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जयधवलासहितं
क सा य पा हु डं
भाग ७ (पदेसविहची २)
भारतीय दिगम्बर जैन संघ
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भा०दि०जैनसंघग्रन्थमालायाः प्रथमपुष्पस्य सप्तमो दलः
श्री यतिवृषभाचार्यरचितचूर्णिसूत्रसमन्वितम्
श्रीभगवद्गुणधराचार्यप्रणीतम्
कसाय पाहु
पं० फूलचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री
सम्पादक महाबन्ध, सहसम्पादक
धवला
वि० सं० २०१५ ]
तयोश्च
श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका
[ पञ्चमोऽधिकारः प्रदेशविभक्तिः २ ]
सम्पादक
पं० कैलाशचन्द्रः
सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्तशास्त्री, न्याय तीर्थ प्रधानाचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय काशी
प्रकाशक
मन्त्री साहित्य विभाग भा० दि० जैन संघ, चौरासी, मथुरा,
64.
वीरनिर्वाणाब्द २४८५ मूल्यं रूप्यकद्वादशकम्
[ ई० सं० १९५८
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भा० दि० जैनसंघ-ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमालाका उद्देश्य प्राकृत संस्कृत आदि भाषाओंमें निबद्ध दि० जैनागम, दर्शन, साहित्य, पुराण आदिको यथासम्भव हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित करना
सञ्चालक
भा० दि० जैनसंघ
ग्रन्थाङ्क १-७
प्राप्तिस्थान
मैनेजर भा० दि० जैनसंघ
चौरासी, मथुरा
मुद्रक-40 शिवनारायण डपाध्याय, बी० ए०
नया संसार प्रेस भदैनी, वाराणसी।
स्थापनाब्द]
प्रति ८००
[वी०नि० सं० २४६८
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Sri Dig Jain Sangha Granthamala No 1-VII KASAYA-PAHUDAM
VIL PRADESHAVIBHAKTI
BY
GUNADHARACHARYA
WITH
CHURNI SUTRA OF YATIVRASHABHACHARYA
AND
THE JAYADHAVALA COMMENTARY OF
VIRASENACHARYA THERE-UPON
EDITED BY Pandit Phulachandra Siddhantashastri
EDITOR MAHABANDHA JOINT EDITOR DHAVALA.
Pandit Kailashachandra Siddhantashastri
Nyayatirtha, Siddhantaratna, Pradhanadhyapak, Syadvada Digambara Jain
Vidyalaya, Varanasi.
PUBLISHED BY THE SECRETARY PUBLICATION DEPARTMENT, THE ALL-INDIA DIGAMBAR JAIN SANGHA
CHAURASI, MATHURA
VIRA-SAMVAT 2485
VIKRAMA S. 2015
1958 A, C.
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Sri Dig. Jain Sangha Granthamala
Foundation year-]
-Vira Niravan Samvat 2468
Aim of the Series:Publication of Digambara Jain Siddhanta, Darsana, Purana, Sahitya and other works in Prakrit Sanskrit etc, possibly with Hindi
Commentary and Translation
DIRECTOR:SRI BHARATAVARSHIYA DIGAMBARA JAIN SANGHA
NO. 1. VOL. VII.
To be had from: -
THE MANAGER SRI DIG. JAIN SANGHA, CHAURASI. MATHURA,
U. P. ( INDIA )
Printed by PT. S. N. UPADHYAYA, B. A. Naya Sansar Press, Bhadaini Varanasi.
800 Copies,
Price Rs. Twelve only
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प्रकाशककी ओरसे
कसायपाहुडके छठे भागके प्रकाशित होनेसे छै मास पश्चात् ही उसके सातवें भागको पाठकोंके हाथों में अर्पित करते हुए हमें सन्तोषका अनुभव होना स्वाभाविक है ।
छठे भागमें प्रदेशविभक्तिका स्वामित्व अनुयोगद्वार पर्यन्त भाग मुद्रित हुआ है। शेष भाग, मीणाझीण तथा स्थितिके साथ इस सातवें भागमें है। इसीसे इस भागका कलेवर छठे भागसे बहुत अधिक बढ़ गया है। इस भागके साथ प्रदेश विभक्ति अधिकार समाप्त हो जाता है
और जयधवलाका भी पूर्वाधं समाप्त हो जाता है। शेष उत्तरार्थं भी सात या आठ भागोंमें प्रकाशित होगा।
इस समय बाजारमें कागज की स्थिति युद्धकालीन जैसी हो गई है। कागजका मूल्य ड्योड़ा हो जाने पर भी बाजारमें कागज उपलब्ध नहीं है । अतः अगला भाग प्रकाशित होनेमें विलम्ब होना संभव है।
यह भाग भो भा० दिगम्बर जैन संघके अध्यक्ष दानवीर सेठ भागचन्द जी डोंगरगढ़ तथा उनकी दानशीला धर्मपत्नी श्रीमती नवंदाबाईजीके द्वारा प्रदत्त द्रव्यसे हुआ है। कुण्डलपुरमें संघके अधिवेशन पर सेठ साहबने जयधवलाजीके प्रकाशनके लिये ग्यारह हजार रुपया प्रदान किया था। इस वर्ष बामौरामें संघके अधिवेशनके अवसर पर आपने पाँच हजार एक रुपया इसी मदमें और भी प्रदान किया है। सेठ साहब और उनकी धर्मपत्नीकी जिनवाणीके प्रति यह भक्ति तथा उदारता अनुकरणीय है। उनकी इस उदारताके लिये जितना भी धन्यवाद दिया जाये, थोड़ा है।
सेठसाहब की इस दानशीलतामें प्रेरणात्मक सहयोग देनेका श्रेय पं. फलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीको है। आप ही जयधवलाके सम्पादन तथा मुद्रणका भार उठाये हुए हैं। अतः मैं पण्डितजी का भी आभारी हूँ।
काशीमें गङ्गा तट पर स्थित स्व० बाबू छेदीलालजीके जिन मन्दिरके नीचेके भागमें जयधवला कार्यालय अपने जन्म कालसे ही स्थित है और यह सब स्व , बाबू छेदीलालजीके पुत्र स्वर्गीय बाबू गणेशदास तथा पौत्र बा० सालिगरामजी तथा बा० ऋषभदासजीके सौजन्य तथा धर्मप्रेमका परिचायक है। अतः मैं उनका भी आभारी हूँ।
जयधवला कायोलय भदैनी, वाराणसी दीपावली-२४८५
कैलाशचन्द्र शास्त्री मंत्री साहित्य विभाग भा० दि. जैन संघ
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विषय-परिचय
पूर्व में प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्तिका विचार कर आये हैं । प्रकृतमें प्रदेशविभक्तिका विचार करना है । कर्मों का बन्ध होने पर तत्काल बन्धको प्राप्त होनेवाले ज्ञानावरणादि आठ या सात कर्मों को जो द्रव्य मिलता है उसकी प्रदेश संज्ञा है । यह दो प्रकारका है – एक मात्र बन्धके समय प्राप्त होनेवाला द्रव्य और दूसरा बन्ध होकर सत्ता में स्थित द्रव्य । केवल बन्धके समय प्राप्त होनेवाले द्रव्यका विचार महाबन्धमें किया है । यहाँ वर्तमान बन्धके साथ सत्ता में स्थित जितना द्रव्य होता है उस सबका विचार किया गया है। उसमें भी ज्ञानावरणादि सब कर्मों की अपेक्षा विचार न कर यहाँ पर मात्र मोहनीयकर्मकी अपेक्षा विचार किया गया है । मोहनीयकर्मके कुल भेद अट्ठाईस हैं । सर्व प्रथम इन भेदों का आश्रय लिये बिना और बाद में इन भेदोंका आश्रय लेकर प्रस्तुत अधिकार में विविध अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे प्रदेशविभक्तिका साङ्गोपाङ्ग विचार किया गया है। यहाँ पर जिन अनुयोगद्वारोंके आश्रय से विचार किया गया है वे अनुयोगद्वार ये हैं- भागाभाग, सर्वप्रदेशविभक्ति, नोसर्वं प्रदेशविभक्ति, उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति, अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति, जघन्य प्रदेशविभक्ति, अजघन्य प्रदेशविभक्ति, सादिप्रदेशविभक्ति, अनादिप्रदेशविभक्ति, ध्रुवप्रदेशविभक्ति, अध्रुवप्रदेशविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भङ्गविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । मात्र उत्तरप्रदेशविभक्तिका विचार करते समय सन्निकर्ष नामक एक अनुयोगद्वार और अधिक हो जाता है । कारण स्पष्ट है ।
भागाभाग — इस अनुयोगद्वार में उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इन चार पदोंका आयकर एक बार जीवों की अपेक्षा और दूसरी बार सत्ता में स्थित कर्म परमाणुओं की अपेक्षा कौन कितने भागप्रमारा हैं इसका विचार किया गया है, इसलिए इस दृष्टिसे भागाभाग दो प्रकारका है— जीवभागाभाग और प्रदेशभागाभाग । जीवभागाभागका विचार करते हुए बतलाया है कि उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । इसीप्रकार जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंके विषय में जानना चाहिए। यह ओघ प्ररूपणा है । आदेशसे सब मार्गणाओं में अपनी-अपनी संख्याको जानकर यह भागाभाग समझ लेना चाहिए । प्रदेश भागाभागका विचार करते हुए सर्व प्रथम तो सामान्यसे मोहनीय कर्मकी अपेक्षा प्रदेशभागाभागका निषेध किया है, क्योंकि अवान्तर भेदोंकी विवक्षा किये बिना मोहनीय कर्म एक है, इसलिए उसमें भागाभाग घटित नहीं होता। इसके बाद ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की अपेक्षा सामान्यसे मोहनीय कर्मको कितना द्रव्य मिलता है इसका विचार करते हुए बतलाया गया है कि आठ कर्मों का जो समुच्चयरूप द्रव्य है उसमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे सब द्रव्यमेंसे अलग करके बचे हुए शेष बहुभागप्रमाण द्रव्य के आठ पुञ्ज करके आठों कर्मों में अलग-अलग विभक्त करदे। उसके बाद जो एक भाग बचा है उसमें पुनः आलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उसे अलग करके शेष बहुभागप्रमाण द्रव्य वेदनीयको दे दे । पुनः बचे हुए एक भागमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो बहुभागप्रमाण द्रव्य शेष रहे उसे मोहनीयको दे दे । लब्ध द्रव्यमें पुनः आवलि के
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( ३ )
असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो बहुभाग शेष रहे वह समान रूपसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों में बाँट दे । लब्ध द्रव्यमें पुनः आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर बहुभागप्रमाण बचे हुए द्रव्यको नाम और गोत्र इन दो कर्मों में बाँट दे । तथा अन्तमें लब्ध रूपमें जो एक भाग बचता है वह आयु कर्मको दे दे । इस प्रकार विभाग करने पर मोहनीय कर्मको प्राप्त हुआ द्रव्य आ जाता है। मोहनीयकर्मको प्राप्त हुआ यह द्रव्य उत्कृष्ट और जघन्यके भेदसे दो प्रकारका होकर भी सब कर्मों की अपेक्षा पूर्व में जो विभागका क्रम बतलाया है उसमें कोई बाधा नहीं आती । इस प्रकार ज्ञानावरणादि आठ कर्मों को जो द्रव्य मिलता है उसका अलग अलग विचार करनेपर आयु कर्मको सबसे स्तोक द्रव्य मिलता है। नाम और गोत्र कर्मका द्रव्य परस्परमें समान होकर भी आयुकर्मके द्रव्यसे विशेष अधिक होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मको मिलनेवाला द्रव्य परस्परमें समान होकर भी नाम और गोत्रकर्मको मिले हुए द्रव्यसे विशेष अधिक होता है। इससे मोहनीय कर्मका द्रव्य विशेष अधिक होता है और मोहनीयके द्रव्यसे वेदनीयकर्मका द्रव्य विशेष अधिक होता है । यह ओघप्ररूपणा है । सब मार्गणाओं में इसे इसीप्रकार यथायोग्य घटित कर लेना चाहिए ।
उत्तरप्रकृतियोंमें मोहनीय कर्मके सब द्रव्यका विभाग करते हुए पहले उसमें अनन्तका भाग दिलाकर एक भाग सर्वघाति द्रव्य और शेष बहुभाग देशघाति द्रव्य बतलाया गया है । देशघाति द्रव्यमें भी कषाय और नोकषाय रूपसे उसे बाँटा गया है । बादमें प्रत्येकका अपने अपने अवान्तर भेदों में बटवारा किया गया है । इसी प्रकार सर्वघाति द्रव्यको भी सर्वघाति प्रकृतियों में विभक्त करके बतलाया गया है । इस विषयकी विशेष जानकारीके लिए मूलमें देख लेना चाहिए । गति आदि मार्गणाओं में विचार करते समय नरकगतिमें जो विशेषता है उसका अलग से निर्देश करके अन्यत्र भी जान लेने की सूचना की गई है। इस प्रसङ्गसे गतिसम्बन्धी जिन मार्गणाओं में नरकगतिसे कुछ विशेषता है उसका निर्देश करके उत्कृष्ट भागाभाग प्ररूपणाको समाप्त किया गया है । जघन्य भागाभागका भी इसी प्रकार स्वतन्त्रतासे विचार करते हुए ओ और आदेश से उसका अलग अलग स्पष्टीकरण किया गया है। आदेशप्ररूपणा की अपेक्षा मात्र नरकगति में विशेष विचार करके गतिमार्गणाके जिन अवान्तर भेदोंमें नरकगतिके समान जघन्य भागाभाग सम्भव है उनका नाम निर्देश करके इस प्रकरणको समाप्त किया गया है ।
सर्व- नोसर्व प्रदेशविभक्ति – सर्वप्रदेशविभक्ति में सब प्रदेश और नोसर्वप्रदेशविभक्तिमें उनसे न्यून प्रदेश विवक्षित हैं। मूल और उत्तर प्रकृतियों में ये यथायोग्य ओघ और आदेशसे घटित कर लेने चाहिए ।
उत्कृष्ट- अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्ति- – सबसे उत्कृष्ट प्रदेश उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति है और उनसे न्यून प्रदेश अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति है । मूल और उत्तर प्रकृतियोंके ओघ और आदेश से जहाँ पर ये जितने सम्भव हों उन्हें उस प्रकारसे जान लेना चाहिए ।
जघन्य- अजघन्य प्रदेशविभक्ति - सबसे कम प्रदेश जघन्य प्रदेशविभक्ति है और उनसे अधिक प्रदेश अजघन्य प्रदेशविभक्ति है । मूल और उत्तर प्रकृतियोंके ओघ और आदेशंसे जहाँ पर ये जिसप्रकार प्रदेश सम्भव हों उन्हें उस प्रकार से जान लेना चाहिए ।
सादि-अनादि- व-अभ्र वप्रदे शविभक्ति - सामान्यसे मोहनीयके क्षय होनेके अन्तिम समयमें जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है और इससे पूर्व सब अजघन्य प्रदेशविभक्ति है, अतः अजघन्य प्रदेशविभक्ति सादि विकल्पके बिना अनादि, ध्रुव और अध्रुव यह तीन प्रकारकी
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होती है। अब रहीं उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशविभक्तियों सो ये सादि और अध्रुव इस तरह दो प्रकार की ही होती हैं। जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए वह सादि और अध्रुव है। तथा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति कादाचित्क हैं, इसलिए ये भी सादि और अध्रुव हैं। यह ओघ प्ररूपणा है। आदेशसे सब गतियाँ परिवर्तनशील हैं, अतः उनमें उक्त सब प्रदेशविभक्तियाँ सादि और अध्रुव ही होती हैं। आगे अन्य मार्गणाओंमें भी इसी प्रकार विचार कर घटित कर लेना चाहिए। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व, मध्यकी
आठ कषाय और पुरुषवेदके बिना आठ नोकषाय इनकी जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपणाके अन्तिम समयमें प्राप्त होती है, अतः इनकी भी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य प्रदेश विभक्तियाँ सादि
और अध्रुव तथा अजघन्य प्रदेशविभक्तियाँ अनादि, ध्रुव और अध्रुव होती हैं। पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढा हआ जो गणितकाशवाला जीव जब स्त्रीवेदकी अन्तिम फालिको पुरुषवेदमें संक्रमित करता है तब पुरुषवेदकी एक समयके लिए उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। यही जीव जब पुरुषवेद और छह नोकषायोंके द्रव्यको संज्वलन क्रोधमें संक्रमित करता है तब संज्वलन क्रोधकी एक समयके लिए उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। यही जीव जब संज्वलन क्रोधके द्रव्यको संज्वलनमानमें संक्रमित करता है तब संज्वलनमानकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । यही जीव जब संज्वलनमानके द्रव्यको संज्वलन तायामें संक्रमित करता है तब संज्वलन मायाकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। तथा यही जीव जब संज्वलन मायाके दव्यको संज्वलन लोभमें संक्रमित करता है तब संज्वलन लोभकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। तथा इनकी जघन्य प्रदेशविभक्ति अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है। इस प्रकार इन पाँचोंकी उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशविभक्ति एक समयके लिए होती है, इसलिए ये सादि और अध्रुव हैं। तथा इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति अनादि, ध्रुव और अध्रुव हैं। मात्र पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म क्षपितकांश अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इसकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति सादि भी बन जाती है। तथा इन पाँचोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकारकी है । जब तक इनकी उत्कृष्टप्रदेशविभक्ति नहीं प्राप्त होती तब तक तो यह अनादि, ध्रुव और अध्रुव है और उत्कृष्टके बाद यह सादि है। सम्यक्त्व और सम्य ग्मिथ्यात्व ये प्रकृतियाँ सादि और सान्त हैं, इसलिए इनके चारों ही पद सादि और अध्रुव हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तियाँ कादाचित्क हैं, जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए ये तीनों सादि हैं। तथा क्षपणाके पूर्व इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति नियमसे होती है इसलिए तो यह अनादि है। तथा क्षपणाके बाद पुनः संयुक्त होने पर यह सादि है। ध्रुव और अध्रुव विकल्प तो यहाँ सम्भव हैं ही। इस प्रकार इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति चारों प्रकारकी प्राप्त होती है। यह ओघप्ररूपणा है।
आदेशसे अचक्षुदर्शन और भव्यमार्गणामें ओघप्ररूपणा बन जाती है। मात्र भव्यमार्गणामें ध्रुव भङ्ग सम्भव नहीं है। शेष सब मार्गणाएँ परिवर्तनशील हैं, अतः उनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट आदि चारों विभक्तियाँ सादि और अध्रुव ही प्राप्त होती हैं।
स्वामित्व-सामान्यसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति का स्वामी ऐसा गुणितकांशिक जीव होता है जो बादरपृथिवीकायिकों और बादर त्रसोंमें परिभ्रमण करके अन्तमें दो बार सातवें नरकके नारकियोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त कम पूरी आयु बिता चुका है। यहाँ उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी किस समय होता है इस सम्बन्धमें दो मत हैं। एक मतके अनुसार अन्तर्मुहूर्त नरकायु शेष रहनेपर उसके प्रथम समयमें होता है और दूसरे मतके अनुसार
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( ५ )
नरक के अन्तिम समय में होता है । मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी इसी प्रकार जानना चाहिए । जो गुणितकर्माशिक दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला जीव जब मिध्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्व में संक्रमित करता है तब वह सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति का स्वामी होता है । तथा जब वही जीव सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमें संक्रमित करता है तब वह सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । नपुंसकवेद की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी ऐसा गुणितकर्माशिक जीव होता है जो अन्तमें ईशान कल्प में उत्पन्न होकर उसके अन्तिम समय में स्थित है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र इसे अन्तमें असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें उत्पन्न कराकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा स्त्रोवेदका पूरण कराकर प्राप्त करना चाहिए । जो गुणितकर्माशिक जीवक्रमसे नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और पुरुषवेदको यथायोग्य पूरकर अन्तमें मनुष्यों में उत्पन्न होकर शीघ्र ही कर्मोंका क्षय करता हुआ जब स्त्रीवेदको पुरुषवेदमें संक्रमित करता है तब पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । वही जीव जब पुरुषवेदको क्रोधसंज्वलनमें संक्रमित करता है तब क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । वही जीव जब क्रोधसंज्वलनको मानसंज्वलन में संक्रमित करता है तब मानसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । वही जीव जब मानसंज्वलनको मायासंज्वलन में संक्रमित करता है तब मायासंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है और वही जीव जब मायासंज्वलनको लोभसंज्वजनमें संक्रमित करता है तब लोभसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । यह ओघसे उत्कृष्ट स्वामित्व है । ओघ से सामान्य मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्ति स्वामी क्षपितकर्माशिक जीव क्षपणा के अन्तिम समय में होता है । उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व की जवन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी ऐसा क्षपितकर्माशिक जीव होता है जो अन्तमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करते समय मिध्यात्वकी दो समय कालवाली एक स्थितिको प्राप्त है। तथा वही जीव जब दर्शनमोहनीयकी क्षपणा किये बिना मिध्यात्वमें जाकर दीर्घं उद्वेलना काल के द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हुए अपने अपने समय में दो समय कालवाली एक स्थितिको प्राप्त होता है तब वह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिका स्वामी होता है | मध्यकी आठ कपायोंके विषय में ऐसा क्षपितकर्माशिक जीव लेना चाहिये जो
भव्यों के योग्य जघन्य प्रदेशविभक्ति करके सोंमें उत्पन्न हुआ है और वहाँ आगमोक्त क्रिया व्यापार द्वारा उसे और भी कम करके अन्तमें क्षपण कर रहा है। ऐसे जीवके जब इनकी दो समय कालवाली एक स्थिति शेष रहती है तब वह इनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता
| वही जीव जब अनन्तानुबन्धीको बार बार विसंयोजना कर लेता है और अन्तमें दो छयासठ सागर कालतक सम्यक्त्वका पालन करके पुनः उसकी विसंयोजना करता है तब वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी दो समय कालवाली एक स्थिति के रहते हुए उनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका भी क्षपितकर्माशिक जीव ही अपनी अपनी चपणा के अन्तिम समयमें उदयस्थितिके सद्भावमें जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । पुरुषवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी ऐसा क्षपक पुरुषवेदी होता है जो जघन्य घोलमान योग से पुरुषवेदका बन्ध करके उसका संक्रमण करते हुए अन्तिम समय में स्थित है । इसी प्रकार संज्वलन क्रोध, मान और मायाकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी घटित कर लेना चाहिये । लोभ संज्व
नकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी क्षपक अधः करणके अन्तिम समय में होता है । तथा छह नोकपायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी भी ऐसा क्षपक होता है जो अन्तिम स्थिति काण्डकके संक्रमणके अन्तिम समयमें स्थित है । यह ओघसे जघन्य स्वामित्व है । आदेशसे
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मूल और उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और जघन्य स्वामित्व चारों गतियोंकी अपेक्षासे तो मूलमें ही कहा है, इसलिए इसे वहाँसे जान लेना चाहिए। तथा अन्य मार्गणाओंमें उक्त स्वामित्वको देखकर घटित कर लेना चाहिए । यहाँ पर मूलमें जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म तक किस प्रकृतिके सान्तर और निरन्तर कितने स्थान किस प्रकार प्राप्त होते हैं यह सब कथन विस्तारके साथ किया है सो उसे वहाँ मूलमें ही देखकर समझ लेना चाहिये।
काल—सामान्यसे मोहनीयका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म तेतीस सागरको आयुवाले नारकीके अन्तिम समयमें होता है, इसलिये इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति जो उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ है उसके अनन्तकाल तक देखी जाती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल है। किन्तु यदि परिमाणोंकी मुख्यतासे देखा जाय तो अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण ही प्राप्त होता है, क्योंकि सब प्रकारके प्रदेशसत्त्वके कारणभूत परिणाम ही असंख्यात लोकप्रभाण हैं। और जिसने सातवें नरकमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म करके यथाविधि मनुष्य पर्याय प्राप्त कर आठ वर्षकी अवस्थामें हो क्षपकश्रेणिपर आरोहणकर मोहनीयका नाश किया है उसकी अपेक्षासे देखा जाय तो अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल आठ वर्ष अधिक अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । मिथ्यात्व आदि अवान्तर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका यह काल इसी प्रकार जानना चाहिये । मात्र कुछ प्रकृतियोंके काल में कुछ विशेषता है । यथा-अनन्तानुबन्धीकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति जो अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे दो बार विसंयोजना करता है उसके होती है, इसलिए उसका जघन्य काल मात्र अन्तर्मुहूत ही प्राप्त होता है । जैसा कि स्वामित्वमें बतला आये हैं, चार संज्वलन और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति यथायोग्य क्षपकश्रेणिमें होती है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त यह तीन प्रकारका प्राप्त होता है। अनादि-अनन्त काल अभव्योंके होता है, अनादि-सान्त काल अपनी अपनी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके प्राप्त होनेके पूर्व तक भव्योंके होता है। और सादिसान्त काल ऐसे जीवोंके होता है जिन्होंने उत्कृष्ट प्रदेशविभिक्ति करके अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति की है। मात्र इस प्रकार जो अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्ति प्राप्त होती है वह अन्तर्मुहूर्त कालतक ही पाई जाती है, क्योंकि क्षपण हो जानेसे आगे इन प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं पाया जाता, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिकसे अधिक साधिक दो छयासठ सागर कालतक सत्त्व पाया जाता है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त
और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर कालप्रमाण है। सामान्यसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्ति सूक्ष्म साम्परायके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इसकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका काल अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त है। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है जो अपने अपने जघन्य स्वामित्वके समय प्राप्त होती है । तथा मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका काल अनादि-अनन्त और अनाति-सान्त है, क्योंकि अभव्योंके इसका सर्वदा सद्भाव पाया जाता है, इसलिए तो अनादि-अनन्त विकल्प बन जाता है और भव्योंके अपने जघन्य स्वामित्वके पूर्व तक यह विभक्ति पाई जाती है, इसलिए अनादि-सान्त विकल्प बन जाता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक
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दो छयासठ सागरप्रमाण है सो इसका खुलासा अनुत्कृष्टके समान कर लेना चाहिये । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके तीन विकल्प होते हैं-अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमें से प्रारम्भके दो विकल्पोंका खुलासा सुगम है। अब रहा सादि-सान्त विकल्प सो इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, क्योंकि विसंयोजनाके बाद इसकी संयोजना होनेपर इसका कमसे कम अन्तमुहूतै कालतक और अधिकसे अधिक कुछकम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक सत्त्व पाया जाता है । लोभसंज्वलनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके भी उक्त तीन विकल्प जानने चाहिये । मात्र इसके सादि-सान्त विकल्पका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है, क्योंकि जघन्य प्रदेशविभक्ति होनेके बाद इसका अन्तर्मुहूर्त कालतक ही सत्त्व देखा जाता है। कालकी अपेक्षा मूल और उत्तर प्रकृतियोंकी यह ओघ प्ररूपणा है। गति आदि मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषताको जानकर कालका विचार इसी प्रकार कर लेना चाहिये।
अन्तर—एक बार मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होनेके बाद पुनः बह अनन्त काल बाद ही प्राप्त होती है, इसलिए सामान्यसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है। अथवा परिणामोंकी मुख्यतासे इसका जघन्य अन्तरकाल असंख्या त लोकप्रमाण भी बन जाता है। तथा उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, इसलिए इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। इसी प्रकार मिथ्यात्व, मध्यकी आठ कवाय और पुरुषवेदके सिवा आठ नोकषायोंके विषयमें घटित कर लेना चाहिए। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अन्तरकालसम्बन्धी सब कथन उक्तप्रमाण ही है । पर विसंयोजना प्रकृति होनेसे इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण भी बन जाता है, इसलिए इतनी विशेषताका अलगसे निर्देश किया है। शेष सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति क्षपणाके समय होती है. इसलिए उनकी उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता । मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दोनों उद्वेलना प्रकृतियाँ है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अधै पुगद्ल परिवर्तनप्रमाण बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण है। तथा पुरुषवेद और चार संज्वलन इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति एक समयके लिए होती है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है।
समान्यसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेश विभक्ति दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें प्राप्त होती है, इसलिए इसकी जघन्य और अजवन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। इसी प्रकार मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और नौ नोकपायोंके विषयमें जान लेना चाहिए, क्योंकि इनकी क्षपणाके अन्तिम समयमें ही जघन्य प्रदेशविभक्ति प्राप्त होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण बन जानेसे वह उक्त प्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर बन जानेसे वह उक्त प्रमाण है । लोभसंज्वलन की जघन्य प्रदेशविभक्ति एक समयमात्र होकर भी अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है, इसलिए इसकी अजघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। तथा सम्यक्त्वादि इन सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपणाके समय ही होती है, इसलिए
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इसके अन्तरकालका निषेध किया है। यह ओघप्ररूपणा है। आदेशसे गति आदि मार्गणाओं में यह अन्तरकाल अपनी अपनी विशेषताको समझ कर घटित कर लेना चाहिए।
नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय-यह प्ररूपणा भी जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे दो प्रकारकी है। नियम यह है कि जो उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले जीव हैं वे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति. वाले नहीं होते और जो अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले जीव हैं वे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले नहीं होते । यह अर्थपद है। इसके अनुसार यहाँ अोघसे और चारों गतियोंकी अपेक्षा मूल और उत्तर प्रकृतियोंका आलम्बन लेकर भङ्गविचयका विचार करते हुए ये तीन भङ्ग निष्पन्न किये गये हैं-१ कदाचित् सब जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले नहीं हैं, २ कदाचित् नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले नहीं हैं और एक जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला है तथा कदाचित् नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले नहीं हैं और नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा भी इसी प्रकार तीन भङ्ग कहने चाहिए। किन्तु इन भङ्गोंको कहते समय जहाँ निषेध किया है वहाँ विधि करनी चाहिए और जहाँ विधि की है वहाँ निषेध करना चाहिए। ये भङ्ग ओघसे तो बन ही जाते हैं। साथ ही चारों गतियों में भी बन जाते हैं। मात्र लब्ध्यपर्याप्तमनुष्य यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए इनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा प्रत्येकके आठ आठ भङ्ग होते हैं । जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा भी पूर्वोक्त प्रकारसे सब कथन कर लेना चाहिए । मात्र उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके स्थानमें जघन्य और अजघन्य पदकी योजना करनी चाहिए।
भागाभाग—इस अनुयोनद्वारमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट तथा जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा कौन किसके कितने भागप्रमाण हैं इसका विचार किया गया है। सामान्यसे सब जीव अनन्त हैं। उनमेंसे अधिकसे अधिक असंख्यात जीव एक साथ उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिका बन्ध कर सकते हैं, इसलिए छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण और शेष अनन्त बहुभागप्रमाण जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव अधिकसे अधिक असंख्यात ही होते हैं। इसलिए इनकी अपेक्षा असंख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव
और असंख्यात बहुभागप्रमाण अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव होते हैं। सामान्य तियञ्चों में यह प्ररूपणा अविकल बन जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र गतिसम्बन्धी शेष अवान्तर सेदोंमें अपने अपने संख्यातप्रमाणको दृष्टिमें रख कर इसका विवेचन करना चाहिए। जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा भागाभागका विचार उत्कृष्टके समान ही है यह स्पष्ट ही है, इसलिए इसकी अपेक्षा पृथक् विवेचन न करके उत्कृष्टके समान जाननेकी सूचना की है। सामान्य मोहनीयकर्मकी अपेक्षा भागाभागका विचार नहीं किया है यहां इतना विशेष जानना चाहिए।
परिमाण-इस अनुयोगद्वारमें उत्कृष्टादि चारों प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंके परिमाणका निर्देश किया गया है। सामान्यसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति गुणितकौशिक जीवोंके यथास्थान होती है और ऐसे जीव असंख्यात होते हैं, इसलिए मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात है। इसके सिवा शेष सब संसारी जीवोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है, इसलिए उनका परिमाण अनन्त है । मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंकी अपेक्षा यह परिमाण इसी प्रकार बन जाता है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट और
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( ह )
अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका परिमाण भी उक्त प्रकारसे जान लेना चाहिए । पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय तथा चार संज्वलन और पुरुषवेदक उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति क्षपणा के पूर्वं यथास्थान प्राप्त होती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालों का परिमाण संख्यात और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका परिमाण सम्यक्त्व और सम्यग्विकी अपेक्षा असंख्यात तथा शेष की अपेक्षा अनन्त होता है । यह ओोघप्ररूपणा है | गतिमार्ग अवान्तर भेदोंमें स्वामित्व के अनुसार अपनी अपनी विशेषताको जानकर इसे घटित कर लेना चाहिए । जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा विचार करने पर सब प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण संख्यात और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवों का परिमाण सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा असंख्यात तथा शेषकी अपेक्षा अनन्त प्राप्त होता है। कारणका विचार स्वामित्वको देख कर लेना चाहिए । गतिमार्गणा आदि अन्य भेदों में भी स्वामित्वका विचार कर सामान्यसे मोहनीय और सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा यह परिमाण जान लेना चाहिए। विशेष विचार मूलमें किया हो है ।
क्षेत्र - मोहनीयकी उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा भी यह क्षेत्र इसी प्रकार जानना चाहिए। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अपेक्षा कुछ विशेषता है । बात यह है कि इन प्रकृतियों की सत्तावाले कुल जीवही असंख्यात हैं, इसलिए इनके चारों पदवाले जीवों का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है । यह ओघ प्ररूपणा है । गति आदि अन्य मार्गणाओं में अपनी अपनी विशेषता जानकर क्षेत्रका विचार कर लेना चाहिए ।
स्पर्शन – सामान्यसे मोहनीय और छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा अनुत्कृष्ट और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा शेष पदवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । कारणका विचार स्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए । यह ओघप्ररूपणा है । गति आदि अन्य मार्गणाओं में अपनी अपनी विशेषता को समझकर यह स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए ।
नाना जीवोंकी अपेक्षा काल - सामान्यसे मोहनीयकी तथा मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकपायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति यदि नाना जीव युगपत् करें तो एक समय तक करते हैं और निरन्तर करें तो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमामण काल तक करते रहते इसलिए इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलि असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। तथा इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति एक साथ या लगातार करनेवाले जीव संख्यातसे अधिक नहीं होते, इसलिए इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय प्राप्त होता है। तथा इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है, क्योंकि इनकी सत्तावाले जीवोंका सर्वदा सद्भाव बना रहता है । यह ओसे उत्कृष्ट प्ररूपणा है । जघन्य
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( १० ) प्ररूपणाकी अपेक्षा विचार करनेपर सामान्यसे मोहनीय और सभी उत्तर प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय तथा अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। कारणका विचार सर्वत्र कर लेना चाहिए । यह
ओघसे जघन्य प्ररूपणा है। आदेशसे सब मार्गणाओंमें सब प्रकृतियोंकी चारों विभक्तिवाले जीवोंका काल अपनी अपनी विशेषताको ध्यानमें रखकर जान लेना चाहिए।
नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर-सामान्यसे मोहनीय तथा उत्तर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशविभक्ति यदि कोई जीव न करे तो कमसे कम एक समयका और अधिकसे अधिक अनन्त कालका अन्तर पड़ता है, इसलिए इन सबकी उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल प्राप्त होता है। तथा इन सबकी अनुत्कृष्ट और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा अन्तरकालका निषेध किया है। यह ओघ प्ररूपणा है। अन्य मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषताको जानकर यह अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए।
सन्निकर्ष-सामान्यसे मोहनीय कर्म एक है, इसलिए उसमें सन्निकर्ष घटित नहीं होता। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा यह अवश्य ही सम्भव है। इस अनुयोगद्वारमें यह बतलाया गया है कि मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंमेंसे एक एक प्रकृतिका उत्कृष्ट या जघन्य प्रदेशसत्कर्म रहते हुए अन्य प्रकृतियोंमेंसे किन प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है और किन प्रकृतियोंकी सत्ता नहीं पाई जाती। तथा जिन प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है उनका प्रदेशसत्कर्म अपने अपने उत्कृष्ट या जघन्यकी अपेक्षा किस मात्राको लिए हुए होता है। इस प्रकार ओघ और आदेशसे निरूपण कर यह प्रकरण समाप्त किया गया है।
भाव—सब कर्मो का बन्ध औदायिक भावकी मुख्यतासे होता है और तभी जाकर उनकी सत्ता पाई जाती है। यही कारण है कि यहाँ पर सामान्यसे मोहनीय कर्म और उसकी उत्तर प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवोंके औदायिक भाव जानना चाहिए।
अल्पबहत्व-मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि वे एक साथ असंख्यातसे अधिक नहीं हो सकते। तथा उनसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अन्य सब संसारी जीवोंके दसवें गुणस्थान तक मोहनीय कर्मकी सत्ता पाई जाती है । इसी प्रकार मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि एक साथ एक कालमें वे संख्यातसे अधिक नहीं हो सकते। तथा उनसे अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अन्य सब संसारी जीवोंके दसवें गुणस्थान तक मोहनीयकर्मकी सत्ता पाई जाती है। यह प्रोघ प्ररूपणा है। अन्य मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषताको ध्यानमें रखकर यह अल्पबहुत्व घटित कर लेना चाहिए। यह सामान्यसे मोहनीय कर्मकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका विचार है, उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा भी इसे मूलको देखकर जान लेना चाहिए, क्योंकि मूलमें इसका हेतुपूर्वक विस्तारके साथ विचार किया है।
भुजगारविभक्ति-भुजगारविभक्तिमें भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य इन चार पदोंका अवलम्बन लेकर समुत्कीर्तना, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन तेरह अधिकारोंके द्वारा मूल और उत्तर प्रकृतियों के प्रदेशसत्कर्मका साङ्गोपाङ्ग विचार किया गया है।
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( ११ )
पदनिक्षेप - भुजगारविशेषको पदनिक्षेप कहते हैं 1 इस अधिकार में उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि, जघन्य वृद्धि और जघन्य हानि तथा अवस्थितपद इन सबका श्रश्रय लेकर समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अधिकारोंके द्वारा मूल और उत्तरप्रकृतियोंके प्रदेशसत्कर्मका विचार किया गया 1
वृद्धि — पदनिक्षेपविशेषको वृद्धि कहते हैं । इस अधिकार में यथासम्भव वृद्धि और हानिके अवान्तर भेदों तथा यथासम्भव अवक्तव्यविभक्ति और अवस्थितविभक्तिका आश्रय लेकर समुत्कीर्तना, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भङ्गविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन तेरह अधिकारोंके द्वारा मूल और उत्तर प्रकृतियोंके प्रदेशसत्कर्मका विचार किया गया है ।
सत्कर्मस्थान—मूल और उत्तर प्रकृतियोंके प्रदेशसत्कर्मस्थान कितने हैं इसका निर्देश करते हुए मूलमें बतलाया है कि उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका जिस प्रकार कथन किया है उसी प्रकार प्रदेशसत्कर्मंस्थानोंका भी कथन कर लेना चाहिये। फिर भी विशेषताका निर्देश करते हुए प्रकृत में प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व ये तीन अधिकार उपयोगी बतलाये हैं ।
झीनाझीनचूलिका
पहले उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका विस्तार के साथ विचार करते समय यह बतला आये हैं कि जो गुणितकर्माशिक जीव उत्कर्षण द्वारा अधिक से अधिक प्रदेशोंका सञ्चय करता है उसके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है और जो क्षपितकमांशिक जीव अपकर्षण द्वारा कर्मप्रदेशों को कमसे कम कर देता है उसके जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है, इसलिए यहाँपर यह प्रश्न उठता है कि क्या सब कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण या अपकर्षण होना सम्भव है, बस इसी प्रश्नका समाधान करनेके लिए यह झीनाकीन नामक चूलिका अधिकार अलग से कहा गया है | साथ ही इसमें संक्रमण और उदयकी अपेक्षा भी इसका विचार किया गया है । इस सबका विचार यहाँपर चार अधिकारोंका आश्रय लेकर किया गया है । वे अधिकार ये हैंसमुत्कीर्तना, प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व |
समुत्कीर्तना-इस अधिकार में अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण और उदयसे मीन और अझीन स्थितिवाले कर्मपरमाणुओं के अस्तित्वकी सूचना मात्र दी गई है । प्रकृत में झीन शब्दका अर्थ रहित और अमीन शब्दका अर्थं सहित है । तदनुसार जिन कम्परमाणुओंका अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण और उदय होना सम्भव नहीं है वे अपकर्ष, उत्कर्षण, संक्रमण और उ झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु माने गये हैं । और जिन कर्मपरमाणुओं के ये अपकर्षण दि सम्भव हैं वे इनसे अमीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु माने गये हैं ।
प्ररूपणा — इस अधिकार में अपकर्षण आदिसे कीन और अमीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु कौन हैं इसका विस्तार के साथ विचार किया गया है। उसमें भी सर्वप्रथम अपकर्षणकी अपेक्षा विचार करते हुए बतलाया गया है कि उदयावलिके भीतर स्थित जितने कर्मपरमाणु हैं वे सब अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले और शेष सब कर्मपरमाणु अपकर्षणसे अमीन स्थितिवाले हैं । तात्पर्य यह है कि उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओं का अपकर्षण न होकर वे क्रमसे यथावस्थित रहते हुए निर्जराको प्राप्त होते हैं, इसलिए वे अपकर्षण के अयोग्य होनेके कारण अपकर्षण से झीन
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( १२ )
स्थितिवाले माने गये हैं । किन्तु इनके सिवा शेष जितने कर्मनिषेक हैं उनके कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण हो सकता है, इसलिए वे इसके योग्य होनेके कारण अपकर्पण से अमीन स्थितिवाले माने गये हैं । यहाँपर इतना विशेष समझना चाहिए कि उदयावलिसे ऊपर प्रत्येक निषेकमें ऐसे बहुतसे कर्मपरमाणु होते हैं जो निकाचितरूप होते हैं, अतः उनका भी अपकर्षण नहीं होता । पर सर्वथा अयोग्य नहीं होते, क्योंकि दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबन्धीसम्बन्धी ऐसे परमाणुओं का अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करनेपर और चारित्रमोहनीयसम्बन्धी ऐसे परमाणुओंका निवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करनेपर नित्ति और निकाचनाकरणकी व्युच्छित्ति हो जाने से अपकर्षण होने लगता है. इसलिए प्रकृत में ये कर्मपरमाणु भी अपकर्षण से कीन स्थितिवाले हैं इसका निर्देश नहीं किया है, क्योंकि अवस्थाविशेषमें इनमें अपकर्षणकी योग्यता मान ली गई है । परन्तु उदद्यावलिके भीतर स्थित जितने कर्मपरमाणु होते हैं उनमें त्रिकालमें भी ऐसी योग्यता नहीं पाई जाती है, अतः प्रकृतमें मात्र उदद्यावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओं को ही अपकर्षणसे न स्थितिवाला बतलाया गया है । सासादन गुणस्थान में दर्शनमोहनीयका अपकर्षण नहीं होता, इसलिए वहाँ पर भी यही समाधान समझ लेना चाहिए ।
उत्कर्षणकी अपेक्षा झीन और अमीन स्थितिवाले कर्मपरमाणुओं का निर्देश करते हुए जो कुछ कहा गया है उसका भाव यह है कि उदद्यावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओं का उत्कर्षण नहीं होता । उदयावलिके बाहर यदि विवक्षित कर्मका बन्ध हो रहा हो तो ही उसके सत्ता में स्थित कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण होता है । उसमें भी जिन कर्मपरमाणुओं की शक्तिस्थिति उत्कर्षंणके योग्य हो उनका ही उत्कर्षण होता है अन्यका नहीं। खुलासा इस प्रकार है- मान लो उदयालिसे उपरितन स्थितिमें स्थित जो निषेक है उसके जिन परमाणुओं की शक्तिस्थिति अपनी व्यक्त स्थितिके बराबर है । अर्थात् जिन्हें बँधे हुए एक समय अधिक उदयावलिसे न्यून कर्मस्थितिके बराबर काल बीत चुका है उन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि इन
परमाणुओं में शक्तिस्थितिका अत्यन्त अभाव है । इसी स्थितिमें स्थित निषेकके जिन कर्मपरमाणुओं की शक्तिस्थिति एक समय शेष है । अर्थात् जिन्हें बँधे हुए दो समय अधिक उद्यावलिसे न्यून कर्मस्थितिके बराबर काल बीत चुका है उन कर्मपरमाणुओं का भी उत्कर्षंण नहीं होता, क्योंकि यहाँपर निक्षेपका तो अभाव है ही, अतिस्थापना भी कमसे कम जघन्य बाधा प्रमाण नहीं पाई जाती। इस प्रकार इसी स्थिति में स्थित निषेकके जिन कर्मपरमाणुओं की शक्तिस्थिति दो समय और तीन समय आदिको उलंघनकर जघन्य आवाधाप्रमाण शेष है । अर्थात् जिन्हें बँधे हुए जघन्य आबाधा से न्यून कर्मस्थितिके बराबर काल बीत चुका है उन कर्मपरमाणु का भी उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि यहाँपर अतिस्थापना के पूरा हो जानेपर भी निक्षेपका अत्यन्त अभाव है । इसी स्थितिमें स्थित निषेकके जिन कर्मपरमाणुओं की शक्तिस्थिति एक समय अधिक बाधाप्रमाण शेष है। अर्थात् जिन्हें बँधे हुए एक समय अधिक बाधाकाल से न्यून कर्मस्थितिके बराबर काल बीत चुका है उन कर्मपरमाणुओं का एक समय अधिक आबाधाप्रमाण उत्कर्षण होकर बाधा के ऊपरकी स्थितिमें निक्षेप होना सम्भव है, क्योंकि यहाँपर अतिस्थापनाके साथ एकसमय प्रमाण निक्षेप ये दोनों पाये जाते हैं। इसी प्रकार इसी स्थिति में स्थित निषेक के जिन कर्मपरमाणुओं की शक्तिस्थिति दो समय अधिक जघन्य आवाधाप्रमाण, तीन समय अधिक जघन्य
बाधाप्रमाण इत्यादि क्रमसे एक वर्ष, वर्षपृथक्त्व, एक सागर, सागरपृथक्त्व, दस सागर, दस सागरपृथक्त्व, सौ सागर, सौ सागरपृथक्त्व, हजार सागर, हजार सागरपृथक्त्व, लाख सागर, लाख सागरपृथक्त्व, कोड़ि सागर, कोड़ी सागरपृथक्त्व, अन्तः कोड़ (कोड़ी, कोड़ाकोड़ी सागर और
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( १३ ) कोडाकोड़ी सागरपृथक्त्वप्रमाण शेष है । अर्थात् उक्त शेष स्थितिको छोड़कर बाकी की कर्मस्थिति के बराबर काल बीत चुका है तो उन कर्म परमाणुओं का आवाधाप्रमाण अतिस्थापना को छोड़कर अपनी-अपनी योग्य शेष रही शक्तिस्थितिप्रमाण स्थिति तक उत्कर्षण होकर निक्षेप होना सम्भव है।
___ यहाँ यह जो एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिको माध्यम बनाकर उत्कर्षणका विचार किया जा रहा है सो उस स्थितिमें किस निषेकके कर्मपरमाणु हैं और किसके नहीं हैं इसका विचार करते हुए बतलाया है कि जिसका बन्ध किये हुए एक समय, दो समय और तीन समय आदिके क्रमसे एक श्रावलि काल व्यतीत हुआ है उन सब निषेकोंके कर्मपरमाणु विवक्षित स्थितिमें नहीं पाये जाते । कारण यह है कि बन्धके बाद एक आवलिकाल तक न्यूतन बन्धका अपकर्षण नहीं होता और आबाधा कालके भीतर निषेक रचना नहीं होती, अतः विवक्षित स्थितिके पूर्व एक आवलि काल तक बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मपरमाणुओंका उस स्थितिमें नहीं पाया जाना स्वाभाविक है। हां इस एक आवलिसे पूर्व बन्धको प्राप्त हुए समयप्रबद्धोंके कर्म परमाणु अपकर्षग होकर वहां पाये जाते हैं इसमें कोई बाधा नहीं आती। फिर भी ऐसे कर्मपरमाणुओंका यदि उत्कर्षण हो तो उनका निक्षेप एक समय अधिक एक प्रावलिकम कर्मस्थितिके अन्ततक हो सकता है। मात्र इनका निक्षेप तत्काल बंधनेवाले कर्मके आबाधा कालके ऊपर ही होगा यहां इतना विशेष जानना चाहिए। यह दूसरी प्ररूपणा है जो नवकबन्धकी मुख्यतासे की गई है । पहली प्ररूपणा प्राचीन सत्तामें स्थित कर्मों की मुख्यतासे की गई थी, इसलिए ये दोनों प्ररूपणाऐं स्वतंत्र होनेसे इनका मूलमें अलग अलग विवेचन किया गया है।
यहां दूसरी प्ररूपणाके समय अवस्तुविकल्पोंका भी निर्देश किया गया है। किन्तु प्रथम प्ररूपणाके समय उनका निर्देश नहीं किया गया है, इसलिए यहां यह शंका होती है कि क्या प्रथम प्ररूपणाकी अपेक्षा एक भी अवस्तु विकल्प नहीं होता सो इसका समाधान यह है कि अवस्तुविकल्प तो वहाँ भी सम्भव है। अर्थात् विवक्षित स्थिति (एक सनय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थिति) में इससे पूर्व उदयावलिप्रमाण निषेकोंका सद्भाव नहीं पाया जाता फिर भी यह बात बिना कहे ही ज्ञात हो जाती है, इसलिए प्रथम प्ररूपणाके समय इन अवस्तु विकल्पोंका निर्देश नहीं किया है । विशेष खुलासा मूलमें यथास्थान किया ही है, इसलिए इसे वहांसे विशेष रूपसे समझ लेना चाहिए।
उद्यावलिके ऊपर जो प्रथम स्थिति है उसकी विवक्षासे यह प्ररूपणा की गई है। किन्तु इसके ऊपरकी स्थितिकी अपेक्षा प्ररूपणा करने पर अवस्तुविकल्प एक बढ़ जाता है, क्योंकि उदयावलिके भीतरकी सब स्थितियोंमें स्थित निषेकोंके कर्मपरमाणु तो इसमें पाये ही नहीं जाते, साथ ही उससे उपरितन स्थितिमें स्थित निषेकके कर्मपरमाण भी नहीं पाये जाते; क्योंकि इन निषेकोंमें स्थित कर्मपरमाणओंकी शक्तिस्थिति इस विवक्षित स्थितिके पूर्व ही समाप्त हो जाती है। तथा झीनस्थितिविकल्प एक कम होता है, क्योंकि आबाधामें एक समयकी कमी हो जानेसे झीनस्थितिविकल्पों में भी एक समयकी कमी हो गई है। मात्र इसकी अपेक्षा अझीन स्थितियोंमें भेद नहीं है। यह प्रथम प्ररूपणाकी अपेक्षा विचार है। इसी प्रकार दूसरी प्ररूपणाको ध्यानमें रखकर विचार कर लेना चाहिए। तथा आगे भी इसी प्रकार विचार कर किस निषेकके कितने कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे झीनस्थिति हैं और कितने कर्मपरमाणु अझीनस्थिति हैं। साथ ही उनमें अवस्तुविकल्प कितने हैं और जिनका उत्कषण हो सकता है उनका वह कहाँ तक होता है इत्यादि
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बातोंका पूर्वोक्त प्ररूपणा और उत्कर्षण आदिके नियमोंको ध्यानमें रखकर विचार कर लेना चाहिए। मूलमें इसका विस्तारसे विचार किया ही है, इसलिए यहां विशेष नहीं लिखा जा रहा है।
संक्रमणकी अपेक्षा झीन और अझीन स्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका विचार करते हुए जो कुछ कहा गया है उसका भाव यह है कि उदयावलिके भीतर प्रविष्ट हुए जितने निषेक हैं उनके कर्मपरमाणु संक्रमणसे झीनस्थितिवाले और शेष अभीनस्थितिवाले हैं। मात्र न्यूतन बन्धका बन्धावलि कालतक अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण आदि नहीं होता, इतनी विशेषता यहाँ और समझनी चाहिए।
उदयकी अपेक्षा झीन और अझीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका विचार करते हुऐ जो कुछ कहा गया है उसका भाव यह है कि जिस कर्मने अपना फल दे लिया है वह उदयसे झीनस्थिति वाला है और शेष सब कम उदयसे अझीन स्थितिवाले हैं।
.. स्वामित्व-यहाँ तक प्रकृति विशेषका पालम्बन लिए बिना सामान्यसे यह बतलाया गया है कि किस स्थितिमें स्थिति कितने कर्म परमाणु अपकर्षण आदिसे झीनस्थितिवाले और अझीन स्थितिवाले हैं। आगे मिथ्यात्व आदि प्रत्येक कर्मकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ऐसे चार भेद करके उनके स्वामित्वका विचार करके इस प्रकरणको समाप्त किया गया है। यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि अपकर्षण आदिकी अपेक्षा उत्कृष्ट झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका स्वामी गुणितकमांशिक जीव और अपकर्षण आदिकी अपेक्षा जघन्य झीनस्थितितिवाले कर्मपरमाणुओंका स्वामी क्षपितकौशिक जीव होता है। इसमें जहां विशेषता है उसका अलगसे निर्देश किया है।
अल्पबहुत्व-इसमें मिथ्यात्व आदि प्रत्येक कर्मकी अपेक्षा अपकर्षण आदिसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके अल्पबहुत्वका विचार किया गया है।
स्थितिगचूलिका पहले उत्कृष्टादिके भेदसे प्रदेशविभक्तिका विस्तारसे विचार कर आये हैं। साथ ही अपकर्षण आदिकी अपेक्षा झीन और अझीन स्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका भी विचार कर आये हैं। किन्तु अभी तक उदयकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त आदि कर्मपरमाणुओंका विचार नहीं किया गया है, इसलिए इसी विषयका विस्तारसे विचार करनेके लिए स्थितिग नामक चूलिका
आई है। इसमें जिन अधिकारोंका आश्रय लेकर उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त आदिका विचार किया गया है वे अधिकार ये हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पचहुत्व।
समुत्कीर्तना—इस अधिकारमें उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त, निषेकस्थितिप्राप्त, यथानिषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त कर्मपरमाणु हैं यह स्वीकार किया गया है। जो कर्मपरमाणु उदय समयमें अग्रस्थितिमें दृष्टिगोचर होते हैं वे उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कर्मपरमाणु है। यहाँ पर उत्कृष्ट स्थितिसे अग्रस्थिति ली गई है। एक समयप्रबद्धकी विविध स्थितियोंके जितने कर्मपरमाणु उदयके समय अग्रस्थितिमें दृष्टिगोचर होते हैं उन सबकी उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त संज्ञा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। जो कर्मपरमाणु बन्धके समय जिस स्थितिमें निक्षिप्त होते हैं, अपकर्षण और उत्कर्षण होकर भी उदय कालमें वे यदि उसी स्थितिमें स्थित रहते हैं तो उनकी निषेकस्थितिप्राप्त संज्ञा
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( १५ ) है। जो कर्मपरमाणु बन्धके समय जिस स्थितिमें निक्षिप्त होते हैं वे यदि उत्कर्षण या अपकर्षण हुए बिना उदयकालमें उसी स्थितिमें रहते हैं तो उनकी यथानिषेकस्थितिप्राप्त संज्ञा है। तथा बन्धके समय जो कर्मपरमाणु जिस निषेकस्थितिमें प्राप्त हुए हैं वे उदयके समय यदि उसी निषेकस्थितिमें न रहकर जहाँ कहीं दिखलाई देते हैं तो उनकी उदयस्थितिप्राप्त संज्ञा है । इसप्रकार उत्कृष्टस्थितिप्राप्त आदिके भेदसे ये कमपरमाणु चार प्रकारके हैं यह निश्चित होता है ।
__स्वामित्व-इस अधिकारमें मिथ्यात्व आदि अवान्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा उक्त चार प्रकारके कर्मपरमाणुओंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चार भेद करके उनके स्वामित्वका विचार किया गया है।
अल्पबहुत्व-इस अधिकारमें उक्त सब भेदोंके अल्पबहुत्वका विचार किया गया है। इसप्रकार इतना कथन करनेके बाद चूलिका सहित प्रदेशविभक्ति अधिकार समाप्त होता है।
-:०:
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विषय-सूची
४०
४३
५५
विषय पृष्ठ | विषय
पृष्ठ एक जीवकी अपेक्षा काल
१-२५ | सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा जघन्य-अजधन्य मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश
भागाभागका विचार विभक्तिका काल | परिमाण
४०-४३ अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके कालका अन्य रूपसे। सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट निर्देश
परिमाणका विचार शेष कर्मोंके कालका निर्देश
सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा जघन्य और अजघन्य सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके कालमें
परिमाणका निर्देश विशेषताका निर्देश
क्षेत्रका निर्देश सब प्रकृतियोंके जघन्य कालके जानने की सूचनामात्र ६ । उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट क्षेत्रका निर्देश उच्चारणाके अनुसार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट जघन्य और अजघन्य क्षेत्रका निर्देश ४४ कालका निर्देश ७ | स्पर्शनका कथन
४५-५० जघन्य और अजघन्य कालका निर्देश १७ | उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्पर्शनका कथन एक जीवकी अपेक्षा अन्तर २५-३७ | जघन्य और अजघन्य स्पर्शनका कथन मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर २५ नानाजीवोंकी अपेक्षा काल
५०-५३ शेष कर्मोके अन्तरके जाननेकी सूचना २६ । उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट कालका कथन सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तर के विषयमें जघन्य और अजघन्य कालका कथन विशेषताका निर्देश २६ / नानाजीवोंकी अपेक्षा अन्तर
५३-५४ सब प्रकृतियोंके अन्तरकालके जाननेकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अन्तरका कथन सूचनामात्र
२७ जघन्य और अजघन्य अन्तरका कथन उच्चारणाके अनुसार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट सन्निकर्षका कथन
५४-७४ अन्तरका निर्देश
२७ उत्कृष्ट सन्निकर्षका कथन जघन्य और अजघन्य अन्तरका निर्देश ३२ | जघन्य सन्निकर्षका कथन नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय ३७-३६ | अल्पबहुत्वका कथन
७४-१३३ चूर्णिकारकी सूचनामात्र
३७ श्रोघसे उत्कृष्ट प्रदेश अल्पबहुत्व कथन सब प्रकृतियों की अपेक्षा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट नरकगतिमें उत्कृष्ट प्रदेश अल्पबहुत्व कथन ८२ प्रदेशविभक्तिका भङ्गविचय
शेष गतियोंमें उत्कृष्ट प्रदेश अल्पबहुत्वके सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा जघन्य-अजघन्य प्रदेश
जाननेकी सूचना विभक्तिका भङ्गविचय
३६ एकेन्द्रियोंमें उत्कृष्ट प्रदेश अल्पबहुत्वका कथन ६१ भागाभाग
३६-४० श्रोधसे जघन्य प्रदेश अल्पबहुत्वका सकारण सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट
निर्देश
६६ भागाभागका विचार
३६ । नरकगतिमें जघन्य प्रदेश अल्पबहुत्वका कथन ११६
५३ ५४
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( १७ )
२१७
भाव
१५३
विषय
पृष्ठ | विषय शेष गतियोंमें जघन्य प्रदेश अल्पबहुत्वके जाननेकी । भागाभाग
२११ सूचना १२३ परिमाण
२१६ मनुष्यगतिमें अोधके समान जाननेकी विशेष क्षेत्र सूचना
१२३ स्पर्शन एकेन्द्रियोंमें जघन्य प्रदेश अल्पबहुत्वका कथन १२४ नान जीवोंकी अपेक्षा काल
૨૨૨ भुजगार विभक्तिका कथन १३३-१७१ नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर
२२६ भुजगार विभक्तिके तेरह अनुयोगद्वारोंका ।
२२६ नामनिर्देश १३३ अल्पबहुत्व
२२६ समुत्कीर्तना
सत्कर्मस्थान
२३५-२३५ स्वामित्व
मङ्गलाचरण
२३४ एक जीवकी अपेक्षा काल
सत्कर्मस्थानोंका कथन
२३४ एक जीवकी अपेक्षा अन्तर
१४२ | तीन अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश २३४ नानाजीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय १४६ प्ररूपणा
२३४ भागाभाग १५० प्रमाण
२३५ परिमाण
अल्पबहुत्व
२३५ क्षेत्र
मीनाझीनचूलिका
२३५-३६६ स्पर्शन
१५६ । मङ्गलाचरण
२३५ नानाजीवोंकी अपेक्षा काल
१६३ झीन और अझीन पदकी विशेष व्याख्या नानाजीवोंको अपेक्षा अन्तर
____ जाननेकी सूचना
२३५ भाव
विभाषा शब्दका अर्थ
२३६ अल्पबहुत्व
१६६ झीनाझीन अधिकारके कथनकी सार्थकता २३६ पदनिक्षेप
१७१-१८७
यह अधिकार चूलिका क्यों कहा गया है इसका पदनिक्षेप और वृद्धिका स्वरूपनिर्देश १७१ निर्देश
२३६ पदनिक्षेपके तीन अनुयोगद्वारोंके नाम १७२ प्रकृतमें चार अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश २३७ उत्कृष्ट समुत्कीर्तना
समुत्कीर्तना पदका अर्थ
२३७ जघन्य समुत्कीर्तनाकी सूचनामात्र १७३ समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार २३७-२३८ उत्कृष्ट स्वामित्व
१७३ अपकर्षण श्रादिकी अपेक्षा झीनस्थितिक जघन्य स्वामित्व १८४ कर्मोंका अस्तित्व कथन
२३७ उत्कृष्ट अल्पबहुत्व १८५ विशेष खुलासा
२३७ जघन्य अल्पबहुत्व
१८६ प्ररूपणा अनुयोगद्वार। २३७-२७५ वृद्धिविभक्ति कथन
१८७-२३४ ! कौन कर्म अपकर्षणसे झीनस्थितिक हैं इसका तेरह अनुयोगद्वारोंकी सूचना १८७ निर्देश
२३६ समुत्कीर्तना
१८७ | अपकर्षणसे अमीनस्थितिक कर्मोंका व्यारव्यान २४० स्वामित्व
१८६ | कौन कर्म उत्कर्षणसे झीनस्थितिक है इसका एक जीवकी अपेक्षा काल
निर्देश
२४२ एक जीवकी अपेक्षा अन्तर
२०१ | कौन कर्म उत्कर्षणसे अझीनस्थितिक हैं इसका नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय
२४७
१७२
१६३
०
निर्देश
०
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( १८ )
२५३
२५८
२६०
.
.
विषय पृष्ठ | विषय
पृष्ठ एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम पूर्वोक्त प्रत्येक झीनस्थितिक कर्म उत्कृष्ट आदि
स्थितिमें नवकबन्धके कौन कर्मपरमाणु नहीं। ____ की अपेक्षा चार प्रकारके होते हैं इसका हैं इसका निर्देश
२५१ निर्देश
२७५ उसी स्थितिमें कौन परमाणु हैं इसका निर्देश २५२ |
स्वामित्व
२७५-३५६ उस स्थितिमें नवकबन्धके जो कर्मपरमाणु हैं।
मिथ्याल्वके अपकर्षणादि चारोंकी अपेक्षा झीन. उनका कितना उत्कर्षण हो सकता है।
स्थितिक कर्मों के उत्कृष्ट स्वामी का निर्देश २७६ इसका निर्देश
| सम्यकत्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्वका निर्देश २८४
सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्वका । दो समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम
निर्देश
२८७ स्थितिकी अपेक्षा कथन
। अनन्तानुबन्धीकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्वका तीन समय अधिक श्रावलिसे लेकर अावलिकम
निर्देश
૨૯૨ श्राबाधा तक की स्थितियोंकी अपेक्षा
मध्यकी आठ कषायोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट जाननेकी सूचना
स्वामित्वका कथन
२६४ एक समय कम श्रावलिसे न्यून श्राबाधाकी क्रोधसंज्वलनकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कथन ३००
अन्तिम स्थितिमें कितने विकल्प नहीं मानसंज्वलनकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कथन ३०२ होते हैं और कितने विकल्प होते हैं इकका मायासंपलनकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कथन ३०३ निर्देश
२६१ । लोभसंज्वलनकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कथन ३०३ जो होते हैं उनमें कौन उत्कर्षणसे झीन- स्त्रीवेदकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कथन ३०५
स्थितिक हैं और कौन अझीनस्थितिक हैं। | पुरुषवेदकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कथन ३०६ इसका निर्देश
२६३ । नपुसकवेदकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन
३०७ एक समय कम प्रावलिसे न्यून श्राबाधाकी
छह नोकषायोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कथन ३०८ अन्तिम स्थितिके विकल्पका कथन करके
मिथ्यात्वकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व कथन ३१२ अागेकी एक समय अधिक स्थितिके
सम्यक्त्वकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व कथन ३२० विकल्पोंका निर्देश व उत्कर्षणसे झीना
सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्वामित्व सम्यक्त्वके झीन विचार
२६६ समान जाननेकी सूचना
३२२ उससे एक सयय अधिक स्थितिकी अपेक्षा
| अाठ कषाय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, पूर्वोक्त प्रकारसे विचार
२७०
रति. भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जघन्य एक समय अधिक जघन्य श्राबाधा तक पूर्वोक्त
स्वामित्व
३२२ ___क्रम चलता है इसका निर्देश २७१
अनन्तानुबन्धीकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व ३२८ दो समय अधिक जघन्य बाबाधासे लेकर
नपुंसकवेद की अपेक्षा जघन्य स्वामित्व :३३४ उत्कर्षणसे झीनस्थिति कर्मप्रदेश नहीं
स्त्रीवेदकी अपेक्षा जघन्य स्वाम्रित्व ३४६ होते इसका निर्देश
२७२ | | अरति-शोककी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व ३५० संक्रमणसे झीनस्थितिक और अझीनस्थितिक अल्पबहुत्व कर्मप्रदेशोंका निर्देश
२७३ | मिथ्यात्वादि प्रकृतियोंमें चारोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट उदयसे झीनस्थितिक और अझीनस्थितिक । अल्पबहुत्व
३५६ कर्म प्रदेशोंका निर्देश २७४ । जघन्य झीनस्थितिक अल्पबहुत्व
३५८
३५६-३६६
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विषय
स्थितिगचूलिका
मङ्गलाचरण
स्थितिग पदकी विभाषाकी सूचना
स्थितिग पदका अर्थ
समुत्कीर्तना
स्थितिप्राप्त द्रव्य चार प्रकारका है इसका निर्देश
पृष्ठ
विषय
पृष्ठ
३६६-४५१ | नपु ंसकवेदके उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त आदि द्रव्यके स्वामित्वका निर्देश
जघन्य स्थितिप्राप्त द्रव्यके स्वामित्वके जाननेकी सूचना
सव कर्मों के जघन्य अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यके स्वामीका निर्देश
३६६
यह अधिकार भी चूलिका है इसका निर्देश ३६७ प्रकृतोपयोगी तीन अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश ३६७ तीनों अनुयोगद्वारोंका लक्षणनिर्देश
( १६ )
उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वरूप कथन निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वरूपनिर्देश यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वरूपनिर्देश उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वरूपनिर्देश प्रत्येकके उत्कृष्टादि चार भेदोंका निर्देश स्वामित्व
३६६
३६६
मिथ्यात्वके उत्कृष्ट श्रग्रस्थितिप्राप्त आदि द्रव्यके स्वामित्वका निर्देश
मिथ्यात्वके निषेकस्थितिप्राप्त और उदय३६७ स्थितिप्राप्त द्रव्यके स्वामीका निर्देश ४२४ ३६६-३७४ | मिथ्यात्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके स्वामीका निर्देश सम्यक्त्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके स्वामीको मिथ्यात्व के समान जाननेकी सूचना, साथ ही कुछ विशेषताका निर्देश सम्यक्त्वके निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामीका निर्देश सम्यग्मिथ्यात्व के यथानिषेकस्थितिप्राप्त
४३५
३६७
३६८
३७०
३०१
३७२
३७३
३७४-४४५
३७४
४००
सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट ग्रस्थितिप्राप्त श्रादि द्रव्यके स्वामित्वका निर्देश श्रनन्तानुवन्धीचतुष्क, आठ कषाय और छह नोकषायोंका भङ्ग मिथ्यात्व के समान जाननेकी सूचना
४०३
४०३
आठ कषायोंके उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यके स्वामित्वमें विशेषताका निर्देश छह नोकषायोंके उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्य के स्वामित्व विशेषताका निर्देश क्रोधसंज्वलन के उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त आदि द्रव्यके स्वामित्वका निर्देश संज्वलनमान, माया और लोभके विषयमें संज्वलन क्रोधके समान जाननेकी सूचना ४१६ पुरुषवेदके चारों स्थितिप्राप्त द्रव्यके उत्कृष्ट स्वामित्वका निर्देश स्त्रीवेदके उत्कृष्ट ग्रस्थितिप्राप्त श्रादि द्रव्यके स्वामित्वका निर्देश
४०५
४२०
४०४
४२०
४२३
४२३
४२४
अल्पबहुत्व
सब कर्मोंके चारों उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तोंके पबहुत्वका निर्देश
४३०
४३७
द्रव्यका स्वामी सम्यक्त्वके समान है इसका अपनी विशेषता के साथ निर्देश सम्यग्मिथ्यात्व के निषेक और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामीका निर्देश अनन्तानुबन्धियोंके निषेक और यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य के जघन्य स्वामीका निर्देश ४६८ अनन्तानुबन्धियोंके उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामीका निर्देश
४३६
४३८
बारह कषायोंके निषेक और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामीका निर्देश बारह कषायों के यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामीका निर्देश पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा के विषय
में बारह कषायोंके समान जाननेकी सूचना ४४४ स्त्रीवेद, नपु ंसकवेद, अरति और शोकके यथानिषेकस्थितिप्राप्त आदि द्रव्यके जघन्य स्वामीका निर्देश
४४०
४४२
४४२
४४५
४४६-४५१
४४६
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( २० )
विषय
पृष्ठ , विषय जधन्य अल्पबहुत्वके जाननेकी सूचना
| अनन्तानुबन्धियोंके चारों जघन्य स्थितिप्राप्तोंमिथ्यात्वके चारों जघन्य स्थितिप्राप्तोंके अल्प- ___के अल्पबहुत्वका निर्देश
४५० बहुत्वका निर्देश
४४७ | स्त्रीवेद, नपुसकवेद, अरति, और शोकके सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, चारों जघन्य स्थितिप्राप्तीका अल्पबहुत्व
पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साके अनन्तानुबन्धीके समान है इसका निर्देश ४५१ चारों जघन्य स्थितिप्राप्तोंका अल्पबहुत्व मिथ्यात्वके समान है इसकी सूचना ४५०
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कसायपाहुडस्स प दे स वि ह त्ती
पंचमो अत्थाहियारो
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( सिरि-जइवसहाइरियविरइय-चुण्णिमुत्तसमण्णिदं
सिरि-भगवंतगुणहरभडारोवइडं क सा य पा हुड
तस्स
सिरि-वीरसेणाइरियविरइया टीका जयधवला
तत्थ पदेविहत्ती णाम पंचमो अत्याहियारो)
* कालो। १. कालो उच्चदि त्ति भणिदं होदि ।
Misru
ॐ काल। १. कालका कथन करते हैं यह रक्त कथनका तात्पर्य है।
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जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे
* मिच्छुत्तस्स उक्कस्सप देसविहत्तिय केवचिरं कालादो होदि ।
९ २. सुगमं ।
* जहण्णुक्कस्सेणेगसमा ।
९३. सत्तमपुढविणेरइयस्स उक्कस्सा अस्स चरिमसमए चेव उक्कस्सपदेससंतकमवलंभादो |
* अणुस्स पदेसविहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि ।
४. सुगमं ।
* जहगुस्से अतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा ।
९५. चदुगदिणिगोदे पडुच्च एसो कालणिद्द सो । णिच्चणिगोदे पुण पडुच्च अणादिओ पज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो च होदि, अलद्धतसभावाणमुकस्सदव्वाणुववत्तीदों । अणुक्कस्सपदेसविहत्तीए अनंतकालावद्वाणं कथं घडदे ? ण, उक्कस्तपदेस पहुडि जाव जहणहाणं ति एदेसु अनंतेसु द्वाणेसु अनंतकाला वहाणं पsि विरोहाभावादो ।
* मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवका कितना काल है ?
६२. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है
1
[ पदेसविहन्ती ५
६३. क्योंकि सातवीं पृथिवीके नारकी के उत्कृष्ट आयुके अन्तिम समयमें ही उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म उपलब्ध होता है ।
* अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका कितना काल है ।
४. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है ।
९५. चतुर्गति निगोद जीव की अपेक्षा कालका यह निर्देश किया है । नित्य निगोद जीवकी अपेक्षा तो अनादि-अनन्त और अनादि- सान्त काल होता है, क्यों कि जिन जीवोंने त्रसभावको नहीं प्राप्त किया है उनके उत्कृष्ट द्रव्यकी प्राप्ति सम्भव नहीं है ।
शंका - अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अनन्त कालतक अवस्थान कैसे बन सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट प्रदेशस्थान से लेकर जघन्य प्रदेशस्थान तक जो अनन्त स्थान हैं उनमें अनन्त काल तक अवस्थानं होनेमें कोई विरोध नहीं आता है ।
-
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vrrrrrrrwww.r
मा० २२]
उत्तरपदेसविहत्तीए कालपरूवणा * अण्णोषदेसो जहण्णेण असंखेजा लोगा त्ति ।
६. सव्वे जीवपरिणामा असंखेजलोगमेत्ता चेव जाणता, तहोवदेसाभावादो । तत्युक्कस्सपदेससंतकम्मकारणपरिणामकलावं मोत्तण सेसपरिणामहाणेसु अवठ्ठाणकालो जह० असंखेजलोगमेत्तो चेव तम्हा अणुक्कस्सपदेसकालो जह० असंखेजलोगमेत्तो त्ति इच्छियव्यो । ण च पदेसुत्तरादिकमेण संतकम्महाणेसु परिभमणणियमो अत्थि, एकसराहेण अणताणि हाणाणि उल्लंघियूण वि परिब्भमणुवलंभादो'। एदं केसि पि आइरियाणं वक्खाणंतरं । एदेसु दोमु उवदेसेसु एक्केणेव सच्चेण होदव्वं, अण्णोण्णविरुदत्तादो । तदो एत्थ जाणिदूण वत्तव्वं ।
* अधवा खवगं पडुच्च वासपुधत्तं ।
७. गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सत्तमाए पुढवीए उक्कस्सपदेसं करिय पुणो समयाविरोहेण एइंदिसमु मणुस्सेसु च उववज्जिय अंतोमुहत्तब्भहिअहवस्सेहि संजमं पडिवज्जिय णिव्वुई गयम्मि अणुक्कस्सदव्वस्स वासपुधत्तमेत्तकालुवलंभादो।
8 अन्य उपदेशके अनुसार जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण है ।
६. कारण कि जीवोंके सब परिणाम असंख्यात लोकमात्र ही होते हैं, अनन्त नहीं होते, क्योंकि इस प्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता। उनमें से उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके कारणभूत परिणामकलापको छोड़कर शेष परिणामोंमें अवस्थित रहनेका जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण ही है, इसलिए अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण है ऐसा स्वीकार करना चाहिए। और उत्तरोत्तर एक एक प्रदेशके अधिकके क्रमसे सत्कर्मस्थानों में परिभ्रमण करनेका कोई नियम नहीं है, क्योंकि एक साथ अनन्त स्थानोंको उल्लंघन करके भी परिभ्रमण पाया जाता है। यह किन्हीं प्राचार्योका व्याख्यानन्तर है सो इन दो उपदेशों से एक उपदेश ही सत्य होना चाहिए, क्योंकि ये दानों उपदेश परस्परमें विरोधको लिये हुए हैं, इसलिए यहाँपर जानकर व्याख्यान करना चाहिए। - अथवा तपककी अपेक्षा वर्षपृथक्त्वप्रमाण काल है ।
६७. क्योंकि जो जीव गुणितकर्माशिककी विधिसे आकर सातवीं पृथिवीमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मको करके पुनः यथाशास्त्र एकेन्द्रियों में और मनुष्यों में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कालके द्वारा संयमको ग्रहणकर मुक्तिको प्राप्त होता है उसके अनुत्कृष्ट द्रव्यका वर्ष पृथक्त्वप्रमाण काल उपलब्ध होता है ।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह तो स्पष्ट ही है, क्योंकि गुणितकर्माशविधिसे आकर जो अन्तमें उत्कृष्ट आयुके साथ दूसरी बार सातवें नरकमें उत्पन्न होता है उसके अन्तिम समयमें ही मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति देखी जाती है। इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके कालके विषयमें दो उपदेश पाये
१. मा. प्रतौ 'परिभमणमणुवलंभादो' इति पाठः ।
Jain Edudation International
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ - एवं सेसाणं कम्मापं जादूण णेदव्वं ।
८. तं जहा . -अहकसाय-सत्तणोकसायाणं मिच्छत्तभंगो, जहण्णुक्कसकालेहि उकस्साणुक्कस्सदव्वक्सिएहि ततो भेदाभावादो। अणंताणुबंधिचउकस्स वि मिच्छत्तभंगो चेव । णवरि अणुक्कस्स. जहएणेण अंतोमुहुत्तं, अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय पुणो संजुत्तो होदूण अंतोमुहुत्तेण विसंजोइदम्मि तदुवलंभादो। चदुसंजापुरिस० उक्क० जहण्णु० एगस० । अणुक० अणादि-अपज्ज० अणादि-सपज्ज० सादि-सपज्ज.। जो सो सादि-सपज्जा तस्स जहण्णुक्क० अंतो० । इत्थि. उक जाते हैं। एक उपदेशके अनुसार वह अनन्त काल प्रमाण बतलाया है। इसकी व्याख्या करते हुए वीरसेन स्वामीने जो लिखा है उसका भाव यह है कि नित्य निगोद जीव दो प्रकारके होते हैं-एक वे जो अबतक न तो निगोदसे निकले हैं और न निकलेंगे। इनकी अपेक्षा तो मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल अनादि-अनन्त है। हां जो नित्य निगोदसे निकलकर क्रमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्त कर देते हैं उनकी अपेक्षा अनादि-सान्त काल है। पर चूर्णिसूत्र में इन दोनों प्रकारके कालोंका ग्रहण न कर इतर निगोद जीवोंकी अपेक्षा कालका विचार किया गया है। आशय यह है कि एक बार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति करके जो क्रमसे इतर निगोदमें चले जाते हैं उनके वहांसे निकलकर पुनः उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके प्राप्त करनेमें अनन्त काल लगता है, इसलिए चूर्णिसूत्रमें मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अनन्त काल कहा है। यह एक उपदेश है। किन्तु एक दूसरा उपदेश भी मिलता है। इसके अनुसार मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अनन्तप्रमाण न प्राप्त होकर असंख्यात लोकप्रमाण बन जाता है। उन आचार्योंके मतसे इस उपदेशके कारणका निर्देश करते हुए वीरसेन आचार्य लिखते हैं कि जीवोंके कुल परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण ही उपलब्ध होते हैं और सब प्रदेशसत्कर्मस्थानोंमें जीव क्रमसे ही प्राप्त होता है ऐसा कोई नियम नहीं है, अतः जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण बनने में कोई बाधा नहीं आती। अनुत्कृष्टके जघन्य कालके विषयमें ये दो उपदेश हैं । यह कह सकना कठिन है कि इनमें से कौन उपदेश सच है, इसलिए यहाँ दोनोंका संग्रह किया गया है। यह सम्भव है कि गुणितकौशिक जीव सातवें नरकके अन्तमें उत्कृष्ट प्रदेशसंचय करके और वहांसे निकलकर क्रमसे मनुष्य होकर वर्षपृथक्त्व कालके भीतर मोहनीयका क्षपण कर दे। इसलिए यहाँ मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल वर्षपृथक्त्वप्रमाण भी कहा है।
ॐ इसी प्रकार शेष कर्मोका जानकर ले जाना चाहिए।
६८. खुलासा इस प्रकार है--आठ कषाय और सात नोकषायोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है, क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा तथा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट द्रव्यविशेषकी अपेक्षा मिथ्यात्वसे इनमें कोई भेद नहीं है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भी मिथ्यात्वके समान ही भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके और संयुक्त होकर जो अन्तमुहूर्तमें पुन: इसकी विसंयोजना करता है उसके उक्त काल पाया जाता है। चार संज्वलन और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिका काल अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त है। उसमें जो सादि-सान्त काल है उसकी
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गा० २२]
उत्तरपदेसविहत्तीए कालपरूवग्णा जहण्णु० एगस० । अणुक्क० ज० दसवस्ससहस्साणि वासपुधत्तेण सादि०, उक्क० अणंतकालं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्क० पदे०वि० केव० कालादो होदि ! जहण्णुक्कस्सेण एगसम्ओ।
६. एदेसि चेव अणुक्कस्सदव्बकालपदुप्पायणमुत्तरमुत्तं भणदि--
ॐ वरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं अणुकस्सदव्वकालो जहणणेण अंतोमुहुर्त ।
अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल वर्षपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अनन्त काल है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
विशेषार्थ _इन सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति अपने अपने उत्कृष्ट स्वामित्वक अन्तिम समयमें होती है, इसलिए यहां सबकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । मात्र जिस प्रकृतिकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके काल में कुछ विशेषता है उसका यहाँ स्पष्टीकरण करते हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त क्यों है इसके कारणका निर्देश मूल में ही किया है। चार संज्वलन और पुरुषवेदकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति अभव्योंकी अपेक्षा अनादि-अनन्त, भव्योंकी अपेक्षा अनादि-सान्त और क्षपकश्रेणिमें सादि-सान्त कही है। क्षपकश्रेणिमें इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होनेके बाद अन्तर्मुहूर्त कालतक अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति सम्भव है, इसलिए इनकी सादि-सान्त अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति गुणितकर्माशिक ऐसे जीवके भी होती है जो अन्तमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण आयुके साथ असंख्यात वर्षकी आयुवाले जीवोंमें उत्पन्न होकर आयुके अन्तिम समयमें स्थित है। उसके बाद यह जीव देव होता है और देव पर्यायसे आकर ऐसे जीवका वर्षपृथक्त्वकी आयुवाला मनुष्य होकर मोक्ष जाना भी सम्भव है। स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होनेके बाद उसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका इससे कम काल सम्भव नहीं है। यही कारण है कि यहाँपर इसका जघन्य काल वर्षपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्षप्रमाण कहा है। यहाँ जिन प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल कहा गया है उनकी इस विभक्तिका उत्कृष्ट काल मिथ्यात्वके समान ही है यह बिना कहे ही जान लेना चाहिए. क्योंकि कालमें मिथ्यात्वसे जितनी विशेषता थी वही यहाँ पर कही गई है।
६६. अब सम्यकत्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट द्रव्यके कालका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
ॐ इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट द्रव्यका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसहित्ती ५ १०. कुदो १ सम्मत्तं पडिवण्णणिस्संतकम्मियम्मि सम्मत्तसंतमंतोमुहुत्तं धरिय खविददसणमोहणीयम्मि तदुवलंभादो। उकस्ससामियस्स वा खवयस्स अणुकस्सम्मि पदिय णिस्संतीकरणेण सबजहण्णंतोमुहुत्तमेत्तकालो वत्तव्बो, पुविल्लादो वि एदस्स जहण्णभावदसणादो।
* उक्कस्सेण बेच्छावहिसागरोवमाणि साधिरेयाणि | ६ ११. णिस्संतकम्मियमिच्छाइडिम्मि सम्मत्तं पडिवज्जिय पुणो मिच्छत्तं गंतूण पलि. असं०भागमेत्तकालेण चरिमुव्वेल्लणकंदयस्स चरिमफालीए सेसाए सम्मत्तं घेत्तूण पढमच्छावहिं भमियं पुणो मिच्छत्तं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तकालेण चरिमुव्वेल्लणकंदयस्स चरिमफालीए सेसाए सम्मत्तं घेत्तूण विदियछावहिं' भमिय पुणो मिच्छत्तं गंतूण पलिदो. असं०भागमेत्तकालेणुव्वेल्लिदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तम्मि तदुवलंभादो।
१०. क्योंकि इन दो प्रकृतियोंकी सत्तासे रहित जो जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करके और अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्वकी सत्तावाला होकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता है उसके इन दोनों प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट द्रव्यका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। या इनके उत्कृष्ट द्रव्यका स्वामी जो क्षपक जीव इन्हें अनुत्कृष्ट करके निःसत्त्व कर देता है उसके इनके अनुत्कृष्ट द्रव्यका सबसे जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त कालसे भी यह काल जघन्य देखा जाता है।
* उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है ।
६ ११. क्योंकि इन दो प्रकृतियोंकी सत्तासे रहित जो मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होकर पुनः मिथ्यात्वमें जाकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक इनकी उद्वेलना करते हुए अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और प्रथम छथासठ सागर काल तक भ्रमण करके पुन: मिथ्यादृष्टि हुआ। तथा वहाँ पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक द्वेलना करते हुए चरम उद्वेलना काण्डककी अन्तिम फालिके शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त करके द्वितीय छयासठ सागर काल तक उसके साथ भ्रमण करता रहा और अन्तमें मिथ्यादृष्टि होकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की उसके उक्त काल उपलब्ध होता है।
विशेषार्थ—यहाँपर दो चूर्णिसूत्रों द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके जघन्य और उत्कृष्ट कालका निर्देश किया गया है। ऐसा करते हुए वीरसेन स्वामीने जघन्य काल दो प्रकारसे घटित करके बतलाया है। प्रथम उदाहरणमें तो ऐसा जीव लिया है जिसके इन दो कर्मोंकी सत्ता नहीं है । ऐसा जीव सम्यग्दृष्टि होकर अन्तर्मुहूर्तमें यदि इनकी क्षपणा करता है तो उसके इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर्मुहूर्त काल उपलब्ध होता है। दूसरं उदाहरणमें ऐसा क्षपक जीव लिया है जो इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला है।
१. ता. प्रतौ 'धेसण पढमछावटिं' इति पाठः ।
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गा० २२ ]
उत्तरपदेसविहत्तीए कालपरूवणा * जहण्णकालो जाणिदण णेदव्यो। १२. सुगमं ।
१३. एवं चुण्णिमुत्तमस्सिदूण कालपरूवणं करिय संपहि एत्थुच्चारणाइरियवक्खाणक्कम भणिस्सामो । कालो दुविहो--जहण्णो उक्कस्सओ चेदि । उक्कस्सए पयदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० मिच्छत्त-अट्टक०-सत्तणोक० उक्क० पदे० विहत्ती. केवचिरं काला० ? जहण्णुक्क० एगस। अणुक० ज० वासपुधत्तं, उक० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवं अणंताणु० चउक्क० । वरि अणुक्क० ज० अंतो० । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० पदेस० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० अंतो०, उक्क० वेच्छावहिसागरोमाणि सादि० । चदुसंज०-पुरिसवेदाणं उक० पदे० जहण्णुक०
इस जीवके अन्तर्मुहूर्तमें इन कर्माकी नियमसे क्षपणा हो जाती है, इसलिए इसके भी इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर्मुहूर्त काल उपलब्ध होता है। इस प्रकार अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके ये दो उदाहरण उपस्थित कर वीरसेन स्वामी प्रथमकी अपेक्षा द्वितीयको ही प्रकृतमें उपयुक्त मानते हुए प्रतीत होते हैं, क्योंकि प्रथमकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जितना काल है उससे दूसरे उदाहरणकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल स्पष्टतः कम है और जघन्य कालमें जो सबसे न्यून हो वही लिया जाता है। यह तो इन दोनों कोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके जघन्य कालका विचार हुश्रा। उत्कृष्ट कालका स्पष्टीकरण स्वयं वीरसेन स्वामीने किया ही है। यहाँ इतना ही संकेत करना है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाका काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर भी न्यूनाधिक है, इसलिए जहाँ जिस कर्मकी अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालि प्राप्त हो वहां उसके सद्भावमें रहते हुए अन्तिम समयमें ही सम्यक्त्वको प्राप्त कराना चाहिए।
* जघन्य कालको जानकर ले जाना चाहिए। 5 १२. यह सूत्र सुगम है।
विशेषार्थ-इस चूर्णिसूत्रमें जघन्य पदसे तात्पर्य मिथ्यात्व आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंके जघन्य द्रव्यसे है। उसका जघन्य और उत्कृष्ट जो काल हो उसे जानकर घटित कर लेना चाहिए यह बात इस चूर्णिसूत्र में कही गई है।
$ १३. इस प्रकार चूर्णिसूत्रके आश्रयसे कालका कथन करके अब यहाँ पर उच्चारणाचार्यके व्याख्यानके क्रमको कहेंगे। काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, आठ कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा काल जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पसविहत्ती ५
10 |
एगस० । अणुक्क० अणादिश्रो अपज्जवसिदो अणादिश्रां सपज्जवसिदो सादिओ सपज्ज० । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो हि सो- जहण्णु ० तो ० इत्थिवेद० उक्क० पदे० जहण्णुक० एस० । अणुक्क० ज० दसवस्ससहस्साणि वासपुघणव्भहियाणि, उक्क० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा ।
$ १४. आदेसेण० णेरइएसु मिच्छत्त- सोलसक० - इण्णोक० उक० पदे० जहण्णुक्क० एस० । अणुक्क० जह० अंतो० । कुदो ! सत्तमाए पुढवीए समयाहियअसंखे०फद्दयमेत्तावसेसे आए दव्वमुकस्सं करिय विदियसमयमादि काढूण अंतोमुहुत्तमेत्तकालं अणुक्कस्सदव्वेणच्छिय णिग्गयस्स तदुवलंभादो । णेरइयचरिमसमए पदेस सुकस्ससामित्तं परूविदमुत्तेण सह एदस्स वक्खाणस्स कथं ण विरोहो १ विरोहो चेव । किं तु आउवबंधयद्धाकालम्मि जादपदेसक्खयादो उवरिमकालपदेससंचओ बहुओ ति जइवसहाइरिओएसो तेण णेरइयचरिमसमए चेव उक्कस्सपदेससामित्तं । उच्चारणाइरियाणं पुण अहिप्पारण उवरिमसंचयादो अबंधकालम्मि जादपदेसक्खओ
छयासठ सागरप्रमाण है। चार संज्वलन और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका श्रनादि-अनन्त, अनादि- सान्त और सादि- सान्त काल है । उनमें से जो सादि- सान्त काल है उसका यह निर्देश है। उसकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल वर्षपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन के बराबर है ।
विशेषार्थ -- यहां उच्चारणाचार्य के व्याख्यानमें वही सब काल कहा गया है जो कि चूर्णि - सूत्रों द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। मात्र चूर्णिसूत्र में मिध्यात्व आदि की अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल तीन प्रकार से बतलाया गया है सो यहाँ अनन्त काल और असंख्यात लोकप्रमाण काल इन दो को छोड़कर एकका ही ग्रहण किया गया है, क्योंकि उक्त तीन प्रकारके कालों में से सबसे जघन्य काल यही प्राप्त होता है और यह निर्विवाद है ।
$ १४. आदेश से नारकियों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि सातवीं पृथिवीमें आयुके एक समय अधिक असंख्यात स्पर्धकमात्र शेष रहने पर उक्त कर्मों के द्रव्यको उत्कृष्ट करके और दूसरे समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक अनुत्कृष्ट द्रव्य के साथ रहकर निकलनेवाले जीवके उक्त काल पाया जाता है ।
शंका नारकी के अन्तिम समयमें प्रदेशसत्कर्मके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्र के साथ इस व्याख्यानका विरोध कैसे नहीं प्राप्त होता ?
