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८०] श्रीप्रवचनसारटीका । तब एक गुणमें भी अनेक गुणोका वैसा ही असर पड़ता है जैसे एक अखण्ड द्रव्यमे सब गुणोंका पड़ता है इसलिये यहां यह कहा गया कि द्रव्यकी सत्ता गुणकी सत्ता पर्यायकी सत्ता सो अपेक्षा, ठीक समझनेसे कोई विरोध नही होसक्ता। इस तरह वस्तुका स्वरूप समझकर एक मोक्षार्थी पुरुपको योग्य है कि वह निज आत्माके द्रव्य, गुण व पर्यायका भिन्न २ विचार करके व निजानुभव जगाकरके परमानन्दका लाभ करे।
उत्थानिका-और भी गुण और गुणीमे प्रदेश भेद नहीं है परन्तु सज्ञादि क्त भेद हे इस तरह अन्यत्वको दृढ़ करते हैं
जं दवंतण्ण गुणो जो विगुणो सो ण तच्चमत्थादो। एसो हि अतव्भावो णेव अभावोति णिहिट्ठो ॥ १७ ॥ यद्रव्य तन्न गुणो योपिगुणः स न तत्त्वमर्थात् ।। एष ह्यतद्भावो नैव अभाव इति निर्दिष्टः ॥ १७ ॥ __ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(जं दव्व) जो द्रव्य है (तण्ण गुणो) वह गुण नहीं है (जो वि गुणो) जो निश्चयसे गुण है (सो अत्थादो ण तच्चम् ) वह स्वरूपके भेदसे द्रव्य नही है (एसो हि अतन्मावो) ऐसा ही स्वरूप भेदरूप अन्यत्व है (णेव अभोवोत्ति) निश्चयसे सर्वथा अभाव नहीं है ऐसा (गिदिट्ठो) सर्वज्ञ द्वारा कहा, गया है ॥
विशेषार्थ-वृत्तिकार मुक्त जीवपर घटाकर समझाते हैं कि जो द्रव्य है सो स्वरूपसे गुण नहीं है । नो मुक्त जीव द्रव्य है सो शुद्ध है वह मात्र गुण नहीं है । उस मुक्त जीव द्रव्य शब्दसे शुद्ध सत्ता गुण वाच्य नही होता है अर्थात नहीं कहा जाता है।