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________________ २] श्रीप्रवचनसारटोका। हैं । द्रव्यमें जितनी पर्यायें संभव हैं वे सब उसमें सत्तारूपसे या शक्ति रूपसे मौजूद रहती हैं उन्ही पर्यायोमेंसे कभी कोई कभी कोई पैदा , या प्रगट हुआ करती है, शेष पयायें उसमे शक्ति रूपसे रहती हैं। इससे द्रव्य अपनी समस्त पर्यायोका समुदाय है। द्रव्य अपनी किमी भी पर्यायमे हो वह द्रव्य ही है-द्रव्यपनेसे अलग नहीं है। द्रव्यने स्वंय ही अपनी पर्यायको धारण किया है इससे वह द्रव्य ही है. इंस द्रव्यकी अपेक्षा या दृष्टिको ध्यानमें लेकर जब देखा जायगा तव द्रव्य अपनी हरएक पर्यायमें द्रव्य ही दिखलाई पडेगा । इस इंष्टिसे द्रव्यके उत्पादको सत् या सद्भाव उत्पाद कहते हैं, परन्तु जब पर्याय मात्रका विचार करे तो द्रव्यमें एक पर्याय एक समयमें प्रगट रहेगी दूसरी अप्रगट रहेगी, तब जो प्रगट होगी वह वही प्रगट हुई जो पहले प्रगट नहीं थी तथा जब यह पर्याय प्रगट हुई तब पहली पर्याय नष्ट होगई या अप्रगट होगई इसलिये इस पर्यायकी दृष्टिमें जो द्रव्यकी पर्यायें होती हैं उनको असत् या असदभाव उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टीके पिडसे घट बनाया। इसमें घटकी पर्यायकी प्रगटता मिट्टीकी अपेक्षा सत् उत्पाद है क्योकि मिट्टी ही घट रूप परिणमी है तथा पिडकी दशामे घट न था इस अपेक्षा घटका उपनना असत् उत्पाद है। एक जीव निगोदकी पर्यायमें था वही जीव भ्रमण करते करते पंचेंद्री पशु होगया यह पशु पर्याय उस जीवकी अपेक्षा संतु उत्पाद है परन्तु नवीन पर्यायकी अपेक्षा असत् उत्पाद है । द्रव्य नितनी भी पर्यायें धारण करे अपने स्वभाव या गुणको नहीं त्याग बैठता है। इसी बातको बतानेवाला संत उत्पाद है । जीवकी हरएक पर्यायमें चेतनपना बना रहेगा। पुद्गलकी
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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