समाधान — उक्त सूत्र के साथ इस व्याख्यानका विरोध तो है ही, किन्तु श्रायुबन्धके काल में जो प्रदेशों का क्षय होता है उससे आगे के काल में होनेवाला प्रदेशों का संचय बहुत है यह यतिवृषभाचार्य का उपदेश है, इसलिए इस उपदेशके अनुसार नारकीके अन्तिम समयमें ही उत्कृष्ट प्रदेशस्वामित्व प्राप्त होता है । परन्तु उच्चारणाचार्य के अभिप्राय से आयुबन्ध कालसे आगे के
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपस विहत्तीए कालपरूवणा
बहुओ ति तेण आउअबंधे चरिमसमयअपारडे चैव उकस्ससामित्तं होदि ति तदो आणाकणिदाए णिण्णयाभावादोत्थपं काऊण वक्खाणेयव्वं । उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । णवरि अणताणु० चक्क० जह० एगसमओ । कुदो १ चडवीससंतकम्मिय व समसम्मादिद्विम्मि सासणं गंतून अनंताणुबंधिसंतमुप्पाइय विदियसमए निष्पिलिदम्मि तदुवलंभादो । उक्क० तं चैव । सम्मत्त - सम्मामि० उक्क० पदे० जहण्णुक० एगस० । अणुक० ज० एग०, उक० तेत्तीस सागरोवमाणि । तिन्ह वेदाणमुक० पदेस० जहण्णुक्क० एस० । अणुक्क० जह० दसवस्ससहस्सा णि समयुणाणि, उक्क० तेतीसं सागरोवमाणि ।
काल में होनेवाले सञ्चयसे आयुबन्धके काल में प्रदेशोंका क्षय बहुत होता है इसलिए आयु बन्धके प्रारम्भ होने के पूर्व अन्तिम समय में ही अर्थात् आयुबन्ध प्रारम्भ होनेके अनन्तर पूर्व समय में उत्कृष्ट स्वामित्व होता है । अतएव जिनाज्ञाका निर्णय न होनेसे इस विषयको स्थगित करके व्याख्यान करना चाहिए ।
उक्त प्रकृतियों की अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो उपशमसम्यग्दृष्टि नारकी जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सत्वको उत्पन्न करके दूसरे समय में अन्य गतिमें चला जाता है उसके एक समय काल पाया जाता है । तथा उत्कृष्ट काल वही है । अर्थात् तेतीस सागर ही है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । तीनों वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है।
विशेषार्थ -- सामान्य से नारकियोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति सातवें नरक में आयुबन्धसे पूर्व अन्तिम समय में होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है तथा उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके बाद नरकभवमें जो अन्तर्मुहूर्त काल शेष बचता है वह इन कर्मों की अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल है और इसका उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर उस नारकीके होता है जिसके उस पर्याय में उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति नहीं होती। यही कारण है कि उक्त कर्मोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । मात्र अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है, इसलिए कारण सहित इस कालका निर्देश अलग से किया है । यहाँ अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके जघन्य कालका निर्देश करके 'उक्क० तं चेत्र' कहकर उत्कृष्ट काल भी कह दिया है पर इससे यह मिथ्यात्व की अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके उत्कृष्ट काल से अलग है ऐसा नहीं समझना चाहिए, अन्यथा 'तं चैव' पद देनेकी कोई सार्थकता नहीं थी । सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति उत्कृष्ट स्वामित्व के अनुसार एक समय के लिए होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जो जीव अपनी-अपनी उद्वेलनाके अन्तिम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ १५. पढमाए जाव छहि ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० उक्क० पदेस० जहण्णुक० एगस । अणुक्क० जह० पढमाए दसवस्ससहस्साणि समऊणाणि । कुदो समऊणत्तं ? उप्पण्णपढमसमए पदेसस्स जादुक्कस्ससंतत्तादो । सेसासु पुढवीसु जह० सगसगजहण्णहिदीओ समऊणाओ, उक्क. सगसगुक्कस्सहिदीओ। एवमणंताणु०चउक्क०-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । णवरि अणुक्क० ज० एगस० । सत्तमीए णिरओघं । णवरि इत्थि-पुरिस-णउंसयवेदाणमुक्क० पदे० जहण्णुक० एग० । अणुक्क० ज. पावीसं सागरोवमाणि, उक्क० तेत्तीसं साग० । अणंताणु० चउक्क० उक्क० पदे० जहण्णुक० एग० । अणुक्क० ज० अंतो०। कुदो ण एगसमओ ? सत्तमाए पुढवीए सासणगुणेण णिग्गमाभावादो । उक० तेतीसं सागरो । समयमें नरकमें उत्पन्न होता है उसके वहाँ इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति एक समय तक देखी जाती है, अत: इन दोनों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कहा है। इसका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है यह स्पष्ट ही है। तीनों वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति नरकमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें सम्भव है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा नरककी जघन्य स्थितिमेंसे इस एक समयको कम कर देने पर तीनों वेदोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम जघन्य आयुप्रमाण होता है और इसका उत्कृष्ट काल नरककी उत्कृष्ट अायुप्रमाण है यह स्पष्ट ही है।
६ १५. पहली पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल प्रथम पृथिवीमें एक समय कम दस हजार वर्ष है।
शंका-एक समय कम क्यों है ? समाधान-क्योंकि वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही उत्कृष्ट सत्त्व होता है।
शेष पृथिवियोंमें उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम अपनी-अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल छहोंमें अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार अनन्तानबन्धीचतक. सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है। सातवीं पृथिवीमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल बाईस सागर है और उत्कृष्ट काल तंतीस है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ।
शंका-एक समय क्यों नहीं है ? समाधान-क्योंकि सातवीं पृथिवीसे सासादन गुणस्थानके साथ निर्गमन नहीं होता है। तथा उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। विशेषार्थ-प्रथमादि छह पृथिवियोंमें गुणितकर्माशविधिसे आये हुए जीवके नरकमें
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मा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए कालपरूवणा १६. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छत्त-सोलसक-णवणोक० उक० पदे० जहण्णुक० एगस० । अणुक्क० ज० खुद्दाभवग्गहणं । एदं समयूणं ति किं ण उच्चदे ? ण, गेरइयेहितो णिग्गयस्स अपज्जत्तएस अणंतरसमए उववादाभावादो। अणंताणु० चउक्क०-इत्थिवेदाणमेगस। सव्वासिमुक्क० अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टा । सम्मत्त-सम्मामि० उक० पदे० जहण्णुक. एग० । अणुक्क० ज० एग०, उक्क० उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है, इसलिए इन नरकोंमें उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। मात्र इन नरकोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति सामान्य नारकियोंके समान भी सम्भव है, इसलिए इन नरकोंमें इसका जघन्य काल एक समय कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति प्रथमादि छह नरकोंमें जो गुणितकर्माशिक जीव आकर और वहाँ उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त में यथाशास्त्र उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके अन्तिम समयमें होती है, अत: इसका जघन्य
और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इनकी उद्वेलनामें एक समय शेष रहने पर जो उक्त नरकोंमें उत्पन्न होता है उनके अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति एक समय देखी जाती है, अत: उक्त नरकोंमें इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कहा है और इसका उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। सातवीं पृथिवीमें अन्य सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल सामान्य नारकियोंमें जिस प्रकार घटित करके बतला आये हैं उस प्रकारसे घटित कर लेना चाहिए। मात्र जिन प्रकृतियोंमें कुछ विशेषता है उसका स्पष्टीकरण करते हैं। तीनों वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति तो गुणितकौशिक जीवके यहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । तथा इस एक समयको सातवें नरकी जघन्य स्थितिमेंसे कम कर देनेपर यहाँ उनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल पूरा बाईस सागर प्राप्त होता है और इसका उत्कृष्ट काल यहाँकी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। यहाँ अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामित्व ओघके समान है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य
और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पूरा तेतीस सागर कहा है। यहाँ अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति का जघन्य काल एक समय क्यों नहीं बनता इसके कारणका निर्देश मूल में ही किया है।
१६. तिर्यश्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है।
शंका-इसे एक समय कम क्यों नहीं कहते ?
समाधान नहीं, क्योंकि नारकियोंमेंसे निकले हुए जीवका अनन्तर समयमें अपर्याप्तक जीवों में उत्पाद नहीं होता।
__ अनन्तानुबन्धोचतुष्क और स्त्रीवेदकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और सबका उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है। सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदोवमस्स असं० भागेण सादिरे ।
१७. पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि छव्वीसं पयडीणमुक्क० पदे० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० खुदा० अंतोमु०, अणंताणु०चउक्क०-इत्थिवेदाणमेगस०, उक्क० सव्वासिं तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमित्थिवेदभंगो। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तीन पल्य प्रमाण है।
विशेषार्थ-यहाँ सब कर्मोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति अपने अपने स्वामित्त्र के अनुसार एक समयके लिए होती हैं, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। प्रागेकी मार्गणाओंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए, इसलिए आगे सब कर्माकी मात्र अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके कालका स्पष्टीकरण करेंगे । तिर्यञ्चोंमें जघन्य प्रायु क्षुल्लक भबग्रहणप्रमाण है और कायस्थिति अनन्त काल प्रमाण है, इसलिए इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अनन्त काल कहा है। मात्र यहाँ अनन्तानुबन्धीचतुष्क और स्त्रीवेदकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है, इसलिए इसका अलगसे निर्देश किया है। जो स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति करने के बाद एक समय तक तिर्यञ्चोंमें रहकर देव हो जाता है उसके स्त्रीवेदकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय बन जाता है और जिस तियञ्चने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके तियश्च पर्यायमें रहनेका काल एक समय शेष रहने पर सासादनगुणस्थान प्राप्त करके उससे संयुक्त हुआ है उसके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तिर्यञ्चों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा बन जाता है, इसलिए इसका जघन्य काल एक समय कहा है। सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वकी अपेक्षा भी बन जाता है इतना यहां विशेष जानना चाहिए। तथा जो तिर्यञ्च पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक इनकी उद्वेलना करते हुए अन्तमें तीन पल्यकी आयुके साथ उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं और वहाँ अधिकतर समय तक सम्यक्त्व के साथ रहते हुए इनकी सत्ता बनाये रखते हैं उनके इस सब कालके भीतर उक्त दोनों प्रकृतियोंकी सत्ता बनी रहती है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक तीन पल्य कहा है ।
६ १७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल तियश्चोंमें क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण और शेष दो में अन्तर्मुहूर्त है। किन्तु अनन्तानुबन्धीचतुष्क और स्त्रावेदकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और सबका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है।
विशेषार्थ-पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंकी जघन्य स्थिति क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण और शेष दो की अन्तर्मुहूर्त है। तथा सबकी कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है, इसलिए इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल क्रमसे क्षुल्लक भवग्रहण
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गा० २२ ]
उत्तरपयड पदेस वित्तीए कालपरूवणा
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१८. पंचि०तिरि० अपज्ज० छव्वीसं पयडीणं उक्क० पदे० जहण्णुक• एगस० । अणुक० ज० खुद्धाभव० समऊणं, उक्क० तो ० | सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमेवं चेव । वरि अणुक० ज० एस० । एवं मणुस अपज्जत्ताणं ।
१६. मणुसतियम्मि अट्ठावीसं पयडीणं उक्क० पदे० जहण्णुक० एगस० । अणुक० ज० खुद्धा • अंतो० समऊणं, उक्क० सगहिदी । णवरि सम्म० सम्मामि०अणताणु ० चउक्क०- - इत्थिवेद० अणुक्क० ज० एस० । चदुसंज० - पुरिस० अणुक्क० ज० तो ० ।
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प्रमाण और अन्तर्मुहूर्त कहा है तथा उत्कृष्ट काल पूर्व कोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहा है। मात्र अनन्तानुबन्धचतुष्क और स्त्रीवेदकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति सामान्य तिर्यभ्वों के समान यहाँ भी बन जाती है, इसलिए यहाँ इसका जघन्य काल एक समय कहा है । सम्यक्त्व और सम्यग्यिथ्यात्व की प्ररूपणा स्त्रीवेद के समान घटित हो जाती है, इसलिए उसे उसकी प्ररूपणा के समान जानने की सूचना की है ।
१८. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक जीवों में जानना चाहिए ।
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विशेषार्थ उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका एक समय काल कम कर देने पर यहाँ अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल प्राप्त होता है और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, इसलिए इन जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अन्य सब काल इसी प्रकार बन जाता है, इसलिए उसे इसी प्रकार जानने की सूचना की है। मात्र इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उद्वेलना की अपेक्षा एक समय काल भी प्राप्त होता है, इसलिए इनकी उक्त विभक्तिका जघन्य काल अलग से एक समय कहा है। मनुष्य अपर्याप्तकों में यह कालप्ररूपणा अविकल बन जाती है, इसलिए उनमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों के समान जानने की सूचना की है।
१६. मनुष्यत्रिक में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहप्रमाण है और एक समय कम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी कार्यस्थितिप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क और स्त्रीवेदी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है। तथा चार संज्वलन और पुरुषवेद की अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है I
विशेषार्थ - सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका एक समय काल अपनी अपनी जघन्य स्थितिमेंसे कम कर देने पर अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल प्राप्त होता है, इसलिए यहाँ पर अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल सामान्य मनुष्यों में एक समय कम क्षुल्लक भव प्रहणप्रमाण और शेन दो प्रकार के मनुष्यों में एक समय कम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा है। इनमें
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ २०. देवगदीए देवेसु मिच्छ०-बारसक०-सत्तणोक० उक्क० पदे. जहण्णुक्क० एग० । अणुक्क० जह० दसवस्ससहस्साणि समऊणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरो० । एवं सम्मत्त-सम्मामि-अर्णताणु० चउक्काणं । णवरि अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० तं चेव । एवं पुरिस-णउंसयवेदाणं । णवरि अणुक्क० ज० दसवस्ससहस्साणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि।
२१. भवण-वाण-जोइसि० छव्वीसं पयडीणमुक्क० पदे० जहण्णुक्क०
इसका उत्कृष्ट काल कायस्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। मात्र इनमें सम्यक्त्वका उद्वेलना और क्षपणाकी अपेक्षा तथा सम्याग्मिथ्यात्वका उद्वेलनाकी अपेक्षा, अनन्तानुबन्धीचतुष्कका संयोजना होकर सासादन गुणस्थानके साथ विवक्षित पर्यायमें एक समय रहनेकी अपेक्षा
और स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके बाद एक समय तक अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति के साथ विवक्षित पोयमें रहनेकी अपेक्षा उक्त प्रकातियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय बन जाने से वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा चार संज्वलन और पुरुषवेदकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त जो ओघसे घटित करके बतला आये हैं वह मनुष्यत्रिकमें सम्भव है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है।
२०. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्त्र और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल वही है । पुरुषवेद और नपुंसकवेदका काल भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है।
विशेषार्थ-देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और सात नोकषायकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति गुणित कौशिक जीवके यहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें होती है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम दस हजार वष कहा है। उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है यह स्पष्ट ही है। शेष प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल तो यही है। मात्र जघन्य कालमें अन्तर है। सम्यक्त्वका उद्वेलना और क्षपणाकी अपेक्षा, सम्यग्मिथ्यात्व का उद्वेलनाकी अपेक्षा और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका संयोजना होकर सासादन गुणस्थानके साथ एक समय विवक्षित पर्यायमें रहनेकी अपेक्षा एक समय काल बन जाता है, इसलिए यहाँ इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति पल्योपमकी स्थितिवाले देवोंके अन्तिम समयमें होती है, इससे कम स्थितिवालेके नहीं, इसलिए तो इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल पूरा दस हजार वर्ष कहा है और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति ऐशान कल्पमें होती है, इसलिए इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका भी जघन्य काल पूरा दस हजार वर्ष कहा है।
१२१. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए कालपरूपणा एगस० । अणुक० जह० जहण्णहिदी समऊणा, उक्क० अप्पप्पणो उक्कस्सहिदीओ। णवरि अर्णताणु० चउक्क० जह० एगस० । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमणंताणु०चउक्कभंगो । . २२, सोहम्मादि जाव सहस्सारो त्ति मिच्छत्त-वारसक०-णवणोक० उक्क० पदे० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० जह० सग-सगजहाणहिदीओ समऊणाओ, उक्क० सग-सगुक्कस्सहिदीओ। अणंताणु० चउक्क०-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं एवं चेव । णवरि अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० तं चेव ।
२३. आणदादि जाव णवगेवेज्जा ति छव्वीसं पयडीणं उक्क० पदे. प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग अनन्तानुबन्धीचतुष्कके समान है ।
विशेषार्थ--उक्त देवोंमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें सम्भव है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण कहा है और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय सामान्य देवोंके समान यहाँ भी बन जाता है, इसलिए इसके जघन्य काल एक समयका अलगसे निर्देश किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्भिथ्यात्वका भङ्ग अनन्तानुबन्धीचतुष्कके समान कहनेका कारण यह है कि यहाँ पर इनका भी उद्वेलनाकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिका जघन्य काल एक समय बन जाता है । शेष कथन स्पष्ट ही है।
६ २२. सौधर्म कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें मिथ्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्वात्वका भङ्ग इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल वही है।
विशेषार्थ--यहाँ प्रारम्भमें कही गई बाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें होती है। मात्र सौधर्म और ऐशान कल्पमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति उस पर्यायके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इन सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण कहा है। तथा शेष प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति सामान्य देवोंके समान यहाँ भी घटित हो जाती है, इसलिए इसका जघन्य काल एक समय कहा है। यहाँ सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है।
६ २३. आनत कल्पसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ जहण्णुक० एगस० । अणुक्क० जह० खुद्दाबंधपाढो समऊणो, उक्क. सगहिदी। णवरि अणंताणु चउक्करस अणुक्क० पदे० जह० एगस०। एवं सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणं।
२४. अणुदिसादि जाव सव्वसिद्धि ति सत्तावीसं पयडीणमुक्क० पदे० जहण्णुक० एगल. अणुक० जह० जहरणहिदी समयूणा, उक्क० सगुकस्सहिदी। णवरि अणंताणु० चउक्क० अणुक० जह० अंतोमु० सम्मत्त० उक० पदेसजहण्णुक्का एगस० । अणुक० जह० एस०, उक० सगहिदी । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल क्षुल्लकबन्धके पाठके अनुसार एक समय कम जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षासे जानना चाहिए।
विशेषार्थ—यहाँ मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति अपने अपने भवके प्रथम समयमें सम्भव है। तीनों बेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति स्वामित्वके अनुसार यद्यपि भवके प्रथम समयमें सम्भव नहीं है, क्योंकि स्वामित्वप्ररूपणामें गुणितकर्माशविधिसे आकर जो द्रव्यलिंगके साथ मरकर और वहाँ उत्पन्न होकर विवक्षित वेदके परणकालके अन्तिम समयमें स्थित है उसके तीनों वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति बतलाई है पर क्षुल्लकबन्धके पाठके अनुसार तीनों वेदों सहित उक्त सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण बतलाया है सो विचार कर घटित कर लेना चाहिए। मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय सामान्य देवोंके समान यहाँ भी बन जाता है, इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय ही है, क्योंकि सम्यक्त्वका उद्वेलना और क्षपणाकी अपेक्षा तथा सम्यग्मिथ्यात्वका उद्वेलनाकी अपेक्षा एक समय काल प्राप्त हानेमें कोई बाधा नहीं आती, इसलिए इनकी प्ररूपणा अनन्तानुबन्धीचतुष्कके समान जाननेकी सूचना की है। यहाँ सब प्रकृयियोंकी अनु कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है।
२४. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ— उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके एक समयको अपनी अपनी जघन्य स्थितिमेंसे कम कर देने पर सत्ताईस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल प्राप्त होता है, इसलिए वह एक समय कम जघन्य स्थितिप्रमाण कहा है। मात्र जो वेदकसम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धीकी
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए कालपरूवग्णा ६२५. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-एकारसकसाय-णवणोकसाय० जहण्णपदे जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अजहण्णे० अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिनो सपज्जवसिदो। सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं जहण्णपदे जहण्णुक० एगसमओ। अजह० ज० अंतोमु०, उक्क० वेछावहि सागरोवमाणि सदिरेयाणि । अणंताणु०चउक्क० ज० पदेस. जहणुक० एगस० । अज० अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो। जो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिद्देसो-जह० अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्ट देसणं । लोभसंजल. जह• पदे० जहण्णुक० एगस । अज० तिण्णि भंगा। जो सादिओं' सपज्जवसिदो तस्स जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । विसंयोजना किये बिना वहाँ उत्पन्न हुआ है और अन्तर्मुहूर्त कालमें उनकी विसंयोजना कर देता है उसके इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति अन्तर्मुहूर्त काल तक ही देखी जाती है, इसलिए इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। क्षपणाकी अपेक्षा सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय यहाँ भी सम्भव होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। इन सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। इस प्रकार यहाँ तक अोघसे और चारों गतियों में कालका विचार किया। आगे अपनी अपनी विशेषताको जानकर वह घटित कर लेना चाहिए ।
इस प्रकार उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ। , २५. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और नौ नोकपायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त काल है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त काल है। उनमें जो सादि-सान्त काल है उसका यह निर्देश है-जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। लोभसंज्वलनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य
और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिके तीन भङ्ग हैं। उनमें जो सादि-सान्त भङ्ग है उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ— अपने अपने स्वामित्वके अनुसार ओघ और आदेशसे सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति एक समय तक ही होती है, इसलिए उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल सर्वत्र एक समय कहा है। अतः यहाँ केवल सब प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके कालका विचार करें गे। मिथ्यात्व आदि इक्कीस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इसका काल अभव्यों या अभव्योंके समान भव्योंकी अपेक्षा
१. ता० प्रतौ 'जो सो सादियो' इति पाठः ।
दिया इात पाठ..
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहन्ती ५ २६. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-सतणोकसाय. जह० पदे० जहण्णुक्क० एगसमओ। अज० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोक्माणि । सम्मत्त-सम्मामि०. अणंताणु० चउकाणं जह० पदे. जहण्णुक्क० एगस० । अज. जह० एगसमओ, उक० तेत्तीसं सागरो० । बारसक०-भय-दुगुंछाणं जह० पदे. जहण्णुक० एगस० । अज. ज० दसवस्ससहस्साणि समयूणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । अनादि-अनन्त और इतर भव्योंकी अपेक्षा अनादि-सान्त कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं। इनका सत्त्व होकर क्षपणा द्वारा कमसे कम अन्तर्मुहूर्तमें अभाव हो सकता है और जो प्रारम्भमें, मध्यमें और अन्तमें इनकी उद्वेलना करते हुए दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहता है उसके साधिक दो छयासठ सागर काल तक इनका सत्त्व देखा जाता है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर कहा है। इनका सत्त्व अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त नहीं होता, इसलिए ये दो भङ्ग नहीं कहे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्क अनादि सत्तावाली होकर भी विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त ये तीन भङ्ग कहे हैं। तथा सादि-सान्तके कालका निर्देश करते हुए वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त कहा है, क्योंकि विसंयोजनाके बाद अन्तर्मुहूतके लिए इनकी सत्ता होकर पुनः विसंयोजना हो सकती है। तथा उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलप्रमाण कहा है, क्योंकि कोई जीव इस कालके प्रारम्भमें और अन्तमें इनकी विसंयोजना करे और मध्यमें न करे यह सम्भव है। लोभकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके भी तीन भङ्ग हैं। अनादि-अनन्त भङ्ग अभव्योंके होता है। अनादि-सान्त भङ्ग भव्योंके जघन्य प्रदेशविभक्तिके पूर्व होता है और सादि-सान्त भङ्ग जघन्य प्रदेशविभक्तिके बादमें होता है। इसकी जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपक जीवके अधःकरणके अन्तिम समयमें होती है। इसके बाद इसका सत्त्व अन्तर्मुहूत काल तक ही पाया जाता है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है।
२६. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व और सात नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है
और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्ति नारक पर्यायमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर हो यह भी सम्भव है, इसके बाद इनकी वहाँ अन्तर्मुहूर्त काल तक अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। तथा क्षपितकशिविधिसे आकर नरकमें उत्पन्न हुए जिसे अन्तर्मुहूर्त काल हो जाता है उसके पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है और इससे पूर्व अन्तर्मुहूर्त काल तक अजघन्य प्रदेशविभक्ति रहती है, इसलिए इन सब प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। सम्यक्त्व आदि छह प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय अनुत्कृष्टके समान घटित कर लेना चाहिए । बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें
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मा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए कालपरूवणा ६ २७. पढमाए जाव छहि ति मिच्छत्त-इत्थि-णqसयवेदाणं जह० पदे० जहण्णुक० एगस० । अज० जह० जहण्णहिदी, उक्क० सगुक्कस्सहिदी। सम्मत्तसम्मामि०-अणंताणु० चउक्काणं जह० पदे० जहण्णुक० एगस । अज० जह० एगस०, उक्क. सुगुक्कस्सहिदीओ। बारसक०-भय-दुगुंछाणं जह० पदे० जहण्णुक्क० एगस० । अज० जह० जहण्णहिदी समऊणा, उक्क० सगहिदी। पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदिसोगाणं जह० पदे० जहण्णुक० एगस० । अज० जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदीओ।
२८. सत्तमाए मिच्छत्त-अणंताणु०चउक्क०-इत्थि-पुरिस-णqसयवेद--हस्सरदि-अरदि-सोगाणं जह० पदे० जहण्णुक० एगस० । अज० जह० अंतोमुहुत्तं, उक. तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । णवरि अज० जह• एगस० । प्राप्त होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम दस हजार वर्ष कहा है। सब अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है यह स्पष्ट ही है।
२७. प्रथम पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है
और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य
और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-प्रथमादि छह पृथिवियोंमें उत्कृष्ट श्रायुवाले जीवके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य स्वामित्व बतलाया है, इसलिए यहाँ इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण कहा है। सम्यक्त्व आदि छह प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय सामान्य नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिए। आगे भी जहाँ यह काल इतना कहा हो वहाँ वह इसी प्रकार जानना चाहिए। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इसका जघन्य काल एक समय कम जघन्य स्थितिप्रमाण कहा है। पुरुषवेद आदिकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भवके प्रारम्भमें अन्तर्मुहूर्त काल जाने पर होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इन अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है।
___$ २८. सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ बारसक-भय-दुगुंछाणं जह० पदे. जहण्णुक्क० एगस० । अज. जह० बावीसं सागरोवमाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि ।
___$२६. तिरिक्रवगदीए तिरिक्खेसु मिच्छत्त०--बारकसाय--भय--दुगुंचित्थिणQसयवेदाणं जह० पदे. जहण्णुक्क० एगस० । अज० जह० खुद्दाभबग्गहणं, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जह० पदे० जहण्णुक० एगस० । अज० जह० एगस०, उक० तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयाणि । अणंताणु० चउक० जह० जहष्णुक० एगस० । अज० जह० एगस०, उक्क. अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदिसोगाणं जह० पदे० जहण्णुक्क० एगस० । अज० जह० अंतोमु०, उक्क० अणंतकाल - मसंखे०पो०परियट्टा। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल बाईस सागर है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है।
विशेषार्थ—सातवीं पृथिवीमें ओघके समान स्वामित्व है, इसलिए यहाँ मिथ्यात्व आदि बारह प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। सम्यक्त्वद्विकका भङ्ग उक्त प्रकृतियोंके समान है यह स्पष्ट ही है। मात्र इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उद्वेलनाकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय बन जानेसे वह अलगसे कहा है । बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल बाईस सागर कहा है। इन अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है यह स्पष्ट ही है।
$ २६. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल क्षल्लक भवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य
और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तीन पल्य है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है । पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अनन्त काल है, जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है।
विशेषार्थ-तियंञ्चोंकी जघन्य भवस्थिति क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण है और जघन्य भवस्थितिवाले जीवोंके मिथ्यात्व आदि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए कालपरूपणा
३०. पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि मिच्छत्तित्थि-णवंसयवेद-बारसक०-भयदुगुंछाणं जह• पदे. जहण्णुक० एगस० । अज० जह० खुदाभवग्गहणमंतोमुहुत्तं, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि०--अणंताणु० चउक्काणमेवं चेत्र । णवरि अज० जह० एगस० । पंचणोकसायाणं जह० पदे० जहण्णुक० एगस० । अज० जह० अंतो०, उक्क. सगहिदी।
३१. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंछ, जह० पदे० जहण्णुक्क० एगस० | अज० जह० खुद्दाभवग्गहणं समयूर्ण, उक्क० अंतोमु० । होती नहीं, इसलिए यहाँ उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण कहा है। तथा तियञ्चोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्त काल है, इसलिए उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल अनन्त काल कहा है। यहाँ सम्यक्त्वद्विककी एक समय तक सत्ता उद्वेलनाकी अपेक्षा बन जाती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा जो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक इनकी उद्वेलना कर सत्त्व नाश हुए बिना तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होकर और सम्यक्त्वको उत्पन्न कर अन्त तक इनकी सत्ता बनाये रखते हैं उनके इतने काल तक इनकी सत्ता दिखलाई देनेसे यहाँ इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक तीन पल्य कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय पहले अनेक बार घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। तथा इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल मिथ्यात्वके समान है यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार पुरुषवेद आदि पाँचकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल जानना चाहिए । तथा इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्रथम नरकके समान घटित कर लेना चाहिए।
३०. पञ्च न्द्रिय तियेञ्चत्रिको मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल सामान्यसे पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण और शेष दोमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व
और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है। पाँच नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-यहाँ अन्य सब स्पष्टीकरण सामान्य तिर्यञ्चोंके समान कर लेना चाहिए। केवल दो बातों में विशेषता है। एक तो पञ्चेन्द्रिय तियश्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तियञ्च योनिनी जीवोंकी जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनमें मिथ्यात्व आदिकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। दूसरे इन तीनों प्रकारके तिर्यञ्चोंकी कायस्थिति पूर्वकोटिपृथकत्व अधिक तीन पल्य है और इतने काल तक यहाँ अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति हुए बिना भी सत्ता रह सकती है, इसलिए यहाँ इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थितिप्रमाण कहा है।
३१. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहस्त्री ५ एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं। णवरि अज० जह० एगसमओ। सत्तणोक० जह० पदे० जहण्णुक० एगस० । अज० जहण्णुक्क० अंतोमु । एवं मणुसअपज्जत्ताण ।
६ ३२. मणुसतियम्मि मिच्छत्त-बारसक०-णवणोकसायाणं जह० पदे. जहणुक० एगसमओ। अज० जह० खुद्दाभव. अंतोमु, उक्क० सगहिदी। सम्मत्तसम्मामि०-अणंताणु०चउक्काणं जह• पदे० जहण्णुक्क० एगस० । अज० जह० एगस०, उक० सगहिदीओ।
जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है। सात नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-यहाँ मिथ्यात्व आदि उन्नीस प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इसका जघन्य काल एक समय कम शुल्लकभवग्रहणप्रमाण कहा है। सम्यक्त्वद्विकके अजघन्य प्रदेशसत्त्वका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा प्राप्त होता है यह स्पष्ट ही है। तथा सात नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भवग्रहणके अन्तर्मुहूर्त बाद होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशभिक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा यहाँ सभी प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है।
३२. मनुष्यत्रिकमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल सामान्य मनुष्योंमें क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण और शेष दोमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण तथा तीनोंमें उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबम्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थिति प्रमाण है।
विशेषार्थ—सामान्य मनुष्योंकी जघन्य स्थिति क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण, शेष दोकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण तथा तीनोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि अधिक तीन पल्यप्रमाण होती है, इसलिए इनमें मिथ्यात्व आदि बाईस प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल सामान्य मनुष्योंमें तुल्लकभवग्रहणप्रमाण, शेष दोमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण और उत्कृष्ट काल तीनोंमें कायस्थितिप्रमाण कहा है, क्योंकि इन तीनों प्रकारके मनुष्योंमें क्षपणाके समय यथायोग्य स्थानमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है, इसलिए यहाँ पर इन प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके उक्त कालके प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती। अब रहीं शेष छह प्रकृतियाँ सो इनमेंसे जिन जीवोंने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनामें एक समय शेष रहने पर मनुष्य पर्याय प्राप्त की है उनके इन दो प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तथा जो मनुष्य अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके मनुष्य पर्याय में एक समय शेष रहने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त होते हैं उनके इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय बन जाता है, इसलिए यहाँ इन छह प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कहा है। यहाँ इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल कायस्थिति
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए कालपरूवणा ___३३. देवगईए देवेमु मिच्छत्तित्थि-णqसयवेदाणं जह० पदे० जहण्णुकस्स० एगस० । अज० जह० दसवस्ससहस्साणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवमणंताणु०चउक्कल-सम्म०-सम्मामिच्छत्ताणं । णवरि अज० जह० एगस०। बारसक०भय-दुगुंछाणं मिच्छत्तभंगो । पंचणोक० जह० पदे० जहण्णुक० एगस० । अज० जह. अंतोमुहु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि ।
३४. भवणादि जाव उवरिमगेवज्जा ति मिच्छत्तित्थि-णqसयवेदाणं जह. पदे० जहण्णुक्क० एगस०। अज. जह० जहण्णहिदी, उक्क० उक्कस्सहिदी । सम्पत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्काणं जह० पदेस० जहण्णुक्क० एगस० । अज० जह० एगस०, उक्क० उक्क हिदी । बारसक-भय-दुगुंछाणं जह० पदे० जहण्णुक्क. एगस० । अज० जह० जहण्णहिदी समयूणा, उक्क. उक्कस्सहिदी। पंचणोक. प्रमाण है यह स्पष्ट ही है। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होकर अभाव न हो जाय ऐसा करते हुए उनका सत्त्व बनाये रखना चाहिए।
३३. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके विषयमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। पाँच नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है ।
विशेषार्थ देवोंमें स्वामित्वको देखते हुए मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, भय और जुगुप्साकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर बन जाता है, इसलिए यह काल उक्त प्रमाण कहा है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और पाँच नोकपायोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल भी इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र इनके अजघन्य प्रदेशसत्कर्मके जघन्य कालमें अन्तर है, इसलिए वह अलगसे कहा है। उनमेंसे प्रारम्भकी छह प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय तो मनुष्योंके समान यहाँ भी घटित हो जाता है। मात्र पाँच नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति देवोंमें उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्तबाद सम्भव है, इसलिए यहाँ इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है।
६३४. भवनवासियोंसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है
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-- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ जह० पदे० जहण्णुक्क० एगसः। अज० जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदीओ। . ६३५. अणुद्दिसादि जाव अवराइदो ति मिच्छत्त-सम्मामि०-इत्थि-णqसयबेदाणं जह० पदे० जहण्णुक्क० एगस० । अज० ज. जहण्णहिदी, उक्क० उक्कस्सहिदी। सम्मत्त जह० पदे० जहण्णुक्क० एगस० । अज. जह० एगस०, उक्क. सगहिदी । एवमणंताणु चउक्क०-हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं । णवरि अज० जह० अंतोमु०। बारसक०-पुरिस-भय-दुगुंछाणं जह० पदे० जहण्णुक्क० एगस० । अज० जह० जहण्णहिदी समऊणा, उक्क० सगहिदी।
और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। पाँच नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ—यहाँ बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण कहा है। शेष काल सुगम है, क्योंकि उसका सामान्य देवोंमें स्पष्टीकरण आये हैं। उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। ___ ३५. अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य, रति, अरति और शोककी अपेक्षा काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ—यहाँ मिथ्यात्व आदिकी जघन्य प्रदेशविभक्ति जघन्य आयुवाले जीवोंके भवके प्रथम समयमें सम्भव नहीं है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। कृतकृत्यवेदकके कालमें एक समय शेष रहने पर ऐसा जीव मरकर यहाँ उत्पन्न हो सकता है, इसलिए सम्यक्त्वकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि आठ प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भवके अन्तर्मुहूर्तं बाद प्राप्त होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। बारह कषाय आदि की जघन्य प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण कहा है। इन सब प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। .. ...
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेशविहत्तीए अंतरकालपरूवणा
३६. सव्वदृसिद्धिम्मि मिच्छ०-सम्मामि०-बारसक०-इत्थि-पुरिस-णqसयवेद-भय-दुगुंछाणं जह० पदे० जहण्णुक० एगस० । अज० जह० तेत्तीसं सागरोवमाणि समऊणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरो । सम्म० जह० पदे० जहग्णुक्क एगस० । अज० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि । अणंताणु० चउक्क०-हस्स-रदिअरदि-सोगाणं जह० पदे० जहण्णुक० एगस० । अन० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
एवं कालाणुगमो समत्तो । * अंतरं । ३७. पइज्जासुत्तमेदं सुगमं ।
ॐ मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेससंतकम्मियंतरं जहण्णु कस्सेष अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा ।
३६. सर्वार्थसिद्धिमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य काल एक समय कम तेतीस सागर है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इस प्रकार जान कर अनाहारक मागणा तक जाना चाहिए।
विशेषार्थ- यहाँ मिथ्यात्व आदिकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होनेसे इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम तेतीस सागर कहा है। कृतकृत्यवेदकका एक समय काल यहाँ उपलब्ध हो सकता है, इसलिए सम्यक्त्वकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति यहाँ अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्भव है, इसलिए उसका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है। सब प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल पूरा तेतीस सागर है यह स्पष्ट ही है। यहाँ तक जो काल कहा है उसे देखकर वह अनाहारक मार्गणातक घटित कर लेना चाहिए, इसलिए उसे इसके समान ले जानेकी सूचना की है।
__इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। ॐ अन्तर। $ ३७. यह प्रतिज्ञा सूत्र सुगम है ।
* मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
जहणेण
३८. गुणिदकम्मंसियस्स अगुणिदकम्मसियभावसुवणमिय उक्कस्सेण वि अनंतेण कालेन विणा पुणो गुणिदभावेण परिणमणसत्तीए अभावादो । जहणेण असंखेज्जा लोगा ति अंतरं किष्ण परुविदं ? ण, तस्सुवदेसस्स वाइजमाणताणाव तदपरूवणादो |
* एवं सेसाणं कम्माणं ऐदव्वं ।
३६. एदस्त सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे । तं जहा - अढकसाय-अदृणोकसायाणं मिच्छत्तभंगो | अनंताणु ० चउक्क० उक्क० पदे० मिच्छतभंगो ।
* एवरि सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं पुरिस वेद-चदुसंजलणाणं च उक्कसपदेसविहत्तिअंतरं णत्थि ।
४०. कुदो १ खवगसेढीए समुप्पण्णत्तादो | एवमुकस्सपदेसविहत्ति अंतरं समत्तं ।
३८. क्योंकि जो गुणितकर्माशिक जीव अगुणितकर्माशिकभावको प्राप्त होता है उसके जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार अनन्त कालके बिना पुनः गुणितकर्माशिकरूपसे परिणमन करने की शक्ति नहीं पाई जाती ।
शंका- गुणितकर्माशिक जीवका जघन्य अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण क्यों नहीं कहा ? समाधान -- नहीं, क्योंकि वह उपदेश अपवाइजमाए है इस बातका ज्ञान करानेके लिए वह नहीं कहा।
विशेषार्थ - पहले काल प्ररूपणा के समय चूर्णिसूत्र में अन्य उपदेश के अनुसार मिध्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण कह आये हैं, इसलिए यहाँ यह शंका की गई है कि उसी उपदेशके अनुसार मिथ्यात्व के उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण भी कहना चाहिए था । वीरसेन स्वामीने इस शंकाका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि वह उपदेश अप्रवर्तमान है यह दिखलाना आवश्यक था, इसलिए चूर्णि - सूत्रकारने यहाँ उसका निर्देश नहीं किया है ।
* इसी प्रकार शेष कर्मो का अन्तरकाल जानना चाहिए ।
६ ३६. अब इस सूत्र का अर्थ कहते हैं- -आठ कषाय और आठ नोकषायोंका भङ्ग मिथ्यात्व के समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका भङ्ग मिध्यात्वके समान है । विशेषार्थ - यहाँ पर अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी आठ कषाय और आठ नोकषायों के साथ परिगणना न करके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका भङ्ग मिध्यात्वके समान हैं ऐसा कहा है सो उसका कारण यह है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालमें मिथ्यात्वसे कुछ अन्तर है यह दिखलाना आवश्यक था, इसलिए वीरसेन स्वामीने उसका अलग से निर्देश किया है।
* इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व पुरुषवेद और चार संज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है ।
६४०. क्योंकि इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति क्षपकश्रेणिमें उत्पन्न होती है । इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल समाप्त हुआ ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूवणा
ॐ अंतरं जहणणयं जाणिदूण णेदव्यं ।
४१. एदस्स सुत्तस्स अत्यो सुगमो, जहण्णपदेसविहत्तियाणं सव्वेसि पि अंतराभावादो।
एबमंतरं समतं । ४२. संपहि चुण्णिसुत्तेण देसामासिएण सूइदमत्थमुच्चारणाइरिएण परूविदं वत्तइस्सामो । अपुणरुत्तत्थो चेव किण्ण वुच्चदे ? ण, कत्थ वि चुण्णिसुत्तेण उच्चारणाए भेदो अस्थि त्ति तब्भेदपदुप्पायणदुवारेण पउणरुत्तियाभावादो।
४३. अंतरं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सयं च । उकस्सए पयदं । दुविहो णिद्दे सोओघेण श्रादेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-अट्टक० अहणोक० उक्क० पदेस-विहत्तिअंतरं जहण्णुक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक० जहण्णुक्क० एगस० । सम्मत्त ०-सम्मामि० उक्क० पदेसविह० णत्थि अंतरं । अणुक० पदे० जह० एगस०, उक्क० उघडपोग्गलपरियट्ट । अणंताणु० चउक्क० उक० पदे. जहण्णुक्क० अणेत०मसंखे०पो०परियहा । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० वेछावहिसागरोवमाणि देसणाणि । पुरिसवेद-चदुसंज० उक्क० पदे णत्थि अंतरं । अणुक्क० पदे. जहण्णुक्क० एगस० ।
8 जघन्य अन्तरकाल भी जानकर ले जाना चाहिए। ___६ ४१. इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि सभी जघन्य प्रदेशविभक्तियोंका अन्तरकाल नहीं उपलब्ध होता।
इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ। ६ ४२. अब चूर्णिसूत्रके द्वारा देशामर्षकरूपसे सूचित हुए जिस अर्थका उच्चारणाचार्यने कथन किया है उसे बतलाते हैं।
शंका-अपुनरुक्त अर्थको ही क्यों नहीं कहते ?
समाधान नहीं, क्योंकि कहीं पर चूर्णिसूत्रसे उच्चारणामें भेद है, इसलिए उस भेदके कथन द्वारा पुनरुक्त दोष नहीं आता। अर्थात् उसके पुनः कथन करने पर भी वह अपुनरुक्तके समान हो जाता है।
४३. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओषसे मिथ्यात्व, आट कपाय और आठ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ठ अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण है। पुरुषवेद और चार संज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ४४. आदेसेण णेरइएमु मिच्छ०-बारसक०-छण्णोक० उक्क० पदे० पत्थि अंतरं । अणुक्क० पदे. जहण्णुक्क० एगस० । सम्म० सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० उक्क० पदे० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । इत्थि-पुरिस-णqसयवेदाणमुक्कस्साणुकस्सपदे० पत्थि अंतरं । एवं सत्तमाए पुढवीए। समय है।
विशेषार्थ-गुणितकशिविधि एक बार समाप्त होकर पुनः उसके प्रारम्भ होने में अनन्त काल लगता है, इसलिए यहाँ मिथ्यात्व आदि सत्रह प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। तथा मिथ्यात्व आदि सत्रह प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति एक समयके लिए होती है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य
और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क, चार संज्वलन और पुरुषवेदकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल एक समय कहनेका यही कारण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक उपाध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण काल तक सत्त्व न पाया जाय यह सम्भव है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उपाध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क ये विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं। इनका सत्त्व अधिकसे अधिक कुछ कम दो छयासठ सागर काल तक नहीं पाया जाता, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है । सम्यक्त्व
और सम्यम्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व दर्शनमोहकी क्षपणाके समय तथा पुरुषवेद और चार संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व चारित्रमोहकी क्षपणाके समय होता है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल न प्राप्त होनेसे उसका निषेध किया है।
४४. श्रादेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकपायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-नरकमें गुणितकांश जीवके भवमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर मिथ्यात्व आदि उन्नीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। यह वहाँ एक पर्यायमें दो बार सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है । सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालके निषेधका यही कारण है। तथा सम्यक्त्व और तीनों वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। अब रहा अनुत्कृष्टका विचार सो मिथ्यात्व आदि उन्नीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति यतः मध्यमें होती है अतः इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है। सम्यक्त्वद्विक उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं और अनन्तानुबन्धीचतुष्क विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं। यहाँ इनका
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मा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूवणा
४५. पढमाए जाव छडि ति मिच्छ०-बारसक०-णवणोक० उक्कस्साणुक्कस्सपदे० पत्थि अंतरं। सम्म०-सम्मामि० उक्क० पदे० णत्थि अंतरं । अणुक्क० पदे० जह० एगस०, उक्क० सगसगहिदीओ देसूणाओ। अणंताणु०चउक्क० उक्क० पदे० पत्थि अंतरं । अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा ।
४६. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छ० बारसक०-अट्ठणोक० उक्कस्साणुकस्सपदे० पत्थि अंतरं । सम्म-सम्मामि० ओघं । अणंताणु०चउक्क० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह• अंतोमु०, उक० तिण्णि पलिदोक्माणि देसणाणि। इत्थिवेद. सत्त्व कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक कुछ कम तेतीस सागर तक न हो यह सम्भव है, अतः यहाँ इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । मात्र सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश विभक्ति मध्यमें होती है, इसलिए भी इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो जाता है और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना एक समयके लिए नहीं होती, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षासे ही प्राप्त करना चाहेए। तीनों वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होती है, इसलिए यहाँ इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका भी निषेध किया है। यह सब अन्तर प्ररूपणा सातवें नरकमें अविकल बन जाती है, इसलिए वहाँ सामान्य नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है।
४५. प्रथमसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकपायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-यहाँ मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल न प्राप्त होनेसे उसका निषेध किया है। मात्र विसंयोजनाकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण बन जाता है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालका अलगसे विधान किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म एकबार ही प्राप्त होता है, इसलिए इसके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा यह आयुमें अन्तर्मुहूर्त जाने पर प्राप्त होता है और ये उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और उद्वेलना प्रकृतियाँ होनेसे वहाँ इनका कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण काल तक सत्त्व न रहे यह सम्भव है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है।
४६. तिर्यञ्चगतिमें तियञ्चोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ उक्क० पत्थि अंतरं । अणुक्क० जहण्णुक० एगस० । एवं पंचिंदियतिरिक्रवतियस्स । णवरि सम्म० सम्मामि० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० एगस०, उक० तिणि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । पंचिंदियतिरिक्ख अपज्ज. अहावीसं पयडीणमुक्कस्साणुक० पत्थि अंतरं ।
४७. मणुसगदीए मणुस्सेसु मिच्छ०-अहकसाय-णस०-हस्स-रदि-अरदिसोग-भय दुगुंडाणं उकस्साणुकस्स० पत्थि अंतरं। सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० पंचिंदियतिरिक्वभंगो। चदुसंजल०-पुरिस०--इत्थिवेद० उक्क० पत्थि अंतरं । अणुक० जहण्णुक० एगस० । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीणं । मणुसअपज्ज. पंचिंदियप्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। इसीप्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथकत्व अधिक तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रिय तियश्च अपर्याप्तकों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ- यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। ओघमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तरकालका जो भङ्ग कहा है वह यहाँ अविकल बन जाता है, इसलिए उसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल सम्भव नहीं है यह गुणितकाशविधिके देखनेसे स्पष्ट हो जाता है। पर ये विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। यहाँ स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व भोगभूमिमें पल्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण कालजाने पर होता है, इसलिए इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है। इसकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें यह अन्तरप्ररूपणा घटित हो जाती है, इसलिए उनमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र इन तिर्यञ्चोंकी कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्यप्रमाण है, इसलिए इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण प्राप्त होने यहाँ इनकी अपेक्षा अन्तरकालका अलगसे निर्देश किया है। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें प्राप्त होती है, इसलिए यहाँ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है।
४७. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मिथ्यात्व, आठ कषाय, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । चार संज्वलन, पुरुषवेद और स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों
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उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूपणा
गा० २२ ] तिरिक्ख अपज्जत्तभंगो ।
अणुक्क० णत्थि
उक०
४८. देवगदी देवे मिच्छ: बारसक० नवणोक० उक्क० अंतरं । सम्म० - सम्मामि० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० एस ०, एकत्ती सागरोवमाणि देणाणि । अनंताणु० चक० उक० णत्थि अंतरं । अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० एकतीसं साग० देसूणाणि । एवं भवणादि जात्र उवरिमवज्जा त्ति । वरि सगद्विदीओ भाणिदव्वाओ । अणुदिसादि जाव सव्वद्वसिद्धि ति अट्ठावीसं पयडीणमुक्कस्साणुक्कस्स० पत्थि अंतरं । एवं दव्वं जाब अणाहारिति । में जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकों में पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । विशेषार्थ —यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समय में होती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है । सम्यक्त्वादि छह प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यों के समान है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि एक तो इनकी भी उत्कृष्ट कार्यस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । दूसरे इनमें अनन्तानुबन्धचतुष्कका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य ही प्राप्त होता है, इसलिए पञ्च न्द्रिय तिर्यों के समान यहाँ भी अन्तरकाल बन जाता है। चार संज्वलन आदिकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति क्षपकश्श्रेणिमें एक समयके लिए और चूर्णिसूत्र के अनुसार स्त्रीवेदको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भोगभूमि में पल्य असंख्यातवें भागप्रमाण काल जाने पर प्राप्त होती है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय प्राप्त होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर काल सम्भव नहीं है यह स्पष्ट ही है । मनुष्यपर्यात और मनुष्यिनियोंमें अन्तरकालप्ररूपणा सामान्य मनुष्योंके समान बन जाती है, इसलिए इनमें उनके समान जाननेकी सूचना की है। तथा स्वामित्व और कार्यस्थिति आदि की अपेक्षा पन्द्रिय तिर्य अपर्याप्तकोंसे मनुष्य अपर्याप्तकों में कोई अन्तर नहीं है, इसलिए यहाँ मनुष्य पर्यातकों में पञ्च न्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान जाननेकी सूचना की है ।
$ ४८. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देवों में जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि कुछ कम इकतीस सागरके स्थान में कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिए । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक्के देवों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
३१
तो
विशेषार्थ — देवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है । अब रहा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका विचार सो देवों में मिध्यात्व आदि बाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये उद्वेलना
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ४६. जहण्णए पयदं। दुविहो गिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छ०-एकारसक०-णवणोक० जहण्णाजहण्णपदे० णत्थि अंतरं । सम्म०-सम्मामि०जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एगस०, उक्क० उवडपोग्गलपरियट्टा । अणंताणु०चउक्क. जह• पत्थि अंतरं। अजह० जह० अंतोमु०, उक्क वेछावहिसागरो. देसणाणि । लोभसंज० ज० पत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क एमसमओ ।
५०. आदेसेण णेरइएसु मिच्छ -तिण्णिवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं जह० गत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क० एगस०। बारसक०-भय-दुगुंछा. जहण्णाप्रकृतियाँ हैं। इनका कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक कुछ कम इकतीस सागर तक सत्त्व नहीं पाया जाता। तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्क विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका कमसे कम अन्तर्मुहूर्त तक और अधिकसे अधिक कुछ कम इकतीस सागर काल तक सत्त्व नहीं पाया जाता, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशबिभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। भवनवासियोंसे लेकर नौ नवेयक तकके देवोंमें यह अन्तर प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें सामान्य देवोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र इनकी भवस्यिति अलग अलग है, इसलिए इनमें कुछ कम इकतीस सागरके स्थानमें कुछ कम अपनी अपनी भवस्थिति ग्रहण करनेकी सूचना की है। अनुदिशसे लेकर आगेके सब देवोंमें भवके प्रथम समयमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। यह जी अन्तरप्ररूपणा कही है इसे ध्यानमें रखकर आगेकी मार्गणाओंमें वह घटित की जा सकती है, इसलिए उनमें इसी प्रकार ले जानेकी सूचना की है। .
इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तरकाल समाप्त हुआ। ४६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेश विभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण है। लोभसंज्वलनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है।
विशेषार्थ—ओंघसे मिथ्यात्व आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति अपनी अपनी क्षपणाके समय योग्य स्थानमें होती है, इसलिए इनकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं और अनन्तानुबन्धीचतुष्क विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल बन जानेसे उसका अलगसे उल्लेख किया है। तथा लोभसंज्वलनकी जघन्य प्रदेशविभक्ति एक समय तक होनेके बाद भी अजघन्य प्रदेश विभक्ति होती है, इसलिए इसकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है।
६५०. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूपणा जहण्ण. पत्थि अंतरं । सम्म०-सम्मामि० जह० त्यि अंतरं । अन० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसणाणि । अणंताणु०चउक्क० जह० णत्थि अंतरं । अज. जह ० अंतोमु०, उक्क तेतीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सत्तमाए पुढवीए ।
५१. पढमाए जाव छहि त्ति मिच्छ०-बारसक०-इत्थि-णवूस०-भय-दुगुंछ० जहण्णाजहण्ण० णत्थि अंतरं। सम्मत्त०-सम्मामि०-अणंताणु०चउक० जह० णत्थि अंतरं । अज० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क. सग-सगहिदीओ' देसणाओ। पंचणोक० जह० णत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक० एगस०।
अन्तरकाल एक समय है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-नरक आदि चारों गतियों में सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपित कर्माशिक जीवके होनेके कारण प्रत्येकमें दो बार सम्भव नहीं है, इसलिए सर्वत्र इसके अन्तरकालका निषेध किया है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तर कालका विचार करने पर नारकियों में मिथ्यात्व यादि बाठ प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति वहां उत्पन्न होनेके बाद अन्तर्मुहूर्त काल जाने पर सम्भव है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है । सम्यक्व, सम्यग्मिथ्यात्व ये दो उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं और अनन्तानुबन्धीचतुष्क विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं. इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल बन जानेसे उसका अलगसे निर्देश किया है। इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके दोनों प्रकारक अन्तरकालको आगे भी इसी आधारसे घटित कर लेना चाहिए। मात्र सर्वत्र जघन्य अन्तरकाल तो एक समान है। उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है। केवल अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा तिथंञ्चों और मनुष्योंमें वह कुछ कम तीन पल्य ही कहना चाहिए । यहाँ बारह कपाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समय में होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका भी निषेध किया है। सातवीं पृथिवीमें यह प्ररूपणा अधिकल बन जाती है, इसलिए उनमें सामान्य नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है।
६५१ प्रथमसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। पाँच नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है।
विशेषार्थ—प्रथमादि छह पृथिवियोंमें मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी नरकसे १. प्रा०प्रतौ 'उक्क० सगढ़िदीयो' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ५२. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छ०-बारसक०--इत्थि -णस०--भयदुगुंछाणं जहण्णाजहण्ण गत्थि अंतरं । सम्म० सम्मामि० ओघं । अणंताणु चउक्क० जह० णत्थि अंतरं। अज० ज० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसणाणि । पंचणोक० जह० गत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क० एगस० । एवं पंचिंदियतिरिक्खतियस्स । णवरि सम्म०-सम्मामि० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देसणा। पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०. भय-दुगुंछा० जहण्णाजहण्ण० पत्थि अंतरं । सत्तणोक० जह० णत्थि अंतरं। अज० जहण्णुक्क० एगस०। निकलनेके अन्तिम समयमें और शेष की नरकमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशबिभक्तिके अन्तर कालका निषेध किया है। तथा शेष पाँच नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी सामान्य नारकियों के समान है, इसलिए यहाँ इनकी अजघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय सम्भव होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है।
५२. तिर्थञ्चगतिमें तिर्थश्चोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुसकवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। पाँच नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश विभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। पञ्च न्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । सात नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है।।
विशेषार्थ .. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्स तीन पल्यकी आयुके अन्तिम समयमें सम्भव है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसत्कर्म तिर्यञ्च पर्याय ग्रहण करनेके प्रथम समयमें सम्भव है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघके समान यहाँ भी घटित हो जाता है, इसलिए इनका भङ्ग अोधके समान जाननेकी सूचना की है। अनन्तानुवन्धीचतुष्क विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं। इनका सत्त्व कमसे कम अन्तर्मुहूर्त कालतक और अधिकसे अधिक कुछ कम तीन पल्य काल तक न रहे यह सम्भव है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। पाँच नोकषायोंकी जघन्य प्रदेश विभक्ति तियञ्चों में उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहर्त बाद प्रतिपक्ष प्रक्रतियों के बन्धके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है। पञ्चन्द्रियतियञ्चत्रिको यह अन्तरकाल इसी प्रकार बन जाता
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूवणा
५३. मणुस-मणुसपज्जत्तएसुमिच्छ०-एक्कारसक०-णवणोक० जहण्णाजहण्ण. पत्थि अंतरं । सम्म०-सम्मामि० जह० णत्थि अंतरं। अज० जह० एगस०, उक० तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तणब्भहियाणि । अणंताणु०चउक० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह. अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसणाणि । लोभसंज. जह० पत्थि अंतरं। अज. जहण्णुक्क० एगस। एवं मणुस्सिणीणं । णवरि पुरिसवेद० लोभसंजलणभंगो । मणुसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्ख अपजत्तभंगो । है, उसे सामान्य तिर्यञ्चोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके उत्कृष्ट अन्तरकालमें कुछ विशेषता है, इसलिए इनके अन्तरकालका निर्देश अलगसे किया है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होनेके बाद यहाँ पुनः इनका सत्त्व सम्भव नहीं है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा शेष सात नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध होनेके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है।
५३. मनुष्य और मनुष्य पर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेश विभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। लोभ संज्वलनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इसी प्रकार मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेदका भङ्ग लोभसंज्वलनके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ-सामान्य मनुष्य आदि तीनों प्रकारके मनुष्योंमें मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और नौ नोकपायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है । मात्र मनुध्यिनियोंमें पुरुषवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्ति अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए यहाँ इसकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय सम्भव होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। उक्त तीनों प्रकारके मनुष्योंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य उद्वेलनाकी अपेक्षा बन जाता है, इसलिए वह उक्तप्रमाण कहा है। तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य विसंयोजनाकी अपेक्षा बन जाता है, इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है । तथा संज्वलन लोभकी जघन्य प्रदेशविभक्ति यहाँ क्षपणाके अन्तर्मुहर्त पूर्व होती है, इसलिए इसकी अजघन्य
१. अप्रतौ 'मणुसअपजत्तएसु' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ५४. देवगदीए देवेसु मिच्छ०-बारसक०-इत्थि०-णqस०-भय-दुगुंछा० जहण्णाजहण्ण. णथि अंतरं। सम्म० सम्मामि० जह० णत्थि अंतरं। अज० जह० एगस०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणंताणु०चउक: जह० णत्थि । अंतरं । अज० जह• अंतोमु०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । पुरिसवेदहस्स-रदि-अरदि-सोग० जह• पत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क० एगस०
५५. भवणादि जाव उपरिमगेवज्जा त्ति मिच्छ -बारसक०-इत्थि-जस०भय-दुगुंछा० जहण्णाजहण्ण. णत्थि अंतरं । सम्म०-सम्मामि० अणंताणु० चउक्क० जह० पत्थि अंतरं । अज जह• एगस० अंतोमु०, उक्क० सग-सगहिदीओ देसूणाओ । प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है। मनुष्य अपर्याप्तकोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है यह स्पष्ट ही है।
५४. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। 'अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी. जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तर नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। . विशेषार्थ-देवोंमें मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भवके अन्तिम समयमें तथा बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेश विभक्ति भवग्रहणके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होकर पुनः सत्त्व तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना होकर पुनः सत्त्व अन्तिम अवेयक तक ही सम्भव है। आगे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना नहीं होती और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना तो होती है पर उन जीवोंका नीचे गिरना सम्भव नहीं होनेसे पुनः सत्त्व नहीं होता, इसलिए इन छह प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा है। इनमेंसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है। यहाँ पुरुषवेद आदिकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भक्के प्रारम्भमें अन्तर्मुहूर्त काल जाने पर प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय सम्भव होनेसे वह उक्त काल प्रमाण कहा है।
५५. भवनवासियोंसे लेकर उपस्मि अवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कपाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा
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Aarvasna
गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूवणा पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं जह• पत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क० एगस० ।
६५६. अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति अठ्ठावीसं पयडीणं जहण्णाजहण्ण. पत्थि अंतरं । णवरि हस्स-रदि-अरदि-सोगाणमाणदभंगो । एवं जाव अणाहारए त्ति णीदे अंतरं समत्तं होदि ।
___णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो-जहणणुक्कस्सभेदेहि । अपदं कादूण सव्वकम्माणं णेदव्वो ।
$ ५७. एदस्स मुत्तस्स देसामासियस्स उच्चारणाइरियवक्खाणे परूवेमो । णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । उक्कस्सए पयदं । तत्थ अपदं-अहावीसं पयडीणं जे उक्करसपदेसरस विहतिया ते अणुक्कस्सपदेसस्स अविहत्तिया । जे अणुक्कस्सपदेसस्स विहलिया ते उक्कस्सपदेसस्स अविहत्तिया। विहत्तिएहि पयदं, अविहत्तिएहि अव्यवहारो। एदेण उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है ।
विशेषार्थ --- सामान्य देवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालको जिसप्रकार घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहां पर भी घटित कर लेना चाहिए।
६५६. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य प्रदेश विभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इतनी विशेषता है कि हास्य, रति, अरति और शोक प्रकृतिका भङ्ग आनत कल्पके समान है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जानेपर अन्तरफाल समाप्त होता है।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व आदि कुछ प्रकृतियोंकी भवके अन्तिम समयमें और कुछकी भवके प्रथम समयमें जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल सम्भव नहीं होनेसे उसका निषेध किया है। मात्र हास्य आदि चार प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति पर्यायग्रहणके अन्तर्मुहूर्त बाद होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय प्राप्त होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है।
इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुश्रा। 8 नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे भङ्गविचय दो प्रकारका है । सो इस विषयमें अर्थपद करके सब कर्मोंका ले जाना चाहिए।
$ ५७. यह सूत्र देशामर्षक है। इसके उच्चारणाचार्य कृत व्याख्यानका कथन करते हैंनाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसमें यह अर्थपद है-जो अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव हैं वे उनकी अनुत्कृष्ट प्रदेश अविभक्तियाले हैं। तथा जो अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव हैं वे उत्कृष्ट प्रदेश अविभक्तिवाले हैं। यहां विभक्तिवाले जीवोंका प्रकरण है, क्योंकि अविभक्तिवालोंका व्यवहार नहीं
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अट्टपदेण दुविहो गिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । तत्थ ओघेण अठ्ठावीसं पयडीणं उक्कस्सपदेसस्स सिया सब्बे जीवा अविहत्तिया १, सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च २, सिया अविहतिया विहतिया च ३। अणुक्कस्सपदेसस्स सिया सव्वे जीवा वित्तिया १, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च २, सिया विहतिया च अविहत्तिया च ३ । एवं सव्वणेरइय-सव्यतिरिक्व-मणुसतिय-सव्वदेवे ति । मणुस अपज्ज. अहावीसं पयडीणं उक्कस्सपदेसविहत्तियाणं अविहत्तिएहि सह अह भंगा। अणुक्कस्सपदेसविहत्तियाणं पि अविहत्तिएहि सह अह भंगा वत्तव्वा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति।
है। इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है—ोघ और आदेश । ओघसे कदाचित् सब जीव अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश-अविभक्तिवाले हैं १। कदाचित् अविभक्तिबाले बहुत जीव हैं और विभक्तिवाला एक जीव है २। कदाचित् अविभक्तिवाले बहुत जीव हैं और विभक्तिवाले बहुत जीव हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव विभक्तिवाले हैं १ । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले हैं और एक जीव अविभक्तिवाला है २ । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले हैं और बहुत जीव अविभक्तिवाले हैं ३। इसी प्रकार सब नारकी, सब तियंञ्च, मनुष्यत्रिक और सब देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तक जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंके अविभक्तिवाले जीवोंके साथ आठ भङ्ग होते हैं। तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंके भी अविभक्तिवाले जीवोंके साथ आठ भङ्ग करने चाहिए। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ-यहां अट्ठाईस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले और अविभक्तिवाले तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीवोंके भङ्ग कहकर फिर चार गतियोंमें वे बतलाये गये हैं। उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति उत्कृष्ट योगसे होती है। वह सदा सम्भव नहीं है, इसलिए कदाचित् एक भी जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला नहीं होता, कदाचित् एक जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला होता है और कदाचित् नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं, इसलिए उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा तीन भङ्ग होते हैं। भङ्ग मूलमें ही कहे हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा विचार करने पर भी तीन भङ्ग ही प्राप्त होते हैं, क्योंकि कदाचित् सब जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके धारक होते हैं, कदाचित् शेष सब जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके धारक होते हैं और एक जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका धारक नहीं होता और कदाचित् नाना जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके धारक होते हैं और नाना जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके धारक नहीं होते, इसलिए इस अपेक्षासे भी तीन भङ्ग बन जाते हैं। लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंको छोड़कर गति मागंणाके अन्य सब भेदोंमें यह ओघ प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनमें अओघके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र मनुष्य अपर्याप्तक यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए इसमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों प्रदेशविभक्तिवालोंके अपने-अपने अविभक्तिवालोंके साथ एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा आठ-आठ भङ्ग बन जानेसे उनका संकेत अलगसे किया है। भङ्गोंकी यह पद्धति अनाहारक मार्गणातक अपनी-अपनी विशेषताके साथ घटित हो जाती है, इसलिए अनाहारक मार्गणातक उक्त प्ररूपणाके समान जाननेकी सूचना की है।
इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट भङ्गविचय समाप्त हुआ।
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मा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूवणा ५८. जहण्णए पयदं तं चेव अदृपदं। णवरि जहण्णमजहण्णं ति भाणिदव्वं । अट्टावीसं पयडीणं जहण्णपदेसविहत्तियाणं तिणि भंगा। अजहण्णपदेसविहतियारणं पि तिण्णि चेव भंगा। एवं सचणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुसतिय-सव्वदेवा ति । मणुसअपज्ज० जहण्णाजहण्ण० अह भंगा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। ५६. संपहि एदेण अहियारेण सूचिदसेसाहियाराणमुच्चारणं भणिस्सामो । भागाभागो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । उक्कस्से पयदं। दुविहो जिद्द सोअोघेण आदेसेण य । ओघेण छन्वीसं पयडीणमुक्क० पदेसविहत्तिया जीवा सव्वजीवाणं केव०१ अणंतभागो। अणुक० सव्वजीवाणं केव०१ अणंता भागा। सम्म०सम्मामि० उक्क० पदेसविहत्ति० सयजी० के० ? असंखेज्जदिभागी । अणुक्क. सव्वजी० के० १ असंखे०भागा । एवं तिरिक्खोघं ।
६५८. जघन्यका प्रकरण है वही अर्थपद है। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके स्थानमें जघन्य और अजघन्य कहना चाहिए। अट्ठाईस प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंके तीन भङ्ग होते हैं। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंके भी तीन भङ्ग होते हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्यत्रिक और सब देवों में जानना चाहिए मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा आठ आठ भङ्ग होते हैं। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ—पहले उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंकी अपेक्षा ओघसे और चारों गतियोंमें जहाँ जितने भङ्ग सम्भव हैं वे घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ पर भी घटित कर लेने चाहिए। मात्र यहाँ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके स्थानमें जघन्य और अजघन्य कहना चाहिए।
इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय समाप्त हुआ। $ ५६. अब इस अधिकारसे सूचित हुए शेष अधिकारोंकी उच्चारणाका कथन करते हैं। भागाभाग दो प्रकारका है जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है
ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवों के कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं। असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-मोहनीयकी सत्तासे युक्त कुल जीव राशि अनन्तानन्त है । उसमेंसे ओघसे इक्कीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव अधिकसे अधिक असंख्यात हो सकते हैं। चार संज्वलन और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव अधिकसे अधिक संख्यात हो सकते हैं। शेष सब जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं, इसलिए यहाँ छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
६०. आदेसेण णेरइएस अट्ठावीसं पयडीणं उक्क० सव्वजी० के० १ असंखे० भागो । अणुक्क० असंखेज्जा भागा । एवं सव्वणिरय सव्वपंचिदियतिरिक्खमणुस ० - मणुस अपज्ज० देव भवणादि जाव अवराइदो ति वत्तव्वं । मणुसपज्ज०मणुस्सिणि- सव्वसिद्धेसु अहादीसं पयडीणमुक्क० पदे० सव्वजी० के० ९ संखे०भागो । अणुक - संखेज्जा भागा । एवं णेदव्वं जाव अनाहारि ति । जहण्णए उक्कस्तभंगो | णवरि जहण्णाजहणणं ति णाहारि ति ।
।
$ ६१. जहण्णए पयदं भाणिदव्वं । एवं दव्वं जाव
४०
एवं भागाभागो समत्तो ।
६२. परिमाणं दुविहं -- जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्द े सोओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० - वारसक० - अहणोक० उक्कस्तपदेस विहत्तिया प्रदेशविभक्तिवाले जीव अनन्त भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव अनन्त बहुभागप्रमाण कहे हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले ही कुल जीव असंख्यात होते हैं । उनमें भी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले असंख्यातवें भागप्रमाण हो सकते हैं। शेष अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं, इसलिए इन दोनों प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले असंख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले असंख्यात बहुभागप्रमाण कहे हैं । सामान्य तिर्यञ्च अनन्तप्रमाण हैं, इसलिए इस मार्गणा में ओघ प्ररूपणा बन जाने से उनमें
के समान जानने की सूचना की है ।
६०. देशसे नारकियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें कथन करना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवों के कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव बहुभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए ।
विशेषार्थ — यहां जिन मार्गणाओं की संख्या असंख्यात है उनमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण बतलाये हैं। तथा जिन मार्गाका परिमाण संख्यात है उनमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण बतलाये हैं। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
$६१. जघन्यका प्रकरण है । जघन्यका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । इतनी विशेषता है। कि उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके स्थान में जघन्य और अजघन्य ऐसा कहना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए ।
इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ ।
६२. परिमाण दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - और आदेश | ओघसे मिथ्यात्व बारह कषाय और आठ नोकषायोंकी
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए परिमाणपरूवणा केत्तिया ? असंखेजा । अणुक्क० पदे० केत्ति ? अणंता । सम्मत्त ०-सम्मामि० उक० पदेसवि० केत्ति० ? संखेज्जा । अणुक्क० केत्ति ? असंखेजा। चदुसंज०-पुरिस० उक्क० पदे० केत्ति० १ संखेजा । अणुक्क० पदे० केत्ति० १ अणंता ।
___$ ६३. आदेसेण णिरय० सत्तावीसं पयडीणमुक्क०-अणुक्क० पदे० केत्ति० ? असंखेजा। सम्मत्त० उक्क० पदे० के० ? संखेजा। अणुक्क० पदे० केत्ति ? असंखेजा। एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमि त्ति अहावीसं पयडीणमुक्कस्स०अणुक्कस्स० केत्ति० ? असंखेज्जा ।
६४. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु छव्वीसं पयडीणं उक्क० पदे० केत्ति० १ असंखेज्जा । अणुक्क० केत्ति० १ अणंता। सम्मत्त० उक्क० पदे० केत्ति ? संखेज्जा । अणुक्क० केत्ति० ? असंखेज्जा। सम्मामि० उक्कस्साणुक० केत्ति ? असंखेजा।
उत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । चार संज्वलन और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं।
विशेषार्थ -- ओघसे चार संज्वलन और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति क्षपकश्रेणिमें होती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके समय होती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण भी संख्यात कहा है। शेष कथना सुगम है।
६६३. आदेशसे नारकियोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविक्तवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं।
विशेषार्थ- यहां सामान्यसे नारकियोंमें और पहली पृथिवीके नारकियोंमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं और इनका अधिकसे अधिक परिमाण संख्यात होता है, इसलिए इनमें सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। शेष कथन सुगम है। इसी प्रकार आगे भी अपने अपने परिमाण और दूसरी विशेषताओंको जान कर सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिणाम ले आना चाहिए। उल्लेखनीय विशेषता न होनेसे हम अलग अलग स्पष्टीकरण नहीं कर रहे हैं। ___६६४. तिर्थञ्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं ? अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिबाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ?
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पंचिंदियतिरिक्ख--पंचिंतिरिक्खपज्जत्ताणं पढमढविभंगो । पंचिदियतिरिक्खजोणिणीणं विदियपुढविभंगो। पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. अहावीसं पयडीणमुक्कस्साणुक्क० पदे० केत्ति ? असंखेजा। एवं मणुसअपज्ज०-भवण-वाणः-जोदिसिए त्ति ?
६५. मणुसगदि० मिच्छ०-बारसक०--छण्णोक० उकस्साणुक० पदे. असंखेज्जा । सम्म०-सम्मामि०-चदुसंज०-तिण्णिवेदाणमुक्क० केत्ति० १ संखेजा। अणुक० पदे०वि० केत्ति ? असंखेजा। मणुसपज्जत्त०-मणुसिणीसु सव्वसिद्धि० अहावीसं पयडीणमुक्क०-अणुक्क० पदेस० केत्ति ? संखेजा।।
१६६. देवगदीए देवेसु सोहम्मादि जाव सहस्सारो त्ति पढमपुढविभंगो । आणदादि जाव अवराइदो ति अहावीसं पयडीणं उक्क० पदे०वि० केत्ति० १ संखेज्जा । अणुक्क० केत्ति० १ असंखेज्जा । एवं गेदव्वं जाव अणाहारि ति । असंख्यात हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ—पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च और पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें पहली पृथिबीके समान भङ्ग बन जानेसे उनके समान जाननेकी सूचना की है । परन्तु पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी जीवोंमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते, इसलिए इनमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग बन जानेसे उनके समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ___६६५ मनुष्यगतिमें मनुष्यों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन और तीन वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्यपर्याप्त, मनुध्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने है ? संख्यात हैं।
६६. देवगतिमें देवोंमें तथा सौधर्म कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ-बारहवें कल्प तक तिर्यञ्च भी मरकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए वहाँ तकके देवोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग बन जानेसे उनके समान जानने की सूचना की है । तथा
आगेके देवोंमें मनुष्य ही मर कर उत्पन्न होते हैं, इसलिए अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण संख्यात प्राप्त होनेसे वहाँ वह उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए परिमाणपरूपणा ६६७. जहण्णए पयदं। दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण छन्वीसं पयडीणं जह० केत्ति ? संखेज्जा । अज० केत्ति०? अणंता । सम्म०सम्मामि० जह० पदे०वि० केत्ति ? संखेजा। अज० के० ? असंखेजा। एवं तिरिक्खाणं । ___$६८. आदेसेण णेरइएसु अट्ठावीसं पयडीणं जह० के० १ संखेज्जा । अज० केति० १ असंखेजा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज०देव-भवणादि जाव अबराइदो त्ति । मणुसपज्ज०-मणुसिणी-सव्वदृसिद्धि. सव्वपदा० के. ? संखेज्जा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
६६७. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश-ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले .जीव कितने हैं ? संख्यात है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार तियञ्चोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपणाके समय यथायोग्य स्थानमें होती है। यतः इनकी क्षपणा करनेवाले जीव संख्यात होते हैं, अतः इनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव अनन्त होते हैं यह स्पष्ट ही है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्ति अन्य विशेषताओंके रहते हुए अपनी अपनी उद्वेलनाके अन्तिम समयमें होती है। यतः ये जीव भी संख्यात ही होते हैं, अतः इनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव असंख्यात होते हैं यह स्पष्ट ही है। सामान्यसे तिर्यश्च अनन्त होते हैं, इसलिए उनमें यह ओघप्ररूपणा बन जाती है, अतः उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र उनमें स्वामित्वका विचार कर परिमाण घटित करना चाहिए।
६८. आदेशसे नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवों जानना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ-सामान्य नारकियोंसे लेकर पूर्वोक्त सब मार्गणाओंमें संख्यात जीव ही सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति करते हैं, इसलिए सर्वत्र अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। तथा मनुष्य पर्याप्त आदि तीन मार्गणाओंका परिमाण संख्यात है और शेषका असंख्यात है, इसलिए इनमें अपने अपने परिमाणके अनुसार अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवों का परिमाण कहा है।
इस प्रकार परिमाण समाप्त हुआ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ६६. खेत्ताणुगमो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सओ च । उकस्से पयदं । दुविहो णिहसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण छव्वीसं पयडीणमुक्क० पदे०विहत्तिया केवडि खेत्ते ? लोग० असंखे० भागे। अणुक्क० केव० ? सव्वलोगे । सम्म०सम्मामि० उक्क०-अणुक्क० पदे. केव० ? लोग० असंखे०भागे । एवं तिरिक्खाणं ।
७०. आदेसेण णेरइएमु अद्यावीसं पयडीणमुक्क०-अणुक्क० लोग० असंखे०भागे । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेवा ति । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
७१. जहण्णए पयदं । दुविहो णि सो--ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपयडीणं जह०-अज० उकस्साणुकस्सपदेभंगो। एवं सव्वमग्गणासु णेदव्वं ।
६६. क्षेत्रानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट। उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार तियञ्चोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव करते हैं। और उनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए यहाँ ओघसे उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्वातवें भागप्रमाण कहा है। इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति उक्त प्रकृतियोंकी सत्तावाले शेष सब जीवोंके सम्भव है और उनका क्षेत्र सर्व लोक है, इसलिए यहां उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें यह क्षेत्र घटित हो जानेसे उनमें श्रोघके समान जाननेकी सूचना की है।
६७०. आदेशसे नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातयें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिए। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ-पूर्वोक्त सामान्य नारकी आदि उक्त मार्गणाओंका क्षेत्र ही लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। आगे अनाहारक मार्गेणा तक इसी प्रकार विचार कर क्षेत्र घटित किया जा सकता है, इसलिए उन मार्गणाओंमें उक्त क्षेत्रके समान जाननेकी सूचना की है।
६७१, जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंके समान है। इसी प्रकार सब मार्गणाओंमें ले जाना चहिए।
विशेषार्थ ... सर्वत्र सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिके स्वामित्वको देखनेसे
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए पोसणपरूवणा
७२. पोसणं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसं पयडीणमुक्क० पदेसविहत्तिएहि केवडियं खेतं पोसिदं ? लोगस्स असंखे०भागो। अणुक्क० सव्वलोगो । सम्म०-सम्मामि० उक्क० पदे. केव० १ लोगस्स असंखे०भागो। अणुक्क० लोग० असंखे०भागो अढचोदस भागा देसूणा सव्वलोगो वा ।।
____७३. आदेसेण णेरइएमु अट्ठावीसं पयडीणमुक्क० लोग० असंखे०भागो। अणुक्क. लोग० असंखे० भागो छचोद्दस भागा देसूणा । एवं सत्तमाए। पढमाए पुढवीए खेत्तभंगो। विदियादि जाव छहि त्ति अहावीसं पयडीणमुक्क० खेत्तं । अणुक० लोग० असंखे०भागो एक-वे-तिण्णि-चत्तारि-पंचचोइस भागा देसूणा । विदित होता है कि इनकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंके समान बन जाता है, इसलिए उसे उनके समान जाननेकी सूचना की है।
६ ७२. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके स्वामित्वको देखनेसे विदित होता है कि उनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक सम्भव नहीं है, इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति एकेन्द्रिय आदि जीवोंके भी सम्भव है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग है, क्योंकि ये जीव पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होते, इसलिए इनका वर्तमान स्पर्शन उक्त क्षेत्रप्रमाण ही प्राप्त होता है । तथा देवोंके विहारवत्स्वस्थान आदिकी अपेक्षा यह स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और मारणान्तिक व उपपादपदकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण बन जानेसे उक्त प्रमाण कहा है।।
६७३. आदेशसे नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भङ्ग है। दूसरीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, वसनालीके कुछ कम एक, कुछ कम दो, कुछ कम तीन, कुछ कम चार और कुछ कम पाँच बढे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ षदेसविहती ५
७४. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु छब्बीसं पयडीणमुक्क० लोग० असंखे०भागो । अणुक्क० सव्वलोगो । सम्म० सम्मामि० उक्क० खेत्तं । अणुक० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । सव्वपंचिदियतिरिक्खेसु अट्ठावीसं पयडीणं उक्क० लोगस्स असंखे० भागो । अणुक० लोगस्स असंखे० भागो सव्वलोगो वा । एवं सव्वमणुस्साणं ।
४६
९ ७५. देवगदीए देवे अट्ठावीसं पयडीणमुक्क० खेत्तभंगो । अणुक्क० लोग० असंखे० भागो अटु णवचोदसभागा देणा । एवं सोहम्मीसाणागं । भवण० - वाण०जोइसि० अट्ठावीसं पयडीणमुक्क० खेत्तं । अणुक० लोग० असंखे० भागो अजुङ- अह
चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
विशेषार्थ —— यहां जिस नरकका जो स्पर्शन है उसे ध्यान में रखकर सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका अतीत स्पर्शन कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
$७४. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चों में छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवांने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार सब मनुष्योंमें जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — तिर्यञ्च समस्त लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवों का वर्तमान और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, इसलिए इनकी उक्त प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। सम्यक्त्वfast अपेक्षा कही गई विशेषता सब पञ्च ेन्द्रिय तिर्यों में अट्ठाईस प्रकृतियों की अपेक्षा भी बन जाती है, इसलिए उनमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोक संख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। सब मनुष्यों में भी यही व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनमें सब पञ्च ेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन सुगम है ।
७५. देवगतिमें देवों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असं ख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्प में जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवांने लोक असं ख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेवित्तीय पोसणपरूवणा
४७
णवचोहस० देसूणा | सणक्कुमारादि जाव सहस्सारो ति अट्ठावीसं पयडीनं उक्क० खेत्तं । अणुक्क० लोग० असंखे० भागो अट्ठचो० देसूणा | आणदादि जाव अच्चुदो ति अट्ठावीसं पडी मुक्क० खेत्तं । अणुक्क० लोग० असंखे० भागो छचोहस० देसूणा | उवरि खेत्तभंगो। एवं नेदव्वं जाव अणाहारए ति ।
७६. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्द सो-- ओघेण आदेसेण य । ओघेण छवीसं पयडीणं जह० लोग० असंखे० भागो ! अज० सव्वलोगो । सम्म- सम्मामि० जह० अज० लोग० असंखे० भागो अह-चो६० देसूणा सव्वलोगो वा । ९ ७७, आदेसेण णेरइएस अट्ठावीसं पयडीणं ज० लोग० असंखे ० भागो । अज० लोग • असंखे ० भागो छचोदस० देसूणा । एवं सत्तमाए । पढमाए पुढवीए खेतभंग | विदियादि जाव छट्टि ति अट्ठावीसं पयडीणं जह० खेत्तं । अज० लोग०
आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोक के असं ख्यातवें भाग और सनाली के कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नत कल्पसे लेकर अच्युत कल्पतक देवों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असं ख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आगे क्षेत्र के समान भङ्ग है । इस प्रकार अनाहारक मार्गंणातक ले जाना चाहिए ।
विशेषार्थ —यहाँ सर्वत्र अपने अपने वर्तमान आदि स्पर्शनको ध्यान में रख कर सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन कहा है । शेष कथन सुगम है ।
$ ७६. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकार है— ओघ और आदेश । घसे छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
विशेषार्थ – सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्ति एकेन्द्रियादि जीवों के भी सम्भव है और देवोंके विहारवत्स्वस्थान आदिके समय भी हो सकती है । तथा इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है ही, इसलिए इनकी दोनों प्रकारकी प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, त्रसनाली के कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है ।
९ ७७. आदेशसे नारकियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके कुछ कम छह बढे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवी में जानना चाहिए। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भङ्ग
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ असंखे भागो एक-बे-तिण्णि-चत्तारि-पंचचोद्दस भागा वा देसूणा ।
७८. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु छव्वीसं पयडीणं जह० खेत्तं । अज० सव्वलोगो । सम्म०-सम्मामि० जह• अज० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस्सु छव्वीसं पयडीणं जह• लोग० असंखे०भागो । अज० लोगस्स असंखेजदिभागो सबलोगो वा । सम्म०-सम्मामि० जह०-अज. लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा।
__७६. देवगदीए देवेसु छब्बीसं पयडीणं जह० लोग० असंखे०भागो। अज० लोग० असंखे भागो अह-णवचोदस० देसूणा। सम्म-सम्मामि० जह० अज० लोग० असंखे० भागो अह-णवचोद्द० देसूणा ।
८०. भवण०-वाण-जोइसि. बावीसं पयडीणं जह• लोग० असंखे०है। दूसरीसे लेकर छठी तककी पृथिवियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा क्रमसे त्रसनालीके कुछ कम एक, कुछ कम दो, कुछ कम तीन, कुछ कम चार और कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ—नारकियोंमें और उनके अवान्तर भेदोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा जो स्पर्शन घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेन चाहिए । आगे भी अपनी अपनी विशेषता जानकर स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए।
६७८. तियंञ्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और सब मनुष्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेश विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
६७६. देवगतिमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेश विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ तथा कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ- यहाँ सामान्य देवोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्ति दीर्घ आयुवाले देवोंमें होती है और उनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए उनकी अपेक्षा स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
६८०. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए पोसणपरूवणा भागो। अज० लोग० असंखे०भागो अद्धह-अह-णवचो० देसूणा । सम्म-सम्मामि० जह०-अन• लोग० असंखे०भागो अह-अह-णवचोइस० देसूणा । णवरि जोदिसि० सम्म०-सम्मामि० जह० लोग. असंखे०भागो अद हा वा अहचो६० देसूणा । अणंताणु०४ जह० लोग० असंखे०भागो अब इ-अहचोद० देसूणा । अज० लोग० असंखे०भागो अद्ध ह-अह-णवचो० देसणा।
८१. सोहम्मीसाण. देवोघं। णवरि अणंताणु० चउक० जह० लोगस्स असंखे०भागो अहचोद्द० देसूणा।।
८२. सणक्कुमारादि जाव सहस्सारो ति वावीसं पयडीणं जह० खेतं । अज० लोग० असंखे०भागो अहचो० देसूणा। सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०चउक० वाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेशविभाक्तवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा त्रसनालीके कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा सनालीके कुछ कम साढ़े तीन और कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा त्रसनालीके कुछ कम साढ़े तीन
और कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा सनालीके कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ—उक्त देवोंमें एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्ति नहीं होती, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण नहीं कहा है। शेष कथन सुगम है।
६८१. सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ--सौधमद्विकमें विहारवत्स्वस्थान आदिके समय भी अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्ति बन जाती है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण भी कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
२. सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्ति
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जयपवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहती ५ जह०-अज० लोग० असंखे भागो अडचो६० देसूणा । आणदादि जाव अच्चुदो ति वावीस पयडीणं जह० लोग० असंखे०भागो । अज० लोग० असंखे भागो छचोद. देसूणा । सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु० चउक० जह०-अज० लोग० असंखे०भागो छचोद० देसणा । उपरि खेत्तभंगो । एवं णेदव्वं जाव प्रणाहारि ति ।
* सव्वकम्माणं णाणाजीवेहि कालो कायव्यो ।
८३. सुगममेदं सुत्त । संपहि एदेण मुत्तेण मूचिदत्यस्स उच्चारणं वत्तइस्सामो । तं जहा-कालो दुविहो, जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । अोघेण मिच्छत्त-बारसक०-अहणोक० उक० पदेसवि० जह• एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे भागो। अणुक्क० सव्वदा । सम्म०-सम्मामि०-चदुसंज०-पुरिसवेद० उक० पदे० जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । अणुक्क० सव्वदा । वाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । आनतसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और बसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इनसे ऊपरके देवोंमें क्षेत्रके समान भङ्ग है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
इस प्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ। ॐ सब कर्मोका नाना जीवोंकी अपेक्षा काल करना चाहिए।
८३. यह सूत्र सुगम है। अब इस सूत्रसे सूचित हुए अर्थकी उच्चारणा बतलाते हैं। यथा, काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेवभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल सर्वदा है।
विशेषार्थ- सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति एक समय तक हो और द्वितीय समयमें न हो यह सम्भव है, इसलिए सबकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति नाना जीवोंकी अपेक्षा लगातार असंख्यात समय तक हो सकती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है और शेष सात प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति नाना जीवोंकी
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गा० २२]
उत्तरपरिषदेसबिहनीय कालपरूषणा ____८४. आदेसेण गेरइएमु सतावीसं पपडीणमुक० पदे. जह० एगस०, उक० भावलि० असंखे०भागो। अणुक्क० सबदा । सम्मत्त० ओघं । एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमि ति अठ्ठावीसं पयडीणमुक० पदे. जह• एगस०, उक० आवलि. असंखे०भागो । अणुक्क० सव्वदा ।
६ ८५. तिरिक्खगदीए तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ताणं पढमपुढविभंगो। पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीणं विदियपुढविभंगो । एवं पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्ताणं ।
८६. मणुस्सगदीए मणुस्स० मिच्छत्त-बारसक०-छण्णोक० उक० पदे० जह. एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। अणुक० सव्वदा । सम्म०-सम्मामि०चदुसंजल० तिण्हं वेदाणमुक्क० जह० एगस०, उक० संखेजा समया । अणुक्क० सम्बद्धा। मणुसपज्ज०-मणुसिणीसु अहावीसं पयडीणमुक्क० पदे० जह• एगस०, उक्क० अपेक्षा निरन्तर संख्यात समय तक हो सकती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। नाना जीवोंकी अपेक्षा ऐसा समय नहीं प्राप्त होता जब किसी प्रकृतिकी सत्ता न हो, इसलिए सबकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल सर्वदा कहा है।
८४. आदेशसे नारकियोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं तक प्रत्येक पृथिवीमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल सर्वदा है।
विशेषार्थ—सामान्यसे नारकियोंमें और पहली पृथिवीमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान बन जाता है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
८५. तिर्यश्चगतिमें तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्थश्च पयर्ताक जीवोंमें पहिली पृथिवीके समान भङ्ग है। पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
विशेषार्थ-प्रारम्भके तीन प्रकारके तिर्यञ्चोंमें कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग बन जानेसे उसके समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
६८६. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल सर्पदा है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन और तीन वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल सर्वदा है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें अट्ठाईस
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[षदेसविहत्ती ५ संखे समया । अणुक० सम्वदा । एवमाणदादि जाव सम्वसिदि त्ति ।
८७. मणुसअपज्ज. छव्वीसं पयडीणमुक्क० पदे. जह० एगस०, उक्क. आवलि. असंखे० भागो। अणुक० जह. खुद्दाभव० समऊणं, उक्क. पलिदो. असंखे०भागो । सम्म०-सम्मामि० एवं चेव । णवरि अणुक्क० जह० एगस० ।
३.८८. देवगदीए देवाणं पढमपुढविभंगो । एवं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । भवण-वाण-जोइसि० विदियपुढविभंगो । एवं णेदव्वं जाब अणाहारि ति ।
प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल सर्वदा है। इसी प्रकार अानत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-सामान्य मनुष्योंमें जिस प्रकार ओघमें घटित करके बतला आये हैं उस प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल इनमें अपने स्वामित्वके अनुसार संख्यात समय ही प्राप्त होता है, इसलिए इन दोनों प्रकृतियोंकी परिगणना यहाँ सम्यक्व आदिके साथ की है। मनुष्य पर्याप्त, मनुध्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देव तो संख्यात होते ही हैं। अानतादिमें ये ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय बननेसे उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
६८७. मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग इसीप्रकार है। इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है।
विशेषार्थ—मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है। यह सम्भव है कि इस मार्गणामें नाना जीव क्षुल्लक भव तक ही रहें। इसलिए इस कालमेंसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका एक समय काल कम देने पर अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण बन जानेसे यहाँ छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम चुल्लक भवग्रहणप्रमाण कहा है। तथा इस मार्गणाका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए यहां सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल उक्त काल प्रमाण कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए यहाँ इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय बन जानेसे उक्त काल प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
६८ देवगतिमें देवोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। इसी प्रकार सौधर्मकल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ-सौधर्मादि देवोंमें भी प्रथम पृथिवीके नारकियोंके समान कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें प्रथम पृथिवीके नारकियोंके समान भङ्ग बन जानेसे उनके समान जाननेकी सूचना की है। तथा भवनत्रिकमें कृतकृत्यवेदकसम्यदृष्टि जीव मर कर
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूवणा ८६. जहण्णए पयदं। दुविहो णि सो--ओघेण आदेसेण य। ओघेण अट्ठावीसं पयडीणं जह० पदे. केव० १ जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । अज० सव्वद्धा । एवं सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-सव्वदेवा ति। णवरि मणुस्सअपज्ज. अहाबीसं पयडीणं जह० पदे० एगस०, उक्क० संखेजा समया। अज. जह० खुद्दाभवग्गहणं समयूणं, सत्तणोकसायाणमंतोमुहुत्तं, सम्म०-सम्मामि० एगस०; सव्वेसिमुक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
* अंतरं । णाणाजीवेहि सव्वकम्माणं जह० एगसमो, उक अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा ।
६०. एदेण मुत्तेण सूचिदजहण्णुक्कस्संतराणमुच्चारणं वत्तइस्सामो । तं जहा-- नहीं उत्पन्न होते, इसलिए इनमें दूसरी पृथिवीके नारकियोंके समान भङ्ग बन जानेसे उनके समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ। ८६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य काल एक समय है
और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भव ग्रहणप्रमाण है, सात नोकषायोंका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक समय है और सबका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ-अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेश विभक्ति क्षपणाके समय होती है। यह सम्भव है कि एक या अधिक जीव एक समय तक ही इनकी जघन्य प्रदेशविभक्ति करें और यह भी सम्भव है कि क्रमसे नाना जीव संख्यात समय तक इनकी जघन्य प्रदेशविभक्ति करते रहें, इसलिए ओघसे इनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल' संख्यात समय कहा है। इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है । अपने अपने स्वामित्वको देखते हुए सब नारकी आदि मार्गणाओंमें यह काल घटित हो जाता है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है । मात्र मनुष्यअपर्याप्तकोंमें विशेषता है। बात यह है कि वह सान्तर मार्गणा है, इसलिए उसमें सब प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अलग अलग प्राप्त होता है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है । विशेष विचार स्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है ।
इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा काल समाप्त हुआ। 8 अन्तर । नाना जीवोंकी अपेक्षा सब कर्मोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ।
६०. इस सूत्रसे सूचित हुए जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरको उच्चारणाके अनुसार बतलाते
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जयधघलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अंतरं दुविहं--जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिह सो--ओघेण आदेसेण य। ओघेण अहावीसं पयडीणमुक्क० पदे० जह० एगसगओ, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० गत्थि अंतरं । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्तसव्वमणुस्स-सव्वदेवा त्ति । वरि मणुसअपज्ज. अहावीसं पयडीणमणुक्क० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति।
६१. जहण्णए पयदं। दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण जहा उक्कस्संतरं परूविदं तहा जहण्णाजहण्णंतरपरूपणा परूवेदव्वा ।
६२. सण्णियासो दुविहो-जहण्णओ उकस्सओ चेदि । उकस्सए पयदं । दुबिहो जिद्द सो--ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसविहत्तिओ हैं। यया-अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-अोघ और आदेश। अोघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तक जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अनुकृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ -- उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति गुणितकर्माशिक जीवोंके होती है। यह सम्भव है कि गुणितकर्माशिकविधिसे आकर एक या नाना जीव एक समयके अन्तरसे अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अलग अलग उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति करें और अनन्त कालके अन्तरसे करें, इसलिए यहाँ ओघसे और गति मार्गणाके सब भेदोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। यहाँ सबकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है। मात्र मनुष्यअपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए इसमें अपने अन्तरकालके अनुसार अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
६६१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। श्रोघसे जिस प्रकार उत्कृष्ट पदके आश्रयसे अन्तरकाल कहा है उस प्रकार जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालकी प्ररूपणा करनी चाहिए।
विशेषार्थ-जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपितकर्माशिक जीवके होती है, इसलिए सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तर काल उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समान बन जानेसे उनके समान जाननेकी सूचना की है।
___ इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल समाप्त हुआ। ६६२. सन्निकर्ष दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला जीव
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गा०२२] उत्तरपयतिपदेसविहत्तीए अंतरफालपरूवणा बारसकसाय-छण्णोकसायाणं णियमा विहतिओ। तं तु उकस्सादो अणुकस्सं वेहाणपदिदं अर्णतभागहीणं असंखेजभागहीणं वा । इत्थि-णqसयवेदाणं णियमा अणुकस्सविहतिओ असंखेज्जभागहीणो। इत्थिवेददव्वेण संखेजगुणहीण होदव्वं, गेरइयइथिवेदपंधगदादो कुरवित्थिवेदबंधगदाए लद्धणqसयवेदबंधगद्धा संखेजभागबहुभागा। एवं संखेजगुणत्तादो कुरवेस इत्थिवेदपूरणकालो एगगुणहाणीए असंखेज दिभागो त्ति कटु णासंखे०भागहीणत्तं जुत्तं, तत्थ असंखेजाणं गुणहाणीणमुवलंभादो । णोवलंभो असिद्धो, 'रदीए उकस्सदव्वादो इत्थिवेदुकस्सदव्वं संखेज्जगुणं' इदि उवरि भण्णमाणअप्पाषहुअमुत्तेण तत्थ असंखेज्जाणं गुणहाणीणमुवलंभादो । गर्बुसयवेददव्वेण वि संखेजभागहीणेण होदव्वं, ईसाणदेवेसु गवंसयवेदेण त्यावरबंधयद्धं सयलं लदण तसबंधगद्धाए पुणो संखेजखंडीकदाए लदबहुभागत्तादो। कुरवीसाणदेवेसु इत्थि-णqसयवेदाणि आवरिय गैरइएमुप्पन्जिय उक्कस्सीकयमिच्छत्तस्स असंखे०भागहाणी होदि ति वोत्तु जुत्तं, तेत्तीसं सागरोवमेसु गलिदासंखेज्जगुणहाणिदव्वस्स णिरयगइसंचयं मोत्तण कुरवीसाणदेवेसु संचिददव्वस्स अवहाणविरोहादो। तम्हा बारह कषाय और छह नोकषायोंकी नियमसे विभक्तिवाला होता है। किन्तु वह इसकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला भी होता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा उसके अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तभागहीन होती है या असंख्यातभाग हीन होती है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला होता है जो नियमसे असंख्यातभागहीन प्रदेशविभक्तिवाला होता है।
शंका- स्त्रीवेदका द्रव्य संख्यातगुणा हीन होना चाहिए, क्योंकि नारकियोंमें जो स्त्रीवेदका बन्धक काल है उससे तथा देवकुरु और उत्तरकुरुमें जो स्त्रीवेदका बन्धककाल है उससे प्राप्त हुआ नपुंसकवेदका बन्धक काल संख्यात बहुभाग अधिक देखा जाता है । इसप्रकार संख्यातगुणा होनेसे देवकुरु उत्तरकुरुमें स्त्रीवेदका पूरणकाल एक गुणहानिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा मानकर उसे असंख्यातवें भागहीन मानना उचित नहीं है, क्योंकि वहां असंख्यात गुणहानियाँ उपलब्ध होती है और उनका प्राप्त होना असम्भव भी नहीं है, क्योंकि रतिके उत्कृष्ट द्रव्यसे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट द्रव्य संख्यातगुणा है इस प्रकार आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्व सूत्रके अनुसार वहाँ असंख्यात गुणहानियाँ उपलब्ध होती हैं। तथा नपुंसकवेदके द्रव्यको भी संख्यातवें भाग हीन नहीं होना चाहिए, क्योंकि ईशान कल्पके देवोंमें नपुंसकवेदके साथ समस्त स्थावर बन्धक कालको प्राप्त करके पुनः त्रसबन्धक कालके संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि उत्तरकुरु-देवकुरु और ऐशान कल्पके देवोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदको पूरकर तथा नारकियोंमें उत्पन्न होकर मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करनेवाले जीवके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यात भागहानि होती है सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि तेतीस सागरप्रमाण कालके भीतर असंख्यात गुणहानिप्रमाण द्रव्यके गल जाने पर नरकगतिसम्बन्धी सञ्चयको छोड़कर कुरु और ऐशान कल्पके देवोंमें संचित्त हुए द्रव्यका अवस्थान माननेमें विरोध आता है, इसलिए असंख्यातभागहीनपना नहीं बनता है ?
