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________________ “२२० । श्रोप्रवचनसारटीका । जब तक कोई आधार न हो तबतक समयपर्याय हो नहीं सकी। इस लिये इस पर्यायका आधार एक प्रदेशी कालाणु द्रव्य है। ऐसे कालाणु लोकानागमें असंख्यात हैं। सर्व ही जगह पुद्गलके परमाणु चल हैं-हिलते रहते हैं इस लिये सर्व ही कालाणुओमें समयपर्याय हरक्षण होती रहती है। कालद्रव्यको माने विना न तो अन्य द्रव्योंका वर्तन हो सक्ता और न व्यवहार काल हो सका है। इससे काल द्रव्यकी सत्ता एक प्रदेशी सिद्ध है ।। ५४ ॥ - इस तरह निश्चयकालके व्याख्यानकी मुख्यतासे आठवें स्थलमें तीन गाथाएं पूर्ण हुई। इस तरह पूर्वमें कहे प्रमाण " दव्वं नीवमजीवं " इत्यादि उन्नीप्त गाथाओसे आठवें स्थलसे विशेषज्ञेयाधिकार समाप्त हुआ। इसके आगे शुद्ध जीवका अपने द्रव्य और भाव प्राणोके माथ भेदके निमित्त " सपदेसेहि समग्गो " इत्यादि यथाक्रमसे आठ गाथाओ तक सामान्य भेद भावनाका व्याख्यान करते है। उत्थानिका-आगे ज्ञान और ज्ञेयको बतानेके लिये तथा आत्माका चार प्राणोके साथ भेद है इस भावनाके लिये यह सूत्र कहते हैं सपदेसेहि समग्गो लोगो अहि णिविदो णिच्चो। जो तं जाणदि जीवो पाणचदुदाहिस्वो ॥ ५५ ॥ स्वप्रदेशैः समप्रो लोकोऽनिष्ठितो नित्यः । यस्तं जानाति जोवः प्राणचतुष्काभिसंवद्धः ॥ ५५ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(णिचो) द्रव्यार्थिक नयसे नित्य अथवा किसी पुरुषविशेषसे नही किया हुआ सदासे चला आया
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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