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द्वितीय खंड। उत्पाद व्यय ध्रौव्यकी परस्पर अपेक्षाको बताते हैं-निर्दोष परमास्माकी रुचिरूप सम्यक्त अवस्थाका उत्पाद सम्यक्तसे विपरीत मिथ्यात्त्व पर्यायके नाशके विना नहीं होता है क्योकि उपादान कारणके अभावसे कार्य नहीं बन सकेगा। जब उपादान कारण होगा तब ही कार्य होसक्ता है। जैसे मिट्टीके पिडका नाश हुए विना घड़ा नहीं पेदा होसक्ता है। मिट्टीका पिड उपादान कारण है। दूसरा कारण यह है कि जो मिथ्यात्व पर्यायका नाश है वही सम्यक्तकी पर्यायका प्रतिभास है क्योंकि ऐसा सिद्धांतका वचन है कि "भावान्तरस्वभावरूपो भवत्यभाव " अन्य भाव रूप स्वभाव ही अभाव होता है अर्थात् सर्वथा अभाव नही होता-अन्य अवस्थारूप परिणमना ही अभाव है जैसे घटका उत्पन्न होना ही मिट्टीके पिडका भंग है। यदि मिथ्यात्व पर्यायके भग रूप सम्यक्तके उपादान करणके अभावमे भी शुद्धात्माकी अनुभूतिकी रुचिरूप सम्यक्तका उत्पाद हो जावे तब तो उपादान कारणसे रहित आकाशके पुप्पोंका भी उत्पाद हो जावे सो ऐसा नहीं हो सक्ता है । इसी तरह पर द्रव्य उपादेय है-ग्रहण योग्य है ऐसे मिथ्यात्वका नाश पूर्वमें कहे हुए सम्यक्त पर्यायके उत्पाद विना नहीं होता है क्योकि भगके कारणका अभाव होनेसे भंग नहीं बनेगा जैसे घटकी उत्पत्तिके अभावमे मिट्टीके पिडका नाश नही बनेगा। दूसरा कारण यह है कि सम्यक्त रूप पर्यायकी उत्पत्ति मिथ्यात्त्व रूप पर्यायके अभाव रूपसे ही देखनेमे आती है क्योकि एक पर्यायका अन्य पर्यायमे पलटना होता है। जैसे घट पर्यायकी उत्पत्ति मिट्टीके पिंडके अभाव रूपसे ही होती है। यदि सम्यक्तकी उत्पत्तिकी