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। द्वितीय खंड |
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भावार्थ - जो संज्ञा आदि मेदसे मूर्तिमान है, प्रदेशापेक्षा वर्णादिमई मूर्ति से अभेद है; पृथ्वी, जल, तेज, वायु इन चार धातुओंका कारण है, परिणमन स्वभाव है, स्वयं शब्दरहित है सो परमाणु है ।
सद्दो धप्पभवो धो परमाणुस संघादो ।
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पुट्ठेसु तेसु जायदि सदो उप्पादगो णियदो ॥७९॥ भावार्थ - शब्द स्कंधोके द्वारा पैदा होता है, स्कंध परमाणुओ मेलसे बनते हैं और उन स्कंधोके परस्पर संघट्ट होने पर शब्द "पैदा होता है - भाषा वर्गणा योग्य सूक्ष्म स्कंध जो शब्दके अभ्यंतर कारण हैं लोकमें हर जगह हर समय मौजूद हैं । जब तालु, ओठ आदिका व्यापार होता है या घटेकी चोट होती है या मेघादिका मिलान होता है तब भाषा वर्गणा योग्य पुद्गल स्वयं शब्द रूपमें परिणमन कर जाते है । निश्वयसे भाषा वर्गणा योग्य पुद्गल ही शब्दों के उत्पन्न करनेवाले हैं ॥ ४१ ॥
उत्थानिका- आगे आकाश आदि अमूर्त द्रव्योंके गुणोंको बताते हैं.
आगासस्तवगाहो धम्मद्दव्यस्स गमणहेदुत्त । धम्मेदरदवस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा ॥ ४२ ॥ कालस्स चट्टणा से गुणोवओगोत्ति अप्पणो भणिदो ! या संखेवादो गुणा हि मुत्तिप्पहोणाणं ॥ ४३ ॥ आकाशस्यावगाहो धर्मद्रव्यन्य गमनहेतुत्वम् । धर्मतरद्रव्यस्य तु गुण पुनः स्थानकारणता ॥ ४२ ॥
कालस्य वर्तना स्यात् गुण उपयोग इति आत्मनो भणितः । शेया सक्षेपाद् गुणा हि मूर्तिप्रहीणानाम् ||४३|| ( युगलम् )
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