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________________ द्वितीय खंड। [२७ एक है जव कि एक जीव अनेक गुणोकी अपेक्षा अनेक रूप है। जीवका लक्षण उपयोगवान है जब कि ज्ञानका लक्षण विशेषाकार जानना है । जीवका प्रयोजन स्वात्मानदका लाभ है जब कि ज्ञानका प्रयोजन जेयोंको जानना है। द्रव्यका स्वभाव अच्छी तरह समझकर हमे निज आत्म द्रव्यको सतूरूप, उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप तथा गुण पर्यायरूप जानकर निज आत्माके स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान दर्शन वीर्य आनन्दादि गुणोमे तन्मय होकर निज आत्माका अनुभव करना चाहिये जिससे चारित्रका लाभ हो और शुख शांतिका खाद आवे । इस तरह नमस्कार गाथा, द्रव्य गुण पर्याय कथन गाथा, खसमय परसमय निरूपण गाथा, सत्तादि लक्षणत्रय सूचन गाथा इस तरह स्वतंत्र चार गाथाओसे पीठिका नामका पहला स्थल पूर्ण हुआ। । उत्थानिका-आगे अस्तित्त्व या सत्के दो प्रकार स्वरूप अस्तित्त्व व सादृश्य अस्तित्त्वमेसे स्वरूप अस्तित्त्वको बताते है सम्भावो हि सहावो गुणेहि सगपजएहिं चित्तहि । दव्यस्स सव्यकालं उप्पादच्वयधुवत्तेहिं ॥५॥ सद्भायो हि स्वभावो गुण स्थापयश्चित्रै । द्रव्यस्य सर्वकालमुत्पादध्ययध्रुवत् ॥ ५॥ सामान्यार्थ-अपने गुण और नाना प्रकारकी अपनी पर्यायो करके तथा उत्पाट व्यय ध्रौव्य करके द्रव्यका सर्व कालमे जो सद्भाव है वही निश्चय करके उसका स्वभाव है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(चित्तेहि गुणेहि सगपजएहि ) नाना प्रकारके अपने गुण और अपनी पर्यायोंके साथ अर्थात् सिद्ध नाना प्रकारकी से व्यय धौव्य सद्भाव है
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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