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श्रीप्रवचनसारटीका ।
इस आनन्दकी वृद्धिके लिये वह सम्यग्दृष्टी निराकुल होनेके लिये श्रावकके चारित्रको पालता हुआ स्वानुभवके अम्यासको बढ़ाता रहता है | जब उस आत्मानंदके सम्यक् भोगमे परिग्रहका सम्बन्ध बाधक प्रतीत होता है तब सर्व वस्त्रादि परिग्रहको छोड़ अट्ठाईस मूल गुणको धारकर माधु होजाता है । साधुपदमें शरीर मात्रको आहारपानका भाड़ा दे उसके द्वारा अनेक कठिन २ तप करके ध्यानकी शक्तिको बढ़ाता जाता है । आत्मध्यानके, प्रतापसे ही यदि तदभव मोक्ष होना होता है तो उसी भवसे मुक्त होजाता है, नही तो स्वर्गादिमे जाकर परम्पराय मुक्तिका लाभ करता है । यद्यपि इस पञ्चमकालमे यहां भरतक्षेत्रमे मुक्ति नहीं है तथापि हम धर्म प्रतापसे विदेह क्षेत्रमे मनुष्य होकर शीघ्र ही मुक्त हो सक्ते हैं । अब भी इस भरतक्षेत्रमे सातवां गुणस्थान है, मुनि योग्य धर्मध्यान है । इसलिये प्रमाद छोड़ संयमंकी रस्सी पाकर आत्मध्यानके बलसे मोक्षके अविनाशी महल में पहुंचनेका पुरुषार्थ करते. रहना चाहिये | श्री समयसारकलशमें कहा है:1
स्याद्वादकौशलसुनिलसयमाभ्याम् ।
यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः ॥
ज्ञान क्रिया नयपरस्परतीत्रमंत्री
पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमा स एकः ||२१|| ११||
भावार्थ - जो स्याद्वादके ज्ञानमें कुशल होकर सयम पालनेमें निश्चल होता हुआ निरन्तर उपयोग लगाकर अपने आत्माको ध्याता है वही एक ज्ञान और चारित्रकी परस्पर मित्रताका पात्र होता हुआ इस मोक्षमार्गकी भूमिका आश्रय करता है ।