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द्वितीय खंड |
य परात्मा स एवाह योऽर स परमनन. । अहमेव मयोपाध्यां नान्य: कश्चिदिनि स्थिति ॥ ३१ ॥ अर्थात् - जो परमात्मा है सो ही मैं हूं, जो मै हू सो ही परमात्मा है इसलिये मेरेद्वारा में ही उपासनाके योग्य हूं अन्य नही ऐसा वस्तुका खभाव है ।
तात्पर्य यह है कि निज स्वभावको जानकर सम्यग्दष्टि होना चाहिये । यही हितका मार्ग है ॥ २ ॥
उत्थानका- आगे यहा प्रसग पाकर परसमय और स्वसमयकी व्यवस्था बताते है -
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जे पज्जयेसु गिरदा जीवा परसमयिगत्ति णिद्दिट्टा | आदसावम्मि विदा ते सगसमया मुणेदव्वा ॥ ३ ॥ ये पर्याये निरता जीवा परसमयिका इति निर्दिष्टा । आत्मस्वभावे स्थितास्ते स्वकममना म तव्या ॥ ३ ॥ सामान्यार्थ - जो जीव शरीर आदि अशुद्ध कर्मजनित अवस्थाओमे लवलीन है वे परसमय रूप कहे गए है तथा जो जीव अपने शुद्ध आत्माके स्वभावमे ठहरे हुए हैं वे स्वस्मयरूप जानने चाहिये ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जे जीवा ) जो जीव (पज्जयेसु णिरदा) पर्यायोमे लवलीन है । अर्थात् जो अज्ञानी जीव अहकार तथा ममकार सहित है वे ( परसमयिगत्ति णिद्दिट्टा ) परसमयरूप कहे गए हैं। विस्तार यह है कि मैं मनुष्य, पशु, देव, नारकी इत्यादि पर्याय रूप हू इस भावको अहंकार कहते है व यह मनुष्य आदि शरीर तथा उस शरीर के आधारसे उत्पन्न पचेद्रियो के विषय
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