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जयधवलासहिदे कसायपाहरे [पदेसविहत्ती ५ असंखेज्जभागहीणतं ग घडदे त्ति ? ण, कुरवीसाणदेवेसु उकस्सीकयइत्थि-णबुंसयवेददव्वं णेरइएमुप्पज्जिय उकस्ससंकिलेसेणुक्कडिय उकस्सीकयमिच्छतस्स इत्थि-णसयवेददव्वाणमसंखे०भागहाणिं पडि विरोहाभावादो। एगगुणहाणीए असंखे०भागमेत्तकालेण तेत्तीससागरोवमेसु हिददव्वमुक्कड्डिय सयलदव्वस्स असंखे०भागमेत्तं चैव तत्थ धरेदि त्ति कुदो गव्वदे ? एदम्हादो चेव सण्णियासादो । किं च गुणिदकम्मंसिए 'उवरितीणं हिदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदं हेडिल्लीणं हिदीणं णिसेयस्स जहण्णपदं' ति वेयणामुत्तादो च णव्वदे जहा असंखे०भागो चेव गलदि त्ति । चदुसंजलण-पुरिसवेद० णियमा अणुक्क० संखेजगुणहीणा । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं णियमा अवित्तिओ, गुणिदकम्मंसियतादो। एवं बारसकसाय-छणोकसायाणं।
समाधान-नहीं, क्योंकि कुरुवासी जीवोंमें और ऐशान कल्पके देवोंमें उत्कृष्ट किये गये स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके द्रव्यको नारकियोंमें उत्पन्न होकर उत्कृष्ट संक्लेश द्वारा उत्कर्षित करके जिसने मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट किया है उसके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका द्रव्य असंख्यात भागहीन होता है इसमें कोई विरोध नहीं आता।
शंका-एक गुणहानिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा तेतीस सागर कालके भीतर स्थित द्रव्यका उत्कर्षण करके समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको ही वहाँ धारण करता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-इसी सन्निकर्षसे जाना जाता है। दूसरे गुणितकांशिक जीवमें उपरितन स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट पद होता है और अधस्तन स्थितियोंके निषेकका जघन्य पद होता है ऐसा जो वेदनासूत्रमें कहा है उससे जाना जाता है कि असंख्यातवाँ भाग ही गलता है।
चार संज्वलन और पुरुषवेदकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला होता है जो अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति संख्यातगुणी हीन होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अविभक्तिवाला होता है, क्योंकि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला जीव गुणितकर्माशिक है। इसी प्रकार बारह कषाय और छह नोकषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषयोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी एक समान है, इसलिए मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके अन्य प्रकृतियोंके साथ जिस प्रकारका सन्निकर्ष कहा है उसी प्रकार बारह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेविभक्तिवाले जीवके अन्य प्रकृतियोंके साथ सन्निकर्ष बन जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि बारह कषायोंकी उत्कृष्ट कर्मस्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण है और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट कर्मस्थिति संक्रमसे प्राप्त होती है जो चालीस कोड़ाकोड़ी सागरसे एक आवलि कम है, अतः मिथ्यात्वकी गुणितकांशविधि करते हुए जिस जीवके तीस कोड़ाकोड़ी सागर व्यतीत हो गये हैं उसके आगे इन कर्मों की गुणितकाशविधि करानी चाहिए। इस प्रकार करानेसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय इन कर्मों की भी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति प्राप्त हो जाती है। अन्यथा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय इन कर्मो की अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति रहती है। इसी प्रकार इन कर्मो की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय मिथ्यात्वकी भी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति घटित कर लेनी चाहिए । यह इन
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सण्णियासपरूवणा ६३. सम्मामि० उक्क० पदेसविहतिओ मिच्छत्त-सम्मात्ताणं णियमा अणुक्क. असंखे०गुणहीणा । अहक०-अहणोक० णियमा अणुक० असंखे० भागहीणा। चदुसंज०-पुरिस. णियमा अणुक्क० संखेजगुणहीणां । सम्मत्तमेवं चेव । गवरि मिच्छत्तं पत्थि । सम्मामि० णियमा अणुक्क० असंखे०गुणहीणा।
६४. इत्थिवेद० उक० विहतिओ मिच्छत्त-बारसक०--सत्तणोक० णियमा अणुक्क० असंखे०भागहीणा । चदुसंज०-पुरिस० णियमा अणुक्क० संखेज०गुणहीणा । उन्नीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा परस्पर सन्निकर्षका विचार हुआ । अब रहे शेष कर्म सो इन कर्मों की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय तीन वेद और चार संज्वलन कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति नहीं होती, अतः उस समय इन सात कर्मों की अनुत्कृष्ट प्रदेविभक्ति कही है। जो गुणितकर्माशिक जीव मिथ्यात्व आदि उन्नीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति कर रहा है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व नहीं होता यह स्पष्ट ही है । शेष कथन परामर्श करके समझ लेना चाहिए।
६३. सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले 'जीवके मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है। आठ कषाय और आठ नोकषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातभाग हीन होती है। चार संज्वलन और पुरुषवेदकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो नियमसे संख्यातगुणी हीन होती है । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके इसी प्रकार सन्निकर्ष करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके मिथ्यात्वका सत्त्व नहीं होता। तथा इसके सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है।
विशेषार्थ जो गुणितकांशिक जीव क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके द्रव्यका सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण होने पर सम्यग्मिथ्यात्वका और सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके द्रव्यका सम्यक्त्वमें संक्रमण होने पर सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। इस प्रकार जिस समय सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है उस समय मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनोंका सत्त्व रहता है किन्तु वह अपने उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यातगुणा हीन अनुत्कृष्टरूप ही रहता है, क्योंकि उस समय तक मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे तो असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्यका सम्यग्मिथ्यात्व
और सम्यक्त्वमें संक्रमण हो लेता है। तथा सम्यक्त्वमें अभी सम्यग्मिथ्यात्वके असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्यका संक्रमण नहीं हुआ है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके समय मिथ्यात्व और सग्यक्त्वका द्रव्य अपने उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यातगुणा हीन कहा है। इसी प्रकार सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके समय सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य अपने उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यातगुणा हीन घटित कर लेना चाहिए। इसके मिथ्यात्वका सत्त्व नहीं रहता यह स्पष्ट ही है। शेष कथन सुगम है।
६४. स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति करनेवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातभाग हीन होती है। ... ता० प्रती 'मसंखे गुणहीणा' इति पाठः । २. ता प्रतौ 'असंखेजगुणहीणा' इति पाठः ।
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जयपपलासहिदे कसावपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ एवं गQसयवेदस्स।
६५. पुरिसबेद० उक्क० पदेसविहत्तिओ चदुसंज० णियमा अणुक० संखे०गुणहीणा। छण्णोकसाय० णियमा अणुक० असंखेजगुणहीणी। कोधसंज० उक्क. पदे०विहत्तिओ हेडिल्लाणं णियमा अवित्तिो । तिण्णं संज. णियमा अणुक० संखे.. गुणहीणा । पुरिस० णियमा अणुक० असंखे०गुणहीणा । माणसंज० उक्क० पदेसवित्तिओ हेष्टिनाणमविहतिओ । माया-लोभसंज० णियमा अणुक० संखे०गुणहीणा । कोधसंज० णियमा अणुक्क० असंखे०गुणहीणा। मायासंज० उक० पदेसविहत्तिओ लोभसंज. णियमा अणुक्क० संखे०गुणहीणी । माणसंजलण. णियमा अणुक्क० असंखेजगुणहीणा। लोभसंजलण० उक्क० पदे विहत्तिओ मायासंजलण णियमा अणुक० असंखेजगुणहीणा । चार संज्वलन और पुरुषवेदकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो संख्यातगुणी हीन होती है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
विशेषार्थ—जो जीव बारह कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति करके यथाविधि भोगभूमिमें उत्पन्न होता है उसके पल्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण काल जाने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । उस समय मिथ्यात्व आदि बीस प्रकृतियोंकी प्रदेशविभक्ति अपने उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यातवें भागप्रमाण हीन हो जाती है, क्योंकि उस समय तक इनका इतना द्रव्य अधःस्थितिगलना आदिके द्वारा गल जाता है और जिनका अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण सम्भव है उनके द्रव्यका संक्रमण भी हो जाता है। फिर भी यहाँ पर अधास्थितिगलनाके द्वारा गलनेवाले द्रव्यकी मुख्यता है। नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति ऐशान कल्पमें होती है। उसकी मुख्यतासे भी इसी प्रकार सन्निकर्ष प्राप्त होता है, इसलिए उसे खीवेदकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
६५. पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके चार संज्वलनकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो संख्यातगुणी हीन होती है। छह नोकषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है। क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके पुरुषवेद और संज्वलन प्रकृतियोंके सिवा शेष प्रकृतियोंका नियमसे असत्त्व होता है। तीन संज्वलनोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो संख्यातगुणी हीन होती है। पुरुषवेदकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है। मान संज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके संज्वलन प्रकृतियोंके सिवा पूर्वकी शेष सब प्रकृतियोंका नियमसे असत्त्व होता है। मायासंज्वलन और लोभसंज्वलककी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो संख्यातगुणी हीन होती है। क्रोधसंज्वलनकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है। मायासंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके लोभसंज्वलनकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो संख्यातगुणी हीन होती है। मानसंज्वलनकी नियमसे अनुत्कष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है। लोभसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मायासंज्वलनकी नियमसे अनुत्कष्ट प्रदेशविभक्ति
१. मानतौ 'मसंखेजभागहोणा' इति पाठः । २. मा प्रतौ 'मसंखेजगुणहीणा' इति पाठः ।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेवितीए सष्णिया सपरूवणा
५६
६६. आदेसेण णेरइएमु मिच्छ० उक० पदेसविहतिओ सोलसक० - इण्णोक ० णियमा विहतिओ । तं तु वेद्वाणपदिदा अनंतभागहीणा असंखे० भागहीणा वा । तिन्हं बेदाणं णियमा अणुक्क० असंखे० भागहीणा । सम्मत्त० - सम्मा मिच्छत्ताणमहिति । एवं सोलसक० छण्णोकसायाणं । सम्म० उक्क० पदेसविहत्तिओ बारसक०raणोक० णियमा अणुक० असंखेज्जभागहीणा । सम्मामि० उक्क० पदे ० विहत्ति ० सम्म० णियमा अणुक्क० असंखेज्जगुणहीणा । मिच्छ० - सोलसक० - णवणोक० नियमा अणुक्क० असंखे० भागहीणा । इत्थिवेद० उक्क० पदे०वि० मिच्छ० - सोलसक०agro oियमा अणुक्क० असंखे० भागहीणा । एवं गवुंसयवेदस्स । पुरिसवेदस्स एवं चेव । णवरि सम्म० सम्मामि० असंखे०गुणहीणा, उक्कडणाए विणा देवेस होती है जो संख्यातगुणी हीन होती है ।
०
1
विशेषार्थ - यहाँ पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय छह नोकषाय और चार संज्वलनका, क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय पुरुषवेद और मान आदि तीन संज्वलन का, मान संज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय शेष तीन संज्वलनोंका, मायासंज्वलनकी उत्कृष्टप्रदेशविभक्तिके समय मान संज्वलन और लोभसंज्वलनका तथा लोभसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय मायासंज्वलनका भी सत्त्व रहता है, इसलिए जहाँ जिन प्रकृतियोंका सन्निकर्ष सम्भव है वह कहा है । मात्र विवक्षितकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति जिन प्रकृतियोंके अन्तिम स्थितिharsaat न्तिम फालिका पतन होने पर होती है उन प्रकृतियोंकी प्रदेशविभक्ति असंख्यात - गुणहीन पाई जाती है और जिन प्रकृतियोंके स्थितिकाण्डकोंका घात होना शेष रहता है उनकी प्रदेशविभक्ति संख्यातगुणी हीन पाई जाती है ।
$ ६६. आदेश से नारकियों में मिध्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला जीव सोलह कषाय और छह नोकषायों को नियमसे विभक्तिवाला होता है । किन्तु वह इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला भी होता है और अनुकृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला भी होता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला होता है तो उसके इनकी दो स्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है - या तो अनन्तभाग हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है या असंख्यात भाग हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। तीन वेदोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्ता भाग हीन होती है। यह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्त्व से रहित होता है । इसी प्रकार सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जाना चाहिये । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातभाग हीन होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिबाले जीवके सम्यक्त्वकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है । मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो संख्या भागहीन होती है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यात भाग हीन होती है । इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पुरुषवेदकी मुख्यता सन्निकर्ष इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी असंख्यातगुणी हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है, क्यों कि उत्कर्षणके विना
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जयधक्लासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गलिदासंखेजगुणहाणित्तादो।गुणिदकम्मंसियउक्कड्डिदमिच्छत्तदव्वे जहासरूवेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेसु संकते असंखे०भागहीणं किण्ण जायदे ! ण, सम्मादिहिओकड्डणाए थूलीफयहेडिमगोवुच्छासु असंखे गुणहाणिमेत्तासु गलिदासु असंखे० गुणहाणिदंसणादो। एवं पढमाए। विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्म० उक्क० पदे०विहत्तिगो मिच्छ ०-सोलसक०-णवणोक० . णियमा अणुक० असंखे०भागहीणा । सम्मामि० णियमा उक० । एवं सम्मामि।।
६७. तिरिक्ख०--पंचिंदियतिरिक्ख--पंचि०तिरि०पज्जत्त० देवगदीए देव० सोहम्मादि जाव उवरिमगेवजा त्ति रइयभंगो। पंचिंदियतिरिक्वजोणिणीसु विदियपुढविभंगो । एवं भवण०--वाण.--जोदिसियाणं । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तभंगो। गवरि सम्म० उक्क० पदेसविहत्ति० सम्मामि० तं तु वेहाणपदिदं अणंतभागहीणं असंखे०भागहीणं । सेसपदा णियमा अणुक्क० असंखे०देवोंमें असंख्यात गुणहानियाँ गल जाती हैं।
शंका--गुणितकमांशिक जीवके द्वारा मिथ्यात्वके द्रव्यका उत्कर्षण करके और उसे उसी रूपमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त कर देने पर इनका द्रव्य असंख्यातभाग हीन क्यों नहीं होता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके अपकर्षणके द्वारा अधस्तन गोपुच्छाओंके स्थूल हो जानेसे असंख्यात गुणहानियोंके गल जाने पर असंख्यातगुणहानि देखी जाती है।
___ इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातभाग हीन होती है। इसके सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्षे जानना चाहिए।
विशेषार्थ-सामान्यसे नारकियोंमें और पहली पृथिवीमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका सत्त्व नहीं होनेसे उनका सन्निकर्ष नहीं कहा। परन्तु द्वितीयादि पृथिवियोंमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते, इसलिए वहाँ सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय सबका सत्त्व स्वीकार किया है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
६७. तियञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, देवगतिमें सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है । पञ्चन्द्रियतिर्यश्च योनिनियोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए । पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट ,प्रदेशविभक्ति भी होती है और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भी होती है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तभाग
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सण्णियासपरूपणा भागहीणा । एवं सम्मामि० । एवं मणुस्सअपज्ज. ।
१८. मणुसतियम्मि ओघं। णवरि मणुस्सिणीसु पुरिसवेद० उक्क० पदेसविह० इत्थिवेद० णियमा अणुक्क० असंखे०गुणहीणा। अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति मिच्छ० उक्क० पदे०वि० सम्मामिच्छत्त-सोलसक०-छण्णोक० णियमा तं तु विहाणपदिदा अणंतभागहीणा असंखे०भागहीणा वा । सम्मत्त० णियमा अणुक्क० असंखे०भागहीणं । तिण्हं वेदाणं णियमा अणुक्क० असंखे०भागहीणा । एवं सोलसक०-छण्णोक०-सम्मामिच्छत्ताणं । सम्मत्त० उक्क० पदे विहत्ति० बारसक०णवणोक. णियमा अणुक्क० असंख०भागहीणा। इत्थिवेद० उक्क० पदे०वि० मिच्छ०सम्मामि०-सोलसक०-अहणोक० णियमा अणुक० असंखे० भागहीणा । सम्म० हीन होती है या असंख्यातभाग हीन होती है। शेष प्रकृतियोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातभाग हीन होती है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें इसी प्रकार अर्थात् पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान सन्निकर्ष जानना चाहिए।
विशेषार्थ-जो विशेषता सामान्य नारकियोंमें बतला आये हैं वही यहाँ तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्थञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें घटित हो जाती है, इस लिए इनमें सामान्य नारकियों के समान जाननेकी सूचना की है। दूसरी पृथिवीके समान पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी और भवनत्रिकमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते, इसलिए इनमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग बन जानेसे उसके समान जाननेकी सूचना की है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तक यह मार्गणा ऐसी है जिसमें मात्र मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं इसलिए इसमें अन्य प्ररूपणा तो पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तकोंके समान बन जाने से उनके जाननेकी सूचना की है। किन्तु इसके सिवा जो विशेषता है उसका अलगसे निर्देश किया है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है यह स्पष्ट ही है।
६८. मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभवाले जीवके स्त्रीवेदकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह लोकयायोंकी नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भी होती है और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भी होती है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तभाग हीन होती है या असंख्यातभागहीन होती है। सम्यक्त्वकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुण हीन होती है। तीन वेदोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यतभागहीन होती है। इसी प्रकार सोलह कषाय, छह नोकषाय और सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातभाग हीन होती है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति
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जयभवलासहिदे कसायपाहुरे [पदेसविहत्ती ५ णियमा अणुक० असंखे०गुणहीणा । एवं गर्बुस । पुरिसवेदस्स देवोघं । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
___६६. जहण्णए पयदं। दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तस्स जहण्णपदेसविहत्तिओ सम्म०-सम्मामि०-एक्कारसक०-तिण्णिवेद० णियमा अजहण्ण. असंखेजगुणन्महिया। लोभसंज०-छण्णोक० णियमा अजह० असंखेजभागभहिया । सम्मत्तगुणेण पंचिंदिएसु वेछावहिसागरोवमाणि हिंडतेण संचिददिवडगुणहाणिमेत्तपंचिंदियसमयपबद्धाणं सगसगजहण्णदव्वादो असंखेजगुणतं मोतूण णासंखेजभागभहियतं, एइंदियउक्कस्सजोगादो वि पंचिदियजहण्णजोगस्स असंखे०गुणत्तुलंभादो। एत्थ परिहारो वुच्चदे--जदि वि वेछावहिसागरोवमेसु लोभसंजलर्ण णिरंतरं बंधतो वि सगजहण्णदव्वादो विसेसाहियं चेव, अप्पदरकालम्मि झीणदव्वादो होती है जो असंख्यातभागहीन होती है। सम्यक्त्वकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी हीन होती है। इसीप्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ-ओघसे जो सन्निकर्ष कहा है वह मनुष्यत्रिकमें अविकल घटित हो जाता है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष में कुछ विशेषता है, इसलिए उसका अलगसे निर्देश किया है। अनुदिश
आदिमें सब देव सम्यग्दृष्टि होते हैं, इसलिए उनमें अन्य देवोंसे विशेषता होनेके कारण उनमें सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्षका अलगसे निर्देश किया है। विशेष स्पष्टीकरण स्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए। आगे अनाहारक मार्गणा तक इसी प्रकार अपनी अपनी विशेषताको जानकर सन्निकर्ष घटित कर लेना चाहिए।
___इस प्रकार उत्कृष्ट सन्निकर्ष समाप्त हुआ। ६६६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और श्रादेश । ओघसे मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और तीन वेदकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। लोभसंज्वलन और छह नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है।
शंका-सम्यक्त्व गुणके साथ जो पञ्चेन्द्रियोंमें दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करता है उसके सञ्चित हुए डेढ़ गुणहानिप्रमाण पञ्चेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्ध अपने अपने जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यातगुणे होते हैं असंख्यातवें भाग अधिक नहीं, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवके उत्कृष्ट योगसे भी पञ्चेन्द्रिय जीवका जघन्य योग असंख्यातगुणा पाया जाता है ?
समाधान--यहाँ उक्त शंकाका समाधान करते हैं-दो छयासठ सागर कालके भीतर लोभसंज्वलनका निरन्तर बन्ध करता हुआ भी अपने जघन्य द्रव्यसे वह विशेष अधिक ही होता
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सणियासपरूवणा मुनगारकालम्मि संघिददव्वस्स असंखे भागभहियत्तादो। केसि पि सगजहण्णदव्वादो संखे०भागम्भहियं संखे गुणमसंखेजगुणं का किग्ण जायदे ? ण, असंखेजभागभहियं चेव, उक्कस्सजोगेण वेछावहिसागरोवमाणि परिभमिदसम्मादिहिम्मि वि अप्परकालादो भुजगारकालस्स णियमेण विसेसाहियस्सेवुवलंभादो। एदं कुदो उवलब्भदे । 'णियमा असंखे भागभहिया' ति उच्चारणाइरियवयणादो। कम्मपदेसाणं भुजगारप्पदरभावो किंणिबंधणो ? ण, मुक्कंधारपक्खचंदमंडलभुजगारप्पदराणं व साहावियत्तादो। जदि अप्पदरकालम्मि झीणमाणदव्वादो भुजगारकालम्मि संचिददव्वं विसेसाहियं चेव होदि तो खविदकम्मंसियदव्वादो गुणिदकम्मंसियदव्वेण वि विसेसाहिएणेव होदव्वं ? ण च एवं, वेदणाए चुण्णिमुत्तेण च सह विरोहादो ति सच्चं विसेसाहियं चेव, किं तु ण विरोहो, सवयणविरोह मोत्तण तंतंतरत्येण विरोहाणभुवगमादो । वेयणा-चुण्णिमुत्ताणमुवएसो है, क्योंकि अल्पतर कालके भीतर क्षयको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे भुजगार कालके भीतर सन्चित हुआ द्रव्य असंख्यातवें भाग अधिक होता है ।
शंका-किन्हीं जीवोंके अपने जघन्य द्रव्यसे संख्यातवें भाग अधिक, संख्यातगुणा अधिक या असंख्यातगुणा अधिक क्यों नहीं होता है ?
समाधान नहीं क्योंकि असंख्यातवें भाग अधिक ही होता है, क्योंकि उत्कृष्ट योगके साथ दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवके भी अल्पतर कालसे भुजगार काल नियमसे अधिक ही उपलब्ध होता है।
शंका—यह किस प्रमाणसे उपलब्ध होता है ?
समाधान—उच्चारणाचार्यके 'नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक है' इस वचनसे उपलब्ध होता है।
शंका--कर्म प्रदेशोंका भुजगार और अल्पतर पद किस निमित्तसे होता है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि जिस प्रकार शुक्ल और कृष्णपक्षमें चन्द्रमण्डल स्वभावतः बढ़ता और घटता है उसी प्रकार यहाँ पर कर्मप्रदेशोंका भुजगार और अल्पतर पद स्वभावसे होता है।
शंका--यदि अल्पतर कालके भीतर नष्ट होनेवाले द्रव्यसे भुजगार कालके भीतर सञ्चित होनेवाला द्रव्य विशेष अधिक ही होता है तो क्षपितकाशिकके द्रव्यसे गुणितकर्माशिक जीवका द्रव्य भी विशेष अधिक होना चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं है, क्यों कि ऐसा मानने पर वेदना और चूर्णिसूत्रके साथ विरोध आता है ? ।
समाधान--विशेष अधिक है यह सत्य है तो भी वेदना और चूर्णसूत्र के साथ विरोध नहीं आता, क्योंकि स्ववचन विरोधको छोड़ कर दूसरे ग्रन्थमें प्रतिपादित अर्थके साथ आनेवाले विरोधको नहीं स्वीकार किया गया है।
वेदना और चूर्णिसूत्रोंका उपदेश है कि अल्पतर कालके भीतर क्षयको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अप्पदरकालम्मि झिज्जमाणदव्वादो भुजगारकालम्मि गुणिदकम्मंसियविसयम्मि संचिजमाणदव्वं कत्थ वि असंखेज्जभागभहियं, कत्थ वि संखेजभागभहियं, कत्थ वि संखेज्जगुणब्भहियं, कत्थ वि असंखेज्जगुणमत्थि । तेण तत्थ गुणिदकम्मंसियकालो कम्महिदिमेत्तो। खविदकम्मंसियम्मि पुण भुजगारकालम्मि संचिददव्वादो अप्पदरकालम्मि झीणदव्वमसंखे०भागब्भहियं, कत्थ वि संखेजभागभहियं संखेज्जगुण
भहियमसंखेजगुणब्भहियं च । एदं कुदो णव्वदे ? कम्महिदिमेत्तखविदकम्मंसियकालपदुप्पायणादो। उच्चारणाए पुण गुणिदकम्मंसियम्मि अप्पदरकालम्मि झीणदव्वादो भुजगारकालम्मि संचिददव्वं विसेसाहियं चेव । एदं कुदो णव्वदे ? लोभसंजलणस्स जहण्णदव्वादो वेछावहिकालभतरे पंचिंदियजोगेण संचिदं पि लोभसंजलणदव्वं विसेसाहियं चेवे ति वयणादो। जदि एवं तो उच्चारणाए कम्महिदिमेत्तो गुणिदकम्मंसियकालो किम परूविदो ? भुजगारकालम्मि सगअसंखेजदिभागमेत्तदव्वसंगहण । ___ १००. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णपदेसविहत्तिओ मिच्छ०-पण्णारसक०-तिण्णि
عرعر عرعر عرععهم
عرعر عرعر
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गुणितकर्माशिकके विषयरूप भुजगार कालके भीतर सञ्चित हुआ द्रव्य कहीं पर असंख्यातवें भाग अधिक है, कहीं पर संख्यातवें भाग अधिक है, कहीं पर संख्यातगुणा अधिक है और कहीं पर असंख्यातगुणा अधिक है। इस लिए वहाँ गुणितकांशिकका काल कमस्थितिप्रमाण है । परन्तु क्षपितकांशिकके भुजगार कालके भीतर सञ्चित हुए द्रव्यसे अल्पतर कालके भीतर क्षयको प्राप्त होनेवाला द्रव्य कहीं पर असंख्यातवें भाग अधिक है, कहीं पर संख्यातवें भाग अधिक है, कहीं पर संख्यातगुणा अधिक है और कहीं पर असंख्यातगुणा अधिक है।
शंका--यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान--क्षपितकर्माशिकका काल कर्मस्थितिप्रमाण कहा है। उससे जाना जाता है। परन्तु उच्चारणाके अनुसार गुणितकांशिकसम्बन्धी अल्पतरकालके भीतर क्षयको प्राप्त हुए द्रव्यसे भुजगारकालके भीतर सञ्चित हुआ द्रव्य विशेष अधिक ही है ।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-लोभसंज्वलनके जघन्य द्रव्यसे दो छयासठ सागर कालके भीतर पञ्चेन्द्रिय जीवके योग द्वारा सञ्चित हुआ भी लोभसंज्वलनका द्रव्य विशेष अधिक ही है इस वचनसे जाना जाता है। ... शंका-यदि ऐसा है तो उच्चारणामें गुणितकर्माशिकका काल कर्मस्थितिप्रमाण किसलिए कहा है ?
समाधान- भुजगार कालके भीतर अपना असंख्यातवाँ भाग अधिक द्रव्यका संग्रह करनेके लिए कहा है।
६१००. सम्यग्यिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय और
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सण्णियासपरूवणा
६५ वेद० णियमा अज. असंखे गुणन्भहिया । लोभसंज०-छण्णोक. णियमा अज. असंखे०भागब्भहिया। सम्मत्त० णियमा अविहत्तिओ । सम्मत्तस्स जहण्णपदेसविहत्तिश्रो मिच्छ०-सम्मामि०-पण्णारसक०-तिण्णिवेदाणं णियमा अज० असंखे०गुणब्भहिया । लोभसंज०-छण्णोक० णियमा अज० असंखे०भागन्महि । कारणं पुव्वं परविदं तिणेह परूविज्जदे।।
१०१. अणंताणु०कोध० जहण्णपदे० माणे-माया-लोभाणं णियमा तं तु विहाणपदिदा अणंतभागब्भहि० असंखे०भागब्भहिया वा । मिच्छ० सम्म०सम्मामि०-एक्कारसक०-तिण्णिवेदाणं णियमा अज. असंखे० भागभहिया । लोभसंज०-छण्णोक. णियमा अज० असंखे०भागब्भहिया । एवं' माण-माया-लोभाणं । अपञ्चक्खाणकोध. जह० पदेसविहत्तिओ सत्तकसायाणं णियमा विहत्तिओ। तं तु वेढाणपदिदा अणंतभागभहिया असंखे०भागन्भहिया । तिण्णिसंजल-तिण्णिवेद. णियमा अज० असंखे०गुणब्भहि० । लोभसंज०-छण्णोक० णियमा अर्ज० असंखे०तीन वेदोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। लोभसंज्वलन और छह नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। तथा वह सम्यक्त्वका नियमसे अविभक्तिवाला होता है। सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय और तीन वेदोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है । लोभसंज्वलन और छह नोकषायोंकी नियमसे . अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। कारण पहले कह आये हैं, इसलिए यहाँ उसका कथन नहीं करते।
६१०१. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मान, माया और लोभकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और तीन वेदोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। लोभसंज्वलन और छह नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार मान, माया और लोभकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सात कषायोंकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति या अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। तीन संज्वलन और तीन वेदोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। लोभसंज्वलन और छह नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेश विभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। वह शेष प्रकृतियोंका नियमसे
१. श्रा०प्रती 'असंखे भागब्भहिया वा। एवं' इति पाठः । २. मा०प्रतौ 'छण्णोक० अज.' इति पाठः।
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जयधवलासहिदे कसाथ पाहुडे
[ पदेसविहसी ५
भाग भ० । सेसाणं पयडीणं णियमा अविहतिओ । एवं सत्तकसायाणं । कोधसंज० जह० पदेसविहतिओ माण- मायासंज० नियमा अज० असंखे० गुणन्म० । लोभसंज० णियमा अज० असंखे० भागब्भ० । सेसाणं पयडीणं णियमा अविहत्तिओ । माणसंज० जहण्णपदेस विहत्तिओ मायासंज० नियमा अज० असंखे ० गुण भ० । लोभसंजल० णियमा अज० असंखे ० भागब्भ० । मायासंज० जह० पदेसविहत्तिओ लोभसंज० णियमा ज० असंखेज्जगुण भहियो । सेसाणमविहत्तिओ । लोभसंज० जह० पदे०विह० एक्कारस० - तिण्णिवेद० णियमा अज० श्रसंखे० गुण भ० । छण्णोक० नियमा अज • असंखे० भागब्भ० ।
१०२. इत्थिवेद ० जह० पदे० विहत्तिश्रो तिणिसंज० - पुरिस० नियमा अज० असंखे ० गुण भ० । लोभसंज० छण्णोक० नियमा अज० असंखे ० भागन्भहियं । एवं पुंसयवेदस्स | पुरिसवेद० जह० पदेस० तिण्णिसंज० नियमा अज० असंखे०गुणभ० । लोभसंज० णियमा अज० असंखे० भागब्भ० । हस्स० जह० पदे०विहत्तिओ तिणिसंज० - पुरिसवेद० णियमा अज० असंखे ०गुणब्भहि० । लोभसंज०
विभक्तिवाला होता है। इसी प्रकार सात कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । क्रोधसंज्वलनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मानसंज्वलन और मायासंज्वलनकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है । लोभसंज्वलनकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । वह शेष प्रकृतियों का नियमसे विभक्तिवाला होता है। मानसंज्वलनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मायासंज्वलनकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है । लोभसंज्वलनकी नियम से अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। मायासंज्वलनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके लोभसंज्वलनकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है । वह शेष प्रकृतियोंका अविभक्तिवाला होता है । लोभसंज्वलनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके ग्यारह कषाय और तीन वेदोंकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है । छह नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है ।
६. १०२. स्त्रीवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके तीन संज्वलन और पुरुषवेद की नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। लोभ संज्वलन और छह नोकषायोंकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । इस प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्षं जानना चाहिए । पुरुषवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके तीन संज्वलनोंकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो श्रसंख्यातगुणी अधिक होती है। लोभसंज्वलनकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । हास्यकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है ।
१. अ १० प्रतौ 'अज० संखे० गुणग्भहियं' इति पाठः ।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहन्तीए सण्णियासपरूवणा
णियमा अजह० असंखे० भाग०भ० | पंचणोक० णियमा तं तु वेद्वाणपदिदा अनंतभाग०भ० असंखे ० भागब्भहि० । एवं पंचणोकसायाणं ।
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$ १०३. आदेसेण णेरइएसु मिच्छ० जह० पदेसविहत्तिओ सम्म० सम्मामि० णियमा अज० असंखे ० गुणब्भहिया । बारसक०णवणोक० णियमा अज० असंखे भागभहिया । इत्थि - णवुंसयवेदाणं होदु णाम असंखे० भागव्भहियतं, मिच्छत्तं गंतूण पडिवक्खबंधगद्धाए चरिमसमयम्मिं जहण्णसंतकम्मत्तवलंभादो | ण सेसकम्माणं, तेत्तीस सागरोत्रमे पंचिंदियजोगेण एइंदियजोगं पेक्खिदूण असंखे० गुणेण संचिदत्तादो त्ति ? ण एस दोसो, खविदकम्मं सियजद्दण्णदव्वं पेक्खिदूण गुणिदकम्मंसियभुजगारकालम्मि संचिददव्यस्स असंखे ०गुणहीणत्तादो । एदं कुदो नव्वदे ! एदम्हादो चेव सण्यासादो | एवं संते जहण्णदव्वादो उकस्सदव्यमसंखे०गुणं ति भणिदवेयणा चुण्णित्तेहि विरोहो होदि त्ति ण पच्चवद्वे यं, भिण्णोवएसत्तादो । सम्म० जह० लोभसंज्वलनकी नियमसे अजघन्य प्रदेशबिभक्ति होती हैं जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । पाँच नोकषायोंकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है या अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है । यदि जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है -या तो अनन्त भाग अधिक होती है या श्रसंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार पाँच नोकषायों की मुख्यतासे सम्निकर्ष जानना चाहिए ।
$ १०३. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिबाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है ।
शंका - स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति असंख्यातवें भाग अधिक हो, क्योंकि मिथ्यात्वमें जाकर प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धक कालके अन्तिम समय में जघन्य सत्कर्म उपलब्ध होता है । परन्तु शेष कर्मों की अजघन्य प्रदेशविभक्ति असंख्यातवें भाग अधिक नहीं हो सकती, क्योंकि तेतीस सागरकी युवाले जीवोंमें एकेन्द्रिय जीवके योगको देखते हुए असंख्यातगुणे पचन्द्रिय जीवके योगद्वारा उनका द्रव्य सञ्चित होता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि क्षपितकर्माशिक जीवके जघन्य द्रव्यको देखते हुए गुणितकर्माशिक जीवके भुजगार कालके भीतर सचित हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा हीन होता है।
शंका – यह किस प्रमाणसे जाना जाता है । समाधान -- इसी सन्निकर्षसे जाना जाता है ।
शंका- ऐसा होने पर जघन्य द्रव्यसे उत्कृष्ट द्रव्य असंख्यातगुणा होता है ऐसा कथन करनेवाले वेदना चूर्णिसूत्रों के साथ विरोध आता है ?
समाधान - ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह भिन्न उपदेश है ।
१. ता० प्रतौ 'पडिवरच रिमसमयम्मि' इति पाठः ।
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अयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
पदेस विहत्तिओ मिच्छत० - बारसक ० - णवणोक० णियमा अज० असंखे ० भागब्भहि० । सम्मामि०-- अनंताणु ० चउक्क० नियमा अज० असंखे० गुणब्भ० । सम्मामि० जह० पदेसविहत्तिओ मिच्छत - बारसक० - णवणोक० णियमा अज० असंखे० भागन्भ० । ताणु ० चक्क० नियमा० अज० असंखेज्जगुणन्भहिया ।
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१०४. अताणुकोध० जह० पदेसविहत्तिओ मिच्छत्त- बारसक० णवणोक णियमा अज० असंखेज्जभागब्भहिया सम्म० सम्मामि० णियमा अज० असंखे ० गुणभ० | माण- माया - लोभाणं णियमा तं तु विद्वाणपदिदा अनंतभागन्भहिया असंखे ० भाग०भ० वा । एवं माण - माया लोभाणं । अपच्चक्खाणकोध० जह० पदेसविहत्तिओ मिच्छत्त- सत्तणोक० जियमा अज० असंखे० भाग०भ० । सम्म०सम्मामि० - अनंताणु ० चउक्क० णियमा अज० असंखे० गुण भ० । एक्कारसक०-भयदुछ० नियमा तं तु विद्वाणपदिदा - अनंतभागन्भहिया असंखे ० भागब्भहिया वा । एवमेक्कारसक०-भय-दुगुंछाणं ।
सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी नियम से अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो संख्यातगुणी अधिक होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है ।
$ १०४ अन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियम से अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है | सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है । अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है । यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है - या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । प्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व और सात नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यात गणी अधिक होती है । ग्यारह कषाय, भय और जुगुप्साकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है । यदि जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है - या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सण्णियास परूवणा
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अज०
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$ १०५. इथिवेद ० जह० पदेसविहत्तिओ मिच्छत्त- बारसक०-३ -अद्वणोक० नियमा असंखे ० भागन्भहि० । सम्म० - सम्मामि० - अनंताणु० चउक्क० णियमा अज० असंखं ० गुण भहिया । एवं पुरिस - णवंसयवेदाणं । णबुंसयवेदे जहण्णे संते मिच्छतस्स असंखे ० भागन्भहियत्तं होदु णाम, पुरिसवेदे पुण जहण्णे संते मिच्छत्तस्स असंखे ०गुणन्भहियतं मोत्तूण णासंखेज्जभागव्भहियत्तं, सम्मतं घेत्तूण तेत्तीससागरोवममेत्तकालं बंधे विणा अवदत्तादो त्ति ? ण, तेत्तीस सागरोवमाणि सम्मत्तगुणेण अवदिस्स मिच्छत्तदव्वं पि पुरिसवेद जहण्णसंतकम्पिय भिच्छत्तदव्वादो असंखे० भागहीणं चैव । एदस्साइरियस्स उपदेसेण गुणिद- खविदकम्मं सिएस चरिमणिसेगप्पहुडि विसेसहीणकमेण हेा जाव समयाहियआवाहा त्ति हिदि पडि पदेसावद्वाणादो । कुदो एवं road ? एदम्हादो चेव सष्णियासादो | अणुलोम-विलोमपदेसरयणासु का एत्थ सच्चिल्लिया ण णव्वदे आणाकणिद्वदाए तेण दोण्हमु एसाणमेत्थ संगहो कायव्वो ।
$ १०६. हस्सस्स जह० पदेसविहत्तिओ मिच्छत्त ० - बारसक० सत्तणोक ० णियमा अज० असंखे० भागन्भहिया । सम्म० सम्मामि० - अनंताणु ० चक्क० नियमा
$ १०५. स्त्रीवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिध्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो संख्या गुणी अधिक होती है। इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुसंवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिये ।
शंका – नपुसंकवेदके द्रव्यके जघन्य रहने पर मिध्यात्वका द्रव्य असंख्यातवें भाग अधिक होवे, परन्तु पुरुषवेदके द्रव्यके जघन्य रहने पर मिथ्यात्वका द्रव्य असंख्यातगुण अधिकको छोड़ कर असंख्यातवें भाग अधिक नहीं हो सकता, क्योंकि सम्यक्त्वको ग्रहण करके तेतीस सागर प्रमाण काल तक बन्धके विना वह अवस्थित रहता है ।
समाधान — नहीं, क्योंकि तेतीस सागर काल तक सम्यक्त्व के साथ अवस्थित रहनेवाले जीवके जो मिध्यात्वका द्रव्य होता है वह भी पुरुषवेदके जघन्य सत्कर्मवाले जीवके मिध्यात्वके द्रव्यसे असंख्यातवें भागप्रमाण कम ही होता है। इस आचार्यके उपदेशानुसार गुणितकर्माशिक और क्षतिकर्माशिक जीवके अन्तिम निषेकसे लेकर नीचे एक समय अधिक बाधाकालके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थितिके प्रति विशेष हीन क्रमसे प्रदेशोंका अवस्थान पाया जाता है । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान इसी सन्निकर्षसे जाना जाता है ?
अनुलोम और विलोम प्रदेशरचनाके मध्य कौनसी प्रदेशरचना समीचीन है यह उत्तरोत्तर जिनवाणीके क्षीण होते जानेसे ज्ञात नहीं होता, इसलिए दोनों उपदेशोंका यहाँ पर संग्रह करना चाहिए ।
$ १०६. हास्यकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिध्यात्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अम० असंखे०गुणन्भ० । रदि० णियमा तं तु विहाणपदिदा अणंतभागभ. असंखे भागन्भहिया वा । एवं रदीए ।
१०७. अरदि० जह० पदेसविहत्तिओ मिच्छ०-धारसक० सत्तणोक० णियमा अज० असंखे० भागब्भहिया। सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० णियमा अज० असंखे०गुणब्भ० । सोग० णियमा तं तु विद्वाणपदिदं अणंतभागभ. असंखे०भागन्भ० वा । एवं सोगस्स । एवं सत्तमाए। पढमादि जाव छहि ति एवं चेव । णवरि इत्थि-णसयवेदाणं जहण्णपदेसवि० अणंताणु चउक्क० अविहत्तिओ।
६ १०८. तिरिक्श्वगदीए तिरिक्वाणं पढमपुढविभंगो। णवरि इत्थि-णqसयवेद० जह० विहत्तिओ मिच्छ० -सम्म०--सम्मामि०--अणंताणु०चउकाणं णियमा अविहत्तिओ। एवं पंचिंदियतिरिक्ख-पंचि०तिरि०पज्जत्ताणं । पंचि०तिरि० जोणिणीणं पढमपुढविभंगो।
___१०६. पंचिं०तिरि०अपज्ज. मिच्छत्त० जह० पदेसविहत्तिओ सम्म०सम्मामि० णियमा अज. असंखे०गुणब्भः। सोलसक०-भय-दुगुंछ० णियमा तंतु सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। रतिकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है। यदि अजघन्य प्रदेश विभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है। या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिये।
६ १०७ अरतिकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और सात नोकपायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। सम्यक्त्व,सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्ताबन्धीचतुष्ककी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। शोककी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है । यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है। या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। सातवीं पृथिवीमें इसी प्रकार जानना चाहिए। पहिलीसे लेकर छठी पृथिवी तक इसी प्रकार भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाला जीव अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अविभक्तिवाला होता है।
१०८.तिय॑ञ्चगतिमें तियश्चोंका भङ्ग पहली पृथिवीके समान है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाला जीव मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व
और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी नियमसे अविभक्तिवाला होता है । इसी प्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च और पञ्चन्द्रिय तियश्च पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनियोंमें पहिली पृथिवीके समान भङ्ग है।
६१०६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सण्णियासपरूपणा विहाणपदिदा.- अणंतभागन्म० असंखे०भागभ. बा। सक्षणोक. णियमा अज० असंखे०भागन्म० । एवं सोलसक०-भय-दुगुंछाणं ।
११०. सम्म० जह० पदेसविहतिओ सम्मामि० णियमा अज. असंखे०गुणब्भ० । मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० णियमा अज. असंखे०भागभ० । एवं सम्मामि० । गवरि सम्मत्तस्स णियमा अविहत्तिओ।
१११. इत्थिवेद० जह० पदे०वि० सम्म०-सम्मामि० णियमा अज. असंखे०गुणब्भ० । मिच्छ०-सोलसक०-अहणोक० णियमा अज. असंखे भागब्भः। एवं पुरिस-णसयवेदाणं।
११२. हस्सस्स जह० पदेसविहत्तिओ रदि० णियमा तं तु विहाणपदिदाअणंतभा० असंखेज्जभागब्भहियो वा । सेसमित्थिवेदभंगो । एवं रदीए |
११३. अरदि० जह० पदे०विहत्तिओ सोग० णियमा तं तु विहाणपदिदं । सेसं हस्सभंगो । एवं सोगस्स । एवं मणुसअपज्जत्ताणं । अधिक होती है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है। यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। सात नोकपायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी मुख्यता सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६११०. सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। मिथ्यात्व, सोलह कषाय
और नौ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि यह सम्यक्त्वकी नियमसे अविभक्तिवाला होता है।
१११. स्त्रीवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
$ ११२. हास्यकी जघन्य प्रदेश विभक्तिवाले जीवके रतिकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है। यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है। या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। शेष भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
११३. अरतिकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके शोककी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है। यदि अजघन्य प्रदेश विभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है। शेष भङ्ग हास्यके समान है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार अर्थात् पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ११४. मणुसगदीए मणुस्साणमोघं। मणुसपज्जा एवं चेव । णवरि इथिवेद. जम्हि जम्हि भणदि तम्हि णियमा अज० असंखे०भागब्भहिया । इथिवेद० जह. पदे०विहत्तिओ णवंस सिया अत्थि सिया पत्थि । जदि अत्थि णियमा अज० असंखे०गुणब्भ०।
११५. मणुसिणीसु ओघं । वरि पुरिसवेद-णसयवेद० जम्हि जम्हि भणदि तम्हि तम्हि णियमा अज० असंखे०भागब्भ० । णवूस० जह० पदे विहत्तिओ इत्थिवेद० किं जहण्णा किमजहण्णा १ णियमा अज. असंखे०गुणब्भ०। पूरिसवेद. जह० पदे वित्तिओ एक्कारसक०-इत्थिवेद० णियमा अज. असंखे०गुणब्भ० । लोभसंज०-सत्तणोक० णियमा अज० असंखे भागभ० । एत्थ लोभसंजलण-पुरिसवेदाणमधापवत्तकरणचरिम समए जहण्णसामित्ते अवसिह संते तेसिमण्णोण्णं पेक्खियूण तं तु विहाणपदिदा त्ति वत्तव्ये असंखे० भागभहियत्तणियमो किंणिबंधणो त्ति चिंतिय वत्तव्वं ।
११६. देवगदीए देवाणं तिरिक्खोघं । भवण-वाण-जोदिसि० पढमपुढविभंगो। सोहम्मीसाणप्पहुडि जावुवरिमगेबज्जो त्ति देवोघो । अणुदिसादि जाव सबसिद्धि त्ति मिच्छ० जह० पदेविहत्तिओ सम्म०-सम्मामि० णियमा तंतु
$ ११४. मनुष्यगतिमें मनुष्योंका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्य पर्याप्तकोंमें इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद जहाँ जहाँ कहा जाय वहाँ वहाँ वह नियमसे अजघन्य असंख्यातवां भाग अधिक होता है । स्त्रीवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके नपुंसकवेद प्रदेशविभक्ति स्यात् है और स्यात् नहीं है। यदि है तो नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है।
६ ११५. मनुष्यिनियोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रदेशविभक्ति जहाँ जहाँ कही जाय वहाँ वहाँ नियमसे अजघन्य असंख्यातवें भाग अधिक होती है। नपुंकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके स्त्रीवेद प्रदेशविभक्ति क्या जघन्य होती है या अजघन्य होती है ? नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है। पुरुषवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके ग्यारह कषाय और स्त्रीवेदकी नियमसे असंख्यातगुणी अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है । लोभसंज्वलन और सात नोकषायोंकी नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है । यहाँ पर लोभसंज्वलन और पुरुषवेदका अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जघन्य स्वामित्व अवशिष्ट रहने पर परस्पर देखते हुए उनकी परस्पर जघन्य प्रदेशक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है। उसमें भी अजघन्य प्रदेश विभक्ति दो स्थान पतित होती है इस प्रकार कथन करने पर असंख्यातवें भाग अधिकका नियम किंनिमित्तक होता है इस बातका विचार कर कथन करना चाहिए।
६ ११६. देवगतिमें देवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। सौधर्म और ऐशान कल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तक दोनोंमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सण्णियासपरूपणा विद्वाणपदिदा-अणंतभागब्भ० असंखे०भागम्भ० वा । बारसक०-णवणोक. णियमा अज० असंखे०भागब्भ० । एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं ।
११७. अणंताणु कोध. जह० पदे विहत्तिओ मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०वारसक०-णवणोक० णियमा [ अजह० ] असंखे० भागभ० । माण-माया-लोहाणं णियमा तं तु विहाणपदिदा-अणंतभागम० असंखे० भागब्भहिया वा । एवं माणमाया-लोभाणं।
$ ११८, अपञ्चकखाणकोध० जह० पदे० एकारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ० णियमा तं तु विहाणपदिदा-अणंतभाग० असंखे० धागब्भहिया वा। छण्णोक० णियमा अज० असंखे०भागभ० । एवमेकारसक०-पुरिसवेद-भय-दुगुंछाणं ।
११६. इत्थिवेद० जह० पदे०विहत्तिओ बारसक०-अट्ठणोक. णियमा अज. असंखे०भागभः। एवं णवंसयवेदस्स । हस्स० जह० पदेस बिहत्तिो बारसक०-सत्तणोक० णियमा अज. असंखे भागब्भ० । रदि० णियमा तं तु मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है। यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्याता भाग अधिक होती है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६११७. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य प्रदेश विभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, सम्यक्त्वं सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है । यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभकी मुख्यतासे सन्निकष जानना चाहिए।
११८. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके ग्यारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेश विभक्ति भी होती है । यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है । छह नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । इसी प्रकार ग्यारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्षे जानना चाहिए ।
६११६. स्त्रीवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और आठ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। हास्यकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और सात नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ विहाणपदिदा-अणंतभागभ० असंखे०भागव्यहिया वा । एवं रदीए ।
$ १२०. अरदि० जह० पदे०विहत्तिओ बारसक०-सत्तणोक० णियमा अज० असंखे० भागभ० । सोगस्स णियमा० तं तु विहाणपदिदा-अणंतभागब्भ० असंखे० भागभ० वा । एवं सोगस्स । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
६१२१. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
* अप्पाबहुअं। ६ १२२. सुगममेदं।
8 सव्वत्योवमपञ्चक्खाणमाणे उकस्सपदेससंतकम्मं ।
६ १२३. सत्तमाए पुढवीए गुदिकम्मंसियणेरइयम्मि तेत्तीसाउअचरिमसमए वट्टमाणम्मि जदि वि उक्कस्सं जादं तो वि थोवं, साहावियादो। भाग अधिक होती है। रतिको नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है । यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१२०. अरतिकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और सात नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । शोककी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है। यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्त भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानकर ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ—पहले जघन्य स्वामित्वका निर्देश कर आये हैं। उसे देखकर ओघ और आदेशसे जघन्य सन्निकर्ष घटित कर लेना चाहिए। जहां कुछ विशेषता है या तन्त्रान्तरसे भिन्न मतका निर्देश किया है वहां वीरसेनस्वामीने उसका अलगसे विचार किया ही है।
इस प्रकार सन्निकर्ष समाप्त हुआ। ६१२१. भाव सर्वत्र औदयिक भाव है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
इस प्रकार भाव समाप्त हुआ। ॐ अल्पबहुत्व । ६ १२२. यह सूत्र सुगम है।
8 अप्रत्याख्यान मानमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म सबसे स्तोक है ।
$ १२३. सातवीं पृथिवीमें गुणितकांशिक नारकीके तेतीस सागर आयुके अन्तिम समयमें विद्यमान रहते हुए यद्यपि अप्रत्याख्यान मानका द्रव्य उत्कृष्ट हुआ है तो भी वह स्तोक है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा
* कोघे उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
६१२४. पुब्बिल मुत्तादो अपञ्चक्वाणं ति अणुवट्टदे तेण अपञ्चक्रवाण-कोधे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ति संबंधी कायव्वो। केतियमेत्तो विसेसो ? आवलि. असंखे० भागेण माणदव्वे खंडिदे तत्थ एयखंडमेत्तो। एदं कुदो णव्वदे ? मुत्ताविरोहिआइरियवयणादो।
मायाए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।।
$ १२५, जदि वि एकम्मि चेव द्वाणे पदेससंतकम्ममुक्कस्सं जादं तो वि कोधपदेसग्गादो मायापदेसग्गमावलियाए असंखे०भागपडिभागेण विसेसाहियं । कुदो ? - साहावियादो।
* लोभे उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ६ १२६. केत्तियमेतेण ? आवलि० असंखे०भागपडिभागेण । * पञ्चक्खाणमाणे उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
१२७. के मेत्तेण ? आवलि. असंखे०भागेण लोभदव्वे खंडिदे तत्थ एयखंडमेत्तेण । कुदो ? पयडिविसेसादो।
ॐ उससे अप्रत्याख्यान क्रोधमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६१२४. पूर्वोक्त सूत्रसे अप्रत्याख्यान इस पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिये अप्रत्याख्यान क्रोधमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए। विशेषका प्रमाण कितना है ? अप्रत्याख्यान मानके द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतना है।
शंका----यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-..सूत्राविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है।
* उससे अप्रत्याख्यान मायामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
६ १२५. यद्यपि एक ही स्थानमें प्रदेशसत्कर्म उत्कृष्ट हुआ है तो भी क्रोधके प्रदेशाग्रसे मायाका प्रदेशाग्र श्रावलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है।
ॐ उससे अप्रत्याख्यान लोभमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६ १२६. कितना अधिक है ? श्रावलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है।
* उससे प्रत्याख्यान मानमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६१२७. कितना अधिक है ? लोभके द्रव्यमें श्रावलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर वहां जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है, क्योंकि यह भिन्न प्रकृति है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * कोधे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ३ १२८. सुगमं । * मायाए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ १२६. सुगम । * लोभस्स उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
१३०. सुगम । * अणंताणुबंधिमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । $ १३१. सुगमं । * कोधे उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १३२. सुगम । ॐ मायाए उकस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । १३३. सुगमं । 8 लोभे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय ।
१३४. सुगमं । * सम्मामिच्छत्ते उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय । ॐ उससे प्रत्याख्यान क्रोधमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । $ १२८. यह सूत्र सुगम है।
* उससे प्रत्याख्यान मायामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । ६ १२६. यह सूत्र सुगम है।
* उससे प्रत्याख्यान लोभका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । ६ १३०. यह सूत्र सुगम है।
उससे अनन्तानुबन्धी मानमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६१३१. यह सूत्र सुगम है।
* उससे अनन्तानुबन्धी क्रोधमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । ६१३२. यह सूत्र सुगम है।
® उससे अनन्तानुबन्धी मायामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । ६१३३. यह सूत्र सुगम है। * उससे अनन्तानुबन्धी लोभमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । १३४. यह सूत्र सुगम है।। * उससे सम्यग्मिथ्यात्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा
६ १३५. सत्तमाए पुढीए अजंताणुवंधिलोभउकस्सदव्वादो आवलि. असंखे०भागपडिभागेण अब्भहियमिच्छत्तकस्सदव्वपमाणत्तादो । सत्तमपुढवीदो उबष्ट्रिय तसकाइएसु उप्पन्जिय तत्थ तसहिदि समाणिय पुणो एइंदिएमु दो-तिष्णिभवग्गहणागि गमिय मणुस्सेमुववज्जिय तत्थ अंतोमुहुत्तब्भहियअहवस्साणि गमिय सम्मत्तं पडिवजिय मिच्छत्तदव्वे सम्मामिच्छत्तस्सुवरि पक्खित्ते सम्मामिच्छत्तपदेसग्गमुक्कस्सं होदि । ण च एर्द दबमणताणुवंधिलोभदव्वादो विसेसाहियं, सम्मत्तसरूवेण असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्तसमयपबद्धाणं गयत्तादो' गुणसेढिणिज्जराए पडिसमयमसंखेगुणं समयपद्धाणं गलिदत्तादो च ? ण, दोहि वि पयारेहि पदव्वस्स अणंताणुबंधिलोभदव्वे आवलियाए असंखे०भागेण खोडदे तत्थ एयखंडमेतमिच्छत्तपयडिविसेसस्स असंखे०भागमैत्तदंसणादो । तं पि कुदो ? सम्मत्तदव्वस्स गुणसंकमभागहारेण खंडिदमिच्छत्तदव्वस्स एयखंडपमाणत्तादो । गुणसेहीए णहदब्बभागहारस्स गुणसंकमभागहारं पेखिदूण असंखेजगुणत्तादो च । तम्हा अणंताणुबंधिलोभदव्वादो सम्मामिच्छत्तदव्वं विसेसाहियं ति सिद्धं ।
$ १३५. क्योंकि सातवीं पृथिवीमें अनन्तानुबन्धी लोभके उत्कृष्ट द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्य आवे उतना मिथ्यात्वका उत्कृष्ट द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वमें अधिक पाया जाता है।
शंका-सातवीं पृथिवीसे निकल कर और उसकायिकोंमें उत्पन्न होकर वहां त्रसस्थितिको समाप्त करके पुनः एकेन्द्रियोंमें दो तीन भव बिताकर मनुष्योंमें उत्पन्न होकर वहां अन्तमुहूर्त अधिक आठ वर्षे जाने पर सम्यक्त्वको प्राप्त करके मिथ्यात्वके द्रव्यके सम्यग्मिथ्यात्वके ऊपर प्रक्षिप्त करने पर सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है। परन्तु यह द्रव्य अनन्तानुबन्धी लोभके द्रव्यसे विशेष अधिक नहीं हो सकता, क्योंकि उस समय तक मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण समयप्रवद्ध सम्यक्त्वप्रकृतिरूपसे परिणत हो जाते है और गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणे समयप्रबद्धोंका गलन हो जाता है।
समाधान--नहीं, क्योंकि इन दोनों प्रकारों से जो मिथ्यात्वका द्रव्य नष्ट होता है वह अनन्तानुबन्धी लोभके द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण मिथ्यात्व प्रकृति विशेषके असंख्यातवें भागमात्र देखा जाता है।
शंका-वह भी क्यों है ?
समाधान--क्योंकि गुणसंक्रमभागहारके द्वारा मिथ्यात्वके द्रव्यके भाजित करने पर जो एक भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण सम्यक्त्वका द्रव्य है और गुणश्रेणिके द्वारा नष्ट होनेवाले द्रव्यका भागहार गुणसंक्रमभागहारको देखते हुए असंख्यातगुणा है, इसलिए अनन्तानुबन्धी लोभके द्रव्यसे सम्यमिथ्यात्वका द्रव्य विशेष अधिक है यह सिद्ध हुआ ।
१. प्रा० प्रतौ '-समयपबद्धाणं गणियत्तादो' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * सम्मत्त उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं ।
१३६. सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तस्स विसेसाहियत्तं ण घडदे, गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण मणुस्सेसुववज्जिय अह वस्साणि गमिय पुणो दसणमोहं खतेण मिच्छत्तदव्वे सम्मामिच्छत्तस्सुवरि पक्खित्ते सम्मामिच्छत्तमुक्कस्सं होदि । पुणो तत्तो अरि अंतोमुहुत्तं गुणसेढिणिज्जराए सम्मामिच्छत्तदव्वस्स गिजरणं करिय पुणो सम्मामिच्छत्ते सगुक्कस्सदव्वादो असंखे०भागहीणे सम्मत्तस्सुवरि पक्खित्ते सम्मत्तदबस्सुक्कस्सत्तुवलंभादो ति ? ण एस दोसो, सम्मामिच्छत्ते उक्कस्से जदि संते पच्छा गुणसेढिणिज्जराए णिजरिदसम्मामिच्छत्तदव्वादो पुव्वं सम्मत्तसरूवेण द्विददव्वस्स असंखे गुणत्तुवलंभादो । ण च असंखेज्जगुणत्तमसिद्धं, ओकड कड्डणभागहारादो गुणसंकमभागहारस्स असंखे०गुणहीणतणेण तस्सिद्धिदसणादो।
* मिच्छत्ते उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।।
६ १३७. भवहिदीए चरिमसमयहिदसत्तमपुढविणेरइयमिच्छत्तकस्सदव्वं पेक्खिदूण सम्मत्तुक्कस्सदव्वम्मि गुणसेढिणिज्जराए णिज्जिण्णपलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तसमयपबदाणमूणत्तुवलंभादो ।
* हस्से उक्कस्सपदेससंतकम्ममणंतगुणं । ® उससे सम्यक्त्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६ १३६. शंका--सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यसे सम्यक्त्वका द्रव्य विशेष अधिक घटित नहीं होता, क्योंकि गुणितकर्माशिक लक्षणसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न होकर और आठ वर्षे बिताकर पुनः दर्शनमोहका क्षपण करनेवाले उसके द्वारा मिथ्यात्वके द्रव्यके सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रक्षिप्त करने पर सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य उत्कृष्ट होता है। पुनः उसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यकी निर्जरा करके पुनः अपने उत्कृष्ट द्रव्यके असंख्यातवें भागहीन सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यके सम्यक्त्वमें प्रक्षिप्त करने पर सम्यक्त्वका उत्कृष्ट द्रव्य उपलब्ध होता है ?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यद्यपि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट होनेके बाद गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य निर्माण होता है तो भी उस द्रव्यके निजीणं होनेके पूर्व ही उससे सम्यक्त्वरूपसे स्थित हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा पाया जाता है। और उसका असंख्यातगुणा होना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे गुणसंक्रमभागहार असंख्यातगुणा हीन होता है, इससे उसके निजीर्ण होनेवाले द्रव्यसे असंख्यातगुणे होनेकी सिद्धि हो जाती है।
* उससे मिथ्यात्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६१३७. क्योंकि भवस्थितिके अन्तिम समयमें स्थित हुए सातवीं पृथिवीके नारकीके मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यको देखते हुए सम्यक्त्वका उत्कृष्ट द्रव्य गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा निर्जीणं होनेसे पल्यके असंख्यातवें भागमें जितने समय हों उतने समयप्रबद्धप्रमाण कम पाया जाता है।
* उससे हास्यमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म अनन्तगुणा है ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा १३८. कुदो १ देसघादित्तादो। पुव्वुत्तासेसपयडीओ जेण सव्वघाइलक्खणाओ तेण तासिं पदेसग्गं हस्सपदेसग्गस्स अणंतिमभागो नि भणिदं होदि । जदि सव्वघाइफयाणं पदेसग्गमणंतिमभागो होदि तो हस्सस्स देसघादिफद्दयपदेसग्गस्स अणंतिमभागेण तस्सव्वघादिफद्दयाणं' पदेसग्गेण होदव्वं ? होदु णाम, देसघादिफदएमु अणंताणमणुभागपदेसगुणहाणीणं संभवुवलंभादो।।
® रदीए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय।
$ १३६. केत्तियमेत्तेण ? हस्ससव्वदव्वे आवलियाए असंखे०भागेण खंडिदे तत्थ एयखंडमेत्तेण । दोण्हं पयडीणं बंधगद्धासु सरिसासु संतीसु कुदो रदिपदेसग्गस्स विसेसाहियत्तं ? ण, डुक्कमाणकाले एव तेण सरूवेण दुक्कणुवलंभादो ।
* इत्थिवेदे उक्कस्सपदेससंतकम्म संखेजगुणं ।
१४०. इत्थिवेदबंधगद्धादो जेण हस्स-रदिबंधगदा संखे गुणा तेण रदिदव्यस्स संखे० भागेण इत्थिवेददव्वेण होदव्वमिदि ? सच्चं, एवं चेव जदि कुरवे मोत्तण अण्णत्थ इत्थिवेददव्वस्स संचओ कदो। किंतु कुरवेसु हस्स-रदिबंधगदादो इत्थिवेद
$ १३८. क्योंकि यह देशघाति प्रकृति है। यतः पूर्वोक्त अशेष प्रकृतियाँ सर्वघाति हैं, अतः उनके प्रदेश हास्यके प्रदेशोंके अनन्तवें भागप्रमाण होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका--यदि सर्वघाति स्पर्धकों के प्रदेश अनन्तवें भागप्रमाण होते हैं तो हास्यके प्रदेशाग्रके अनन्तवें भागप्रमाण उसके सर्वघातिस्पर्धकोंके प्रदेश होने चाहिए ?
समाधान-होवें, क्योंकि देशघाति स्पधंकोंमें अनन्त अनुभाग प्रदेश गुणहानियाँ उपलब्ध होती हैं।
* उससे रतिमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६१३६. कितना अधिक है ? हास्यके सब द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है ।
शंका-दोनों प्रकृतियोंके बन्धक कालोंके समान होने पर रतिका प्रदेशाग्र विशेष अधिक . कैसे हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, बन्ध होनेके समयमें ही उस रूपसे उसका बन्ध उपलब्ध होता है।
उससे स्त्रीवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कम संख्यातगुणा है। ६१४०. शंका-सीवेदके बन्धक कालसे यतः हास्य और रतिका बन्धक काल संख्यातगुणा है, अतः रतिके द्रव्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्त्रीवेदका द्रव्य होना चाहिए ?
समाधान-सत्य है, यदि कुरुको छोड़कर अन्यत्र स्त्रीवेदके द्रव्यका सञ्चय किया है तो इसी प्रकार ही सञ्चय होता है। किन्तु देवकुरु और उत्तरकुरुमें हास्य और रतिके बन्धक कालसे
१. भा प्रतौ तस्स सम्वधादिफद्दयाणं' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ पंधगदा संखे०गुणा, लदणqसयवेदबंधगदाबहुभागत्तादो। इत्थिवेदस्स च कुरवेसु संचओ कदो । तेण रदिदव्वादो इत्थिवेददव्वं संखेज्जगुणं ति सिद्धं ।
* सोगे उक्कासपदेससंतकम्मं विसेसाहिय।।
5 १४१. कुदो ! कुरवित्थिवेदबंधगदादो तत्थतणसोगबंधगद्धाए विसेसाहियत्तादो । केत्तियमेत्तो विसेसो ? इत्थिवेदबंधगद्धाए संखे० भागमेत्तो ।
* अरदीए उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
१४२. केत्तियमेत्तेण १ सोगदव्वे आवलियाए असंखे भागेण खंडिदे तत्थ एयखंडमेतेण।
* पव॑सयवेदउक्कल्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
१४३. कुदो ? ईसाणदेवअरदि-सोगबंधगदादो तत्थतणणqसयवेदबंधगदाए विसेसाहियत्तुवलंभादो। केत्तियमेत्तो विसेसो ? हस्स-रदिवंधगद्ध संखेजखंड करिय तत्थ बहुखंडमेत्तो।
ॐ दुगुछाए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय।
। १४४. ईसाणदेवेसु णवंसयवेदबंधगद्धादो दुगुंछाबंधगद्धाए ईसाणं गदिथिस्त्रीवेदका बन्धक काल संख्यातगुणा है, क्योंकि वहां पर नपुंसकवेदके बन्धक कालकी अपेक्षा स्त्रीवेदका बन्धक काल बहुभागप्रमाण उपलब्ध होता है और देवकुरु तथा उत्तरकुरुमें स्त्रीवेदका सञ्चय प्राप्त किया गया है, इसलिए रतिके द्रव्यसे स्त्रीवेदका द्रव्य संख्यातगुणा है यह सिद्ध होता है।
* उससे शोकमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
३१४१. क्योंकि देवकुरु और उत्तरकुरुमें प्राप्त होनेवाले स्त्रीवेदके बन्धक कालसे वहां पर शोकका बन्धक काल विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण कितना है ? स्त्रीवेदके बन्धक कालके संख्यातवें भागप्रमाण है।
उससे अरतिमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६ १४२. कितना अधिक है ? शोकके द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है।
* उससे नपुसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
$ १४३. क्योंकि ईशान कल्पके देवोंमें प्राप्त होनेवाले अरति और शोकके बन्धक कालसे वहां पर नपुंसकवेदका बन्धक काल विशेष अधिक उपलब्ध होता है। विशेषका प्रमाण कितना है? हास्य और रतिके बन्धक कालके संख्यात खण्ड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण है।
* उससे जुगुप्सामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ १४४. क्योंकि ईशान कल्पके देवोंमें नपुंसकवेदके बन्धक कालसे जुगुप्साका बन्धक
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा
८१ पुरिसवेदबंधगदामेत्तेण विसेसाहियत्तुवलंभादो ।
ॐ भये उफस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं ।
१४५. केत्तियमेत्तेण ? दुगुंछादव्वे आवलियाए असंखे भागेण खंडिदे तत्य एयखंडमेत्तेण ।
* पुरिसवेदे उक्कस्सपद ससंतकम्म विसेसाहिय ।
$ १४६. केत्तियमेत्तेण ? भयदव्वे आवलियाए असंखे० भागेण खंडिदे तत्थ एयखंडमेत्तेण ।
* कोधसं जलणे उक्कस्सपदेससंतकम्म सखेजगुणं ।
१४७. को गुणगारो ? सादिरेयछरूवाणि । तं जहा—मोहणीयदव्वस्स अद्धं णोकसायभागो । कसायभागो वि एत्तिओ चेव । तत्थ हस्स-सोगाणमेगो, रदिअरदीणमेगो, भयस्स अण्णेगो,' दुगुंछाए अवरेगो, वेदस्स अण्णेगो त्ति । एवं गोकसायदव्वे पंचहि विहत्ते पुरिसवेददव्वं मोहणीयदव्वस्स दसमभागमेत्तं । कोहसंजलणदव्य' काल ईशान कल्पमें गये हुए जीवोंके खीवेद और पुरुश्वेदके बन्धक कालप्रमाण होनेसे विशेष अधिक उपलब्ध होता है।
* उससे भयमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६ १४५. कितना अधिक है ? जुगुप्साके द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है।
* उससे पुरुषवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६१४६. कितना अधिक है ? भयके द्रव्यमें श्रावलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है।
* उससे क्रोध संज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है।
$ १४७. गुणकार क्या है ? साधिक छह अंक गुणकार है। यथा-मोहनीयके द्रव्यका अर्ध भागप्रमाण नोकषायका द्रव्य है । कषायका हिस्सा भी इतना ही है। नोकषायोंके द्रव्यमेंसे हास्य और शोकका एक भाग है, रति और अरतिका एक भाग है, भयका अन्य एक भाग है, जुगुप्साका अन्य एक भाग है और वेदका अन्य एक भाग है। इस प्रकार नोकपायके द्रव्यमें पाँचका भाग देने पर पुरुषवेदका द्रव्य मोहनीयके द्रव्यके दसवें भागप्रमाण प्राप्त होता है । १। क्रोधसंज्वलनका द्रव्य भी मोहनीयके द्रव्यके पाँच बटे आठ भागप्रमाण प्राप्त होता है,
१. ता. प्रतौ 'हस्ससोगाणमेगो भयस्स अरणेगो' इति पाठः । २. ता. प्रतौ । 'कोहसंजलणदच' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पि मोहणीयदन्वस्स पंचभागमेत्तं,संगहिदसयलणोकसायदव्वत्तादो । पुचिल्लपुरिसवेददग्वेण एदम्मि कोधदव्वे भागे हिदे सादिरेयछरूवाणि गुणगारो होदि ।
* माणसं जलणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं बिसेसाहियं । $ १४८. के०मेत्तेण ? सगपंचमभागमेत्तेणं ।
* मायासंजलणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ १४६. के०मेत्तेण ? सगछब्भागमेत्तेण । * लोभसं जलणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ १५०. के०मेत्तेण ? सगसत्तमभागमेत्तेण । * णिरयगदीए सव्वत्थोवं सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सपदेससंतकम्मं ।
६१५१. कुदो ? गुणिदकम्मंसियलकवणेणागंतूण सत्तमाए पुढवीए उप्पज्जिय अंतोमुहुत्तेण मिच्छत्तमुक्कस्सं काहिदि त्ति विवरीयं गंतूण उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय क्योंकि इसमें नोकषायका समस्त द्रव्य सम्मिलित है । इसलिए पूर्वोक्त पुरुषवेदके द्रव्यका इस क्रोधके द्रव्यमें भाग देने पर साधिक छह अंकप्रमाण गुणकार होता है ।
उदाहरण-१११x१०-4 = ६ । इससे स्पष्ट है कि पुरुषवेदके द्रव्यसे क्रोध संज्वलनका द्रव्य साधिक छह गुणा है।
® उससे मानसंज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ १४८. कितना अधिक है ? अपने पाँचवें भागप्रमाण अधिक है। उदाहरण-क्रोधसं० + १ = १ मानसंज्वलनका उत्कृष्ट द्रव्य । * उससे मायासंज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ १४६. कितना अधिक है अपने छठे भागप्रमाण अधिक है। उदाहरण-६-१-१६ मायासंज्वलनका उत्कृष्ट द्रव्य । * उससे लोभसंज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । ६ १५०. कितना अधिक है ? अपने सातवें भागप्रमाण अधिक है। उदाहरण-x=1+25 लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट द्रव्य । * नरकगतिमें सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म सबसे स्तोक है ।
६ १५१. क्योंकि गुणितकांशिकविधिसे अाकर और सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्तमें मिथ्यात्वको उत्कृष्ट करेगा पर विपरीत जाकर और उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर
१. ता० प्रतौ 'सगपंचभागमेत्तण' इति पाठः ।
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उत्तरपयडिपदे सविहत्तीए अप्पा बहुअपरूपणा
गा० २२ ] सामित्तचरिमसमए द्विदजीवम्मि मिच्छत्तपदेसग्गं पलिदोवमस्स असंखे० भागमेत्तगुणसंकमभागहारेण खंडिय तत्थ एयखंडस्स सम्मामिच्छत्तसरूवेण परिणदस्सुवलंभादो । * अपचक्खाणमाणे उक्कस्स पदेस संत कम्ममसं खेज्जगुणं' । १५२. सत्तमतुढविणेरइयचरिमसमए सयलदिवडुगुणहाणिमेत समयपबद्धाणमुलं भादो । को गुणगारो : सव्वजहण्णगुणसंकमभागहारो ।
* कोधे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ १५३. सुगमं ।
* मायाए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ १५४. सुगमं ।
ॐ लोभे उकस्सपदेस संतकम्मं विसेसाहियौं ।
$ १५५. सुगममेदं, पयडिविसेसमेत्तकारणत्तादो ।
* पच्चक्खाणमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
१५६. केत्तियमेत्तेण १ अपच्चक्खाणलोभउकस्सपदेस संतकम्मे आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थेयखंडमेतेण । कुदो ? सहावदो !
जो जीव स्वामित्व अन्तिम समयमें स्थित है उसके मिथ्यात्व के प्रदेशों में पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणसंक्रम भागहारका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे वह सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे परिणत हो जाता है ।
* उससे प्रत्याख्यान मानमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है ।
१५२. क्योंकि सातवीं पृथिवीके नारकीके अन्तिम समय में समस्त द्रव्य डेढ़ गुणहानिगुणित समयबद्धप्रमाण उपलब्ध होता है । गुणकार क्या है ? सबसे जघन्य गुणसंक्रमभागहार गुणकार है ।
* उससे अप्रत्याख्यान क्रोधमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ १५३. यह सूत्र सुगम है ।
* उससे अप्रत्याख्यान मायामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । $ १५४. यह सूत्र सुगम है ।
८३
* उससे अप्रत्याख्यान लोभमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । $ १५५. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका कारण प्रकृति विशेष है ।
* उससे प्रत्याख्यान मानमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
$ १५६. कितना अधिक है ? अप्रत्याख्यान लोभके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म में आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है ।
१. ता०प्रतौ ' - संतकम्मं संखेजगुणं' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ 8 कोहे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ १५७. सुगम, अणंतरपरूविदकारणत्तादो । ॐ मायाए उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ १५८. कुदो १ सहावदो चेय, तहा भावेणावटाणदंसणादो । ॐ लोभे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
१५६. पहिल्लमुत्तहिदपञ्चक्रवाण० लोभे उक्क० पदेससंतकम्म विसे० एसु मुत्तेसु तिमु वि संबंधणिजं । सेसं मुगमं ।।
* अणंताणुबंधिमाणे उक्कस्सपदेसतकम्म विसेसाहियं । * कोधे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ॐ मायाए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसा हेयं । * लोभे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १६०. सुगममेदं सुत्तचउद्ययं । * सम्मत्त उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय ।
६ १६१. कुदो ? गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सत्तमपुढवीदो उव्वट्टिय " दो-तिण्णिभवग्गहणाणि तसकाइएमुप्पज्जिय पुणो समाणिदतसहिदित्तादो एइंदिरमुव
* उससे प्रत्याख्यान क्रोधमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ १५७. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि अनन्तर पूर्व कारणका कथन कर आये हैं।
ॐ उससे प्रत्याख्यानमायामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ १५८. क्योंकि स्वभावसे ही उस रूपसे अवस्थान देखा जाता है। * उससे प्रत्याख्यान लोभमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
६ १५६. पहले सूत्रमें स्थित प्रत्याख्यान पदका 'लोभका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है' यहाँ तकके इन तीनों ही सूत्रोंमें सम्बन्ध कर लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है।
® उससे अनन्तानुबन्धी मानमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । ॐ उससे अनन्तानुबन्धी क्रोधमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धी मायामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । * उससे अनन्तानुबन्धी लोभमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६१६०. ये चारों सूत्र सुगम हैं। * उससे सम्यक्त्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
६१६१. क्योंकि जो जीव गुणितकांशिकविधिसे आकर और सातवीं पृथिवीसे निकलकर त्रसकायिकोंमें दो तीन भव धारण कर अनन्तर त्रसस्थितिको समाप्त कर एकेन्द्रियों में
-rrrrrrrrrrrrria-MAMINur.
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा वज्जिय बद्धमणुसाउओ मणुसेसुप्पन्जिय पज्जत्तीओ समाणिय णिरयाउअबंधपुरस्सर पढमसम्मत्तमुप्पाइय दंसणमोहणीयक्खवणं पारभिय कदकरणिज्जो होदण अंतोमुहुत्तमेत्तसम्मत्तगुणसेटिगोवुच्छासु अणंताणुबंधिलोभमावलियाए असंखे० भागेण खंडिय तत्थेगखंडमेत्तेण तत्तो अब्भहियदिवड्डगुणहाणिपमाणं मिच्छत्तसयलदव्वं पयडिविसेसदव्वादो असंखेजगुणहीणगुणसेढिगिजराणिज्जिण्णदव्वमेतेणूणं धरिऊण हिदजीवम्मि गेरइएमुप्पण्णपढमसमए वट्टमाणम्मि सम्मत्तु कस्सपदेससामियम्मि तहाभावुनलंभादो ।
ॐ मिच्छत्ते उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं ।
३. १६२. केत्तियमेत्तेण १ गिरयादो उव्वट्टिय सम्मत्तमुक्कस्सं करेमाणस्स अंतराले जहाणिसेयसरूवेण गुणसेढिणिजराए च णहदव्यमेत्तेण । तं च केत्तियं ? सगदव्वे पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तभागहारेण खंडिदे तत्थेयखंडमेत्तं । ण च एदं मिच्छत्तुक्कस्सपदेससामियम्मि असिद्धं, चरिमसमयणेरइयम्मि गुणिदकम्मंसियलक्रवणेण समाणिदकम्महिदिचरिमसमए वट्टमाणम्मि अविणहसरूवेण तस्सुवलंभादो ।
® हस्से उक्कस्सपदेससंतकम्ममणंतगुणं ।
१६३. कुदो ? देसघादित्तणेण सुलहपरिणामिकारणत्तादो। ण च अणंतिमउत्पन्न हो और मनुष्यायुका बन्ध कर मनुष्योंमें उत्पन्न हो तथा पर्याप्तियोंको पूर्ण कर नरकायुके बन्धपूर्वक प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न कर तथा दर्शनमोहनीयके क्षयका प्रारम्भ कर कृतकृत्य होकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण सम्यक्त्वकी गुणश्रेणि गोपुच्छाओंमें, अनन्तानुबन्धी लोभको श्रावलिके असंख्यातवें भागका भाग देकर जो एक भाग लब्ध आवे उससे अधिक डेढ़ गुणहानिप्रमाण मिथ्यात्वके समस्त द्रव्यको प्रकृतिविशेषके द्रव्यसे असंख्यातगुणे हीन गुणश्रेणि निर्जराके द्वारा निर्जीर्ण हुए द्रव्यसे हीन द्रव्यको, धारण कर स्थित है उसके नारकियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंके स्वामीरूपसे विद्यमान रहते हुए उस प्रकारसे प्रदेशसत्कर्म देखा जाता है ।
* उससे मिथ्यात्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
$ १६२. कितना अधिक है ? नरकसे निकलकर सम्यक्त्वको उत्कृष्ट करनेवाले जीवके अन्तराल कालमें यथानिषेक क्रमसे और गुणश्रेणिनिर्जरारूपसे जितना द्रव्य नष्ट होता है उतना अधिक है।
शंका-वह कितना है ?
समाधान-अपने द्रव्यमें पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना है ।और यह मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंके स्वामित्व कालमें असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि जो गुणितकमांशिकविधिसे आकर कर्मस्थितिको समाप्त करनेके अन्तिम समयमें नरकपर्यायके अन्तिम समयवाला होता है उसके मिथ्यात्वका समस्त द्रव्य उक्त प्रकारसे नष्ट हुए बिना पाया जाता है।
* उससे हास्यमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म अनन्तगुणा है। ६ १६३. क्योंकि देशघाति होनेसे इसके सञ्चयका कारण सुलभ परिणाम हैं। अनन्तर्षे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ भागतणेण त्योवयराणं चेव सव्वघादिसरूवेण परिणमणमसिद्ध, भागाभागपरूवणाए तहा परूवियत्तादो । तदो देसघादिपाहम्मेण पुव्विल्लादो एदस्साणंतगुणत्तमिदि सिद्धं । को गुण ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिदाणमणंतभागमेत्तो ।
* रदीए उक्कस्लपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
१६४. सुबोहमेदं मुत्तं, पयडिविसेसमेत्तकारणत्तादो । * इत्थिवेदे उक्कसपदेससंतकम्म संखेजगुण ।
६ १६५. कुदो ? गुणिदकम्मसियलक्खणेणागंतूण असंखेज्जवस्साउएमु इत्थिवेदपदेससंतकम्मं गुणेदूण अगदिकागदिण्णाएण दसवस्ससहस्साउअदेवेमुप्पज्जिय तसहिदीए समत्ताए एइंदिएमु सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय तिरीयण्णाएण पंचिंदिएसुववज्जिय गिरयाउअं बंधिसूण गेरइएमुप्पण्णपढमसमए वट्टमाणम्मि इत्थिवेदुक्कस्सपदेससामियणेरइयम्मि ओघपरूविदबंधगद्धामाहप्पमस्सियूण कुरवेसु लदओघुक्कस्सपदेससंतकम्मादो किंचूणस्स पयडित्थिवेदुक्कस्सदव्वस्स रदीए संखेज्जगुणहीणबंधगद्धासंचिदुक्कस्ससंतकम्मादो संखेजगुणत्तं पडि विरोहाभावादो । ण च अवंतराले गढदव्वं पेक्खिदूण तस्स तहाभावविरोहो आसंकणिजो, असंखे० भागतणेण तस्स पाहणियाभागरूपसे स्तोक परमाणुओंका ही सर्वघातिरूपसे परिणमन होता है यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि भागभागप्ररूपणमें उस प्रकार कथन कर आये हैं। इसलिए देशघातिकी प्रधानता होनेसे पूर्वोक्त प्रकृतिसे यह अनन्तगुणी है यह बात सिद्ध है। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है।
* उससे रतिमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ १६४. यह सूत्र सुबोध है, क्योंकि इसका कारण प्रकृतिविशेष है। * उससे स्त्रीवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है ।
६ १६५. क्योंकि जो गुणितकाशविधिसे आकर असंख्यात वर्षकी आयुवाले जीवोंमें उत्पन्न होकर और स्त्रीवेदके प्रदेशसत्कर्मको गुणित करके अगतिका गति न्यायके अनुसार दस हजार वर्षकी युवाले देवोंमें उत्पन्न होकर तथा त्रसस्थितिके समाप्त होने पर एकेन्द्रियोंमें सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर नान्तरीय न्यायके अनुसार पञ्चन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर और नरकायुका बन्ध करके नारकियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म करके स्थित है उसके यद्यपि ओघमें कहे गये बन्धक कालके माहात्म्यके अनुसार देवकुरु और उत्तरकुरुमें प्राप्त हुए ओघ उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे कुछ कम द्रव्य पाया जाता है फिर भी प्रकृति स्त्रीवेदका उत्कृष्ट द्रव्यके रतिके संख्यातगुणे हीन बन्धक कालके भीतर सञ्चित हुए उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे संख्यातगुणे होनेमें कोई विरोध नहीं आता। यदि कोई ऐसी आशंका करे कि जिस स्थलमें ओघ उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होता है उस स्थलसे लेकर यहाँ तकके अन्तरालमें नष्ट हुए द्रव्यको देखते हुए उसका तत्प्रमाण होनमें विरोध आता है सो उसकी ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्तरालमें जो द्रव्य नष्ट होता है वह कुल द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवा भावादो इत्थिवेदपयडिविसेसादो वि तस्स असंखे०गुणहीणत्तादो च ।
ॐ सोगे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। ६ १६६. सुगममेदं मुत्तं, ओघम्मि परूविदकारणत्तादो । * भरदीए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय ।
१६७. के. मेनेण ? सोगदव्वमावलियाए असंखे० भागेण खंडिदेयखंडमेतेण। कुदो ? पयडिविसेसादो।
* पव॑सयवेदे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं ।
१६८. ण एत्थ किंचि वत्तव्वमत्थि, ओघम्मि परूविदबंधगदाविसेसमासेज्ज विसेसाहियत्तसिद्धीदो। ण च बंधगद्धाविसेससंचओ गेरइयम्मि असिद्धो, ईसाणदेवेचरणेरइयम्मि परमणिरुद्धकालेण पत्ततप्पज्जायम्मि किंचूणसगोघुक्कस्ससंचयसिदीए बाहाणुवलंभादो।
* दुगुछाए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । $ १६६. धुवबंधित्तेण इत्थि-पुरिसवेदबंगदासु वि संचयुवलंभादो ।
* भए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । उसकी कोई प्रधानता नहीं है । तथा स्त्रीवेदरूप प्रकृतिविशेष होनेके कारण भी वह असंख्यातगुणा हीन है।
* उससे शोकमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६ १६६. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि कारणका निर्देश ओघ प्ररूपणाके समय कर आये हैं।
* उससे अरतिमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
६ १६७. कितना अधिक है ? शोकके द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है, क्योंकि इसका कारण प्रकृति विशेष है।
* उससे नपुंसकवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्श विशेष अधिक है।
६१६८. यहां पर कुछ वक्तव्य नहीं है, क्योंकि अोघमें कहे गये बन्धक कालका आश्रय लेकर इसके विशेष अधिकपनेकी सिद्धि होती है। यदि कहा जाय कि बन्धक काल विशेषमें होनेवाला सञ्चय नारकियोंमें नहीं बनता सो भी बात नहीं है, क्योंकि जो ईशान कल्पका देव क्रमसे नारकियोंमें उत्पन्न होता है उसके यथासम्भव कमसे कम कालके द्वारा उस पर्यायके प्राप्त होने पर कुछ कम अपने ओघ उत्कृष्ट द्रव्यके सञ्चयकी सिद्धि होने में कोई बाधा नहीं आती।
* उससे जुगुप्सामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६१६६. क्योंकि यह ध्रुवबन्धिनी प्रकृति है, इसलिए इसका स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धक कालोंमें भी सञ्चय होता रहता है। . * उससे भयमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। है. श्रा०प्रतौ 'ईसाणदेवे च णेरइयम्मि' इति पाठः । .
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
$ १७०, पयडिविसेसस्स तारिसत्तादो ।
* पुरिसवेद उक्कस्सपद ससंतकम्म' विसेसाहिय । $ १७१. अपविक्खत्तणेण धुवबंधिणो भयस्स निरंतरसंचिदुकस्सदव्वादो सप्प विक्खपुरिस वेदपदेसग्गस्स कथं विसेसाहियत्तं ? ण, एदस्स वि सोहम्मे पलिदो - वमाद्विदिअब्भंतरे सम्मत्तगुणपाहम्मेण असवत्तस्स धुवबंधित्तेण पूरणुवलंभादो | ण चणिरयाईए इदमसिद्धं, सव्वलहुएण कालेन अविणणेय तेण संचिददव्वेण णेरइएसुप्पण्णपढमसमए तस्सिद्धीदो । एवमवि' दोन्हं धुवबंधीणं पदेसग्गेण सरिसेण होदव्यमिदि वो जुत्तं पयडिविसेसेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेयखंडमेण उवसमसेटीए गुणसंकमभागहारेण पडिच्छिदणोकसायदव्यमेतेण च पुरिसवेदस्स विसेसाहियत्तवलंभादो ।
* माणसंजलणे उक्कस्सपद ससंतकम्म विसेसाहियं । $ १७२, कुदो ? पुरिसवेदभागादो माणसंजलणस्स भागस्स चउब्भाग
[ पदेसविहत्ती ५
$ १७०. क्योंकि प्रकृति विशेष होनेसे यह इसी प्रकारकी है।
* उससे पुरुषवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
$ १७१. शंका - भय अप्रतिपक्ष और ध्रुवबन्धिनी प्रकृति है, अतः निरन्तर सचित हुए उसके उत्कृष्ट द्रव्यसे सप्रतिपक्षरूप पुरुषवेदका प्रदेशसमूह विशेष अधिक कैसे अधिक हो सकता है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि सौधर्म कल्पमें आयुकी एक पल्यप्रमाण स्थिति के भीतर सम्यक्त्व गुणकी प्रधानता से प्रतिपक्ष रहित इस प्रकृतिमें भी ध्रुवबन्धीरूपसे प्रदेशों की पूर्ति उपलब्ध होती है । यदि कहा जाय कि नरकगतिमें यह असिद्ध है सो भी बात नहीं है, क्योंकि अतिशीघ्र कालके द्वारा इस प्रकार सञ्चित हुए द्रव्यको नष्ट किये बिना जो नारकियों में उत्पन्न होता है उसके वहां उत्पन्न होनेके प्रथम समय में उसकी सिद्धि होती है ।
शंका- --इस प्रकार होने पर भी दोनों ही ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों का प्रदेशसमूह समान होना चाहिए ?
समाधान -यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि एक तो प्रकृतिविशेष होनेके कारण आवलिके असंख्यातवें भागसे भयका द्रव्य भाजित होकर जो एक भाग लब्ध आवे उतना पुरुषवेदमें विशेष अधिक द्रव्य उपलब्ध होता है । दूसरे उपशमश्रेणिमें गुणसंक्रमभागहारके द्वारा aavrrier द्रव्य इसमें संक्रान्त हो जानेसे भी इसका द्रव्य विशेष अधिक उपलब्ध होता है । इसलिए ध्रुवबन्धिनी होते हुए भी इन दोनों प्रकृतियोंका द्रव्य एक समान नहीं है ।
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* उससे मानसंज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
$ १७२. क्योंकि पुरुषवेदके भागसे मानसंज्वलनका भाग एक चौथाई अधिक उपलब्ध
६. आ०प्रतौ 'एदमवि' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा
भहियत्तुवलंभादो। तं जहा-पुरिसवेददव्वं मोहणीयसव्वदव्वं पेक्खियूण दसमभागो होदि, मोहसव्वदव्वस्स कसाय-णोकसायाणं समपविभत्तस्स पंचमभागत्तादो कसायगोकसायदव्वेसु पुरिसवेदभागपमाणेण कीरमाणेसु पुध पुध पंचसलागाणमुरलंभादो च । माणसंजलणदव्वं पुण मोहणीयसव्वदव्वं पेक्खियूण अहमभागो, कसायभागस्स संजलणेसु चउदा विहन्जिय हिदत्तादो। तदो मोहसयलदव्वदसमभागभूदपुरिसवेदसव्वसंचयादो तदहमभागमेत्तमाणसंजलणपदेससंचओ चउभागभहिओ त्ति सिद्धं, तम्मि तप्पमाणेण कीरमाणे चउब्भागब्भहियसयलेगसलागुवलंभादो ।
१७३. एत्थ अव्वुप्पण्णवुप्पायण संदिहिविहिं वत्तइस्सामो। तं जहा-- मोहणीयसयलदव्वपमाणं चालीस ४० । तदद्धमेत्तो कसायभागो एसो २० । णोकसायभागो वि तत्तिओ चेव २०। पुणो णोकसायभागे पंचहि भागे हिदे भागलदमेत्तमेत्तियं पुरिसवेददव्यपमाणमेदं होदि ४ । कसायभागे वि चदुहि भागे हिदे लद्धमत्तं पमाणं संजलणदव्यमेत्तियं होदि ५ । एदं च परिसवेदमागे चउहि भागे हिदे जं भागलद्धं तम्मि तत्थेव पक्वित्ते उप्पज्जदि त्ति तस्स तदो चउम्भागब्भहियत्तहोता है । यथा-पुरुषवेदका सब द्रव्य मोहनीयके सब द्रव्यको देखते हुए दसवें भागप्रमाण है, क्योंकि एक तो मोहनीयके सब द्रव्यको कषाय और नोकषायमें समानरूपसे विभक्त कर देने पर पुरुषवेदका द्रव्य प्रत्येकके पाँचवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। दूसरे कषाय और नोकषायके द्रव्यके पुरुषवेदका जो भाग हो तत्प्रमाणरूपसे विभक्त करने पर अलग अलग पाँच शलाकाएं उपलब्ध होती हैं। परन्तु मानसंज्वलनका द्रव्य मोहनीयके सब द्रव्यको देखते हुए उसके आठवें भागप्रमाण है, क्योंकि कषायका द्रव्य संज्वलनोंमें चार भागरूप विभक्त होकर स्थित है। इसलिए मोहनीयके सब द्रव्यके दसवें भागरूप पुरुषवेदके समस्त सञ्चयसे मोहनीयके समस्त द्रव्यके आठवें भागरूप मानसंज्वलनका प्रदेशसञ्चय एक चतुर्थांशप्रमाण अधिक है यह सिद्ध हुआ, क्योंकि इस द्रव्यको पुरुषवेदके द्रव्यके प्रमाणरूपसे करने पर चतुर्थ भाग अधिक एक शलाका उपलब्ध होती है।
विशेषार्थ-तात्पर्य यह है कि पहिले मोहनीयके सब द्रव्यको आधा कषायमें और आधा नोकषायमें विभक्त कर दो। उसके बाद कषायके द्रव्यका एक चौथाई मानसंज्वलनको दो और नोकषाय द्रव्यका एक पश्चमांश पुरुषवेदको दो। इस प्रकारसे विभाग करने पर मानसंज्वलनका द्रव्य मोहनीयके समस्त द्रव्यके आठवें भागप्रमाण प्राप्त होता है और पुरुषवेदका द्रव्य मोहनीयके समस्त द्रव्यके दसवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए यहां पुरुषवेदके द्रव्यसे मानसंज्वलनका द्रव्य एक चौथाई अधिक कहा है।
१७३. अब यहाँ पर अव्युत्पन्न जीवोंकी व्युत्पत्ति बढ़ानेके लिए संदृष्टिविधि बतलाते हैं। यथा-मोहनीयके समस्त द्रव्यका प्रमाण ४० है। उसके अर्धभागप्रमाण कषायका द्रव्य यह है २० । नोकषायका भाग भी उतना ही है २० । पुनः नोकषायके भागमें पाँचका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना पुरुषवेदका द्रव्य होता है। उसका प्रमाण यह है ४ । कषायके भागमें भी चारका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आता है वह मानसंज्वलनका द्रव्य होता है। उसका प्रमाण यह है ५ । पुनः पुरुषवेदके भागमें चारका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देने पर यह मानसंज्वलनका द्रव्य उत्पन्न होता है, इसलिए यह मानसंज्वलनका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ मसंदिदं सिद्ध ।
* कोषसं जलणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय।
१७४. सुगममेत्य कारणं, पयडिविसेसस्स बहुसो परूविदत्तादो । * मायासंजलणे उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
१७५. पयडिविसेसस्स तहाविहत्तादो। * लोभसं जलणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
१७६. एत्थ जइ वि संदिहीए चउण्हं संजलणाणं भागा सरिसा तहा वि अत्थदो पयडिविसेसेण आवलियाए असंखे०भागपडिभागिएण विसेसाहियत्तमस्थि चेवे सि घेत्तव्वं । सेसं सुगमं ।
एवं णिरयगइओघुक्कस्सदंडओ समत्तो । * एवं सेसाणं गदीणं णादूण णेदव्वं ।
$ १७७. एदस्स अप्पणामुत्तस्स संखेवरुइसिस्साणुग्गहह दबटियणयावलंबणेण पयट्टस्स पज्जवद्वियपरूवणा पज्जवहियजणाणुग्गहट्ट कीरदे । तं जहा--एत्थ ताव णिरयगईए चेव पुढविभेदमासेज विसेसपरूवणा कीरदे । कधं पुण एदस्स णिरयगईदो अव्वदिरित्तस्स सेसत्तं जदो इमा परूवणा सुत्तसंबदा हवेज त्ति ? ण एस द्रव्य पुरुषवेदके द्रव्यसे एक चौथाई अधिक है यह असंदिग्ध रूपसे सिद्ध हुआ।
* उससे क्रोधसंज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६ १७४. यहाँ पर कारणका निर्देश सुगम है, क्योंकि प्रकृतिविशेषरूप कारणका अनेक पार कथन कर आये हैं।
* उससे मायासंज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ १७५. क्योंकि प्रकृतिविशेष इसी प्रकारकी होती है। * उससे लोभसंज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६ १७६. यहाँ पर यद्यपि संदृष्टिमें चारों संज्वलनोंके भाग समान दिखलाये हैं तथापि बास्तवमें प्रकृतिविशेष होनेके कारण श्रावलिके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागके अनुसार मायासंज्वलनके द्रव्यसे लोभसंज्वलनका द्रव्य विशेष अधिक ही है ऐसा यहांपर ग्रहण करना चाहिए।
इस प्रकार नरकगतिसम्बन्धी अोघ उत्कृष्ट दण्डक समाप्त हुआ। * इसी प्रकार शेष गतियोंमें जानकर अल्पबहुत्व ले जाना चाहिए।
६ १७७. संक्षेप रुचिवाले शिष्योंके अनुग्रहके लिए द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन लेकर प्रवृत्त हुए इस मुख्य सूत्रका पर्यायार्थिक शिष्योंका अनुग्रह करनेके लिए विशेष कथन करते हैं। यथा-सर्व प्रथम यहाँपर नरकगतिके ही पृथिवीभेदोंके आश्रयसे विशेष कथन करते हैं।
शंका-यदि यह सूत्र नरकगतिसे अपृथग्भूत अर्थका कथन करता है तो फिर सूत्रमें 'शेष' पदका प्रयोग कैसे किया जिससे यह कथन सूत्रसे सम्बन्ध रखनेवाला होवे ?
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गा० २२]
उत्सरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूपणा दोसो, सामण्णादो विसेसाणं कथंचि भेददंसणेण सेसत्तसिद्धीदो । 'उपयुक्तादन्यः शेष' इति न्यायात् ।)
१७८. तत्थ पढमपुढवीए गिरओघभंगो। विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्ते उक्कस्सपदेससंतकम्मं सव्वत्थोवं कादव्वं, कदकरणिज्जस्स तत्थुप्पत्तीए अभावादो । तत्तो सम्मामिच्छत्ते उक्कस्सपदेससंतकम्ममसंखे गुणं । कारणं सुगम । एतिओ चेव विसेसो पत्थि अण्णस्थ कत्थ वि।
१७६. तिरिक्रव-पंचिंदियतिरिक्व-पंचितिरि०पज्जत्ताणं देवगईए देवाणं च सोहम्मादि जाव सवसिद्धि त्ति पढमपुढविभंगो। णवरि सामित्तविसेसो जाणेयव्यो। पंचिंतिरि० जोणिणी-पंचितिरि०अपज्ज.-मणुसअपज्ज०-भवण ०-वाण-जोदिसियाण विदियादिपुढविभंगो। मणुसतियस्स ओघभंगो। संपहि सेसमग्गणाणं देसामासियभावेण इंदियमग्गणेयदेसभूदएईदिएसु त्योवबहुत्तपरूवणहमुत्तरमुत्तकलावं भण्णदि ।
* एइंदिएसु सव्वत्थोवं सम्मत्त उकस्सपदेससंतकम्मं ।
१८०. एत्थ एइंदिएम त्ति सुत्तणिद्द सो' सेसिंदियपडिसेहफलो। सव्वेहितो उवार वुच्चमाणसव्वपदेसेहितो थोवं अप्पयरं सव्वत्थो । किं तं ? सम्मत्ते उकस
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सामान्यसे अपने अवान्तर भेदोंमें कथञ्चित् भेद देखा जाता है, इसलिए 'शेष' पद द्वारा उनके ग्रहणकी सिद्धि होती है। विवक्षित विषयसे अन्य 'शेष' कहलाता है ऐसा न्यायवचन है।
६ १७८. यहाँ प्रथम पृथिवीमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसीप्रकार भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इन पृथिवियोंमें सम्यक्त्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म सबसे स्तोक करना चाहिए, क्योंकि वहाँपर कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता । उससे सम्यग्मिथ्यात्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है। कारण सुगम है। इन पृथिवियोंमें इतनी ही विशेषता है, अन्यत्र कहीं भी अन्य विशेषता नहीं है।
६ १७६. तियश्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, देवगतिमें सामान्य देव और सोधर्मसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव इनमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग हैं। इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्वामित्व जान लेना चाहिए। पञ्चन्द्रिय तियश्च योनिनी, पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी इनमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भङ्ग है। अब शेष मार्गणाओंके देशामर्षकरूपसे इन्द्रियमार्गेणके एकदेशभूत एकेन्द्रियोंमें अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्रकलाप कहते हैं
* एकेन्द्रियोंमें सम्यक्त्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म सबसे स्तोक है ।
$ १८०. यहाँ 'एकेन्द्रियोंमें' इस प्रकार सूत्रमें निर्देशका फल शेष इन्द्रियोंका निषेध करना है। सबसे ऊपर कहे जानेवाले सब प्रदेशोंसे स्तोक अर्थात् अल्पतरको सर्वस्तोक कहते हैं।
१. भाप्रतौ 'सुतिमिहेसो' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पदेससंतकम्मं । सेसपयडिपडिसेहफलो सम्मतणि सो। अणुकस्सादिवियप्पणिवारणफलो उकस्सपदेससंतकम्मणिद्दे सो। उवरि वुच्चमाणासेसपयडिपदेसुक्कस्ससंचयादो सम्मत्तकस्सपदेससंतकम्मं योवयरं ति वुत्तं होइ । - * सम्मामिच्छत्ते उक्कस्सपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं ।
१८१. को गुणगारो ? सम्मत्तगुणसंकमभागहारस्स असंखेज्जदिभागो। तस्स को पडिभागो ? सम्मामिच्छत्तगुणसंकमभागहारपडिभागो। कुदो ? गुणिदकम्मसियलक्खणेणागंतूण सत्तमाए पुढवीए उप्पज्जिय सगाउहिदीए अंतोमुहुत्तावसेसियाए विवरीयभावं गंतूण उपसमसम्पत्तं पडिवज्जिय सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि सव्वजहण्णगुणसंकमभागहारेणावूरिय सब्बलहुं भिच्छत्तं गंतूणुवट्टिदसमाणे पच्छायद. पंचिंदियतिरिक्खभवग्गहणे एइंदिएसुप्पण्णपढमसमयट्टमाणजीवे सम्मत्तादेमुक्करस. दव्वादो सम्मामिच्छत्तकस्सपदेससंतकम्मस्स गुणसंकमभागहारविसेसादो तहाभावुवलंभादो । भागहारविसेसो च कत्तो गव्वदे ? गुणसंकमपढमसमए मिच्छत्तादो जं सम्मत्ते संकमदि पदेसग्गं तं थोवं । तम्मि चेत्र समए सम्मामिच्छत्ते संकमदि पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । पढमसमर सम्मामिच्छत्तसरूवेण संकंतपदेसपिंडादो विदियसमए सम्मत्तसरूवेण संकमंतपदेसग्गमसंखेज्जगुणं । तम्मि चेव समए सम्मामिच्छत्ते संकंतसर्वस्तोक क्या है ? सम्यक्त्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म। सूत्रमें 'सम्यक्त्व' पदके निर्देशका फल शेष प्रकृतियोंका प्रतिषेध करना है। 'उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म' पदके निर्देशका फल अनुत्कृष्ट आदि विकल्पोंका निवारण करना है। आगे कहे जानेवाले समस्त प्रकृतियोंके प्रदेशोंके उत्कृष्ट सञ्चयसे सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कम स्तोकतर है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* उससे सम्यग्मिथ्यात्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है।
६ १८१. गुणकार क्या है ? सम्यक्त्वके गुणसंक्रमभागहारके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उसका प्रतिभाग क्या है ? सम्यग्मिथ्यात्वका गुणसंक्रमभागहार प्रतिभाग है, क्योंकि जो जीव गुणितकांशिक विधिसे आकर और सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न होकर अपनी आयुस्थितिमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर मिथ्यात्वसे विपरीत भावको जाकर और उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर सबसे जघन्य गुणसंक्रम भागहारके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको पूरकर और अतिशीघ्र मिथ्यात्वको प्राप्त कर मर कर पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न हो अनन्तर मर कर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर उसके प्रथम समयमें विद्यमान है उसके सम्यक्त्वके आदेश उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म गुणसंक्रमभागहार विशेषके कारण उस प्रकारका अर्थात् सम्यक्त्वके उत्कृष्ट द्रव्यसे असंख्यातगुणा अधिक पाया जाता है।
शंका-भागहारविशेष किस कारणसे जाना जाता है ?
समाधान-गुणसंक्रमके प्रथम समयमें मिथ्यात्वमेंसे जो प्रदेशसमूह सम्यक्त्वमें संक्रमण को प्राप्त होता है वह स्तोक है। उसी समयमें जो प्रदेशसमूह सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमणको प्राप्त होता है वह उससे असंख्यातगुणा है। प्रथम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमणको प्राप्त हुए प्रदेशपिण्डसे दूसरे समयमें सम्यक्त्वमें संक्रमणको प्राप्त हुआ प्रदेशपिण्ड असंख्यातगुण है।
ام و میع یه مهیجی
میمی بی بی بی مریم میم میمی و بی
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गा०२२
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा पदेसग्गमसंखेजगुणं ति एदस्स' अत्यविसेसस्स उवरि मुत्तणिबदस्स दसणादो । अंतोमुहुनगुणसंकमकालभंतरावूरिद सम्मत्तसव्वदव्यसंदोहादो गुणसंकमकालचरिमेगसमयपडिच्छिदसम्मामिच्छत्तपदेसजस्स असंखेज्जगुणतुवलद्धीदो च तत्तो तस्स तहाभावो ण विरुज्झदे।
® अपञ्चक्खाणमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं ।
१८२. एत्थ कारणं वुच्चदे । तं जहा-सम्मामिच्छत्तं मिच्छत्तसयलदव्वस्स असंखे० भागो, गुणसंकमभागहारेण खंडिदेयखंडमेत्तस्सेव मिच्छत्तदव्वादों सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसरूवेण परिणमणुवलं भादो। अपञ्चक्खाणमाणो पुण मिच्छत्तसरिसो चेव, पयडिविससस्स अप्पाहणियादो। तदो मिच्छत्तस्स असंखे०भागमेत्तसम्मामिच्छत्तदव्वादो थोरुच एण मिच्छत्तसरिसअपचक्रवाणमाणपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं ति ण एत्थ संदेहो । को गुणगारो ? सव्व जहण्णगुणसंकमभागहारो।
* कोहे उकस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं ।
६ १८३. पडिविसेसेण पुचिल्लदव्व आलियाए असंखे०भागेण खंडिदे तत्थेयखंडपमाणेण ।
तथा उसी समयमें सन्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमणको प्राप्त हुआ प्रदेशपिण्ड उससे असंख्यातगुणा है इस प्रकार यह अर्थविशेष आगे सूत्र में निबद्ध हुआ देखा जाता है। तथा गुणसंक्रमके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालके भीतर जो द्रव्यसमूह सम्यक्त्वको मिलता है उससे गुणसंक्रम कालके अन्तिम एक समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त हुआ प्रदेशपुञ्ज असंख्यातगुणा है, इसलिए संक्रम भागहारके उस प्रकारके होनेमें विरोध नहीं पाता।
* उससे अप्रत्याख्यान मानमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है ।
६ १८२. यहाँ पर कारणका कथन करते हैं। यथा-सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य मिथ्यात्वके समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि गुणसंक्रम भागहारका भाग देने पर लब्ध एक भागप्रमाण द्रव्य ही मिथ्यात्वके द्रव्यमें से सम्यक्त्व और सम्यग्मि यात्वरूपसे परिणमन करता हुआ उपलब्ध होता है। परन्तु अप्रत्याख्यान मानका द्रव्य मिथ्यात्वके ही समान है, क्योंकि प्रकृतिविशेषकी प्रधानता नहीं है। इसलिए मिथ्यात्वके असंख्यातवें भागप्रमाण सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यसे मौटे रूपसे मिथ्यात्वके समान अप्रत्याख्यान मानका प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है इसमें सन्देह नहीं है । गुणकार क्या है ? सबसे जघन्य गुणसंक्रम भागहार गुणकार है ।
* उससे अप्रत्याख्यान क्रोधमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
$ १८३. क्योंकि यह प्रकृतिविशेष है। यहाँ पूर्वोक्त द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है।
1. ता०प्रतौ -मसंखेजगुणं एदस्स' इति पाठः। २. ता०प्रतौ 'गुणसंकमतिकालभंतरापरिद.' इति पाठः । ३. ता०प्रती 'मिछत्तादो दम्वादो' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ * मायाए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ___$ १८४. कुदो ? पयडिविसेसादो। केत्तियमेत्तेण? कोधदव्यमावलियाए असंखे०भागेण खंडेयूण तत्थेयखंडमेतेण । एदं कुदो णवदे ? परमगुरूणमुवदेसादो । ण चप्पलओं', णाणविण्णाणसंपण्णाणं तेसि भयवंताणं मुसाबादे पयोजणाभावादो ।
ॐ लोभे उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
$ १८५. कुदो, पयडिविसेसेण, पुव्वुत्तपमाणेण पयडि विसेसादो चेय एदस्स अहियत्तुवलंभादो।
* पञ्चक्खाणमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
१८६. जइ वि सम्वेसिं कसायाणमोघुक्कस्सपदेससंतकम्मसामियणेरइयचरजीवे पच्छायदपंचिंदियतिरिक्खभवग्गहणम्मि एइंदिएसुप्पण्णपढमसमए वट्टमाणम्मि अकमेण सामित्तं जादं तो वि विस्ससादो चेय पुबिल्लादो एदस्स विसेसाहियत्तं पडिवजेयव्वं, जिणाणमणण्णहावाइत्तादो। ण हि रागादिअविज्जासंघुम्मुक्का जिणिंदा वितथमुवइसंति, तेसु तकारणाणमणुवलद्धीए ।
8 कोहे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । * उससे अप्रत्याख्यान मायामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
६ १८४. क्योंकि यह प्रकृतिविशेष है। कितना अधिक है ? क्रोधके द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है। परन्तु वे चपल नहीं हो सकते, क्योंकि ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न भगवत्स्वरूप उनके मृषा भाषण करनेका कोई प्रयोजन नहीं है।
* उससे अप्रत्याख्यान लोभमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६ १८५. क्योंकि यह प्रकृतिविशेष है, अतः प्रकृतिविशेष होनेके कारण ही इसका प्रमाण पूर्वोक्त प्रकृतिके प्रमाणसे अधिक पाया जाता है।
* उससे प्रत्याख्यान मानमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
१८६. यद्यपि सभी कषायोंका ओघसे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म नारकियोंके अन्तिम समयमें प्राप्त होता है, इसलिए वहाँसे पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें भव धारण करनेके बाद एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर उसके प्रथम समयमें विद्यमान रहते हुए सबका एक साथ उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त हुआ है तो भी स्वभावसे ही पहलेकी प्रकृतिसे इसका द्रव्य विशेष अधिक जानना चाहिए, क्योंकि जिनदेव अन्यथावादी नहीं होते। तात्पर्य यह है कि रागादि अविद्या संघसे रहित जिनेन्द्रदेव असत्य उपदेश नहीं करते, क्योंकि उनमें असत्य उपदेश करनेका कारण नहीं पाया जाता।
* उससे प्रत्याख्यान क्रोधमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
-rrrrrrrrrr
१. प्रा०प्रतौ 'चफ्फलो ' इति पाठः। २. ता०प्रतौ 'वितस्थ (थ) मुवइसंति' प्रा. प्रतौ 'वितस्थमुवासंति' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा
$ १८७. कुदो ? सहावविसेसादो । न हि भावस्वभावाः पर्यनुयोज्याः, अन्यत्रापि तथातिप्रसङ्गात् । विशेषप्रमाणं सुगम, असकृद्विमृष्टत्वात् ।
® मायाए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ १८८. सुगममेदं, पयडिविसेसवसेण तहाभावुलंभादो । * बोभे उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय । $ १८६, एदं पि सुगम, विस्ससापरिणामस्स तारिसत्तादो ।
अणंताणुबंधिमाणे उक्कस्सपद ससंतकम्म विसेसाहिय ।
१६०. पयडिविसेसेण आवलियाएं' असंखे०भागपडिभागिएण । कुदो ? पयडिविसेसादो।
* कोहे उकस्सपदेससंतकम्म बिसेसाहियं । $ १६१. सुगममेदं, पयडिविसेसेण तहावहिदत्तादो। * मायाए उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय । ६ १९२. विस्ससादो आवलियाए असंखे०भागेण खंडिदघुव्विल्लदव्वमेत्तेण
5 १८७. क्योंकि ऐसा स्वभावविशेष है। और पदार्थों के स्वभाव शंका करने योग्य नहीं होते, क्योंकि अन्यत्र वैसा मानने पर अतिप्रसङ्ग दोष आता है। विशेषका प्रमाण सुगम है, क्योंकि उसका अनेक बार परामर्श कर आये हैं।
* उससे प्रत्याख्यान मायामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६ १८८. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि प्रकृतिविशेष होनेके कारण उसरूपसे उसकी उपलब्धि होती है।
* उससे प्रत्याख्यान लोभमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । ६ १८६. यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि स्वभावसे इसका इसप्रकारका परिणमन होता है। * उससे अनन्तानुवन्धी मानमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
$ १६०. कारण कि प्रकृतिविशेष आवलिके असंख्यातवें भागके प्रतिभागरूपसे है, क्योंकि प्रकृतिविशेष है।
* उससे अनन्तानुबन्धी क्रोधमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६ १६१. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि प्रकृतिविशेष होनेके कारण यह उस प्रकारसे अवस्थित है।
* उससे अनन्तानुबन्धी मायामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
$ १६२. क्योंकि पूर्वोक्त प्रकृतिके द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना इसमें स्वभावसे अधिक उपलब्ध होता है।
१. पा० प्रतौ 'विसेसाहियं । श्रावलियाए' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ महियत्तुवलंभादो । एदं कुदो णव्वदे १ परमाइरियाणमुवएसादो।
* लोभे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय । ६ १६३. सुगममेत्य कारणं, अणंतरणिहिद्वत्तादो। * मिच्छत्ते उकास्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
६१६४. जदि वि दोण्हमेदासि पयडीणमेयत्य चेव' गुणिदफम्मंसियणेरइयचरपच्छायदपंचिदियतिरिक्वभवग्गहणमिच्छाइहिनीवे एइंदिएमुप्पण्णपढमसमयसंठिदे . सामित्तं जादं तो वि पयडिविसेसेण विसेसाहियत्तं मिच्छत्तस्स | विरुज्झदे, बज्झकारणादो अब्भंतरकारणस्स बलिहत्तादो ।
ॐ हस्से उकस्सपदेसस तकम्ममणंतगुणं ।
६ १६५. कुदो १ सव्वघाइत्तेण पुवुत्तासेसपयडीणं पदेसपिंडस्स देसघादिहस्सपदेस पेक्खियूगाणंतिमभागतादो। णेदमसिद्धं, भागाभागपरूवणाए तहा साहियत्तादो।
ॐ रदीए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । $ १६६. जइ वि दोण्हमेदासि पयडीणं बंधगद्धाओ सरिसाओ तो वि पयडिशंका--यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान--परम आचार्यों के उपदेशसे जाना जाता है। * उससे अनन्तानुबन्धी लोभमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ १६३. यहाँ कारणका निर्देश सुगम है, क्योंकि उसका अनन्तर निर्देश कर आये हैं। * उससे मिथ्यात्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
१६४. यद्यपि अनन्तानुबन्धी लोभ और मिथ्यात्व इन दोनों प्रकृतियोंका गुणित कर्माशिक नारकियोंमें से आकर पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च मिथ्यादृष्टि होनेके बाद एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें स्थित रहते हुए एक ही स्थानमें उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त हुन्छा है तो भी प्रकृतिविशेष होने के कारण मिथ्यात्वके द्रव्यका विशेष अधिक होना विरोधको नहीं प्राप्त होता, क्योंकि बाह्य कारणकी अपेक्षा आभ्यन्तर कारण बलिष्ठ होता है।
* उससे हास्यमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म अनन्तगुणा है।
६ १६५. क्योंकि पूर्वोक्त अशेष प्रकृतियाँ सर्वघाति हैं। उनका प्रदेशपिण्ड देशघाति हास्य प्रकृतिके प्रदेशपुजकी अपेक्षा अनन्तवें भागप्रमाण है। और यह असिद्ध नहीं है, क्योंकि भागाभागप्ररूपणामें उस प्रकारसे सिद्ध कर आये हैं।
® उससे रतिमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ १६६. यद्यपि इन दोनों प्रकृतियोंका बन्धक काल समान है तो भी प्रकृतिविशेष होनेके १. ताप्रती 'मेवत्थं चेव' इति पाठः।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा विसेसमासेज्ज विसेसाहियत्तं ण विरुज्झदे, ढुक्कमाणकाले चेय तहाभाषेण परिणामदसणादो।
8 इत्थिवेदे उक्कस्सपदेससंतकम्मं संखेज्जगुण ।
$ १६७. कुरवेसु हस्स-रदिबंधगदादो संखेज्जगुणसगबंधगदाए इत्यिवेदं पूरेऊण दसवस्ससहस्साउअदेवेसु थोवयरदव्यमहिदीए गालेयूण एइंदिएसुप्पण्णपढमसमयमहियहियजीवम्मि तस्स तदो संखेज्जगुणत्तुवलंभादो।
ॐ सोगे उक्कस्सपदे ससतकम्म विसेसाहिय ।
$ १६८. सुगममेदं, ओघपरूविदबंधगदाविसेसवसेण संखे०भागन्भहियत्तुवलंभादो।
* अरदीए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। $ १६६. सुगम, पयडिविसेसस्स असई परूविदत्तादो।
* णवुसयवेदे उक्कस्सपदेसस तकम्मं विसेसाहियं ।
६२००. कुदो ईसाणदेवाणमरदि-सोगबंधगदादो विसेसाहियतत्थतणतसथावरबंधगद्धासंबंधिणqसयवेदबंधकाले संचिदत्तादो । कारण इसका विशेष अधिक होना विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि इस प्रकृतिरूप बन्ध होते समय या संक्रमण होते समय ही इस प्रकारका परिणमन देखा जाता है।
* उससे स्त्रीवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है ।
६ १६७. क्योंकि जो जीव देवकुरु और उत्तरकुरुमें हास्य और रतिके बन्धक कालसे संख्यातगुणे अपने बन्धक कालके भीतर स्त्रीवेदको पूरकर अनन्तर दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें अधःस्थितिगलनाके द्वारा अत्यन्त स्तोक द्रव्यको गला कर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है उसके वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें स्थित रहते हुए स्त्रीवेदमें रतिके द्रव्यसे संख्यातगुणा द्रव्य पाया जाता है।
* उससे शोकमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
६ १६८. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि श्रोधमें कहे गये बन्धक काल विशेषके वशसे शोकमें संख्यातवाँ भाग अधिक द्रव्य उपलब्ध होता है।
ॐ उससे अरतिमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
$ १६६. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि प्रकृतिविशेषरूप कारणका अनेक बार कथन कर आये हैं।
* उससे नपुंसकवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६२००. क्योंकि ईशान कल्पके देवोंमें अरति और शोकके बन्धक कालसे वहाँ के त्रस और स्थावरके बन्धककालसम्बन्धी विशेष अधिक कालमें नपुंसकवेदका सञ्जय होता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * दुगु छाए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय।। $ २०१. धुवबंधित्तेण इत्थि-पुरिसवेदबंधगदासु वि संचउवलंभादो । * भए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ २०२. कुदो ? पयडिविसेसादो । * पुरिसवेदे उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
२०३. केत्तियमेत्तेण ? भयदव्वमावलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडेयूण तत्थेयखंडमेत्तेण । कुदो ? सोहम्मे सम्मत्तपहावेण धुवबंधित्ते संते पुरिसवेदस्स पयडिविसेसादो अहियत्तवलंभादो ।
* माणसंजलणे उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ २०४. के० मेत्तेण ? पुरिसवेददव्वचउब्भागमेत्तेण । सेसं सुगम ।
ॐ कोहे उकस्सपदेससंतकम्मं बिसेसाहियं ।
६ २०५. एत्थ पुग्विल्लमुत्तादो संजलणगहणमणुवट्टदे। पयडिविसेसादो च विसेसाहियत्तं । सेसं सुगमं । __ मायाए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
* उससे जुगुप्सामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६२०१. क्योंकि ध्रुवबन्धी होनेसे इसका स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धक कालोंमें भी सञ्चय उपलब्ध होता है।
* उससे भयमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । ६३०२. क्योंकि यह प्रकृतिविशेष है। * उससे पुरुषवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
२०३. कितना अधिक है ? भयके द्रव्यमें श्रावलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है, क्योंकि सौधर्म कल्पमें सम्यक्त्वके प्रभावक्श पुरुषवेद ध्रुवबन्धी हो जाता है, इसलिए प्रकृतिविशेष होनेके कारण उसमें अधिक द्रव्य उपलब्ध होता है।
* उससे मानसंज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ २०४. कितना अधिक है ? पुरुषवेदके द्रव्यका एक चौथाई अधिक है। शेष कथन
सुगम है।
® उससे क्रोधसंज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६ २०५. यहाँ पर पूर्वके सूत्रमेंसे संज्वलन पदकी अनुवृत्ति होती है और प्रकृतिविशेष होनेके कारण इसका द्रव्य विशेष अधिक सिद्ध होता है। शेष कथन सुगम है।
* उससे संज्वलन मायामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूपणा लोहे उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
२०६. एदाणि दो वि मुत्ताणि सुगमाणि, पयडिविसेंसमेत्तकारणतादो' । एवं जाव अणाहारए ति सुत्ताविरोहेण आगमणि उणेहि उक्कस्सप्पाबहुअं चिंतिय णेदव्वं । किमहमेदस्स एइंदिय उक्कस्सपदेसप्पाबहुअदंडयस्स देसामासियभावेण संगहियासेसमग्गणाविसेसस्स विसेसपरूवणा तुम्हेहि ग कीरदे? ण, सुगमत्थपरूवणाए फलाभावेण तदकरणादो। ण सेसमग्गणप्पाबहुअपरूवणाए सुमत्तमसिद्धं, ओघगइमग्गणेइंदियदंडएहि चेव सेसासेसमग्गणाणं पाएण गयत्यत्तदंसणादो। संपहि उक्कस्सप्पाबहुअपरिसमत्तिसमणंतरं जहावसरपत्तजहण्णपदेसप्पाबहुअपरूवण जइवसहभयवंतो पइज्जासुत्तमाह।
ॐ जहाणदंडो ओघेण सकारणो भणिहिदि ।
$ २०७. एदस्स वत्तवपइज्जासुत्तस्स अत्थविवरणं कस्सामो। तं जहा-- अप्पाबहुअं दुविहं--जहण्णमुक्कस्सयं चेदि । तदुभयविसेसयत्तेण दंडयाणं पि तव्ववएसो। तत्थ सउक्कस्संदंडयपडिसे हफलो जहण्णदंडयणिद्दे सो । जइ एवं ण वत्तव्यमेदं, उक्कस्स
* उससे संज्वलन लोभमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६ २०६ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं, क्योंकि विशेष अधिकका कारण प्रकृति विशेषमात्र है। इस प्रकार आगममें निपुण जीवोंको सूत्रके अविरोधरूपसे अनाहारक मार्गणा तक उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका विचार कर ले जाना चाहिए।
शंका-देशामर्षकरूपसे जिसमें समस्त मार्गणसम्बन्धी विशेषता का संग्रह हो गया है ऐसे इस एकेन्द्रियसम्बन्धी उत्कृष्ट प्रदेश अल्पबहुत्व दण्डककी विशेष प्ररूपणा आप क्यों नहीं करते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि इसकी अर्थप्ररूपणा सुगम है, उसका कोई फल नहीं है, इस लिए अलगसे प्ररूपणा नहीं की है। यदि कहा जाय कि शेष मार्गणाओंमें अल्पबहुत्वप्ररूपणाकी सुगमता असिद्ध है सो भी बात नहीं है, क्योकि अोघदण्डक, गतिमार्गणादण्डक और एकेन्द्रियदण्डकके कथनसे प्रायः कर समस्त मार्गणाओंका ज्ञान देखा जाता है।
अब उत्कृष्ट अल्पबहुत्वकी समाप्तिके अनन्तर यथावसर प्राप्त जघन्य प्रदेशअल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए यतिवृषभ भगवान् प्रतिज्ञासूत्र कहते हैं
* जघन्य दण्डक कारण सहित ओघसे कहेंगे।
६ २०७. इस वक्तव्यरूप प्रतिज्ञासत्रके अर्थका विवरण करते हैं। यथा-अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । इन दोनोंसे विशेषित होकर दण्डकोंकी भी वही संज्ञा है। उनमेंसे जघन्य दण्डकके निर्देश करनेका फल अपने उत्कृष्ट दण्डकका निषेध करना है।
शंका-यदि ऐसा है तो 'जघन्य दण्डक' पदका निर्देश नहीं करना चाहिए, क्योंकि .. ता०प्रतौ -विसेसकारणत्तादो' इति पाठः । २. ता प्रतौ 'स (य) उकस्स-' इति पाठः ।
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१००
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ दंडयस्स पुव्वमेव परूविदत्तादो पारिसेंसियण्णाएण एदस्स अणुत्तसिद्धीदो त्ति १ ण । एस दोसो, मंदबुद्धिसिस्साणुग्गहह तहा परूवणादो । अदो चेव एदस्स वि पइज्जासुत्तस्स सद्दाणुसारिसिस्सस्स पोच्छाहणफलस्स उवण्णासो सहलो, अण्णहा पेक्खापुचयारीणमणादरणीयत्तादो । एदेण सव्वसत्ताणुग्गहकारितं भयवंताण सूचिदं । अहवा जहण्णसामित्तम्मि परूविदअजहण्णहाणवियप्पाणमणंतभेयभिण्णाणं णिरायरणह जहण्णदंडयणिद्दे सो त्ति वत्तव्यं ।
___$२०८. तस्स दुविहो णिद्दे सो--ओघेण आदेसेण य । तत्थ आदेसंधुदासहमोघेणे त्ति वयणं । वक्खाणकारयाणमाइरियाणं पोछाहणफलो सकारणो भणिहिदि त्ति सुत्तावयवणिद्देसो, अण्णहा अवलंबणाभावेण छदुमत्थाणं थोवबहुत्तकारणावगमणपरूवणाणं तंतजुत्तिविसयाणमणुववत्तीदो । दिसादरिसणमेत्तं चेदं, सम्मत्तजहण्णपदेससंतकम्मादो सम्मामिच्छत्तजहण्णपदेससंतकम्मबहुत्तमेत्ते चेव उवरिमपदाणं बीजपदभावेण मुत्ते कारणपरूवणादो। एत्थ सह कारणेण वट्टमाणो जहण्णदंडओ ओघेण भणिहिदि त्ति पदसंबंधो कायव्यो । सेसं सुगमं ।
8 सव्वत्थोवं सम्मत्त जहण्णपदेससतकम्मं । उत्कृष्ट दण्डकका पहले ही कथन कर आये हैं, इसलिए पारिशेष न्यायके अनुसार बिना कहे ही इसकी सिद्धि हो जाती है ?
समाधान ---यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मन्दबुद्धि शिष्यका अनुग्रह करनेके लिए उस प्रकारसे कथन किया है और इसीसे ही शब्दानुसारी शिष्यकी पृच्छाके फलस्वरूप इस प्रतिज्ञासूत्रका भी उपन्यास सफल है, अन्यथा प्रेक्षापूर्वक व्यवहार करनेवालोंके लिए यह आदरणीय नहीं हो सकता । इससे भगवान् सब जीवोंका अनुग्रह करनेवाले होते हैं यह सूचित होता है। अथवा जघन्य स्वामित्वके समय कहे गये अनन्त भेदोंको लिए हुए अजघन्य स्थानोंके विकल्पोंका निराकरण करनेके लिए सूत्र में 'जघन्य दण्डक' पदका निर्देश करना चाहिए। .......६ २०८. उसका निर्देश दो प्रकारका है—ओघ और आदेश । उनमेंसे आदेश निर्देशका निराकरण करनेके लिए सूत्रमें 'ओघसे' पदका निर्देश किया है। व्याख्यानकारक आचार्यों की पृच्छाके फलस्वरूप 'सकारण कहेंगे' इस सूत्रावयवका निर्देश किया है, अन्यथा अल्पबहुत्वके कारणका जो भी ज्ञान है उसका कथन छद्मस्थोंके बिना अवलम्बनके आगमयुक्ति पुरस्सर है यह नहीं बन सकता। यह सूत्र दिशाका आभासमात्र करता है, क्योंकि सम्यक्त्वके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म बहुत है इतने मात्रसे उपरिम पद बीजपदरूपसे सूत्रमें कारणका निरूपण करते हैं । यहाँ पर कारण सहित विद्यमान जघन्य दण्डक ओघसे कहेंगे इस प्रकार पदसम्बन्ध करना चाहिए। शेष कथन सुगम है। ___ * सम्यक्त्वमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म सबसे स्तोक है।
1. प्रा०प्रतौ 'तस्थ भोघेण प्रादेस-' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा २०६. एदस्स जहण्णप्पाबहुअदंडयमूलसुतस्स अवयवत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा-सहिंतो उवरि वुच्चमाणासेसपयडिजहण्णपदेसपडिबद्धपदेहितो योवमप्पयरं सव्वथोवं । किं तं ? सम्मत्ते' जहण्णपदेससंतकम्मं । एत्थ सेसपयडिपडिसेहफलो सम्मत्तणिदेसो । जहण्णणिद्दे सो अजहण्णादिवियप्पणिवारणफलो । हिदि-अणुभागादिवुदासट्टो पदेसणिद्दे सो। बंधादिविसेसपडिसेहह संतकम्म ति वयणं । खविदकम्मसियलक्खणेणागंतूण णिरदिचारेहि असिधाराचरियाए कम्महिदिमेत्तकालं संचरिय थोवाउएसु असण्णिपंचिंदिरसुववज्जिय देवाउअबंधवसेण देवेसुप्पजिय छप्पज्जत्तिसमागणवावारेण अंतोमुहुत्ते गदे उकस्सअपुव्वकरणादिपरिणामेहि गुणसेढिणिज्जरमुक्कस्सं काऊण उवसमसम्मत्तलब्भपढमसमयप्पहुडि सव्वजहण्णगुणसंकमकालेण सव्वुकस्सगुणसंकमभागहारेण च थोवयरं मिच्छत्तदव्वं सम्मत्तसरूवेण परिणमाविय वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय वेलावहिसागरोवमाणि परिभमिय मिच्छत्तं गंतूण दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय सम्मत्तचरिमफालि मिच्छत्तसरूवेण परिणमाविय एगणिसेगं समयकालं धरेयुग हिदजीवस्स य सम्मत्तजहण्णपदेससंतकम्मं सेसपयडिजहण्णपदेसेहितो
६ २०६. जघन्य अल्पबहुत्व दण्डकके मूलरूप इस सूत्रके अवयवोंके अर्थका कथन करते हैं । यथा-सबसे अर्थात् आगे कही जानेवाली सब प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशोंसे सम्बन्ध रखनेवाले प्रदेशोंसे स्तोक अर्थात् अल्पतर सर्वस्तोक कहलाता है। वह सर्वस्तोक क्या है ? सम्यक्त्वमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म । यहाँ सम्यक्त्व पदके निर्देशका फल शेष प्रकृतियोंका प्रतिषेध करना है। 'जघन्य' पदके निर्देश करनेका फल अजघन्य आदि विकल्पोंका निवारण करना है। स्थिति और अनुभाग आदिका निवारण करनेके लिए 'प्रदेश' पदका निर्देश किया है। बन्ध आदि विशेषोंका निषेध करनेके लिए 'सत्कर्म' यह वचन दिया है। जो क्षपितकाशिक विधिसे आकर निरतिचाररूपसे असिधारा चर्याके द्वारा कर्मस्थितिप्रमाण काल तक परिभ्रमण करके पुनः स्तोक आयुवाले असंज्ञी पञ्चन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर और देवायुका बन्ध होनेसे देवोंमें उत्पन्न होकर छह पर्याप्तियोंको पूर्ण करने रूप व्यापारके द्वारा अन्तर्मुहूर्त काल जाने पर अपूर्वकरण आदि परिणामोंके द्वारा उत्कृष्ट गुणश्रेणिनिर्जरा करके उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर सबसे जघन्य गुणसंक्रम काल और सबसे उत्कृष्ट गुणसंक्रमभागहारके द्वारा मिथ्यात्वके स्तोकतर द्रव्यको सम्यक्त्वरूपसे परिणमा कर अनन्तर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर उसके साथ दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके अनन्तर मिथ्यात्वमें जाकर सबसे दीर्घ उद्वेलना कालके द्वारा अन्तमें सम्यक्त्वकी अन्तिम फालिको मिथ्यात्वरूपसे परिणमा कर दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है उसके सम्यक्त्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म शेष प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशोंको देखते हुए स्तोकतर होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-इसका स्तोकपना कैसे है ?
१. ता०प्रतौ किंतु ( तं ) सम्मत्ते' मा प्रतो किंतु सम्मत्ते' इति पाठः। २. ता०प्रती -जहरणपदेहितो' इति पाठः।
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شرحی ترمیمی محرمی سیمرغیجماعی عجرم میخی بر جریہ
१०२.
जयधवलासहिदे कसायपारे [पदेसविहत्ती ५ योवयरं ति वुत्तं होदि । कुदो एदस्स थोवतं ? ओकडू करणभागहारगुणिदगुणसंकमुक्कस्सभागहारपदुप्पण्णाए वेछावहिसागरोवमणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासीए दीहुव्वेलणकालभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासिणा चरिमफालिआयामेण च गुणिदाए ओवहिददिवडगुणहाणिमेतेई दियसमयपपदपमाणत्तादो। एदं च दव्वं उवरिमपयडिपदेसेहितो थोवयरत्तस्स गायसिद्धत्तादो। होतं वि सम्वत्थोवमसंखेज्जसययपबद्धपमाणं ति घेत्तवं, हेहिमासेसभागहारकलावादो समयपबद्धगुणगारभूददिवडगुणहाणीए असंखेज्जगुणत्तादो । समयपबदगुणगारकारणो जहण्णदंडओ भणिहिदि त्ति पइज्जं काऊण एदस्स मूलपदस्स थोवत्ते कारणमभणंतस्स मुत्तयारस्स पुवावरविरोहदोसो ति णासंकणिज, थोवादो एदम्हादो अण्णेसिं बहुत्तकारणपरूवणाए सुत्तयारेण पइण्णाए कदत्तादो। मुगम वा एत्थ कारणमिदि तदपरूवणमाइरियभडारयस्स ।
* सम्मामिच्छत्ते जहएणपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं ।
६२१०. कुदो ? सम्मत्तस्स पमाणेगेगहिदीहिंतो सम्मामिच्छत्तपमाणेगेगहिदीणमसंखेजगुणत्तवलंभादो । कुदो उधयत्थ भज्ज-भागहाराणं सरिसत्ते संते सम्मत्त
समाधान-अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारका गुणसंक्रम भागहारके साथ गुणा कर जो लब्ध आवे उससे उत्पन्न हुई जो दो छयासठ सागरोंकी नानागुणहानि शलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि उसे दीर्घ उद्वेलन कालके भीतर नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योम्याभ्यस्तराशिसे
और अन्तिम फालिके आयामसे गुणित करने पर जो लब्ध आवे उसका डेढ़ गुणहानिमात्र एकेन्द्रियोंके समयप्रबद्धोंमें भाग देने पर इसका प्रमाण आता है और यह द्रव्य उपरिम प्रकृतियोंके प्रदेशोंसे स्तोकतर है यह न्यायसिद्ध है। यह सबसे स्तोक होता हुआ भी असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए. क्योंकि नीचेके समस्त भागहारकलापसे समयप्रबद्धकी गुणकारभूत डेढ़ गुणहानि असंख्यातगुणी है।
शंका--समयप्रबद्धके गुणकारके कारणके साथ जघन्य दण्डक कहेंगे ऐसी प्रतिज्ञा करके इस मूल पदके स्तोकपनेके कारणको नहीं कहनेवाले सूत्रकार पूर्वापर विरोधरूप दोषके भागी ठहरते हैं ?
समाधान--ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सूत्रकारने स्तोकरूप सम्यक्त्वके द्रव्यसे अन्य प्रकृतियोंके द्रव्यके बहुत होनेका कारण कहेंगे ऐसी प्रतिज्ञा की है। अथवा यहाँ पर कारण सुगम है, इसलिए आचार्य भट्टारकने उसका कथन नहीं किया।
* उससे सम्यग्मिथ्यात्वमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है।
६२१०. क्योंकि सम्यक्त्वप्रमाण एक एक स्थितिसे सम्यग्मिथ्यात्वप्रमाण एक एक स्थिति असंख्यातगुणी उपलब्ध होती है।
शंका-- उभयत्र भज्यमान और भागहारराशिके समान होते हुए सम्यक्त्व और १. ताप्रतौ -दिवगुणहाणिमेत्ते (स) इंदिय-' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा
१०३ सम्मामिच्छत्तसमाणहिदिहिदगोवुच्छाणमेवं विसरिसत्तं १ ण, मिच्छत्तादो सम्मत्तसरूवेण परिणमंतदव्वस्स गुणसंकमभागहारादो तत्तो चेव सम्मामिच्छत्तसरूवेण संकमंतपदेसग्गगुणसंकमभागहारस्स असंखेज्जगुणहीणत्तवलंभादों। पचेदमसिद्ध', गुणसंकमपढमसमए मिच्छत्तादो जं सम्मत्त संकमदि पदेसग्गं [तं] थोवं । तम्मि चेव समए सम्मामिच्छत्ते संकमदि पदेसग्गमसंखेज्जगुणं ति मुत्तादो तस्स सिदीए । ण च भागहारविसेसमंतरेण दव्वस्स तहाभावो जुज्जदे, विरोहादो। एत्य सम्मामि० गुणसंकमभागहारोवट्टिदसम्मत्तगुणसंकमभागहारो गुणगारो । कथं पुण विसेसघादवसेण' पुव्वमेव सम्मसस्स जहण्णत्ते संते उवरि पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तदाणं गतूण पत्तजहण्णभावं सम्मामिच्छत्तपदेसग्गं तत्तो असंखेज्जगुणं, उवरुवरि एगेगगोवुच्छविसेसाणं हाणिदंसणादो । तदो ण एदस्स असंखेज्जगुणत्तं सम्ममवगमदि त्ति संदेहेण घुलमाणहिययस्स सिस्सस्स अहिप्पायमासंकिय मुत्तयारो पुच्छा. मुत्तं भणदि
* केण काणेण ?
२११. एदस्स भावत्यो जइ उवरिमसम्मामिच्छत्तुव्वेल्लणकालभंतरे असंखेजसम्यग्मिथ्यात्वकी समान स्थितियों में स्थित गोपुच्छाएं इस प्रकार विसदृश कैसे होती हैं ?
समाधान---नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वमेंसे सम्यक्त्वरूप परिणमन करनेवाले द्रव्यके गुणसंक्रम भागहारसे उसीमेंसे सम्यग्मिथ्यात्वरूप संक्रम करनेवाले प्रदेशसमूहका गुणसंक्रम भागहार असंख्यातगुणा हीन उपलब्ध होता है। और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि गुणसंक्रमके प्रथम समयमें मिथ्यात्वमेंसे जो प्रदेशसमूह सम्यक्त्वमें संक्रमणको प्राप्त होता है वह स्तोक है और उसी समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमणको प्राप्त होनेवाला प्रदेशसमूह असंख्यातगुणा है इस सूत्रसे उसकी सिद्धि होती है और भागहारविशेषके बिना द्रव्यका उस प्रकारका होना बन नहीं सकता, क्योंकि विरोध आता है।
यहाँ पर सम्यक्त्वके द्रव्यसे सम्यग्मिथ्यात्वका असंख्यातगुण द्रव्य लानेके लिए सम्यग्मिध्यात्वके गणसंक्रमभागहारसे भाजित सम्यक्त्वका गणसंक्रमभागहार गणकार है। विशेष घातके वशसे सम्यक्त्वके द्रव्यके पहले ही जघन्य हो जाने पर उससे आगे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर जघन्यपनेको प्राप्त हुआ सम्यग्मिथ्यात्वका प्रदेशसमूह उससे असंख्यातगुणा कैसे हो सकता है, क्योंकि आगे आगे उसमें एक एक गोपुच्छ विशेषोंकी हानि देखी जाती है, इसलिए इसका असंख्यातगुणा होना समीचीन नहीं प्रतीत होता इस प्रकारके सन्देहसे जिसका हृदय घुल रहा है उस शिष्यके अभिप्रायकी आशंका कर सूत्रकार पृच्छासूत्र कहते हैं
* इसका कारण क्या है ? ६ २११. इस सूत्रका भावार्थ यह है कि यदि सम्यग्मिध्यात्वके उपरिम उद्वेलन कालके १. ताप्रती 'विसेस (पाद) धादवसेण' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ गुणहाणीओ संभवंति तो तासिमण्णोण्णभत्थरासी गुणसंकमभागहारेण किं सरिसी संखेजगुणा असंखेजगुणा संखेजगुणहीणा असंखेज्जगुणहीणा वा ति गणिच्छओ काउं सक्विजदि । तहा च कथमेदस्स असंखेज्जगुणतं परिछिज्जदे १ ण च तत्थ असंखेज्जाओ गुणहाणीओ पत्थि चेवे ति वोत्तु जुत्त, तदभावग्गाहयपमाणाणुवलंभादो त्ति । एवं विरुदबुदीए सिस्सेण कारणविसयाए पुच्छाए कदाए कारणपरूवणादुवारेण तस्संदेहणिरायरणहमुत्तरमुत्तमाइरिओ भणदि
__ सम्मत्त उव्वेल्लिदे सम्मामिच्छत्त जेण कालेण उव्वेल्लो दि एवम्मि काले एक पि पदेसगुणहाणिहाणंतरं णत्थि एदेण कारणेण ।
२१२. एदस्स मुत्तस्स अवयवत्थो सुगमो। एत्थ पुण पदसंबंधो एवं कायव्वो। सम्मत्ते उव्वेल्लिदे संते जेण कालेण सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लेदि एदम्मि काले एक्कं पि पदेसगुणहाणिहाणंतरं जेण पत्थि एदेण कारणेण सम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तस्स असंखेजगुणतं ण विरुज्झदे इदि । जइ वि पुवमेव सम्मत्त संतकम्मे जहण्णे जादे पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तमदाणमुवरि गंतूण सम्मामिच्छत्तपदेससंतकम्मं जहण्णं जादं तो वि तदो तस्स असंखेजगुणत्तं जुज्जदे, तस्स कालस्स एगगुणहाणीए असंखे०भागत्तेण तेत्तियमेत्तमदाणं गदस्स वि थोवयरगोवुच्छाविसेसाणं भीतर असंख्यात गुणहानियाँ सम्भव होवें तो उनकी अन्योन्याभ्यस्तराशि गुणसंक्रमभागहारके क्या समान होती है या संख्यातगुणी होती है या असंख्यातगुणी होती है या संख्यातगुण हीन होती है या असंख्यातगुण हीन होती है यह निश्चय करना शक्य नहीं है और ऐसी अवस्था में इसका असंख्यातगुण होना कैसे जाना जाता है ? वहाँ असंख्यात गुणहानियाँ नहीं ही हैं ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि उनके अभावका ग्राहक प्रमाण नहीं उपलब्ध होता। इस प्रकार विरुद्ध बुद्धिवाले शिष्यके द्वारा कारणविषयक पृच्छा करने पर कारणकी प्ररूपणा द्वारा उसके सन्देहका निराकरण करनेके लिए आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं
* इसका कारण यह है कि सम्यक्त्वकी उद्वेलना होने पर जितने कालमें सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होती है उस कालके भीतर एक भी प्रदेशगुहानिस्थानान्तर नहीं है।
६२१२. इस सूत्रका अवयवरूप अथ सुगम है। यहाँ पर पदसम्बन्ध इस प्रकार करना चाहिए-सम्यक्त्वकी उद्वेलना हो जाने पर जितने काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करता है इस कालमें यतः एक भी प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर नहीं है इस कारणसे सम्यक्त्वके द्रव्यसे सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यका असंख्यातगुणा होना विरोधको प्राप्त नहीं होता। यद्यपि सम्यक्त्वका सत्कर्म पहले ही जघन्य हो गया है और उससे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान आगे जा कर सम्यग्मिथ्यात्वका प्रदेशसत्कर्म जघन्य हा है तो भी सम्यक्त्वके व्यसे सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य असंख्यातगुणा है यह बात बन जाती है, क्योंकि वह काल एक गणहानिके असंख्यातवे भागप्रमाण है, इसलिए उतने स्थान जाकर भी बहुत थोड़े गोपुच्छाविशेषोंकी ही हानि देखी जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
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गा० २२] सत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहु अपरूवणा
१०५ घेव परिहाणिदसणादो ति वुत्तं होदि । एदम्मि अदाणे पदेसगुणहाणिहाणंतरं गत्थि त्ति एदं कुदो परिच्छिज्जदे ? एदम्हादो चेव जिणवयणादो। न च पमाणं पमाणंतरमवेक्खदे, अणवत्थापसंगादो। ण च एदस्स पमाणतं सज्झसमं, जिणवयणतण्णहाणुववत्तीदो एदस्स पमाणभावसिद्धीदो। कथं सज्झ-साहणाणमेयत्तमिदि ण पञ्चवयं', स-परप्पयासयपदीव-पमाणादीहि परिहरिदत्तादो। तदो सत्तं पमाणत्तादो पमाणतरणिरवेक्वमिदि सिद्धं ।
* अणंताणुबंधिमाणे जहण्णपद ससतकम्ममसंखेजगुणं । ...
६२१३. एत्थ सपणंतरादीददेसामासियमुत्तेण आदिदीवयभावेण सूचिदं कारणपरूवणं भणिस्सामो । तं जहा--दिवड्डगुणाहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपवद्धे अंतोमुहुत्तोवटिदओकड्ड क्वड्डण-अधापवत्तभागहारेहि वेछावहिअभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासिणा च चरिमफालिगुणिदेणोवट्टिदे असंखेज्जसमयपवद्धपमाणमणंताणुवंधिमाणजहण्णदव्वमागच्छदि । एदं पुण पुग्विल्लजहण्णदव्वादो असंखेज्जगुणं, तत्थ इह वुत्तासेस भागहारेसु संतेसु दीहुव्वेलणकालब्भंतरणाणागुणहाणि.
शंका-इस अध्वानमें प्रदेशगुणाहानिस्थानान्तर नहीं है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है।
समाधान--इसी जिनवचनसे जाना जाता है। और एक प्रमाण दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि ऐसा होने पर अनवस्था दोष आता है। इसकी प्रमाणता साध्यसम है यह कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि अन्यथा वह जिनवचन नहीं बन सकता, इसलिए उसकी प्रमाणता सिद्ध है।
शंका--साध्य और साधन एक ही कैसे हो सकता है ?
समाधान-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि दीपक और प्रमाण आदिक स्व-पर प्रकाशक होते हैं, इनसे उस शंकाका परिहार हो जाता है। इसलिए सूत्र प्रमाण होनेसे प्रमाणान्तरकी अपेक्षा नहीं करता यह सिद्ध हुआ।
* उससे अनन्तानुबन्धी मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है ।
६२१३. यहाँ पर इससे अनन्तर पूर्व कहा गया देशामर्षक सूत्र आदिदीपक भावरूप है, इसलिए उस द्वारा सूचित होनेवाले कारणका कथन करते हैं। यथा-डेढ़ गुणहानिगुणित एकेन्द्रिय सम्बन्धी समयप्रबद्धमें अन्तमुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार, अधःप्रवृत्तभागहार और अन्तिम फालिसे गुणित दो छयासठ सागरके भीतरकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि इन सबका भाग देने पर अनन्तानुबन्धी मानका असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण जघन्य द्रव्य आता है । परन्तु यह सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य द्रव्यसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि वहाँपर यहाँ कहे गये समस्त भागहार तो हैं ही। साथ ही दीर्घ उद्वेलना
१. प्रा०प्रतौ 'पञ्चवटिठ्य' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'एदेण पुग्विल्लजहएणव्वादो' इति पाठः ।
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जयधषलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सलागाणमण्णोण्णभत्थरासिभागहारस्स अहियत्तुवलंभादो । ण च अधापवत्तभागहारो तत्थ पत्थि ति तस्स तहाभावविरोहो आसंकणिज्जो, तदुजसे गुणसंकमभागहारस्स सव्वुक्कहस्सुवलंभादो। ण च अधापवत्तभागहारादो गुणसंकमभागहारस्स असंखेजगुणहीणतं, तहाभावपडिबंधयमधापवत्तभागहारस्स असंखे०भागादो गुणसंकमभागहारपडिभागियादो दीहुन्वेलणकालब्भंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासिस्स असंखेजगुणत्तादो अणंताणुबंधिविसंजोयणचरिमफालीदो उव्वेलणचरिमफालीए असंखेजगुणत्तुवलंभादो च। एदं पिं कुदो गव्वदे ? जहण्णहिदिसंकमप्पावहुए णिरयगइमग्गणापडिबद्ध अणंताणुबंधीणं विसंजोयणचरिमफालीए जहण्णभावमुवगयजहण्णहिदिसंकमादो उठवेल्लणाचरिमफालीए जहण्णभावसम्मामिच्छत्तजहण्णद्विदिसंकमस्स असंखेजगुणत्तपरूवयसुत्तादो। करणपरिणामेहि पत्तघादाणताणुबंधिचरिमफालीदो मिच्छादिहिपरिणामेहि घादिदावसे सिदसम्मामिच्छत्तचरिमफालीए असंखेजगुणत्तस्स गायसिद्धत्तादो च। तदो चेव सव्वुकस्सुव्वेल्लणकालण्णोण्णब्भत्थरासीदो असंखे०गुणो गुणगारो एत्थ वक्खाणाइरिएहि परूविदो ण विरुज्झदे । गुणसंकमभागहारोवहिदअधापवत्तभागहारादो चरिमफालिगुणगारस्स गुरुवएसबलेण असंखे०कालके भीतर नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिरूप भागहार अधिक उपलब्ध होता है। यदि कोई ऐसी आशंका करे कि वहाँ पर अधःप्रवृत्तभागहार नहीं है, इसलिए उसके उस प्रकारके मानने में विरोध आता है सो ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि उसकी पूर्तिस्वरूप वहाँ पर सर्वोत्कृष्ट गुणसंक्रमभागहार उपलब्ध होता है। यदि कहा जाय कि अधःप्रवृत्तभागहारसे गुणसंक्रमभागहार असंख्यातगुणा हीन होता है सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उस प्रकारको प्रतिबन्ध करनेवाला अधःप्रवृत्तभागहार असंख्यातवें भागप्रमाण है, गुणसंक्रमभागहारका प्रतिभागी होनेसे दीर्घ उद्वेलना कालके भीतर नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि असंख्यातगुणी है और अनन्तानुबन्धी विसंयोजनाकी अन्तिम फालिसे उद्वेलनाकी अन्तिम फालि असंख्यातगुणी उपलब्ध होती है।
शंका-यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-नरकगतिमार्गणा से सम्बन्ध रखनेवाले जघन्य स्थितिसंक्रम अल्पबहुत्वके प्रकरणमें अन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाकी अन्तिम फालिमेंसे जघन्यपनेको प्राप्त हुआ सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम असंख्यातगुण है ऐसा कथन करनेवाले सूत्रसे जाना जाता है।
तथा करण परिणामोंके द्वारा घातको प्राप्त हुई अनन्तानुबन्धीकी अन्तिम फालिसे मिथ्यादृष्टिसम्बन्धी परिणामोंके द्वारा घात होकर शेष बची सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालि असंख्यातगुणी होती है यह न्यायसिद्ध बात है और इसलिए ही यहाँ पर व्याख्यानाचार्यों के द्वारा सर्वोस्कृष्ट उद्वेलनाकालकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे असंख्यातगुणा कहा गया गुणकार विरोधको प्राप्त नहीं होता । गुणसंक्रमभागहारसे भाजित अधःप्रवृत्तभागहारसे अन्तिम फालिका गुणकार गुरुके
१. भा प्रती -संकमस्स बजहरणभाव-' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसधिहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा
१०७ गुणत्तम्भुवगमादो । एसो च गुणगारो विगिदिगोवुच्छमवलंबिय परूविदो । परमत्थदो पुण तत्तो वि असंखे० गुणो पलिदो० असंखे०भागमेत्तो। एत्थ गुणगारो विगिदिगोवुच्छादो असंखेज्जगुणो, गुणसेढिगोवुच्छं मोत्तण तिस्से एत्थ पाहणियाभावादो।
* कोहे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
२१४. एत्थ पुग्विल्लसुत्तादो अणंताणुबंधिग्गहणमणुवट्टावेदव्वं । जइ वि अणंताणुबंधिचउक्कस्स समाणसामियत्तं तो वि पयडिविसेसवसेण विसेसाहियत्तं ण विरुज्झदे । सेसं सुगमं ।
ॐ मायाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहिय । २१५. कारणमेत्थ सुगम, अणंतरपरूविदत्तादो। * लोभे जहएणपदेससतकम्म विसेसाहिय । . २१६. सुगममेदं मुत्तं, पयडिविसेसमेत्तकारणत्तादो। ॐ मिच्छत्तं जहणणपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं ।
, २१७, कुदो अर्णताणुबंधिलोम-मिच्छताणं अगंताणुबंधीणं मिच्छत्तभंगो ति सामित्तसुत्तवलंभेण समाणसामियाणमण्णोण्णं पेक्खियूण असंखेज्जगुणहीणाहिय
............................................................
उपदेशबलसे असंख्यातगुणा स्वीकार किया गया है। यह गुणकार विकृतिगोपुच्छाका अवलम्बन लेकर कहा गया है। परमार्थसे तो उससे भी असंख्यातगुणा है जो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। यहाँ पर गुणकार विकृतिगोपुच्छासे असंख्यात्तगुणा है, क्योंकि गुणश्रेणिगोपुच्छाको छोड़कर उसकी यहाँ पर प्रधानता नहीं है।
* उससे अनन्तानुबन्धी क्रोध जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
F२१४. यहाँ पर पहलेके सूत्रसे अनन्तानुबन्धी पदको ग्रहण कर उसकी अनुवृत्ति करनी चाहिए । यद्यपि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका स्वामी समान है तो भी प्रकृतिविशेष होनेसे विशेष अधिकपना विरोधको नहीं प्राप्त होता । शेष कथन सुगम है।
* उससे अनन्तानुबन्धी मायामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६२१५. यहाँ पर कारण सुगम है, क्योंकि उसका पहले कथन कर आये हैं। * उससे अनन्तानुबन्धी लोभमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६११६. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि विशेष अधिकका कारण प्रकृतिविशेष है । * उससे मिथ्यात्वमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है ।
$ २१७. शंका-अनन्तानुबन्धियोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है इस प्रकारके स्वामित्व सूत्रके उपलब्ध होनेसे समान स्वामीवाले अनन्तानुबन्धी लोभ और मिथ्यात्वका द्रव्य एक दूसरेको देखते हुए असंख्यातगुणा हीन और असंख्यातगुणा अधिक कैसे बन सकता है ?
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- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ भावो १ ण, खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण देवेसुववज्जिय अणंताणुबंधि विसंजोएयूण पुणो अंतोमुहुत्तसंजुत्तावत्थाए सेसकसायदव्वं दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपबद्धादो उक्कड्डिदमेत्तमधापवत्तभागहारेण खंडिय तत्थेयखंडपमाणं तदसंखेजदिभागत्तणेण अप्पहाणीकयणवकबंधमणंताणुबंधिसरूवेण परिणमाविय सम्मत्तलाभेण वेछावडीओ गालिय विसंजोयणाए दुचरिमसमयहिदजीवम्मि पत्तजहण्णभावस्स अणंताणुबंधिलोभदव्बस्स अधापवत्तभागहारेण विणा जहण्णभावमुवगयमिच्छत्तजहण्णपदेससंतकम्मादो असंखेजगुणहीणत्तस्स गाइयत्तादो। एत्थ गुणगारो अधापवत्तभागहारादो असंखेजगुणो । कथं मूलदव्वादो मूलदव्चस्स अधापवत्तभागहारे गुणगारे संते तं मोत्तण तत्तो असंखेज्जगुणतं गुणगारस्स ? ण, अणंताणु०विसंजोयणाचरिमफालीदो दंसणमोहक्खवणचरिमफालीए असंखेज्जगुणहीणत्तेण तहाभावं पडि विरोहाभावादो । ण च चरिमफालीणं तहाभावो असिद्धो, जहण्णहिदिसंकमप्पाबहुअसुत्तबलेण तस्सिद्धीदो। एसो विगिदिगोपुच्छागुणगारो वुत्तो। समुदायगुणगारो पुण तप्पाओग्गो पलिदो० असंखे०भागमेत्तो, पुचिल्लगुणसेढिगोवुच्छादो एत्थतणगुणसेढिगोवुच्छाए दंसणमोहक्खवगपरिणामपाहम्मेण तावदिगुणत्तुवलंभादो । एसो
MAHANA
nanMAN
समाधान--नहीं, क्योंकि जिस जीवने क्षपितकांशिक विधिसे आकर और देवोंमें उत्पन्न होकर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है। पुनः जिसने अन्तर्मुहूर्त काल तक उसकी संयुक्तावस्थामें रहते हुए डेढ़ गुणहानिसे गुणित एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबलद्धमेंसे उत्कषणको प्राप्त हुए द्रव्यमें अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देकर जो एक भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण शेष कषायोंके द्रव्यको अनन्तानुबन्धीरूपसे परिणमाया है । यद्यपि यहाँ पर उस एक भागका असंख्यातवां भाग नवकबन्धका द्रव्य भी अनन्तानुबन्धीरूपसे परिणत होता है पर उसकी प्रधानता नहीं है । उसके बाद जो सम्यक्त्वको प्राप्त कर दो छयासठ सागर काल तक उक्त द्रव्यको गलाते हुए विसंयोजनाके द्विचरम समयमें स्थित है उसके जघन्य भावको प्राप्त हुआ अनन्तानुबन्धी लोभका द्रव्य अधःप्रवृत्तभागहारके बिना जघन्य भावको प्राप्त हुए मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे असंख्यातगुणा हीन होता है यह बात न्याय है । यहाँ पर गुणकार अधःप्रवृत्तभागहारसे असंख्यातगुणा है ।
शंका-मूल द्रव्यसे मूल द्रव्यका अधःप्रवृत्तभागहार रूप गुणकार रहते हुए उसे छोड़कर गुणकार उससे असंख्यातगुणा कैसे है ?
समाधान नहीं, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाकी अन्तिम फालिसे दर्शनमोहक्षपणाकी अन्तिम फालि असंख्यातगुणी हीन होनसे गुणकारके उस प्रकारके होनेमें कोई विरोध नहीं आता। और अन्तिम फालियोंका उस प्रकारका होना प्रसिद्ध है यह बात भी नहीं है, क्योंकि जघन्य स्थितिसंक्रमके अल्पबहुत्वका कथन करनेवाले सूत्रके बलसे उसकी सिद्धि होती है।
यह विकृतिगोपुच्छाका गुणकार कहा है। समुदायरूप गुणकार तो तत्प्रायोग्य पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि पहलेकी गुणश्रेणि गोपुच्छासे यहाँकी गुणश्रेणि गोपुच्छा दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवोंके परिणामोंकी प्रधानतावश उतनी गुणी उपलब्ध होती
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गा० २२ ]
पाबहुअपरूपणा
च गुणगारो एत्थ पहाणो विसोहिपरिणामाइसयवसेण । गुणसे ढिमाहप्पं कुदो
परिच्छिनदे १
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए
सम्मत्तुष्पत्ती वि य सावयविरए अणंतकम्मंसे । - दसरा मोह व कसायउवसामए य उवसंते ॥१॥ खवय खीणमोहे जिणे य यिमा भवे असंखेजा । तव्विवरीदो कालो संखेज्जगुणा य सेढीए ||२|| ॥२॥ इदि पदम्हादो गाहासुत्तादो ।
* अपचक्खाणमाणे जहणपदेस तकम्ममस खेज्जगुणं ।
म-सम्मत्त
$ २१८. कुदो ? खविदकम्मं सियलक्खणेण अग्रवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्मं काऊण पुणो तसेसु पलिदो ० असंखे ० भागमेत्तकालं संजमासंजम - संजम-: परिणमणवारेहि बहुकम्म पुग्गलगालणं काऊण चत्तारि वारे कसाए उपसामेयूण पुणो वि एइदिएसुत्रवज्जिय पलिदो० असंखे ० भागमेत्तकालेण कम्मं हदसमुप्पत्तियं काऊण समयाविरोहेण मणुसेसुत्रवज्जिय देमूण पुव्यको डिमेत कालं संजमगुणसेडिणिज्जरं काऊण कदासेसकरणिज्जो होतॄण तो मुहुत्तावसेसे सिज्झिदव्वए चारितमोहक्खवणाए अन्भुद्विय अणियहिअद्धाए संखेज्जेसु भागेषु गदेसु अहकसायचरिमफालिं परसरूवेण संहिय उदयावलियपविद्वगो बुच्छाओ गालिय हिदजीवम्मि पुव्यमपरिभमिदवेळा हिसागरोत्रमम्मि एगणिसेगे दुसमयकाल हिदिगे सेसे
पत्तजहण्णभावस्स
है । और विशुद्धिरूप परिणामों के अतिशयवश यह गुणकार यहाँपर प्रधान है । शंका- गुणश्रेणिका माहात्म्य किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- सम्यक्त्वोत्पत्ति, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धी कषायको विसंयोजना करनेवाला, दर्शन मोहका क्षपक, चारित्रमोहका उपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह और जिन इन स्थानोंमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । परन्तु उस निजरा में लगनेवाला काल उससे विपरीत अर्थात् अन्तके स्थानसे प्रथम स्थानतक प्रत्येक स्थानमें संख्यातगुणा संख्यातगुणा है ॥१-२॥ इसप्रकार इन गाथासूत्रोंसे गुणश्रेणिका माहात्म्य जाना जाता है ॥१-२॥ * उससे अप्रत्याख्यान मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है ।
$ २१८. क्योंकि क्षपितकर्मा शविधिसे अभव्यों के योग्य जघन्य सत्कर्म करके पुनः त्रसों में पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वरूप परिणमण बारोंके द्वारा कर्म के बहुत पुद्गलोंको गलाकर तथा चार बार कषायोंका उपशमन करके अनन्तर पुनः एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर पल्यके असंख्तातवें भागप्रमाण कालके द्वारा कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके यथाशास्त्र मनुष्योंमें उत्पन्न होकर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण काल तक संयम गुणश्रेणिनिर्जरा करके पूरी तरह कृतकृत्य होकर सिद्ध होनेके लिए अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर चारित्रमोहनी की क्षपण के लिए उद्यत होकर अनिवृत्तिकरणके कालमें संख्यात बहुभाग जानेपर आठ कषायोंकी अन्तिम फालिको पररूपसे संक्रमण करके तथा उदद्यावलिमें प्रविष्ट हुई गोपुच्छाओंको गलाकर जो जीव स्थित है वह मिध्यात्व का जघन्य द्रव्य करनेवालेके समान दो छयासठ सागर
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میں ہے
--....Mirrrrrrrrrrrrrrr-winnar..."
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ एदस्स पुवित्रजहण्णदबादो गालिदवेछावहिसागरोवममेत्तणिसैगादो असंखेजगुणत्तस्स णायसिद्धत्तादो । गुणगारो पुण ओकड्ड कड्डणभागहारगुणिदवेछावहिसागरोवमणाणागुणहाणिसलागाणं अण्णोण्णब्भत्थरासीदो दसण-चरितमोहक्खवयचरिमफालिविसेसमासेज असंखेजगुणो ति घेत्तव्यो, विगिदिगोवुच्छाणं तहाभावदंसणादो । गुणसेढिपाहम्मेण पुण तप्पाओग्गंपलिदोवमासंखेजभागमेतो पहाणगुणगारो साहेयव्यो, तत्थ परिणामाणुसारिगुणगारं मोत्तण दव्याणुसारिगुणगाराणुवलंभादो।
ॐ कोहे जहएणपदेससंतकम्म विसेसाहियं ।
६२१६. कथमेदेसि समाणसामियाणं हीणाहियभावो ? ण, दुकमाणकाले चेव पयडिबिसेसेण तहासरूवेण हुकमाणुवलंभादो । विसेसपमाणमेत्थ सुगमं ।
* मायाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ६ २२०. एत्य कारणमणंतरपरूविदतादो सुगम ।।
लोभे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहिय।। २२१ कारणपरूवणं सुगमं ।
ॐ पञ्चक्खाणमाणे जहएणपदेसस तकम्मं विसेसाहियं । काल तक परिभ्रमण नहीं करता, इसलिए उसके दो समय कालवाली एक स्थितिके शेष रहने पर जो जघन्य द्रव्य होता है वह दो छयासठ सागर कालप्रमाण निषेकोंको गलाकर प्राप्त हुए मिथ्यात्वके जघन्य द्रव्यसे असंख्यातगुणा होता है यह न्यायसिद्ध बात है। परन्तु गुणकार अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे गुणित दो छयासठ सागरप्रमाण नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे दर्शनमोहनीय और चरित्रमोहनीयके क्षपककी अन्तिम फालि विशेषको देखते हुए असंख्यातगुणा है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि विकृतिगोपुच्छाएं उस प्रकारकी देखी जाती हैं। परन्तु गुणश्रेणिकी मुख्यतासे तत्प्रायोग्य पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रधान गुणकार साध लेना चाहिए, क्योंकि वहांपर परिणामानुसारी गुणकारको छोड़कर द्रव्यानुसारी गुणकार उपलब्ध होता है।
* उससे अप्रत्याख्यान क्रोधमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६२१६ शंका--समान स्वामीवाले इन कर्मों में हीनाधिक भाव कैसे होता है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि सञ्चय होते समय ही प्रकृतिविशेष होनेके कारण उस रूपसे इनका सञ्चय होता है। विशेष प्रमाण यहाँ पर सुमम है।
* उससे अप्रत्याख्यान मायामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६२२०. यहाँ पर कारण सुगम है, क्योंकि उसका अनन्तर पूर्व ही कथन कर आये हैं। * उससे अप्रत्याख्यान लोभमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ २२१. कारणका कथन सुगम है। * उससे प्रत्याख्यान मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। १. प्रा०प्रतौ '-पाहम्मेण तप्पागोग्ग-' इति पाठः । २. श्रा०प्रतौ 'दुकवलंभादो' इति पाउ ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूषणा । २२२. कुदो ? पयडिविसेसादो।
कोहे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहिय । २२३. कुदो ? विस्ससादों। * मायाए जहएणपदेससंतकम्म पिसेसाहियं । २२४. कुदो ? सहावदो । सेसं सुगमं । 8 लोभे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
$ २२५. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । केत्तियमेत्तेण १ आवलियाए असंखे०. भागपडिभागियपयडिविसेसमेतेण ।
* कोहसंजलणे जहएणपदेससंतकम्ममणंतगुणं ।
२२६. कुदो ? देसघादित्तेण सुलहपरिणामिकारणत्तादो । अदो चेव कधमसंखेजसमयपबदमेत्तपञ्चक्खाणलोभगुणसेढिसरूवजहण्णदव्वादो समयपबदस्स असंखे०भागपमाणकोहसंचलणजहण्णदव्यमणंतगुणं ति गासंकणिज्जं, समयपबदगुणगारादो देसघादिपदेसगुणगारस्स अणंतगुणत्तादो। जदि वि मुहुमणिगोदजहण्णउववादजोगेण बदसमयपबदमेत्तं कोधसंजलणजहण्णदव्वं होज्ज तो वि सन्मघाइयपच्चक्वाण
$ २२२. क्योंकि यह प्रकृति विशेष है। * उससे प्रत्याख्यान क्रोधमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । ६ २२३. क्योंकि ऐसा स्वभाव है। * उससे प्रत्याख्यान मायामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६२२४. क्योंकि ऐसा स्वभाव है। शेष कथन सुगम है। * उससे प्रत्याख्यान लोभमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
$ २२५. ये सूत्र सुगम हैं। कितना अधिक है ? आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध श्रावे उतना प्रत्याख्यान लोभमें विशेषका प्रमाण है।
* उससे क्रोध संज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म अनन्तगुणा है । 5 २२६. क्योंकि यह देशघाति है, इसलिये इस रूप परिणमानेका कारण सुलभ है।
शंका--क्रोधमें संज्वलन देशघाति है केवल इसलिये असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण प्रत्याख्यान लोभके गुणश्रेणिरूप जघन्य द्रव्यसे समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागप्रमाण क्रोधसंज्वलनका.जघन्य द्रव्य अनन्तगुणा कैसे है ?
समाधान-ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि समयप्रबद्धके गुणकारसे देशघाति प्रदेशोंका गुणकार अनन्तगुणा है। यद्यपि क्रोधसंज्वलनका जघन्य द्रव्य सूक्ष्म निगोदियाके जघन्य उपपाद योग द्वारा बांधे गये समयप्रबद्धप्रमाण होवे तो भी वह सर्वघाति प्रत्याख्यान
1. प्रा०प्रतौ 'विसे । विस्ससादो' इति पाठः । २. मा प्रतौ विसे । सहाघदो।' इति पाठः।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ..... [पदेसविहत्ती ५ लोभजहण्णदव्वादो अणंतगुणमेव । किं पुण तदो असंखे० गुणपंचिंदियघोलमाणजहण्णजोगबदसमयपबद्धस्स असंखेजभागमेत्तचरिमफालिदवमिदि वुत्तं होदि। .
* माणसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।।
$ २२७. एत्थ कारणं वुच्चदे--कोहसंजलणजहण्णदव्वमेगसमयपबद्धमत्तं होद्ण मोहसव्वदबस्स चउम्भागप्रमाणं, चउब्धिहबंधगेण बदत्तादो । एदं पुण एगसमयपबद्धमोहणीयदव्वस्स तिभागमेतं माण-माया-लोभेसु तिहा विहंजिय हिदत्तादो । तदो विसेसाहियत्तं जुज्जदे तिभागब्भहियमिदि उतं होदि । एत्थ संदिहीए चउवीस २४ पमाणमोहणी पदबपडिबदाए अव्वुप्पण्णसिस्साणं पबोहो कायव्यो। ..
® पुरिसवेदे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।।
२२८. कुदो ? मोहणीयदव्वस्स दुभागपमाणत्तादो । तं पि कुदो ? पंचविधबंधयस्स मोहणीयसमयपबद्धमेत्तणोकसायभागभागितादो मोहणीयतिभागमेत्तमाणसंजलणदव्वादो तदद्धमेत्तपुरिसवेददव्वं दुभागेणब्भहियं होदि ति भावत्यो । लोभके जघन्य द्रव्यसे अनन्तगुणा ही है। तिसपर चरम फालिका द्रव्य सूक्ष्म निगोदियाके जघन्य उपपादयोगसे असंख्यातगुणे पंचेन्द्रियके घोलमाण जघन्य योगद्वारा बांधे गये समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागप्रमाण है इसलिए उसका कहना ही क्या है यह इसका तात्पर्य है ।
* उससे मानसंज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६२२७. अब यहाँ इसका कारण कहते हैं-क्रोधसंज्वलनका जघन्य द्रव्य एक समयप्रबद्धप्रमाण होता हुआ भी मोहके सब द्रव्यके चौथे भागप्रमाण है, क्योंकि उसका संज्वलनोंका बन्ध होते समय बन्ध हुआ है, किन्तु वह एक समयप्रबद्धप्रमाण होता हुआ भी मोहनीयके सब द्रव्यका तीसरा भाग है, क्योंकि वह मान, माया और लोभ इन तीनों भागोंमें विभक्त होकर स्थित है। इसलिए जो क्रोध संज्वलनके जघन्य द्रव्यसे मान संज्वलनका जघन्य द्रव्य विशेष अधिक कहा है वह युक्त है। क्रोधसंज्वलजके जघन्य द्रव्यसे मानसंज्वलनका जघन्य द्रव्य तीसरा भाग अधिक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब यहाँ संदृष्टिसे मोहिनीयके सब द्रव्यको २४ मानकर अव्युत्पन्न शिष्योंको ज्ञान कराना चाहिये।
उदाहरण-मोहनीयका सब द्रव्य २४; संज्वलन क्रोध ६, संज्वलन मान ६, संज्वलन माया ६, संज्वलन लोभ ६। संज्वलन क्रोधकी बन्ध व्युच्छिति हो जाने पर संज्वलन मानका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है उस समय, संज्वलनमान ८, माया ८, लोभ ८ इसप्रकार बँटवारा होता है। ८-६%२०१
® उससे पुरुषवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ २२८. क्योंकि यह सब मोहनीय द्रव्यके दूसरे भाग प्रमाण है। शंका--यह सब मोहनीय द्रव्यके दूसरे भाग प्रमाण कैसे है ?
समाधान-- जो जीव पुरुषवेद और चार संज्वलन इन पाँच प्रकृतियोंका बन्ध कर रहा है उसके मोहनीयका जो समयप्रबद्ध नोकषायको प्राप्त होता है वह सब पुरुषवेदको मिल जाता है, इसलिये यह सब मोहनीय द्रव्यके दूसरे भाग प्रमाण है। इसका यह आशय है कि मोहनीयके
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूषणा
* मायासंजलणे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
$ २२६. दोण्हं पि मोहणीयस्स अद्धपमाणसे संते कुदो पुचिन्लादो एदस्स विसेसाहियत्तं ? ण, पयडिविसेसेण पुव्विल्लदव्वमावलि० असंखे०भागेण खंडिय तत्थेयखंडमेत्तेण एदस्स अहियत्तुवलंभादो ।
ॐ णवुसयवेदे जहएणपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं ।
६२३०. एत्य कारणं वुच्चदे । तं जहा-मायासंजलणस्स चरिमसमयणवकबंधो दुसमयूणदोआवलियमेत्तदाणमुवरि गंतूण एगसमयपबद्धस्स असंखेजा भागा होदूण जहण्णपदेससंतकम्मं जादं । गqसयवेदस्स पुण असंखेजपंचिंदियसमयपबद्धसंजुत्तगुणसेढिदव्वं जहण्णं जादं । तदो किंचूणसमयपबद्ध मेत्तजहण्णदव्वादो असंखेजसमयपबद्धपमाणणqसयवेदजहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं होदि ति ण एत्थ संदेहो ।
* इत्थिवेदस्स जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
६२३१. कुदो सरिसपरिणामेहि कयगुणसेढीणं दोण्हं पि सरिसत्ते संतेणवंसयवेदपयडिविगिदिगोवुच्छाहिंतो इत्थिवेदपयडिविगिदिगोवुच्छाणमसंखेजगुणत्तादो। तं पि तीसरे भागप्रमाण मान संज्वलनके द्रव्यसे मोहनीयका आधा पुरुषवेदका द्रव्य दूसरा भाग अधिक होता है।
* उससे माया संज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६२२६. शंका--पुरुषवेद और मायासंज्वलन इन दोनोंको ही मोहनीयका आधा आधा प्रमाण प्राप्त है फिर पहलेसे यह विशेष अधिक क्यों है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि प्रकृतिविशेषके कारण इसमें विशेष अधिक द्रव्य पाया जाता है । पुरुषवेदके द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उतना इसमें विशेष अधिक है।
* उससे नपुसकवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कमे असंख्यातगुणा है।
६२३०. अब यहाँ इसका कारण कहते हैं। जो इस प्रकार है-माया संज्वलनका जो अन्तिम समयका नवक बन्ध है वह दो समय कम दो अवलिप्रमाण स्थान आगे जाकर एक समयप्रबद्धका असंख्यात बहुभाग प्रमाण रह जाता है और वही जघन्य प्रदेशसत्कर्मरूप होता है। किन्तु नपुंसकवेदका पञ्चन्द्रियके असंख्यात समयप्रबद्वोंसे संयुक्त गुणश्रेणीका द्रव्य जघन्य प्रदेशसत्कर्मरूप होता है, इसलिए कुछ कम समयप्रबद्धप्रमाण माया संज्वलनके जघन्य द्रव्यसे असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है इसमें कोई सन्देह नहीं।
* उससे स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६२३१. क्योंकि यद्यपि दोनोंकी गुणश्रेणियाँ सदृश परिणामोंसे की जाती हैं, इसलिये वे समान हैं तो भी नपुंसकवेदकी प्रकृति गोपुच्छाओंसे स्त्रीवेदकी प्रकृति और विवृति गोपुच्छाएं असंख्यातगुणी होती हैं।
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जयवलास हिदे कसा पाहुडे
[ पदेसविहती ५ कुदो ९ बंधाभावे सयवेदस्सेव तिसु पलिदोन मेसु इन्थिवेदगोबुच्छाणं गलणाभावादो । दो चेव सामित्त 'तिपलिदोवमिसु णो उत्रवण्णो' इदि वृत्तं, वेछावहिसागरोवमेसु व तत्थुवादे' पओजणाभावादो | एत्थ गुणगारो तिपलिदोवमव्यंतरणाणागुणहासिला गाणमण्णोष्णन्भत्थरासी । दोन्हं पि गुणसेढीओ सरिसीओ ति पुध हविय पुणो णसय वेदगोबुच्छं तत्तो असंखे० गुणइत्थिवेदगोबुच्छादो अवणिय द्वविदे जं से सं सगअसंखेज्जभागमेत्तमहियदव्वं तेण विसेसाहियं ति वृत्तं होदि । एदं विसेसाहियवयणं णावयं, जहा सव्वत्थ गुणसेढिविण्णासो परिणामाणुसारिओ चेव ण दव्वानुसारि ति । अण्णा पयददव्वस्स पुच्चिल्लदव्वादो असंखे० गुणत्तं मोत्तूण विसेसाहियभावाणुववत्तदो ।
* हस्से जहणणपदेससंतकम्ममसंखेज्जगुणं ।
९ २३२. कुदो १ अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्मेण तसेसु आगंतूण बहुए हि संजमासं'जम-संजमपरियट्टणवारेहि चउहि कसायडवसमणवारेहि य बहुकम्मपदेसणिज्जरं
शंका- ऐसा क्यों होता है ?
समाधान- -बन्धके अभाव में नपुंसकवेदके समान तीन पल्य कालके भीतर स्त्रीवेदकी गोपुच्छा नहीं गलती हैं । अर्थात् जिसके नपुंसक वेदका जघन्य द्रव्य प्राप्त होता है वह पहले जिस प्रकार उत्तम भोगमूमिमें तीन पल्य काल तक नपुंसकवेदकी गोपुच्छाएं गला श्राता है उस प्रकार स्त्रीवेदके जघन्य द्रव्यवालेको पहले यह क्रिया नहीं करनी पड़ती है, इसलिये इसके तीन पल्य कालके भीतर गलनेवाली गोपुच्छाएं बच जाती हैं और इसीलिये स्वामित्व सूत्र में स्त्रीवेदके जघन्य द्रव्यको प्राप्त करनेवाला 'तीन पल्यकी आयुवालों में नहीं उत्पन्न होता' यह कहा है। क्योंकि इसे दो छयासठ सागर काल तक सम्यग्दृष्टियों में परिभ्रमण कराना है। अब इस कालके भीतर तीन पल्यकी आयुवालोंमें भी उत्पन्न कराया जाता है तो कोई विशेष प्रयोजन नहीं सिद्ध होता ।
तीन पल्यके भीतर नानागुणहानि शलाकाओं की जो अन्योन्याभ्यस्त राशि प्राप्त हो वह यहाँ गुणकारका प्रमाण है। दोनोंकी गुणश्रेणियाँ समान हैं, अतः उन्हें अलग स्थापित करो । अनन्तर नपुंसक वेदकी गोपुच्छाओंसे असंख्यातगुणी स्त्रीवेदकी गोपुच्छाओं में से नपुंसक वेद की गोपुच्छाओं को घटा कर स्थापित करने पर जो अपनेसे असंख्यातवां भाग अधिक द्रव्य शेष रहता है उतना स्त्रीवेदका जघन्य द्रव्य विशेष अधिक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सूत्रमें जो यह 'विशेषाधिक' वचन है सो वह ज्ञापक है जिससे यह ज्ञापित होता है कि गुणश्रेणिका विन्यास सब जगह परिणामों के अनुसार होता है द्रव्यके अनुसार नहीं होता । यदि ऐसा न माना जाय तो प्रकृत द्रव्य पिछले द्रव्यसे असंख्यातगुणा प्राप्त होता है उसे छोड़कर विशेषाधिकता नहीं बन सकती है ।
* उससे हास्यमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है ।
$ २३२. क्योंकि अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ सोंमें आया और वहाँ अनेकबार संयमासंयम और संयमकी पलटन करते हुए तथा चार बार कषायोंकी उपशमना कर बहुत
१. श्र०प्रतौ ' - मेसु तस्थुनबादे' इति पाठः ।
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गा०२२]
उत्तरपय डिपदेस वित्तीए अप्पा बहुअपरूवणा
काऊण फलाभावेण वेच्छावडीओ अपरिब्भमिय तदो कमेण पुव्त्रकोडाउअमणुस्सभवे दीदृद्धं संजमगुणसेदिणिज्जरं काऊण खत्रणाए अन्भुद्विदजीवेण चरिमडिदिखंडए चरमसमय अणिल्लेविदे छण्णोकसायाणं जहण्णसामित्तविहाणादो । एत्थ गुणगारो कणभागहारगुणिदचरिमफालिपदुप्पण्णवेद्यावद्धि' सागरोदमणाणागुणहाणि सलागाणमण्णोष्णव्यत्थरासी पुच्चिन्लगु णसेडिगोच्छागमणहतप्पा ओग्गपलिदो० असंखे०भागमेत्तरुवट्टिदो । कुदो ? वेळा हिसागरोत्रमाणमपरिव्यमणादो । सयलसमत्थाए चरमफालीए पत्तसामित्तभावादो च हेल्लिरासिस्स तव्विवरीय सरूवत्तादो च ।
* रदीए जहण्णपदेस संतकम्मं विसेसाहियं ।
९ २३३. एदेसिं सरिससामियते वि पयडिविसेसेण विसेसाहियत्तमेत्य दवं । सुगमं ।
* सोगे जहणपदेससंतकम्मं संखेज्जगुणं ।
$ २३४. कुदो १ पुव्विल्लबंधगद्धादो संपहियबंधगद्ध । ए संखेज्जगुणत्तादो ।
* मरदीए जहणपदेस संतकम्मं विसेसाहियं । २३५. कुदो ? पयडिविसेसादो ।
* दुगु छाए जहणपदेस संतकम्मं विसेसाहियौं ।
कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा की । यथा विशेष लाभ न होनेसे दो छ्यासठ सागर काल तक परिभ्रमण नहीं किया । तदनन्तर क्रमसे एक पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्य भवमें दीर्घ काल तक संयमको पालकर और गुणश्रेणि निर्जरा करके जब यह जीव क्षपणाके लिये उद्यत होता है तब अन्तिम स्थितिकruses पतन होनेके अन्तिम समयमें छह नोकषायोंका जघन्य स्वामित्व प्राप्त होता है । यहाँ पर गुणकारका प्रमाण उत्कर्षणभागहार गुणित अन्तिम फालि प्रत्युत्पन्न दो छयासठ सागरकी नानागुणहानियोंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिमें पहलेकी गुणश्रेणिगोपुच्छाओं को लानेके लिए स्थापित किये गये तत्प्रयोग्य पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना है, क्योंकि दो छयासठ सागर कालके भीतर परिभ्रमण नहीं कराया हैं और पूरी तरहसे समर्थ अन्तिम फालि में स्वामित्वकी प्राप्ति हुई है । तथा पिछली राशि इससे विपरीत स्वरूपवाली हैं ।
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* उससे रतिमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
$ २३३. इन दोनोंका स्वामी समान है तो भी प्रकृतिविशेषके कारण पूर्व प्रकृति से इस प्रकृतिमें विशेष अधिक द्रव्य जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है ।
* उससे शोकमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है ।
$ २३४. क्योंकि पूर्व प्रकृतिके बन्धकालसे इस प्रकृतिका बन्धकाल संख्यातगुणा है ।
* उससे अरतिमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
$ २३५. इसका कारण प्रकृतिविशेष है ।
* उससे जुगुप्सामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
१.
