SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४] श्रीप्रवचनसारटीका। रूप सुख मेरे हैं इस भावको ममकार कहते हैं। जो अज्ञानी ममकार और अहंकारसे रहित परम चैतन्य चमत्कारकी परिणतिसे छुटे हुए इन अहंकार ममकार भाबोसे परिणमन करते हैं वे जीव कर्मोके उदयसे उत्पन्न परपर्यायमे लीन होनेके कारणसे परसमय रूप मिथ्यादृष्टि कहे जाते हैं। (आदसहावम्मि ठिदा) जो ज्ञानी अपने आत्माके खभावमें ठहरे होते है (ते सगसमया सुणेदव्वा ) वे स्वसमयरूप जानने चाहिये । विस्तार यह है कि जैसे एक रत्न दीपक अनेक प्रकारके घरोमे घुमाए जानेपर भी एक रत्न रूप ही है इसी तरह अनेक शरीरोमें घूमते रहने पर भी मै एक वही शुद्ध आत्मद्रव्य हूं, इस तरह दृढ सरकारके द्वारा जो अपने शुद्धात्मामें ठहरते है वे कर्मोके उदयसे होनेवाली पर्यायमे परिणति न करते हुए अर्थात् कर्मोदय जनित पर्यायको अपनेसे भिन्न जानते हुए स्वसमयरूप होते है ऐसा अर्थ है । ॥ ३ ॥ भावाथ-इस गाथामे आचार्यने मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टीकी अपेक्षासे स्वसमय तथा परसमयका विचार किया है । जो जीव अपने आत्मस्वरूपको भूले हुए परमे आत्मबुद्धि करके जिस शरीरमें आप बसते हैं उम शरीररूप ही अपनेको मानते हैं और उस शरीरसे प्राप्त इन्द्रियोके विषयोके आधीन होकर उन हीके पोषणके लिने इष्ट मा के सचय करने व अनिष्ट सामग्रीसे बचे रहने में उद्यमी रहते हैं तथा इष्टके सयोगमे हर्पित और इष्टके वियोगमें शोकित होते हैं, धनादि स्वार्थक साधनेके निमित्त अन्याय व पर पीडाकारी कार्य करनेमे कुछ भी ग्लानि नही समझते है; जो स्त्री,
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy