________________
४४]
श्रीप्रवचनसारटीका |
समयमे ही उत्पाद व्यय ध्रौव्यसे परिणमन करता हुआ ही सत्ता लक्षण कहा जाता है तैसे ही सर्व द्रव्योका स्वभाव है यह अर्थ है । भावार्थ - यहा इस गाथामे आचार्यने द्रव्यका स्वभाव स्पष्ट किया है कि सत्ता रूप वस्तु अपने स्वभावमे वर्तन करती हुई द्रव्य कहलाती है । तथा उस सत्ताका यह स्वभाव है कि वह सदा उत्पाद, व्यय, प्रोव्यरूप परिणमन करती है। जिस पदार्थकी सत्ता होगी उसमे पर्यायें होनी ही चाहिये। पूर्व पर्यायका नाश व्यय है, उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति उत्पाद है, इव्यका सदा बना रहना धौव्य है, जो सत्ता है वह अवश्य तीन रूप रहेगी । वृत्तिकारने अरहंत परमात्मापर घटाकर कहा है कि जब अरहंत अवस्थाका उत्पाद व्यय होता है तब ही पूर्वमे जो बाहरवें गुणस्थानमे स्वसंवेदन परिणाम था उसका नाश होता है और आत्माका ध्रौव्य विद्यमान है । इस तरह जब पर्यायार्थिक नयसे भेद करके विचारते हैं तब उत्पाद धौव्यकी कल्पना करते हैं । परन्तु जब द्रव्यार्थिक नयसे विचार करते है तब इस भेदत्रयीको गौण करके सत्ता मात्र द्रव्य है ऐसा कहा जाता है। अभेद नयसे सत्ता एक रूप है, भेद नयसे वही तीन रूप है । इस कथनसे भी आचार्यने अनेकांत मतके गौरवको वताया है । उत्पत्ति, विनाश, धौव्य ये तीन अवस्थाएं पदार्थमे एक ही समय मे नित्त्यत्त्व और अनित्यत्वको झलकाते हैं । पर्यायका नाश व उत्पाद होना अनित्यपनका द्योतक है - तथा द्रव्यका धौव्यपना नित्यत्वका द्योतक है । इससे द्रव्य नित्य नित्त्यात्मक है । यही सिद्धात ठीक है । यदि एकातसे द्रव्यको नित्य ही माने उसमें अनित्य स्वभाव न माने तो क्या