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________________ द्वितीय खंड | [ १९ विभाव द्रव्य या व्यजन पर्याय है । तथा पुद्गल के स्कंधोका परमाओके मिलने या विछुडनेसे आकारका बदलना सो विभाव व्यंजन या द्रव्यपर्याय है । स्वभाव अर्थ या गुणपर्याय अगुरुलघु गुणके द्वारा सब शुद्ध द्रव्यो सब गुणोमे होती है-इस स्वभाव परिणमनमे भी गुणोका सपना रहता है। जैसे सिद्ध आत्मामे जो अनन्त ज्ञान दर्शन वीर्य आदि है वे हरएक समय उतने ही बने रहते, कम व बढती नहीं होते । यदि कम व बढती होजावें तो उस परिणमनको विभाव परिणमन कहेंगे, स्वभाव परिणमन नही कह सक्ते हैं। गुणोंके एक समान रहनेपर भी परिणमन इसीलिये मानना होगा कि वस्तुका स्वभाव द्रवण या परिणमन रूप है । हम अल्पज्ञानि - योको इस परिणमनका अनुभव अशुद्ध पुद्गल तथा जीवोमे प्रत्यक्ष दीखता है । कपडा रक्खा रक्खा जीर्ण हो जाता है । ज्ञान अनुभव होते होते बढता जाता है । यदि परिणमन शक्ति गुण या द्रव्यमे न होती तो अशुद्ध द्रव्योमे भी परिणमन न होता - जब होता है तब वह शक्ति शुद्ध द्रव्योंमे भी काम करती रहेगी। इसी अनुमानसे हम स्वभाव अर्थ या गुणपर्यायोका अनुमान कर सक्ते है । विभाव अर्थ या गुणपर्यायें ससारी जीन तथा स्कधोमे होती है जैसे जीवके मतिज्ञान, श्रुतज्ञानादि व असयम या सयमके स्थानोका परिणमन तथा कधोमे रससे अन्य रस, गघसे अन्य गध, वर्णसे अन्य वर्ण, जैसे खट्टे आमका मीठा हो जाना । यहापर एक बात और जाननेकी है कि यद्यपि शुद्ध परमाणु जवन्य स्निग्धता रूक्षताकी अपेक्षासे अवध है परन्तु उसमें परिणमन होता रहता है। जिससे कालातरमे जब उसमें अधिक अश स्निग्धता या रूक्षता के
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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