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३८८] श्रोप्रवचनसारटोका। होकर सिद्ध परमात्मा होनाते हैं तब वे 'अनन्तकालके लिये परमसुखी होनाते हैं। उन सर्व भूत भविष्य व वर्तमान सिद्धोंको मैं उनकी भक्ति करके इसलिये नमस्कार करता हूं कि मैं उनके पदपर पहुंच नाऊं तथा मैं उस मोक्षमार्गको भी वारवार भाव और द्रव्य नमस्कार करता हूं निससे भव्य नीव सिद्धपद पाते हैं।
इस ज्ञेय अधिकारका तात्पर्य यह है कि हरएक भव्य जीवको उचित है कि वह अपने आत्माको व जगतके भीतर विद्यमान छ: द्रव्योंके स्वभावोंको समझे फिर यह जाने कि मेरा आत्मा क्यों संसारमें भ्रमण करता है । भ्रमणका कारण कर्मका बंध है । कर्मका बंध अपने अशुद्ध रागद्वेष मोह भावोंसे होता है तथा कर्मोसे मुक्ति वीतराग भावसे होती है और वह वीतराग भाव भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म रूप सर्व क्मोसे भिन्न शुद्ध आत्माके अनुभवसे पदा होता है, ऐसा जानकर भेदविज्ञानका अभ्यास करे कि मैं भिन्न हूं और ये रागादि सब भिन्न हैं । इम भेद विज्ञानके अभ्याससे ही परिणामोंमें विशुद्धता बढ़ जायगी और धीरे २ सर्व मोहका क्षयं होकर यह आत्मा शुद्ध हो जायगा । भेदविज्ञानसे ही खात्मानुभव या स्वात्मध्यान होता है । आत्मध्यान ही कर्मोको जलाकर आत्माको शुद्ध परमात्मा कर देता है । सिद्धिका उपाय एक भेद विज्ञान है जैसा समयसारकलशमें आचार्य अमृतचन्द्र महारानने कहा है:
भावयेभेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया । तावद्यावत्पराच्छ्रुत्वा शानं शाने प्रतिष्ठते ॥ ५ ॥ ६ ॥ भेदविज्ञानंतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । ' तस्यैवाभावठो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥ ७ ॥