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द्वितीय खंड।
[२१६ काल पर्याय समय है वह कालाणुके भिन्नरपनेसे सिद्ध होता है, एकतासे नही । और भी कालके अखंड माननेसे दोष आता. है। कालके तिर्यक् प्रचय नहीं है, उर्ध्व प्रचय है। जो कालको असंख्यात प्रदेशी माना जावे तो कालके तिर्यक् प्रचय होना चाहिये वही तिर्यक् , उर्ध्व प्रचय हो जावेगा। वह इस तरहसे होगा कि असख्यात प्रदेशी काल प्रथम तो एक प्रदेशकर प्रवृत्त होता है इससे आगे अन्य पदेशकर प्रवृत्त होता है । उससे भी आगे अन्य प्रदेशकर प्रवृत्त होता है इस तरह क्रमसे असंख्यात प्रदेशोसे प्रवृत्त होवे तो तिर्यक् प्रचय ही उर्व प्रचय हो जायगा। एक एक प्रदेश विष कालव्यको क्रमसे प्रवृत्त होनेसे कालद्रव्य भी प्रदेश मात्र ही सिद्ध होता है । इस कारण जो पुरुष तिर्यक् प्रचयको ऊर्ध्व प्रचय दोष नहीं चाहते है वे पहले ही प्रदेशमात्र कालद्रव्यको मानें जिससे कि कालद्रव्यकी सिद्धि अच्छी तरह होवै।" ____ भाव यही है कि यदि असंख्यात प्रदेशी कालको अखंड माना जावे तो उस अखंडकी एक साथ एक पर्याय होनी चाहिये उसके लिये निमित्त कोई हो नहीं सक्ता । पुद्गलका एक परमाणु भिन्नर निकटवर्ती कालाणु होनेपर ही एक कालाणुसे दूमरेपर मंद गतिसे ना सक्ता है तव समयपर्याय होती है। अखड द्रव्यमें कहांसे कहां कालाणु जावे यह नियम न रहेगा | इस लिये कालद्रव्यको एक प्रदेशमात्र मानना होगा।
इस गाथामें आचार्यने यह बता दिया है कि कालद्रव्य है क्योंकि समय पर्यायका प्रगटपना है। एक समय-जब उदय होता है तब पिछला समय नष्ट होता है। यह समयकी अवस्थाके पलटनेका