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________________ १२] श्रीप्रवचनसारटीका । होते तब वह परमाणु बंध योग्य होजाता है । यह बात आत्माके स्वभावमें नहीं होती है क्योकि आत्माके बंध रागद्वेप भोहके कारणसे होता है सो भाव शुद्धात्मा के विना मोहनीय कर्मके सम्बन्धके कभी सभव नही है । जो कोई इन द्रव्यगुण पर्यायोको नहीं समझते अथवा जो नर नारकादि अशुद्ध पर्यायोमे आशक्त हैअपनेको नर नारकादि रूप ही मानकर वेठा किया करते हैनिरंतर उस शरीरके योग्य क्रियाओमे ही रत रहते है और अपने शुद्ध आत्माके स्वभावको नहीं पहचानते हैं वे ही परसमयरूप मिथ्यादृष्टी बहिरात्मा हैं । तात्पर्य आचार्यका यही है कि इस परसमयपने से इस जीवने अपने आपको ससारमे पराधीन रखकर दुःख उठाया है । इसलिये सुखके अर्थी प्राणीको उचित है कि वह भेद विज्ञानके द्वारा अपने आत्माको जैसा उसका स्वभाव है वैसा जाने, माने और वैसा श्रद्धान करे, अपना मृढपना, मेटकर चतुर यथार्थ ज्ञानी बने । यही कल्याणका मार्ग है । जो देहमे आसक्त हैं वे ही पुनः पुनः देहको धारण करते है, जैसा स्वामी पूज्यपादने समाधिशतकमें कहा है ――― देहान्तरगतेनज देहेऽस्मिन्नात्मभावना | बीज विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७४ ॥ अर्थात् - शरीरमे आत्माकी भावना ही अन्य देह प्राप्तिका बीज है जब कि आत्मामे ही आत्माकी भावना करनी देहसे रहित होनेका बीज है । जब भेदविज्ञान होजाता है तब अपने खभावको सिद्ध • परमात्माके समान अनुभव करता है जैसा समाधिशतकमे कहा है
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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