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२०२] श्रीप्रवचनसारटोका।
आकाशमनुनिविष्टमाकाशप्रदेशतरा भणितम् । . सर्वेषां चाणूना शनोति यहानुमक्काशम् ॥ ५० ॥
अन्वय सहित सामान्यायः-(अणुणिविटुं आगासम्) अविभागी पुद्गलके परमाणुद्वारा व्याप्त जो आकाश है उसको (आगासपदेससण्णया) आकागके प्रदेशकी संज्ञासे (भणिद) कहा गया है। तथा (त) वह प्रदेश (मव्वेसि च अणूण) सर्व परमाणु तथा सूक्ष्म स्कंधोंको (अवकास दे सक्कदि) जगह देनेको समर्थ है।
विशेषार्थः-एक परमाणु द्वारा व्याप्त आकाशके प्रदेशमे यदि इतनी जगह देनेकी शक्ति नहीं होती कि वह अन्य परमाणुओंको व सूक्ष्म पदार्थोको जगह दे सक्ता है तो यह अनन्तानन्त जीवराशि और उससे भी अनन्तगुणी पुद्गल रागि किस तरह असंख्यात प्रदेशी लोकाकाशमे जगह पाते ?-इसको विस्तारसे पहले कह चुके है। यदि कोई शंका करे कि अखड आकाशद्रव्यके भीतर प्रदेशोका विभाग कैसे सिद्ध हो सक्ता है तो उसका समाधान करते हैं कि चिदानन्दमई एक स्वभावरूप निन आत्मतत्त्वमें परम एकाग्रता लक्षण समाधिसे उत्पन्न विकार रहित आल्हादमई एक रूप, सुख, अमृत रसके स्वादमें तृप्त दो मुनियोंके जोडेका ठहरनेका क्षेत्र एक है ग अनेक है ? यदि एक ही स्थान । है तब दो मुनियोका एकत्व हो जायगा सो ऐसा नहीं है । और यदि उनका क्षेत्र भिन्न२ है तव अखंड आकाशके भी प्रदेशोका विभाग करनेमे कोई विरोध नहीं आता है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने आकाशके प्रदेशकी सामर्थ्य बताई है । जिस आकाशको एक पुद्गलका परमाणु रोक सक्ता है।