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द्वितीय खंड |
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जिस ध्यान से यह आत्मा शुद्ध होता है वह ध्यान मी अभेद से आत्मा ही है । श्री तत्वानुशासन में मुनि नागसेन कहते है-स्वात्मानं स्वात्मनि वेन घ्यायेत्स्वस्मै रुग्तो यतः । पट्कारक मयस्तस्मादुद्ध्यानमात्मैव निश्चयात् ॥ ७४ ॥ भावार्थ- क्योकि यह आत्मा स्वस्वरूपसे ही अपने ही आत्मामें अपने ही आत्माको अपने ही द्वारा अपने ही लिये ध्याता है इसलिये पट् कारकमई यह आत्मा ही निश्रयसे ध्यान है ।
अतएव स्वावलम्बन द्वारा अपना उन्हार आप करना चाहिये || ३८ इस तरह एक सूत्र से पांचमा स्थल पूर्ण हुआ
इस तरह सामान्य ज्ञेयके अधिकारके मध्य में पाच स्थलोंसे भेढ़ भावना कही गई । ऊपर कहे प्रमाण " तम्हा तम्स णमाइ " इत्यादि पैतीस सूत्रोंके द्वारा सामान्य ज्ञेषाधिकारका व्याख्यान पूर्ण हुआ । आगे उन्नीस गाथाओंसे जीव अजीव द्रव्यादिका विवरण करते हुए विशेष ज्ञेयका व्याख्यान करते हैं। इसमें आठ स्थान है । इन आठ से पहले स्थलमे प्रथम ही जीवत्व व अजीवत्वको कहते हुए पहली गाथा, लोक और अलोकपनेको कहते हुए दूसरी, सक्रिय और नि क्रियपनेका व्याख्यान करते हुए तीसरी इस तरह "ढव्वं जीवमजीवं” इत्यादि तीन गाथाओंसे पहला स्थल है। इसके पीछे ज्ञान आदि विशेष गुणोका स्वरूप कहते हुए "लिंगेहिं जेहि" इत्यादि ढो गाथाओसे दूसरा स्थल है । आगे अपने अपने गुणोसे द्रव्य पहचाने जाते है इसके निर्णयके लिये “ वण्णरसं " इत्यादि तीन गाथाओसे तीसरा स्थल है। आगे पचास्तिकायके कथन की मुख्यतासे " जीवा पोग्गल काया" इत्यादि दो गाथाओंसे चौथा