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श्रीप्रवचनसारटीका ।
. उत्थानिका- आगे समय संतानरूप ऊर्ध्व प्रचयका अन्वयी
- रूपसे आधारभूत काल द्रव्यको स्थापन करते हैं ।
उप्पादो पद्धसो विजदि जदि जस्स एकसमयम्मि । समयस्त - सोवि समओ सभावसमवहिदो हवदि ॥५२॥ उत्पाद ः प्रध्वसो विद्यते यदि यस्यैकसमयं ।
समयस्य सोऽपि समय: स्वभावसमवस्थितो भवति ॥ ५२ ॥ .
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अन्वय सहिन सामान्यार्थ - (जस्स समयस्स) समय पर्यायको उत्पन्न करनेवाले जिस कालाणु द्रव्यका (एक समयम्मि) एक वर्तमान समय में (जदि) जो (उप्पादो) उत्पाद तथा (पढ़सो) नाश (विज्जदि) होता है ( सो वि समओ) सो ही काल पदार्थ ( सभावसमवद्विदो हवदि) अपने स्वभावमें भले प्रकार स्थित कहता है ।
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विशेषार्थ - कालाणु द्रव्यमें पहली समय पर्यायका नाश, नई समय पर्यायका उत्पाद जिस वर्तमान समयमे होता है, उसी समय इन दोनो उत्पाद और नाशका आधाररूप कालाणुरूप द्रव्य धव्य रहता है । इसतरह उत्पाद व्यय श्रन्यरूप स्वभावमई श्रौव्य
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सत्तारूप अस्तित्व इस काल द्रव्यका भप्रकार सिद्ध है । जैसे एक हाथ की अंगुलीको टेढ़ा करते हुए जिस 'वर्तमान क्षणमें ही वक अवस्थाका उत्पाद हुआ है उसी ही क्षण में उसी ही अंगुली द्रव्यकी पहली सीधीपनेकी पर्यायका नाश हुआ है परंतु इन दोनोकी आधारभूत अंगुली द्रव्य ध्रौव्य है । इसतरह द्रव्यकी सिद्धि होती है अथवा जिस किसी आत्मद्रव्य में अपने खभावमई सुखका जिस क्षण में उत्पाद है उसी ही क्षण में, उसके पूर्व अनुभव होनेवाले आकुलतारूप दुःख पर्यायका नाश है परंतु इन दोनोके