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'३८०] श्रीप्रवचनसारटोका । स्पर बंधकी मुख्यतासे दूसरी विशेष अन्तर अधिकार है। फिर "अरसमरूव" इत्यादि उन्नीस गाथा 'तक जीवका पुद्गल कोके'साथ बंध कथनकी मुख्यतासे 'तीसरा विशेष अंतर अधिकार है फिर " ण चयदि जो दु ममत्ति" इत्यादि बारह गाथाओं तक विशेष भेदभावनाकी चूलिकारूप व्याख्यान है ऐसा चौंथा चारित्र विशेषका अंतर अधिकार है इस तरह इक्यावन गाथाओसे चार विशेष अंतर 'अधिकारोंसे विशेष भेदभावना नामक चौथा अंतर अधिकार पूर्ण हुआ।
___ इस तरह श्री जयसेनाचार्य कंत तात्पर्यवृत्तिमें " तम्हा 'देसण माई ” इत्यादि पैंतीस गाथाओं तक सामान्य ज्ञेयका व्याख्यान है फिर "दव्व जीव” इत्यादि उन्नीस गाथाओं तक जीव पुद्गलधर्मोदि भेदंसे विशेष ज्ञेयंका व्याख्यान है फिर "सपदेसेहि समग्गो" इत्यादि आठ गाथाओं तक सामान्य भेदभावना है पश्चात् " अत्थित्तणिच्छिदस्सहि " इत्यादि इक्यावन गाथाओं तक विशेष भेदभावना है इस तरह चार अंतर अधिकारोंमें एकसौ तेरह गोथाओंसे सम्यग्दशन नामका अधिकार अथवा ज्ञेयोधिकार नामका दूसरी महाधिकार समाप्त हुआ ॥
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