प्रतौ 'पप्पण्णा बेावद्वि-' इति पाठः ।
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११६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ २३६. धुवबंधित्तादो हस्स-रदिबंधगद्धाए वि एदिस्से बंधुवलंभादो । केत्तियमेत्तो विसेसो ? हस्स-रदिबंधगद्धाजणिदसंचयमेतो । सेसं सुगम ।
* भए जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।। २३७. कुदो ? पयडिविसेसादो विशेषमात्रमत्रकारणमुद्घोषयामः । * लोभसंजलणे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
२३८. एत्थ कारणं युच्चदे । तं जहा-भयदव्वं मोहणीयसव्वदव्वस्स दसमभागो। लोभसंजलणदव्वं पुण मोहदव्वस्स अट्टमभागो, कसायभागस्स चउसु वि संजलणेसु विहंजिय हिदत्तादो। अण्णं च लोभसंजलणदव्वमधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि जहण्णं जादं। भयपदेसग्गं पुण तत्तो उवरि अंतोमुहुत्तमेत्तगुणसेढिगोवुच्छासु गलिदासु गुणसंकमदव्वे च परिहीणे अणियट्टिअद्धाए संखेजे भागे गंतूण पत्तजहण्णभावमेदेण कारणेण एदासि पयडीणं पदेसस्स हीणाहियभावो ण विरुज्झदे ।
__एवमोघजहण्णदंडओ सकारणो समत्तो । ® 'णिरयगईए सव्वत्थोवं सम्मत्ते जहएणपदेससंतकम्मं ।
२३६. एदस्स आदेसजहण्णप्पोबहुअमूलपदपरूवयसुत्तस्स अत्थपरूवणा
$ २३६. क्योंकि जुगुप्सा प्रकृति ध्रुवबन्धिनी है। हास्य और रतिके बन्धकालमें भी इसका बन्ध पाया जाता है। कितना अधिक है ? हास्य और रतिके बन्धकालमें जितना सश्चय होता है उतना अधिक है। शेष कथन सुगम है।
* उससे भयमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ २३७. क्योंकि प्रकृति विशेष ही इस विशेषका कारण है यहाँ हम यह कहते हैं। * उससे लोभ संज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्क विशेष अधिक है।
६. २३८. अब यहाँ इसका कारण कहते हैं जो इस प्रकार है-भयका द्रव्य तो मोहनीयके सब द्रव्यका दसवां भाग है। परन्तु लोभसंज्वलनका द्रव्य मोहनीयके सब द्रव्यके आठवाँ भाग है, क्योंकि कषायोंका हिस्सा चारों संज्वलनोंमें विभक्त होकर स्थित है। दूसरा कारण यह है कि लोभ संज्वलनका द्रव्य अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जघन्य हो जाता है परन्तु भयका द्रव्य इसके आगे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गुणश्रेणि गोपुच्छाओंके गला देने पर और गुणसंक्रमके द्रव्यके घट जानेपर अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जानेपर जघन्य होता है इसलिये इन दोनों प्रवृतियोंका हीनाधिकभाव विरोधको नहीं प्राप्त होता ।
इस प्रकार कारणसहित ओघसे जघन्य दण्डकका कथन समाप्त हुआ। * नरकगतिमें सम्यक्त्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म सबसे थोड़ा है। ६२३६. आदेशसे जघन्य अल्पबहुत्वके मूलपदका कथन करनेवाले इस सूत्रका १. ता०प्रतौ 'वुच्चदे भयदव्वं' इति पाठः ।
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गा०२२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूपणा सुगमा ।
* सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदे ससतकम्ममस खेज्जगुण । $ २४०. सुगममेदं सुत्तं, ओघादो अविसिहकारणत्तादो। 8 अणंताणुबंधिमाणे जहएणपदेससंतकम्ममसखेजगुणं ।
३ २४१. एत्य गुणगारो तप्पाओग्गपलिदोवमासंखेज्जभागमेत्तो। कुदो १ गुणसेढीदरगोवुच्छाकयविसेसादो चरिमफालिविसेसावलंबणादो च सेसोवट्टणादिविण्णासो अवहारिय पुब्बावराणं सिस्साणं सुगमो।
* कोहे जहएणपदेससंतकम्म विसेसाहिय । २४२. पयडिविसंसादो। ॐ मायाए जहएणपदेससंतकम्म विसेसाहिय । $ २४३. विस्ससादो। * लोभे जहएणपदेससंतकम्म विसेसाहियं ।। $ २४४. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि। बझकारणणिरवेक्खो वत्थुपरिणामो।
* मिच्छत्ते जहएणपदे ससतकम्ममस खेज्जगुणं । अर्थ सरल है।
* उससे सम्यग्मिथ्यात्वमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है ।
२४०. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि अोघप्ररूपणाके समय जो इसका कारण कहा है उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। दोनों जगह कारण एक समान है।
* उससे अनन्तानुबन्धी मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है ।
६२४१. यहाँ गुणकारका प्रमाण तद्योग्य पल्यका असंख्यातवाँ भाग है , क्योकि यहाँ गुणश्रेणि और उनसे भिन्न गोच्छाओंके कारण तथा अन्तिम फालिविशेषके कारण विशेषता आजाती है। आगे पीछेका विचार करके शेष अपवर्तन आदिका विन्यास सब शिष्योंको सुगम है।
* उससे अनन्तानबन्धी क्रोधमें प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । ६ २४२. इसका कारण प्रकृतिविशेष है। * उससे अनन्तानुबन्धी मायामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ २४३. क्योंकि ऐसा स्वभाव है। * उससे अनन्तानुबन्धी लोभमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
२४४. ये सूत्र सुगम हैं, क्योंकि यहाँ विशेषाधिकका बाह्य कारण नहीं है, वस्तुका परिणमन ही ऐसा है।
* उससे मिथ्यात्वमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है।
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. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ $२४५. को गुणकारो ? अधापवत्तभागहारो चरिमफाली च अण्णोण्णगुणाओ। कुदो ? हेहिमरासिणा तेतीससागरोवमणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासीए ओकड्ड कड्डणभागहारपदुप्पण्णअधापवत्तभागहारेण चरिमफालीए च गुणिदाए ओवट्टिददिवडगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपवद्धपमाणेण उव रिमगसिम्मि अधापवत्तचरिमफालिगुणगारविरहिदपुव्वुत्तभागहारोवटिददिवड्डगुण हाणिगुणिदेगेदियसमयपबद्धपभाणम्मि भागे हिदे एत्तियमेत्तगुणगारुवलंभादो । पुव्विल्लविगिदिगोवुच्छमस्सियूग एसा गुणगारपरूवणा कया । तत्थतणगुणसेढिगोवुच्छमस्सियूण भण्णमाण पुचिल्लगुणगारो तप्पाओग्गपलिदोवमासंखेज्जभागेण ओवट्टे यव्यो । कारणं सुगम ।
® अपचक्खाणमाणे जहएणपद ससंतकम्ममस खेजगुणं ।
.२४६. कुदो ? अणि पच्छायदपढमपुढविउप्पण्णपढमसमयवट्टमाणखविदकम्मंसियम्मि पत्तजहण्णसामित्तणेण एक्किस्से वि गुणहाणीए गलणाभावादो । मिच्छत्तस्स पुण अंतोमुहुत्तूणतेत्तीससागरोवममेत्तकालं गालिय जहण्णसामित्तविहाणेण तेत्ति यमेत्तगोवुच्छाणं गलणुवलंभादो। अदो चेय तेतीससागरोक्मभंतरणाणागुणहाणिसलागाअण्णोण्णब्भत्थरासी उकड्डणभागहारपदुप्पाइदो एत्थ गुणगारो।
२४५. गुणकार क्या है ? अधःप्रवृत्तभागहार और अन्तिम फालि इनको परस्पर गुणा करनेपर जो लब्ध आवे उतना गुणकार है, क्योंकि तेतीस सागरकी नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे, अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार गुणित अधःप्रवृत्तभागहारसे और अन्तिम फालिसे गुणित करके जो लब्ध आवे उसका डेढ़ गुणहानिगुणित एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धमें भाग देनेपर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण अधस्तन राशिको अधःप्रवृत्तकी अन्तिम फालिरूप गुणकारसे रहित पूर्वोक्त भागहारसे भाजित जो डेढ़ गुणहानिगुणित एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्ध तत्प्रमाण उपरिभ राशिमें भाग देनेपर उक्त प्रमाण गुणकार उपलब्ध होता है। पूर्वोक्त विकृति गोपुच्छाका आश्रय लेकर यह गुणकारकी प्ररूपणा की है। वहाँकी गुणश्रेणिगोपुच्छाका आश्रय लेकर कथन करने पर पूर्वोक्त गुणकारको तत्प्रायोग्य पल्यके असंख्यातवें भागसे भाजित करना चाहिए । कारण सुगम है।
* उससे अप्रत्याख्यान मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है।
२४६. क्योंकि असंज्ञियोंमसे आकर जो क्षपित कर्माशिक जीव प्रथम पृथिवीमें उत्पन्न होता है उसके उत्पन्न होने के प्रथम समयमें अप्रत्याख्यान मानका जघन्य स्वामित्व प्राप्त होनेसे एक भी गुणहानिका गलन नहीं हुआ है। परन्तु मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर काल व्यतीत कर जघन्य स्वामित्व प्राप्त होनेसे वहाँ उसकी उतनी गोपुच्छाएं गल गई हैं। और इसीलिए ही उत्कर्षणभागहारसे उत्पन्न की गई तेतीस सागरके भीतरकी नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि यहाँ पर गुणकार है।
१. श्रा०प्रतौ ' गुणिदेगेसमयपबद्ध इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'सल्लागा [f] अण्णोण्णाभस्थरासो' इति पाठः।
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गा० २२] . उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा
११६ * कोहे जहण्णपदेसस तकम्मं विसेसाहियं । ६. २४७. ण एत्य किं चि वत्तव्यमस्थि, पयडिविसेसमेत्तस्स कारणत्तादो। * मायाए जहएणपदेससंतकम्म विसेसाहियं । ६२४८. सुगममेदं, अणंतरपरूविदकारणत्तादो ।
ॐ लोभे जहएणपदेससंतकम्म विसेसाहिय। ३ २४६, एत्थ पञ्चओ सुगमो। * पञ्चक्खाणमाणे जहएणपदेससंतकम्म विसेसाहियं ।
२५०. सुगममत्र कारणं, स्वभावमात्रानुबन्धित्वात् । * कोहे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय ।
६ २५१. ण एत्थ वत्तव्यमस्थि । कुदो' ? विस्ससादो। केत्रियमेतो विसेसो ? आवलि. असंखे०भागपडिभागियपयडिविसेसमेत्तो।
* मायाए जहएणपदे ससतकम्म विसेसाहिय । $ २५२. एत्थ कारणमणंतरपरूविदत्तादो सुगमं । * उससे अप्रत्याख्यात क्रोधमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
$ २४७. यहाँपर कुछ भी वक्तव्य नहीं है, क्योंकि प्रकृतिविशेष मात्र ही विशेष अधिक होनेका कारण है।
* उससे अप्रत्याख्यान मायामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ २४८. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि कारणका अनन्तर पूर्व कथन कर आये हैं। * उससे अप्रत्याख्यान लोभमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ २४६. यहाँ पर कारणका कथन सुगम है। * उससे प्रत्याख्यान मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । ६ २५०. यहाँ पर कारण सुगम है, क्योंकि वह स्वभावमात्रका अनुबन्धी है। * उससे प्रत्याख्यान क्रोधमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
$ २५१. यहाँ पर कुछ वक्तव्य नहीं है, क्योंकि प्रत्याख्यान क्रोधमें प्रदेशसत्कर्म स्वभावसे अधिक है। विशेषका प्रमाण कितना है ? प्रत्याख्यानमानके जघन्य द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना इस प्रकृतिमें विशेषका प्रमाण है।
* उससे प्रत्याख्यान मायामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । ६२५२ यहाँ पर कारण सुगम है, क्योंकि उसका अनन्तर पूर्व कथन कर आये हैं।
1. भा०प्रतौ 'विसेसाहियं । कुदो' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* लोभे जहणपद ससंतकम्मं विसेसाहियौं ।
९ २५३. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । एदम्हादो चेव रागाइअ विज्जीसंघुत्तिण जिणवरवयणादो | ण च तारिसे आरिसकारएसु चप्पलस्स संभवो, विरोहादो |
१२०
* इत्थवेद जहण पदे सस तकम्म मांतगुणं
$ २५४. कथं सम्मत्तपाहम्मेण बंधविरहिदसरूवत्तादो आएण विणा तेत्तीस - सागरो मेसु गलिदावसिद्वस्सेदस्स पुव्विल्लादो तब्बिवरीदसरूवादो अनंतगुणसमिदि णासंकणिज्ज, देसघाइत्तेण सुलहपरिणामिकारणस्सेदस्स तदो तप्पडिणीयसहावादो अनंतगुणत्तस्स नाइयत्तादो ।
[ पदेसविहत्ती ५
*
सयवेद जहण पद सस तकम्मं संखेज्जगुणं ।
$ २५५. दोन्हमेदासि पयडीणं पुव्वुत्त कालब्भंतरे सरिसीसु वि गुणहाणीसु गलिदास बंधगद्धावसेण पुव्विल्लजहण्णदव्वादो एदस्स संखेज्जगुणत्तं ण विरुज्झदे । से सुगमं ।
* पुरिसवेद जहण्णपदे सस तकम्म 'मस खेज्जगुणं ।
* उससे प्रत्याख्यान लोभमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
$ २५३. ये सूत्र सुगम हैं, क्योंकि रागादि अविद्यासंघसे उत्तीर्ण हुए जिनवर के ये वचन हैं। आर्षकर्ता जिनवरोंके उस प्रकार होनेपर उनमें चपलता सम्भव नहीं है, क्योंकि उनके ऐसा होने में विरोध आता है ।
* उससे स्त्रीवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म अनन्तगुणा है ।
९ २५४. शंका -- एक तो सम्यक्त्वकी प्रमुखतासे बंधनेवाली प्रकृतियों से यह विरुद्धस्वभाववाली हैं। दूसरे आय के बिना तेतीस सागर कालके भीतर गलकर यह अवशिष्ट रहती है, इसलिए भी यह पूर्वोक्त प्रकृतिकी अपेक्षा उससे विपरीत स्वभाववाली है, अतएव यह प्रत्याख्यान लोभसे अनन्तगुणी कैसे हो सकती है ?
समाधान- ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि देशघाति होनेसे तथा सुलभ परिणाम कारक यह प्रकृति होनेसे यह प्रत्याख्यान लोभसे प्रत्यनीक स्वभाववाली है, अतः इसके द्रव्यका अनन्तगुणा होना न्यायप्राप्त है ।
* उससे नपुंसकवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है ।
$ २५५ इन दोनों ही प्रकृतियोंकी पूर्वोक्त कालके भीतर समान गुणहानियोंका गलन होता है तो भी बन्धक कालवश पूर्वोक्त प्रकृतिके जघन्य द्रव्यसे इसका द्रव्य संख्यातगुण होता है इसमें कोई विरोध नहीं है । शेष कथन सुगम है ।
* उससे पुरुषवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है ।
१. ताप्रतौ 'रागाइअव [वि] जा-', श्रा०प्रतौ 'रागाइ श्रवज्जा-' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा
३२५६. एत्थ गुणगारो तेत्तीससागरोवमणाणागुणहाणिसलागाणंमण्णोण्णभत्थरासी संखेजरूवोवट्टिदोकड्ड क्कड्डणभागहारगुणिदो, असएिणपच्छायदपदमपुढविणेररइयम्मि वोलाविदपडिवक्खबंधगदम्मि पत्तजहएणभावचे अगलिदअंतोमुहुराणतेत्तीससागरोवममेत्तणिसेगस्स पुचिल्लादो तप्पडिवक्रवसहावादो तावदि गुणते विरोहागुवलंभादो।
ॐ हस्से जहएणपदेससंतकम्मं संखेज गुणं ।
$ २५७. एत्थ कारणं बधगदाए संखेजगुणतं । ण च बंधगदाणुरूवो ण होइ, विरोहादो।
ॐ रदीए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । २५८. पयडिविसेसो एत्थ पच्चओ सुगमो । ® सोगे जहएणपदेससंतकम्म संखेजगुणं । $२५६. वंधगद्धावसेण । 8 अरदीए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ २६०. पयडिविसेसवसेण ।
* दुगु छाए जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
६२५६. यहाँ पर गुणाकारका प्रमाण अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारमें संख्यातका भाग देकर जो लब्ध आवे उससे तेतीस सागरकी नामागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिके गुणित करने पर जो गुणनफल प्राप्त हो उतना है, क्योंकि असंज्ञियोंमेंसे आकर पहली पृथिवीके नारकीमें प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धककालके व्यतीत होने पर जघन्यपनेके प्राप्त होनेसे अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरप्रमाण इस निषेकका पहलके उसके प्रतिपक्ष स्वभाव निषेकसे उतना गुण होनेमें कोई विरोध नहीं आता है।
* उससे हास्यमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है ।
६२५७. इसका कारण बन्धक कालका संख्यात होना है। और बन्धककालके अनुरूप सञ्चय नहीं होता है यह बात नहीं है, क्योंकि बन्धककालके अनुरूप सञ्चय नहीं होने पर विरोध आता है।
* उससे रतिमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६२५८. प्रकृतिविशेष ही यहाँ पर कारण है, इसलिए वह सुगम है । * उससे शोकमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। । २५६. क्योंकि उसका कारण बन्धककाल है।। * उससे अरतिमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ६२६०. क्योंकि इसका कारण प्रकृतिविशेष है। * उससे जुगुप्सामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
९ २६१. धुवबंधितेण हस्स- रइवंधगद्धाए वि एदिस्स बंधुलंभादो ।
* भए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
९२६२. दोन्हं पि मोहणीयस्स दसमभागते कुदो हीणाहियभावो १ न पयडिविसेसमस्सियूण तहा भावुवलं भादो ।
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* माणसंजलणे जहणपदेस संतकम्मं विसेसाहिय । ९ २६३. मोहणीयसव्वदव्वस्स अट्ठमभागत्तादो ।
* कोहस जलणे जहणपदेस संतकमं विसेसाहिय ं । * मायास जळणे जहणपद ससंतकम्म' विसेसाहियौं । * लोहसंजलणे जहणपदे सस तकम्म' विसेसाहिय ।
[ पदेसविहत्ती ५
२६४. एदाणि तिरिण वि सुत्ताणि अन्यंतरीकयपयडिविसेसकारणाि सुगमाणि । संपहि देण गिरयगइ सामण्ण पडिबद्ध जहण्णप्पा बहुअदंडएण सगंतो - णिक्खित्तासेस णिरय गइ मग्गणावयणेण पुध पुध सत्तण्हं पि पुढवीणमप्पा बहुअं परुविदं चेव । णवरि सामित्त विशेसो तदनुसारेण च गुणयारविसेसो णायव्वो । णत्थि अण्णा विसेस |
एवं णिरयगइजहण्णदंडओ समतो |
$ २६१. क्योंकि यह ध्रुवबन्धिनी प्रकृति होनेसे हास्य और रतिके बन्धकाल में भी इसका बन्ध पाया जाता है।
* उससे भयमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
९२६२. शंका – ये दोनों प्रकृतियाँ मोहनीयके दसवें भागप्रमाण हैं, इसलिए इनके प्रदेशों में हीनाधिकपना कैसे बन सकता है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि प्रकृतिविशेष के आश्रयसे उस प्रकार हीनाधिकरूपसे प्रदेश पाये जाते हैं ।
* उससे मानसं ज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
$ २६३, क्योंकि मोहनीयके सब द्रव्यके आठवें भागप्रमाण इसका द्रव्य है । * उससे क्रोधसंज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । * उससे मायासंज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
* उससे लोभसंज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
$ २६४. ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं, क्योंकि इन सूत्रोंमें जितना अल्पबहुत्व कहा है वे अलग अलग प्रकृतियाँ हैं । अब समस्त नरकगतिके अन्तर्भेद नरकगतिमें अन्तलीन हैं, इसलिए नरकगति सामान्यसे सम्बन्ध रखनेवाले इस अल्पबहुत्व दण्डकके द्वारा अलग अलग सातों ही पृथिवियोंका अल्पबहुत्व कह ही दिया है। इतनी विशेषता है कि स्वामित्वविशेष जान लेना चाहिए । यहाँ अन्य कोई विशेषता नहीं है ।
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गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा
8 जहा णिरयगईए तहा सव्वासु गईसु ।
६२६५. एदस्स अप्पणामुत्तस्स आलावसामण्णमवेक्खिय पयट्टस्स सामित्ततदणुसारिगुणगारविसेसणिरवेक्खस्स अत्थपरूदणा अवहारिय सामित्तविसेसाणं सुगमा। एदेण गइसामण्णप्पणासुत्रेण मगुसगईए वि णिरओघभंगे 'अइयप्पसत्ते तव्वुदासदुवारेण तत्थ अववादपरूवणहमुत सुत्तं भणदि
ॐ णवरि मणुसगदीए ओघं ।
६२६६. एत्थ णवरि सद्दो पुयिल्लप्पणादो एदस्स विसेसमूचओ। को सो विसेसो ? मणुसगईए ओघभिदि मणुसगइओघालावमणाहियं लहदि ति वुत्तं होइ । तदो ओघालावो अणणाहिओ एत्थ काययो, मणुसगइसामण्णप्पणाए तदविरोहादो। विसेसप्पणाए पुण अत्थि भेदो, मणुसपज्जचएसु सुवदो बहिब्भूदइत्थिवेदोदएम णसयवेदस्सुवरि ओघम्मि विसेसाहियभावेण पदिदइत्थिवेदस्स चरिमफालिमाहप्पेण असंखेज्जगुणत्तु वलंभादो । मणुसिणीसु वि माणसंजलस्सुवरि मायासंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । इथिवेदे जहण्णपदेससंतकम्मं असंखेज्जगुणं; गुणसेढीए पाहणियादो। गqसयवेदे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेज्जगुणं, वेछावहीण
* जिस प्रकार नरकगतिमें अल्पबहुत्व है उसी प्रकार सब मार्गणाओंमें जानना चाहिए।
६२६५. स्वामित्व और उसके अनुसार गुणकारविशेषकी अपेक्षा किये बिना आलापसामान्यकी अपेक्षा प्रवृत्त हुए इस अर्पणा सूत्रकी अर्थप्ररूपणा सुगम है। इस गतिमार्गणासबन्धी अर्पणासूत्रके श्राश्रयसे मनुष्यगतिमें भी सामन्य नारकियोंके समान भङ्गका अतिप्रसङ्ग प्राप्त होने पर उसके निराकरण द्वारा वहाँ पर अपवादका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिमें ओघके समान भा है। ६ २६६. यहाँ पर 'णवरि' शब्द पहलेके सूत्रसे इसमें विशेषका सूचक है। शंका-वह विशेष क्या है ?
समाधान-'मनुष्यगतिमें ओघके समान है' ऐसा कहनेसे मनुष्यगतिमें ओघ आलाप न्यूनाधिकतासे रहित होकर प्राप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, इसलिए न्यूनता और अधिकतासे रहित ओघ आलाप यहाँ करना चाहिए, क्योंकि मनुष्यगति सामान्यकी विवक्षा होने पर उसमें ओघ आलापके घटित होनेमें विरोध नहीं आता। विशेषकी विवक्षा होनेपर तो भेद है ही, क्योंकि स्त्रीवेदके उदयसे रहित मनुष्यपर्याप्तकोंमें नपुंसकवेदके ऊपर अोधमें विशेष अधिकरूपसे प्राप्त हुआ स्त्रीवेद अन्तिम फालिके माहात्म्यसे असंख्यातगुणा उपलब्ध होता है। मनुष्यिनियोंमें भी मान संज्वलनके ऊपर माया संज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। उससे स्त्रीवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है, क्योंकि यहाँ पर गुणनेणिकी प्रधानता
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जयधवलाहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ मगलणादो अधापवत्तचरिमसमए देसूणपुवकोडिणिज्जरादवपरिहीणसगसयलदव्वेण सह जहण्णसामित्तविधाणादो । हस्से जहण्णपदेससंतकम्म संखेजगुणं, दोण्हं । पि देसूणपुचकोडिणिज्जराए सरिसीए संतीए बंधगद्धावसेण संखेज्जगुणत्तवलंभादो त्ति । एसो च विसेसो दव्वहियणयमस्सियूण सुत्त यारेण ण विवक्खिओ। पज्जवहियणयावलंबणे पुण वक्खाणाइरिएहिं वक्खाणेयव्वो, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति न्यायात् । सुगममन्यत् । संपहि सेसमग्गणाणं देसामासियभावेण इंदियमग्गणावयबभूदएइंदिएसु जहण्णप्पाबहुअपरूवणहमुत्तरमुत्तपबंधमाह
* एइंदिएसु सव्वत्थोवं सम्मत्तं जहणणपदे ससतकम्मं ।
६ २६७. कुदो ? खविदकम्मंसियस्स भमिदवेछावहिसागरोवमस्स दीहुव्वेल्लणकालदुचरिमसमए वट्टमाणस्स दुसमयकालहिदिएयणिसेयहिदमुटु त्थोवयरजहण्णदव्वग्गहणादो
* सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदे ससतकम्ममसंखेजगुणं ।
२६८. एत्थ कारणमोघसिद्धं । गुणगारो च सुगमो ।
* अणंताणुबंधिमाणे जहएणपदेससंतकम्ममसंखेज गणं । है। उससे नपुंसकवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म अन्तिम फालिके कारण असंख्यातगुणा है । उससे पुरुषवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है, क्योंकि दो छयासठ सागर प्रमाण निषेकोंके नहीं गलनेसे अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण निर्जराको प्राप्त हुए द्रव्यसे हीन अपने समस्त द्रव्यके साथ जघन्य स्वामित्वका विधान किया गया है । उससे हास्यमें जघन्य प्तदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है, क्योंकि दोनों ही कर्मोंकी कुछ कम एक पूर्वकोटिकाल तक होनेवाली निर्जराके समान होते हुए भी बन्धक कालके वशसे पुरुषवेदके जघन्य प्रदेशसत्कमसे हास्यका जघन्य प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा उपलब्ध होता है। इस प्रकारके इस विशेषकी द्रव्याथिकनयका आश्रय लेकर सूत्रकारने विवक्षा नहीं की है। परन्तु पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन लेकर व्याख्यानाचार्यको व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि व्याख्यानसे विशेष प्रतिपत्ति होती है ऐसा न्यायवचन है। शेष कथन सुगम है । अब शेष मार्गणाओंके देशामर्षकरूपसे इन्द्रियमार्गणाके अवान्तर भेद एकेन्द्रियोंमें जघन्य अल्पबहुत्वके कथन करनेके लिए आगेके सूत्रकलापको कहते हैं
* एकन्द्रियोंमें सम्यक्त्वमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म सबसे स्तोक है।
६२६७. क्योंकि जो क्षपितकांशिक जीव दो छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण कर चुका है उसके दीर्घ उद्वेलनकालके द्विचरम समयमें विद्यमान रहते हुए दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकमें स्थित अत्यन्त स्तोकतर जघन्य द्रव्यका ग्रहण किया है ।
* उससे सम्यग्मिथ्यात्वमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है । ६२६८. यहां पर कारण ओघके समान सिद्ध है और गुणकार भी सुगम है। * उससे अनन्तानुबन्धी मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है ।
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गा०२२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पा बहुअपरूवणा
९ २६६ को गुणगारो ! वेछावद्विसागरोवमदीहुव्वेन्लणकालणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासी गुणसंकमोड्ड कड्डणभागहारच रिमफालीहि गुणिय अधापवत्तभागहारेणोवट्टिदो । कुदो १ खबिदकम्मं सियस्स अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्पियस्स तसे सुप्पज्जिय विसंजोइ अनंताणुबंधिचउकस्स पुणो अंतोमुहुत्त संजुत्तस्स फलाभावेण अभमादिदवेद्यावद्विसागरोवमस्स एईदिए मुप्पण्णपढमसमए जहण्णसामित्तपरूवणादो । कुदो वेळावद्विसागरोवमपरिब्भमणे फलाभावो १ ण, एइंदिएसपत्तिअण्णहाणुववत्तीए । पुणो विमिच्छतं गच्छमाणेण अधापवत्तेण पडिविज्जमाणdaraहिसागरोवमन्तरसं चिददिवङ्गुणहाणिगुणिदपंचिंदिय समयपबद्धमेत्त से सकसाय-दव्वस्स पुव्वपरूविदसामियजहण्णदव्वादो जोअगुणगारमाहप्पेण असंखेज्जगुणतेण फलावलं भादो । निरयगईए बि अनंताणुबंधिचक्कसामियस्स अपरिब्भमिदdara सागरोवमस्स एइंदियजहण्णसंतकम्मेणेव पवेसणे एदं चैव कारणं वत्तन्वं, तत्थेव इत्थवेदजहण्णसंतकम्मादो बंधगद्धावसेण णवुंसयवेदजहण्णसंतकम्मस्स संखेज्ज - गुण एवं तिपलिदो मछावह्निसागरोवमाणमपरिब्भमणं कारणत्तणं परूवेयव्वं ।
$ २६६. गुणकार क्या है ? दो छयासठ सागरोपम दीर्घं उद्वेलन कालके भीतर प्राप्त नाना गुहानि शलाकाकी अन्योन्याभ्यस्त राशिको गुणसंक्रमभागहार, अपकर्षण- उत्कर्षरणभागहार और अन्तिम फालिसे गुणित करके अधःप्रवृत्तभाहारका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना गुणकार है, क्योंकि जो क्षपितकर्माशिक जीव अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्म करके नसों में उत्पन्न हुआ । पुनः अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके और अन्तर्मुहूर्त में उससे संयुक्त होकर कोई लाभ न होनेसे दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण किये बिना एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ है उसके वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समय में जघन्य स्वामित्वका कथन किया है ।
शंका- दो छयासठ सागर कालके भीतर परिभ्रमण करना निष्फल क्यों है ?
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समाधान नहीं, क्योंकि अन्यथा उसकी एकेन्द्रियोंमें उत्पत्ति बन नहीं सकती है । फिर भी मिथ्यात्व में जाकर अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा संक्रमणको प्राप्त हुए और दो छयासठ सागर कालके भीतर सञ्चित हुए डेढ़ गुणहानिगुणित पञ्चोन्द्रियके समयप्रबद्धमात्र शेष कषायों के द्रव्यके पहले कहे गये स्वामित्वविषयक जघन्य द्रव्यसे योग गुणकारके माहात्म्य वश असंख्यात - गुणे होनेके कारण कोई फल नहीं उपलब्ध होता ।
नरकगति में भी अनन्तानुबन्धीचतुष्कका स्वामित्व कहते समय उसे दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण न करा कर एकेन्द्रियोंमें जघन्य सत्कर्मरूपसे प्रवेश कराने में यही कारण कहना चाहिए। तथा वहीं स्त्रीवेदके जघन्य सत्कर्मसे बन्धक काल वश नपुसंकवेदके जघन्य सत्कर्मके संख्यातगुणे होने पर इसी प्रकार तीन पल्य और दो छ्यासठ सागर कालके भीतर परिभ्रमण नहीं करना कारणरूपसे कहना चाहिए ।
१ ता०प्रतौ - मपरिग्भमणकारणत्तेय' इति पाठ: ।
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حجر مهمی در سر می
میعی بی بی بی کی جو بیع عیب عجمی کی بی بی بی بی بی بی بی کی صحیح
جرجرج جرحی مجیح
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ॐ कोहे जहष्णपदे ससतकम्म विसेसाहिय । ॐ मायाए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । 8 लोभे जहणणपदेससंतकम्म विसेसाहिय।
$ २७०. एदाणि मुत्ताणि सगंतोविरवत्तपयडिविसेसपच्चयाणि सुगमाणि त्ति ण वक्रवाणायरो कीरदि।
ॐ मिच्छत्त जहणणपदे ससतकम्ममस खेज्जगुणं ।
$ २७१. एत्थ चोदओ भणइ-जहा तुम्हेहि पुविल्लमणंताणुबंधीणं जहण्णसामित्तं परूविदं तहा मिच्छतादो तेसि जहण्णपदेससंतकम्मेणासंखेज्जगुणेण होदव्वं, मिच्छत्तस्स वेछावडीओ भमादियसम्मत्तादो परिवडिय एइदिएसुप्पण्णपढमसमए जहण्णसामित्तदंसणादो तेसिमण्णहा सामित्तविहाणादो च । ण च मिच्छत्तजहण्णसामिणा वि वेछावहिसागरोवमाणि ण हिंडिदाणि ति वोत जुत्तं, अण्णहा तस्स जहण्णभावाणुक्वत्तीदो तदपरिब्भमणे कारणाणुवलंभादो च । एदम्हादो उबरिमअपञ्चक्रवाणमाणजहण्णपदेससंतकम्मस्स असंखेज्जगुणत्तण्णहाणुववत्तीए च तस्सिद्धीदो। ण च अधापवत्तभागहारादो वेछावहिसागरोवमभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थ
* उससे अनन्तानुबन्धी क्रोध जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धी मायामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धी लोभमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
$ २७०. उत्तरोत्तर विशेष अधिक होनेका कारण प्रकृतिविशेष होना यह बात इन सूत्रोंमें ही गर्भित होनेसे ये सुगम हैं, इसलिए इनका व्याख्यान नहीं करते हैं।
* उससे मिथ्यात्वमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है।
६ २७१. शंका-यहाँ पर प्रश्न करनेवाला कहता है कि जिस प्रकार तुमने पहले अनन्तानुबन्धियोंका जघन्य स्वामित्व कहा है उसी प्रकार मिथ्यात्वसे उनका जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा होना चाहिए, क्योंकि सम्यक्त्वके साथ दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके और मिथ्यात्वमें गिर कर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें मिथ्यात्वका जघन्य स्वामित्व देखा जाता है और अनन्तानुबन्धियोंका इससे अन्यथा प्रकारसे जघन्य स्वामित्वका विधान किया है। यदि कहा जाय मिथ्यात्वका जघन्य स्वामी भी दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण नहीं करता है सो उसका ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा नहीं मानने पर मिथ्यात्वका जघन्यपना नहीं बन सकता है, दूसरे दो छयासठ सागरके भीतर परिभ्रमण नहीं करनेका कारण उपलब्ध नहीं होता। इससे तथा आगे जो अप्रत्याख्यान मानका जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यतगुणा कहा है वह अन्यथा बन नहीं सकता इससे भी उक्त कथनकी सिद्धि होती है। कोई कहे कि उत्कर्षणभागहारके द्वारा उत्पन्न की गई दो छयासठ सागर कालके भीतर जो नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि है वह अधःप्रवृत्तभागहारसे
१. ता०प्रतो '-पच्छयाणि' इति पाठः ।
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गा०२२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूपणा
१२७ रासीए उक्कड्डणभागहारपदुप्पणाए असंखेजगुणहीणत्तावलंबणेण पयददोसपरिहारो समंजसो, तत्तो तिस्से असंखेजगुणत्तपदुप्पाययउवरिमप्पाबहुअदंडएण सह विरोहप्पसंगादो। वेलावहिसागरोवमणाणागुणहाणिसलागाणं पि तत्थ तत्तो भसखेजगुणतुवलंभादो उव्वेल्लणकालणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासीदो वि तस्सासंखेज्जगुणहीणत्तस्साणंतरमेव परूविदत्तादो च । तम्हा सामित्ताहिप्पारणेवंविहेण हेछ वरि णिवदेयव्वमेदेणप्पाबहुएण ? तहाभुवगमो जुज्जंतओ, मुत्तेणेदेण सह विरोहादो। ण चेदमण्णहा काउं सक्किज्जइ, जिणाणमणण्णहावाइत्तादो। तदो ण पुव्वुत्तमणंताणुबंधिजहण्णसामित्तगुणगारो वा घडतओ त्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-- सच्चमेवेदं जइ सामित्तं तहाविहमेत्थ जहणतणावलंबियं, तत्थ समणंतरपरूविददोसस्स परिहरेउमसक्कियत्तादो । किं तु अणंताणुबंधीणं पि मिच्छत्तस्सेव वेछावहीओ भमाडिय जहण्णसामित्तविहाणेण पयददोसपरिहारो दहव्वो, तस्स गिरवज्जत्तादो। ण एत्थ वि पुवपरूविददोसो आसंकणिज्जो, वयाणुसारिआयावलंबणेण तस्स परिहारादो। ण संजुत्तावत्थाए वि एस पसंगो, तदण्णत्थ एवं विहणियमभुवगमादो भमिदवेछावहिअसंख्यातगुणी हीन होती है, अतः इस बातका अवलम्बन लेनेसे प्रकृत दोषका परिहार बन जायगा सो उसका ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक तो इस कथनका उससे अर्थात् अधःप्रवृत्तभागहारसे उसे अर्थात् दो छयासठ सागर कालके भीतर प्राप्त हुई अन्योन्याभ्यस्त राशिको असंख्यातगुणा उत्पन्न करनेवाले उपरिम अल्पबहुत्वदण्डकके साथ विरोधका प्रसङ्ग आता है, दूसरे वहाँ पर दो छयासठ सागर कालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाऐं भी उससे असंख्यातगुणी, उपलब्ध होती हैं, तीसरे उद्वेलन कालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे भी वह अधःप्रवृत्तभागहार असंख्यातगुणा हीन होता है यह अनन्तर पूर्व ही कह आये हैं, इसलिए स्वामित्वके अभिप्रायके अनुसार इस अल्पबहुत्वको इस प्रकार अर्थात् हमारे द्वारा बतलाई गई विधिके अनुसार आगे पीछे रखना चाहिए । परन्तु वैसा मानना युक्त नहीं है, क्योंकि इस सूत्रके साथ विरोध आता है और इस सूत्रको अन्यथा कर नहीं सकते, क्योंकि जिनेन्द्रदेव अन्यथावादी नहीं होते। इसलिए अनन्तानुबन्धीके जघन्य स्वामित्वका पूर्वोक्त गुणकार घटित नहीं हाता ? ।
समाधान-अब यहाँ पर इस शंकाका परिहार करते हैं-यह सत्य ही है यदि उस प्रकारके.जघन्य स्वामित्वका यहाँ पर अवलम्बन किया जावे, क्योंकि उस प्रकारसे जघन्य स्वामित्वके अवलम्बन करने पर अनन्तर पूर्व कहे गये दोषका परिहार करना अशक्य है। किन्तु मिथ्यात्वके समान ही दो छयासठ सागर कालके भीतर परिभ्रमण कराकर अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य स्वामित्वका विधान करनेसे प्रकृत दोषका परिहार जान लेना चाहिए, क्योंकि यह कथन निर्दोष है। यदि कोई यहाँ पर भी पहले कहे गये दोषकी आशंका करे तो उसका ऐसा करना ठीक नहीं है, क्योंकि व्ययके अनुसार आयका अवलम्बन करनेसे उसका परिहार हो जाता है। संयुक्तावस्थामें भी यही प्रसङ्ग श्राता है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि एक तो उस
१. 'ता०प्रतौ पदुप्पाइय उवरिम' इति पाठः । २. ताप्रती 'ण तस्थ वि' इति पाठः ।
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१२८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सागरोवमखविदकमंसियम्मि तहाविहणियमावलंबणादो च । जइ एवं, णिरयगईए मिच्छत्ताणताणुबंधीणं वेलावहीओ भमादिय परिणामपञ्चएण मिच्छत्तं दूण रईएमप्पाइय तेत्तीससागरोवमाणि थोवृणाणि सम्मत्तमणुपालाविय जहण्णसामित्तं दायव्वमिदि ? ण एवं पि दोसाय, विरोहाभावेण तहाभुवगमादो। ण च वेछावहिसागरोवमाणि परिभमिदस्स तेत्तीससागरोवमपरिब्भमणासंभवेण पञ्चवह यं, वेछावहिबहिब्भदसागरोवमपुधत्तमेत्तसम्मत्त कालपरूवयसंकमसामित्तमुत्तवलेण तदविरोहसिद्धीए ण सो पसंगो। इत्थि-णqसयवेदाणमादेसजहण्णसामियस्स वि तत्थुवएसंतरमस्सियूण पयारंतरेण सामित्तविहाणादो। तं जहा---एत्थ बे उवएसा एक्को ताव सव्वासिं बंधपयडीणमाएण वयाणुसारिणा होदव्वमिदि । अण्णेगो णायाणुसारी वओ, वयाणुसारी वा आओ। किंतु सव्वपयडीणमप्पप्पणो मूलदव्वाणुसारेण समयाविरोहण संकमो होइ त्ति। तत्थ पढमोवएसमस्सिदूण पयट्टमेदं मिच्छत्ताणताणुबंधीणमादेसजहण्णसामित्तप्पाबहुगं च इत्थि-णqसयवेदाणमोघजहण्णसामित्तं पि तदणुसारी चेव ।
अवस्थाके सिवा अन्यत्र इस प्रकारका नियम स्वीकार किया गया है। दूसरे जो क्षपितकर्माशिक जीव दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर चुका है उसके उस प्रकारके नियमका अवलम्बन लिया गया है।
शंका--यदि ऐसा है तो दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करा कर और परिणामोंके निमित्तसे मिथ्यात्वमें ले जाकर तथा नारकियोंमें उत्पन्न कराकर कुछ कम तेतीस सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन कराकर नरकगतिमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य स्वामित्व देना चाहिए ?
समाधान—यही भी दोषाधायक नहीं है, क्योंकि विरोधका अभाव होनेसे उस प्रकारसे उक्त प्रकृतियोंका जघन्य स्वामित्व स्वीकार किया है। यदि कोई कहे कि जो दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करता रहा है उसका तेतीस सागर काल तक परिभ्रमण करना असम्भव है सो ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दो छयासठ सागरप्रमाण कालके बाहर सागर पृथक्त्वप्रमाण सम्यक्त्वके कालका कथन करनेवाले संक्रमस्वामित्वसूत्र के बलसे उक्त कथन अविरोधी सिद्ध होनेसे उक्त दोषका प्रसङ्ग नहीं आता है । तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके आदेश जघन्य स्वामीका भी वहाँ पर उपदेशान्तरका आश्रय लेकर प्रकारान्तरसे स्वामित्वका विधान किया है । यथा-इस विषयमें दो उपदेश हैं-प्रथम उपदेश तो यह है कि सब बन्ध प्रकृतियों के व्ययके अनुसार आय होना चाहिए । दूसरा उपदेश यह है कि आयके अनुसार व्यय नहीं होता तथा व्ययके अनुसार आय भी नहीं होता किन्तु सब प्रकृतियोंका अपने अपने मूल द्रव्यके अनुसार आगममें प्रतिपादित विधिके अनुसार संक्रम होता है । उनमेंसे प्रथम उपदेशके अनुसार मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धियोंका आदेश जघन्य स्वामित्वविषयक अल्पबहुत्व प्रवृत्त हुआ
१. ता०प्रतौ 'वयाणुसारी प्रायो' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'जहरणं वि सामित्तं तदणुसारी' इति पाठः।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूपणा
१२६ तत्थ सोदएण साभित्तविहाणटुं वेछावडीओ भमाडिय मिच्छत्तढोवणादो तेसिमेव जहण्णसामित्तमादेसपडिबद्धं विदियउवएसावलंबणेण पयट्ट, तत्थ तदणुसारेणेवप्पाबहुअपरूवणुवलंभादो । तम्हा अहिप्पायभेदमिममासेज्ज सव्वत्थ मुत्ताणमविरोहो घडावेयव्वो त्ति ण किंचि दुग्घर्ड पेच्छामो। तदो सिद्धमायाणुसारिवयावलंबिसामित्तावलंबणेणाणताणुबंधिलोभादो मिच्छत्तमसंखेजगुणमिदि । एत्थ गुणगारो अधापवत्तभागहारो पुवमुत्ते वि उव्वेल्लण०णाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासीदो असंखेज्जगुणो त्ति घेत्तव्बो, हेहिमरासिणा उवरिमरासिम्मि भागे हिदे तहोवलंभादो ।
* अपचक्खामाणे जहण्णपदेससंतकम्मस खेजगणं ।
२७२. एत्थ गुणगारो वेछावहिसागरोवमणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासीदो असंखे०गुणो।
कोधे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । * मायाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ॐ लोभे जहण्णपद ससंतकम्म विसेसाहियं । $ २७३. एदाणि मुत्ताणि सुटु सुगमाणि ।
है। तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका ओघ जघन्य स्वामित्व भी उसीके अनुसार प्रवृत्त हुआ है। उनमेंसे स्वोदयसे स्वामित्वका कथन करनेके लिए दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कराकर मिथ्यात्वका संक्रमण हो जानेसे उन्हींका आदेशप्रतिबद्ध जघन्य स्वामित्व द्वितीय उपदेशका अवलम्बन लेकर प्रवृत्त हुआ है, क्योंकि वहां पर उसीके अनुसार ही अल्पबहुत्वका कथन उपलब्ध होता है, इसलिए इस भिन्न अभिप्रायका आश्रय लेकर सर्वत्र सूत्रोंमें अविरोध स्थापित कर लेना चाहिए, इसलिए हम कुछ भी दुर्घट नहीं देखते हैं।
इसलिए सिद्ध हुआ कि आयके अनुसार व्ययका अवलम्बन लेनेवाले स्वामित्वका अवलम्बन लेनेसे अनन्तानुषन्धी लोभसे मिथ्यात्वका द्रव्य असंख्यतगुणा है। यहां पर गुणकार अधःप्रवृत्तभागहार है जो पहलेके सूत्रमें भी उद्वेलन भागहारकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे असंख्यातगुणा है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अधःस्तन राशिका उपरिम राशिमें भाग देने पर उसकी उपलब्धि होती है।
* उससे अप्रत्याख्यान मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है।
$ २७२. यहाँ पर गुणकार दो छयासठ सागरकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे असंख्यातगुणा है।
* उससे अप्रत्याख्यान क्रोधमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यान मायामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यान लोभमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ २७३. ये सूत्र अत्यन्त सुगम हैं।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे - [पदेसविहत्ती ५ ॐ पञ्चक्खाणमाणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । * कोहे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । * मायाए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । * लोहे जहणणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ २७४. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि। * पुरिसवेदे जहण्णपदेससंतकम्ममणंतगुणं । $ २७५. कुदो ? देसघाइत्तादो बहूणं परिणामिकारणाणमुवलंभादो । * इत्थिवेद जहण्णपदेससतकम्म संखेज्जगुणं।
$ २७६. कुदो ? पुरिसवेदबंधगदादो इत्थिवेदबंधगदाए संखे०गुणत्तादो । एत्य चोदओ भणइ, कथं वेछावहिसागरोवमाणि परिभमिय एइदिएमुप्पण्णपढमसमए जहण्णभावमुवगयस्सेदस्स तव्विवरीदसरूवादो पुरिसवेददव्वादो असंखेज्जगुणहीणत्तं मुच्चा संखेज्जगुणत्तं जुज्जदे । ण च एदमविवक्खिय एइंदियजहण्णसंतकम्मस्सेव संगहो त्ति वोत्तुं जुत्तं, एदम्हादो तस्स असंखे०गुणत्तेण जहण्णभावाणुववत्तीदो तदविवक्खाए फलाणुवलंभादो च । तदो ण एदं मुत्तं समंजसमिदि । एत्थ परिहारो वुच्चदे--ण एसो
* उससे प्रत्याख्यान मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यान क्रोधमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यान मायामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । * उससे प्रत्याख्यान लोभमैं जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ २७४. ये सूत्र सुगम हैं। * उससे पुरुषवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म अनन्तगुणा है । ६ २७५. क्योंकि देशघाति होनेसे इसके परिणमन करानेके बहुतसे कारण पाये जाते हैं। * उससे स्त्रीवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है। ६ २७६. क्योंकि पुरुषवेदके बन्धक कालसे स्त्रीवेदका बन्धक काल संख्यातगुणा है ।
शंका--यहाँ पर शंकाकार कहता है कि दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें जघन्य भावको प्राप्त हुआ वेद उसके विपरीत स्वभाववाला होनेसे पुरुषवेदके द्रव्यसे असंख्तातगुणे हीनको छोड़कर संख्यातगुणा कैसे बन सकता है। यदि कहा जाय कि इसकी अविवक्षा करके एकेन्द्रियके जघन्य सत्कर्मका ही संग्रह किया है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इससे एकेन्द्रियका जघन्य सत्कर्म असंख्यातगुणा होनेसे जघन्यभावकी उत्पत्ति नहीं हो सकती और उसकी अविवक्षा करनेमें कोई फल नहीं उपलब्ध होता, इसलिए यह सूत्र ठीक नहीं है ?
समाधान-यहाँ इस शंकाका परिहार करते हैं इस स्त्रीवेदके जघन्य स्वामीको दो
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ramarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr
गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा
१३१ इत्थिवेदजहण्णसामिओं वेछावहिसागरोवमाणि भमादेयव्यो, तब्भमणे फलाणुवलंभादो। सो च कुदो ? वेछावहिसागरोवमाणि परिभमिय सम्मत्तादो परिवडिय इत्थिवेदं बंधमाणस्स पुरिसवेदादो अधापवत्तभागहारेण इत्थिवेदम्मि संकममाणदव्वस्स असंखेज्जपंचिंदियसमयपबद्धमेत्तस्स एइंदियपाओग्गजहण्णपदेससंतकम्मं पेक्खियूण असंखेजगुणत्तादो । तं पि कुदो णव्वदे ? अधापवत्तभागहारादो जोगगुणगारस्स असंखेजगुणत्तपरूवयमुत्तादो। तदो एइंदियसंचयस्स पाहणियादो बंधगद्धावसेण संखेजगुणत्तमविरुद्धं सिद्धं ।
* हस्से जहण्णपदेससंतकम्म संखज्जगुणं ।
६ २७७. कुदो ? इत्थिवेदबंधगद्धादो एइंदिएम हस्स-रइबंधगदाए संखेजगुणत्तादो।
® रदीए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ६ २७८. पयडिविसेसेण ।
® सोगे जहण्णपदेससंतकम्म संखेज्जगुणं । छयासठ सागर काल तक नहीं घुमाना चाहिए, क्योंकि उस कालके भीतर घुमानेमें कोई फल नहीं पाया जाता।
शंका--यह किस कारणसे है ?
समाधान--क्योंकि दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके और सम्यक्त्वसे च्युत होकर स्त्रीवेदका बन्ध करनेवाले जीवके पुरुषवेदमेंसे अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा स्त्रीवेदमें संक्रमणको प्राप्त होनेवाला पञ्चन्द्रियके असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्य एकेन्द्रियके योग्य जघन्य प्रदेशसत्कर्मको देखते हुए असंख्यातगुणा होता है।
शंका-वह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-अधःप्रवृत्त भागहारसे योगगुणकार असंख्यातगुणा होता है ऐसा कथन करनेवाले सूत्रसे जाना जाता है।
इसलिए एकेन्द्रियके सञ्चयकी प्रधानता होनेसे बन्धक कालके वशसे पुरुषवेदके द्रव्यसे स्त्रीवेदका द्रव्य अविरोधरूपसे संख्यातगुण सिद्ध होता है।
* उससे हास्यमें जघन्य प्रदेशसत्कम संख्यातगुणा है।
६२७७. क्योंकि स्त्रीवेदके बन्धक कालसे एकेन्द्रियोंमें हास्य और रतिका बन्धक काल संख्यातगुणा है।
* उससे रतिमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ २७८. क्योंकि यह प्रकृतिविशेष है। * उससे शोकमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है ।
१. ता०प्रतौ 'ण एस दोसो इस्थिवेदजहएणसामियो' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'फलाणुवलंभादो चासो' इति पाठः।
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१३२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ $ २७६. बंधगदाए तहवहाणादो। 8 अरवीए जहएणपदेससंतकम विसेसाहियं । $२८०. पयडिविसेसादो। * णवुसयवेदे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
२८१. कुदो ? एइंदियअरदि-सोगबंधगद्धादो तत्थतणणqसयवेदबंधगदाए विसेसाहियत्तादो। केत्तियमेत्तो बंधगद्धाविसेसो ? हस्स-रदिबंधगद्धाए संखेज्जभागमेत्तो । तदणुसारेण च दव्वविसेसो परूवेयबो।
* दुगु छाए जहएणपद ससंतकम्मं विसेसाहियं । २८२. धुवबंधित्तादो। ॐ भए जहएणपदेससंतकम्म विसेसाहियं । २८३. पयडिविसेसेण तहावट्ठाणादो। 8 माणसंजलणे जहएणपदेससंतकम्म विसेसाहियं ।
8 २८४. मोहणीयदसमभागं पेक्खियूग तदहमभागस्स विसेसाहियत्ते संदेहाभावादो।
* कोहस जलणे जहएणपदेससंतकम्म विसेसाहियं । * मायास जलणे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ६२७६. क्योंकि बन्धक काल उस प्रकारसे अवस्थित है।
* उससे अरतिमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६२८०. क्योंकि यह प्रकृतिविशेष है। * उससे नपुसकवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
$ २८१. क्योंकि एकेन्द्रियोंमें अरति और शोकके बन्धक कालसे वहाँ पर नपुंसकवेदका बन्धक काल विशेष अधिक है। बन्धककाल विशेषका प्रमाण कितना है ? हास्य और रतिके बन्धककालके संख्यातवें भागप्रमाण है। और उसीके अनुसार द्रव्यविशेषका कथन करना चाहिए ।
* उससे जुगुप्सामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । ६ २८२. क्योंकि यह ध्रुवबन्धिनी प्रकृति है।
उससे भयमें जघन्य प्रदेशसत्कम विशेष अधिक है। $ २८३. क्योंकि प्रकृतिविशेष होनेसे उसका उस रूपसे अवस्थान है । * उससे मानसंज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है।
६२८४. क्योंकि मोहनीयके दसम भागको देखते हुए उसका आठवाँ भाग विशेष अधिक होता है इसमें सन्देह नहीं है।
* उससे क्रोध संज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । * उससे माया संज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
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१३३
गा० २२) उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे समुकित्तणा १३३
* लोभसंजलणे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ २८५. सुगमं ।
एदेण देसामासियदंडएण मूचिदसेसासेसमग्गणाओ अणुमग्गिदव्याओ जाव अणाहारि ति ।
एवमप्पाबहुअं समत्तं । ॐ एत्तो भुजगारं पदणिक्खेव वड्डीओ च कादव्वायो ।
६२८६. एत्तो उवरि भुजगारं परूविय तदो पदणिक्खेव-बड्डीओ कायवाओ त्ति उवरिमाणंतरसुत्तावकरयो सुत्तत्थसंबंधो कायव्यो । संपहि एदस्स अत्थसमप्पणासुत्तस्स सूचिदासेसपरूवणस्स दवटियणयावलंबिसिस्साणुग्गहकारिणो भगवदीए उच्चारणाए पसाएण पज्जवडियपरूवणं भणिस्सामो । तं जहा-भुजगारविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरसाणियोगदाराणि - समुक्त्तिणा जाव अप्पाबहुए त्ति । तत्थ समुक्कित्तणाणुगमेण दुविहो गिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसक०पुरिस-भय-दुगुंछाणमत्थि भुज० अप्प० अवहिदविहत्तियो। सम्म०-सम्मामि० अत्थि. भुज. अप० अवत्तव्यमवहिदं च । अणंताणुबंधिचउक्कस्स अस्थि भुज० अप्प० अवहिद० अवत्तव्वं । इत्थिवेद०-णबुंसय०-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमत्थि भुज० अप्प०विहत्तिओ। अवहिदं च उवसमसेढीए । एवं सव्वणेरइय--सव्वतिरिक्ख
* उससे लोभसंज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है ।
६ २८५. ये सूत्र सुगम हैं। इस देशामर्षकदण्डकका अवलम्बन लेकर अनाहारक मार्गणा तक समस्त मार्गणाओंका अनुमागंण करना चाहिए।
इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। * इससे आगे भजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि करनी चाहिए ।
२८६. इससे आगे भुजगारका कथन करके अनन्तर पदनिक्षेप और वृद्धिका कथन करना चाहिए इस प्रकार उपरिम अनन्तर सूत्रकी अपेक्षा करके इस सूत्रके अर्थका सम्बन्ध करना चाहिए। अब समस्त प्ररूपणाओंको सूचन करनेवाले और द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंका अनुग्रह करनेवाले और मुख्यरूपसे अधिकारका सूचन करनेवाले इस सूत्रकी भगवती उच्चारणाके प्रसादसे विशेष प्ररूपण करते हैं। यथा-भुजगार विभक्तिमें ये तेरह अनुयोगद्वार होते हैं-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक। उनमेंसे समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्ति है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्ति है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी भुजगार और अल्पतरविभक्ति है। तथा उपशमश्रेणिमें अवस्थितविभक्ति है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य, देव और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम
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१३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ सव्वमणुस्स-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवजा त्ति । णवरि मणुसतियवदिरित्तेसु इत्थि-णवंस-हस्स-रदि-अरदि-सोगाणमवहिदं णत्थि। अण्णं च पंचिं०तिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंछ. अत्थि भुज० अप्प० अवहि । सत्तणोकसायाणमत्थि भुज० अप्प० । सम्मत्त०-सम्मामि० अस्थि अप्पदरविहत्ती । अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क०इत्थि-णवूस० अत्थि अप्पदरविहत्ती । णवरि सम्म०-सम्मामि० भुजगारो वि दीसइ उवसमसेढीए कालं कादूण तत्थुप्पण्णउवसमसम्माइहिम्मि ति तमेत्थ ण विवक्खियं, तदविवक्रवाए कारणं जाणिय वत्तव्वं । बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ• अत्थि भुज० अप्प० अवहि । हस्स-रइ-अरइ-सोगागमत्थि भुज० अप्प०विहत्तिओ, उवसमसेढीदो अण्णत्थ एदेसिमवहिदपदाभावादो । एवं जाव अणाहारि ति ।
समुक्त्तिण, गदा । २८७. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्दे सो--ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छ० भुज०विहत्ती कस्स ? अण्णद० मिच्छाइद्विस्स । अवहि० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइहिस्स वा सासणसम्माइहिस्स वा। अप्प. कस्स ? अण्णद० सम्माइहिस्स वा मिच्छाइहिस्स वा। सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवत्त० कस्स ? प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकको छोड़कर शेषमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी अवस्थितविभक्ति नहीं है । और भीपञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्ति है। सात नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्ति है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्ति भी दिखलाई देती है जो उपशमश्रेणिमें मरकर वहाँ उत्पन्न हुए उपशमसम्यग्दृष्टिके होती है परन्तु उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है। उसकी विवक्षा न होनेका कारण जानकर कहना चाहिए। बारह कषाय, पुरुषवेद. भय और जगप्साकी भजगार. अल्पतर और अवस्थितविभक्ति है। हास्य, रति, अरति और शोककी भुजगार और अल्पतरविभक्ति है, क्योंकि उपशमश्रेणिके सिवा अन्यत्र इसका अवस्थितपद नहीं पाया जाता। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए।
इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई। ६२८७. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिके होती है। अल्पतरविभक्ति किससे होती है। अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके होती है। सम्यक्त्व
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गा० १२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे सामित्तं
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अण्णद० सम्माइद्विस्स । अवद्वि० कस्स ? अण्ण० सासणसम्माइद्विस्स | अध्य० कस्स ? अण्ण० सम्माइडि० मिच्छाइ हिस्स वा । अणंताणु० चउक्कस्स मिच्छत्तभंगो । वरि अव०ि कस्स ? अण्ण० मिच्छाइहिस्स । अवत्त० कस्स ? अण्णद० विसंजोइय पुणो संजुत्त पढमसमए वट्टमाणयस्स । बारसक० -भय-दुगुंछ० भुज ०अप्प ० - अवद्वि० कस्स १ अण्ण० सम्माइडि० मिच्छाइ द्वि० । इत्थि० णवुंस० भुज०विहत्ति ० कस्स १ अण्णद० मिच्छाइ हिस्स । अप्प कस्स १ अण्णद० सम्माइडि मिच्छाद्वि० वा । हस्स - रदि - अरदि- सोगाणं भुज० - अप्पद० कस्स ? अण्ण० सम्मा० मिच्छाइहिस्स वा । एदेसिं छण्णं पि लोकसायाणं अवद्वि० कस्स १ अण्णद० चारितमोहउवसामयस्स सव्वुवसामणाए वहमाण यस्स । पुरिस० भुज० - अप्प ० कस्स १ अण्णंद ० सम्माइडि० मिच्छाइहिस्स वा । अवद्वि० कस्स ! अण्णद० सम्माइटिस्स । एवं सव्वरइय--तिरिक्ख--पंचिदियतिरिक्खतिय- मणुसतिय देवगइदेवा भवणादि जाव उवरिमगेवज्जाति । वरि छण्णोकसायाणमवद्विदविहत्ती मणुसतियवदिरित्तमग्गणासु णत्थि । पंचिदियतिरिक्ख अपज्ज० - मणुसअपज्ज० मिच्छ० - सोलसक० -भय- दुर्गुछ० भुज०अप्प ० - अवद्वि० कस्स ! अण्णद० सम्म० सम्मामि० अप्प ० कस्स० अण्णद० । सत्तणोक० भुज० - अप्प ० कस्स १ अण्ण० । अणुद्दिसादि जाव सव्वद्वा तिमिच्छ०
1
और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवक्तव्यविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होती है । श्रवस्थितविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर सासादनसम्यग्दृष्टिके होती है । अल्पतरविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके होती है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिध्यात्व के समान है । इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर मिध्यादृष्टिके होती है । अवक्तव्यविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर विसंयोजना करनेके बाद पुनः संयुक्त होनेके प्रथम समय में विद्यमान जीवके होती है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि होती है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर मिध्यादृष्टि होती है । अल्पतरविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टिके होती है । हास्य, रति, अरति और शोककी भुजगार और अल्पतरविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टिके होती है । इन छहों नोकषयोंकी अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? सर्वोपशामनाके साथ विद्यमान चारित्रमोहनीयकी उपशामना करनेवाले अन्यतर जीवके होती है । पुरुषवेदकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि होती है । अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होती है । इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, देवगतिमें सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि छह नोकषायों की अवस्थितविभक्ति मनुष्यत्रिकके सिवा अन्य मार्गणाओं में नहीं है । पञ्च न्द्रिय तिश्चर्यं अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, seerat it aftथतविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती है । अल्पतरविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर के होती है। सात नोकषायोंकी भुगजार और
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amanawwaminimirrNirwain
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सम्म०-सम्मामि०-अर्णताणु०चउक्क०-इत्थि०-णस० अप्प० कस्स ? अण्णद० । बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ. तिण्णि वि पदाणि कस्स ? अण्णद० । चउणोक० भुज०-अप्प. कस्स ? अण्णद० । एवं जाव अणाहारए ति ।
सामित्तं गदं । २८८. कालाणु० दुविहो णिa--ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०अणंताणु० चउकाणं भुज० विहत्ती केवचिरं ? जहएणेण एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अप्प०विह० जह० एगस०, उक्क० वेछावहि. सागरोवमाणि सादिरेयाणि । अवहि. जह• एगस०, उक्क० संखेज्जा समया। गवरि मिच्छ० उक्क. छावलियाओ। अणंताणु०चउक० अवत्त० जहण्णुक. एगस० । सम्म०सम्मामि० भुज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अप्प० जह० अंतोमु०, उक्क वेलावहिसागरो० सादिरेयागि पलिदो० असंखे०भागेण । अवत० जहण्णुक्क० एगस । अवहि. जह० एगस०, उक. छावलियाओ। बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ० भुज०अप्प० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवहि० जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया अंतोमुहुत्तं वा उवसमसेटिं पडुच्च । इथि०-णस० भुज० जह. अल्पतरविभक्ति किसके होती है ? अन्यतरके होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्ति किसके होती है ? अन्यतरके होती है। बारह कवाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्सा के तीनों पद किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं। चार नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति किसके होती है ? अन्यतरके होती है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। $२८८. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगारविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल छह श्रावलि है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूत है। अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक दो छयासठ सागर है। अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह आवलि है । बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय अथवा
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे कालो एगस०, उक० अंतोमु० । अप्प. जह• एगसमओ, उक्क० वेछावहिसागरो. सादिरेयाणि । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं भुज०-अप० जह० एगसमो, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एदेसि छण्णोक० अवहि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अन्तर्मुहूर्त है उपशमश्रेणिकी अपेक्षा । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है। हास्य, रति, अरति और शोककी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इन छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है।
विशेषार्थ-ओघसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगारविभक्ति मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। मिथ्यात्वमें भुजगारका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनके इस पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। इनकी अल्पतरविभक्ति मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनोंके होती है, इसलिए इनके इस पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक दो छयासठ सागर कहा है। यहाँ प्रारम्भमें उपशमसम्यक्त्वके साथ रखकर और मध्यमें सम्यग्मिथ्यात्वमें ले जाकर वेदकसम्यक्त्वके साथ उकृष्ट काल तक रखकर मिथ्यात्वमें भी यथासम्भव काल तक अल्पतरविभक्ति करानेसे यह काल प्राप्त होता है। इनकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है यह स्पष्ट ही है। मात्र सासादनगुणस्थानमें मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति उसके पूरे उत्कृष्ट काल तक बनी रहे यह सम्भव है, इसलिए यहाँ मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल छह आवलिप्रमाण कहा है। अवक्तव्यविभक्ति बन्ध या सत्त्वके प्रारम्भ होनेके प्रथम समयमें होती है, इसलिए अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्ति उपशमसम्यक्त्वके समय होती है और इसका काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए यहाँ इन दो प्रकृतियों की भुजगारविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इनकी अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। इनकी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय अनन्तानुबन्धीके समान तथा अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलि मिथ्यात्व के समान घटित कर लेना चाहिए। बारह कषाय आदिकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनोंके होती है पर इनका उत्कृष्ट काल मिथ्यादृष्टिके ही सम्भव है, क्योंकि वहीं पर इनके ये दोनों पद पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक
ह, इसालए इनके इन दोनों पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है यह स्पष्ट ही है। तथा उपशमश्रेणिमें अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका अवस्थितपद् सम्भव है, इसलिए इस अपेक्षासे इनके अवस्थितपदका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भुजगारपद तो अधिकसे अधिक अन्तमुहूत काल तक ही होता है पर इनका अल्पतरपद साधिक दो छथासठ सागर काल तक भी सम्भव है, इसलिए इनके इन दोनों पदोंका जघन्य काल एक समय तक भुजगारका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त और अल्पतरका उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण कहा है। हास्यादिका बन्ध
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जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
तोमु
९ २८६ आदेसेण रइएस मिच्छ० भुज० जह० एगस०, उक्क० पलिदो ० असंखे ० भागो । अप्प ० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस सागरोवमारिण देसूणाणि । raso ० जह० एस ०, उक्क० संखेज्जा समया छावलिया वा । एवमणताणु ० चउक्कस्स | वरि अवत्त • जहण्णुक्क० एस० । अवद्विदस्स वि संखेज्जा चेव समया उकस्सकालो वतव्वो । सम्म० - सम्मामि० भुज० जह० उक्क० ० । अप्प० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि । अवत्त० जहण्णुक्क एगसमय । अवहि ० अभंगो । बारसक० - पुरिस०-भय- दुगुंछ० भुज ०-अप्प० जह० एस ०, उक्क० पलिदो ० असंखे ० भागो । अवद्वि० जह० एस ०, उक्क० सत्तढ समया । इत्थि०वुंस० भुज० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्प० जह० एस ०, उक्क० तेत्तीस सागरो० देणाणि । हस्स - रइ - अरइ - सोग० भुज ० - अप्प ० जह० एस ०, उक्क० तो० । एवं सत्तमाए पुढवीए ।
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सम्यग्दृष्टिके भी बदलता रहता है, इसलिए इनके अल्पतर और भुजगारपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होनेसे उक्त कालप्रमाण कहा है। इन छह नोकपायोंका अवस्थितपद् उपशमश्रेणिमें भी सम्भव है, इसलिए इसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है ।
०
$ २८६.
देशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है अथवा छह आवलि है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थितविभक्तिका भी उत्कृष्ट काल संख्यात समय ही कहना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी भुजगारविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अवस्थितविभक्तिका भङ्ग श्रोघके समान है । बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । हास्य, रति, अरति और शोककी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए ।
विशेषार्थ – यहाँ सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोंका काल को देखकर घटित कर लेना चाहिए। मात्र अल्पतरविभक्तिके उत्कृष्ट कालमें जहाँ विशेषता है उसे और उपशमश्रेणिके कारण अवस्थित पदके कालमें जो विशेषता आती है वह यहां सम्भव न होनेसे उसे अलग से घटित कर जान लेना चाहिए।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे कालो
१३६ ____$ २६०. पढमाए जाव छहि ति मिच्छ० भुज० ओघं। अप्प० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी भाणिदव्वा । अवहि० जह० एगस०, उक्क० सत्तहसमया छावलिया वा । सम्म०-सम्मामि० भुज. जह• उक. अंतोमु० । अप्प० जह० एगस०, उक्क० सगहिदीओ। अवत्त-अवहि० ओघभंगो । अणंताणु०चउकस्स मिच्छत्तभंगो। णवरि अवत्त० जहण्णुक्क० एगस० । अवहिद० उक्क० संखेजा चेव समया। बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ० ओघो। इत्थि-णस. भुज. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्पद० जह० एगसमओ, उक० सगहिदी देसूणा । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं गिरओघभंगो।।
२६१. तिरिक्खगईए तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिए मिच्छ०-अणंताणु०चउक्कागमोघो । णबरि अप्प० जह• एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयाणि । पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि तिणि पलिदो० पुव्वकोडिपुषत्तेणब्भहियाणि । सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवहि-अवत्त० ओघं । अप्प० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयाणि । पंचिंदियतिरिक्वतियम्मि तिण्णि पलिदो० पुब्बकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । बारसक०
६२६०. पहली पृथिवी से लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार विभक्तिका काल ओघके समान है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिए। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय अथवा छह श्रावलि है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। अवक्तव्य और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात ही समय है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग ओघके समान है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है।
विशेषार्थ-यहाँ जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका काल अपनी स्थितिप्रमाण कहा है वहां अपने अपने नरककी उत्कृष्ट स्थिति लेनी चाहिए। शेष कथन सुगम है।
६ २६१. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यश्च और पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तिर्यञ्चोंमें पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक तीन पल्य है तथा पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें पूर्व कोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्यकी भुजगार, अवस्थित और अव्यक्तव्यविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तियञ्चोंमें पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक तीन पल्य है और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें पूर्व कोटिपृथक्त्व अधिक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ पुरिस ०. ०-भय- दुर्गुछ० ओघो । णवरि अवद्वि० अंतोमुहुतं णत्थि । इत्थि० णवुंस० भुज० जह० एगस०, उक्क० तोमु० | अप्प० जह० एगस०, उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि । जोणिणी देणाणि । हस्स- रइ - अरइ - सोगाणमोघो । वरि अवद्विदं णत्थि ।
२२. पंचि०तिरिक्खापज्ज० मिच्छ० - सोलसक०--भय- दुर्गुछ० भुज०अप० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । अवद्वि० जह० एस ०, उक्क० संखेज्जा समया । सम्म० - सम्मामि० अप्प० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सत्तणोक ० भुज० - अप्प० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसअपज्जत्तएसु ।
$ २६३, मणुसतिए पंचिदियतिरिक्खभंगो। णवरि इत्थि० णवुंस० अप्प० जह० एगस०, उक्क० तिणि पलिदोवमाणि पुन्त्रकोडितिभागेण सादिरेयाणि । मसणी देणाणि | बारसक० णवणोक० अवद्वि० ओघमंगो ।
तीन पल्य है । बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग घके समान है । इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्तिका अन्तर्मुहूर्त काल नहीं है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य है । मात्र योनिनी जीवों में यह काल कुछ कम तीन पल्य है । हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनका अवस्थित पद नहीं है ।
विशेषार्थं पश्चन्द्रिय तिर्यवत्रिककी कायस्थिति पूर्व कोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । इसलिए इनमें जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका काल उक्तप्रमाण कहा है वह अपनी अपनी कास्थितिको ध्यान में रखकर घटित कर लेना चाहिए। मात्र तिर्योंकी कायस्थिति अनन्त काल है पर उनमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अल्पतरविभक्ति पल्य के असंख्यातवें भाग अधिक तीन पल्य काल तक ही बन सकती है, इसलिए यह काल उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार शेष कालको भी विचार कर घटित कर लेना चाहिए ।
$ २०. चन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तक जीवोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सात नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए ।
§ २६३. मनुष्यत्रिक में पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसक वेदकी अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल ) एक पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है । मात्र मनुष्यिनियोंमें कुछ कम तीन पल्य है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवस्थित पदका भङ्ग श्रोघके समान है ।
विशेषार्थ -- -- सामान्य मनुष्य और मनुष्य पर्याप्त एक पूर्वकोटिके त्रिभाग अधिक तीन पल्य काल तक सम्यक्त्वी हो सकते हैं और इनके इतने काल तक स्त्रीवेद और नपुंसक वेदका
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गा० १२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे कालो
१४१ $ २६४. देवगईए देवेसु मिच्छत्त-अणंताणु० चउक्क० भुज०-अवहि० अणंताणु० चउक्क० अवत्त० ओघो। अप्प० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोबमाणि । सम्म०सम्मामि० भुज०-अबहि-अवत्त० ओघो। अप्प० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ०-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमोघो । णवरि बारसक०-पूरिस०-भय-दुगुंछ० अवहि० उक० संखेज्जा समया। चदुगोकसाय० अवहिदं णत्थि । इत्थि०-णस० सुज. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्प० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं भवणादि जाव उपरिमगेवज्जा ति । णवरि जत्थ तेतीसं सागरोवमाणि तत्थ सगहिदी भाणिदव्यां । भवण-वाणजोदिसि० इत्थि०-णqस० सगहिदी देसूणा ।
$ २६५. अणुद्दिसादि जाव सवडा ति मिच्छ०-सम्मामि०-इत्थि०-णqस० अप्पद० जहण्णुक्कस्से० जहण्णुक्कस्सहिदीओ । सम्म० अप्प० जह० एगस० अल्पतर पद वन जाता है । मात्र मनुष्यिनीमें यह काल कुछ कम तीन पल्य ही प्राप्त होता है। इसलिए इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें उक्त दो वेदोंके अल्पतर पदका उक्त काल कहा है। शेष कथन सुगम है।
६२६४. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका भङ्ग अोधके समान है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा चार नोकषायोंकी अवस्थितविभक्ति नहीं है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर उपरिम वेयकतकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहां पर तेतीस सागर कहे हैं वहां पर अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिए।
विशेषार्थ--सौधर्मादिकमें सम्यग्दृष्टि जीव अपने पूरे काल तक पाये जाते हैं और भवनत्रिकमें नहीं, इसलिए यहाँ भवनत्रिकमें त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहा है और सौधर्मादिकमें पूरी अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है।
६२६५. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी जघन्य और
१. ता०प्रतौ 'अवटि संखेजा' इति पाठः ।
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१४२
जयासह कसा पाहुडे
कदकरणिज्जं पडुच्च, उक्क० सगहिदी । अनंताणु० चउक्क० उक्क० सगहिदी । बारसक० सत्तणोक० देवोघं । एवं जाव अणाहारिति ।
कालानुगमो समत्तो ।
२६६. अंतरानुगमेण दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० भुज० विहत्तीए अंतरं जह० एस ०, उक० बेछावहिसागरो० सादिरेयाणि । अप्प० जह० एस ०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अवडि० जह० एस ०, उक्क० असंखेज्जा लोगा | भुजगार - अप्पदरकालाणमण्णोष्णमणुसंधिय हिदाणमव द्विदविहत्तीए अंतरण गहणादो । कधं पादेवकं पलिदो० असंखे० भागपमाणाणमण्णोष्णसं बंधेण
[ पदेसहित ५
अप्प० जह० अंतोमु०,
महत्तं ? ण, बहुलेयर पक्खाणं व असंखेज्जपरियट्टणवारेहि तेसिं तहाभावे विरोहाभावादो | सम्म० सम्मामि० भुज० अप्प० जह० अंतोमु०, अवत्त ० - अवद्वि० जह० पलिदो ० असंखे० भागो, उक्क० सव्वेसिं पि उवडूपोग्गलपरियां । अनंताणु० चउक० उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्वकी अल्पतरविभक्तिका कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । बारह कषाय और सात नोकपायोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — अनुदिशसे लेकर सब देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, इसलिए इनमें मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका एक अल्पतर पद होता है, अतः इन प्रकृतियोंके उक्त पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिको ध्यानमें रख कर कहा है । शेष कथन सुगम है ।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ ।
$ २६६. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे मिध्यात्वकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । यहाँ पर भुजगार और अल्पतरविभक्तिके कालोंको परस्पर रोककर स्थित हुए जीवोंकी अवस्थितविभक्तिका अन्तर काल ग्रहण किया है ।
शंका- भुजगार और अल्पतरविभक्तिमेंसे प्रत्येकका काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इन दोनोंके सम्बन्धसे इतना बड़ा काल कैसे बन सकता है ?
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समाधान नहीं, क्योंकि कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष के समान असंख्यात बार परिवर्तनोंका अवलम्बन लेकर भुजगार और अल्पतरविभक्तिके उसप्रकारके होने में कोई विरोध नहीं आता ।
सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अल्पतरविभित्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, अवक्तव्य और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है और सबका उत्कृष्ट अन्तर उपाध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे अंतरं भुज० मिच्छत्तभंगो। अप्प० जह० एगस०, उक्क० वेछावहिसागरो० सादिरेयाणि । अवहि. जह० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अवत्त. जह. अंतोमु०, उक० उवडपोग्गलपरियट्ट। बारसक०-भय-दुगुंछ० भुज०-अप्प० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अवहि० मिच्छत्तभंगो। एवं पुरिस० ) गवरि अबहि० जह० एगस०, उक० उघडपोग्गलपरियह । इत्थि० भुज० जह० एगस०, उक्क० वेछावहिसागरो० सादिरेयाणि । अप्प० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं गवूस० । णवरि भुन० जह० एगसमओ, उक्क० वेछावहिसागरो० तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयाणि । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं भुज-अप्प. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । छण्णोक० अवहि० जह० अंतोमु०, उक्क० उघडपोग्गलपरिय। भुजगारविभक्तिका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है
और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इसीप्रकार पुरुषवेदके विषयमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। स्त्रीवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार नपुंसकवेदके विषयमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है। हास्य, रति, अरति और शोककी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है ।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्ति मिथ्यात्व गुणस्थानमें होती है और मिथ्यात्व गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर दो छयासठ सागरप्रमाण है, इसलिए यहाँ मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर कहा है । यहाँ साधिकसे मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्तिका काल ले लिया है। मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए यहाँ इसकी अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है । मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात लोकप्रमाण है इस बातका स्पष्टीकरण मूलमें ही किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका कमसे कम काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनके उक्त दोनों पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। इनकी अवक्तव्यविभक्ति उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें ऐसे जीवके होती है जिसके इनका सत्त्व नहीं है और उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातर्वे भागप्रमाण है, इसलिए तो इनकी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।. तथा इनकी अवस्थित
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
९ २६७, आदेसेण णेरइएसु मिच्छ० भुज ०-अवद्वि० जह० एस ०, उक्क० तेतीसं सागरो० देणाणि । अप्प० जह० एस ०, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । सम्म० सम्मामि० भुज० - श्रवडि ० - अवत्त० जह० पलिदो ० असंखे ० भागो, अप्प ० विभक्ति सासादन गुणस्थान में होती है, इसलिए इनकी अवस्थितविभक्तिका भी जघन्य अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। यह सम्भव है कि अर्ध पुद्गल परिवर्तनके प्रारम्भमें और अन्तमें इन दोनों प्रकृतियोंके उक्त चार पद हों और मध्य में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना हो जानेसे न हों, अतः यहाँ इनके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर उपार्थं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है । वेदकसम्यग्दृष्टि जीव यदि अनन्तानुबम्घीकी विसंयोजना न करे तो दो छयासठ सागर काल तक अल्पतरविभक्ति होती है, इसलिए तो इनकी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर मिध्यात्वकी भुजगारविभक्तिके समान उक्त कालप्रमाण कहा है और यदि विसंयोजना कर दे तथा मिथ्यात्वमें जाकर संयुक्त होकर अत्पतरविभक्ति करे तो इनकी अल्पतरविभक्तिका भी उक्त कालप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होनेसे वह भी उक्त कालप्रमाण कहा है। इनकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक जैसा मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका घटित करके मूल में बतलाया है. उसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। इनकी दो बार विसंयोजना होकर पुनः संयुक्त होनेमें जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त लगता है और विसंयोजना होकर संयुक्त होनेकी क्रिया अर्ध पुद्गल परिवर्तन कालके प्रारम्भमें एक बार हो तथा दूसरी बार अन्तमें हो यह भी सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनके इन दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर भी उक्त कालप्रमाण प्राप्त होनेसे उतना कहा है । इनकी अवस्थितविभक्तिका अन्तर काल मिध्यात्वकी अवस्थितविभक्तिके समान है यह स्पष्ट ही है । पुरुषवेदके सब पदोंका भङ्ग इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । मात्र इसकी अवस्थितविभक्ति सम्यग्दृष्टिके होती है और सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, इसलिए इसके उक्त पदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। स्त्रीवेदकी अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है और भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए यहाँ इसकी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण और अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । नपुंसकवेदकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र भोगभूमिमें पर्याप्त होनेपर नपुंसक वेदका बन्ध नहीं होता, इसलिए इसकी भुजगारविभक्तका उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर प्राप्त होनेसे उक्त काल प्रमाण कहा है । हास्यादि चार सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होनेसे उक्त कालप्रमाण कहा है। यहाँ स्त्रीवेद आदि उक्त छह नोकषायों की अवस्थितविभक्ति उपशमश्रेणिमें प्राप्त होती है और उपशमश्रेणिका उत्कृष्ट अन्तर उपार्थ पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, इसलिए इनके इस पदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है । यहाँ सब प्रकृतियोंके सब पदोंका जघन्य अन्तर सुगम होनेसे घटित करके नहीं बतलाया है सो जान लेना ।
१४४
$ २७. आदेश से नारकियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व और
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहन्तीए भुजगारे अंतरं
१४५ जह० अंतोमु०, उक्क० सब्वेसि पि तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणंताणु०चउक० भुज०-अप्प०-अवहि. जह० एगस०, अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० चत्तारि वि पदाणि तेत्तीसं सागरो० देसणाणि। बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ० भुज०-अप्प० ओघं । अवहि० जह० एगस, उक० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । इत्थि०-णवूस० भुज० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं साग० देसूणाणि | अप्प. जह० एगस०, उक्का अंतोमु० । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमोघो । णवरि अवडि० पत्थि। एवं पढमादि जाव सत्तमा ति । णवरि सगहिदी देसूणा भाणियव्या ।
२६८. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मिच्छ० भुज० जह० एगसमओ, उक्क० तिणि पलिदोवमाणि पलिदो० असंखे०भाएण सादिरेयाणि । अप्प०-अवहि०
ओघो। सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवहि०-अवत्त० जह० पलिदो० असंखे०भागो. अप्प० जह० अंतोमु०, उक्क० उघडपोग्गलपरिय। अणंताणु०चउक्क० भुज०-अप्प० जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । अप्प० देमूणाणि । अवहि.. सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके
संख्यातवें भागप्रमाण है, अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुककी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है, श्रवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और चारोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार और छाल्पतरविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। हास्य, रति, अरति
और शोकका भङ्ग अोधके समान है। इतनी विशेषता है कि इनका अवस्थितपद नहीं है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी स्थिति कहनी चाहिए।
विशेषार्थ—ोघमें हम सब प्रकृतियोंके अलग-अलग पदोंका अन्तर काल घटित करके बतला आये हैं। यहाँ नरकमें अपनी-अपनी विशेषताको ध्यानमें लेकर और यहाँके उत्कृष्ट कालको जानकर वह घटित कर लेना चाहिए । मात्र नरकमें उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव न होनेसे यहाँ स्त्रीवेद आदि छह नोकपायोंके अवस्थितपदका निषेध किया है। प्रत्येक नरकमें भी इन्हीं विशेषताओंको ध्यानमें लेकर यह अन्तर काल घटित कर लेना चाहिए।
६२६८. तियंञ्चगतिमें तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक तीन पल्य है । अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका भज ओघके. समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और
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जमधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अक्त० ओघो। बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० ओघो। गवरि पुरिस० अवहि० जह• एगस०, उक० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । इत्थि. भुज. जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । अप्प० जह० एगस०, उक्क अंतोमु० । णस० अप्प० ओघो। भुज. जह० एगस०, उक्क० पुवकोडी देसूणा । हस्स-रइ-अरइसोगाणमोघो । णवरि अवहि० णत्थि ।
२६६. पंचिंदियतिरिक्खतिए मिच्छ० भुज०-अवहि० जह० एगसमओ, उक० सगहिदी देसूणा । अप० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अणंताणु०चउक० भुज०-अवहि० मिच्छत्तभंगो। अप्प० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। मात्र अल्पतरविभक्तिका कुछ कम तीन पल्य है। अवस्थित
और अवक्तव्यविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। स्त्रीवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूवकोटि है। हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनका अवस्थितपद नहीं है।
विशेषार्थ- कोई तिर्यश्च पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति करता रहा । उसके बाद तीन पल्यकी आयुके साथ भोगभूमिमें उत्पन्न हो वहाँ भी
आयुके अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने तक मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति करता रहा, इस प्रकार भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक तीन पल्य इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अल्पतरविभक्ति उत्तम भोगभूमिमें कुछ कम तीन पल्य ही बन सकती है, क्योंकि तिर्यञ्चोंमें वेदक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल इतना ही प्राप्त होता है, इसलिए इनकी अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्ति सम्यग्दृष्टिके होती है और तियंञ्चोंमें वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है, इसलिए यहाँ पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। सम्यग्दृष्टिके स्त्रीवेदकी भुजगारविभक्ति नहीं होती और तिर्यञ्चोंमें वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है, इसलिए इनमें स्त्रीवेदकी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। परन्तु नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कर्मभूमिज तियश्चके ही प्राप्त होता है और इनमें वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, इसलिए तिर्यञ्चोंमें नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
६:२६६. पञ्चेन्द्रिय तिरश्चत्रिकमें मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पत्यके असंख्यात भागप्रमाण है। अनन्तानु
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे अंतरं पलिदो० देसूणाणि। अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । सम्म०सम्मामि० भुज०-अवहि-अवत्त० जह० पलिदो० असंखे०भागो, अप्प० जह० अंतोमु०, उक्क० सयपदाणं सगहिदी देसूणा । बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० भुज-अप्पदर० ओघो। अहि. जह० एगस०, उक्क. सगहिदी देसूणा । पुरिस० तिणि पलिदो० देसूणाणि । इत्थि०-णवंसय०-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं तिरिक्खोघो ।
६३००. पंचि०तिरिक्खअपज्ज० मिच्छ ०-सोलसक०-भय-दुगुंछा० भुज०अप्प०-अवहि० जह एगस०, उक्क. अंतोमु० । सत्तणोक. भुज०-अप्प. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सम्म-सम्मामि० अप्प० णत्थि अंतरं ।
३०१. मणुस्सगईए मणुस्सतियस्स पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि छण्णोक० अवट्टि० जह० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । सम्म०-सम्मामि० भुज० जह०
बन्धीचतुष्ककी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्यप्रमाण है। अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमहत है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। मात्र पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है।
विशेषार्थ_पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। इसे ध्यान में रखकर यहाँ अन्तर काल घटित करके बतलाया गया है। शेष विशेषता स्वामित्वको ध्यानमें रखकर जान लेनी चाहिए।
६३००. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सात नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ-इन तिर्यञ्चोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोंका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक अल्पतरपद होता है, इसलिए उसके अन्तर कालका निषेध किया है।
३०१. मनुष्यगतिमें मनुष्यत्रिकमें पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर
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१४८ - जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । मणुसअपज० पंचि०तिरिक्व अपज्जत्तभंगो।
३०२. देवगईए देवेसु मिच्छ० भुज०-अवहि० जह० एगसमो, उक्क० एकत्तीसं सोगरो० देसूणाणि । अप्पद० जह• एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवहि-अवत्त. जह० पलिदो० असंखे०भागो, उक्क. एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि। अप्प० जह० अंतोमु०, उक० तं चेव । अणंताणु० चउक्क० भुज०-अप्प०-अवहि० जह० एगस०, अवत. जह. अंतोमु०, उक० चदुहं पि एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । बारसक--पुरिस०--प्रय-दुगुं० णेरइयभंगो। इत्थि०-णवूस. भुज० जह० एग०, उक्क० एकत्तीसं सागरोवमाणि देसूगाणि। अप्प० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमोघो। णवरि अवहि० पत्थि । भवणादि जाव उपरिमगेवजा ति एवं चेत्र । गरि सगहिदी भाणियन्वा । पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है।।
विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकमें अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे और पूर्वकोटिपृथक्त्यके अन्तरसे उपशमणिकी प्राप्ति सम्भव होनेसे यहाँ छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है। तथा मनुष्यत्रिकमें उपशमसम्यक्त्व. की प्राप्तिके समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगार होकर कमसे कम अन्तमुहूतके भीतर क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्ति होने पर उस समय भी भुजगारपद सम्भव है या अधिकसे अधिक पूर्वकोटि पृथक्त्व कालके अन्त क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति होने पर उस समय भी भुजगारपद सम्भव है, इसलिए इन दोनों प्रकृतियोंकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूतं और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
६३०२. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर वही है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और चारों ही का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग नारकियोंके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितपद नहीं है । भवनवासियोंसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहलानी चाहिए।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे गाणजीवेहि भंगविचओ १४६
६३०३. अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क०-इत्थि-णवूस अप्पं० पत्थि अंतरं । बारसक०-पुरिस०-भय०-दुगुंछा० भुज०अप्प० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे भागो। अवहि० जह० एगस०, उक० सगहिदी देसूणा । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमोघो । णवरि अहि. णस्थि । एवं जाव अणाहारि ति।
__ अंतरं गदं। ३०४. णाणाजीवेहि भगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण छव्वीसं पयडीणं सव्वपदाणि णियमा अस्थि । णवरि अणंताणु०चउक्क० अवत्त० पुरिस०-इत्थि-गqस०-हस्स-रइ-अरइ-सोग अवहि. भयणिज्ज । सम्म०सम्मामि० अप्प० णियमा अस्थि । सेसपदाणि भयणिज्जाणि। एवं तिरिक्खेसु । णवरि छण्णोक० अवढि० णत्थि।
३०५. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-बारसक०-पुरिस०-भय दुगुंछा० भुज०
विशेषार्थ-देवोंमें नौवें वेयक तक ही मिथ्यादृष्टि होते हैं, इसलिए इस बातको ध्यानमें रखकर अपने स्वामित्वके अनुसार यहाँ पर अन्तर काल घटित कर लेना चाहिए।
६३०३. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, लम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्तिका अन्तर काल नहीं है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनका अवस्थितपद नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ-अनुदिशसे लेकर आगेके देवोंमें सब सम्यग्दृष्टि होते हैं, इसलिए उनमें मिथ्यात्व आदि नौ प्रकृतियोंकी एक अल्पतरविभक्ति होनेसे उसके अन्तर कालका निषेध किया है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
इस प्रकार अन्तर काल समाप्त हुआ। ६३०४. नाना जीवोंका अवलम्बन लेकर भङ्ग विचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंके सब पद नियमसे हैं। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्ति, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी अवस्थितविभक्ति भजनीय है । सम्यक्त्य और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति नियमसे है । शेष पद भजनीय हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्ति नहीं है।
६३०५. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका १. ता०प्रतौ ‘णवुस भुज० अध्य०' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अप्प० णियमा अत्थि । अवहि० भयणिज्जा । एत्थ भंगाणि तिण्णि। सम्म०सम्मामि०-छण्णोक. ओघो। गवरि छण्णोक० अवहि. णत्थि । अणंताणु०चउक्क. भुज०-अप्प० णियमा अत्थि । सेसपदाणि भयणिज्जाणि । एवं सव्वणेरइय-पंचिंदियतिरिक्खतिय--मणुसतिय--देवगइदेवा भवणादि जाव उवरिमगेवजा त्ति । गवरि मणुसतिए छण्णोक० अवहि० ओघं ।
३०६. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछ० भुज०. अप्प० णियमा अस्थि । सिया एदे च अवहिदविहत्तिओ च । सिया एदे च अवहिदविहत्तिया च । सम्म०-सम्मामि• अप्प० णियमा अस्थि । सत्तणोक० भुज०अप्प० णियमा अस्थि । मणुस्सअपज्ज० सव्वपयडीसु सव्वपदाणि भयणिज्जाणि । अणुदिसादि जाव सवहा त्ति मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु० चउक०-इत्थि०णस० अप्प० णियमा अस्थि । बारसक०-पुरिस०-भय०-दुगुंछ० रइयभंगो। चदुणोकसायाणमोघो । णवरि अवहि. णस्थि । एवं जाव अणाहारि ति ।
___णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो। ६३०७. भागाभागाणुगमेण दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुजगार और अल्पतरविभक्ति नियमसे है। अवस्थितविभक्ति भजनीय है। यहाँ पर भङ्ग तीन हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और छह नोकषायोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्ति नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार और अल्पतरविभक्ति नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं। इसी प्रकार सब नारकी, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, देवगतिमें देव और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकमें छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है।
६३०६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति नियमसे है। कदाचित् इन विभक्तियोंवाले नाना जीव हैं और अवस्थितविभक्तिवाला एक जीव है। कदाचित् इन विभक्तियोंवाले नाना जीव हैं और अवस्थितविभक्तिवाले नाना जीव हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति नियमसे है। सात नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति नियमसे है। मनुष्यअपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद भजनीय हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्ति नियमसे है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग नारकियोंके समान है। चार नोकषायोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्ति नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मागेणा तक जानना चाहिए।
इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगम समाप्त हुआ। ६३०७. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे
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rwari
गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे भागाभागो मिच्छत्त०-सोलसक०-भय-दुगुंछ० भुज विहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? संखेजा भागा । अप्प० सव्वजी० केव० ? संखे०भागो । अवडि० सव्वजी० केव० ? असंखे०भागो। णवरि अणंताणु चउक्क० अवत्त० सव्वजी० केव०? अणंतिमभागो। सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवत्त-अवहि० सव्वजी० केव० ? असंखे भागो । अप्प० असंखेजा भागा। इत्थि-हस्स-रइ० भुज. सव्व० केव० ? संखे०भागो। अप्प संखेज्जा भागा। पुरिस० एवं चेव । णवरि अवहि० अणंतिमभागो । णस०-अरदिसोग० भुज० सव्वजी० केव० ? संखेज्जा भागा । अप्प० सव्वजी० केव० १ संखे०भागो। छण्णोक. अवहि० सव्वजी० के० १ अणंतिमभागो। एवं तिरिक्खा० । णवरि छण्णोक० अवहि० णत्थि ।
३०८. आदेसेण गैरइय० मिच्छ०-सम्म०--सम्मामि०-बारसक०--अहणोकसायाणमोघो । णवरि छण्णोक. अवहि. त्थि। अणंताणु०चउक्क० भुज. सव्वजी० केव० ? संखेज्जा भागा। अप्प० सव्वजी. केव० ? संखे०भागो। सेसपदहिद० असंखे०भागो। पुरिस० ओघो । णवरि अवहि० सव्वजी० के० १ असंखे०भागो । मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगारविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अल्पतरविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवक्तव्य और अवस्थितविभक्तिवाले जीव सत्र जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अल्पतरविभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। स्त्रीवेद, हास्य और रतिकी भुजगारविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं। अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। पुरुषवेदका भङ्ग इसीप्रकार है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्तिवाले जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं। नपुंसकवेद, अरति और शोककी भुजगारविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । अल्पतरविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । छह नोकषायोंके अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। इसीप्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थितविभक्ति नहीं है।
६३०८. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्ति नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगारविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अल्पतरविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं। शेष पदविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। पुरुषवेदका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहती ५ एवं सत्तमु पुढवीसु पंचिं०तिरिक्वतिय० मणुस्सोघो देवगइ भवणादि जाव सहस्सारे त्ति देवेसु णेदव्वं । गवरि मणुस्सेसु छण्णोक० अवहि० असंखे०भागो।
३०६. पंचितिरिक्खअपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछ० भुज. सव्वजी० केव०१ संखेज्जा भागा। अप्प० सव्वजी० केव० ? संखे० भागो। अवहि. असंखे०भागो । सम्म०-सम्मामि० णत्थि भागाभागो । कुदो १ एयपदत्तादो । इत्थि०पुरिस०-हस्स-रइ० भुज० सयजी० केव० ? संखे०भागो। अप० सव्वजी० केव.? संखेज्जा भागा । णqस०-अरदि-सोग० भुज० संखेज्जा भागा । अप्प० संखे०भागो । एवं मणुसअपज्जत्ताणं ।
$३१०. मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछ० भुज० संखेजा भागा। अप्प०-अवहि० संखे०भागो । एवमणताणु० चउक्कस्स । णवरि अवत्त० संखे. भागो। सम्म०-सम्मामि० भुज० अवहि-अवत्त० सव्वजी० के० १ संखे० भागो। अप्प० संखेज्जा भागा । इत्थि-हस्स-रइ भुज० संखे०भागो । अप्प० संखेज्जा भागा । एवं पुरिस० । णवरि अवहि. संखे० भागो । णस०-अरदि०-सोग. भुज० संखेज्जा
AAAAAAAw
जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें पञ्चेन्द्रिय तियश्चत्रिक, सामान्य मनुष्य, देवगतिमें देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रारकल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्योंमें छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें आगप्रमाण हैं।
६३०६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगारविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अल्पतरविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं। संख्यातवें भागप्रमाण हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भागाभाग नहीं है, क्योंकि उनका एक पद है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिकी भुजगारविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अल्पतरविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। नपुंसकवेद, अरति और शोककी भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसीप्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए।
६३१०. मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं। अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। स्त्रीवेद, हास्य और रतिकी भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसीप्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। नपुंसकवेद, अरति और
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे भागाभागो
१५३ भागा । अप्प० संखे० भागो । छण्णोक० अवहि० संखे भागो ।
$ ३११. आणदादि जाव उवरिमगेवजा ति मिच्छ०-अणंताणु० चउक्क० भुज० संखे०भागो। अप्प० संखेज्जा भागा। अवहि० अणंताणु० चउक्क० अवत्त० असंखे०भागो । सम्म० सम्मामि०-बारसक०-भय-दुगुंछ० देवोघो । पुरिस० कसायभंगो । इत्थि०-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमोघो । णवरि अवहि गत्थि। णवंस. इत्थिवेदभंगो। अणुदिसादि जाव अवराइदो त्ति मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणुचउक०इत्थि०-णqसयवेदाणमेयपदत्तादो गत्थि भागाभागो। बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ० आणदभंगो। हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमोघो । णवरि अवढि० पत्थि । सबढे एवं चेव । णबरि वारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ० भुज० सब्बजी० केव० १ संखेज्जा भागा। अप्प०-अवहि० संखे०भागो। हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमोघो । णवरि अवहि० गत्यि । एवं जाच अणाहारि त्ति ।
___ भागाभागो समत्तो। ६ ३१२. परिमाणाणुगमेण दुविहो गिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण शोककी भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं।
६३११. आनतकल्पसे लेकर उपरिम वेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । अवस्थितविभक्तिवाले जीव और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । पुरुषवेदका भङ्ग कषायोंके समान है। स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्ति नहीं है। नपुंसकवेदका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। अनुदिशसे लेकर अपराजित विमानतकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका एक पद होनेसे भागाभाग नहीं है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग श्रानतकल्पके समान है। हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्ति नहीं है । सर्वार्थसिद्धि में इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगारविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं। हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्ति नहीं है। इसीप्रकार अनाहारकमार्गणा तक जानना चाहिए।
इसप्रकार भागाभाग समाप्त हुआ। $ ३१२. परिणामानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- श्रोध और आदेश ।
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१५४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसवित्ती ५ मिच्छ०-सोलसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ० भुज-अप्प०-अवहि० केत्तिया ? अणंता । अणंताणु०चउक० अवत्तव्य० पुरिस० अवहि० केत्तिया ? असंखेज्जा । सम्म०सम्मामि० पदचउक्कहिदजीवा केत्तिया १ असंखेज्जा । छण्णोक. भुज०-अप्प० केतिया १ अर्णता । अवहि० के० १ संखेज्जा । एवं तिरिक्खा० । णवरि छण्णोक० अवहि० णत्थि।
३१३. आदेसेण णेरइय० अहावीसं पयडीणं सवपदा केत्तिया १ असंखेज्जा । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्सअपज०-देवगइदेवा भवणादि जाव अवराइद ति। ___६३१४. मणुस्सेसु मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछ० तिण्णि पदा सम्म.. सम्मामि० अप्प. सत्तणोक० भुज०-अप्प० केत्ति० १ असंखेजा । सम्म०-सम्मामि० भुज-अवहि-अवत्त० अणंताणु०चउक्क. अवत्त० पुरिस०-छण्णोक्क० अवहि. केत्तिया ? संखेज्जा। मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वहसिद्धीसु सव्वपयडीणं सव्वपदा केत्तिया ? संखेज्जा । एवं जाव अणाहारि ति ।
परिमाणाणुगमो समत्तो।
ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य और पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके चार पदोंमें स्थित जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। छह नोकषायोंकी भुजगार
और अल्पतरविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्ति नहीं है ।
$३१३. आदेशसे नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसीप्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तियंञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, देवगतिमें देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए।
६३१४. मनुष्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके तीन पदवाले जीव, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर पदवाले जीव तथा सात नोकषायोंके भुजगार और अल्पतर पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यक्त्व और सग्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य पदवाले जीव, अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्य पदवाले जीव तथा पुरुषवेद और छह नोकषायोंके अवस्थित पवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इसप्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ। १. श्रा०प्रतौ 'सोनसका भय' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे खेत्तं
३१५. खेत्ताणुगमेण दुविहो णि०-ओघेण आदेसण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक०-भय-दुगुंछा० तिण्णिपदा केवडि खेत्ते ? - सव्वलोगे। अणंताणु०चउक्क० अवत्त० के० खेत्ते ? लोग० असंखे० भागे। सम्म०-सम्मामि० भुज०-अप्प०-अवत्त०अवहि० के० खेत्ते ? लोग० असंखे०भागे। छण्णोक० भुज-अप्प० के० खेले ? सव्वलोगे । अवहि० लोग० असंखे०भागे । एवं पुरिस० । एवं तिरिक्खोघो । णवरि छण्णोक० अवडियं पत्थि।
३१६. आदेसेण णिरय० मिच्छ०-सोलसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० भुज०अप्प०-अवहि. अणंताणु चउक्क० अवत्त : केव० खे० १ लोगस्स असंखे०भागे । सम्म०-सम्मामि० सव्वपदा छण्णोक० भुज-अप्प० के० खेत्ते ? लोगस्स असंखे०भागे। एवं सव्वणेरइय-पंचिंदियतिरिक्खतिय-मणुसतिय-देवगइदेवा भवणादि जाव उपरिमगेवज्जा सि । णवरि मणुसतिए छण्णोक० अवडि• ओघं । पंचिं०तिरिक्खअपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंछा० तिण्णि पदाणि सम्म०-सम्मामि० अप्प० सत्तणोक. भुज-अप्प. केव० ? लोग. असंखे०भागे। एवं मणुसअपज्ज० ।
६३१५. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके तीन पदवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्य पदवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है । लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर, अवक्तव्य और अवस्थित पदवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। छह नोकषायोंके भुजगार और अल्पतर पदवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र है। अवस्थित विभक्तिवाले जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसीप्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा क्षेत्र जानना चाहिए। इसीप्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें छह नोकषायोंका अवस्थित पद नहीं है।
विशेषार्थ—यहाँ जिन प्रकृतियोंके जो पद एकेन्द्रिय जीवोंके होते हैं उनका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण कहा है और शेषका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण। इसीप्रकार आगे भी अपने अपने क्षेत्रको जानकर घटित कर लेना चाहिए।
६३१६. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदवाले जीवोंका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्य पदवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदवाले जीवोंका तथा छह नोकषायोंके भुजगार और अल्पतर पदवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसीप्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तियश्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, देवगतिमें सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर उपरिमअवेयकतकरे देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकमें छह नोकषायोंके अवस्थित पदका क्षेत्र श्रोधके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके तीन पदवाले जीवोंका, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर पदवाले जीवोंका तथा सात नोकषायोंके भुजगार और अल्पतर पवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ?
