________________
8 ]
श्रीप्रवचनसारटीका |
अन्वय सहित विशेषार्थः -- क्योकि सम्यग्दर्शन के विना साधु नही होता है (तम्हा) इस कारणसे ( तस्स) उस सम्यक्त सहित सम्यचारित्रसे युक्त पूर्व में कहे हुए साधुको (णमाई किच्चा ) नमस्कार करके ( णिचंपित मणो होज्ज) तथा नित्य ही उन साधुओमें मनको धारण करके (परमट्टविणिच्छयाधिगमं ) परमार्थ जो एक शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप परमात्मा उसको विशेष करके संशय आदिसे रहित निश्चय करानेवाले सम्यक्तको अर्थात् जिस सम्यक्तसे शका आदि आठ दोष रहित वास्तवमे जो अर्थका ज्ञान होता है उस सम्यक्तको अथवा अनेक धर्मरूप पदार्थ समूहका अधिगम जिससे होता है ऐसे कथनको (सगहादो) संक्षेपसे (वोच्छामि ) कहूगा ।
भावार्थ यहां पर श्री कुंदकुंदाचार्य देव पहले ज्ञानतत्त्व अधिकारको कहकर अब ज्ञेयतत्त्व अधिकारके कहनेकी प्रतिज्ञा करते है । सम्यक् दर्शन यथार्थ पदार्थोंके ज्ञान तथा श्रद्धानसे होता है इस लिये सम्यक्तके विषयभूत पढार्थोका कथन इस अधिकार मे किया जायगा । क्योकि जबतक स्वपर पढ़ार्थका भेद ज्ञान नही होता है तबतक सम्यग्दर्शनका लाभ नही हो सक्ता । सम्यक्तकी प्राप्तिका राजमार्ग अधिगम है । शास्त्र व गुरुके उपदेश द्वारा पदार्थोंका जब ग्रहण होकर उनका मनन किया जाता है तब देशनालब्धि होती है । इसी ही लब्धिके द्वारा कर्मोकी स्थिति घटती है । और प्रायोग्य लब्धि होकर सम्यक्त के लिये साक्षात् कारणरूप 1 परिणामोको प्रगट करनेवाली करणलब्धि होती है। जब लोकमे सत्ताको रखनेवाले द्रव्योके स्वभावका निश्चय किया जाता है तब सर्व द्रव्य भिन्नर भासने लगते है और तब ही अपना शुद्धात्मा भी