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द्वितीय खंड ।
[७ स्वरूप द्रव्य व गुणोसे पर्याये होती है । जो एक दूसरेसे भिन्न अथवा क्रमक्रमसे हो उनको पर्याय कहते हैं यह पर्यायका लक्षण है। जैसे एक सिद्ध भगवानरूपी द्रव्यमे अंतिम शरीरसे कुछ कम आकारमयी गति मार्गणासे विलक्षण सिद्धगति रूप पर्याय है तथा अगुरुलघु गुणमे षट्गुणी वृद्धि तथा हानिरूप साधारण स्वाभाविक गुण पर्यायें है तेसे सर्व द्रव्योमे स्वाभाविक द्रव्य पर्यायें, स्वजातीय विभाव द्रव्य पर्याय तेसे ही खाभाविक और वैभाविक गुण पर्यायें होती हैं। "जेसि अस्थिरहाओ" इत्यादि गाथामे तथा “भावा जीवादीया " इत्यादि गाथामे श्री पचास्तिकायके भीतर पहले कथन किया गया है सो वहांसे यथासभव जान लेना योग्य है। (पञ्जय मूढा ) जो इस प्रकार द्रव्य गुण पर्यायके जानसे मूढ है अथवा मै नारकी आदि पर्यायरूप नही हू इस भेदविज्ञानको न समझकर अज्ञानी हैं वे (हि) वास्तवमे (परसमया ) परात्मवादी मिथ्यादृष्टी है । इसलिये यही जिनेन्द्र परमेश्वरकी करी हुई समीचीन द्रव्यगुण पर्यायकी व्याख्या कल्याणकारी है यह अभिप्राय है||२||
भावार्थ-ज्ञानके विषयभूत पदार्थ होते है । पदार्थ निश्चयसे द्रव्यरूप होते है । द्रव्यमे सामान्यपना होता है । कालकी अपेक्षा हरएक भिन्नर समयमे भी यह वही है ऐसी प्रतीतिको कराता है इसको उता सामान्य कहते है। यही द्रव्यका स्वभाव द्रव्यकी नित्यताका बतानेवाला है। तथा जो द्रव्य अनेक हैं जैसे जीव, पुद्गल और कालाणु उनमें हरएक समयमे सबको एक जाति रूपसे प्रतीति करानेवाला तिर्यक् सामान्य है। जितने जीव हैं उन सवको हम जातिकी अपेक्षा एक समझेंगे क्योकि जीवपना उन