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जयधवलाहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अणुद्दिसप्पहुडि जाव सव्वहा ति मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि० अणंताणु० चउक्क. इत्यि०-णवूस. अप्प० बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० भुज०-अप्प०-अवहि. हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं भुज०-अप्प. केव० १ लोग० असंखे०भागे । एवं जाव अणाहारि त्ति ।
खेत्तं गदं। ३१७. पोसणाणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक०-भय--दुगुंछ• भुज०-अप्प०-अवहिदविहत्तिएहि केव० पोसिदं ? सबलोगो । अणंताणु०चउक्क० अवत्त० लोगस्स असंखे० भागो अहचोदस० । सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवत्तव्वविहत्तिएहि लोगस्स असंखे०भागो अहचोदस० । अप्प० के० ? लोग० असंखे० भागो अहचोद्दस० सव्वलोगो वा । अवढि० केव० पो० ? लोग० असंखे०भागो अट्ठ-बारहचोदस० । छण्णोक. भुज०-अप्प. केव० पोसिदं ? सव्वलोगो। तेसिं चेव अवहि० लोगस्स असंखे०भागो । एवं पुरिस० । णवरि अवहि. केव० फोसिदं ? लोग० असंखे०भागो अहचोदस० देसूणा । लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसीप्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके अल्पतर पद्वाले जीवोंका, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदवाले जीवोंका तथा हास्य, रति, अरति
और शोकके भुजगार और अल्पतर पदवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
___ इसप्रकार क्षेत्र समाप्त हुआ। ६३१७. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। अोघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और बसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और श्रवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यात भाग, सनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। छह नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उन्हींकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा स्पर्शन जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अवस्थितविभक्तिवाले
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे फोसणं
१५७ ३१८. आदेसैण णेरइ० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछ० भुज०-अप्प०अवहि० केव. पोसिदं ? लोग० असंखे०भागो छचोदस० । अणंताणु०चउक्क० अवत्त० लोग० असंखे०भागो । सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवत्त० खेतभंगो । अप्पदर० सत्तणोक. भुज०-अप्प. केव० फोसिदं ? लोगस्स असंखे०भागो छचोदस० । पुरिस० अवहि. केव० पोसिदं ? लोग० असंखे०भागो । सम्म०-सम्मामि० अवहि० जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व आदि उन्नीस प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पद एकेन्द्रियोंके भी होते हैं, इसलिए इनके उक्त पदवाले जीवोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य पद ऐसे जीवोंके होता है जो इनकी विसंयोजना करके पुनः इनसे संयुक्त होते हैं। ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन देवोंके विहार आदिकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण प्राप्त होनेसे तत्प्रमाण कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन इसीप्रकार घटित कर लेना चाहिए। इनकी अल्पतर विभक्तिवालोंका उक्त स्पर्शन तो बन ही जाता है। तथा यह विभक्ति एकेन्द्रियादिके भी सम्भव है, इसलिए सर्व लोक प्रमाण स्पर्शन भी बन जाता है । इन दोनों प्रकृतियोंकी अवस्थितविभक्ति सासादनसम्यग्दृष्टियोंके होती है, इसलिए इस अपेक्षासे इनके अवस्थित पदका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग, वसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। छह नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति एकेन्द्रियादि जीवोंके भी होती है, इसलिए इनके उक्त पदवाले जीवोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है । तथा इनकी अवस्थितविभक्ति उपशमश्रेणिमें होती है, इसलिए इनके इस पदवाले जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। पुरुषवेदके भुजगार और अल्पतर पदवाले जीवोंका स्पर्शन तो छह नोकषायोंके ही समान है, इसलिए इसका भङ्ग छह नोकषायोंके समान जानने की सूचना की है। मात्र इसके अवस्थित पदके स्पर्शनमें अन्तर है। बात यह है कि पुरुषवेदका अवस्थित पद सम्यग्दृष्टि जीवोंके होता है, इसलिए इसके उक्त पदवाले जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है।
६३१८. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें.भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इनकी अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने और सात नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने कितने
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
केव० फोसिदं ? लोग० श्रसंखे० भागो पंचचोदस० । पढमपुढवीए खेत्तभंगो । विदियादि जाव सत्तमित्ति एवं चेव । णवरि अपणो रज्जूओ फोसणं कायव्वं । सत्तमाए सम्म० - सम्मामि० अवधि० खेत्तभंगो ।
३१६. तिरिक्खगईए तिरिक्खेहि मिच्छ० - सोलसक० -भय-दुर्गुछ० भुज० - अप्प ० - अवद्वि० केव० फोसिदं । सव्वलोगो । अनंताणु० चउक्क० अवत्त० सम्म०सम्मामि० ० भुज० अवत्त० केव० फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो । सम्म० सम्मामि० अप्प ० लोग • असंखे ० भागो सव्वलोगो वा । अवद्वि० लोग० असंखे० भागो सत्तचोद्दस० । सत्तणोक० भुज० अप्प० के० फोसिदं । सव्वलोगो । वरि पुरिस raft • लोगस्स असंखे ० भागो ।
०
०
०
क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथिवीमें क्षेत्र के समान भङ्ग है । दूसरीसे लेकर सातवीं तक के नारकियों में इसीप्रकार भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपने अपने राजुत्रोंमें स्पर्शन करना चाहिए। तथा सातवीं पृथिवी में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवों का स्पर्शन क्षेत्र के समान है ।
विशेषार्थ - यहाँ सामान्य नारकियों में जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका स्पर्शन उपपादपद या मारणान्तिक पदके समय सम्भव है उनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाख और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। तथा शेष पदोंका स्पर्शन मात्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। मात्र सासादनसम्यग्दृष्टि नारकी जीव छठवें नरकतक के ही मरकर अन्य गतिमें उत्पन्न होते हैं, इसलिए सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अवस्थित पदवाले जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। तथा सातवीं पृथिवीका सासादनसम्यग्दृष्टि मरकर अन्य गतिमें नहीं जाता, इसलिए इसमें उक्त दोनों प्रकृतियोंके अवस्थित पदवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन सुगम है।
३१. तिर्यगति में मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने तिने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्तवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इनकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम सात ब` चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सात नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
विशेषार्थ - सासादन तिर्योंके ऊपर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति सम्भव होनेसे इनके उक्त पदवाले जीवोंका
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे फोसणं
ક્ષણ ६३२०. पंचिंदियतिरिक्वतिए मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछ० भुज०-अप्प०अवहि. केव० १ लो० असंखे०भागो सबलोगो वा। अणंताणु० चउक्क० अवत्त० सम्म-सम्मामि० भुज०-अवत्त० केव० फोसिदं ? लोग० असंखे भागो । दोण्हमप्पद० लोग० असंखे भागो सव्वलोगो वा । अवष्टि० लोग० असंखे०भागो सत्तचोदस० । इथि० भुज० केव० ? लो० असंखे०भागो। अप्प० लोग० असंखे०भागो सबलोगो वा । कुदो १ णसयवेदबंधेण एइंदिरसुववज्जमाण पंचिंदियतिरिक्खतियस्स अप्पदरीकयइत्थिवेदस्स सव्वलोयवावित्तदंसणादो। पुरिस भुज० केव० फोसिदं ? लोग० असंखे०भागो छचोदस० । अवहि० लोग० असंखे० भागो। कुदो छचोदसभागा ण फसिज्जति ? ण, असंखेज्जवासाउअपंचिंदियतिरिक्खतियसम्माइहिं मोत्तण अण्णत्थ अवहिदपदस्सासंभवादो। तं पि कुदो ? पलिदो० असंखे०भागमेत्तकालेण विणा अवहिदपाओग्गत्ताणुवलंभादो । अप्प. केवः फोसिदं ? लोग० असंखे भागो स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है ।
६३२०. पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है। लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दोनोंकी अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इनकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेदकी भुजगारविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है, क्योंकि नपुंसकवेदके बन्धके साथ एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले पञ्चेन्द्रिय तियश्चत्रिकका स्त्रीवेदके अल्पतर पदके साथ समस्त लोकमें स्पर्शन देखा जाता है । पुरुषवेदकी भुजगारविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बढे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
शंका-पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन क्यों नहीं करते ?
समाधन-नहीं, असंख्यात वर्षकी आयुवाले पञ्चेन्द्रिय तियञ्चत्रिक सम्यग्दृिष्ट जीवको छोड़कर अन्यत्र अवस्थित पदकी प्राप्ति असम्भव है ।
शंका-वह भी कैसे है ?
समाधान-क्योंकि पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके बिना अवस्थितपदकी योग्यता नहीं उपलब्ध होती है।
पुरुषवेदकी अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके
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१६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ सबलोगो वा । पंचणोक० भुज०-अप्प० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा ।
३२१. पंचिं०तिरि०अपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०--भय-दुगुंछ० भुज०-- अप्प०-अवहि. केव० फोसिदं ? लोग. असंखे०भागो सव्वलोगो वा। सम्म०सम्मामि० अप्प० केव० फोसिदं ? लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । इत्थिपुरिस० भुज. लोग० असंखे भागो। अप्प० केव० फोसिदं ? लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। णस०-चदुणोक० भज०-अप्प. केव० फोसिदं ? लोग० असंखे०. भागो सव्वलोगो वा। एवं मणुसअपज्जत्तए ।
३२२. मणुसतिए मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछ० भुज०-अप्प०-अवहि. लोग० असं० भागो, सबलोगो वा । अणंताणु० चउक० अवत्त० सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवत्त० लोग० असंखे०भागो । दोण्हमप्प० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पाँच नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ—यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके अवस्थित पदवालोंका लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन जिस प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें घटित करके बतला आए हैं उस प्रकार घटित कर लेना चाहिए। स्त्रीवेदकी अल्पतरविभक्तिवाले उक्त जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन तथा पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिवाले उक्त जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन क्यों किया है इसका स्पष्टीकरण मूल में ही किया है । शेष कथन सुगम है।
६३२१. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तक जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगारविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अल्पतर विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-जो पश्चन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त तियञ्च एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं उनके स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध न होनेसे भुजगारपद सम्भव नहीं है, इसलिए इनके उक्त पदवाले जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
६३२२. मनुष्यत्रिकमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी श्रवक्तव्यविभक्तिवाले तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दोनोंकी अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे फोस
९६१
अवद्वि० केव० फोसिदं १ लोग० असंखे ० भागो सत्त चोइस० । इत्थि० - पुरिस० भुज० पुरिस० अवधि० लोग० असंखे० भागो । दोण्हमप्प० णवुंस० चदुणोक० भुज०अप्प० लोग० असंखे० भागो सव्बलोगो वा । छष्णोकं० अवद्वि० खेत्तभंगो |
I
९ ३२३. देवगईए देवेसु मिच्छ० - सोलसक० ०-भय-दुगु छ० भुज० अप्प ० - अवधि ० लोग० असंखे ० भागो अट्ठ-णवचोदस० । अनंताणु ० चउक्क० अवत्त० सम्म० ० - सम्मामि० भुज ० - अवत्त० लोग० असंखे० भागो अहचोदस० । सम्म० - सम्मामि० अप्पद०raiso केव० फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो अट्ठ-णवचोदस० । इत्थि० भुज० पुरिस० भुज० - अवद्वि० लोग० असंखे० भागो अट्ठचोद० । दोहमप्प० लोग० असंखे० भागो अह णवचोद्दस० । पंचणोक० भुज० - अप्प० लोग० असंखे ० भागो अट्ठ-णवचो६० । एवं सोहम्मीसाणेसु ।
०
सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इनकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसानाली में कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगारविभक्तिवाले तथा पुरुषवेद की अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दोनोंकी अल्पतरविभक्तिवाले तथा नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है ।
1
§ ३२३. देवगतिमें देवोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके श्रसंख्यातवें भाग तथा त्रसनाली के कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है । लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेदकी भुजगारविभक्तिवाले तथा पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनाली के कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दोनोंकी अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पाँच नोकपायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पके देवों में जानना चाहिए ।
विशेषार्थ – देवोंमें स्त्रीवेदकी भुजगारविभक्ति तथा पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थित - विभक्ति ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुदूघात करते समय सम्भव नहीं है, इसलिए
१. वा०० प्रत्योः 'सशयोक०' इति पाठः
२१
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ $ ३२४. भवण०-वाण-जोइसिएमु मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछ० भुज०अप्प०-अवहि० लोगस्स असंखे०भागो अदहा वा अह-णवचोइस० । अणंताणु०. चउक० अवत्त० सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवत्त० इत्थिवेद० भुज• पुरिस० भुज०अवहि० लोग० असंखे०भागो अद्ध हा वा अहचोहस । सम्म-सम्मामि० अप्प०अवहि० इत्थि०-पुरिस० अप्प० गवुस०-चदुणोक. भुज०-अप्प० लो० असंखे०. भागो अद्ध हा वा अह-णवचोद० ।।
३२५. सणक मारादि जाव सहस्सारा ति मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछापुरिस० भुज०-अप्प०-अपहि० अणंताणु०चउक्क० अवत्त० सम्म०-सम्मामि० भुज.. अप्प०-अवत्त०-अवहि. इत्थि०-णqस०-चदुणोक. भुज०-अप्प० लोग. असंखे०भागो अहचोदस० । आणदादि जाव अच्चुदा ति सव्वपयडीणं सव्वपदेहि केव० इन दोनों प्रकृतियोंके उक्त पदवाले देवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और विहार आदिकी अपेक्षा स्पर्शन त्रस नालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
३२४. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा वसनालीके कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवक्तव्यविभक्तिवाले, स्त्रीवेदकी भुजगारविभक्तिवाले तथा पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा बसनालीके कुछ कम साढ़े तीन और कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अल्पतरविभक्तिवाले तथा नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके कुछ कम साढे तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ- यहाँ भी अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य पद, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अवक्तव्यपद, स्त्रीवेदका भुजगारपद और पुरुषवेदका भुजगार और अवस्थितपद एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय नहीं होते, इसलिए इनकी अपेक्षा स्पर्शन कहते समय त्रसनालीका कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन नहीं कहा है । शेष कथन सुगम है।
३२५. सनत्कुमार से लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पुरुषवेदकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले, अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अल्पतर, अवक्तव्य और अवस्थितविभक्तिवाले तथा स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतर विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें सब
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे णाणाजीवेहि कालो १६३ फोसिदं ? लोग० असंखे०भागो छचोइस०। उवरि खेत्तभंगो । एवं जाव अणाहारि ति।
फोसणं समत्तं । ६३२६. गाणाजीवेहि कालाणुगमेण दुविहो गिद्दे सो-प्रोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछ० भुज०-अप्प०-अवहि. केवचिरं ? सव्वद्धा। अणंताणु च उक्क०-सम्म०-सम्मामि० अवत्त० पुरिस० अवहि० केव० ? जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो । पुरिस० अवहि० अंतोमुहुत्तं वा । सम्म०-सम्मामि० भुज० जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवहि. जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अप्प. सत्तणोक० भुज०-अप्प० सव्वदा। छण्णोक० अवहि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। एवं तिरिक्खोघो । णवरि छण्णोक० अवहि० णत्थि । पुरिस० अवढि० अंतोमुहुत्तं पि णत्थि । प्रकृतियोंके सब पदवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और वसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ऊपर के देवोंमें स्पर्शन का भङ्ग क्षेत्रके समान है । इसप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इसप्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ। ६ ३२६. नाना जीवोंकी अपेक्षा कालानुगमके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है-श्रोष और आदेश। उनमें से ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका कितना काल है ? सर्वदा काल है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्यविभक्तिका तथा पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अथवा पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अल्पतरविभक्ति तथा सात नोकषायों की भुजगार और अल्पतर विभक्तिका काल सर्वदा है। छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार सामान्य तियश्चोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्ति नहीं है तथा पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त भी नहीं है।
विशेषार्थ-यहाँ मिथ्यात्व आदि उन्नीस प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपद एकेन्द्रिय आदि सब जीवोंके होते हैं, इसलिए नाना जीवोंकी अपेक्षा इनका सर्वदा काल बन जानेसे वह सर्वदा कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्यपद ऐसे जीवोंके होता है जो विसंयोजनाके बाद पुनः उससे संयुक्त होते हैं, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद जो इनकी सत्ता से रहित जीव उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करते हैं उसके प्रथम समयमें होता है और पुरुषवेदका अवस्थित पद सम्यग्दृष्टि जीवके होता है। यह सम्भव है कि एक या नाना जीव उक्त प्रकृक्तियोंके ये पद एक समय तक ही करें और यह भी सम्भव है कि प्रावलिके असंख्यातवें
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसंविहीती
९ ३२७. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० सोलसक० - पुरिस०-भय- दुर्गुछ० भुज०अप्प० सम्बद्धा | अवद्वि० अनंताणु ० चक्क • अवत्त० सम्म० - सम्मोमि० अवत्त० जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । सम्म० सम्मामि० भुज० - श्रवडि ० जह० अंतोमु० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । अप्प० छण्णोक० भुज०अप्प ० सव्वद्धा । एवं सत्तसु पुढवीसु पंचिंदियतिरिक्खतिय देवगइदेवा भवणादि जाव उवरिमगेवज्जाति ।
१६४
९३२८. पंचि०तिरि० अपज्ज० मिच्छ० - सोलसक०-भय- दुर्गुछा० भुज० अप्प ० सव्वद्धा । अवद्वि० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । सम्म० - सम्मोमि०
भागप्रमाण काल तक करते रहें । यही कारण है कि इनके उक्त पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल वलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा उपशमश्रेणिमें पुरुषवेदके अवस्थितपदका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जानेसे विकल्परूपसे उक्तप्रमाण कहा है। उपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति होने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्ति अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है, इसलिए तो इस विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है और क्रमसे यदि नाना जीव इन प्रकृतियोंकी इस विभक्तिको करते रहें तो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल प्राप्त होता है, इसलिए इनकी इस विभक्तिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाणए कहा है । नाना जीवोंकी अपेक्षा सासादनका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनके अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्के संख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इन दोनों प्रकृतियोंकी अल्पतरविभक्ति तथा सात नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति सर्वदा होती है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि उक्त प्रकृतियोंकी ये विभक्तियाँ एकेन्द्रियादि जीवोंके भी पाई जाती हैं। शेष कथन सुगम है ।
। सम्यक्त्व
$ ३२७. आदेश से नारकियों में मिध्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका काल सर्वदा है । इनकी अवस्थितविभक्तिका, अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल क्रमसे अन्तर्मुहूर्त और एक समय है तथा दोनों विभक्तियोंका उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । इनकी अल्पतरविभक्तिका तथा छह नोकपायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका काल सर्वदा है । इसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें, पञ्च न्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, देवगतिमें देव और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — ओघ से सब प्रकृतियोंके सब पदोंका काल घटित करके बतला आये हैं । यहाँ भी स्वामित्वको ध्यान में रखकर वह घटित कर लेना चाहिए । विशेष वक्तव्य न होनेसे उसका अलग स्पष्टीकरण नहीं किया है। इसीप्रकार आगे भी जान लेना चाहिए ।
$ ३२८. पन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका काल सर्वदा है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व और
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AAAgronomna
newne
गा० २२]: उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे णाणाजीवेहि कालो अप० सत्तणोक० भुज०-अप्प० सव्वदा।
३२६. मणुसगईए मणुसाणं गैरइयभंगो। गवरि तिहमवत्त० पुरिस० अवहि० जह० एगस०, उक्क० संखेजा समया । सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवहि० जह० अंतोमु० एग०, उक्क० अंतोमुं० । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु । णवरि सव्वेसिं अवहि० जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । उवसमसेढीए मणुसतियम्मि बारसक०-णवणोक० अवहि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० ।
३३०. मणुसअपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंडा० भुज०-अप्प. जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवहि. जह० एगस०, उक. आलि. असंखे०भागो। सम्म०-सम्मामि० अप्पद० सत्तणोक० भुज०-अप्पद० जह० एगस०, उक्क. पलिदो० असंखे०भागो। सम्यग्मिध्यात्ववकी अल्पतरविभक्तिका तथा सात नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका काल सर्वदा है।
६ ३२६. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीनकी अवक्तव्यविभक्तिका तथा पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका क्रमसे जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और एक समय है तथा दोनों विभक्तियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सबकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। उपशमणिमें मनुष्यत्रिकमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-उपशमश्रेणिमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अवस्थितविभक्ति ऐसे जीवोंके भी होती है जो इनका एक समय तक अवस्थित पद करके और दूसरे समयमें मरकर देव हो जाते हैं। तथा जो उपशमश्रेणिमें इनका अवस्थितपद करके आरोहण और अवरोहण करते हैं उनके अन्तर्मुहूर्त काल तक इनकी अवस्थितविभक्ति होती है। कुछ जीव यहाँ अवस्थितपद करनेके बाद उसके समाप्त होनेके अनन्तर समयमें भी यदि नाना जीव अवस्थितपद करें
और इसप्रकार निरन्तर क्रम चले तो भी अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, इसलिए मनुष्यत्रिकमें उक्त प्रकृतियोंके इस पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
६३३०. मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्तिका तथा सात नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। • १. ताप्रती 'अवटि० उक्क० अंतोमु इति पाठः ।
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जयला सहिदे कसाय पाहुडे
९ ३३१. अणुद्दिसादि जाव श्रवराइदा तिमिच्छ० सम्म ०. अर्णताणु ० चक्क० - इत्थवेद० णवुंस० अप्प० सम्वद्धा । दुर्गुछा ० - हस्स - रइ- अरइ-सोगाणं देवोघो । एवं सव्वह । असंखे० भागो तम्हि संखेज्जा समया । एवं जाव अणाहारि ति ।
नाणाजीवेहि कालो समत्तो ।
$ ३३२. णाणाजीवेहि अंतरं दुविहो णिद्द े सो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०- सोलसक०-भय-दुगुंछा० तिणिपदा णत्थि अंतरं निरंतरं । अनंताणु ० चउक्क० अवत्त० जह० एगस०, उक्क० चडवीसमहोरताणि सादिरेयाणि । एवं सम्म०सम्मामि० ० अवत० । सम्म० सम्मामि० अप्प० णत्थि अंतरं निरंतरं । भुज० जह० एगस०, उक्क० सत्त रादिंदियाणि । अवद्वि० जह० एस ०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । छण्णोक० भुज० अप्प० णत्थि अंतरं । अवद्वि० जह० एगस०, उक्क० वासपुधतं । एवं पुरिस० । णवरि अवद्वि० जह० एगस०, उक० असंखेज्जा लोगा । उवसमसेदिविवक्खाए पुण वासपुधत्तं ।
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[ पदेसहित ५
०- सम्मामि०
विशेषार्थ - यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए इसमें उक्त काल बन जाता है ।
$ ३३१. अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्तिका काल सर्वदा है । बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ श्रवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल कहा है वहाँ संख्यात समय काल कहना चाहिए । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा काल समाप्त हुआ ।
बारसक० - पुरिस०-भयणवरि जम्हि आवलि०
$ ३३२. नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर कालका निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रघसे मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके तीन पदोंका अन्तर काल नहीं है वे निरन्तर हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है । इसीप्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व की वक्तव्यविभक्तिका अन्तर काल जानना चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिका अन्तर काल नहीं है वह निरन्तर है। भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। छह नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति अन्तर काल नहीं है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व प्रमाण है । इसीप्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । परन्तु उपशमश्रेणिकी विवक्षासे वर्ष पृथक्त्वप्रमाण है ।
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गा० २२ ]
तरपय डिपदेस बिन्तीए भुजगारे गाणाजीबेहि अंतरं
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९ ३३३. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - सोलसक० - पुरिस०-मय- दुर्गुछ० भुज ०अप्प णत्थि अंतरं णिर० । अवहिं० जह० एस ०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । सम्म० सम्मामि० छण्णोक० ओघो । णवरि छण्णोक० अवहि० णत्थि | अणंताणु ० चउक्क० अवत० ओघो । एवं सत्तसु पुढवीसु । पंचि०तिरिक्खतिय- मणुसतिय-देवा भवणादि जाव उवरिमगेवज्जा ति एवं चेव । णवरि मणुसतियम्मि सत्तणोक० प्रवद्वि० ओघं । बारसक०-भय-दुगुंछाणं पि अवद्वि० उवसमसेदिविवक्खाए
विशेषार्थ - ओघसे मिथ्यात्व आदि उन्नीस प्रकृतियोंके तीन पदोंका | काल सर्वेदा घटित करके बतला आये हैं, इसलिए यहां उक्त प्रकृतियोंके इन पदोंके अन्तरकालका निषेध किया है । यह सम्भव है कि जिन्होंने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की है वे जीव कमसे कम एक समयके अन्तरसे उनसे संयुक्त हों, इसलिए तो इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और जिन्होंने इनकी विसंयोजना की है ऐसा एक भी जीव अधिक से अधिक साधिक चौबीस दिन रात तक इनसे संयुक्त न हो यह भी सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके वक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले मिध्यादृष्टि जीव निरन्तर पाये जाते हैं और वे उनकी अल्पतरविभक्ति ही करते हैं, इसलिए इनके अल्पतर पदके अन्तरकालका निषेध किया है । इनकी भुजगार विभक्ति सम्यग्दृष्टिके होती है और उपशमसम्यक्त्वका जघन्य अन्तर एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात दिन-रात है, इसलिए इनके भुजगारपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात दिन-रात कहा है। तथा इनका अवस्थितपद सासादनसम्यग्दृष्टिके होता है, इसलिए सासादनके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल के समान इनके अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। एकेन्द्रियादि जीवोंके भी छह नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति होती रहती है, इसलिए इनके उक्त दोनों पदोंके अन्तरकालका निषेध किया है । तथा इनकी अवस्थितविभक्ति उपशमश्रेणिमें होती है, इसलिए इनके इस पदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्वप्रमाण कहा है। पुरुषवेदका अन्य सब भङ्ग छह नोकषायों के समान ही है । मात्र उसके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल दो प्रकारसे बतलाया सो विचार कर घटित कर लेना चाहिए ।
$ ३३३. आदेशसे नारकियोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका अन्तर काल नहीं है निरन्तर है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और छह नोकषायका भङ्ग घके समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँ छह नोकषायोंका अवस्थित पद नहीं है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान है । इसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए । पचन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, देव और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रवेयक तकके देवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिमें सात नोकषायोंके अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है । तथा बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी भी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर काल उपशश्रेणिकी विवक्षासे १. प्राoप्रतौ 'थिर० । सिगमा अवद्वि०' इति पाठः ।
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जयधबलासहिदे फसायपाहुरे [पदेसविहत्ती ५ वासपुधत्तं ।
३३४. तिरिक्खगईए तिरिक्खाणमोघो । गवरि लण्णोक० अवहि० णत्थि। पुरिस० अवहि. वासषुधत्तं णत्थि । पंचिंतिरि०अपज. पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि सम्म-सम्मामि० अप्प० पुरिस० भुज०-अप्प० पत्थि अंतरं । सेसपदाणि अणंताणु० अवत्तव्वं च गत्थि । मणुसअपज्ज. छव्वीसं पयडीणं भुज०-अप्प० सम्म०-सम्मामि० अप्प० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। जेसिमवाहिदपदमत्थि तेसिं जह० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अणुद्दिसादि जाव सव्वहा ति मिच्छ०-सम्म-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क०-इत्थिा -णवूस. अप्प. चउणोक. भुज०-अप्प० पत्थि अंतरं । बारसक०-पुरिस-भय-दुगुंछा० रइयभंगो । एवं जाव अणाहारि ति।
णाणा० अंतरं समत्तं । $ ३३५. भावाणुगमेण दु० णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सचपयडीणं सबपदा ति को भावो ? ओदइओ भावो । एवं जाव अणाहारि ति।
भावाणुगमो समत्तो। वर्षपृथक्त्वप्रमाण है।
विशेषार्थ-अपने अपने स्वामित्वको देखकर यहाँ सब प्रकृतियोंके अपने अपने पदोंका अन्तर काल घटित कर लेना चाहिए। विशेष वक्तब्य न होनेसे हमने अलग अलग खुलासा नहीं किया है । तथा इसीप्रकार आगे भी जान लेना चाहिए। .
६३३४. तिर्यश्चगतिमें सामान्य तियश्चोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंका अवस्थितपद नहीं है। तथा पुरुषवेदके अवस्थित पदका वर्षपृथक्त्वप्रमाण अन्तर काल नहीं है। पञ्च न्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तियंञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति तथा पुरुषवेदकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका अन्तर काल नहीं है। इनके शेष पद तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्यपद नहीं है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। जिनका अवस्थितपद है उनके इस पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्ति तथा चार नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका अन्तर काल नहीं है । बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग नारकियोंके समान है। इसप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
- इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर काल समाप्त हुआ। ६३३५. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे सब प्रकृतियोंके सब पदोंका कौन भाव है ? औदयिकभाव है। इसप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इसप्रकार भावानुगम समाप्त हुआ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे अप्पाबहुअं।
$ ३३६. अप्पाबहुआणुगमेण दुविहो गिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-बारसक०-भय-दुगुंछाणं सव्वत्थोवा अवहिदविहत्तिया । अप्पद० असंखे०गुणा । भुज० संखे०गुणा । सम्म०-सम्मामि० सव्वत्थोवा अवहि० । अवत्त० असंखे० गुणा। भुज० असंखे० गुणा। अप्प० असंखे० गुणा। अणंताणु० चउक्कस्स सव्वत्थोवा अवत्त । अवहि अगा : सेसं मिच्छत्तभंगो । इत्थि०-हस्स-रईणं सव्वत्थोवा अवहि । भुज. अणंतगुणा । अप्प० संखे० गुणा । णवंसय०-अरदि-सोगाणं सव्वत्थोवा अवहि । अप्प० अणंतगुणा । भुज० संखे गुणा। पुरिसवेदस्स सव्वत्थोवा अवहि । भुज. अणंतगुणा । अप्प० संखे०गुणा । एवं तिरिक्खोघो। णवरि छण्णोक० अवहि० णत्थि ।
___३३७. आदेसेण णेरइय० अणंताणु चउक्कस्स सव्वत्थोवा अवत्त । अवहि० असंखे० गुणा । अप्प. असंखे० गुणा । भुज० संखे०गुणा । पुरिस० सव्वत्थोवा अवहिः । भुज० असंखे० गुणा । अप्प० संखे०गुणा । सेसाणमोघो । णवरि छण्णोक० अवहि० गत्थि । एवं सव्वणेरइय-पंचिंदियतिरिक्खतिय-मणुस्सोघं देवगदीए देवा भवणादि जाव सहस्सार त्ति । णवरि मणुस्सेम सम्म०-सम्मामि० सव्वत्थोवा अवहि।
६३३६. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। शेष भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। स्त्रीवेद, हास्य और रतिके अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। नपुंसकवेद, अरति और शोकके अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं ! पुरुषवेदके अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें छह नोकषायोंका अवस्थितपद नहीं है।।
६३३७. श्रादेशसे नारकियोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदके अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंका अवस्थितपद नहीं है। इसीप्रकार सब नारकी, पश्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक, सामान्य मनुष्य, देवगतिमें देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अवत्त० संखे०गुणा । भुज० संखे०गुणा । अप्प० असंखे०गुणा । इत्थि०-हस्स-रईणं सव्वत्थोवा अवहि० । भुज० असंखे०गुणा । अप्प० संखे० गुणा । णस०-अरइसोगाणं सब्वत्योवा अवहि० । अप्प० असंखे०गुणा । भुज० संखे गुणा ।
६३३८. पंचिं०तिरि०अपज० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछाणमोघो । णवरि अणंताणु०चउक्क० अवत्त० णत्थि । सम्म०-सम्मामि० णत्थि अप्पाबहुअं, एयपदत्तादो। इत्थिवेद०-पुरिस-हस्स-रदीणं सव्वत्थोवा भुज० । अप्प० संखेज्जगुणा । णवूस-अरदिसोगाणं सव्वत्थोवा अप्प० । भुज० संखे०गुणा । एवं मणुसअपज्ज।
___३३६. मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मिच्छ०-बारसक०-भय-दुगुंडा० सव्वत्थोवा अवहि० । अप्प० संखे०गुणा। भुज० संखे०गुणा। अणंताणु०चउक्क० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवडि० संखे०गुणा। सेसं मिच्छत्तभंगो। सम्म०-सम्मामि० सव्वत्थोवा अवहि० । अवत्त संखे०गुणा । भुज० संखेगुणा। अप्प० संखे.गुणा । पुरिस० सव्वत्थोवा अवहि० । भुज० संखे गुणा। अप्प० संखे०गुणा। सेसमोघो। णवरि
देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्योंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवक्तव्यविभक्तिबाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेद, हास्य और रतिके अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। नपुंसकवेद, अरति और शोकके अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं।
६३३८. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका भङ्ग पोषके समान है। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्यपद नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहाँ इनका एक पद है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिके भुजगारविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। नपुंसकवेद, अरति और शोकके अल्पतरविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए।
६३३६. मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साके अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्यविभविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। शेष भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदके अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। शेष भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए पदणिक्खेवे समुकित्तणा
१७१ छण्णोक० अवहि० सव्वत्थोवं । उवरि संखेज्जगुणं कायव्वं ।
३४०. आणदादि जाव उवरिमगेवज्जा ति बारसक०-इत्थि०-हस्स-रइअरइ--सोग--भय--दुगुंछा--सम्मत्त--सम्मामिच्छताणं देवोघो । अणंताणु० चउकस्स सव्वत्थोवा अवत्त० । अवहि. असंखेगुणा । भुज० असंखे.गुणा । अप्प० संखे०गुणा । एवं मिच्छ० । णवरि अवत्त० णस्थि । पुरिस० कसायभंगो। णवूस० इत्थिवेदभंगो। अणुद्दिसादि जाव अवराइद त्ति दंसणतिय-अणंताणु० चउक्क०-इत्थि०णस० वेदाणं णत्थि अप्पाबहुअं। सेसाणमुवरिमगेवज्जभंगो। सबढे एवं चेव । गवरि बारसक०-पुरिस-भय-दुगुंछा० संखे०गुणं कायव्वं । एवं जाव अणाहारए ति ।
एवं भुजगारविहत्ती समत्ता । ॐ पदणिक्खेव-वडीओ च कायव्वाओ ।
६ ३४१. एदस्स मुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-पदाणमुक्कस्स-जहण्ण-वडि-हाणिअवहाणावत्तव्यसण्णिदाणं णिक्खेवो समुकित्तणा-सामित्तादिविसेसेहि णिच्छयजणणं पदणिक्खेवो णाम । भुजगारविसेसो पदणिक्खेवो ति वुत्तं होइ । पदणिक्खेवविसेसो बड्डी णाम । एदाओ दो वि विहत्तीओ भुजगाराणुसारेणेत्थ कायवाओ त्ति अत्थकि छह नोकपायोंकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं । आगे संख्यातगुणा करना चाहिए।
३४०. आनत कल्पसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें बारह कषाय, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मिथ्यात्वके सम्भव पदोंका अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि इसकी अवक्तव्यविभक्ति नहीं है। पुरुषवेदका भङ्ग कषायोंके समान है। नपुंसकवेदका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है । अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें तीन दर्शनमोहनीय, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका अल्पबहुत्व नहीं है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उपरिम वेयकके समान है। सर्वार्थसिद्धिमें इसीप्रकार भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका अल्पबहुत्व कहते समय संख्यातगुणा करना चाहिए। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
इसप्रकार भुजगारविभक्ति समाप्त हुई। * पदनिक्षेप और वृद्धि करनी चाहिए ।
३४१. इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-उत्कृष्ट और जघन्य वृद्धि, हानि, अवस्थान और अवक्तव्य संज्ञावाले पदोंका निक्षेप अर्थात् समुत्कीर्तना और स्वामित्व आदि विशेषोंके द्वारा निश्चय उत्पन्न करना पदनिक्षेप कहलाता है। भुजगारविशेषको पदनिक्षेप कहते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । तथा पदनिक्षेपविशेषको वृद्धि कहते हैं। ये दोनों ही विभक्तियाँ भुजगारके
-~~------rrrrrrrrrrrnwar-vAwarurvardwar"
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१७२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ समप्पणा एदेण कदा होइ । संपहि एदेण सुत्तेण समप्पिदत्थविवरणमुच्चारणवलेण कस्सामो। तं जहा–उत्तरपयडिपदणिक्खेवे ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगदाराणिसमुक्त्तिणा सामित्तमप्पाबहुए ति।
३४२. तत्थ समुक्त्तिणा दुविहा—जहण्णा उक्कस्सा। उक्कस्सए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक-पुरिस-भय-दु० अत्थि उक्कस्सिया वड्डी हाणी अवहाणं च । सम्मत्त-सम्मामि० इत्थि-णqस०-हस्सरइ-अरइ-सोगाणं अत्थि उक. वडी हाणी च । णवरि एत्थावद्विदस्स वि संभवो अस्थि, सासणसम्माइहिम्मि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं तदुबलंभादो । सेसाणं पि उवसमसेढीए सव्योवसामणम्मि तदुवलंभसंभवादो । तमेत्थ ण विवक्खियमिदि णेदव्वं । अदो चेव उपरिमो अप्पणागंथो सुसंबद्धो। एवं सबणेरइय-तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्ख३-मणुस ३-देवा जाव उपरिमगेवज्जा त्ति ।
६३४३. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछा० अत्थि उक्क० वड्डी हाणी अवहाणं च । सम्म०-सम्मामि० अस्थि उक्क० हाणी। सत्तणोक० अत्थि उक्क. बड्डी हाणी च । एवं मणुसअपज्ज० । अणुद्दिसादि जाव सव्वहा त्ति
अनुसार यहाँ करनी चाहिए इसप्रकार इस सूत्र द्वारा अर्थका समर्पण किया गया है। अब इस सूत्र द्वारा समर्पित किए गये अर्थका विवरण उच्चारणाके बलसे करते हैं । यथाउत्तरप्रकृतिपदनिक्षेपका प्रकरण है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं - समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ।
.६३४२. समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय
और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट हानि है। इतनी विशेषता है कि यहाँ पर अवस्थितपद भी सम्भव है, क्योंकि सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अवस्थितपद उपलब्ध होता है। तथा शेष प्रकृतियोंका भी अवस्थितपद उपशमशेणिमें सर्वोपशामना होने पर उपलब्ध होता है। परन्तु वह यहाँ पर विवक्षित नहीं है ऐसा जानना चाहिए और इसीलिए उपरिम अर्पणा ग्रन्थ सुसम्बद्ध है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, देव और उपरिम वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए।
३४३. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें भिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि है। सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि और हानि है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए।
१. ता.प्रतौ 'उक० हाणी । [ सत्तणोक० अस्थि उक्क हाणी ] सत्तणोक०' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्तं . १७३ मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४-इत्थि०-णवूस. अत्थि उक० हाणी। णवरि सम्म०-सम्मामि० बडीए वि संभवो दीसइ, उवसमसेढीए कालं कादूण तत्थुप्पएणउवसमसम्मादिहिम्मि दोण्हमेदेखि कम्माणं वडिदंसणादो। एदमेत्थ ण विवक्खियमिदि णेदव्वं । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमत्थि उक्क० वड्डी हाणी च । बारसक०पुरिस०-भय दुगुंछा० ओघं । एवं जाव अणाहारि त्ति। एवं जहण्णयं पिणेदव्वं, विसेसाभावादो।
३४४. सामित्तं दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिसोओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णद. जो हदसमुप्पत्तियकम्मंसिओ कम्मं क्खवेहदि ति विवरीदं गंतूण सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववण्णो सबलहुँ सव्वाहिं पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो उकस्ससंकिलेसमुक्कस्सगं च जोगं गदो तस्स उक्कस्सिया बडी। तस्सेव से काले उकस्सयमवहाणं । वरि तप्पाओग्गजहण्णसंतकम्मिओ खरिदकम्मंसिओ आणेदव्यो, बंधाणुसारेणेदमुक्कस्सबडिसामित्तं पयट्ट', अण्णहा पुण गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंदूण विवरीयभावेण सम्पत्त-सम्मामिच्छत्ताणि पूरेदण तदो मिच्छत्तं गयस्स पढमसमए पयदसामित्तेण होदव्वं, तत्थासंखेजाणं गुणिदसमयपबद्धाणमधापवत्तेण मिच्छत्तस्सुवरि परिवट्टिदसणादो। उक्क० अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुसकवेदकी उत्कृष्ट हानि है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी वृद्धि भी सम्भव दिखलाई देती है, क्योंकि उपशमश्रेणिमें मरण करके वहाँ उत्पन्न हुए उपशमसम्यग्दृष्टि जीवमें इन दो कर्मों की वृद्धि देखी जाती है। किन्तु यह यहाँ पर विवक्षित नहीं है ऐसा जानना चाहिए। हास्य, रति, अरति और शोककी उत्कृष्ट वृद्धि और हानि है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। तथा उत्कृष्टके समान जघन्य भी जानना चाहिए, क्योंकि उत्कृष्टसे इसमें कोई विशेषता नहीं है।
इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई। ६ ३४४. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर हतसमुत्पत्तिक कांशिक जीव कर्मका क्षपण करेगा किन्तु विपरीत जाकर सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हो और अति शीघ्र सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो उत्कृष्ट संक्लेश और उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इतनी विशेषता है कि तत्प्रायोग्य जघन्य सत्कर्मवाले क्षपितकांशिक जीवको लाना चाहिए। बन्धके अनुसार यह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामित्व प्रवृत्त हुआ है, अन्यथा गुणितकर्माशिक लक्षणसे आकर विपरीत भावसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको पूरकर अनन्तर मिथ्यात्वको प्राप्त होने पर उसके प्रथम समयमें प्रकृत स्वामित्व होना चाहिए, क्योंकि वहां पर असंख्यात गुणित समयप्रबद्धोंकी अधःप्रवृत्तभागाहारके द्वारा मिथ्यात्बके ऊपर वृद्धि देखी जाती है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ हाणी कस्स ? अण्णद० जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो हिस्सरिदसमाणो दो-तिण्णि भवे पंचिंदिएबादरेइंदिएसु च गमेदूण तदो मणुस्सेसु गम्भोवक्कतिएसु जादो सव्वलहुँ जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो अवस्सिओ सम्मत्तं पडिवज्जिय दसणमोहक्खवणाए अब्भुहिदो तेण मिच्छत्तं खविज्जमाणं खविदं जाधे' अपच्छिम. हिदिखंडगं चरिमसमयसंछुब्भमाणगं संछुद्धं ताधे तस्स मिच्छत्तस्स उक्क० हाणी। सम्मत्त०-सम्मामि० उक० वट्टी कस्स १ अण्णद. जो गुणिदकम्मसिओ सत्तीए पुढवीए णेरइओ अंतोमुहुत्तेण मिच्छत्तमुक्कस्सं काहिदि त्ति विवरीयं गंतूण सम्मत्तं पडिवण्णो । तत्थ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तागि गुणसंकमेण पूरिदाणि अंतोमुहुत्तमसंखेज्जगुणाए सेढीए सो से काले विज्झादं पडिहिदि त्ति तस्स उक्क० वड्डी। अथवा दंसणमोहक्खवगेण गुणिदकम्मंसिएण जाधे मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते पक्वित्तं ताधे सम्मामिच्छत्तस्स उक० वड्डी । तेणेव जाधे सम्मामिच्छत्तं सम्मत्ते पक्खित्तं ताधे [सम्मत्तस्स उक० वड्डी]। सम्म० उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० गुणिदकम्मंसियस्स अक्खीणदंसणमोहणीयस्स चरिमसमए वट्टमाणस्स । सम्मामि० उक्क० हाणी कस्स ? गुणिदकम्मसिएण सम्मामिच्छत्तं सम्मत्ते जाधे संपक्वित्तं ताधे तस्स उक्क० हाणी । अणंताणु०४ उक्क० वड्डी अवहाणं च मिच्छत्तभंगो। उक्क० हाणी कस्स ? अण्ण. मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकांशिक जीव सातवीं पृथिवीसे निकल कर तथा दो तीन भव पञ्चन्द्रियों और बादर एकेन्द्रियोंमें बिता कर अनन्तर गर्भज मनुष्योंमें उत्पन्न होकर अतिशीघ्र योनिसे निकलने रूप जन्मसे आठ वर्षका होकर तथा सम्यक्त्वको प्राप्त हो दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ। उसने क्षयको प्राप्त होनेवाले मिथ्यात्वका क्षय करते हुए जब अन्तिम स्थितिकाण्डकका अन्तिम समयमें संक्रमण किया तब उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकांशिक जीव सातवीं पृथिवीमें नारकी होकर अन्तमुहूतमें मिथ्यात्वको उत्कृष्ट करेगा किन्तु विपरीत जाकर और सम्यक्त्वको प्राप्त होकर वहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको गुणसंक्रमके द्वारा अन्तर्मुहूर्त काल तक असंख्यातगुणी गुणश्रेणिरूपसे पूरकर अनन्तर समयमें विध्यातको प्राप्त होगा ऐसे उस जीवके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । अथवा दर्शनमोहनीयका क्षपक जो गुणितकांशिक जीव जब मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रक्षिप्त करता है तब उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा वही जब सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमें प्रक्षिप्त करता है तब सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर दर्शनमोहनीयका क्षय करनेवाला गुणितकांशिक जीव अन्तिम समयमें विद्यमान है उसके सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकांशिक जीव जब सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमें प्रक्षिप्त करता है तब उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि होती है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर
. १, ता०प्रतौ 'जादे (धे) प्रा०प्रतौ 'जादे' इति पाठः ।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेस विहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्तं
१७५
1
गुणिदकम् मंसियो जो सत्तमाए पुढवीए रइयो कम्ममं तो मुहुत्ते गुणेहिदि ति सम्मत्तं पडिवो अंतोमुहुत्तेण श्रणतारणुबंधी विसंजोजयंतेरा तेण अपच्छिमे हिदिखंड संकामिदे तस्स उक्क० हाणी । अट्ठएहं कसायाणमुक्कसवडी अवद्वाणं मिच्छत्तभंगो । उक्क० हाणी कस्स ? गुणिदकम्मं सियस्स अणियट्टिखवगस्स अहं कसायाणमपच्छिमे द्विदिखंडए संकामिदे तस्स उक्क० हाणी । तिन्हं संजलणाणमाहकसायभंगो | लोहसंजलणस्स एवं चेव । णवरि सुहुमसांपराइयस्स चरिमसमए उक्क० हाणी । इत्थि स ० - हस्स- रइ- अरइ- सोगाणमुक्क० वड्डी मिच्छत्तभंगो । उक्क० हाणी कस्स १ अणद० गुणिदकम्मं सियस्स खवगस्स चरिमे द्विदिखंडए चरिमसमयकामिदे इत्थि - स० उक० हाणी । हस्स - रइ- अरइ सोगाणमुक्क० हाणी गुणिदकम्मंसियस्स खवगस्स चरिमडिदिखंडयदुचरिमसमयसंकामयस्स । पुरिसवेद० उक्क० बड़ी मिच्छत्तभंगो । अवद्वाणं कस्स : अरणद० असंजदसम्माइहिस्स अवद्विदपाओग्गसंतकम्मिएण उक्कसवड काढूणावद्विदस्स तस्स उक्क० अवद्वाणं । उक्क ० हाणी कस्स १ अण्णद० गुणिदकम्मं सियस्स खवगस्स चरिमहिदिखंडयं विणासेमाणगस्स उक्क० हाणी | भय-दुगुं छाणं वड्डि-अवद्वाणमुकस्सं मिच्छत्तभंगो । उक्क० हाणी कस्स १ अण्णद० गुणिदकम्मं सियस्स खवगस्स चरिमडिदिखंडय दुचरिमसमए वट्टमाणगस्स । गुणितकर्माशिक सातवीं पृथिवीका नारकी जीव कर्मको अन्तर्मुहूर्त के द्वारा गुणित करेगा, इसलिए सम्यक्त्वको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्तके द्वारा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते हुए जब अन्तिम स्थितिकाण्डकका संक्रमण करता है तब उसके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट हानि होती है। आठ कषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग ! मिथ्यात्वके समान है । इनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक अनिवृत्तिक्षपक जीव आठ कषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकका संक्रमण करता है उसके इनकी उत्कृष्ट हानि होती है। तीन संज्वलनोंका भङ्ग आठ कषायों के समान है । लोभसंज्वलनका भङ्ग इसीप्रकार है । इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समय में इसकी उत्कृष्ट हानि होती है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी उत्कुष्ट वृद्धिका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है । इनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक क्षपक जीव अन्तिम स्थितिकाण्डकका अन्तिम समय में संक्रमण कर रहा है उसके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट हानि होती है। तथा जो गुणितकर्माशिक क्षपक जीव हास्य, रति, रति और शोकके अन्तिम स्थितिकाण्डकके द्विचरम समय में संक्रमण कर रहा है उसके इनकी उत्कृष्ट हानि होती है । पुरुषवेदकी उत्कृष्ट वृद्धिका भङ्ग मिध्यात्वके समान है। इसका उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? जो अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जीव अवस्थितप्रायोग्य सत्कर्मके साथ उत्कृष्ट वृद्धि करके अवस्थित है उसके इसका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक क्षपक जीव चरम स्थितिकाण्डकका विनाश कर रहा है उसके इसकी उत्कृष्ट हानि होती है । भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग मिथ्यात्व के समान है । इनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्तर गुणितकर्माशिक क्षपक जीव अन्तिम स्थितिकाण्डकके द्विचरम समय में विद्यमान है उसके इनकी उत्कृष्ट हानि होती है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहीती ५
९ ३४५. आदेसेण णेरइय० मिच्छत्त० उक्तस्सवड्डि-अवहारामोघभंगो | उक्कस्सिया हाणी कस्स १ अण्णद० जो गुणिदकम्मंसिओ अंतोमुहुत्तेण कम्मं गुणेहिदि ति तदो सम्मत्तं पडिवण्णो सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणि गुणसंकमेण पूरेदूण से काले विज्झादं पडिहिदित्ति तस्स उक्क० हाणी । सम्मत - सम्मामिच्छत्ताणमुकस्सिया बड़ी कस्स ? अण्णदरस्स गुणिदकम्मं सियस्स जो सत्तमा पुढवीए रइओ अंतोमुहुत्तेण कम्मं गुणेहिदि त्ति सम्मतं पडिवण्णो तदो सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणि गुणसंकमेण पूरेयुग से काले विज्झादं पडिहिदि ति तस्स उक्क० वड्डी । सम्म० उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० जो गुणिदकम्मं सिओ चरिमसमय अक्खीणदंसणमोहणीओ तस्स उकस्सिया हाणी । सम्मामि० उक्क० दाणी कस्स १ अण्णद० गुणसंकमेण सम्मामिच्छत्तदो सम्मत्तं पूरेयूण विज्झादं पदिदपढमसमए तस्स उक्क० हाणी । अनंताणु०४ उक्कसवडी अवद्वाणं मिच्छत्तभंगो | उक्कस्सिया हाणी कस्स १ अण्णद० गुणिदकम्मं - सियस्स सम्मत्तं पडिवज्जियूग अनंताणु ०४ विसंजोए तस्स तस्स अपच्छिमे हिदिखंडए चरिमसमयसंछोहयस्स तस्स उक्क० हाणी । बारसक० -भय- दुर्गुछा० उकस्सवडी अवद्वाणं मिच्छत्तभंगो । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरस्स गुणिदकम्मंसियस्स कदकर णिज्जभावेण णेरइएस उववण्णस्स जाधे गुणसेढिसीसयाणि उदयमागदाणि ताधे तस्स उक्कसिया हाणी । एवं पुरिसवेदस्स । णवरि अवद्वाणं सम्माइद्विस्स ।
$ ३४५. आदेश से नारकियोंमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग ओघके समान है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकमांशिक जीव अन्तर्मुहूर्तके द्वारा कर्मको गुणित करेगा किन्तु सम्यक्त्वको प्राप्त हो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको गुणसंक्रमके द्वारा पूरकर अनन्तर समय में विध्यातको प्राप्त होगा उसके मिध्यात्वकी उत्कृष्ट हानि होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक सातवीं पृथिवीका नारकी जीव अन्तर्मुहूर्त के द्वारा कर्मको गुणित करेगा किन्तु सम्यक्त्वको प्राप्त होकर अनन्तर सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वको गुणसंक्रमके द्वारा पूरकर अनन्तर समयमें विध्यातको प्राप्त होगा उसके इनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक जीव अन्तिम समयमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा कर रहा है उसके इसकी उत्कृष्ट हानि होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर जीव गुणसंक्रमके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व से सम्यक्त्वको पूरकर विध्यातको प्राप्त होता है उसके प्रथम समय में उसकी उत्कृष्ट हानि होती है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग मिथ्यात्व के समान है । इनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होकर अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करते समय अन्तिम स्थितिकाण्डका अन्तिम समयमें संक्रमण कर रहा है उसके इनकी उत्कृष्ट हानि होती है । बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग मिध्यात्वके समान है । इनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक जीव कृतकृत्यभावसे नारकियों में उत्पन्न हुआ उसके जब गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त होता है तब उसके इनकी उत्कृष्ट हानि होती है । इसीप्रकार पुरुषवेदके विषय में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसका अवस्थान
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्तं
१७७
इहिस्स | इत्थि स ० चदुणोकसाय० [उक्क० ] बड़ी मिच्छत्तभंगो । अवद्वाणं णत्थि । हाणी भय-दुर्गुछभंगो। जेसिमुदयो णत्थि तेसिं पि थिउक्कसंकमेणं पयदसिद्धी वत्तव्या । पढमाए एवं चैव । णवरि अप्पणी पुढवीए उववज्जावेचव्वो । विदियादि जाव सत्तमा त्ति एवं चेत्र । णवरि अष्पष्पणो पुढवीए णामं घेत्तूण उववज्जावेयव्वो । णवरि सम्पत्तस्स उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० गुणिदकम्मंसियस्स सम्मत्तं पडिवज्जियूण अनंताणुबंधि विसंजोय दिस जाधे गुणसेढिसीसयाणि उदयमागयाणि ताधे तस्स उक० हाणी । बारसक० - णवणोक० उक्क० हाणी एवं चेव ।
| ३४६. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स १ अण्णद० खविदकम्मं सिओ विवरीदं गंतूण तिरिक्खगईए उववण्णो सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जतय दो उक्कस्सजोगमुक्कस्ससं किलेसं च गदी तस्स उक० बढी । तस्सेव से काले उकस्सयमवद्वाणं । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? अण्णद० गुणिदकम्मंसियस्स संजमा संजम - संजम सम्मत्तगुणसेढीओ काढूण मिच्छत्तं गदो तदो अविणद्वासु गुणसेढीसु तिरिक्खेलु उववण्णस्स तस्स जाधे गुणसेडिसीसयाणि उदयमागदाणि ताधे मिच्छत्तस्स उक्क० हाणी । अथवा रइयभंगो । सम्मत्त० -सम्मामि० उक्कस्सिया वडी कस्स ? अण्णद० गुणिदकम्मं सिय
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सम्यग्दृष्टिके होता है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धिका भङ्ग मिथ्यात्व के समान है । इनका अवस्थान नहीं है । इनकी उत्कृष्ट हानिका भङ्ग भय और जुगुप्सा के समान है । तथा जिन प्रकृतियोंका उदय नहीं है उनकी भी स्तिवुकसंक्रमण से प्रकृत विषयकी सिद्धि करनी चाहिए। पहली पृथिवी में इसीप्रकार भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी पृथिवीमें उत्पन्न कराना चाहिए। दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी तक इसीप्रकार भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी पृथिवीका नाम लेंकर उत्पन्न कराना चाहिए । इतनी और विशेषता है कि सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होकर और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके स्थित है उसके जब गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त होते हैं तब उसके सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि होती है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भङ्ग इसीप्रकार है ।
६ ३४६. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चों में मिध्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर क्षपितकर्माशिक जीव विपरीत जाकर तिर्यञ्चगतिमें उत्पन्न हो और सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । तथा उसी के अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक जीव संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वकी गुणश्रेणियाँ करके मिध्यात्वको प्राप्त हो अनन्तर गुणश्रेणियोंके नष्ट हुए बिना तिर्यश्र्चों में उत्पन्न हुआ उसके जब गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त हुए तब उसके मिध्यात्वकी उत्कृष्ट हानि होती है । अथवा इसका भङ्ग नारकियोंके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक
१. ता०प्रतौ 'छिउक्कसंकमेण' इति पाठः । २. ता०प्रतौ ' एवं चेव । गामं घेत्ता । विदियादि' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहीत्ती ५ तिरिक्खो सम्मत्तं पडिवण्णो जाधे गुणसंकमेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि पूरेयूण से काले वि.झादं पडिहिदि त्ति ताधे तस्स उक्कस्सिया वड्डी। हाणी वि सम्मामिच्छत्तस्स विज्झादे पदिदस्स पढमसमए कायव्वा । सम्पत्तस्स उक्कस्सिया हाणी ओघं । अणंताणु०४ वडी अवहाणं च मिच्छत्तभंगो। उक. हाणी कस्स ? अण्णद. गुणिदकम्मंसियस्स अणंताणुबंधी विसंजोनेंतस्स अपच्छिमे हिदिखंडए संकामिदे तस्स उक्क० हाणी । बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० वड्डी अवहाणं मिच्छत्तभंगो। णवरि पुरिस० अवहाणं सम्माइहिस्स कायव्वं । उक्कस्सिया हाणी णेरइयभंगो। इत्थिणqस०-चदुणोक. उक० वड्डी मिच्छत्तभंगो। उक्कस्सिया हाणी परिसवेदभंगो। एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । गवरि जोणिणीसु सम्म०-बारसक०-णवणोक. उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० गुणिदकम्मंसियस्स संजम-संजमासंजम-सम्मत्तगुणसेढीओ कादूण तदो अविणहासु गुणसेढीसु मिच्छत्तं गंतूण जोणिणीसु उववण्णो जाधे गुणसेढिसीसयाणि उदयमागदाणि ताधे तस्स उक्क० हाणी ।
३४७. पंचि०तिरिक्ख०अपज्ज० मिच्छत्त--सोलसक०-भय--दुगुंछा० उक्क० बड्डी कस्स १ अण्णद० खविदकम्मंसियस्स जो विवरीदं गंतूण पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु उववण्णो अंतोमुहुत्तेण उक्कस्सजोगं गदो उक्कस्सयं च संकिलेसं पडिवण्णो तस्स उक्क० वड्डी । तस्सेव से काले उकस्सयमवहाणं । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० तिर्यश्च जीव सम्यक्त्वको प्राप्त हो जब गुणसंक्रमके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको पूरकर अनन्तर समयमें विध्यातको प्राप्त करेगा तब उसके इनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। हानि भी सम्यग्मिथ्यात्वकी विध्यातको प्राप्त हुए तिर्यञ्चके प्रथम समयमें करनी चाहिए। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानिका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी , उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाला जो अन्यतर गुणितकांशिक जीव अन्तिम स्थितिकाण्डकका संक्रमण करता है उसके इनकी उत्कृष्ट हानि होती है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदका अवस्थान पद सम्यग्दृष्टिके करना चाहिए। इनकी उत्कृष्ट हानिका भङ्ग नारकियोंके समान है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धिका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। तथा इनकी उत्कृष्ट हानिका भङ्ग पुरुषवेदके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तियश्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि योनिनीतियश्चोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकांशिक जीव संयम, संयमासंयम और सम्यक्त्वकी गुणश्रेणियाँ करके अनन्तर गुणिश्रेणियोंके नष्ट हुए बिना मिथ्यात्वमें जाकर योनिनी तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न हुआ। वह उसके जब गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त हुए तब उसके इनकी उत्कृष्ट हानि होती है।
६३४७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकमांशिक जीव विपरीत जाकर पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हो अन्तर्मुहूर्तमें उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ उसके इनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इनकी
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहन्तीए पदणिक्खेवे सामित्तं
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गुणिदकम्मं सिओ जो सम्मत्त-संजमा संजम -संजमगुणसेढीओ कोदूण मिच्छतं गदो अविणद्वासु गुणसेढी अपज्जत्तरसु उववण्णो तस्स गुणसेढिसीसएस उदयमागदेसु उक्क० हाणी | सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सिया हाणी तस्सेव । सत्तणोक० उक्क० वडि-हाणीण मिच्छत्तभंगो ।
९ ३४८. मणुसगदीए मणुसेसु मिच्छत्तस्स उक्क० बड्डी कस्स ? अण्णदरो खविदकम्मं सिओ तो मुहुतेरा कम्मं खवेहिदि त्ति विवरीयं गंतूरण मिच्छतं गदो उकस्स जोगमुक्कस्ससं किलेसं च पडिवण्णो तस्स उक्क० बढी । तस्सेव से काले उक्कस्सयमवद्वाणं । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? अण्णदरो गुणिदकम्मंसिओ दंसणमोहraature अभुद्विदो जाधे तेण अपिच्छमं द्विदिखंडयं गुणसेढिसीसगस्स संखेज्जदिभागेण सह हदं ताधे तस्स उक्क० हाणी । सम्मत्त सम्मामि० उक्क० वड्डी कस्स १ अणद० गुणिदकम्मंसियस्स सव्वलहुं मणुसेसु आगदो जोणिणिक्खमणजम्मा जादो अवस्सिगो सम्मत - सम्मामिच्छताणि गुणसंकमेण असंखे० गुणाए सेटीए अंतोमुहुतं पूरेयुग से काले विज्झादं पडिहिदि ति तस्स उक्कस्सिया वडी | अथवा दंसणमोहक्खवगस्स कायव्वं । सम्मत्तस्स उक० हाणी कस्स १ अएणद० गुणिदकम्मं सिस्स चरिमसमय अक्खीणदंसणमोहणीयस्स । सम्मामिच्छत्तस्स एदेणेव दंसणमोहं खवेंतेण जाधे गुणसेढिसीसगेण सह सम्मामि० अपच्छिमद्विदिखंडयं उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक जीव सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम गुणश्रेणियों को प्राप्त होकर तथा मिथ्यात्वमें जाकर गुणश्रेणियोंके नष्ट हुए बिना अपर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ उसके गुणश्रेणिशीर्षों के उदयको प्राप्त होने पर उत्कृष्ट हानि होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि उसीके होती है। सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि और हानिका भङ्ग मिथ्यात्व के समान है ।
६ ३४८. मनुष्यगतिमें मनुष्यों में मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर क्षपितकर्माशिक जीव अन्तर्मुहूर्त में कर्मों का क्षय करेगा किन्तु विपरीत जाकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट संक्लेशका अधिकारी हुआ उसके मिध्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेके लिए उद्यत हुआ। उसने जब अन्तिम स्थितिकाण्डकका गुणश्रेणिशीर्षके संख्यातवें भाग के साथ हनन किया तब उसके मिध्यात्वकी उत्कृष्ट हानि होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्मांशिक जीव अतिशीघ्र मनुष्योंमें आकर और योनिनिष्क्रमण जन्मसे आठ वर्षका होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको गुणसंक्रमके द्वारा असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे अन्तर्मुहूर्ततक पूरकर अनन्तर समयमें विध्यातको प्राप्त होगा उसके उक्त कर्मों की उत्कृष्ट वृद्धि होती है । अथवा इनकी उत्कृष्ट वृद्धि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके करनी चाहिए । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके अन्तिम समयमें अवस्थित है उसके सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि होती है । तथा यही दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला जीव जब गुणश्रेणिशीर्षके साथ सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ चरिमसमयं पक्खित्तं ताधे उक्क० हाणी। अणंताणु० उक्क० वड्डी अवहाणं च मिच्छत्तभंगो। उक्कस्सिया हाणी कस्स १ गुणिदकम्मंसियस्स सव्वलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो अहवस्सिओ सम्मत्तं पडिवण्णो भूयो अंतोमुहुत्तेण अणंताणुबंधी विसंजोएदि जाधे तेण गुणसेढिसीसगस्स संखेजदियागेण सह अपच्छिमहिदिखंडयं णिग्गालिदं ताधे अणंताणु० उक्क० हाणी। अहण्हं कसायाणमुक्कस्सवडि-अवहाणं मिच्छत्तभंगो। उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० गुणिदकमंसियस्स सव्वलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो अवस्सिओ खवणाए अन्भुट्टिदो जाधे अपच्छिमहिदिखंडयं गुणसेढिसीसगेहि सह संजलणाए संपक्खित्तं ताधे उक्क० हाणी। कोहसंजलणस्स उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णद० गुणिदकम्मंसियस्स खवगस्स जाधे पुरिसवेदो छण्णोफसाएहि सह कोधे संपक्खितो ताधे कोधसंज० उक्क० वडी । ओघसामित्तं पि एदं चेव कायव्वं । अवहाणं मिच्छत्तभंगो। उक० हाणी कस्स ? जाधे कोधो माणे संपक्खित्तो ताधे कोधस्स उक्क. हाणी। माणस्स उक्क० बडी कस्स ? तेणेव जाधे कोधो माणे संपक्वित्तो ताधे माणस्स उक्क० वड्डी। अवहाणं मिच्छत्तभंगो । हाणी कस्स ? तस्स चेव जाधे माणो मायाए संपक्खित्तो ताधे उक्क. हाणी । मायाए उक्क० बड्डी कस्स ? तेणेव माणउक्कस्सविभत्तिगण जाधे माणो मायाए संपक्खित्तो ताधे तस्स उक्क० वड्डी । [अबहाणं मिच्छत्तभंगो।] हाणी कस्स ? जो मायाए उक्स्ससंतकम्मंसिओ स्थितिकाण्डकका अन्तिम समयमें संक्रमण करता है तब उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि होती है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क की उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक जीव अतिशीघ्र योनिसे निकलने रूप जन्मके द्वारा आठ वर्षका होकर सम्यक्त्वको प्राप्त हो पुनः अन्तर्मुहूर्तमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करता है उसके जब गुणश्रेणिशीर्षके संख्यातवें भागके साथ अन्तिम स्थितिकाण्डक गलित हुआ तब उसके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट हानि होती है। आठ कषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भंग मिथ्यात्वके समान है। इनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकांशिक जीव अतिशीघ्र योनिसे निकलेनरूप जन्मसे आठ वर्षका होकर क्षपणाके लिए उद्यत हुआ। उसने जब अन्तिम स्थितिकाण्डकको गुणश्रेणिशीर्षोंके साथ संज्वलनमें प्रक्षिप्त किया तब उसके इनकी उत्कृष्ट हानि होती है। क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकांशिक क्षपक जीव जब छह नोकषायोंके साथ पुरुषवेदको क्रोध प्रक्षिप्त करता है तब उसके क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। ओघस्वामित्व भी इसी प्रकार करना चाहिए । इसके अवस्थानका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जब क्रोधको मानमें प्रक्षिप्त करता है तब क्रोधकी उत्कृष्ट हानि होती है। मानकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? उसीने जब क्रोधको मानमें प्रक्षिप्त किया तब मानकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । इसके अवस्थानका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? वही जब मानको मायामें प्रक्षिप्त करता है तब मानकी उत्कृष्ट हानि होती है। मायाकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? मानकी उत्कृष्ट विभक्तिवाले उसी जीवने जब मानको मायामें प्रक्षिप्त किया तन उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। अवस्थानका भंग मिथ्यात्वके समान है। मायाकी उत्कृष्ट हानि किसके
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गी० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्तं
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मायं लोभे संपक्खिवदि तस्स उक्क० हाणी | लोभसंज० उक० बड़ी कस्स ! तस्लेव कायव्वा, विसेसाभावादो । अवद्वाणं मिच्छत्तभंगो । हाणी उक्क० कस्स १ तस्स चैत्र मुहुमसांपराइयस्स चरिमसमए वट्टमाणगस्स । इत्थिवेद० उक्क० बड़ी कस ? जो खविदकम्मं सिओ अंतोमुहुत्तेण कम्मं खवेहिदि त्ति विवरीदं गंतू मिच्छत्तं गदो इत्थवेद० पबद्धो तदो उक्कस्सजोगमुक्कस्सगं च संकिलेसं गदो तस्स उक्क० वड्डी । हाणी कस्स ? अण्णदरस्स गुणिदकम्मंसिओ खवणाए अब्भुडिदो तेण जाधे अपच्छिमहिदिखंडयं उदयवज्जं संकुब्भमाणगं संक्रुद्धं ताधे उक्क० हाणी | एवं णवुंसय० । पुरिस० उक्क० बड़ी कस्स १ अण्णद० गुणिद० णवुंसयवेदोदयक्खवगस्स जाधे इत्थि-णं संयवेदा पुरिसवेदम्हि संपक्खित्ती ताधे उक वड्डी । एवमोघसामित्तं पि णायव्वं । उक्क०
वाणं कस्स ? अण्णद० असंजदसम्मादिहिस्स अवद्विदपाओग्गसंतकम्मियस्स उस्सजोगिस्स उक्कस्सियाए वडीए वड्डियूणावद्विदस्स | उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद • गुजिदकम्मं सि० पुरिसवेदचिराणसंतकम्मं जाधे कोधम्मि संपक्खित्तं ताधे तस्स उक्क० हाणी । छण्णोकसायाणमुक्क० वड्डी कस्स १ अण्णद० गुणिदकम्मं सियस्स खत्रणाए अदिस अपुव्त्रकरणचरिमसमए उक्कस्सगुणसंकमेण सह उक्कस्साजोगं
Q
होती है ? जो मायाका उत्कृष्ट सत्कर्मवाला जीव जब मायाको लोभमें निक्षित करेगा तब उसके मायाकी उत्कृष्ट हानि होती हैं । लोभसंज्वलनकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? उसी जीवके करनी चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है । इसके अवस्थानका भङ्ग मिध्यात्व के समान है । इसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? वही सूक्ष्मसाम्पराय जीव जब अन्तिम समयमें विद्यमान होता है तब उसके लोभकी उत्कृष्ट हानि होती है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो क्षपितकर्माशिक जीव अन्तर्मुहूर्तके द्वारा कर्मका तय करेगा किन्तु विपरीत जाकर मिध्यात्वको प्राप्त हो स्त्रीवेदका बन्धकर अनन्तर जिसने उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त किया उसके स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । इसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक जीव क्षपण के लिए उद्यत हुआ । उसने जब उदयको छोड़कर अन्तिम स्थितिकाण्डका संक्रमण करते हुए संक्रमण किया तब उसके स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट हानि होती है । इसीप्रकार नपुंसक - वेदका स्वामी जानना चाहिए । पुरुषवेदकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक जीव नपुंसकवेद के उदयके साथ क्षपक है वह जब स्त्रीवेद और नपुंसक वेदको पुरुषवेद में
क्षिप्त करता है तब उसके पुरुषवेदकी उत्कृष्ट वृद्धि होती हैं । इसीप्रकार ओघ स्वामित्व भी जानना चाहिए। इसका उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? जो अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जीव अवस्थितप्रायोग्य सत्कर्मवाला है, उत्कृष्ट योगसे युक्त है और उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हो अवस्थित है उसके इसका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिस अन्तरगुणितकर्माशिक जीवने पुरुषवेदके पुराने सत्कर्मको जब क्रोधमें प्रक्षिप्त किया तब उसके इसकी उत्कृष्ट हानि होती है। छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक जीव क्षपणा के लिए उद्यत हो अपूर्वकरण के अन्तिम समयमें उत्कृष्ट
१. प्रतौ 'संपखितो (सा)', प्र०प्रतौ 'संपविखतो' इति पाठः ।
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__जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गदस्स तस्स उक्क० वड्डी । णवरि अरदि-सोगाणमधापवत्तचरिमसमए भय-दुगुंछोदएण विणा सोदए वट्टमाणस्स । उक० हाणी कस्स १ अण्णद० खवगस्स गुणिदकम्मंसियस्स अपच्छिमे हिदिखंडए दुचरिमसमए वट्टमाणगस्स तस्स उक्क. हाणी । एवं मणुसपज्ज० । णवरि इत्थिवेद० हाणी छण्णोकसायाणं व भाणियन्वा । एवं चेव मणुसिणीसु वि । णवरि पुरिस०-णवूस. छण्णोकसायाणं व भाणियव्वा । मणुसअपज्ज. पंचिंतिरिक्खअपज्जत्तभंगो।
३४६. देवगदीए देवेसु मिच्छत्त०-बारसक०-भय-दुगुंछा० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णद० खविदकम्मंसियस्स जो अंतोमुहुत्तेण कम्म खवेहदि त्ति विवरीयभावेण मिच्छतं गंतूण देवेसुववण्णो सव्वाहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो उकस्सजोगमागदो उक्कस्सयं च संकिलेसं गदो तस्स उक्कस्सिया बड्डी। तस्सेव से काले उक्कस्सयमवहाणं । मिच्छत्तस्स उकस्सहाणी णारयभंगो। सेसाणं उक्क. हाणी कस्स ? जो गुणिदकम्मसिओ सम्मत्त-संजमासंजम-संजमगुणसेढोओ कादूण तदो मदो देवेसुववण्णो तस्स गुणसे ढिसीसगेसु उदयमागदेसु उक० हाणी। सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० वट्टी कस्स ? अण्णद० गुणिदकम्मंसियस्स सम्मत्तं पडिवण्णल्लयस्स सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि गुणसंकमेण पूरेयण से काले विज्झादं पडिहिदि त्ति तस्स उक्क० वड्डी। सम्मत्त. गुणसंक्रमके साथ उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ उसके इनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। इतनी विशेषता है कि अरति और शोककी अधःप्रवृत्तके अन्तिम समयमें भय और जुगुप्साके उदयके बिना स्वोदयसे विद्यमान रहते हुए उत्कृष्ट वृद्धि होती है। इनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर क्षपक गुणितकर्माशिक जीव अन्तिम स्थितिकाण्डकके द्विचरम समयमें विद्यमान है उसके इनकी उत्कृष्ट हानि होती है। इसीप्रकार मनुष्यपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट हानि छह नोकषायोंके समान कहनी चाहिए। इसीप्रकार मनुष्यिनियोंमें भी कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग छह नोकषायोंके समान कहना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चन्द्रियतियञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है।
६३४६. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर क्षपितकौशिक जीव अन्तर्मुहूर्तके द्वारा कर्मका क्षय करेगा किन्तु विपरीत भावसे मिथ्यात्वमें जाकर देवोंमें उत्पन्न हो और सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो उत्कृष्ट योगको और उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानिका भङ्ग नारकियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकांशिक जीव सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमसम्बन्धी गुणश्रेणियोंको करके अनन्तर मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ उसके गुणश्रेणिशीर्षों के उदयमें आनेपर शेष कर्मों की उत्कृष्ट हानि होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकांशिक जीव सम्यक्त्वको प्राप्त हो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको गुणसंक्रमके द्वारा पूरकर अनन्तर समयमें विध्यातको प्राप्त करेगा उसके इनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है? जो
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसवित्तीय पदणिक्खेवे सामित्तं
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उक्क० हाणी कस्स १ अण्णदरो गुणिदकम्मंसिओ दंसणमोहक्खवगो कदकरणिज्जो होदूण देवेववण्णो तस्स दुचरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स उक० हाणी | सम्मामि० उक० हाणी कस्स ? विज्झादपदिदस्स । अनंताणुबंधीणमुकस्सवडिअवहाणं मिच्छतभंगो । हाणी ओघभंगो। इत्थि० णवुंस० उक० वड्डी कस्स १ अणदरो खविदकम्मं सिओ मिच्छतं गदो तदो Cateजोगमागदो तपाओग्गसंकिलो इत्थ- बुंसयवेदं पबद्धो तस्स उक० वड्डी । हाणी भय-दुगुंछभंगो । एवं चदुणोकसायाणं । पुरिसवेद० एवं चेव । णवरि अवद्वाणं वेदगसम्माइहिस्स । एवं सोहम्मादिउवरिमगेवज्जा चि । भवण० - वाणर्वे ० - जोदिसि० एवं चेव । णवरि सम्मत्त० वड्डि-हाणी सम्मामिच्छत्तभंगो ।
९३५०. अणुद्दिसादि जाव सव्वट्टा त्ति बारसक० - पुरिसवेद-भय- दुर्गुळ० उक्क० वढी कस्स १ खविदकम्मंसियो उकस्ससं किलिहो उक्कस्सजोगमागदो सम्मत्तसंजम-संजमा संजमगुणसेढीसु पुव्वभवसंबंधिणीसु उदयमागदासु णिग्गलिदासु तदो उक्कस्सजोगमागदस्स तस्स उक्क० बड़ी । तस्सेव से काले उक्कस्सयमवद्वाणं । उक्क० हाणी कस्स १ तस्सेव संजमा संजम -संजमगुणसेढीसु उदयमागदासु उक्क० हाणी | मिच्छत्त - इत्थि णवुंस० उक्क० हाणी कस्स १ अण्णद० सम्पत्त-संजम -संजमा संजम
अन्यतर गुणितकर्माशिक दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला जीव कृतकृत्य होकर देवों में उत्पन्न हुआ उसके द्विचरम समयमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करते समय सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? विध्यातको प्राप्त हुए जीवके होती है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग मिध्यात्वके समान है। तथा इनकी हानिका भङ्ग श्रोघके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जिस अन्यतर क्षपितकर्माशिक जीवने मिध्यात्वको प्राप्त हो अनन्तर उत्कृष्ट योग और तत्प्रायोग्य संक्लेशके साथ स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका बन्ध किया उसके इनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । इनकी उत्कृष्ट हानिका भङ्ग भय और जुगुप्सा के समान है। इसी प्रकार चार नोकषायोंका भङ्ग जानना चाहिए । पुरुषवेदका भंग इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि इसका अवस्थान वेदकसम्यग्दृष्टिके होता है । इस प्रकार सौधर्मसे लेकर उपरिममवयक तक जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वकी वृद्धि और हानिका भंग सम्यग्मिध्यात्वके समान है 1
$ ३५०. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो क्षपितकर्माशिक उत्कृष्ट संक्लेशवाला जीव उत्कृष्ट योगको प्राप्त हो पूर्व भवसम्बन्धी सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम गुणश्रेणियोंके उदयमें आकर गलित हो जानेपर अनन्तर उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ उसके उक्त कर्मों की उत्कृष्ट वृद्धि होती है । तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उसीके संयमासंयम और संयम गुणश्रेणियोंके उदयमें आ लेनेपर उत्कृष्ट हानि होती है । मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिस अन्यतर जीवके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गुणसेढीसु त्थिउक्केण उदयमागदासु तस्स उक्क० हाणी। सम्मामिच्छ० एवं चेव । सम्मत्त-अणंताणु०४ हाणी ओघं । हस्स-रइ-अरइ-सोग० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णद. संजमगुणसेढिसीसयाणि जाधे उदएण णिग्गलिदाणि ताधे उक्कस्सजोगमागदस्स संकिलेसं च तप्पाओग्गं पडिवण्णस्स तस्स उक्क० बडी । हाणी कस्स ! अण्णद० सम्मत्त-संजम-संजमासंजमगुणसेढीसु अविणहामु देवेसुबवण्णलयस्स जाधे गुणसेढिसीसगाणि उदयमागदाणि ताधे उक्क. हाणी । एवं जाव अणाहारि ति ।
३५१. जहएणए पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक०-पुरिसवेद-भय-दुगुंछ० जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० असंखेज०भागेण वडियूण बड्डी हाइदूण हाणी अण्णदरत्थ अवहाणं । सम्मत्त-सम्मामि०इत्थि-णवंस०-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागेण वड्डियूण वड्डी हाईदूण हाणी। एवं सव्व-णेरइय०-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस्सदेव जाव उवरिमगेवज्जा त्ति । णवरि अपज्जत्तएसु सम्म०-सम्मामि० बडी पत्थि। पुरिसवे० सम्माइहिम्मि अवहिदं णायव्वं । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठा ति बारसक०-पुरिसवेद०-भय-दुगुंछ० जहण्णवड्डि-हाणी कस्स ? अण्णद० असंखेज०भागेण वड्डिदूण वड्डी हाइद्ण हाणी ।
सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम गुणश्रेणियोंके स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा उदयमें आ गई हैं उसके उक्त कर्मों की उत्कृष्ट हानि होती है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग इसी प्रकार है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट हानिका भंग ओघके समान है। हास्य, रति, अरति और शोककी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर जीव संयमगुणश्रोणिशीर्षों को जब उदयके द्वारा गला देता है तब उत्कृष्ट योग और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुए उस जीवके उक्त कर्मों की उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर जीव सम्यक्त्व, संयम
और संयमासंयम गुणश्रेणिशीर्षों के नाश किये विना देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके जब गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त हुए तब उसके उक्त कर्मों की उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
६३५१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? अन्यतर जीवके असंख्यातवें भाग वृद्धि करनेसे वृद्धि होती है, इतनी ही हानि करनेसे हानि होती है और इनमेंसे किसी एक स्थानमें अवस्थान होता है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातवें भागप्रमाण वृद्धि होकर वृद्धि और हानि होकर हानि होती है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तियञ्च, सब मनुष्य और सामान्य देवोंसे लेकर उपरिम प्रवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी वृद्धि नहीं है। पुरुषवेदका अवस्थितपद सम्यग्दृष्टि जीवमें जानना चाहिए । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि और हानि किसके होती है ? अन्यतरके असंख्यातवें भागप्रमाण वृद्धि होकर वृद्धि
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए पदणिक्खेवे अप्पाबहुवे अण्णदरस्थ अवहाणं । मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०४-इत्थि-णवुस० ज० हाणी कस्स ? अण्णद० । हस्स-रइ-अरइ-सोग० जहण्णवड्डि-हाणी कस्स ? अण्णद० । एवं जाव अणाहारि ति।
३५२. अप्पाबहुअं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो--ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा उक्क० वडी । अवहाणं तत्तियं चेव । हाणी असंखे०गुणा। सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा उक्क० हाणी। बड्डी असंखेजगुणा । सम्मामि० सव्वत्थोवा उक्क. वडी । हाणी असंखेज्जगुणा । बारसक०-भय-दुगुंछा० सव्वत्थावा उक्क० वड्डी। अवहाणं तत्तियं चेव । हाणी असंखे० गुणा । तिण्णिसंजल. सव्वत्थोवा उक्कस्सयमवहाणं । वड्डी असंखे०गुणा हाणी विसेसा० । एवं पुरिस० । लोभसंजल० सव्वत्थोव० उक्कस्सयमवहाणं । हाणी असंखे०गुणा । वड्डी असंखे० गुणा । इत्थि-णस०-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं सव्वत्थो० उक्का वड्डी । हाणी असंखे०गुणा ।
३५३ आदेसेण मिच्छत्त-सोलसक-पुरिसवेद-भय-दुगुंछ० सव्वत्थोवा उक्क. वडी अवहाणं । हाणी असंखे०गुणा । सम्म०-सम्मामि० सव्वत्थोव० उक्क० वड्डी । हाणी असंखे०गुणा । इत्थि०-णस०-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं सव्वत्थो० उक्क० वड्डी । हाणी और हानि होकर हानि होती है। तथा इनमेंसे किसी एक स्थानमें अवस्थान होता है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्मम्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य हानि किसके होती है ? अन्यतरके होती है। हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य वृद्धि और हानि किसके होती है ? अन्यतरके होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
६३५२. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट। उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश। अोघसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। अवस्थान उतना ही है। उससे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणी है । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। अवस्थान उतना ही है। उससे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है। तीन संज्वलनोंका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणी है। उससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व है। लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है। उससे उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणी है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है । उससे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है।
६३५३. आदेशसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय,पुरुषवेद,भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान सबसे स्तोक है । उससे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व की उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि
१. पा० प्रतौ 'उक्क० हाणी । बड्डी असंखे०गुणा' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
असंखे० गुणा । एवं सव्वणेरइय० - तिरिक्ख पंचिं० तिरिक्खतिय- देवा जाव उवरिमगेवज्जा त्ति । पंचिं० तिरिक्ख अपज्ज० एवं चेत्र । णवरि पुरिस० इत्थिवेदभंगो । सम्मतसम्मामि० णत्थि अप्पा बहुअं ।
$ ३५४, मणुसगदी • मणुसाणमोघं । मणुसपज्ज० एवं चेव । एवं मणुसिणीसु । वरि पुरिस० सव्त्रत्थोवं उक्क० अवद्वाणं । हाणी असंखे० गुणा | वड्डी असंखे० गुणा | मणुसअपज्ज० पंचिदियतिरि० अपज्जत्तभंगो । अणुदिसादि जाव सव्वहा त्ति बारसक०पुरिस०-भय- दुगुंछा० सव्वत्थोवा उक्क० बड्डी अवद्वाणं | हाणी असंखे० गुणा । मिच्छत्त-सम्मत-सम्मामि० - अनंताणु ४ - इत्थि - णवुंस० णत्थि अप्पाबहु । हस्स-रइअरइ- सोगाणं सव्वत्थो० उक्क० वड्डी । हाणी असंखे० गुणा । एवं जाव अणाहारि ति । ३५५. जण्णए पदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक० - पुरिसवेद-भय-दुर्गुछा० जहण्णवडी हाणी अवद्वाणं सरिसं । सम्म०सम्मामि० सव्वत्थो ० जह० हाणी | वड्डी असंखे० गुणा । इत्थिवेद - णवुंस ० - चदुणोक० जहण्णवडी हाणी सरिसा । एवं सव्वणेर० - सव्वतिरिक्ख सव्वमणुस देवा जाव उवरिमगेवज्जा त्ति । णवरि पंचिदियतिरिक्ख अपज्ज० पुरिस० इत्थवेदेण सह भाणिदव्वा । एवं मणुस० अपज्ज० । णवरि उहयत्थ वि सम्मत्त सम्मामि० अप्पाबहुअं असंख्यातगुणी है । इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक और सामान्य देवोंसे लेकर उपरिम प्रवेयक तक के देवोंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में इसी प्रकार भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेदका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है । इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है ।
$ ३५४. मनुष्यगति में मनुष्यों में ओघके समान भङ्ग है । मनुष्य पर्याप्तकों में इसी प्रकार भ है। इसी प्रकार मनुष्यिनियों में है । इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेदका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है। उससे उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणी है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भंग है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है । मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, और नपुंसकवेदका अल्पबहुत्व नहीं है । हास्य, रति, अरति और शोककी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
$ ३५५. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । घ मिध्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान समान हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है । उससे जघन्य वृद्धि असंख्यातगुणी है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद् और चार नोकपायोंकी जघन्य वृद्धि और हानि समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और समान्य देवोंसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में पुरुषवेदको स्त्रीवेदके साथ कहलाना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना जाहिए ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए समुक्वित्तणा
१८७ पत्थि । अणुदिसादि जाव सव्वहा ति बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० जहण्णवडिहाणी अवहाणं सरिसं । मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०४-इत्थि-णस० पत्थि अप्पाबहुअं । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं जहण्णवड्डी हाणी सरिसा । एवं जाव० ।
एवं पदणिक्खेवे त्ति समत्तं०। ६३५६. वडिविहत्ति त्ति तत्थ इमाणि तेरस अणिओगद्दाराणि-समुक्त्तिणा जाव अप्पाबहुए त्ति । समुकित्तणाणु० दुविहो णि.-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-अहक-पुरिस. अस्थि असंखे० भागवडि-हाणि-अवहिदाणि असंखे० गुणहाणी च । सम्म० सम्मामि० अत्थि असंखे भागवड्डी हाणी असंखे०गुणवड्डी हाणी अवत्त विहत्ती। अणंताणु०४ अत्थि असंखे भागवडी हाणी संखे० भागबड़ी संखे.. गुणवड्डी असंखे०गुणवडी हाणी अवहि. अवत्त विह० । चदुसंज. अत्थि असंखे०भागवड्डी हाणी संखे०गुणवड्डी असंखे०गुणहाणी अवहि विह० । णवरि लोभसंजल. असंखेज्जगुणहाणी पत्थि । इत्थि-णवूस. अस्थि असंखे०भागवडी हाणी असंखेगुणहाणिविह० । हस्स-रदि-अरदि-सोग. अत्थि असंखे० भागवड्डी हाणी । भय-दुगुंछ० अत्थि असंखे० भागवडी हाणी अवहि० । णवरि पुरिसवेद० संखे०गुणवडि-हाणी संखे० भागवडि-हाणी सम्म०-सम्मामि०-तिण्णिसंजल० संखे गुणहाणि-संखे० भागइतनी विशेता है कि उभयत्र अर्थात् दोनों अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य हानि और अवस्थान समान हैं। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका अल्पबहुत्व नहीं है। हास्य, रति अरति और शोककी जघन्य वृद्धि और हानि समान है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इस प्रकार पदनिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६३५६. वृद्धिविभक्तिका प्रकरण है। उसमें ये तेरह अनुयोगद्वार होते हैं-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, आठ कषाय और पुरुषवेदकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, अवस्थित और असंख्यातगुणहानि है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यवृद्धि है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थितविभक्ति और अवक्तव्यविभक्ति है। चार संज्वलनोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि
और अवस्थितविभक्ति है । इतनी विशेषता है कि लोभसंज्वलनकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और असंख्यातगुणहानिविभक्ति है। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि है । भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्ति है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदकी संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यात
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
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हाणीओ च संभवति । एदाओ सव्वाणिओगद्दारेषु जहासंभवमणुमग्गियव्वाओ । एवं मणुसपज्ज० - मणुसिणीसु । णवरि पज्जत्त० इत्थवेद० हस्सभंगो | मणुसिणीसु पुरिस० स० असंखेज्जगुणहाणी णत्थि ।
$ ३५७. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० वारसक० - पुरिस०-भय-दुर्गुछा० अस्थि असंखे० भागवडि-हाणि-अवधि० । सम्म० सम्मामि० अस्थि असंखे • भागवड़ि-हाणिअसंखे० गुणवडि- हाणि-अवत० । अनंताणु०४ अस्थि असंखे० भागवडि-हाणि संखे ० भागवड्डि- संखे० गुणवड्डि-असंखे ०गुणवड्डि- हाणि अवद्वि० - अवत्त० । इत्थि - णवुं स ० - हस्सरइ- अरइ- सोगाणं अत्थि असंखे० भागवड्डि-हाणी० । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख० । मणुसा० ओघं । देवा भवणादि जाव उवरिवगेवज्जा त्ति णारयभंगो ।
-
$ ३५८. पंचि०तिरि० अपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक० -भय-दुर्गुछ० अस्थि असंखे ०भागवडि- हाणि अव०ि । सम्म० सम्मामि० श्रत्थि असंखे० भागहाणि असंखे० गुणहाणि० । इत्थि० पुरिस० स० इस्स रइ अरइ-सोगाणं अस्थि असंखे ० भागवडिहाणि । एवं मणुस अपज्ज० । अणुद्दिसादि जाव सव्वद्या त्ति मिच्छ० सम्म ०. सम्मामि० अताणु ०४ - इत्थि - णवुंस० अत्थि असंखे० भागहाणि० । णत्ररि अताणु०४
भागहानि तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और तीन संज्वलनोंकी संख्यातगुणहानि और संख्यातभागहानि भी सम्भव हैं । इनका सब अनुयोगद्वारों में यथासम्भव अनुमार्गण करना चाहिए । इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्याप्तकोंमें स्त्री वेदका भङ्ग हास्य के समान है । तथा मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातगुहानि नहीं है ।
§ ३५७. आदेशसे नारकियोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्ति है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और वक्तव्यविभक्ति है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्ति हैं । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, रति और शोककी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानि है । इसीप्रकार सब नारकी और सब तिर्योंमें जानना चाहिए । मनुष्यों में ओघके समान भङ्ग है । सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रवेयक तकके देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है ।
$ ३५८. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्ति है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी असंख्यातभागहानि और असंख्यातगुणहानि है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानि है। इसीप्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यात भागहानि है । इतनी
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गा० २२] उत्तरपडिपदेसविहत्तीए वड्डीए सामित्तं अत्थि असंखे०गुणहाणिवि० । बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० अत्थि असंखे०भागवडिहाणि-अवहि० । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं अत्थि असंखे०भागवडि-हाणि । एवं जाव अणाहारि ति।
5 ३५६. सामित्ताणु० दु० णि०-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छ० असंखे०भागवडि. कस्स ? अण्णद० मिच्छाइहिस्स। असंखे०भागहाणी कस्स ? सम्माइहिस्स वा मिच्छाइहिस्स वा। असंखे०गुणहाणी कस्स ? अण्णद० दंसण मोहक्खवगस्स चरिमहिदिखंडए अवगदे । अवहिदं कस्स ? अण्णद० मिच्छाइहिस्स । सम्मत्त०-सम्मामि० असंखे० भागवड्डी असंखे०गुणवड्डी अवत्त० कस्स ? अण्णद. सम्माइहिस्स। असंखे० भागहाणी कस्स ? अण्णद० सम्माइहिस्स वा मिच्छाइहिस्स वा। असंखे०गुणहाणी कस्स ? अण्णद० दसणमोहक्खवगस्स चरिमे हिदिखंडगे सम्मत्ते पक्वित्ते सम्मामि० असंखे०गुणहाणी उबेल्लणाए वा। सम्मत्तस्स असंखे०. गुणहाणी कस्स ? अण्णद० उव्वेल्लणचरिमहिदिखंडगे मिच्छत्ते संपक्खिते ताधे । अणंताणु० असंखे०भागवड्डी अवहिदं कस्स ? अण्णद० मिच्छाइहिस्स । [ असंखे०भागहाणी कस्स ? अण्णद. सम्माइहिस्स मिच्छाइहिस्स वा।] संखे० भागवड्डी संखे..
विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि भी है। बारह कयाय, पुरुषवेद, भय
और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्ति है । हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
___ इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई। ६ ३५६. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। श्रोघसे मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि किसके होती है ? अन्यतर मिथ्याष्टिके होती है। असंख्यातभागहानि किसके होती है ? सम्यग्दृष्टि या मिथ्याष्टिके होती है। असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? अन्यतर दर्शनमोहनीयके क्षपकके अन्तिम स्थितिकाण्डकके अपगत होने पर होती है। अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर मिथ्याष्टिके होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होती है। असंख्यातभागहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती है। असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? जिस दर्शनमोहनीयके क्षपक अन्यतर जीवने चरम स्थितिकाण्डकको सम्यक्त्वमें प्रक्षिप्त किया है उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि होती है। अथवा उद्वेलनाके समय होती है। सम्यक्त्वकी असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? जिस अन्यतर जीवने उद्वेलनाके समय अन्तिम स्थितिकाण्डकको मिथ्यात्वमें प्रक्षिप्त किया है। उसके इस समय सम्यक्त्वकी असंख्यातगुणहानि होती है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। असंख्यातभागहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती है। संख्यातभागवृद्धि,
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गुणवड्डी असंखे०गुणवड्डी च कस्स ? अण्णद० अणंताणु० विसंजोएदूण मिच्छत्तं गदस्स आवलियमिच्छाइहिस्स । अवत्त० कस्स ? अण्णद० पढमसमयसंजुत्तस्स । असंखे०गुणहाणी कस्स ? अण्णद. अणंताणु० विसंजोजयस्स चरिमहिदिखंडए अवणिदे। अहकसाय० असंखे०भागवड्डी अवहि० असंखे०भागहाणी कस्स ? अण्णद. सम्माइहिस्स वा मिच्छाइहिस्स वा । असंखे०गुणहाणी कस्स ? अण्णद० खवगस्स अपच्छिमे हिदिखंडए गुणसेढिसीसगेण सह आगायिदूण णिल्लेविदे। कोहसंजल. असंखे०भागवडि-हाणी अवहिदं अहकसायभंगो। संखेजगुणवडी कस्स ? अण्णद. पुरिसवेदो कोधे संपक्वित्तो ताधे कोधस्स संखे०गुणवड्डी । माणस्स असंखे०भागवड्डी हाणी अवहि० कोहभंगो। संखे० गुणवड्डी कस्स ? अण्णद० कोधस्स पुवसंतकम्मे माणे संपक्खित्ते ताधे तस्स संखे० गुणवड्डी। मायाए असंखे०भागवड्डी हाणी अवट्ठिदं माणभंगो । संखे०गुणवड्डी कस्स ? अण्णद. माणसंजलणं जाधे मायाए संपक्वित्तं ताधे । लोभसंजलण० असंखे०भागवड्डी हाणी अवहि० मायासंजलणभंगो। संखे०गुणवड्डी कस्स ? अण्णद० खवगस्स मायाए पोराणसंतकम्म जाधे लोभे संपक्खित्तं ताधे। तिण्हं संजलणाणं असंखे गुणहाणी कस्स ? अण्णद० खवगस्स चरिम
संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि किसके होती है ? जिस अन्यतर जीवको अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके मिथ्यात्वमें जाकर मिथ्यादृष्टि हुए एक श्रावलि हुआ है उसके होती है । अवक्तव्यविभक्ति किसके होती है ? प्रथम समयमें संयुक्त हुए अन्यतर जीवके होती है। असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले अन्यतर जीवके अन्तिम स्थितिकाण्डकके अपगत होने पर होती है। आठ कषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, अवस्थितविभक्ति और असंख्यातभागहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती है। असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? जिस अन्यतर क्षपक जीवने अन्तिम स्थितिकाण्डकका गुणनेणिशीर्षके साथ ग्रहणकर निर्लेपन किया है उसके होती है। क्रोधसंज्वलनकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग आठ कषायोंके समान है । संख्यातगुणवृद्धि किसके होती है ? जिस अन्यतर जीवने जब पुरुषवेदको क्रोधमें प्रक्षिप्त किया है तब उसके क्रोधसंज्वलनकी संख्यातगुणवृद्धि होती है। मानसंज्वलनकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग क्रोधसंज्वलनके समान है। संख्यातगुणवृद्धि किसके होती है ? जिस अन्यतर जीवने क्रोधसंज्वलनके पूर्वके सत्कर्मको मानसंज्वलनमें प्रक्षिप्त किया है तब उसके उसकी संख्यातगुणवृद्धि होती है। मायासंज्वलनकी असंख्यातवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग मानसंज्वलनके समान है। इसकी संख्यातगुणवृद्धि किसके होती है ? जिस अन्यतर जीवने मानसंज्वलनको जब मायासंज्वलनमें प्रक्षिप्त किया तब उसके मायासंज्वलनकी संख्यातगुणवृद्धि होती है। लोभसंज्वलनकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग मायासंज्वलनके समान है। इसकी संख्यातगुणवृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर क्षपक जीव मायासंज्वलनके प्राचीन सत्कर्मको जब लोभसंज्वलनमें प्रक्षिप्त करता है तब इसकी संख्यातगुणवृद्धि होती है। तीनों संज्वलनोंकी असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? जो अन्यतर क्षपक चरम स्थितिकाण्डकका
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेस वित्तीए बड्डीए, सामित्तं
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हिदिखंडयं संकार्मेतस्स । लोभसंजलणाए असंखे० गुणहाणी णत्थि । इस्थिवेद ० श्रसंखे० भोगवडी कस्स १ अण्णद० मिच्छादिहिस्स । असंखे० भागहाणी कस्स १ अण्णद० सम्मादिडिस्स वा मिच्छादिट्ठिस्स वा । असंखे० गुणहाणी कस्स १ अण्णद० खवगस्स चरिमडिदिखंडयं संकार्मेतस्स । एवं नपुंस० । पुरिसवे० असं खे० भागवड्डिहाणी अदि संजलभंगो । णवरि अवद्वि० सम्माइहिस्स । असंखे ० गुणहाणी कस्स ? अण्णद० खवगस्स पुव्वसंतकम्मं कोधे संभमाणगस्स । हस्स-रइ-अरइसोगाणं असंखे० भागवड्डि-हाणी कस्स : अण्णद० सम्माइहिस्स मिच्छाइहिस्स वा । भय-दुगुंछा० असंखे० भागवड्डि-हाणी भवद्विदं कस्स १ अण्णद० सम्माइहिस्स मिच्छाइ डिस्स वा ।
९३६०. आदेसेण मिच्छ० असंखे० भागवडी अवद्विदं कस्स ? अण्णद० मिच्छाइ हिस्स | असंखे ० भागहाणी कस्स ? अण्णद० सम्माइद्विस्स वा मिच्छाइडिस्स वा | सम्म० सम्मामि० असंखे० भागवडी कस्स १ अण्णदर० सम्माइहिस्स । असंखे०भागहाणी कस्स ? अण्णद० सम्माइहिस्स वा मिच्छाइहिस्स वा । संखे० गुणवडी कस्स ? अण्णद० उवसमसम्माइहिस्स गुणसंकमेण अंतोमुहुत्तं पूरेमाणस्स जाव से काले विज्झादं पsिहदि ति । असंखे ०गुणहाणी कस्स १ अण्णद० उब्वेल्लमा णगस्स
संक्रमण कर रहा है उसके होती है । लोभसंज्वलनकी संख्यातगुणहानि नहीं होती । स्त्रीवेदकी असंख्यातभागवृद्धि किसके होती है ? अन्यतर मिध्यादृष्टिके होती है । श्रसंख्यात भागहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती है । असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? जो अन्यतर क्षपक चरम स्थितिकाण्डकका संक्रमण कर रहा है उसके होती है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा से स्वामित्व जानना चाहिए । पुरुषवेदकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिका भङ्गः संज्वलनके समान है । इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्ति सम्यग्दृष्टिके होती है । असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? जो अन्यतर क्षपक पहलेके सत्कर्मको क्रोधमें प्रक्षिप्त कर रहा है उसके होती है । हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभागहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिध्यादृष्टि होती है । भय और जुगुप्साकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिध्यादृष्टिके होती है ।
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$ ३६०. देशसे मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर मिध्यादृष्टि के होती है । असंख्यात भागहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागवृद्धि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होती है । असंख्यात भागहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती है । असंख्यात गुणवृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर उपशमसम्यग्दृष्टि जीव गुणसंक्रमके द्वारा अन्तर्मुहूर्त तक पूरकर जब अनन्तर समय में विध्यातसंक्रमको प्राप्त करेगा तब उसके असंख्यातगुणवृद्धि होती है । असंख्यातगुणहानि किसके
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जयधषलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहीत्ती ५ चरिमहिदिखंडगे अवगदे । अवत्तव्वं कस्स ? अण्णद० पढमसमयसम्माइहिस्स । अणंताणु०४ असंखे०भागवड्डी अहि. कस्स ? अण्णद० मिच्छाइहिस्स । असंखे०भागहाणी कस्स ? अण्ण० सम्माइहिस्स वा मिच्छाइहिस्स वा। संखे भागवड्डी संखे०गुणवड्डी असंखे०गुणवडी कस्स ? अण्णद० अणंताणु० विसंजोएदूण संजुत्तस्स आवलिगमिच्छादिहिस्स । असंखे०गुणहाणी कस्सं ? अण्णद० अणंताणु, विसंजोजेंतस्स अपच्छिमे हिदिखंडगे पिल्लेविदे। अवत्त० कस्स ? अण्णद० पढमसमयसंजुत्तस्स । वारसक०-भय-दुगुंछा० [ असंखे० ] भागवड्डी हाणी अवहि. कस्स ? अण्णद० सम्माइटिस वा मिच्छाइहिस्स वा। इत्थि-णस० असंखे०भागवड्डी कस्स ? अण्णद० मिच्छाइहिस्स । असंखे०भागहाणी कस्स ? अण्णद० सम्माइहि. मिच्छाइहिस्स वा । पुरिस० असंखे०भागवड्डी हाणी कस्स ? अण्णद० सम्माइहि. मिच्छाइहिस्स वा । अवट्टिदं कस्स ? अण्णद० सम्माइटिस्स । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे० भागवडी हाणी कस्स ? अण्णद. सम्मा० मिच्छाइहिस्स वा। एवं सतसु पुढवीसु तिरिक्खगदितिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्ख३ देवा भवणादि जाव उवरिमगेवजा ति।
$ ३६१. पंचि०तिरि०अपज० मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंछा० असंखे०होती है ? जो छान्यतर उद्वेलना करनेवाला जीव चरम स्थितिकाण्डकको बिता चुका है उसके होती है। अवक्तव्यविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके होती है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। असंख्यातभागहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके अनन्तर संयुक्त होकर एक आवलि कालतक मिथ्यादृष्टि रहा है उसके होती है । असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले जिस अन्यतर जीवने अन्तिम स्थितिकाण्डकका निर्लेपन किया है उसके होती है। अवक्तव्यविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर जीवके संयुक्त होनेके प्रथम समयमें होती है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्याष्टिके होती है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धि किसके होती है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। असंख्यातभागहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती है। पुरुषवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती है। अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होती है। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्याष्टिके होती है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें तथा तियश्चगतिमें तियञ्च, पञ्चन्द्रिय तियश्चत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवों में जानना चाहिए।
६३६१. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए कालो
१६३ भागवड्डी हाणी अवहि० सम्मत्त-सम्मामि० असंखे० भागहाणी असंखे०गुणहाणी सत्तणोक. असंखे०भागवड्डि-हाणी कस्स ? अण्णद० । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०गुणहाणी क० १ अण्णद० अपच्छिमहिदिखंडयं गालेमाणस्स ।
३६२. मणुसा० ओघं । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु । णवरि मणुसपज० इत्थिवेद० छण्णोकसायभंगो । मणुसिणीसु पुरिस-णवंस. छण्णोकसायभंगो । अणुदिसादि जाव सव्वहा ति दंसणतिय-अणंताणु० चउक्क०-इत्थि०-णवूस. असंखे.. भागहाणी कस्स ? अण्णद० । अणंताणु०४ असंखे गुणहाणी कस्स ? अण्णद० अणताणु० विसंजोए तस्स अपच्छिमे हिदिखंडए गुणसेढिसीसगेण सह आगाइदूण पिल्लेविदे । वारसक-पुरिस०-भय-दुगुंडा० असंखे०भागवड्डी हाणी अवहिद हस्स-रइ-अरइ--सोगाणं असंखे० भागवड्डी हाणी कस्स ? अण्णदरस्स । एवं जाव अणाहारि त्ति ।
३६३. कालाणुगमेण दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तस्स असंखे० भागवडी० जह० एगस०, उक. पलिदो० असंखे०भागो। हाणी० जह० एगस०, उक्क० वेछावहिसागरो० सादिरेयाणि । असंखेगुणहाणी.
असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्ति, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि और असंख्यातगुणहानि तथा सात नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि किसके होती है। अन्यतरके होती है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? अन्तिम स्थितिकाण्डकको गलानेवाले अन्यतरके होती है।
६३६२. मनुष्योंमें ओघके समान भङ्ग है। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यपर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदका भङ्ग छह नोकषायोंके समान है। मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग छह नोकपायोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें तीन दर्शनमोहनीय, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसक वेदकी असंख्यातभागहानि किसके होती है ? अन्यतरके होती है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला जो अन्यतर जीव अन्तिम स्थितिकाण्डकको गुणश्रेणिशीर्षके साथ ग्रहण कर निर्लेपन करता है उसके होती है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्ति तथा हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि किसके होती है ? अन्यतरके होती है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इसप्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। $ ३६३. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। श्रोघसे मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ जह० उक्क० एगस० । अवहि० जह० एगस०, उक्क० सत्तह समया। सम्मत्त०सम्मामि० असंखे०भागवडी० जह० उक्क० अंतोमु०॥ असंखे०भागहाणी. जह० अंतोमु०, उक्क० वेछावहिसाग० पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयाणि । असंखे०गुणवड्डी० जह० उक० अंतोमु०। असंखेगुणहाणी० अवत्त० जह० उक्क० एगस० । अणंताणु० असंखे० भागवडी० जह• एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। हाणी० जह० एगस०, उक्क. वेछावहिसागरो० सादिरेवाणि। संखे०भागवड्डी० संखे० गुणवड्डी० जह० एगस०, उक० आवलि. असंखे०भागो। असंखे० गुणवडी० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अवहि० जह० एगस०, उक्क० सत्तह समया । अवत्त० असंखे० गुणहाणी० जहण्णुक्क० एगस० । अहकसाय० असंखे० भागवडी० हाणी. जह० एगस०, उक० पलिदो० असंखे०भागो। अवहि० जह० एगस०, उक्क० सत्तह समया। असंखे०गुणहाणी. जह० उक० एगस० । कोह-माण-मायासंजल० असंखे०भागवडी० हाणी० अवहि० अपञ्चक्खाणभंगो। संखे०गुणवडी. असंखे गुणहाणी. जह० उक्क० एगस०। एवं लोभसंजल० । णवरि असंखे.गुणहाणी पत्थि । इत्थि. असंखे० भागवड्डी० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । असंखे० भागहा. जह० एगस०, उक्क० वेछावहिसागरो.
साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक दो छयासठ सागर है। असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है। अवक्तव्यविभक्ति और असंख्यातगुणहानिका जघन्य
और उत्कृष्ट काल एक समय है। आठ कषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है । असंख्यातगुणहानि का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। क्रोध, मान और मायासंज्वलनकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग अप्रत्याख्यान कषायके समान है। संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसीप्रकार लोभसंज्वलनकी अपेक्षासे काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। स्त्रीवेदकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए कालो
१६९ सादिरेयाणि । असंखे०गुणहाणी. जह० उक० एगस० । णस० असंखे०भागवडी० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । असंखे०भागहाणी० जह० एगस०, उक्क० वेछावहिसागरो० तीहि पलिदो० सादिरयाणि । असंखे०गुणहाणी. जह० उक्क० एगसः । पुरिस० असंखे० भागवड्डी० हा० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। असंखे०. गुणहाणी. जह० उक्क० एगस० । अवहि. जह० एगस०, उक्क० सत्तह समया। हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवड्डी० हाणी० जह० एगस०, उक० अंतोमु० । भय-दुगुंछा० असंखे०भागवड्डी० हा० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवहि० जह० एगस०, उक० सत्तह समया ।
३६४. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० असंखे० भागवडी० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। असंखे०भागहाणी. जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो. देसूणाणि । अवाहि. जह० एगस०, उक० सत्तह समया। बारसक-भय-दुगुंछा. असंखे०भागवड्डी० हा० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवहि० जह. एगस०, उक्क० सत्तह समया। सम्म०-सम्मामि० असंखे०भागवडी० जह० उक्क० अंतोमु०। हाणी० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । असंखे० गुणवड्डी०
छयासठ सागर है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। पुरुषवेदकी असंख्यातभागद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्तातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है।
६३६४. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ जह० उक्क० अंतोमु० । असंखे०गुणहाणी० अवत्त० जह० उक्क० एगस० । अणंताणु०४ असंखे०भागवड्डी० अवहि० मिच्छत्तभंगो । हाणी० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । संखे०भागवड्डी० संखे०गुणवड्डी० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। असंखे०गुणवडी० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । असंखे०गुणहाणी. अवत्त० ज० उक्क. एगस० । इत्थि०-णस० असंखे० भागवडी० ज० एगस०, उक० अंतोमु० । हाणी. ज. एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । पुरिस. असंखे०भागवड्डी० हाणी० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवहि. जह० एगसमओ, उक्क० सत्तह समया। चदुणोक० ओघं । एवं सत्तसु पुढवीसु । णवरि जम्हि तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि तम्हि सगहिदी देसूणा । सत्तम.पुढविवज्जासु मिच्छ०-अणंताणु० सगहिदी।
३६५. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छ० असंखे०भागवड्डी० अवहि. ओघं । असंखे०भागहाणी. जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । बारसक०-पुरिस-भय-दुगुंछा० असंखे० भागवडी० हाणी. अवहि. ओघं । सम्म०सम्मामि० असंखे०भागवडी० जह० उक्क० अंतोमु० । असंखे०भागहा० ज० एगस०, है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितिविभक्तिका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यात भागप्रमाण है। असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। पुरुषवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है। चार नोकषायोंका भङ्ग शोधके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर कुछ कम तेतीस सागर कहा है वहाँ पर कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए । तथा सातवीं पृथिवीको छोड़कर शेषमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए।
६३६५. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है
और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग अोधके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए कालो
१६७ उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । असंखे गुणवड्डी० जह० उक्क. अंतोमु० । असंखे०गुणहा० अवत्त० ज० उक्क० एगस । अणंताणु० असंखे भागवडी० अवहि० ओघं । असंखे०भागहाणी. जह० एगस०, उक्क० तिणिपलिदो० सादिरेयाणि । संखेज्जभागवड्डी० संखे० गुणवडी० ज० एगसमओ, उक्क० आरलि. असंखे०भागो। असंखे गुणवडी० ज० एगस०, उक्क० आवलिया समयणा। असंखे गुणहा० अवत्त० ज. उक० एगस० । इत्थि. असंखे० भागवड्डी० जह० एगस०, उक० अंतोमु० । असंखे०भागहाणी. जह० एगस०, उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि । एवं णबुस । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवड्डी० हाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३। णवरि जोणिणीसु इत्थि-णवूस. असंखेभागहो. तिण्णि पलिदो० देसूणाणि ।
$ ३६६. पंचि०तिरिक्ख अपज्ज० मिच्छत्त०-सोलसक०-भय-दुगुंडा० असंखे० भागवडि-हाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अवहि० न० एगस०, उक० सत्तह समया। सम्म०-सम्मामि० असंखे भागहा० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०पुधत्तं । असंखे०गुणहा० जह० उक्क० एगस० । सत्तणोक० असंखे०भागवडि-हाणि. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । तीन पल्य है । असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातगुणहानि
और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जधन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एक समय कम प्रावलिप्रमाण है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । स्त्रीवेदकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य है। इसीप्रकार नपुंसकदेदकी अपेक्षासे काल जानना चाहिए। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है।
६३६६. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्याभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है
और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्वप्रमाण है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सात नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल
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१६८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ३६७. मणुसगदि० मणुस० मिच्छ० असंखे०भागवडि-अवहि. ओघं । असंखे०भागहाणी. जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । असंखे० गुणहाणी. ज० उक्क० एगस० । सम्म-सम्मामि० असंखे भागवडी. जह० उक्क० अंतोमुहुत्तं । असंखे०भागहा० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुचकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । असंखे०गुणवड्डी० जह० उक्क० अंतोमु० । असंखे०गुणहाणी. अवत्त० जह० उक्क० एगस। अणंताणु०४ असंखे० भागवडी० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । हाणी० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । संखे०भागवडि-संखे गुणवड्डी० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। असंखे०गुणवड्डी० जह० एगस०, उक्क० आवलिया समयूणा। असंखे गुणहाणि-अवत्त. जह० उक्क० एगस० । अटक-पुरिसवेद० असंखे०भागवड्डि हाणी० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । असंखे०गुणहाणी. जह० उक० एगस० । अवहि. ज० एगस०, उक० सतह समया । तिण्णिसंज. असंखे०भागवडि-हाणी० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। संखे० गुणवडि-असंखे० गुणहाणी. जह. उक्क. एगसमओ। अवहि० ओघं। एवं लोहसंज० । णवरि असंखे०गुणहाणी
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एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
३६७. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है
और उत्कृष्ट काल एक समय कम एक प्रावलि है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। आठ कषाय और पुरुषवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है। तीन संज्वलनोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका भङ्ग अोधके समान है। इसी प्रकार लोभसंज्वलनकी अपेक्षासे काल
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए कालो
१६६ पत्थि। इत्थि० असंखे०भागवड्डी० जह• एगस., उक्क० अंतोमु० । असंखे०भागहाणी० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । असंखे० गुणहाणी. जह. उक० एगस० । एवं णवूस० । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे० भागवडि-हाणी० जह० एगसमओ, उक्क. अंतोमु० । भय-दुगुंछ. असंखे० भागवडि-हाणी० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवढि० ज० एगस०, उक्क० सत्तह समया। मणुसपज्ज० एवं चेव । णवरि इत्थिवेद० असंखे०गुणहाणी पत्थि । मणुसिणीसु एवं चेव । णवरि पुरिस०-णवूस. असंखे०गुणहाणी पत्थि । इत्थिणस० असंखे भागहाणी० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । मणुसअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्ख अपज्जत्तभंगो।
६३६८. देवगदीए देवेसु मिच्छत्त० असंखे० भागवड्डी० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । असंखे० भागहा० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । अवहि० ओघं । सम्मत्त०-सम्मामि० असंखे० भागवड्डी० जह० उक्क० अंतोमु० । असंखे०भागहा० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० । असंखे०गुणवडी. जह० उक्क. अंतोमु० । असंखे०गुणहाणि-अवत्त० ज० उक० एगस० । अणंताणु०४ असंखे०भागवडि-अवहि० ओघं । असंखे०भागहाणी० ज० एगस०,
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जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि नहीं है। स्त्रीवेदकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षासे काल जानना चाहिए। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रम है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है। मनुष्यपर्याप्तकोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है । मनुष्यिनियोंमें इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । मनुष्य अपर्यातकोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है।
६३६८. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। अवस्थितविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है
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२००
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ उक्क० तेतीसं सागरोवमाणि । संखे०भागवडि०-संखे० गुणवडी० ज० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। असंखे गुणवड्डी० ज० एगस०, उक्क. अंतोमु० । असंखे० गुणहाणि-अवत्त० ज० उक्क० एगस० । अवहि० ओघं । बारसक०-पुरिसवेद. भय-दुगुंछ. असंखे०भागवडि-हाणी. जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवहि० ज० एगस०, उक्क० सतह समया । इत्थि०-गqस० असंखे०भागवड्डी० जह० एगस०, उक्क. अंतोमु० । असंखे० भागहाणी. जह० एगस., उक्क० तेत्तीसं सोगरोवमाणि । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे० भागवडि-हाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं भवणवासियादि जाव उवरिमगेवज्जा ति । णवरि जत्थ तेतीसं सागरो० तत्थ सगहिदी भाणियन्वा ।
६३६६. अणुदिसादि जाव सव्वहा ति मिच्छत्त० असंखेजभागहाणी. जहण्णुक्क० जहण्णुक्कस्सहिदीओ। अणंताणु०४ असंखे० भागहाणी० जह• आवलिया दुसमयूणा, उक्क० सगहिदीओ। असंखे० गुणहाणी. जह० उक्क० एगस० । सम्म असंखे० भागहो. जह० एगस०. उक्क० सगहिदीओ। सम्मामि० असंखे० भागहाणी. जह. जहण्णहिदी, उक्क० उक्कस्सहिदीओ। बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० असंखे०
और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका भङ्ग अोधके समान है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार भवनवासी देवोंसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहां पर तेतीस सागर कहा है वहां पर अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए।
६३६६. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल दो समय कम एक प्रावलि है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यक्त्व की असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यात
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गा० २२] उत्तरपडिसपदेविहत्तीए बड्डीए अंतरं
- २०१ भागवडि० हाणी० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अवहि० भोघं । इत्थि-णबुंस० असंखे०भागहाणी. जह० जहण्णहिदी, उक्क० उक्कस्सहिदी। हस्स-रइअरइ-सोगाणं असंखे०भागवड्डी० हाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं नाव अणाहारि ति।
३७०. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त० असंखे०भागवडी० ज० एगस०, उक्क० वेछावहिसागरो० सादिरेयाणि । असंखे० भागहा. जह• एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। असंखे०गुणहाणी. णत्थि अंतरं। अवहि. जह० एगस०, उक्क० असंखे० लोगा। सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागवड्डी० जह० पलिदो० असंखे०भागो, उक्क. उघडपोग्गलपरियट्ट । असंखे०भागहाणी. जह० एगस०, उक्क. उवडपोग्गलपरियट्ट। असंखे०गुणवडिहाणि-अवत्त० जह० पलिदो० असंखे०भागो, उक्क० उघडपोग्गलपरिय। दोण्हमसंखे०गुणवडी० सम्मामि० असंखे०गुणहाणी. जह० अंतोमुहुत्तं । अणंतताणु०४ असंखे०भागवडि-हाणी. जह० एगसमओ, उक्क० वेछावहिसागरो. सादिरेयाणि । अवहि० जह• एगस०, उक० असंखेज्जा लोगा। संखे०भागवड्डि-संखे गुणवड्डिभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका भङ्ग ओषके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इस प्रकार काल समाप्त हुआ। ६ ३७०. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातगुणहानिका अन्तरकाल नहीं है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवव्यक्तविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। दोनोंकी असंख्यातगुणवृद्धिका और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती असंखेगुणवडि--हाणि--अवत्त० जह० अंतोमु० उक• उपडपोग्गलपरियट्ट । अढकसा० असंखे०भागवडि-हाणी. जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । असंखे०गुणहाणी० त्थि अंतरं । अवहि० जह० एगस०, उक. असंखेज्जा लोगा । एवं चदुसंजलणणं । णवरि असंखे गुणहाणि-संखे०गुणवडी० पत्थि अंतरं । लोहमंज० असंखे०गुणहाणी णस्थि । इत्थि० असंखे०भागवड्डी० ज० एगस०, उक्क० वेलावहिसागरो० सादिरेयाणि । असंखे०भागहाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। असंखे० गुणहाणी. पत्थि अंतरं । पुरिस० असंखे०भागवडि-हाणी. जह० एगस, उक्क. पलिदो० असंख०भागो। अवहि० ज० एगस०, उक्क. उघडपोग्गलपरियट्ट। असंखे०गुणहाणी. पत्थि अंतरं । णस० असंखे०भागवड्डी० ज० एगस०, उक्क० वेछावहिसागरो० सादिरेयाणि तीहि पलिदो० देसूणाणि। असंखे०भागहा. ज. एगस०, उक्क० अंतोमु० । असंखे०गुणहाणी. पत्थि अंतरं । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवडि-हाणी. जह० एगस०, उक० अंतोमु० । भय-दुगुंछा० असंखे०. भागवडि-हाणी. जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवहि० ज० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा।
अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । आठ कषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातगुणहानिका अन्तरकाल नहीं है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार चार संज्वलनोंकी अपेक्षासे अन्तरकाल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि और संख्यातगुणवृद्धिका अन्तरकाल नहीं है। लोभसंज्वलन की असंख्यातगुणहानि नहीं है । स्त्रीवेदकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ भागरप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानिका अन्तरकाल नहीं है। पुरुषवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरापल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। असंख्यातगुणहानिका अन्तरकाल नहीं है। नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । असंख्यातगुणहानिका अन्तरकाल नहीं है । हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि
और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है , अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए अंतरं $ ३७१. आदेसेण गेरइय० मिच्छ० असंखे०भागवडी० जह० एगस०, उक्क. तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवमवहि० । असंखे०भागहाणी० जह० एयस०, उक्क. पलिदो० असंखे भागो। सम्म०-सम्मामि० असंखे०भागवडि-असंखे गुणवडि-हाणिअवत्त० ज० पलिदो० असंखे०भागो, उक० तेतीसं सागरो० देसूणाणि । असंखे०भागहा. जह० एगस०, उक० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणंताणु०४ असंखे०भागवड्डी० अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं. सागरो० देसूणाणि । संखे०भागवडी० संखे० गुणवडी. असंखे०गुणवडी० हाणी० अवत्त० ज० अंतोमु०, उक. तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० असंखे०भागवडी० हा० ज० एगसमओ, उक० पलिदो० असंखे०भागो। अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसणाणि । इत्थि०-णस० असंखे०भागवडी० ज० एगस०, उक० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । असंखे०भागहाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवड्डी० हाणी. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवं सत्तसु पुढवीसु । णवरि जम्हि तेत्तीसं सागरोवमाणि तम्हि सगहिदी देसूणा ।
३७२. तिरिक्खगई० तिरिक्खा मिच्छ० असंखे०भागवड्डी० जह० एगस०,
३७. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार अवस्थितविभक्तिका अन्तरकाल है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि
और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । बारह कपाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुंहूर्त है। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहां पर कुछ कम तेतीस सागर कहा गया है वहां पर कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए।
६३७२. तियश्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । असंखे० भागहा० ज० एगस०, उक० पलिदो० असंखे०भागो । अवढि० जह० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सम्म०-सम्मामि० असंखे० भागवडी० जह० पलिदो० असंखे०भागो, उक्क. उघड्रपोग्गलपरियट्ट। असंखे०भागहा० ज० एगस०, उक्क० उवडपोग्गलपरियट्टा । असंखे०गुणवड्डी० हा० अवत्त. ज. पलिदो० असंखे०भागो, उक्क. उवडपोग्गलपरियट्ट। अणंताणु०४ असंखे०भागवडी० हा० ज० एगस०, उक्क० तिणि पलिदो० सादिरेयाणि । हाणीए देसूणा । संखेज्जभागवड्डी० संखेगुणवडी० असंखे०गुणबड्डी० हाणी० अवत्त० ज० अंतोमुहुत्तं, उक्क० उवडपोग्गल० । अवहि० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। बारसक०-भय-दुगुंछा० असंखे०भागवड्डी० हाणी. जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अवहि० ज० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा। एवं पुरिस । णवरि अवहि० ओघं । इत्थि० असंखे०भागवड्डि० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । असंखे० भागहा. जह० एगस०, उक्क. अंतोमु० । णवूस० असंखे०भागवडी० ज० एगस०, उक्क. पुव्वकोडी देसूणा । असंखे०भागहा. जह० एगस.. उक्क० अंतोमु.। हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवडी० हाणी० ज० एगस०, समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व की असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर उपाध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। मात्र असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है
और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षासे अन्तरकाल जानना चाहिए। इतनी विशेषता हैं कि अवस्थितविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है। स्त्रीवेदकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। नपुंसकवेदको असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए अंतरं उक्क० अंतोमु०।
३७३. पंचिंदियतिरिक्ख३ मिच्छ० असंखे०भागवडी० ज० एगस०, उक्क० तिणिपलिदो० सादिरेयाणि । असंखे०भागहाणी० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवहि० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । सम्म०-सम्मामि० असंखे भागवड्डी० असंखे०गुणवड्डी० हाणी० अवत० ज० पलिदो० असंखे भागो,
क्क० तिगिणपलिदो० पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । एवमसंखे भागहाणी । णवरि जह० एगस० । अणंताणु०४ असंखे० भागवडी० हा० ज० एगस०, उक्क तिण्णि पलिदो सादिरेयाणि । हाणी० देसूणा । अवहि० मिच्छत्तभंगो। संखे भागवड्डी० संखे०गुणवडी० असंखे० गुणवडी० हा० अवत्त० ज० अंतोमु०, उक्क० तिषिणपलिदो० पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि। बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० असंखे०भागवडी० हाणी. जह• एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवहि० ज. एगस०, उक्क. सगहिदी देसूणा । इत्थि० असंखे०भागवड्डी० जह० एगस०, उक्क. तिणिपलिदो० देसूणाणि। असंखे०भागहाणी० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । णqस० अंसंखे०भागवडी० जह० एगस०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । असंखे०
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समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।
६३७३. पञ्चेन्द्रिय तियश्चत्रिकमें मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार असंख्यातभागहानिका अन्तर काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर एक समय है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि
और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। मात्र असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। अवस्थितविभक्तिका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि
और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। स्त्रीवेदकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय
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'जयधषलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ भागहा० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु. । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवड्डी. हाणी० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० ।
8 ३७४. पंचि०तिरि०अपज० मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंछा० असंखे०भागवडी० हाणी. अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहा० जह० उक्क० एगस० । असंखे०गुणहाणी० त्थि अंतरं । सत्तणोक० असंखेजभागवडी० हा० ज० एगस०, उक० अंतोमु० ।
३७५. मणुसगदि० मणुस० पंचिं०तिरिक्खभंगो । णवरि मिच्छ०-एकारस०इत्थि०-पुरिसक-णवंस० असंखे गुणहाणी. चदुसंजल. असंखे०गुणवड्डी० पत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०गुणवड्डी० सम्मामि० असंखे०गुणहा. जह० अंतोमु । मणुसपज. एवं चेत्र । गवरि इत्थि० असंखे०गुणहाणी पत्थि । मणुसिणीसु एवं चेव । णवरि पुरिस०-णवंस० असंखे०गुणहाणी णत्थि। मणुसअपज्ज. पंचि०तिरिक्व ० अपजतभंगो।
___ ३७६. देवगदि० देवा० मिच्छ० असंखें०भागवड्डी० अवहि० ज० एगस०, उक्क० एकत्तीस सागरो० देसूणाणि । असंखे भागहाणी. जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्म०-सम्मामि० असंखे०भागवडी० असंखे०गुणवड्डी० है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है।
६३७४. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । असंख्यातगुणहानिका अन्तरकाल नहीं है। सात नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है।
६३७५. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातगुणहानि और चार संज्वलनोंकी असंख्यातगुणवृद्धिका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणवृद्धि और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यपर्याप्तकोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। मनुष्यनियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है।
६३७६. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व
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गा० २२]
सत्तरपयतिपदेसविहत्तीए बड्डीए अंतरं हा० अवत्त० ज० पलिदो० असंखे०, भागहा० ज० एगस०, उक्क० दो वि एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणंताणु०४ असंखे०भागवडी० हाणी० अवहि० ज० एगस०, उक्क० एकतीसं सागरो० देसूणाणि । संखे०भागवड्डी० संखे०गुणवड्डी० असंखे०. गुणवडी० हाणी० अवत्त० ज० अंतोमु०, उक्क० एकतीसं० सागरो० देसूणाणि । बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० असंखे०भागवडी० हा० जह० एगसमभो, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । इत्थि-णस० असंखे भागवड्डी० जह० एगस०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि। असंखे० भागहा. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवडी० हाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं भवणादि जाव उवरिमगेवज्जा त्ति । णवरि जम्हि एकत्तीसं जम्हि य तेत्तीसं तम्हि सगहिदीओ भाणिदवारो।
६३७७. अणुद्दिसादि जाव सव्वहा ति मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-इत्थिणवंस. असंखे भागहाणी० णत्थि अंतरं । अणंताणु०४ असंखे०भागहा० ज० उक्क० एगसमओ, बारसक-पुरिस०-भय-दुगुंछ. असंखे०भागवडि-हा. ज. एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवहि० ज० एगसमओ, उक्क. सगहिदी देसूणा । और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और एक समय है तथा उत्कृष्ट अन्तर दोनों ही कुछ कम इकतीस सागर है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और श्रवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातमागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार भवन. वासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहां पर इकतीस सागर और जहां पर तेतीस सागर कहा है वहां वर अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए।
६३७७, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपंसकवेदकी असंख्यातभागहानिका अन्तरकाल नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्याभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और
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जयधवलासहिये कसायबाहुडे
[पदेसविहत्ती ५
हस्स - रइ- अरइ- सोगाणं असंखे० भागवडि-हाणी० जह० एस० उक० अंतोमुहुर्त्तं । एवं जाव अणाहारिति ।
१३७८ णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । श्रघेण मिच्छ० असंखे ० भागवड्डि- हा० - अबडि० नियमा अत्थि । सिया एदे च असंखे० गुणहाणिविहत्तिओ च । सिया एदे च असंखे० गुणहा ० विहत्तिया च । एवमदृकसाय० । सम्म० - सम्मामि० असंखे ० भागहा ० णियमा अस्थि । सेसपदाणि भजियव्वाणि । श्रताणु०४ असंखे० भागवड्डि-हा० अवट्टि० णियमा अस्थि । पदाणि भव्त्रिाणि । चदुसंज० एवं चेव । इत्थि० - नपुंस० असंखे० भागवड्डि- हा ० णियमा अस्थि । सिया एदे च असंखे० गुणहा ० विहत्तिओ च । सिया एदे च असंखे • गुणहाणिविहत्तिया च । पुरिस० असंखे • भागवड्डि- हाणि० णियमा अत्थि । सेसपदाणि भणिज्जाणि । हस्स - रइ- अरइ-सोगाणं असंखे० भागवड्डि-हाणि० णियमा अस्थि । भय-दुर्गुछा • असंखे ० भागवड्डि-हाणि अवडि० णियमा अस्थि ।
1
६३७६, आदेसेण रइय ० मिच्छत्त - बारसक० -- पुरिस०--भय-- दुर्गुछा ० असंखे० भागवड्डि- हाणि० नियमा अस्थि ।। या एदे च अवडिओ च । सिया एदेव
उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ ।
६ ३७८. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्ग विचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश। ओघसे मिध्यात्वकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । कदाचित् ये जीव हैं और असंख्यातगुणहानिविभक्तिवाला एक जीव है । कदाचित् ये जीव हैं और असंख्यातगुणहाणिविभक्तिवाले नाना जीव हैं । इसी प्रकार आठ कषायों की अपेक्षा भङ्ग जानना चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की असंख्यात भागा निवा जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। चार संज्वलनोंकी अपेक्षा इसी प्रकार भङ्ग है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिवाले जीव नियमसे हैं । कदाचित् ये जीव हैं और असंख्यातगुणहानिवाला एक जीव है । कदाचित् ये जीव हैं और असंख्तातगुणहानिवाले अनेक जीव हैं । पुरुषवेद्की असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यात भागहानिवाले जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं । हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिवाले जीव नियमसे हैं । भय और जुगुप्साकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं ।
$ ३७८. आदेशसे नारकियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यात भागहानिवाले जीव नियमसे हैं । कदाचित् ये जीव हैं और
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए भंगविचो अवहिदा च । सम्म-सम्मामि० असंखे० भागहाणि० णियमा अस्थि । सेसपदाणि भयणिजाणि । अणंताणु०४ असंखे०भागवडि-हाणि० णियमा अत्थि । सेसपदाणि भयणिज्जाणि । इत्थि०--णवुस०--हस्स-रइ--अरइ- सोगाणं असंखे० भागवडि-हाणि. णियमा अत्थि । एवं सत्रणेरइय० पंचिंदियतिरिक्व०३ देवगदीए देवा भवणादि जाव उपरिमगेवज्जा ति।
३८०. तिरिक्खगई० तिरिक्खा० मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछा० असंखे०भागवडि-हाणि-अवहिदा णियमा अस्थि । सम्म०-सम्मामि असंखे० भागहा. णियमा अत्थि । सेसपदा भयणिज्जा। अणंताणु०४ असंखे भागवडि-हाणि-अवहि. णियमा अत्थि । सेसपदा भयणिज्जा । इत्थि-णवंस०-चदुणोक० असंखे०भागवटि-हा० णियमा अत्थि। पुरिस० असंखे०भागवडि-हाणि. णियमा अत्थि । सिया एदे च अवटिविहत्तिओ च । सिया एदे च अवद्विदविहत्तिया च ।
६३८१. पंचिंदियतिरिक्वअपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंछा० असंखे०. भागवडि-हाणि० णियमा अस्थि । सिया एदे च अवहिदविहनिओ च । सिया एदे च अवहिदविहत्तिया च । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहा० णियमा अस्थि । सिया
अवस्थितविभक्तिवाला एक जीव है, कदाचित् ये जीव हैं और अवस्थितविभक्तिवाले नाना जीव हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्यिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। इसीप्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, देवगतिमें देव और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए।
६३८०. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। पुरुषवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये जीव हैं और अवस्थितविभक्तिवाला एक जीव है, कदाचित् ये जीव हैं और अवस्थितविभक्तिवाले नाना जीव हैं।
६ ३८१. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये जीव हैं और अवस्थितविभक्तिवाला एक जीव है, कदाचित् ये जीव हैं और अवस्थितविभक्तिवाले नाना जीव हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ एदे च असंखे० गुणहाणिविहत्तियो च । सिया एदे च असंखे० गुणहाणिवित्तिया च । सत्तणोक० असंखे०भागवडि-हाणि. णियमा अस्थि ।
३८२. मणुसगदी० मणुसा० मिच्छ०--सोलसक०--पुरिस०--भय-दुगुंछ० असंखे०भागवडि-हाणि णियमा अत्थि । सेसपदा भयणिज्जा । सम्मत्त०-सम्मामि० असंखे०भागहा० णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा। इस्थि०--णस० अस्थि असंखे०भागवडि-हाणिविहत्तिया । सिया एदे च असंखे० गुणहाणिविहत्तिओ च । सिया एदे च असंखे गुणहाणिविहत्तिया च । हस्स-रइ--अरइ-सोगाणं असंखे०भागवडिहाणि णियमा अस्थि । मणुसपज्ज० एवं चेव । णवरि इत्थिवेद० असंखे०गुणहाणि. पत्थि। एवं चेव मणुसिणीसु । णवरि पुरिस०-णवूस० असंखे०गुणहाणि. गत्थि । मणुसअपज्ज. अहावीसं पयडीणं सव्वपदा भयणिज्जा।
३८३. अणुदिसादि जाव सबहा त्ति बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा. असंखे०भागवडि-हाणि. णियमा अस्थि । सिया एदे च अवहिदविहत्तिओ च । सिया एदे च अवहिदविहत्तिया च । मिच्छत्त--सम्म०--सम्मामि०--इत्थि०--णस० असंखे० भागहा. णियमा अत्थि। अणंताणु०४ असंखे०भागहा० णियमा अस्थि । सिया एदे च असंखे०गुणहाणिविहत्तिओ च । सिया एदे च असंखे०गुणहाणिविहतिया जीव हैं और असंख्यातगुणहानिवाला एक जीव है, कदाचित् ये जीव हैं और असंख्यातगुणहानिवाले नाना जीव हैं। सात नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहा निवाले जीव नियमसे हैं।
३८२. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये जीव हैं और असंख्यातगुणहानिविभक्तिवाला एक जीव है, कदाचित् ये जीव हैं और असंख्यातगुणहानिविभक्तिवाले नाना जीव हैं। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। मनुष्यपर्याप्तकोंमें इसी प्रकार भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। इसीप्रकार मनुष्यिनियोंमें भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पद भजनीय हैं।
३८३. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये जीव हैं और अवस्थितविभक्तिवाला एक जीव है, कदाचित् ये जीव हैं और अवस्थितविभक्तिवाले नाना जीव हैं। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये जीव हैं और असंख्यातगुणहानिविभक्तिवाला एक जीव है, कदाचित् ये जीव हैं और असंख्यातगुणहानिविभक्तिवाले नाना जीव हैं । हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यात
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए भागाभागो २११ च । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे भागवट्टि-हा विह० णियमा अस्थि । एवं जाव अणाहारि त्ति ।
३८४. भागाभागाणु० दुविहो णिदेसो-मोघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छ. असंखे गुणहाणिविह० सव्वजी. केवडिओ भागो ? अणंतभागो । अवहि विह० सव्वजी० केव. १ असंखे०भागो। असंखे०भागहा. सव्वजी. केव० ? संखे०भागो। असंखे०भागवट्टि० सव्वजी० केव० १ संखेज्जा भागा । एवमहकसाय० । सम्म०.-सम्मामि० असंखे०भागवडि--असंखे०गुणवड्डि--हाणिअवत्त० सव्वजी० केव० १ असंखे०भागो । असंखे०भागहा० सव्वजी० केव० ? असंखेज्जा भागा । अणंताणु०४ संखे०भागवडि---संखे०गुणवड्डिअसंखे०गुणवड्डि-हाणि-अवत्त० सव्वजी० केव० १ अणंतभागो। अवहि० असंखे०भागो । असंखे०भागहा० संखे०भागो। असंखे०भागवड्डि. सधजीवा केव० ? संखेज्जा भागा । चसंजल० संखे गुणवडि-असंखेगुणहा. सव्वजी. के. ? अणंतभागो। अवहि० असंखे०भागो। असंखे०भागहा. केव० ? संखे०भागो। असंखे० भागवडि० के० ? संखेज्जा भागा। णवरि लोभसंज. असंखे०गुणहाणि. भागवृद्धि और असंख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। इसप्रकार अनाहारकमार्गणा तक ले जाना चाहिए।
इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय समाप्त हुआ। ६३८४. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसीप्रकार आठ कषायोंकी अपेक्षा भागाभाग जानना चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धि वाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। चार संज्वलनोंकी संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इतनी विशेषता है
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ णत्थि । इत्थि-णस० असंखे०गुणहा० सव्वजी० केव० १ अणंतभागो। असंखे० भागवडि० संखे०भागो। असंखे०भागहाणि. संखेजा भागा। णवरि प्रस० असंखे०भागवडि-हाणीणं विवज्जासो काययो । पुरिस० असंखे०गुणहा०-संखे०गुणवडि-अवहि० अणंतभागो। असंखे०भागवडि० संखे०भागो। असंखे० भागहा. संखेज्जा भागा। हस्स-रइ-अरइ-सो. असंखे०भागवडि. संखे०भागो। असंखे०भागहा० संखेज्जा भागा। अरदि-सोग० असंखे०भागहाणि० संखे०भागो। असंखे०भागवडि० संखेज्जा भागा। भय-दुगुंश. अवहि. असंखे०भागो। असंखे०भागहा. संखे०भागो । असंखे०भागवडि. संखेजा भागा।
३८५. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-बारसक-पुरिस-भय-दुगुंछा० अवहि. सव्वजी. केव० १ असंखे०भागो। असंखे०भागहा० के० ? संखे०भागो। असंखे०भागवडि० संखेजा भागा। णवरि पुरिस० वडि-हाणीणं विवज्जासो कायव्यो । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहा० सव्वजी० केव० १ असंखेजा भागा। सेसपदा असंखे भागो। अणताणु०४ अवाहि० संखे०भागवडि-संखे गुणवडि-असंखे० गुणवडिहाणि-अवत्त० सव्वजी० केव० ? असंखे०भागो। असंखे०भागहा० संखे०भागो। कि लोभसंज्वलनकी असंख्यातगुणहानि नहीं है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातगुणहानिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं । असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका विपर्यास करना चाहिए। पुरुषवेदकी असंख्यातगुणहानि, संख्यातगुणवृद्धि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अरति और शोककी असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण है। भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं।
६३८५. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्राण हैं ? असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदकी वृद्धि और हानिका विपर्यास करना चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ?. असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । शेष पदवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवस्थितविभक्ति, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए भागाभागो
२१३ असंखे भागवडि० संखेजा भागा। इत्थि०-णस०-हस्स-रइ-अरइ-सोग० असंखे०भागवडि. केव० ? संखे० भागो। असंखे०भागहा० सव्व जी. संखेज्जा भागा। णवरि णवूस अरइ-सोगाणं विवरीयं कायव्वं । एवं सवणेरइय० पंचितिरिक्ख०३ देवगई० देवा भवणादि जाव उवरिमगेवजा त्ति । णवरि आणदादिसु पुरिस-णस०मिच्छत्त०-अणंताणु०४ असंखे० भागवडि-हाणीणं विवज्जासो काययो ।
३८६. तिरिक्खगई० तिरिक्खा० मिच्छ०-बारसक० भय-दुगुंछ० अवहि० सव्यजी० असंखे०भागो। असंखे० भागहाणि० संखे०भागो। असंखे०भागवट्टि. संखेज्जा भागा। सम्म०-सम्मामि० असंखे०भागहा. असंखेजा भागा। सेसपदा असंखे० भागो। अणंताणु०४ संखे०भागवड्डि-संखे०गुणवड्डि-असंखे०गुणवडि-हाणिअवत्त. अणंतभागो । अहि. असंखे०भागो । असंखे भागहा० संखे०भागो। असंखे० भागवडि० संखेजा भागा। इत्थि-णवूस०-हस्स-रइ-अरइ-सोगा० णेरइयभंगो । पुरिस० अवहि० सयजी० केव० ? अणंतभागो । असंखे०भागवडि. संखे०भागो । असंखे० भागहाणि० संखेजा भागा ।
३८७. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछा० अवहि. जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव सब जीवों के संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इतनी विशेषता है कि नपुंसकदेद, अरति और शोकका विपरीत करना चाहिए। इसीप्रकार सब नारकी, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, देवगतिमें देव और भवनवासियों से लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आनतादिकमें पुरुषवेद, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका विपर्यास करना चाहिए ।
६३८६. तिर्यश्चगतिमें तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभाग द्धिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग नारकियोंके समान है। पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं।
६ ३८७. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी
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- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सव्वजी० असंखे०भागो। असंखे०भागहाणि. संखे०भागो। असंखे०भागवडि. संखेज्जा भागा। सम्म०-सम्मामि० असंखे०गुणहा० असंखे०भागो । असंखे०भागहा० असंखेज्जा भागा। सत्तणोक० रइयभंगो। णवरि पुरिस० अवहि० गत्थि । एवं मणुसअपज्ज।
३८८. मणुसगई. मणुसा० मिच्छ०-अट्ठक० असंखे०गुणहा०-अवहि० सव्वजी. केव० १ असंखे०भागो । असंखे०भागहाणि. संखे भागो। असंखे० भागवड्डि० संखे०भागा । सम्म०-सम्मामि० असंखे गुणवड्डि-हाणि-असंखे०भागवडिअवत्त० असंखे०भागो। असंखे०भागहा. असंखेज्जा भागा। अणंताणु०४ अवहि०संखे०भागवड्डि-संखे० गुणवडि--असंखे०गुणवडि--हाणि--अवत्त० असंखे० भागो । असंखे०भागहा० संखे०भागो। असंखे०भागवडि० संखेज्जा भागा। तिहिसंज० अवहि० संखे०गुणवडि--असंखे गुणहाणि• सबजी. केव० ? असंखे०भागो । असंखे०भागहा० संखे०भागो। असंखे०भागवडि० संखे०भागा । लोहसंजल. संखे०गुणवडिल-अवहि० सव्वजी० असंखे०भागो। असंखे०भागहा. संखे०भागो । असंखे०भागवडि० संखेजा भागा । इत्थि-णवूस० असंखे०गुणहा. सव्वजी०
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अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। सात नोकषायोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्ति नहीं है। इसीप्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए।
$३८८. मनुष्यगतिमें मनुष्यों में मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी असंख्यातगुणहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि असंख्यातभागवृद्धि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । ठासंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवस्थितविभक्ति, संख्यातभागवृद्धि,संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। तीन संज्वलनोंकी अवस्थितविभक्ति, संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं! असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। लोभसंज्वलनकी संख्यातगुणवृद्धि और अवस्थितविभक्ति वाले जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। स्त्रीवेद और नपुंसकवेद
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गा० २२] उत्तरपडिसपदेविहत्तीए वड्डीए भागाभागो
२१५ असंखे०भागो। असंखे०भागवडि-हाणीणं णेरइयभंगो। पुरिसवेद• संखे०गुणवडिअवहि-असंखे०गुणहाणि० असंखे०भागो । असंखे० भागवडि० संखे०भोगो । असंखे०भागहा० संखेजा भागा। हस्स-रइ-अरइ-सोगा. असंखे भागवडि-हाणि. ओघं । भय-दुगुंछा. अवहि. असंखे०भागो। असंखे०भागहाणि० संखे०भागो । असंखे०भागवडि० संखेज्जा भागा। मणुसपज्ज० एवं चेव । णवरि जम्हि असंखे० भागो तम्हि संखे०भागो । इत्थिवेद० हस्सभंगो । एवं मणुसिणीसु । णवरि पुरिस०णस० असंखे०गुणहा० णस्थि ।
३८६. अणुदिसादि जाव सव्वहा ति मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-इत्थिणवूस. पत्थि भागाभागो । अणंताणु०४ असंखे०गुणहाणि. असंखे०भागो । असंखे०भागहाणि असंखे०भागा। सव्व णवरि संखे०भागो संखेज्जा भागा। बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० अवडि० सव्वजी० असंखे०भागो। असंखे०भागहा. संखे०भागो । असंखे०भागवडि० संखेज्जा भागा। सव्व संखेज्जं कायव्वं । हस्सरइ-अरइ-सोगाणं देवोघं । एवं जाव अणाहारि त्ति ।
--Marwarivrur
की असंख्यातगुणहानिवाले जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धि
और असंख्यातभागहानिका भङ्ग नारकियोंके समान है। पुरुषवेदकी संख्यातगुणवृद्धि, अवस्थितविभक्ति और असंख्यातगुणहानिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यात बहभागप्रमाण हैं। हास्य. रति, अरति और शोककी असंख्यातभागबृद्धि और असंख्यातभागहानिका भङ्ग ओघके समान है। भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यात भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। मनुष्य पर्याप्तकोंमें इसीप्रकार भागाभाग है। इतनी विशेषता है कि जहाँ असंख्यातवें भागप्रमाण हैं वहाँ पर संख्यातवें भागप्रमाण जानना चाहिए। तथा स्त्रीवेदका भङ्ग हास्यके समान है। इसीप्रकार मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है।
६३८६. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व,सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सीवेद और नपंसकवेदका भागाभाग नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगणहानिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धि में क्रमसे संख्यातवें भाग और संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अस
संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। मात्र सर्वार्थसिद्धिमें असंख्यातके स्थानमें संख्यात करना चाहिए। हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इसप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इसप्रकार भागाभाग समाप्त हुआ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ३६०. परिमाणाणु० दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छ०-बारसक०-भय-दुगुंछा० अवहि. असंखे०भागवडि-हाणिविह. केत्ति ? अणंता । असंखे०गुणहाणि० चउसंज० संखे०गुणवडि० संखेज्जा । णवरि लोभसंज.. भय-दुगुंछा० असंखे० गुणहाणि. पत्थि। सम्म० सम्मामि० सव्वपदवि० असंखेज्जा । अणंताणु०४ अबहि०-असंखे०भागवडि-हाणि० के० ? अणंता। सेसपदा० असंखेज्जा। इथि०-पुरिस०-णस० असंखे० भागवडि-हाणि० केत्ति ? अणंता । पुरिस० अवहि० असंखेज्जा । सव्वेसिमसंखे गुणहाणि पुरिस० संखे०गुणवड्रि० संखेज्जा । हस्स-रइ-अरइ-सोगा. असंखे० भागवडि-हाणि० केत्ति० १ अणंता । एवं तिरिक्खा। णवरि सेढिपदाणि मोत्तण वत्तव्वं ।।
३६१. आदेसेण णेरइय० अहावीसं पयडीणं सव्वपदा० केत्ति ? असंखेज्जा । एवं सव्वणेरइय० सव्वपंचिंदियतिरिक्व० देवगई० देवा भवणादि जाव उवरिमगेवज्जा त्ति । मणुसगदीए एवं चेव । गवरि सेढिपदा मिच्छ० असंखे०गुणहाणि० अणंताणु० पंचपदा संखेज्जा । पंचिं०तिरिक्ख अप० २८ पयडीणं सव्वपदा असंखेज्जा । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु जाणि पदाणि अत्थि ताणि संखेजा। मणुसअपज्ज० २८ पय० सव्वपदा केत्तिया ? असंखेज्जा। अणुद्दिसादि जाव
६३६०. परिमाणनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अवस्थित, असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। असंख्यातगुणहानिवाले और चार संज्वलनोंकी संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि लोभसंज्वलन, भय
और जुगुप्साकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सब पदविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवस्थितविभक्ति, असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। शेष पदवाले जीव असंख्यात हैं। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। सबकी असंख्यातगुणहानिवाले और पुरुषवेदकी संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यात हैं। हास्य, रति, अरति और शाककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसीप्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि श्रेणिसम्बन्धी पदोंको छोड़कर कथन करना चाहिए।
$३६१. श्रादेशसे नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसीप्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तियश्च, देवगतिमें देव और भवनवासियों से लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्यगतिमें इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें श्रेणिसम्बन्धी पदवाले, मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिवाले और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके पाँच पदवाले जीव संख्यात हैं। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव असंख्यात है। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जो पदवाले हैं वे संख्यात हैं । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पवाले जीव कितने
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए खेत्तं
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०
अवराइदा तिमिच्छ० सम्म० सम्मामि० - इत्थि० - बुंस० असंखे० भागहा • अनंताणु०४ असंखे ० भागद्दा ० - असंखे० गुणहा० बारसक- पुरिस०-भय- दुर्गुछा० असंखे ० भागवड्डिहाणि - अत्र द्वि० चदुणोक० असंखे० भागवड्डि-हा० केतिया असंखेज्जा | सव्व ०
O
सव्वपय० सव्वपदा संखेज्जा । एवं जाव अणाहारि ति ।
0
1
३२. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो- श्रघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ अडक०-भय- दुगुंछा० असंखे ० भागवड्डि हा० - अवहि ० के ० खेते ? सव्वलोगे । भयदुगुंदवज्ज० असंखे० गुणहाणि० के० खेते ९ लोग० असंखे ० भागे । सम्म० - सम्मामि० सव्वपदा० लोग० असंखे० भागे । अनंताणु०४ मिच्छत्तभंगो | णवरि संखे० भागवडिसंखे० गुणवड्डि-- असंखे ० गुणवड्डि- हाणि अवत्त० लोग० असंखे० भागे । चदुसंज० असंखे० भागवडि-हाणि-अवद्वि० के० खेते ? सव्वलोगे । संखे० गुणवडि० लोभसंजलणं वज्ज० असंखे० गुणहाणि० लोग ० असंखे ० भागे । इत्थि० णवुंस० असंखे० भागवड्डिहाणि सव्वलोगे । असंखे० गुणहाणि० लोग • असंखे ० भागे । एवं पुरिस० । णवरि अवहि० - असं खे० गुणवडि० लोग० असंखे ० भागे । चदुणोक० असंखे० भागवड्डिहैं ? असंख्यात हैं । अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यात भागहानिवाले, अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी असंख्यातभागहानि और असंख्यातगुणहानिवाले, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले तथा चार नोकषायों की असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यात भागहानिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । सर्वार्थसिद्धिमें सब प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव संख्यात हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
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1
०
इसीप्रकार परिमाण समाप्त हुआ ।
६ ३९२. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश । श्रघसे मिध्यात्व, आठ कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है । भय और जुगुप्साको छोड़कर असंख्तातगुणहानिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के सब पदवाले जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिध्यात्वके समान है । इतनी विशेषता है कि संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमण है। चार संज्वलनोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है । संख्यातगुणवृद्धिवाले जीवों का और लोभसंज्वलन को छोड़कर शेषकी असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीप्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा क्षेत्र जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्ति और असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । चार नोकषायों की
२८
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ हाणि सबलोगे । एवं तिरिक्खा० । णवरि सैढिपदा मिच्छ० असंखे०गुणहाणि. च पत्थि ।
$ ३६३. आदेसेण णेरइय २८ पयः सव्वपदा लोग० असंखे भागे। एवं सव्वणेरइय० । सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस्स० सव्वपदा ति जासिं जाणि पदाणि संभवंति तासिं लोग० असंखे०भागे । एवं जाव अणाहारि ति ।
६३६४. पोसणाणुगमेण दुविहोणिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०अहक० असंखे०भागवडि-हाणि-अवहि केव० खेत्तं पोसिदं? सव्वलोगो। असंखे० गुणहाणि० लोग० असंखे०भागो। सम्म०-सम्मामि० असंखे०भागवडि-असंखे०गुणवड्डिहाणि-अवत्त० लोग० असंखे०भागो अडचोदस० । असंखे०भागहाणि० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । अणंताणु०४ मिच्छत्तभंगो। णवरि संखेज्जभागवडि-संखे०गुणवडि-असंखे०गुणवडि-हाणि--अवत्त० लोग० असंखे०भागो अहचो० देसूणा । चदुसंजल० संखे०गुणवडि० लोभं वज्ज असंखे० गुणहाणि० लोग० असंखे० भागो । सेसं मिच्छत्तभंगो । इत्थि-णवूस० असंखे०भागवडि-हाणि सव्वलोगो । असंखे०गुणअसंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। इसीप्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें श्रेणिसम्बन्धी पद और मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानि नहीं है।
६ ३६३. आदेशसे नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पदवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। सब पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और सब मनुष्योंमें सब पदोंमेंसे जिन प्रकृतियोंके जो पद सम्भव हैं उनका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इसप्रकार क्षेत्र समाप्त हुआ। ६ ३६४. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतनी विशेषता है कि संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और बसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। चार संज्वलनकी संख्यातगुणवृद्धिवाले और लोभसंज्वलनको छोड़कर शेषकी असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धि
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गो० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए पोसणं
२१९ हाणि• लोग० असंखे० भागो । पुरिस० असंखे०भागवड्डि-हा० सव्वलोगो। अवहि० लोग० असंखे०भागो अढचोद० । असंखे गुणहाणि-संखे०गुणवडि० लोग० असंखे०भागो। हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे० भागवडि-हाणि सव्वलोगो। भय-दुगुंछा० असंखे भागवडि-हाणि-अवहि० सव्वलोगो।
३६५. आदेसेण गेरइय० मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंछा० असंखे०भागवडिहाणि-अवहि. लोग. असंखे० भागो छचोदस० । सम्म०-सम्मामि० असंखे०भागहाणि-असंखे० गुणहाणि. लोग० असंखे० भागो छचोदस० । सेसपदा० खेत्तं । अणंताणु०४ संखे०भागवट्टि--संखे० गुणवडि--असंखे.गुणवडि--असंखे०गुणहाणिअवत्त० खेत्तभंगो। इत्थि०-णवूस. असंखे०भागवभि-हाणि. लोग० असंखे० भागो छचोद्दस० । पुरिस० असंखे०भागवडि-हाणि• लोग० असंखे०भागो छचोदस० । अवहि. लोग० असंखे भागो। हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवडि-हाणि लोग० असंखे० भागो छचोदस० । पढमाए खेत्तभंगो। विदियादि जाव सत्तमा ति
और असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सनालीके कुछ कम पाठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यातगुणहानि और संख्यातगुणवृद्धिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
$३६५. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि और असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। स्त्रीवेद
और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग
और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भङ्ग है। दूसरीसे लेकर सातवीं तककी पृथिवियों में सामान्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ णिरोघं । णवरि सगपोसणं । ____$ ३६६. तिरिक्खा० मिच्छ०--सोलसक०--भय-दुगुंछ० असंखे०भागवडिहाणि-अवढि० सव्वलोगो। सम्म०-सम्मामि० असंखे०भागहाणि-असंखे०गुणहाणि. लोग० असंखे भागो सव्वलोगो वा । सेसपदा० लोग० असंखे०भागो । अणंताणु०४ संखे भागवडि-संखे० गुणवडि-असंखे०गुणवडि-हाणि-अवत्त० लोग० असंखे०भागो । पुरिस० असंखे०भागवडि-हाणि. सव्वलोगो। अवहि लोग० असंखे०भागो। इत्थि०-णवंस०हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवडि-हाणि सव्वलोगो ।
३६७. पंचिंदियतिरिक्ख ३ मिच्छत्त-बारसक०भय-दुगुंछा० असंखे०भागवडिहाणि-अवहि० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । सम्म०-सम्मामि० असंखे०भागहा०-असंखे०गुणहाणि. लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। सेसपदवि० लोग० असंखे०भागो। अणंताणु०४ असंखे०भागवडि-हाणि-अवहि० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । संखे०भागवडि०-संखे०गुणवडि-असंखे०गुणवडि-हाणि-अवत्त० लोग० असंखे०भागो।। इत्थि० असंखे०भागवडि० लोग० असंखे० भागो दिवड
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नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए।
६३६६. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि और असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
६३९७. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग
और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि और असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्तातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेदकी असंख्यात
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए पोसणं चोदस० । असंखे०भागहा० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । पुरिस० असंखे०भागवडि० लोग० असंखे०भागो छचोदस० । असंखे भागहाणि लोग० असंखे०. भागो सव्वलोगो वा । अवहि० तिरिक्खोघं । णवूस०-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवडि-हाणि० लोग० असंखे०भागो सबलोगो वा ।
३६८, पंचिंदिय-तिरिक्खअपज० मिच्छ०--सोलसक०--भय-दुगुंछा० असंखे०भागवडि-हा०--अवहि० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। सम्म०. सम्मामि० असंखे०भागहाणि-असंखे गुणहाणि, लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । इत्थि० पुरिस० असंखे०भागवडि० लोग० असंखे भागो। दोण्हमसंखे०भागहाणि० णसहस्स-रदि-अरदि-सोगाणं असंखे०भागवड्डि-हाणि० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । मणुसगईए मणुसपज्ज०-मणुसिणीसु पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि जम्हि वज्जो तम्हि लोग० असंखे०भागो। सेढिपदा० लोग० असंखे०भागो । मणुसअपज. पंचिं०तिरि०अपज्जत्तभंगो ।
३६६. देवगईए देवेसु मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछा० असंखे०भागवडि
भागवृद्धिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवेंभाग और बसनालीके कुछ कम डेढ़ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेदकी असंख्यातभागवृद्धिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है। अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन सामान्य तियञ्चोंके समान है। नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका रपर्शन किया है।
६३६८. पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातर्वे भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि और असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातावें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दोनोंकी असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने तथा नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यगति में मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर वर्जनीय है वहाँ पर लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन है। तथा श्रेणिसम्बन्धी पदवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है।
६३६६. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यात
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ हाणि अवहि० लोग० असंखे० भागो अह णवचोइस भागा वा देखूणा | सम्म० - सम्मामि० संखे ० भागहाणि असं खे० गुणहाणि० लोग० असंखे० भागो अह-णवचोद्द० । सेसपदा० लोग० असंखे० भागो अहचोद० । अनंताणु०४ असंखे ० भागवड्डि- हाणिअवद्वि० लोग० असंखे० भागो अह-णवचोद० | संखे० भागवड्डि संखे ० गुणवद्धि
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असंखे • गुणवड्डि- हाणि अवत्त० लोग० असंखे ० भागो अहचोद० । इत्थि० असंखे ०भागवडि० पुरिस० असंखेणभागवडि अवद्वि० लोग० असंखे० भागो अढचोद० देनूणा | दोपहमसंखे ० भागहा ० चदुणोक असंखे० भागवड्डि- हाणि० लोग० असंखे ०भागो यह वचो६० । एवं सोहम्म० । भवण० त्राण० जोदिसि० एवं चेत्र । णवरि सगरज्जू० | सणक्कुमारादि जाव सहस्सारे चि आणदादि जाव अच्चुदा ति सगपोसणं । उवरि खेत्तभंगो । एवं जाव अणाहारिति ।
४००. कालानुगमेण दुविहो णिद्दसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०० अहक० असंखे ० भागवडि- हाणि अवडि० सव्वद्धा । असंखे० गुणहाणि० जह० भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा
नाली के कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानि और असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके कुछ कम आठ बजे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भाहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा सनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगु वृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेदकी श्रसंख्यातभागवृद्धि तथा पुरुषवेदकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके कुछ कम आठ बडे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दोनोंकी संख्या भागहानि तथा चार नोकषायोंकी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा सनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसीप्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्पर्शन है । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें स्पर्शन इसीप्रकार है। इतनी विशेषता है कि अपने अपने राजु कहने चाहिए। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्पतक और आनतसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए । आगे के देवों में स्पर्शनका भङ्ग क्षेत्र के समान है । इसप्रकार अनाहारक मार्गेणा तक जानना चाहिए ।
इसप्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ ।
४००. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--प्रोध और आदेश । श्रघ मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिका
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गा० २२ ]
उत्तरपयसिप देविहन्तीए बड्डीए कालो
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एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । सम्म० - सम्मामि० असंखे० भागवड्डि-असंखे ०. गुणवडि० जह० श्रंतोमु०, उक्क० पलिदो० श्रसंखे० भागो । असं० भागहाणि० सव्वद्धा । असंखे० गुणहाणि अवत्त० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अनंताणु ०४ असंखे० भागवडि-हाणि अवद्वि० सव्वद्धा । संखेज्जभागवड्डि-संखे गुणवढि - असंखे० गुणहाणि अत्तव्व० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । असंखे ० गुणवड्ढि ० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । चदुसंजल ० असंखे० भागवड्डि--हाणि--अवडि० सव्वद्धा । संखे०गुणवड्डि० लोभसंज० वज्ज० असंखे ० गुणहा० ज० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । इत्थि - णवुंस० असंखे० भागवड्डि- हाणि० सव्त्रद्धा | असंखे० गुणहाणि० जह० एगसमओ, उक्क० संखे० समया । पुरिस० असं० भागवडि-हा० सव्वद्धा । अवहि० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असं० । असं ० गुणहा ०-संखे० गुणवड्डि० ज० एस ०, उक्क० संखे० समया । हस्स-रइअरइ- सोगाणं असंखे० भागवडि- दाणि० सव्वद्धा । भय० - दु० असं० भागवड्डि-हा०अafs o १० सव्वद्धा ।
४०१. देसेण णेरइय० मिच्छ० बारसक० - पुरिस ० -भय-दुगुंछा० असंखे ०
काल सर्वदा है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । श्रसंख्यात - भागहानिका काल सर्वदा है । असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्तात भागहानि और अवस्थितविभक्तिका काल सर्वदा है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । चार संज्वलनकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका काल सर्वदा है । संख्यात - गुणवृद्धिका तथा लोभसंज्वलन को छोड़कर असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है । असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । पुरुषवेदकी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिका काल सर्वदा है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । संख्यातगुणहानि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है । भय और जुगुप्साकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात - भागहानि और अवस्थितविभक्तिका काल सर्वदा है ।
४०१. आदेश से नारकियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसयिहत्ती ५ भागवडि-हाणि० सम्बद्धा । अवहि० ज० एगस०, उक्क० आवलि• असंखे०भागो। सम्म०-सम्मामि० असंखे० भागहा. सव्वदा । असंखे गुणहाणि-अवत्त० जह. एगस०, उक० आव० असंखे० भागो। असंखे भागवडि-असंखे० गुणवडि• जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अणंताणु०४ असंखे० भागवडि०-हाणिक सव्वद्धा । संखे०भागवडि--संखे० गुणवडि--असंखे०गुणहाणि--अवहि०-अवत्त० जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे० भागो। असंखेगुणवडि० ज० एगस०, उक० पलिदो० असंखे० भागो। इस्थि०-णस०-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवडिहाणि सव्वद्धा । एवं सत्तसु पुढवीसु।
. ४०२. तिरिक्खगदी० तिरिक्खा० ओघं । णवरि सेढिपदाणि मोत्तण । पंचिंदियतिरिक्रवतिए णारयभंगो । पंचिंतिरि० अपज्ज० मिच्छत्त०-सोलसक०-भयदुगुंछा० असंखे०भागवड्डि--हाणि सव्वद्धा । अवहि० ज० एगस०, उक्क० श्रावलि. असंखे०भागो । सम्म०-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० सव्वदा । असंखे०गुणहाणि. जह० एगसमओ, उक्क० आव० असं० भागो। सत्तणोक० असंखे० भागवडि-हाणि. सव्वद्धा।
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असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए।
६४०२. तिर्यश्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि श्रेणिसम्बन्धी पदोंको छोड़कर कहना चाहिए। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें नारकियोंके समान भङ्ग है। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सात नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए बड्डीए कालो ४०३. मणुसाणं पंचिंदियतिरिक्स्वभंगो । णवरि सम्म० सम्मामि० असंखे०भागवड्डि-असंखे० गुणवडि० जहणुक० अंतोमुहुत्तं । अणंताणु०४ असंखे० गुणवडि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । छण्हमवत्त० अणंताणु०४ असंखे०गुणहाणि. पुरिस० अवहि. जह० एगस०, उक्क. संखेजा समया । खवगपदाणमोघं । मणुसपज्जत्तमणुसिणीसु एवं चेव। गवरि सम्म०-सम्मामि० असंखे० गुणहाणि० धुवबंधीणमवडि. जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । मणुसपज्ज० इत्थि० असंखे०गुणहाणि. गत्थि । मणुसिणी• पुरिस०-णस० असंखे०गुणहाणि० णस्थि ।
१४०४. मणुसअपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंडा० असंखे भागवडिहाणि० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अहि. जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। सम्म-सम्मामि० असंखे० भागहाणि. जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। असंखे गुणहाणि. जह० एगम०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो । सत्तणोक. असंखे भागवडि-हाणि • जह० एगस०, उक्क० पलिदो. असंखे०भागो।
६४०५. देवगई. देवा० भवणादि जाव उपरिमगेवज्जा ति णारयभंगो । अणुदिसादि जाव सव्वहा ति मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-इत्थि०-णधुंस० असंखे०
६४०३. मनुष्योंमें पञ्चेन्द्रिय तियंञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धिका जवन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूत है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। छहकी अवक्तव्यविभक्तिका, अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानिका और पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। क्षपक पदोंका भा ओघके समान है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका तथा ध्रुवबन्धिनी प्रकृत्तियोंकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । मनुष्य पर्यातकोंमें स्त्रीवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। मनुष्यिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी असे ख्यातगुणहानि नहीं है ।
६४०४. मनुष्य अपर्यातकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जयन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातमागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सात नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
४०५. देवगतिमें देवोंमें तथा भवनवासियोंसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व,
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ भागहाणि सव्वदा । एवमणंताणु०४ । गवरि असंखे०गुणहाणि. जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे० भागा। बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० असंखे० भागवडिहाणि सव्वद्धा । अवहि० ज० एगस०, उक० आवलि. असंखे०भागो। हस्स-रइअरइ-सोगाणं असंखे०भागवडि-हाणि सव्वदा। गवरि सव्व जम्हि श्रावलि. असंखेजो भागो तम्हि संखेज्जा समया । एवं जाव अणाहारि ति ।
६४०६. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छ०-अहक० असंखे०भागवडि-हाणि-अवहि० पत्थि अंतरं । असंखे०गुणहा० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा । सम्म०-सम्मामि० असंखे०भागहा० पत्थि अंतरं । असंखे०भागवड्डि--असंखे०गुणवडि--हाणि--अवत्त० जह० एगस०, उक्क० चवीसमहोरते सादि। अणंताणु०४ असंखे० भागवड्डि--हाणि--अवहि० गत्थि अंतरं । संखे०भागवडि-संखे०गुणवडि-असंखे०गुणवडि-हाणि-अवत्त० जह० एगस०, उक्क० चवीसमहोरत्ते साधिगे। चदुसंजल० असंखे०भागवडि-हाणि-अवहि. पत्थि अंतरं । संखेजगुणवडि-असंखे गुणवडि-हाणि० ज० एगस०, उक. छम्मासा। णवरि
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सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षासे काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। इतनी विशेषता है कि जहाँ श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल कहा है वहाँ सर्वार्थसिद्धिमें संख्यात समय काल है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इसप्रकार काल समाप्त हुआ। ६४०६. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश। श्रोघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका अन्तर काल नहीं है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर काल नहीं है। असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है। चार संज्वलनोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका अन्तर काल नहीं है। संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है
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गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए अंतरं लोभसंज० असंखे गुणहाणि० पत्थि । पुरिस० अवहि० ज० एगस०, उक्क. असंखेज्जा लोगा । संखे० गुणवडि-असंखे०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा । सेसं मिच्छत्तभंगो । इत्थि णqस. असंखे०भागवडि-हाणि पत्थि अंतरं । असंखे०गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवडिहाणि० णत्थि अंतरं । भय-दुगुंछा० असंखे० भागवडि-हाणि-अवहि० गत्थि अंतरं । एवं तिरिक्खा० । णवरि सेढिपदा पत्थि ईसणमोहक्खवणा च ।
___ ४०७. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०--बारसक---पुरिस०--भय--दुगुंछा० असंखे० भागवडि-हाणि. णत्थि० अंतरं। अवहि० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० णस्थि अंतरं । असंखे० भागवडि०असंखे०गुणवडि-हाणि-अवत्त. जह० एगस०, उक्क० चवीसमहोरत्ते साधिगे । अणंताणु०४ असंखे०भागवडि-हाणि० पत्थि अंतरं । अवहि० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। संखे०भागवडि-संखेज्जगुणवडि-असंखे० गुणहाणि-अवत्त० जह० एगस०, उक० चउवीसमहोरते साधिगे। इत्थि--णQस०--हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे० भागवडि-हाणि. पत्थि अंतरं । एवं सव्वणेरइय० पंचिंदियतिरिक्खतिय० और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इतनी विशेषता है कि लोभसंज्वलनकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। शेष भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका अन्तर काल नहीं है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका अन्तर काल नहीं है। भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका अन्तर काल नहीं है। इसीप्रकार तियञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें श्रेणिसम्बन्धी पद तथा दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नहीं है।
६४०७. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका अन्तरकाल नहीं है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर काल नहीं है। असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दित-रात है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका अन्तर काल नहीं है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि
और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका अन्तर काल नहीं है । इसीप्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ देवगई० देवा भवणादि जाव उवरिमगेवज्जा त्ति ।
४०८. पंचिंदियतिरिक्ख अपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछा० असंखे०. भागवड-हाणि. पत्थि अंतरं । अवहि० ज० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सम्म०-सम्मामि० असंखे० भागहाणि. पत्थि अंतरं । असंखेज्जगुणहाणि. ज. एगस०, उक्क० चवीसमहोरते साधिगे। सत्तणोक० असंखे०भागवडि-हाणि. पत्थि अंतरं।
४०६. मणुसगई० मणुसा० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि सेढिपदाणमोघं । मणुसपज्जत्ता० एवं चेत्र । णवरि इत्थिवेद० असंखे० गुणहाणि० पत्थि । मणुसिणीसु एवं चेव । णवरि पुरिस०-णस० असंखे० गुणहाणि० णस्थि ! णारि जम्हि छम्मासा तम्हि वासपुधत्तं । मणुस अपज मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछा० असंखे०भागवडिहाणि. जह० एगममो, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अवहि० ज० एगस.. उक्क० असंवेज्जा लोगा। सम्म०-सम्मामि० असंखे० भागहाणि--असंखे०गुणहाणि० जह. एगसमो, उक्क पलिदो० असंवे० भागो। सतगोक० असंखे० भागवडिहाणि. जह० एगस०, उक्क० पलिदो. असंखे०भागो।।
तिर्यञ्चत्रिक, देवगतिमें सामान्य देव और भवनवासियोंले लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए।
६४०८. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका अन्तर काल नहीं है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर काल नहीं है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है। सात नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका अन्तरकाल नहीं है।
६४०६. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि श्रेणिसम्बन्धी पदोंका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यपर्याप्तकोंमें इसीप्रकार है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। मनुष्यनियों में इसीप्रकार है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। इतनी और विशेषता है कि जहाँ पर छह महीना अन्तर काल कहा है वहाँ पर वर्षपृथक्त्व कहना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट शान्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सात नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्तातवें भागप्रमाण है।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए अप्पाबहुअं ४१०. अणुदिसादि जाब सबहा ति मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-इथि०णqस० असंखे० भागहाणि. पत्थि अंतरं । अगंताणु०४ असंखेज़भागहाणि० णत्थि अंतरं । असंखे० गुणहाणि० जह० एगस०, उक्क० बासपुधत्तं । सव्वहे पलिदो० संखे०भागो। बारसक०--पुरिसवे०--भय--दुगुंछ. असंखे० भागवभि-हाणि. णत्थि अंतरं । अवहि. जह० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। हस्स-रइ--अरइ--सोगाणं असंखे०भागवटि-हाणि गत्थि अंतरं । एवं जाव अणाहारि ति ।
४११. भावाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण अहावीसं पयडीणं सव्वपदा चि को भावो ? ओदइओ भावो । एवं जाव अणाहारि ति।
६४१२. अप्पाबहुआणुगमेण दुविहो णिद्दे सो---ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-अहक० सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणि । अहि. अणंतगुणा । असंखे०भागहाणि. असंखे० गुणा। असंखे० भागवडि० संखे०गुणा। सम्मत्त--सम्माभि० सव्वत्थोवा असंखे० गुणहाणि । अवत्त० असंखे०गुणा । असंखेज्जगुणवडि० असंखे०. गुणा । असंखे० भागवडि० संखेजगुणा । असंखे०भागहाणि. असंखे०गुणा ।
$ ४१०. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातभागहानिका अन्तर काल नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिका अन्तर काल नहीं है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है । मात्र सर्वार्थसिद्धिमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका अन्तर काल नहीं है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि
और असंख्यातभागहानिका अन्तर काल नहीं है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इसप्रकार अन्तर काल समाप्त हुआ। ४११. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पदोंका कौन भाव है ? औदयिक भाव है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इसप्रकार भाव समाप्त हुआ। ४१२. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव
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अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अणंताणु०४ सव्वत्थोवा अवत्त० । असंखे गुणहाणि० असंखे०गुणा । संखे०भागवडि० असंखे०गुणा । संखे०गुणवड्डि० संखे०गुणा । असंखे०गुणवडि० असंखे०गुणा । अवहि० अणंतगुणा । असंखे०भागहाणि असंखे०गुणा । असंखे०भागवडि० संखेजगुणा । तिण्हं संजलणाणं सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवडि० । असंखे गुणहाणि. तत्तिया चेव । अवहि० अणंतगुणा । असंखे०भागहाणि असंखे० गुणा। असंखे०. भागवडि० संखे०गुणा । लोभसंजलणाए सव्वत्थोवा संखे०गुणवडि। अवहि० अणंतगुणा । असंखे० भागहाणि. असंखे०गुणा। असंखे० भागववि० संखे०गुणा । इस्थि० सव्वत्थोवा असंखे गुणहाणि । असंखे०भागवड्डि० अर्णतगुणा । असंखे०भागहाणि० संखे० गुणा । पुरिस० सम्वत्थोवा संखेज्जगुणवडि० । असंखे०गुणहाणि. तत्तिया चेव । अवहि. असंखे० गुणा। असंखे० भागवडि. अणंतगुणा। असंखे०भागहाणि. संखेगुणा। णqस० सम्बत्थोवा असंखे०गुणहाणि । असंखे०भागहाणि. अणंतगुणा । असंखे०भागवडि० संखे गुणा । एवमरदि-सोगा० । णवरि असंखे० गुणहाणि. णत्थि । हस्स-रइ० सव्वत्थोवा असंखे०भागवडि। असंखे०भागहाणि० संखे० गुणा । भय-दुगुंछा० सव्वत्थोवा अवहि० । असंखे० भागहा०
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संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातगुणहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । उनसे असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। तीन संज्वलनोंकी संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। असंख्यातगुणहानियाले जीव उतने ही हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुरणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। लोभसंज्वलनकी संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदकी असंख्यातगुणहानियाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जोव संख्यातगुणे हैं। पुरुषवेदकी संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। असंख्यातगुणहानिवाले जीव उतने ही हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। नपुंसकवेदकी असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार अरति और शोककी अपेक्षा अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानि नहीं है । हास्य और रतिकी असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे
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गा० २२] उत्तरपयडिसपदेविहत्तीए वड्डीए अप्पाबहुअं असंखे०गुणा । असंखे० भागवडि० संखे०गुणा ।
४१३. आदेसेण णेरइय० मिच्छत्त-बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० सव्वत्थोवा अवहि० । असंखे०भागहाणि० असंखे०गुणा । असंखे०भागवडि० संखे०गुणा। णवरि पुरिस० वडि-हाणीणं विवज्जासो कायव्यो । सम्मत्त-सम्मामि० सव्वत्थोवा असंखे० गुणहाणि । अवत्त० असंखे० गुणा। असंखे०गुणवड्डि० असंखे०गुणा । असंखे०भागवडि० संखे० गुणा । असंखे०भागहाणि० असंखे०गुणा । अणंताणु०४ सव्वत्थोवा अवत्त० । असंखे०गुणहाणि. असंखे०गुणा । संखे.. भागवड्रि० असंखे०गुणा । संखे गुणवडि० संखेगुणा । असंखे०गुणवडि. असंखे०गुणा। अवहि. असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणि. असंखे०गुणा । असंखेभागवडि० संखेज्जगुणा । इत्थि-णवूस०-चदुणोक० ओघं । णवरि इथि०-णवंस. असंखे०गुणहाणि० पत्थि । एवं सत्तसु पुढवीसु पंचिंदियतिरिक्ख०३ देवा भवणादि जाव उपरिमगेवज्जा ति । णवरि आणदादिसु पुरिस० भयभंगो। णqसय० इत्थिाभंगो । मिच्छ०-अणंताणु०४ वडि-हाणीणं विवज्जासो च कायव्यो।। हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं ।
६४१३. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदकी वृद्धि और हानिका विपर्यास करना चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातगुणहानिवाले जीव असंख्यातगणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगणे हैं। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आनतादिकमें पुरुषवेदका भङ्ग भयके समान है। नपुंसकवेदका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। तथा मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी वृद्धि और हानिका विपर्यास करना चाहिए।
विशेषार्थ— यहाँ सामान्य नारकी आदिमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंका भङ्ग ओघके समान जाननेकी सूचना की है सो जहाँ पर ओघमें अनन्तगुणा कहा है वहाँ पर इन मार्गणाओंमें असंख्तातगुणा करना चाहिए। ये सब मार्गणाऐं असंख्यात संख्यावाली होनेसे मूलमें इस विशेषताका खुलासा नहीं किया है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुरे
पदेसबिहत्ती ५ ४१४. तिरिक्वगई. तिरिक्खा० मिच्छत्त-बारसक० भय-दुगुंछा० सव्वत्थोवा अवहि० । असंखे०भागहाणि. असंखे०गुणा । असंखे० भागवडि० संखे०गुणा । एवं पुरिस० । णवरि असंखे०भागवडि० अणंतगुणा। सम्मत्त-सम्मामि-अणंताणु०४ ओघ । इत्थि०-णस०-चदुणोक. णारयभंगो। पंचिंदियतिरिक्ख अपज्ज० मिच्छ०. सोलसक० भय दुगुंडा० सव्वत्थोवा अवहि० । असंखे०भागहाणि. असंखे०गुणा । असंखे०भागवटि संखे०गुणा । सम्मत्त-सम्मामि० सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणि | असंखे०भागहाणि. असंखे०गुणा। सत्तणोकसाय० णारयभंगो। णवरि पुरिस० अवटि. पत्थि।
१४१५. मणुसगई० मणुस्सा० मिच्छ० अटकसा. सव्वत्थोवा असंखेगुणहाणि । अवहि० असंखे गुणा । असंखे० भागहाणि० असंखे०गुणा । असंखे०भागवडि० संखे० गुणा। सम्मत्त-सम्मामि० सव्वत्थोवा अवत्त० । असंखे० गुणवडि. संखे०गुणा । असंखे० भागवडि० संखे०गुणा। असंखे० गुणहाणि. असंखे० गुणा । असंखे० भागहाणि. असंखे०गुणा । अणंताणुबंधिचउक्क० सव्वत्थोवा अवत्त । असंखे० गुणहाणि. संखे०गुणा । संखे० भागवडि० संखे०गुणा । संखे०गुणवडि. संखे०गुणा । असंखे०गुणवड्डि० संखेजगुणा । अवहि. असंखे० गुणा। असखे०
६४१४. तियश्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पुरुषवेदकी श्रपेक्षा अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि इसकी असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव अनन्तरणे हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंका भङ्ग नारकियोके समान है। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सात नोकषायोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदका अवस्थितपद नहीं है।
६४१५. मनुष्यगतिमें मनुष्यों में मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यात गुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातगुणहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए वड्डीए अप्पाबहुअं
२३३ भागहाणि० असंखे गुणा। असंखे०भागवडि० संखे०गुणा । तिण्हं संजलणाणं सव्वत्थोवा संखे० गुणवडि० । असंखे० गुणहाणि० तत्तिया चेव । अवहि० असंखे०गुणा । असंखे० भागहाणि० असंखे० गुणा । असंखे०भागवडि० संखे० गुणा । लोभसंजल. सव्वत्थोवा संखे०गुणवडि० । अवहि० असंखे०गुणा । असंखे०भागहाणि. असंखे०गुणा । असंखे०भागवड्डि. संखे गुणा । इत्थि. सव्वत्थोवा असंखेगुणहाणिः । असंखे० भागवडि० असंखेज्जगुणा । असंखे०भागहाणि संखे गुणा । एवं णवूस० । णवरि वडि-हाणीणं विवज्जासो कायव्वो। पुरिसवेद० सव्वत्थोवा संखे०गुणवडि० । असंखे०गुणहाणि. तत्तिया चेव । अवहि० संखे गुणा। असंखे०भागवडि. असंखे०गुणा । असंखे०भागहाणि० संखे०गुणा। चदुणोकसाय० ओघं । भय-दुगुंछा० सव्वत्थोवा अवहि० । असंखे०भागहाणि. असंखे०गुणा । असंखे०भागवडि० संखेजगुणा। एवं मणुसपज्जता० । णवरि जम्हि असंखे०गुणं तम्हि संखे०गुणं कायव्वं । इत्थि० हस्सभंगो। एवं चेव मणुसिणीसु । णवरि पुरिस - णqस० असंखे०गुणहाणि. णत्थि । मणुसअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो।
६४१६. अणुद्दिसादि जाव अवराइद त्ति मिच्छत्त-सम्मत्त०-सम्मामि०-इत्थि०
उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागहानियाले जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। तीनों संज्वलनोंकी संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। असंख्यातगुणहानिवाले जीव उतने ही हैं । उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। लोभसंज्वलनकी संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेदकी असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि वृद्धि और हानिका विपर्यास करना चाहिए । पुरुषवेदकी संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। असंख्यातगुणहानिवाले जीव उतने ही हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। चार नोकषायोंका भङ्ग ओघके समान है । भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्तकोंमें अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि जहाँ असंख्यातगुणा है वहाँ संख्यातगुणा करना चाहिए। मात्र स्त्रीवेदका भङ्ग हास्यके समान है। इसीप्रकार मनुष्यिनियोंमें अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तियञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है।
$ ४१६. अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व,
३०
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गर्बुस० पत्थि अप्पाबहुवे । अणंताणु०४ सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणि । असंखे०भागहाणि० असंखे०गुणा। बारसक०-पुरुस०-भय-दुगुंछ० सव्वत्थोवा अवहि । असंखे०भागहाणि. असंखे०गुणा । असंखे०भागवडि. संखे०गुणा । हस्स-रइअरह-सोगाणं ओघं । एवं सव्वळे । णवरि सव्वत्थ संखेज्जगुणं कायव्वं । एवं जाव अणाहारि ति णेदव्वं ।
तदो अप्पाबहुए समत्ते वडिविहत्ती समत्ता । (पदणिक्खेवविभागं वडिविहत्तिं च किं चि सुतादो । वित्थरियं वित्थरदो मुत्तत्थविसारदो समत्थे तु ॥१॥ सो जयइ जस्स परमो अप्पाबहुअंपि दव्व-पज्जायं ।
जाणइ गाणपुरंतो लोयालोएक्कदप्पणओ ॥२॥) * जहा उकस्सयं पदेससंतकम्मं तहा संतकम्महापाणि ।
६४१७. सामित्तादिअणियोगद्दारेहि जहा उक्कस्सपदेससंतकम्मं परूविदं तहा पदेससंतकम्पहाणाणि वि परवेयवाणि, विसेसाभावादो। णवरि एत्थ तिण्णि अणियोगद्दाराणि-पख्वणा पमाणमप्पाबहुए ति । तत्थ परूवणा सव्वकम्माणं जहण्णपदेससंतकम्पहाणप्पहुडि जाव उक्कस्सपदेससंतकम्महाणं ति ताव कमेण संतवियप्परूवणं । सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका अल्पबहुत्व नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धि में अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि सर्वत्र संख्यातगुणा करना चाहिए। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त होनेपर वृद्धिविभक्ति समाप्त हुई। जो सूत्रका अर्थ करनेमें विशारद और समर्थ हैं उन्होंने पदनिक्षेपविभक्ति और वृद्धिविभक्तिका सूत्रके अनुसार विस्तारसे कुछ व्याख्यान किया है ॥ १ ॥
जिनके ज्ञानरूपी पुरके भीतर लोकालोकरूपी एक उत्कृष्ट दर्पण अल्पबहुत्वको लिए हुए समस्त द्रव्य और पर्यायोंको जानता है वे भगवान् जयवन्त हों ॥२॥
* जिस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म है उसप्रकार सत्कर्मस्थान हैं।
$ ४१७. स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर जिस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्कमका कथन किया है उसप्रकार प्रदेशसत्कर्मस्थानोंका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है । इतनी विशेषता है कि यहाँ पर तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । उनमेंसे सब कर्मोके जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थानसे लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान तक क्रमसे
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गा० २२ ]
पदेस वित्तीय झीणाझीणचूलिया
२३५
सा च जहण्णसामित्तविहाणेण परूविदा त्ति ण पुणो परूविज्जदे | अहवा सव्वकम्माणमत्थि पदेस संतकम्मद्वाणाणि त्ति संतपरूवणा परूवणा णाम । पमाणं सव्वेसिं कम्माणमणताणि पदेस संत क्रम्मद्वाणाणि त्ति । अध्याबहुअं जहा उकस्सपदेस संतकम्मस्स परुविदं तहा अणूणा हियमेत्थ परूवेयव्वं । वरि जस्स कम्मस्स पदेसरगं विसेसाहियं तस्स पदेस संत कम्मद्वाणाणि विसेसाहियाणि, संखेज्जगुणस्स संखेज्जगुणाणि, असंखेज्जगुणस्स असंखेज्जगुणाणि, अनंतगुणस्स अनंतगुणाणि ति आळावकओ विसेसो | सेसं सुगमं । एवमेदेषु पदणिक्खेव वड्डि-हाणेसु सवित्थरं परूविदेसु उत्तरपयडिपदेस वित्ती समत्ता होदि ।
एवं पदेसविहत्ती समत्ता ।
झीणाझी चूलिया
( झाइय जिणिदयंद झाणाणलझीणघाइकम्मंसं । झणझणहियारं जहोवएसं पयासेहं ॥ १ ॥
* एत्तो भीमभीणं ति पदस्स विहासा कायव्वा ।
४१८. एत्तो उवरि झीणमझीणं ति जं पदं तस्स विहासा कायव्वाति
सत्कर्मके भेदोंका कथन करना प्ररूपणा है । परन्तु वह जघन्य स्वामित्वविधिके साथ कही गई है, इसलिए पुन: इसका कथन नहीं करते । अथवा सब कर्मों के प्रदेशसत्कर्मस्थान हैं, इसलिए सत्कर्मोंकी प्ररूपणा करना प्ररूपणा है । प्रमाण - सब कर्मों के अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थान हैं । अल्पबहुत्व – जिसप्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका कथन किया है उस प्रकार न्यूनाधिकता से रहित यहाँ पर कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जिस कर्मका प्रदेशा विशेष अधिक है उसके प्रदेशसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं, संख्यातगुणेके संख्यातगुणे हैं, असंख्यातगुणेके संख्यातगुणे हैं और अनन्तगुणे के अनन्तगुणे हैं इसप्रकार कथनकृत विशेषता है । शेष कथन सुगम है। इसप्रकार इन पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थानों का विस्तारके साथ कथन करनेपर उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति समाप्त होती है ।
इसप्रकार प्रदेशविभक्ति समाप्त हुई ।
नाझीनचूलिका
जिन जिनेन्द्र चन्द्र या चन्द्रप्रभ जिनेन्द्रने ध्यानरूपी अग्निके द्वारा घातिकर्मों को विध्वस्त कर दिया है उनका ध्यान करके मैं ( टीकाकार ) झीनाकीन नामक अधिकारको उपदेशानुसार प्रकाशित करता हूँ ॥ १॥
* इससे आगे 'भीमझीणं' इस पदका विवरण करना चाहिये ।
९ ४१८. अब तक गाथामें आये हुए 'उक्कस्समणुक्कसं' इस पद तकका विवरण किया । अब इससे आगे जो 'झीणमभी' पद आया है उसका विवरण करना चाहिए इस प्रकार सूत्रार्थका सम्बन्ध है |
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ मुत्तत्यसंबंधो। तत्थ का विहासा णाम ? मुत्तेण सूचिदत्यस्स विसेसियूण भासा विहासा विवरण ति वुत्तं होदि। पदेसविहत्तीए सवित्थरं परूविय समताए किमहमेसो अहियारो ओदिण्णो त्तिण पञ्चवहे यं, तिस्से चेव चूलियाभावेणेदस्सावयारब्भुवगमादो। कधमेसो पदेसविहत्तीए चूलिया ति वुत्ते वुच्चदे-तत्थ खलु उक्कड्डणाए उकस्सपदेससंचओ परूविदो ओकड्डणावसेण च खविदकम्मंसियम्मि जहण्णपदेससंचओ। तत्थ य कदमाए हिदीए हिदपदेसग्गमुक्कड्डणाए ओकड्डणाए च पाओग्गमप्पाओग्गं वा ति ण एरिसो विसेसो सम्ममवहारिओ। तदो तस्स तहाविहसत्तिविरहाविरहलक्खणत्तेण पत्तझीणाझीणववएसस्स हिदीओ अस्सिदूण परूषणहमेसो अहियारो ओदिण्णो त्ति चूलियाववएसो ण विरुज्झदे ।
शंका-सूत्रमें आये हुए 'विभाषा' इस पदका क्या अर्थ है ? ।
समाधान-सूत्रसे जो अर्थ सूचित होता है उसका विशेष रूपसे विवरण करना विभाषा है यह इस पदका अर्थ है। विभाषाका अर्थ विवरण है यह इसका तात्पर्य है। __यदि कोई ऐसी आशंका करे कि प्रदेशविभक्तिका विस्तारसे कथन हो लिया है, अतः इस अधिकारके कथन करनेकी क्या आवश्यकता है सो उसकी ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसीके चूलिका रूपसे यह अधिकार स्वीकार किया गया है।
शंका-यह अधिकार प्रदेशविभक्ति अधिकारका चूलिका है सो कैसे ?
