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________________ ८] श्रीप्रवचनसारटीका। दर्शन सुख वीर्य रूप अनन्त, चतुष्टय शक्ति रूप सिद्ध पर्यायके साथ अन्य अन्य नहीं है किन्तु तन्मय है-एक है । जैसे कुंडल कंकण आदि पर्यायोंमें सुवर्णका भेद नहीं है। वही सुवर्ण है। परंतु यदि पर्यायकी अपेक्षासे विचार किया जावे तो वह द्रव्य अपनी अनेक पर्यायोके साथ भिन्नर ही है, क्योकि जैसे अग्नि तृणकी अग्नि, काष्ठकी अग्नि, पत्रकी अग्नि रूप अपनी पर्यायोंके साथ उस समय तन्मयी होकर एक रूप भी है और भिन्न २ रूप भी है । तैसे यह जीव द्रव्य अपनी पर्यायोके साथ अन्य अन्य होकर भी भिन्नर रूप भी है और एक रूप भी है। इससे यह बात कही गई कि जब द्रव्यार्थिक नयसे वस्तुकी परीक्षा की जाती है तब पर्यायोमे सन्तान रूपसे सर्व पर्यायोंका समूह द्रव्य ही प्रगट होता है । परंतु जब पर्यायायिक नयकी विवक्षा की जाती है तब वही द्रव्य पर्याय पर्याय रूपमें भिन्न२ झलकता है । और जब परस्पर अपेक्षासे दोनों नयोंके द्वारा एक ही काल विचार किया जाता है तब व द्रव्य एक ही काल एक रूप और अनेक रूप मालूम होता है । जैसे यहां जीव द्रव्यके सम्बन्धमे व्याख्यान किया गया तैसे सर्व द्रव्योमें यथासंभव जान लेना चाहिये-यह अर्थ है। भावार्थ:-इस गाथामे आचार्यने अभेद और भेद स्वभावोको जो हरएक द्रव्यमें पाए जाते है अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है। द्रव्य अपनी सर्व भूत, वर्तमान, भविष्यकी पर्यायोके साथ तन्मय रहता है-वही होता है-इस अपेक्षासे द्रव्यका अपनी पर्यायोंके साथ अभेद है। पतु हरएक पर्याय अपनी पूर्व या उत्तर पर्यायसे
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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