। पुद्गलोंके