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________________ द्वितीय खंड। [२६६ कर्मके उदयसे स्वयमेव होता रहता है। वे वर्गणाएं आप ही पर्याप्ति निर्माण अगोपाग आदिके उदयसे औदारिक या वैक्रियिक शरीरके आकार परिणमनकर जाती है। जैसे जीवके अशुद्ध भावोका निमित्त पाकर लोकमे सर्वत्र भरी हुई कार्माण वर्गणाए स्वय ही ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूप परिणमन कर जाती है, इसी तरह नाम व गोत्रके उदयसे भिन्न २ जातिकी वर्गणाए स्वय ही अनेक प्रकारके देव, नारकी, मनुष्य, तियेचोके शरीरोंके आकाररूप परिणमन कर जाती है । जैसे जीव द्रव्य कर्मोशा निश्चय नबसे उपादान या निमित्तकर्ता नहीं है तैसे यह जीव शरीरोका भी उपादान या निमित्तकर्ता नहीं है । इसलिये मै सब प्रकारके पौगलिक शरीरोसे भिन्न होकर उनका किसी तरह कर्ता धर्ता नहीं हू ऐसा अनुभव करके निज आत्माक शुद्ध स्वभावमें ही उपयुक्त रहना योग्य है। श्री गुणभद्राचार्य आत्मानुशासनमे कहते है कि यह शरीररूप कैदखाना जीवका रचा नही है, कर्मोका रचा है। जैसे अस्थिस्थूलनुलाकलापघटिन नद्ध शिगस्नायुभिश्चर्माच्छादितमलसान्द्रगिशितलिप्त सुगुप्त खलै. ॥ कर्मारातिभिरायुरुचनिगाल्न शरीरालयकारागारमवेहि ते स्तमते प्रोतिं वृथा मा कृयाः ॥ ५९॥ भादाथ-यह शरीररूपी जेलखाना है जिसको दुष्ट कर्मरूपी शत्रुओने बनाया है। यह शरीररूपी कारागार हड्डियोसे बना हुआ, नसोके जालोसे वेष्ठित, चर्मसे ढका हुआ तथा रुधिर व गीले माससे लिप्त अति गुप्त बनाया गया है जिसमे रहनेवाले जीवके पैरमे आयुक्रर्मकी दृढ मंजीरें लगी हुई है। हे निर्बुद्धि ! तू इस शरीरको कैदखाना जानकर इससे वृथा प्रीति मतकर ।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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