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________________ द्वितीय खंड | [ee भिन्न २ है इसलिये वह द्रव्य अपनी हरएक विशेष अवस्थामें एकरूप नहीं किन्तु भिन्न २ है - इस तरह पर्यायोंकी अपेक्षा भेद है। वास्तवमें द्रव्य में एक ही समयमें अभेद स्वभाव और भेद स्वभाव दोनों ही पाए जाते हैं । इन दो भिन्न २ स्वभावोंको जब हम अपनी पर्यायको देखने वाली दृष्टिको बन्द कर द्रव्य सामान्यको देखनेवाली दृष्टिसे अर्थात् द्रव्यार्थिक नयसे देखते हैं तब हमकों वह द्रव्य हरएक पर्याय में वही झलकता है अर्थात उस समय द्रव्यका अभेद स्वभाव प्रगट होता है । परन्तु जब हम द्रव्यको देखनेबाली दृष्टिको चंदकर पर्यायको देखनेवाली दृष्टिसे या पर्यार्थिक नयसे देखते हैं तब हमको वह द्रव्य हरएक पर्यायमें अन्य २ ही झलकता है अर्थात् उस समय द्रव्यका भेद स्वभाव ही प्रगट होता है। परंतु जब हम दोनो दृष्टियोसे एक काल देखने लगजावें तक वह द्रव्य एक काल द्रव्यकी अपेक्षा अमेद रूप और पर्यायकी अपेक्षा भेद रूप दिखता है। जैसे एक जीव जो निगोद पर्यायमें या वही एकेन्द्री, हेन्द्री, तेन्द्री, चौंद्री, पर्चेन्द्री होकर मनुष्य हो, रत्नत्रय धर्मका लाभ पाकर केवलज्ञानी हो, सिद्ध होजाता है - वही जीव है यह प्रतीत अभेद स्वरूपकी बतानेवाली है परंतु जब पर्याय पर्यायका मिलान करते हैं तो बडा भेद हैं- एकेन्द्रीकी जो अवस्था है वह द्वेन्द्रिय त्रस आदिकी नहीं, द्वेन्द्रिय सकी जो अवस्था है वह एकेन्द्रिय तेन्द्रिय आदिकी नहीं, पशुकी जो अवस्था है वह मनुष्यकी नहीं, मनुष्यकी जो अवस्था है वह देव आदिकी नही, मिय्यादृष्टीकी जो अवस्था है वह सम्यग्टष्टीकी नहीं, गृहस्थकी जो अवस्था है वह साधुकी नहीं, साधुकी जो
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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