समाधान--प्रदेशविभक्तिका कथन करते समय उत्कर्षणके द्वारा उत्कृष्ट प्रदेशसंचयका भी कथन किया है और अपकर्षणके वशसे क्षपित काशके जघन्य प्रदेशसञ्चयका भी कथन किया है। किन्तु वहाँ इस विशेषताका सम्यक् रीतिसे विचार नहीं किया गया है कि किस स्थितिमें स्थित कर्म उत्कर्षण और अपकर्षणके योग्य हैं तथा किस स्थितिमें स्थित कर्म उत्कर्षण और अपकर्षणके अयोग्य हैं, तथापि इसका विचार किया जाना आवश्यक है अतः इसप्रकारकी शक्तिके सद्भाव और असद्भावके कारण झोनाझीन इस संज्ञाको प्राप्त हुए कर्मपरमाणुओंका स्थितियोंकी अपेक्षा कथन करने के लिए यह अधिकार आया है, इसलिए इसे चूलिका कहने में कोई विरोध नहीं है।
विशेषार्थ-पूर्वमें प्रदेशविक्तका विस्तारसे विवेचन किया है । तथापि उससे यह ज्ञात न हो सका कि सत्तामें स्थित कर्मपरमाणुओंमेंसे कौनसे कर्मपरमाणु उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण
और उदयके योग्य हैं और कौनसे कर्मपरमाणु इनके अयोग्य हैं। इसीप्रकार इससे यह भी ज्ञात न हो सका कि इन कर्मपरमाणुओं से कौनसे कर्मपरमाणु उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त हैं, कौनसे कर्मपरमाणु निषेकस्थिति प्राप्त हैं, कौनसे कर्मपरमाणु श्रधःनिषेकस्थितिप्राप्त हैं और कौनसे कर्मपरमाणु उदयस्थितिप्राप्त हैं। परन्तु इन सब बातोंका ज्ञान करना आवश्यक है, इसीलिए प्रदेश विभक्तिके चूलिकारूपसे झीनाझीन और स्थितिग ये दो अधिकार आये हैं। चूलिकाका अर्थ है पूर्वमें कहे गये किसी विषयके सम्बन्धमें विशेष वक्तव्य । आशय यह है कि पूर्व में जिस विषयका वर्णन कर चुकते हैं उसमें बहुतसी ऐसी बातें छूट जाती हैं जिनका कथन करना आवश्यक रहता है या जिनका कथन किये बिना उस विषयकी पूरी जानकारी नहीं हो पाती, इसलिये इन सब बातोंका खुलासा करनेके लिये एक या एकसे अधिक स्वतन्त्र अधिकार रचे जाते हैं जिनका पूर्व
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए समुक्कित्तणा
२३७ ४१६. एत्थ चत्तारि अणियोगद्दाराणि सुत्तसिद्धाणि । तं जहा-समुकित्तणा परूवणा सामित्तमप्पाबहुअं चेदि । तत्थ समुक्कितणा णाम मोहणीयसव्वपयडीणमुक्कडणादीहि चउहि झीणाझीणहिदियस्स पदेसग्गस्स अत्थित्तमेत्तपरूवगा। तप्परूवणहमुत्तरपुच्छामुत्तेण अवसरो कीरदे
* तं जहा।
४२०. सुगममेदं पुच्छासुतं ।
* अत्थि ओकडणादो झीणहिदियं उक्कड्डणादो झीणडिदियं संकमणादो झीणहिदियं उदयादो झीणहिदियं ।
__४२१. एत्थ ताव सुत्तस्सेदस्स पढममवयवत्थविवरणं कस्सामो। 'अस्थि'सद्दो आदिदीवयभावेण चउण्हं पि सुत्तावयवाणं वावओ ति पादेकं संबंधणिज्जो। भोकड्डणा णाम परिणामविसेसेण कम्मपदेसाणं हिदीए दहरीकरणं । तदो झीणा अप्पाओग्गभावेण अवहिदा हिदी जस्स पदेसग्गस्स तमोकड्डणादो झीणहिदियं अधिकारसे सम्बन्ध रहता है वे सब अधिकार चूलिका कहलाते हैं। प्रकृतमें प्रदेशविभक्तिका कथन किया जा चुका है किन्तु उसमें ऐसी बहुतसी बातें रह गई हैं जिनका निर्देश करना आवश्यक था । इसीकी पूर्ति के लिये झीनाझीन और स्थितिग ये दो चूलिका अधिकार आये हैं।
४१६. इस झीनाझीन नामक चूलिकामें चार अनुयोगद्वार हैं जो आगे कहे जानेवाले सूत्रोंसे ही सिद्ध हैं। वे ये हैं-समुत्कीर्तना, प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । यहां समुत्कीर्तनाका अर्थ है मोहनीयकी सब प्रकृतियोंके उत्कर्षण श्रादि चारकी अपेक्षा झीनाझीन स्थितिवाले कम परमाणुओंके अस्तित्वमात्रका कथन करना। अब इसका कथन करनेके लिये आगेका पृच्छासूत्र कहते हैं
* जैसे६ ४२०. यह पृच्छासूत्र सुगम है।।
* अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं, उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं, संक्रमणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं और उदयसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं। आशय यह है कि ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जिनका अपकर्षण नहीं हो सकता, ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जिनका उत्कर्षण नहीं हो सकता, ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जिनका संक्रमण नहीं हो सकता और ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जो उदयप्राप्त होनेसे जिनका पुनः उदय नहीं हो सकता । . ६४२१. यहां अब सबसे पहले इस सूत्रमें जो 'अस्ति' पद आया है उसका खुलासा करते हैं। 'अस्ति' पद आदिदीपक होनेसे वह सूत्रके चारों ही अवयवोंसे सम्बन्ध रखता है, इसलिये उसे प्रत्येक अवयवके साथ जोड़ लेना चाहिये।
ओकड्डणादो झीणहिदियं -- परिणामविशेषके कारण कर्मपरमाणुओंकी स्थितिका कम करना अपकर्षणा है। जिन कर्मपरमाणुओंकी स्थिति अपकर्षणसे झीन अर्थात् अपकर्षणके अयोग्य रूपसे स्थित है वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं। यह अवस्था यथायोग्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सव्वकम्माणमत्थि। अहवा ओकड्डणादो झीणा परिहीणा जा हिदी तं गच्छदि त्ति ओकड्डणादो झीणहिदियमिदि समासो कायव्यो । एवमुवरि सव्वत्थ । दहरहिदिहिदपदेसग्गाणं हिदीए परिणामविसेंसेण वड्डावणमुक्कड्डणा णाम । तत्तो झीणा हिदी जस्स तं पदेसग्गं सव्वपयडीणमत्थि । संकमादो समयाविरोहेण एयपयडिहिदिपदेसाणं अण्णपयडिसरूवेण परिणमणलक्खणादो झीणा हिदी जस्स तं पि पदेसग्गमत्थि सव्वेसि कम्माणं । उदयादो कम्माणं फलप्पदाणलक्खणादो झीणा हिदी जस्स पदेसग्गस्स तं च सव्वकम्माणमत्थि ति । एत्थ सुत्तसमत्तीए 'चेदि सद्दो किमटुं ण पवुत्तो ? ण, मुत्तमेत्तियमेत्तं चेव ण होदि, किंतु अण्णं पि अज्झाहरिजमाणमत्थि । तदो तस्स समत्तीए 'चेदि सद्दो अज्झाहारेयव्वो चि जाणावणटुं वक्कपरिसमत्तीए अकरणादो । किं तमझाहारिज्जमाणं सुत्तसेसमिदि चे वुच्चदे-ओकडणादो अझीणहिदियं उक्कड्डणादो अझीणहिदियं संकमणादो अझीणहिदियं उदयादो अझीणहिदियं चेदि त्ति । कथमेदमण्णहा झीणाझीणाणं पख्वयमुत्तं हवेज्ज । सुत्ते पुण एसो अज्झाहारो सामस्थियलद्धो त्ति ण णिहिटो । सब कर्मों में सम्भव है। अथवा 'झीणहिदियं' का संस्कृतरूप 'झीनस्थितिगं' भी होता है। इसलिये ऐसा समास करना चाहिए कि जो कर्म परमाणु अपकर्षणसे रहित स्थितिको प्राप्त हैं वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं। इसीप्रकार आगे सर्वत्र सब पदोंका दो प्रकारसे कथन करना चाहिये।
उक्कडणादो झोट्ठदियं-परिणाम विशेषके कारण अल्पस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंकी स्थितिका बढ़ाना उत्कर्षणा है । सब प्रकृतियोंमें ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जिनकी स्थिति उत्कर्षणके अयोग्य है। ___ संकमणादो झीणट्ठिदियं--जैसा आगममें बतलाया है तदनुसार एक प्रकृतिके स्थितिगत कर्मपरमाणुओंका अन्य सजातीय प्रकृतिरूप परिणमना संक्रमण है। सब कर्मों में ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जिनकी स्थिति संक्रमणके अयोग्य है, इसलिये वे संक्रमणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं।
उदयादो झीणहिदियं-कर्मों का फल देना उदय है। सब कर्मों में ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जिनकी स्थिति उदयके अयोग्य है, इसलिये वे उदयसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं।
शंका-यहाँ सूत्रके अन्तमें 'चेदि' शब्द क्यों नहीं रखा ?
समाधान नहीं, क्योंकि सूत्र केवल इतना ही नहीं है किन्तु और भी अध्याहार करने योग्य है और तब जाकर उस अध्याहृत वाक्यके अन्तमें 'चेदि' शब्दका अध्याहार करना चाहिये । इसप्रकार यह बात बतलानेके लिए सूत्रवाक्यको समाप्त न करके यों ही छोड़ दिया है।
शंका-सूत्रका वह कौनसा अंश शेष है जो अध्याहार करने योग्य है ?
समाधान-'ओकडणादो अझीणहिदियं उकडणादो अझीणहिदियं संकमणादो अझीणहिदियं उदयादो अझीणहिदियं चेदि' यह वाक्य है जो अध्याहार करने योग्य है।
यदि ऐसा न माना जाय तो यह सूत्र झीनाझीन दोनोंका प्ररूपक कैसे हो सकता है। तथापि इतना अध्याहार सामथ्र्यलभ्य है, इसलिये इसका सूत्रमें निर्देश नहीं किया।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा
४२२. संपहि समुक्त्तिणाणियोगद्दारेण समुक्कित्तिदाणमेदेसि सरूत्रविसयणिण्णयजणण परवणाणिओगद्दारं परूवयमाणो जहा उद्देसो तहा णिसो त्ति णाएण पहिलमेव ताव भोकड्डणादो झीणहिदियं सपडिवक्खमासंकामुत्तेण पत्तावसरं करेदि
* भोकडणाको झीणहिदियं णाम किं ?
१४२३. अत्थि प्रोकड्डणादो झीणहिदिगमिदि पुव्वं समुक्कित्तिदं । तत्य कदममोकड्डणादो झीणहिदियं ? किमविसेसेण सवहिदिद्विदपदेसग्गमाहो अत्थि को वि विसेसो ति एसो एदस्स भावत्थो। एवमासंकिय तबिसेसपरूवणमुत्तरसुत्तं भणइ
( जं कम्ममुदयावलियम्भंतरे हियं तमोकडुणावो झीणहिदियं । जमुदयावलियबाहिरे द्विदं तमोकणादो अज्झीणहिदियं ।
विशेषार्थ-झीनाझीन अधिकारका समुत्कीर्तना, प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन चार उपअधिकारों द्वारा वर्णन किया गया है। इन चारोंका अर्थ स्पष्ट है। यहाँ सर्वप्रथम समुत्कीर्तनाका निर्देश करते हुए चूर्णिसूत्रकारने यह बतलाया है कि मोहनीयकी सब प्रकृतियोंमें ऐसे बहुतसे कर्मपरमाणु हैं जो यथासम्भव अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण और उदयके अयोग्य हैं। तथा बहुतसे ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जो यथासम्भव इनके योग्य भी हैं। यहाँ सूत्रमें यद्यपि सूत्रकारने अपर्षण आदिके अयोग्य परमाणुओंके होनेकी सूचना की है तथापि इस अधिकारका नाम झीनाझीन होनेसे यह भी सूचित हो जाता है कि बहुतसे ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जो अपकर्षण आदिके योग्य भी हैं। यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
६४२२. अब समुत्कीर्तना अनुयोगद्वारके द्वारा कहे गये इनके स्वरूप विषयक निर्णयका ज्ञान करानेके लिए प्ररूपणा अनुयोगद्वारका कथन करते हैं। उसमें भी उद्देश्यके अनुसार निर्देश किया जाता है इस न्यायके अनुसार सर्वप्रथम आंशकासूत्रद्वारा अपने प्रतिपक्षभूत कर्मके साथ अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले कर्मके कथन करनेकी सूचना करते हैं
* वे कौनसे कर्मपरमाणु हैं जो अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं।
६४२३. अपकर्षणसे झीन (रहित ) स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं यह पहले कह आये हैं। अब इस विषयमें यह प्रश्न है कि वे कौनसे कर्मपरमाणु हैं जो अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं। क्या सामान्यसे सब स्थितियोंमें स्थित कर्मपरमाणु ऐसे हैं या कुछ विशेषता है यह इस सूत्रका भाव है। ऐसी आशंका कर अब उस विशेषताका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं और जो कर्मपरमाणु उदयावलिके बाहर स्थित हैं वे अपकर्षणसे अमीन स्थितिवाले हैं। अर्थात् उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण नहीं होता किन्तु उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण हो सकता है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ $ ४२४. एत्थ जं कम्ममिदि वुत्ते जो कम्मपदेसो त्ति घेत्तव्वं । उदयावलिया त्ति उदयसमयप्पहुडि आवलियमेतहिदीणमुत्तावलियायारेण हिदाणं सण्णा । कुदो ! उदयसहस्स उवलक्खणभावेण ठविदत्तादो । तदभंतरे द्विदं जं पदेसग्गं तमोकड्डणादो झीणहिदिगं । ण एदस्स हिदीए ओकड्डणमत्थि ति भावत्थो । कुदो ? सहावदो । एरिसो एदस्स सहावो ति कतो णव्वदे ? एदम्हादो चेव मुत्तादो। जं पुण उदयावलियबाहिरे हिदं पदेसग्गं तमोकड्डणादो अज्झीणहिदिगमिदि एदेण सुत्तावयवेण उदयावलियबाहिरासेसहिदिहिदपदेसग्गं सबमोकड्डणापाओग्गमिदि वुत्तं होदि । एत्थ चोदओ भगदि-उदयावलियबाहिरे वि ओकड्डणादो ज्झीणहिदियमप्पसत्थउवसामणा-णिवत्तीकरण-णिकाचणाकरणेहि अत्थि चेव जाव दंसणचरित्तमोहक्खवगुवसामयअपुवकरणचरिमसमओ त्ति तदो किं वुच्चदे उदयावलियबाहिरहिदिहिदपदेसग्गमोकड्डणादो अज्झीणहिदियमिदि ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-जिस्से हिदीए पदेसग्गस्स ओकडणा अच्चंतं ण संभवइ सा हिंदी ओकड्डणादो झीणा वुच्चइ, तिस्से अच्चताभावेण पडिग्गहियत्तादो। ण च णिकाचिदपरमाणणमेवंविहो णियमो अस्थि, अपुवकरण
5 ४२४. यहाँ सूत्रमें जो 'जं कम्म' ऐसा कहा है सो उससे 'जो कर्मपरमाणु' ऐसा अर्थ लेना चाहिये । जो उदय समयसे लेकर आवलिप्रमाण स्थितियाँ मुक्तावलिके समान स्थित हैं उनकी उदयावलि यह संज्ञा है, क्योंकि ये सब स्थितियाँ उपलक्षणरूपसे उदयप्राप्त स्थितिके साथ स्थापित हैं। इस उदयावलिके भीतर जो कर्मपरमाणु स्थित हैं वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं। इस उदयावलिप्रमाण स्थितियोंका अपकर्षण नहीं होता यह इस सूत्रका भाव है।
शंका–उदयावलिप्रमाण स्थितियोंका अपकर्षण क्यों नहीं होता ? समाधान-क्योंकि ऐसा स्वभाव है। शंका-इसका ऐसा स्वभाव है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है।
किन्तु जो कर्मपरमाणु उदयावलिके बाहर स्थित हैं वे अपकर्षणसे अमीन स्थितिवाले हैं। इसप्रकार सूत्रके इस दूसरे वाक्यद्वारा यह कहा गया है कि उदयावलिके बाहर समस्त स्थितियोंमें स्थित जितने कर्मपरमाणु हैं वे सब अपकर्षणके योग्य हैं।
शंका-यहां पर शंकाकार कहता है कि उदयावलिके बाहर भी अप्रशस्त उपशामना, निधत्तीकरण और निकाचनाकरणके सम्बन्धसे ऐसे कर्मपरमाणु बच रहते हैं जो अपकर्षणके अयोग्य हैं। और उनकी यह अयोग्यता दर्शनमोहनीय या चरित्रमोहनीयकी क्षपणा या उपशमना करनेवाले जीवके अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक बनी रहती है, तब फिर यह क्यों कहा जाता है कि उद्यावलिके बाहरकी स्थितियोंमें स्थित कर्मपरमाणु अपकर्षणके योग्य हैं।
समाधान-जिस स्थितिके कर्मपरमाणुओंकी अपकर्षणा बिलकुल ही सम्भव नहीं, केवल वही स्थिति यहाँ अपकर्षणके अयोग्य कही गई है, क्योंकि यहाँ ऐसे कर्मपरमाणुओंकी अपकर्षणाका निषेध किया है जो किसी भी हालतमें सम्भव नहीं है। किन्तु निकाचित आदि अवस्थाको प्राप्त हुए कर्मपरमाणुओंका ऐसा नियम तो है नहीं, क्योंकि वे कर्मपरमाणु अपूर्वकरण
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा
२४१ सचरिमसमयादो उवरि तेसिमोकड्डणादिपाओग्गभावेण पडिणिययकालपडिबदाए
ओकड्डणादीणमणागमणपइज्जाए अणुवलंभादो। एदेण सासणसम्माइहिम्मि दंसणतियस्स उक्कड्डणादीहितो झीणहिदियत्तसंभव विप्पडिवत्ती णिराकरिया, तत्थ घि सव्वकालमणागमणपइज्जाए अभावादो । एत्य मिच्छत्तादिपयडिबिसेसणिद्दे सं काऊण परूवणा किमह' ण कीरदे ? ण, विसेसविवक्खमकाऊण मूलुतरपयडीणं साहारणसरूवेण अपदस्स परूवणादो। ण च सामण्णे परूविदे विसेसा अपरूविदा णाम. तेसि ततो पुधभूदाणमणुवलंभादो। तदो एत्थ पादेवकं सवपयडीणमेसा अहपदपरूवणा वित्थररुइसिस्साणुग्गहह कायव्वा । के अन्तिम समयके बाद अनिवृत्तिकरणमें अपकर्षणा आदिके योग्य हो जाते हैं और तब फिर उनकी अपकर्षणा आदिको नहीं प्राप्त होनेकी जो प्रतिनियत काल तककी प्रतिज्ञा है वह भी नहीं रहती।
इस कथनसे सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी स्थितिकी उत्कर्षणा आदि सम्भव नहीं होनेसे जो विप्रतिपत्ति उत्पन्न होती है उसका भी निराकरण कर दिया, क्योंकि उनमें भी उत्कर्पण आदिके नहीं होनेकी प्रतिज्ञा सदा नहीं पाई जाती।
शंका-इस सूत्रमें मिथ्यात्व आदि प्रकृतिविशेषका निर्देश करके कथन क्यों नहीं किया गया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि यहाँ विशेष कथनकी विवक्षा न करके जो मूल और उत्तर प्रकृतियोंमें साधारण है ऐसे अर्थपदका निर्देश किया है और सामान्यकी प्ररूपणामें विशेषकी प्ररूपणा अप्ररूपित नहीं रहती, क्योंकि विशेष सामान्यसे पृथक् नहीं पाये जाते । किन्तु जो शिष्य विस्तारसे समझनेकी रुचि रखते हैं उनके उपकारके लिए यही अर्थपद प्ररूपणा सब प्रकृतियोंकी पृथक् पृथक् करनी चाहिये।
विशेषार्थ-यहाँपर यह बतलाया है कि कौन कर्मपरमाणु अपकर्षणके अयोग्य हैं और कौन कर्मपरमाण अपकर्षणके योग्य हैं। एक ऐसा नियम है कि उदयावलिके भीतर स्थित कमपरमाणु सकल करणोंके अयोग्य होते हैं । अर्थात् उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण श्रादि कुछ भी सम्भव नहीं है, उनका स्वमुख से या परमुखसे केवल उदय ही होता है, इसलिए इस परसे यह निष्कर्ष निकला कि उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणु अपकर्षणके अयोग्य हैं, हाँ उदयावलिके बाहर जो कर्मपरमाणु स्थित हैं उनका अपकर्षण अवश्य हो सकता है। इसीलिए चूर्णिसूत्रकारने अपकर्षणके विषयमें यह नियम बनाया है कि उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणु अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं और उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणु अपकर्षणसे अझीन स्थितिवाले हैं। तब भी यह प्रश्न तो है ही कि उदयावलिके बाहर स्थित सब कर्मपरमाणु अपकर्षणके योग्य ही होते हैं ऐसा एकान्त नियम तो किया नहीं जा सकता, क्योंकि उदयावलिके बाहर स्थित जिन कर्मपरमाणुओंकी अप्रशस्त उपशम, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण ये अवस्थाएँ हैं उनका अपकर्षण नहीं होता। इसीप्रकार सासादन गुणस्थानमें भी दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियोंका अपकर्षण नहीं होता, इसलिये चूर्णिसूत्रकारने जो यह कहा है कि उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण हो सकता है सो उनका ऐसा कथन
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२४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसवित्ती ५ ४२५. संपहि उक्कड्डणादो झीणहिदियं सपडिवक्वं परूवयमाणो मुत्तयारो पुच्छामुत्तेण पत्यावमारभेइ
* उकाडुणादो झीणहिदियं णाम किं ?
४२६. एत्य उक्कड्डणादो अज्झीणहिदियं णाम किमिदि वक्कसेसो कायव्वो। सेसं सुगमं । एवं पुच्छिदत्यविसर णिण्णयजणणहमुत्तरमुत्तकलावं भणइ
8 जं ताव उदयावलियपवितं ताव उकडूणावो झीणहिदियं ।
$ ४२७. कुदो एदस्स उदयावलियपविहस्स उक्कड़डणादो झीणहिदियत्तं ? सहावदो। को एत्थ सहावो णाम ? अच्चंताभावो । एदमेवमप्पवण्णणिज्जितादो
करना उचित नहीं है। इस प्रश्नका जो समाधान किया गया है उसका भाव यह है कि जो कर्मपरमाणु अप्रशस्त उपशामना, निधत्तीकरण या निकाचनाकरण अवस्थाको प्राप्त हैं उनकी वह अवस्था सदा नहीं बनी रहती है। किन्तु अनिवृत्तिकरणमें जाकर वह समाप्त हो जाती है और पहले जिनका अपकर्षण नहीं होता रहा अब उनका अपकर्षण होने लगता है। इसी प्रकार सासादनगुणस्थानका काल निकल जानेपर सासादनमें जिनका अपकर्षण नहीं होता रहा उनका तदनन्तर अपकर्षण होने लगता है, इसलिये उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणुओंको निरपवादरूपसे अपकर्षणके अयोग्य कहनेमें कोई आपत्ति नहीं है। यहां पर एक शंका और उठाई गई है कि अपकर्षण के योग्य और अयोग्य कर्मपरमाणुओंका कथन करते समय कर्म विशेषका निर्देश क्यों नहीं किया। अर्थात् यह क्यों नहीं बतलाया कि इस प्रकारकी अवस्था मोहनीयके किन किन कर्मों में पैदा होती है। इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यहां जो सामान्य नियम बांधा गया है वह निरपवादरूपसे सब कर्मों में सम्भव है, इसलिये उसका प्रत्येक कर्मकी अपेक्षासे कयन नहीं किया है। तथापि जो शिष्य विस्तारसे समझना चाहते हैं उनके लिये इसी नियमका प्रत्येक कर्मकी अपेक्षासे कथन करनेमें कोई आपत्ति नहीं है।
६४२५. अब चूर्णिसूत्रकार अपने प्रतिपक्षभूत कर्मपरमाणुओंके साथ उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके कथन करनेकी इच्छासे पृच्छासूत्रद्वारा उसके कथन करनेका प्रस्ताव करते हैं
* वे कौनसे कर्मपरमाणु हैं जो उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं।
६ ४२६. इस सूत्रमें 'वे कौनसे कर्मपरमाणु हैं जो उत्कर्षणसे अझीन स्थितिवाले हैं। इतना वाक्य और जोड़ देना चाहिये । शेष कथन सुगम है। इस प्रकार पूछे गये अर्थक विषयमें निर्णय करनेके लिये आगेके सूत्रकलापको कहते हैं
* जो कर्म उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं।
६ ४२७. शंका-जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले क्यों हैं ? 'समाधान-स्वभावसे।
शंका-यहाँ स्वभावसे क्या अभिप्रेत है ? समाधान-अत्यन्ताभाव । अर्थात् उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओंमें उत्कर्षण
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गा० २२) पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा
२४३ सुगमत्तादो च सिद्धसरूवेण परूविय संपहि उदयावलियबाहिरे वि उकड्डणाए अप्पाओग्गपदेसस्स णिदरिसणं परूवेमाणो तदत्थित्ते पइज्जं करेदि
* उदयावलियबाहिरे वि अत्थि पदेसग्गमुक्कडणादो झीणहिदियं । तस्स णिवरिसणं । तं जहा ।
$ ४२८. एदं पुच्छासुत्तं णिदंसणविसयं सुगमं । एवं पुच्छिदे णिरुद्धहिदिपरूवणहमुत्तरमुत्तं भणइ
___® जा समयाहियाए उदयावलियाए हिंदी एदिस्से हिदीए जं पदेसग्गं तमादि।
४२६. एत्थ समयाहियाए उदयावलियाए चरिमसमए हिदा जा हिदी णाणासमयपबद्धप्पिया एदिस्से हिदीए जं पदेसग्गं तमादि विवक्खियमिदि सुत्तत्थसंबंधो कायव्यो। होनेकी योग्यताका अत्यन्त अभाव है।
इसप्रकार यह कथन अल्प होनेसे या सुगम होनेसे इसका सिद्ध रूप पहले बतलाकर अब उदयावलिके बाहर भी उत्कर्षणके अयोग्य कर्मपरमाणुओंको उदाहरण द्वारा दिखलाते हुए पहले उनके अस्तित्वकी प्रतिज्ञा करते हैं
* उदयावलिके बाहर भी उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं । उनका उदाहरण । जैसे
४२८. यह उदाहरणविषयक पृच्छासूत्र है, जो सुगम है। ऐसा पूछनेपर उससे निरुद्ध स्थितिका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* एक समय अधिक उदयावलिके अन्तमें जो स्थिति स्थित है उस स्थितिके जो कर्मपरमाणु हैं वे यहाँ उदाहरणरूपसे विवक्षित हैं ।
४२६. एक समय अधिक उदयावलिके अन्तिम समयमें नाना समयप्रबद्धोंसे सम्बन्ध रखनेवाली जो स्थिति स्थित है और उस स्थितिमें स्थित जो कर्मपरमाणु हैं वे यहाँ आदिष्ट अर्थात् विवक्षित हैं ऐसा इस सूत्रके अर्थका सम्बन्ध करना चाहिए।
विशेषार्थ-जिन कर्मपरमाणुओंकी स्थिति कम है उनकी तत्काल बँधनवाले कर्मके सम्बन्ध से स्थितिका बढ़ाना उत्कर्षण है। यह उत्कर्षण उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओंका तो होता ही नहीं, क्योंकि उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओंके स्वमुख या परमुखसे होनेवाले उदयको छोड़कर अन्य कोई अवस्था नहीं होती ऐसा नियम है। इसके साथ उदयावलिके बाहर जो कर्मपरमाणु स्थित हैं उनमें भी बहुतोंका उत्कर्षण नहीं हो सकता। प्रकृतमें यही बतलाना है कि वे कौनसे कर्मपरमाणु हैं जिनका उत्कर्षण नहीं हो सकता। इसके लिए सर्वप्रथम उदयावलिके बाहर प्रथम स्थितिमें स्थित कर्मपरमाणु यहाँ उदाहरणरूपसे लिये गये हैं। उदयावलिके बाहर प्रथम स्थितिमें स्थित उन सब कर्मपरमाणुओंमें यह विवेक करना है कि उनमें ऐसे कौनसे कमपरमाणु हैं जिनका उत्कर्षण नहीं हो सकता, क्योंकि वे कर्मपरमाणु नाना समयप्रबद्धसम्बन्धी हैं। इसलिए उनमेंसे कुछ कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण हो सकता है और कुछका नहीं।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ६४३०. एत्थतणपदेसग्गं कम्महिदियभंतरे संचिदाणेगसमयपबद्धपडिबद्धमत्थि कि तं सव्वमेव उक्कडडणाए अप्पाओग्गमाहो अत्थि को इ विसेसो ति आसंकाणिरायरणहमुत्तरमुत्तमोयरइ
* तस्स पदेसग्गस्स जइ समयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्महिंदी विदिक्कता बद्धस्स तं कम्म ण सका उक्कड्डिहूँ।
४३१. तस्स णिरुद्धहिदीए पदेसग्गस्स जइ समयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता बद्धस्स बंधसमयादो पहुडि तं कम्म णो सक्का उक्कड्डिएं, सत्तिहिदीए तत्तो उवरि एगसमयमेत्तस्स वि अभावांदो। ण च उदयसमए हिदो जीवो उदयावलियबाहिराणंतरहिदिपदेसग्गमुचरिदतेत्तियमेत्तकम्मद्विदियमुक्कड्डिदुं समत्थो, उक्कड्डणापाप्रोग्गभावस्स कम्महिदिपरिहाणीए विणहत्तादो। तदो एदमुक्कड्डणादो झीणहिदियमिदि एसो मुत्तस्स भावत्थो ।
६४३०. इस पूर्वोक्त स्थितिके कर्मपरमाणु कर्मस्थितिके भीतर सञ्चित हुए छानेक समयप्रबद्धसम्बन्धी हैं सो क्या वे सबके सब उत्कर्षणके अयोग्य हैं या इनमें कोई विशेषता है ? इस प्रकार इस आशंकाके निराकरण करनेके लिए आगेका सूत्र आया है
* किन्तु उन कर्म परमाणुओंकी बन्ध समयसे लेकर यदि एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून सव कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है तो उन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण नहीं हो सकता।
६४३१. पहले उदाहरणरूपसे जिस स्थितिका निर्देश किया है उसके उन कर्मपरमाणुओंकी बद्धस्स अर्थात् बन्धके समयसे लेकर यदि एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून शेष सब कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है तो उन कर्म परमाणुओंका उत्कर्षण नहीं हो सकता, क्योंकि उनकी उस स्थितिसे अधिक एक समयमात्र भी शक्तिस्थिति नहीं पाई जाती। और उदय समयमें स्थित हुआ जीव उदयावलिके बाहर अनन्तर समयवर्ती स्थितिके ऐसे कर्म परमाणुओंका, जिनकी कर्मस्थिति उतनी ही अर्थात् एक समय अधिक उदयावलि प्रमाण ही शेष रही है, उत्कर्षण करनेमें समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि कर्मस्थितिकी हानि हो जानेसे उन कर्म परमाणुओंके उत्कर्षणकी योग्यता ही नष्ट हो गई है. इसलिये ये कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं यह इस सूत्रका भावार्थ है।
विशेषार्थ—यह तो पहले ही बतला आये हैं कि उत्कर्षण सब कर्म परमाणुओंका न होकर कुछका होता है और कुछका नहीं होता। जिनका नहीं होता उनका संक्षेपमें व्योरा इस प्रकार है
१-उदयावलिके भीतर स्थित कर्म परमाणुओंका उकर्षण नहीं होता ।
२-उदयावलिके बाहर भी सत्तामें स्थित जिन कर्मपरमाणुओंकी कर्मस्थिति उत्कर्षणके समय बँधनेवाले कर्मों की आबाधाके बराबर या इससे कम शेष रही है उनका भी उत्कर्षण नहीं होता।
३ निर्व्याघात दशामें उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाले कर्म परमाणुओंकी अतिस्थापना कमसे
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवण
२५५ ४३२. तिस्से चेव णिरुद्धहिदीए अण्णं पि पदेसरगमोकड्डणादो परिहीणहिदियमत्थि ति परूवणहमुवरिममुत्तमोइण्णं
___ तस्सेव पदेसग्गस्त जइ वि दुसमयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कंता तं पि उक्कड्डणादो झीणहिदियं ।
४३३. सुगम । किमहमेक्किस्से परिमाणंतरहिदीए ण उक्कड्डि जइ तं पदेसग्गं ? ण, जहण्णाबाहादीहाए अइच्छावणाए अभावादो । ण च आवाहाए अब्भंतरे उक्कड्डणस्स संभवो, 'बंधे उक्कड्डदि' ति वयणादो। ण हि अहिणववज्झमाणपरमाणू आबाहाए अभंतरे अस्थि, विरोहादो। कम एक प्रावलिप्रमाण बतलाई है, इसलिये अतिस्थापनारूप द्रव्यमें उत्कर्षित द्रव्यका निक्षेप नहीं होता।
४-व्याघात दशामें कमसे कम आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अतिस्थापना और इतना ही निक्षेप प्राप्त होनेपर उत्कर्षण होता है, अन्यथा नहीं होता।
___ जहाँ अतिस्थापना एक आवलि और निक्षेप आवलिका असंख्यातवाँ भाग आदि बन जाता है वहाँ निर्व्याघात. दशा होती है और जहाँ अतिस्थापनाके एक आवलिप्रमाण होनेमें बाधा आती है वहाँ व्याघात दशा होती है। जब प्राचीन सत्तामें स्थित कर्म परमाणुओंकी स्थितिसे नूतन बन्ध अधिक हो पर इस अधिकका प्रमाण एक आवलि और एक श्रावलिके असंख्यातवें भागके भीतर ही प्राप्त हो तब यह व्याघात दशा होती है। इसके सिवा उत्कर्षणमें सर्वत्र निर्व्याघात दशा ही जाननी चाहिये।
प्रकृतमें जिन कर्मपरमाणुओंके उत्कर्षणका निषेध किया है उनसे सम्बन्ध रखनेवाले समयप्रबद्धकी कर्मस्थिति केवल एक समय अधिक एक श्रावलिमात्र ही शेष रही है, इसलिये इनका नियम नम्बर दो के अनुसार उत्कर्षण नहीं हो सकता, क्योंकि यहाँ जिन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण विवक्षित है उनका कर्मपरमाणुओंसे सम्बन्ध रखनेवाले समयप्रबद्धकी कर्मस्थिति उतन शेष रही है, इसलिये उन कर्मपरमाणुओंमें शक्तिस्थितिका सर्वथा अभाव होनेसे उनका उत्कर्षण नहीं हो सकता।
६४३२. उसी विवक्षित स्थितिके अन्य कर्म परमाणु भी उत्कर्षणके अयोग्य हैं, अब इस बातका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र आया है
___ * उन्हीं कर्मपरमाणुओंकी यदि दो समय अधिक एक आवलिसे न्यून शेष कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है तो वे कर्मपरमाणु भी उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं।
६४३३. यह सूत्र सुगम है ।
शंका-अपनेसे ऊपरकी अनन्तरवती एक स्थितिमें उन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण क्यों नहीं होता ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वहाँ जघन्य आवाधाप्रमाण अतिस्थापना नहीं पाई जाती और आवाधाके भीतर उत्कर्षण हो नहीं सकता, क्योंकि 'बन्धके समय ही उत्कर्षण होता है' ऐसा आगमवचन है । यदि कहा जाय कि नूतन बंधनेवाले कर्म परमाणु आबाधाके भीतर पाये जाते हैं सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है।
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- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ 8 एवं गंतूण जदि वि जहरिणयाए आवाहाए अणिया कम्महिदी विदिक्कंता तं पि उक्कड्डणादो झीणहिदियं । ___ ४३४. एवं तिसमयाहियावलियादिपरिहीणकम्महिदिं समाणिय द्विदिपदेसग्गाणमुक्कड्डणादो झीणहिदियतं वत्तव्वं, अइच्छावणाए पडिवुण्णत्ताभावेण णिक्खेवस्स च अच्चंताभावेण पुचिल्लादो विसेसाभावा । 'एवं गंतूण जइ वि जहणियाए. झीणहिदिगं' इदि एत्थ चरिमवियप्पे जइ वि अइच्छावणा संपुण्णा तो वि णिक्खेवाभावेण झीणहिदियत्तं पडिवज्जेयव्वं । सेसं सुगम ।
विशेषार्थ-पहले यह बतलाया गया है कि जिन कर्मपरमाणुओंकी कर्मस्थिति उदयावलि से केवल एक समय अधिक शेष है उनका उत्कर्षण नहीं होता। तब यह प्रश्न हुआ कि जिस समयप्रबद्धकी कर्मस्थिति दो समय अधिक एक आवलिप्रमाण शेष है उसी समयप्रबद्धके एक समय अधिक उदयावलिके अन्तिम समयमें स्थित कर्मपरमाणुओंका अनन्तरवर्ती उपरितन स्थितिमें उत्कर्षण होता है क्या ? इसी प्रश्नका उत्तर देते हुए यहां यह बतलाया गया है कि तब भी
भव नहीं है। इसका यहां पर जो कारण बतलाया है उसका आशय यह है कि उत्कर्षण बन्धके समय ही होता है। फिर भी उत्कर्षित द्रव्यका निक्षेप अतिस्थापना प्रमाण स्थितिको छोड़कर ऊपरकी स्थितिमें ही होता है और प्रकृतमें अतिस्थापना जघन्य आबाधासे कम तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि आबाधाकालके भीतर नवीन बंधे हुए कर्मोंकी निषेक रचना न होनेसे श्राबाधाकालके भीतर उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यका निक्षेप ही सम्भव नहीं है। यह माना कि आबाधाकालके भीतर सत्तामें स्थित कर्मोंकी निषेक रचना पाई जाती है, किन्तु 'बन्धके समय ही उत्कर्षण होता है। ऐसा कथन करनेसे यह निष्कर्ष निकलता है कि उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यका निक्षेप तत्काल बंधनेवाले कर्मके निषेकों में ही होता है। पर यह निषेक रचना आबाधाकालके भीतर नहीं पाई जाती, इसलिये आबाधा निक्षेपके अयोग्य है यह सिद्ध होता है। इस प्रकार उदयावलिके अनन्तर समयवती कर्म परमाणुओंका उदयावलिके अनन्तर द्वितीय समयवर्ती स्थितिमें निक्षेप नहीं हो सकता यह सिद्ध होता है और यही प्रकृत सूत्रका आशय है।
* इस प्रकार जाकर यद्यपि विवक्षित कर्म परमाणुओंकी जघन्य आबाधासे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है तो भी वे कर्म परमाणु उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले होते हैं।
६४३४. तीन समय अधिक एक आवलिसे न्यून शेष सब कर्मस्थितिको समाप्त करके स्थित हुए कर्म परमाणु भी उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले होते हैं ऐसा यहाँ कथन करना चाहिये, क्योंकि अतिस्थापना पूरी न होनेसे और निक्षेपका अत्यन्त प्रभाव होनेसे पूर्व सूत्रके कथनसे इसमें कोई विशेषता नहीं है। 'इस प्रकार जाकर यद्यपि जघन्य आबाधासे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है तो भी वे कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले होते हैं। इस प्रकार इस अन्तिम विकल्पमें यद्यपि अतिस्थापना पूरी है तो भी निक्षेपका अभाव होनेसे ( एक समय अधिक एक आवलिके अन्तिम समयवती कर्म परमाणुओंका) उत्कर्षणसे झीन स्थितिपना जानना चाहिये। शेष कथन सुगम है।
विशेषार्थ-पहले उदाहरणरूपसे जो एक समय अधिक उद्यावलिके अन्तिम समयमें
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा
२४७ ४३५. संपहि अज्झीणहिदियस्स उक्कड्डणापाओग्गस्स तस्सेव णिरुद्धहिदिपदेसग्गस्स परूवणहमुत्तरसुत्तमागयं
* समयुत्तराए उदयावलियाए तिस्से हिदीए जं पदेसग्ग: तस्स पदेसग्गस्स जइ जहणियाए भावाहाए समयुत्तराए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कंता तं पदेसग्गं सका आवाधामेत्तमुक्कड्डिउमेकिस्से हिदीए पिसिंचिदु।
४३६. गयत्थमेदं, सुगमासेसावयवत्तादो। णवरि आवाधामेत्तमुक्कड्डिउमिदि एत्य उक्कड्डियूण ति घेत्तव्यं । अहवा, आबाहामेत्तमुक्कड्डिदुमेक्किस्से हिदीए णिसिंचिदं चेदि संबंधो कायव्वो। च सण विणा वि समुच्चयहावगमादो। एदस्स मुत्तस्स भावत्थो-पुव्वमादिहिदीए पदेसग्गस बंधसमयादो पहुडि जइ जहण्णाबाहाए समयाहियाए ऊणिया कम्महिदी वदिक्कंता होज्ज तो तं पदेसग्गं जहण्णाबाहामेत्तमुक्कड्डिय उवरिमाणंतराए एक्किस्से हिदीए णिसिंचिदु सक्क, तप्पाओग्गजहण्णाण स्थित कर्म परमाणु बतलाये हैं सो उनका उत्कर्षण कब तक नहीं हो सकता यह इस सूत्रमें बतलाया है। यदि तीन समय अधिक उदयावलिप्रमाण स्थिति शेष हो और बाकीकी स्थिति गल गई हो तो भी एक समय अधिक उदयावलिके अन्तिम समयवर्ती उन कर्म परमाणुओंका शेष दो स्थिति में उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि प्रकृतमें अतिस्थापनाका प्रमाण जो जघन्य आबाधा बतलाया है वह अभी पूरा नहीं हुआ है और निक्षेपका अभाव तो बना हुआ ही है। इसी प्रकार चार समय अधिक, पांच समय अधिक उदयावलिप्रमाण स्थितिसे लेकर बाधाकाल प्रमाण स्थितिके शेष रहने पर भी उक्त कर्म परमाणुओंका उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि यहां अन्तिम विकल्पके सिवा और सब विकल्पोंमें अतिस्थापना तो पूरी हुई नहीं और निक्षेपका अभाव तो सर्वत्र ही बना हुआ है।
६४३५. अब उसी स्थितिके जो कर्म परमाणु उत्कर्षणसे अमीन स्थितिवाले अर्थात् उत्कर्षणके योग्य हैं उनका कथन करनेके लिये श्रागेका सूत्र आया है
* एक समय अधिक उदयावलिप्रमाण उसी स्थितिके ऐसे कम परमाण लो जिनकी यदि एक समय अधिक जघन्य अबाधासे न्यून शेष कर्मस्थिति गली है तो उन कर्म परमाणुओंका जघन्य आबाधाप्रमाण उत्कर्षण और आवाधासे ऊपर की एक स्थितिमें निक्षेप ये दोनों बातें शक्य हैं ।
६४३६ इस सत्रका अर्थ अवगतप्राय है, क्योंकि इसके सब अवयवोंका अर्थ सुगम है। किन्तु इतनी विशेषता है कि 'आबाधामेत्तमुक्कडिउँ' इस वाक्यमें स्थित 'उक्कडिङ' का अर्थ "उत्कर्षण करके' करना चाहिये । अथवा 'आबाधाप्रमाण उत्कर्षण करनेके लिये और एक स्थिति में निक्षेप करनेके लिये शक्य है' ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिये, क्योंकि यद्यपि वाक्य में 'च' पद नहीं दिया है तो भी समुच्चयरूप अर्थका ज्ञान हो जाता है । इस सूत्र का यह भावार्थ है कि पहले उदाहरणरूपसे निर्दिष्ट की गई स्थितिके कर्मपरमाणुओंकी यदि बेन्ध समयसे लेकर एक समय अधिक जघन्य आबाधासे न्यून शेष कर्मस्थिति व्यतीत हो गई हो तो उन कर्मपरमाणुओं का जघन्य श्राबाधाप्रमाण उत्कर्षण होकर उसके ऊपर अनन्तर समयवर्ती एक स्थितिमें निक्षेप
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२४८ जयधवलाहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती मइच्छावणाणिक्खेवाणमेत्युवलंभादो । तदो एदमुक्कड्डणादो अज्झीणहिदियमिदि उवरि सव्वत्थ उक्कड्डणापडिसेहो पत्थि त्ति जाणावण तबिसयमाहप्पमुत्तरमुत्तेण भणइ
ॐ जइ दुसमयाहियाए भाषाहाए अणिया कम्महिदी विदिक्कता तिसमयाहियाए वा आवाहाए अणिया कम्महिदी विदिक्कता। एवं गंतूण वासेण वा वासपुधत्तेण वा सागरोवमेण वा सागरोवमपुधत्तेण वा ऊणिया कम्महिदी विदिक्कंता तं सव्वं पदेसग्गं उकडणादो अज्झीणहिदियं ।
४३७. एदस्स मुत्तस्स सुगमासेसावयवकलावस्स भावत्थो-पुव्वणिरुदाए समयाहियउदयावलियचरिमहिदीए पदेसग्गस्स बंधसमयप्पहुडि वोलाविय समयाहियजहण्णाबाहादिवरिमासेसमुत्तुत्तवियप्पपरिहीणकम्महिदियस्स' पत्थि उक्कड्डणादो झीणहिदियत्तं । सव्वमेव तमुक्कडडणापाओग्गमिदि सव्वस्स वि एदस्स समयाविरोहेण उक्कड्डिज्जमाणयस्स आवाहमेत्ती अइच्छावणा।णिक्खेवो पुण समयुत्तरादिकमेण वडमाणो गच्छदि जाव उक्कस्साबाहाए समयाहियावलियाए च ऊणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ ति । एत्थ सागरोवमपुधत्तेण वा ति एदेण वा सहण अवुत्तसमुच्चय?ण सागरोवमदसपुत्रेण वा सदपुधत्तेण वा सहस्सपुधत्तेण वा लक्खपुधरेण वा कोडिपुधरेण वा अंतोकोडाकोडीए वा कोडाकोडिपुधत्तेण वा ति एदे संभविणो वियप्पा घेत्तव्वा ।
होना शक्य है, क्योंकि यहां तद्योग्य जघन्य अतिस्थापना और निक्षेप ये दोनों पाये जाते हैं, इसलिये ये कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे अझीन स्थितिवाले हैं। अब आगे सर्वत्र उत्कर्षणका निषेध नहीं है यह जतानेके लिये अगले सूत्रद्वारा उस विषयका माहात्म्य बतलाते हैं
___* तथा उसी पूर्वोक्त स्थितिकी यदि दो समय अधिक आवाधासे न्यून कर्मस्थिति गली है या तीन समय अधिक आबाधासे न्यून कर्मस्थिति गली है। इसी प्रकार आगे जाकर यदि एक वर्ष, वर्षपृथक्त्व, एक सागर या सागर पृथक्त्वसे न्यून शेष कर्मस्थिति गली है तो वे सब कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे अझीन स्थितिवाले होते हैं।
___ ४३७. इस सूत्रके सब पद यद्यपि सुगम हैं तथापि उसका भावार्थ यह है कि पूर्व निर्दिष्ट एक समय अधिक उदयावलिके अन्तिम समयमें स्थित स्थितिके कर्मपरमाणुओंकी जिसने बन्ध समयसे लेकर एक समय अधिक जघन्य आबाधा आदि आगेकी सूत्रोक्त सब स्थितिविकल्पोंसे न्यून कर्मस्थितिको गला दिया है उसके वे कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले नहीं होते अर्थात् उसके वे कर्मपरमाणु उत्कर्षणके योग्य होते हैं, इसलिये इन सभी कर्मपरकाणुओं का यथाशास्त्र उत्कर्षण होता है । और तब अतिस्थापना आबाधाप्रमाण होती है। किन्तु निक्षेप एक समयसे लेकर उत्तरोत्तर एक एक समय बढ़ता हुआ उत्कृष्ट बाधा और एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरके प्राप्त होने तक बढ़ता जाता है। इस सूत्रमें 'सागरोवमपुधत्तेण वा' यहां पर आया हुआ 'वा' शब्द अनुक्त विकल्पोंके समुच्चयके लिये है जिससे दस सागरपृथक्त्व, सौ सागर पृथक्त्व, हजार सागर पृथक्त्व, लाख सागर पृथक्त्व, कोड़ी सागर पृथक्त्व, अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर और कोड़ाकोड़ी सागर पृथक्त्व ये सब सम्भव
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amerarwarrrrrrrrrrrrrrrrrrr
गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणझीणचूलियाए परूवणा
२४६ सुत्तत्तवियप्पाणं देसामासयभावेण वा एदेसि संगहो कायव्यो । विकल्प ग्रहण करने चाहिए या सूत्रोक्त विकल्प देशामर्षक होनेसे इन विकल्पोंका संग्रह करना चाहिए।
विशेषार्थ—पहले यह बतलाया जा चुका है कि एक समय अधिक उदयावलिके अन्तिम समयमें स्थित कौनसे कर्मपरमाणु उत्कर्षणके अयोग्य हैं। अब पिछले दो सूत्रोंमें यह बतलाया गया है कि कौनसे कर्मपरमाणु उत्कषणके योग्य हैं। इसका खुलासा करते हुए जो बतलाया गया है उसका भाव यह है कि उस एक समय अधिक उदयावलिके अन्तिम समयमें स्थित जिन कर्मपरमाणुओंसम्बन्धी समयप्रबद्धोंकी स्थिति यदि आबाधासे एक समय आदि के क्रम से अधिक शेष रहती है तो उन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण हो सकता है और ऐसा होते हुए जितनी आबाधा होती है उतना अतिस्थापनाका प्रमाण होता है तथा आबाधासे जितनी अधिक स्थिति होती है उतना निक्षेप का प्रमाण होता है । यदि अबाधासे एक समय अधिक होती है तो निक्षेपका प्रमाण एक समय होता है। यदि दो समय अधिक होती है तो निक्षेपका प्रमाण दो समय होता है । इसी प्रकार तीन समय, चार समय, संख्यात समय, असंख्यात समय, एक दिन, एक मास, एक वर्ष, वर्षपृथक्त्व, एक सागर, सागर पृथक्त्व, दस सागर पृथक्त्व, सो सागर पृथक्त्व, हजार सागर पृथक्त्व, लाख सागर पृथक्त्व, कराड़ सागर पृथक्त्व, अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर, कोड़ाकोड़ीसागर पृथक्त्वरूप जितनी स्थिति शेष रहती है उतना निक्षेपका प्रसारण होता है। इस प्रकार यदि उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण प्राप्त किया जाता है तो वह उत्कृष्ट आबाधा और एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाए है। यह उत्कृष्ट निक्षेप एक समय अधिक बन्धाबलिको गलाकर उदयावलिकी उपरितन स्थितिमें स्थित कर्म परमाणुओंका उत्कर्षण करने पर प्राप्त होता है। परन्तु उस उदयावलिकी उपरितन स्थितिमें अनेक समयप्रबद्धोंके परमाणु होते हैं, इसलिये किन परमाणुओंका उत्कर्षण करने पर यह उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होता है इसका खुलासा करते हैं
किसी एक संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवने मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया। फिर बन्धावलिको गलाकर उसने आबाधाके बाहर स्थितिमें स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण करके उदयावलिके बाहर निक्षेप किया । यहाँ उदयावलिके बाहर द्वितीय समयवर्ती स्थितिमें अपकर्षण करके निक्षिप्त किया गया द्रव्य विवक्षित है, क्योंकि उदयावलिके बाहर प्रथम समयमें निक्षिप्त द्रव्यका तदनन्तर समय में उद्यावलिके भीतर प्रवेश हो जाता है, इसलिये उसका उत्कर्षण नहीं हो सकता । अनन्तर दूसरे समयमें उत्कृष्ट संक्लेशके वशसे उत्कृष्ट स्थितिको बांधता हुआ विवक्षित कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण करके उन्हें वह आबाधाके बाहर प्रथम निषेकस्थितिसे लेकर सब निषेक स्थितियोंमें निक्षेप करता है। केवल एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण अन्तिम स्थितियों में निक्षेप नहीं करता, क्योंकि उनमें निक्षेप करने योग्य उन कर्म परमाणुओंकी शक्तिस्थिति नहीं पाई जाती । यहाँ उत्कृष्ट आबाधाके भीतर निक्षेप नहीं है और अन्तकी एक समय अधिक एक श्रावलिप्रमाण स्थितियोंमें निक्षेप नहीं है, इसलिये उत्कृष्ट स्थितिमेंसे इतना कम कर देने पर निक्षेपका प्रमाण उत्कृष्ट आबाधा और एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है।
अब यहाँ प्रकरणसे उत्कर्षणका काल, अतिस्थापना, निक्षेप और शक्तिस्थिति इन चार बातोंका भी खुलासा किया जाता है, क्योंकि इनको जाने बिना उत्कर्षणका ठीक तरहसे ज्ञान नहीं हो सकता।
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२५०
जयधवलाहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ४३८ संपहि उदयहिदीदो हेडिमारोसफम्महिदिसंचिदसमयपबद्धपदेसग्गस्स अहियारहिदीए अविसेसेण संभवविसयासंकाणिरायरणदुवारेण अवत्थुवियप्पाणं णवकबंधमस्सियूण परूवणमुत्तरमुत्ताणमवयारो । ण च एदेसि परूवणा णिरत्थिया, तप्पदुप्पायणमुहेण उकड्डणाविसए सिस्साणं णिण्णयजणणेण एदिस्से फलोवलंभादो।
१ उत्कर्षणका काल---उत्कर्षण बन्धके समय ही होता है। अर्थात् जब जिस कर्मका बन्ध हो रहा हो तभी उस कर्मके सत्तामें स्थित कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण हो सकता है, अन्यका नहीं । उदाहरणार्थ-यदि कोई जीव साता प्रकृतिका बन्ध कर रहा है तो उस समय सत्तामें स्थित साता प्रकृतिके कर्मपरमाणुओंका ही उत्कर्षण होगा असाताके कर्म परमाणुओंनहीं।
२ अतिस्थापना-कर्म परमाणुओंका उत्कर्षण होते समय उनका अपनेसे ऊपरकी जितनी . स्थतिमें निक्षेप नहीं होता वह अतिस्थापनारूप स्थिति कहलाती है। अव्याघात दशामें जघन्य श्रतिस्थापना एक आवलिप्रमाण और उत्कृष्ट अतिस्थापना उत्कृष्ट आबाधाप्रमाण होती है। किन्तु व्याघात दशामें जघन्य अतिस्थापना आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट अतिस्थापना एक समय कम एक आवलिप्रमाण होती है।
३ निक्षेप-उत्कर्षण होकर कर्मपरमाणुओंका जिन स्थितिविकल्पोंमें पतन होता है उनकी निक्षेप संज्ञा है। अव्याघात दशामें जघन्य निक्षेपका प्रमाण एक समय और उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण उत्कृष्ट आबाधा और एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । तथा व्याघात दशामें जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
४ शक्तिस्थिति-बन्धके समय उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने पर अन्तिम निषेककी सबकी सब व्यक्तस्थिति होती है। आशय यह है कि अन्तिम निषेककी एक समयमात्र भी शक्तिस्थिति नहीं पाई जाती। तथा इससे उपान्त्य निषेककी एक समयमात्र शक्तिस्थिति होती है
और शेष स्थिति व्यक्त रहती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक निषेक नीचे जाने पर शक्तिस्थितिका एक एक समय बढ़ता जाता है और व्यक्तस्थितिका एक एक समय घटता जाता है। इस क्रमस प्रथम निषेककी शक्तिस्थिति और व्यक्तस्थितिका विचार करने पर व्यक्तस्थिति एक समय अधिक उत्कृष्ट आबाधाप्रमाण प्राप्त होती है और इस व्यक्तिस्थितिको पूरी स्थितिमेंसे घटा देने पर जितनी स्थिति शेष रहे उतनी शक्तिस्थिति प्राप्त होती है। यह तो बन्धके समय जैसी निषेक रचना होती है उसके अनुसार विचार हुआ। किन्तु अपकर्षणसे इसमें कुछ विशेषता आ जाती हैं। बात यह है कि अपकर्षण द्वारा जिस निषेककी जितनी व्यक्तस्थिति घट जाती है उसकी उतनी शक्तिस्थिति बढ़ जाती है। यह उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा शक्तिस्थिति और व्यक्तस्थितिका विचार है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध न होने पर जितना स्थितिबन्ध कम हो उतनी अन्तिम निषेककी शक्तिस्थिति होती है और शेष निषेकोंकी इसीके अनुसार शक्तिस्थिति बढ़ती जाती है ।
६४३८. अब उदयस्थितिसे नीचेकी सब कर्मस्थितियोंमें संचित हुए समयप्रबद्धों सम्बन्धी कर्म परमाणुओंके अधिकृत स्थितिमें सामान्यसे सम्भव होनेरूप आशंकाके निराकरणद्वारा नवकबन्धकी अपेक्षा अवस्तु विकल्पोंका कथन करनेके लिये आगेके सूत्र आये हैं। यदि कहा जाय कि इन विकल्पोंका कथन करना निरर्थक है सो भी बात नहीं है, क्योंकि इनके कथन करनेका यही फल है कि इससे शिष्योंको उत्कर्षणके विषयमें ठीक ठीक निर्णय करनेका अवसर मिलता है।
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ना० २२ |
पदेस वित्तीए झीणाझी चूलियाए परूवरणा
२५१
* समयाहियाए उदयावलियाए तिस्से चेव हिदीए पदेसग्गस्स एगो सम पबद्धस्स अच्छिदो त्ति अवत्थु, दो समया पद्धस्स इच्छिदा ति अवत्थु, तिरिण समया पबद्धस्स अइच्छिवा त्ति अवत्थु एवं शिरंतरं गंतू अवलिया पबद्धस्स अहच्छिदा त्ति अवत्थु |
$ ४३९ जा पुव्वमाइट्ठा समयाहियाए उदयावलियाए चरिमहिदी तिस्से चैव हिदीए पदेसग्गस्स पबद्धस्स पारद्धबंधस्स बंधसमय पहुडि एत्रो समओ अइच्छिदां ति अइक्कतो चि अवत्थु । तं पदसम्गमेदिस्से द्विदीए णत्थि । कुदो याबाहामेत्तमुवरि गंतून तस्सावद्वाणादो | एवं सव्वत्थ वत्तव्वं । अहवा जा समयाहियाए उदयावलियाए हिंदी एदिस्से हिदीए जं पदेसग्गं तमादिडमिदि पुव्वं परुविदं । तिस्से च sate उदयदीदो द्विमासेससमयपबद्धाणं पदेसग्गमत्थि आहो णत्थि संतं वा किमुक्कड्डणदो झीणहिदिगमझीणद्विदिगं वा उक्कड्डिज्जमाणं वा केचियमद्धाणमुकड्डिज्ज का वा एदस्स अधिच्छावणा णिक्खेवो वा त्तिण एसो विसेसो सम्ममहारिओ तदो तप्परूवणहमेदेसिं सुत्ताणमवयारो ति वक्खाणेयव्वं ।
* एक समय अधिक उदयावलिकी जो अन्तिम स्थिति है उसमें वे कर्मपरमाणु नहीं हैं जिन्हें बांधनेके बाद एक समय व्यतीत हुआ है, वे कर्मपरमाणु भी नहीं हैं जिन्हें बांधनेके बाद दो समय व्यतीत हुए हैं, वे कर्म परमाणु भी नहीं हैं जिन्हें बांधने के बाद तीन समय व्यतीत हुए हैं। इस प्रकार निरन्तर जाकर ए से कर्मपरमाणु भी नहीं हैं जिन्हें बांधनेके बाद एक आवलि व्यतीत हुई है ।
६ ४३६. जिन कर्म परमाणुओं का बन्धके बाद अर्थात् बन्धसमय से लेकर एक समय व्यतीत हुआ है वे कर्मपरमाणु पूर्व में जो एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थिति कह ये हैं उसमें अवस्तु हैं । अर्थात् वे कर्मपरमाणु इस स्थितिमें नहीं पाये जाते, क्योंकि श्रावाधा के बाद उनका सद्भाव पाया जाता है । इसी प्रकार सर्वत्र कथन करना चाहिये । अथवा यहाँ यह व्याख्यान करना चाहिये कि एक समय अधिक उदद्यावलिकी जो अन्तिम स्थिति है और इसके जो कर्म परमाणु हैं वे यहां विवक्षित हैं ऐसा जो पहले कहा है सो उस स्थिति में उदय स्थिति से नीचे अर्थात् पूर्वके सब समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाण हैं या नहीं हैं । यदि हैं तो वे क्या उत्कर्षणसे स्थितिवाले हैं या अमीन स्थितिवाले हैं। यदि उत्कर्षण होता है तो कितना उत्कर्षंण होता है। तथा इनका प्रतिस्थापना और निक्षेप कितना है । इस प्रकार यह सब विशेषता भले प्रकार से ज्ञात नहीं हुई, इसलिये इस विशेषताका कथन करनेके लिये इन सूत्रोंका अवतार हुआ है ऐसा यहाँ व्याख्यान करना चाहिए ।
विशेषार्थ — प्रकृत सूत्र में यह बतलाया है कि एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिमें किन समयप्रबद्धोंके कर्म परमाणु नहीं पाये जाते । ऐसा नियम है कि बंधे हुए कर्म अपने बन्धकाल से लेकर एक अवलिप्रमाण कालतक तदवस्थ रहते हैं। एक यह भी नियम है कि बंधनेवाले कर्मकी अपने बाधाकालमें निषेक रचना नहीं पाई जाती । इन दो नियमोंको ध्यान में रख कर यदि विचार किया जाता है तो इससे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि वर्तमान कालसे एक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ४४० एवमेदेण मुत्तेण आवलियमेत्ते अवत्थुवियप्पे परूविय संपहि उक्कड्डणपाओग्गवत्थुवियप्पपरूवणमुत्तरमुत्तं भणइ
* तिस्से चेव हिदीए पदेसग्गस्स समयुत्तरावलिया बद्धस्स अइच्छिदा त्ति एसो आदेसो होज ।
६४४१ एदस्स मुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-तिस्से चेव पुव्वणिरुद्धसमयाहियावलियचरिमहिदीए पदेसग्गस्स उक्कस्सदो दोआवलियपरिहीणकम्महिदिमेत्तसमयपबद्धपडिबद्धस्स अभंतरे जस्स पदेसग्गस्स बंधसमयादो पहुडि उदयहिदीदो हेट्टा समयत्तरावलिया अधिच्छिदा सो एत्थ आदेसो होज । आदिश्यत इत्यादेशो विवक्षितस्थितौ वस्तुरूपेणावस्थितः प्रदेश आदेश इति यावत् । कथमेदस्स आबाहादो उपरि णिसित्तस्स आदिदृहिदीए संभवो १ ण, बंधावलियाए वोलीणाए एगेण समएणोकडिय पयदहिदीए णिक्वित्तस्स तत्थत्थित्तं पडि विरोहाभावादो। ण एस कमो आवलि तक पूर्वके बंधे हुए समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणोंका विवक्षित स्थितिमें अर्थात् एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिमें पाया जाना सम्भव नहीं है। यहां वर्तमान काल ही उदयकाल है और इससे लेकर एक आवलिकाल उदयावलि काल कहलाता है तथा इससे
आगेकी स्थिति एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थिति कहलाती है। अब वर्तमान काल अर्थात् उदयकालमें विचार यह करना है कि उक्त स्थितिमें कितने समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणु नहीं पाये जाते । प्रकृत सूत्रमें इसी प्रश्नका उत्तर दिया गया है। उसका आशय यह है कि उदयकालसे पूर्व एक आवलि काल तकके बंधे हुए समयप्रबद्ध उक्त स्थितिमें नहीं पाये जाते, क्योंकि उक्त स्थिति आबाधाकालके भीतर आ जाती है और आबाधाकालमें निषेक रचना नहीं होती यह पहले ही लिख आये हैं।
६४४०. इस प्रकार इस सूत्र द्वारा आवलिप्रमाण अवस्तुरूप विकल्पोंका कथन करके अब उत्कर्षण के योग्य वस्तुरूप विकल्पोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु उसी स्थितिमें वे कर्म परमाणु हैं जिनकी बाँधनेके बाद एक समय अधिक एक आवलि व्यतीत हुई है।
४४१. अब इस सूत्र का अर्थ कहते हैं-उसी पूर्व निर्दिष्ट एक समय अधिक एक आवलिकी अन्तिम स्थितिमें जो कर्मपरमाणु हैं वे यद्यपि उत्कृष्ट रूपसे दो आवलिकम कर्म स्थितिप्रमाण समयप्रबद्धोंके हैं तथापि इनके भीतर जिन कर्मपरमाणुओंकी बन्ध समयसे लेकर उदय स्थितिसे पहले-पहले एक समय अधिक एक आवलि व्यतीत हो गई है उनका यहाँ सद्भाव है । आदेश का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-आदिश्यते अर्थात् विवक्षित स्थितिमें वास्तविक रूपसे अवस्थित प्रदेश।
शंका—जब कि बन्धके समय सब कर्मपरमाणु श्राबाधासे ऊपरकी स्थितिमें निक्षिप्त किये जाते हैं तब वे विवक्षित स्थितिमें कैसे सम्भव हो सकते हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि बन्धावलिके व्यतीत होनेके पश्चात् एक समय द्वारा अपकर्षण करके आबाधासे उपरितन स्थितिमें स्थित कर्मपरमाणु प्रकृत स्थितिमें निक्षिप्त कर दिये जाते हैं, इसलिये इनका वहाँ अस्तित्व मानने में कोई विरोध नहीं आता।
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ઉપરે
गा० २२] पदेसविहत्तीए मीणाझीणचूलियाए परूवणा पुव्वुत्तावलियमेत्तसमयपत्रद्धपरमाणणमत्थि, तेसि बंधावलियाए असमत्तीदो उकडणापाओग्गत्ताभावादो । समाणिदबंधावलियस्स वि तत्थतणचरिमवियप्पपडिग्गहियसमयपबद्धस्स उदयसमयमहिद्विदजीवेणोकड्डगावावदेण णिरुद्ध हिदिविसयमाणिदस्स संतस्स वि पयदुक्कड्डणाणुवजोगित्तेणावत्युत्तं पडिवज्जेयव्वं । तदो तेसिमेत्थाबत्युत्तमेदस्स च वत्युत्तं सिद्ध।
४४२. एवमादिहस्स पदेसग्गस्स उक्कड्डणाद्धाणपरूवणमुत्तरमुत्तेण कुणइ
* तं पुण पदेसग्गं कम्महिदि यो सका उक्कडिएं, समयाहियाए श्रावलियाए अणियं कम्महिदि सका उक्कड्डिहूँ ।
१४४३. कुदो ? एत्तियमेत्तीए चेव सत्तिहिदीए अवहिदत्तादो । एदं जहिदि पडुच्च वुत्तं । णिसेहिदि पुण पडुच्च दुसमयाहियदोआवलियाहि ऊणियं कम्म
किन्तु यह क्रम पूर्वोक्त श्रावलिप्रमाण समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणुओंका नहीं बनता, क्योंकि उनकी बन्धावलि समाप्त नहीं हुई है, इसलिये तब अपकर्षणकी योग्यता नहीं पाई जाती है । बन्धावलिके समाप्त हो जाने पर भी जो समयप्रबद्ध वहाँ अन्तिम विकल्परूपसे स्वीकृत है उसका उदय समयमें स्थित जीवके द्वारा अपकर्षण होकर वह यद्यपि निर्दिष्ट स्थितिके विषयभावको प्राप्त हो रहा है फिर भी प्रकृत उत्कर्षणके अयोग्य होनेसे वह अवस्तु है, इसलिये उसे छोड़ देना चाहिये। इसलिए उदय समयसे पूर्वकी एक आवलिके भीतर बंधनेवाले कर्मपरमाणु प्रकृत स्थितिमें नहीं हैं और जिन कर्मपरमाणुओंको बँधे हुए बन्ध समयसे लेकर उदय समय तक एक समय अधिक एक आवलि व्यतीत हुई है वे कर्मपरमाणु प्रकृत स्थितिमें हैं यह सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ-पहले यह बतला आये हैं कि प्रकृत स्थितिमें कितने समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणु नहीं पाये जाते हैं। अब इस सूत्रद्वारा यह बतलाया गया है कि प्रकृत स्थितिमें जिन कर्मपरमाणुओंको बँधे एक समय अधिक एक आवलि व्यतीत हुआ है उनका पाया जाना सम्भव है। इसपर यह शंका हुई कि जब कि आबाधा कालके भीतर निषेक रचना नहीं होती और प्रकृत स्थिति आबाधा कालके भीतर पाई जाती है तब फिर इस स्थितिमें जिन कर्मपरमाणुओंको बंधे हुए एक समय अधिक एक प्रावलिकाल व्यतीत हुआ है उनका पाया जाना कैसे सम्भव है । इस शंकाका मूलमें जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि बन्धावलिके व्यतीत हो जाने पर बँधे हुए द्रव्यका अपकर्षण, उत्कर्षण. संक्रमण और उदीरणा हो सकती है, इसलिये एक समय अधिक एक श्रावलि पूर्व बँधा हुआ द्रव्य विवक्षित स्थितिमें पाया जाता है ऐसा माननेमें कोई बाधा नहीं आती।
६४४२. अब इस प्रकार विवक्षित हुए कर्मपरमाणुओंके उत्कर्षण अध्वानका कथन आगेके सूत्रद्वारा करते हैं
* किन्तु उन कर्म परमाणुओंका कर्मस्थितिप्रमाण उत्कर्षण नहीं हो सकता । हाँ एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण उत्कर्षण हो सकता है ।
६४४३. क्योंकि उन कर्मपरमाणुओंमें इतनीमात्र शक्तिस्थिति पाई जाती है। तथापि यह कथन यस्थितिकी अपेक्षासे किया है । निषेकस्थितिकी अपेक्षासे विचार करने पर
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसवित्ती ५ हिदि सकमुक्कड्डिदुमिदि वत्तव्यं, उदयहिदीदो समयाहियउदयावलियमेत्तमदाणमुवरि गंतूण पयदणिसेयस्स अवहाणादो । एदस्स सुत्तस्स भावत्थो-उदयहिदीदो हेहा समयाहियावलियमेत्तमद्धाणमोयरिय बद्धसमयपबद्धप्पहुडि सेसासेसकम्महिदिअभंतरसंचिदसमयपबद्धपरमाणमहियारहिदीए अत्थित्ते विरोहो गत्थि तदो ण ते उक्कड्डणादो झीणहिदिया। उक्कड्डिजमाणा च ते जेचियमद्धाणं हेहदो प्रोयरिय बद्धा तेत्तियमेत्तेणियं कम्महिदिमाबाहामेत्तमविच्छाविय णवक धस्सुवरि णिक्खिप्पंति, तैत्तियमेत्तीए चेव सत्तिहिदीए अवसिहत्तादो त्ति । णवरि कम्महिदीए
आदीदो पहुडि जहण्णाबाहमेत्ताणं समयपबद्धाणं जहासंभवमुक्कड्डणादो झीणहिदियत्तं पुबिल्लपरूवणादो जाणिय वत्तव्वं । ण पुचिल्लपरूवणादो एदिस्से णवकबधमस्सियूण पयट्टाए अवत्थु-वत्थुपरूवणाए अविसिहत्तमासंकणिज, तिस्से कम्महिदीए आदीदो पहुडि पुव्वाणुपुवीए संतकम्ममस्सियूग वावदत्तादो, एदिस्से चेव णवक धमस्सियूग पच्छाणुपुवीए पयत्तादो । पढमपरूवणाए संतकम्ममस्सियूण आवलियमेत्ता अवत्थुवियप्पा किण्ण परूविदा ? तं जहा-सत्तरिसागरोवमकोटाकोडिमेत्तकम्महिदि सव्वं गालिय पुणो से काले जिल्लेविहिदि ति उदयहिदीए द्विदपदेसग्गदिस्से समयाहियावलियचरिमहिदीए अवत्थु । तिस्से चेव हिदीए तो दो समय अधिक दो श्रावलिसे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण ही उत्कर्षण हो सकता है ऐसा यहाँ कथन करना चाहिये, क्योंकि उदय स्थितिसे एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थान ऊपर जाकर ही प्रकृत निषेक स्थित है। इस सूत्रका यह भावार्थ है कि उदय स्थितिसे एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थान नीचे उतर कर जो समयप्रबद्ध बंधा है उससे लेकर बाकीकी सब कर्मस्थितिके भीतर संचित हुए समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणुओंका विवक्षित स्थितिमें अस्तित्व माननेमें कोई विरोध नहीं है, इसलिये वे उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले नहीं है। उत्कर्षण होते हुए भी जितना स्थान नीचे (पीछे) जाकर वे बँधे होते हैं उतने स्थानसे न्यून शेष रही कर्मस्थितिमें उनका उत्कर्षण होता है। उसमें भी आबाधाप्रमाण अतिस्थापनाको छोड़कर नवकबन्धमें इनका निक्षेप होता है। शेष रही कर्मस्थितिमें इनका उत्कर्षण इसलिए होता है कि उनकी उतनी ही शक्तिस्थिति शेष है। किन्तु इतनी विशेषता है कि कर्मस्थितिके आदिसे लेकर जो जघन्य श्राबाधाप्रमाण समयप्रबद्ध हैं वे यथासम्भव उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले हैं यह कथन पहले की गई प्ररूपणासे जानकर करना चाहिये । यदि कहा जाय कि पूर्व प्ररूपणासे नककबन्धकी अपेक्षा अवस्तु और वस्तु विकल्पोंके कथनमें प्रवृत्त हुई इस प्ररूपणामें कोई विशेषता नहीं है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह पूर्व प्ररूपणा कमस्थितिके प्रारम्भसे लेकर पूर्वानुपूर्वीसे सत्कर्मकी अपेक्षा प्रवृत्त हुई है और यह प्ररूपणा नवकबन्धकी अपेक्षा पश्चादानुपूर्वीसे प्रवृत्त हुई है, इसलिये इन दोनों प्ररूपणाओंमें अन्तर है।
शंका-प्रथम प्ररूपणामें सत्कर्मकी अपेक्षा एक आवलिप्रमाण अवस्तुरूप विकल्पोंका कथन क्यों नहीं किया है ? जिनका खुलासा इस प्रकार है-सत्तर कोडाकोड़ी सागरप्रमाण सब कर्मस्थितिको गलाकर फिर तदनन्तर समयमें उस कर्मस्थितिका अभाव होगा। इस प्रकार केवल उदय स्थितिमें स्थित उस कर्मस्थितिके कर्मपरमाणु इस एक समय अधिक आवलिकी अन्तिम
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गा० २२] पदेसविहत्तीए मीणामीणचूलियाए परूवण जस्स पदेसग्गस्स दुसमयूणा कम्महिदी विदिक्कता त्ति एवं पि अवत्थु । एवं णिरंतरं गंतूण जइ वि आवलियाए अणिया कम्महिदी विदिक्कता होज तं पि अवत्थ ति । एक्मेदे अवत्थुवियप्पे आवलियमेने अपरूविय समयाहियाए प्रावलियाए ऊणिया कम्महिदी जस्स विदिक्कता तदो पहुडि वत्थुवियप्पाणं झीणाझीणहिदियत्तगवेसणं कुणमाणस्स चुण्णिसुत्तयारस्स को अहिप्पाओ त्ति ? एस दोसो, समयाहियापलियमेत्तावसिडकम्महिदियस्स समयपबद्धपदेसग्गस्स उक्कडणादो झीणहिदियस्स परूवणाए चेव तेसिमवत्थुवियप्पाणमणुत्तसिद्धीदो। ण च एदम्हादो हेहिमाणमेत्तियमेत्ती हिदी अत्थि जेणेदेसिमेत्थ वत्थुत्तसंभबो होज्ज, विरोहादो। ण च संतमत्थं सुत्तं ण विसईकरेइ, तस्स अवावयत्तावत्तीदो। तदो तप्परिहारदुवारेण सेसपरूवणादो चेव तेसिमवत्थुत्तं सुत्तयारेण सूचिदमिदि ण किं चि विरुद्ध पेच्छामो । णवकबंधमस्सियूण परूविदाणमावलियमेत्ताणमेदेसिमवत्थुवियप्पाणं देसामासयभावेण वा तेसिमेत्थ परूवणा कायव्वा । स्थितिमें नहीं पाये जाते। तथा जिन कर्मपरमाणुओंकी दो समय कम पूरी कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है वे कर्मपरमाणु भी इस विवक्षित स्थितिमें नहीं है। इसी प्रकार निरन्तर जाकर यदि एक आवलिकम कमस्थिति व्यतीत हो गई हो तो वे एक आवलिके कर्मपरमाणु भी इस विवक्षित स्थितिमें नहीं हैं। इस प्रकार एक आवलिप्रमाण अवस्तु विकल्पोंका कथन न करके चूर्णिसूत्रकार ने जो "एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून कर्मस्थिति जिसकी व्यतीत हो गई है' यहाँसे लेकर वस्तुविकल्पोंमें झीनाझीनस्थितिपनेका विचार किया है सो उनका इस प्रकारके कथन करनेमें क्या अभिप्राय है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जब एक समय अधिक एक श्रावलि शेष रही कर्मस्थितिसम्बन्धी समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणोंको उत्कर्षणके अयोग्य कह दिया तब इसीसे उन आवलिप्रमाण अवस्तुविकल्पोंकी बिना कहे सिद्धि हो जाती है । और एक समय अधिक एक आवलिकी अन्तिम स्थितिसे नीचेके निषेकोंकी इतनी अर्थात् एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थिति तो हो नहीं सकती जिससे इन नीचेके निषेकोंका यहाँ सद्भाव माना जावे, क्योंकि ऐसा होनेमें विरोध पाता है। और सूत्र जो अर्थ विद्यमान है उसे विषय नहीं करता यह बात कही नहीं जा सकती, क्योंकि ऐसा होनेपर सूत्रको अव्यापक मानना पड़ेगा। इसलिये उन आवलिप्रमाण विकल्पोंका कथन न करके सूत्रकारने शेष प्ररूपणा द्वारा ही उनका असद्भाव सूचित कर दिया है, इसलिए इस कथनमें हम कोई विरोध नहीं देखते। अथवा इस दूसरी प्ररूपणामें जो नवकबन्धकी अपेक्षा एक प्रावलिप्रमाण अवस्तु विकल्प कहे गये हैं उनके देशामर्षकरूपसे प्रथम प्ररूपणासम्बन्धी उन एक आवलिप्रमाण अवस्तुविकल्पोंकी यहाँ प्ररूपणा कर लेनी चाहिये ।
विशेषार्थ-इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए वीरसेन स्वामीने कई बातों पर प्रकाश डाला है । यथा
(१) नवकबन्धके जो कर्मपरमाणु अपकर्षित होकर विवक्षित स्थिति अर्थात् एक समय अधिक एक आवलिकी अन्तिम स्थितिमें निक्षिप्त हुए हैं उनका उत्कर्षणके समय बांधनेवाले
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५
MarNirmirmirrrrrrrrr/
ककी कितनी स्थितिमें उत्कर्षण हो सकता है ?
(२) पूर्व प्ररूपणासे इस प्ररूपणामें तात्त्विक अन्तर क्या है ?
(३) पूर्व प्ररूपणामें क्या अवस्तु विकल्प सम्भव हैं यदि हों तो उनका उस प्ररूपणका विवेचन करते समय कथन क्यों नहीं किया ? इनका क्रमशः खुलासा इस प्रकार है
(१) जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है कि कर्मों में दो प्रकारकी स्थिति होती हैएक व्यक्तस्थिति और दूसरी शक्तिस्थिति । जिस कर्मकी जितनी उत्कृष्ट कर्मस्थिति होती है उस कर्मके अन्तिम निषेककी वह व्यक्तस्थिति है। उस अन्तिम निषेकमें शक्ति स्थिति नहीं पाई जाती । किन्तु शेष निषेकोंमें यथासम्भव शक्तिस्थिति और व्यक्तस्थिति दोनों पाई जाती हैं। उदाहरणार्थ एक कर्मकी ४८ समय कर्मस्थिति है। इसमेंसे प्रारम्भके १२ समय आवाधाके निकाल देने पर शेष ३६ समयोंमें निषेक रचना हुई। इस प्रकार पहले निषेककी १३ समय स्थिति पड़ी और दूसरे निषेककी १४ समय स्थिति पड़ी। इसप्रकार उत्तरोत्तर एक एक निषेक की एक एक समयप्रमाण स्थित बढ़ कर अन्तिम निषेककी ४८ समय स्थिति पड़ी। यह सबकी सब स्थिति व्यक्तस्थिति है। अब जो प्रथम निषेककी १३ समय स्थिति पड़ी है सो उसके सिवा उसकी शेष ३५ समय स्थिति शक्तिस्थिति है। दूसरे निषेककी १४ समय के सिवा शेष ३४ समय शक्तिस्थिति है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये । इस उदाहरणसे स्पष्ट है कि उत्कृष्ट कर्मस्थितिके अन्तिम निषेकमें शक्तिस्थिति नहीं पाई जाती। किन्तु शेष निषेकोंमें शक्तिस्थिति और व्यक्तस्थिति दोनों प्रकारकी स्थितियाँ पाई जाती हैं।
अब किसी एक जीवने बन्धावलिके बाद नवकबन्धका अपकर्षण करके उसका उदयावलि के ऊपर प्रथम स्थितिमें निक्षेप किया और तदनन्तर समयमें वह उसका उत्कर्षण करना चाहता है तो यहां यह विचार करना है कि इस अपकर्षित द्रव्यका तत्काल बंधनेवाले कर्म के ऊपर कितनी स्थितिमें उत्कर्षण हो कर निक्षेप होगा। यह अपकर्षण बन्धावलिके बाद हुआ है, इसलिये एक आवलि तो यह कम हो गई और एक समय अपकर्षणमें लगा, इसलिये एक समय यह कम हो गया। इस प्रकार प्रकृत कर्मस्थितिमेंसे एक समय अधिक एक आवलिके घटा देने पर जो शेष कर्मस्थिति बची है तत्काल बंधनेवाले कर्मकी उतनी स्थितिमें इस अपकर्षित द्रव्यका उत्कर्षण हो सकता है । उदाहणार्थं पहले जो ४८ समय स्थितिवाले नवकबन्धका दृष्टान्त दे आये हैं सो उसके अनुसार बन्धावलिके ३ समय बाद चौथे समयमें आबाधाके ऊपरके द्रव्यका अपकर्षण करके उसे उदयावलिके ऊपरकी स्थितिमें निक्षेप किया। यहां बन्धावलिके बाद उदयावलि ले लेना चाहिये और उदयावलिके बाद एक समय छोड़कर अगली स्थितिमें अपकर्षित द्रव्यका निक्षेप कराना चाहिये, क्योंकि एक समय अपकर्षणरूप क्रिया में लग कर दूसरे समयमें वह उदयावलिमें प्रविष्ट हो जाता है। इस हिसाबसे अपकर्षित होकर स्थित हुए द्रव्यका आठवें समयमें उत्कर्षण होगा। पर यह उत्कर्षण की क्रिया बन्धावलिके बाद दूसरे समयमें हो रही है इसलिये सर्व स्थिति ४८ समयमेंसे बन्धावलिके ३ और अपकर्षणका १ इस प्रकार ४ समय घटा देने पर तत्काल बंधनेवाले कर्ममें आवाधाके बाद १३ समयसे लेकर ४४ वें समयतक इस द्रव्यका निक्षेप होगा। इस प्रकार इसकी स्थिति एक समय अधिक बन्धावलिसे न्यून ४४ समय प्राप्त हुई। यह यत्स्थिति है । उत्कर्षण और संक्रमणके समय जो स्थिति रहे वह यस्थिति है। किन्तु उत्कर्षण उदयावलिके ऊपरके निषेक में स्थित द्रव्यका हुआ है, इसलिये निषेकस्थितिमें एक समय अधिक एक वलि और घट जाती है, इसलिये
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गा ०२२ ]
पदे सवित्तीय झीणाझीणचूलियाए परूवणा
$ ४४४ एवमेतिएण पबंधेण पुव्वणिरुद्धाए हिदीए उक्कडगादो झीणाझीणडिदियपदेसग्गगवेसणं काऊण तस्संब घेण च पसंगागयमत्रत्युवियप्पपरूवणं समाजिय संपति पदमत्थमुत्रसंहरेमाणो इदमाह
* एदे वियप्पा जा समयाहियउदयावलिया तिस्से हिंदीए पदेसग्गस्स | ४४५
यत्थमेदमुवसंहारसृत्तं । एवं विस्सरणालुआणं सिस्साणं पुव्वुत्तमह संभालिय संपहि एदेसिमेव वियप्पाणमप्पणमुवरि वि एदेण समाणपरूवणे द्विदिविसेसे कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
די
निषेकस्थिति ४४ समय न प्राप्त होकर ४० समय प्राप्त होगी । इस प्रकार अपकर्षित द्रव्यका उत्कर्ष के समय बंधनेवाले कर्मकी कितनी स्थितिमें उत्कर्षण हो सकता है इसका विचार हुआ ।
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(२) प्रथम प्ररूपणा में सत्कर्मकी अपेक्षा विचार किया है उसमें बतलाया है कि जिस कर्मकी केवल एक समय अधिक उदयावलिप्रमाण कर्मस्थिति शेष रही है उसका उत्कर्षण नहीं हो सकता । जिसकी दो समय अधिक उद्यावलिप्रमाण कर्मस्थिति शेष है उसका भी उत्कर्षण नहीं हो सकता। तात्पर्य यह कि उत्कर्षण के समय बँधनेवाले कर्मको जितनी आबाधा पड़े उतना स्थितिके शेष रहने तक सत्ता में स्थित कर्मों का उत्कर्षण नहीं हो सकता । हाँ सत्कर्मकी बाधा से अधिक स्थितिके शेष रहने पर नूतन बन्धमें उसका उत्कर्षण हो सकता है। इस प्रकार प्रथम प्ररूपणामें सत्कर्मकी अपेक्षा पूर्वानुपूर्वीसे विचार किया है । किन्तु इस दूसरी प्ररूपणा में यह बतलाया है कि नूतन बन्ध होने पर बन्धावलि तक तो वह तदवस्थ रहता है । हां बन्धावलिके बाद अपकर्षण होकर उसका तत्काल बँधनेवाले कर्ममें उत्कर्षण हो सकता है। इस प्रकार दूसरी प्ररूपणा में पश्चादानुपूर्वीसे नूतन बन्धके उत्कर्षणका विचार किया है, इसलिये इन दानों प्ररूपणाओं में तात्त्विक भेद है ।
(३) जब यह बतला दिया कि जिस कर्मकी स्थिति एक समय अधिक एक आवलि शेष है उसका उत्कर्ष नहीं हो सकता तब यह अर्थ सुतरां फलित हो जाता है कि जिस कर्मकी एक समय, दो समय तीन समय इसी प्रकार उदयावलिप्रमाण स्थिति शेष है उसका न तो उत्कर्षण ही हो सकता है और न उस स्थितिके कर्मं परमाणुओं का एक समय अधिक उदयावलिक अन्तिम स्थिति में ही पाया जाना सम्भव है । यही कारण है कि प्रथम प्ररूपणा में एक आवलिप्रमाण वस्तु विकल्पोंके रहते हुए भी उनका निर्देश नहीं किया है ।
६. ४४. इस प्रकार इतने प्रबन्धके द्वारा दो बातोंका विचार किया । प्रथम तो यह विचार किया कि पूर्व निरुद्ध स्थितिमें कौनसे कर्मपरमाणु उत्कर्षंणसे झीन स्थितिवाले हैं और कौनसे कर्मपरमाणु उत्कर्ष से अमीन स्थितिवाले हैं । दूसरे इसके सम्बन्धसे प्रसंगानुसार अवस्तु विकल्पोंका कथन किया । अब प्रकृत अर्थके उपसंहार करनेकी इच्छासे अगला सूत्र कहते हैं* एक समय अधिक उदयावलिकी जो अन्तिम स्थिति है उसके कर्म परमाणुओंके इतने विकल्प होते हैं ।
६ ४४५. इस उपसंहार सूत्रका अर्थ गतार्थ है । इस प्रकार विस्मरणशील शिष्योंको पूर्वोक्त की संम्हाल करा कर अब जिन स्थितियोंकी प्ररूपणा इस स्थितिके समान है उनमें इन सब विकल्पों को बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
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३३
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहती ५
* एदे चेय वियप्पा अपरिसेसा जा दुसमयाहिया उदयावलिया तिस्से द्विदीए पदेसग्गस्स ।
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$ ४४६ एदस्स सुत्तस्स अत्थो उच्चदे । तं जहा — जे ते पुव्वणिरुद्धसमयाहियउदयावलचरिमहिदीए दोहि वि परूवणाहि परूविदा वियप्पा एदे चेत्र अणणाहिया वत्तव्वा जा दुसमयाहिया उदयावलिया तिस्से हिंदीए पदेसग्गस्स णिरंभणं काऊन ।
वरि पढमपरूवणाए कीरमाणाए एदिस्से हिंदीए पदेसग्गस्स जइ समयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्मडिदी विदिक्कता बद्धस्स तं कम्ममुक्कड्डणाए अवस्थु, हिमाए चैव हिदी तस्स द्विविदकम्मडिदियत्तादो । तदो हेडिमाणं पुण अवत्थतं पुत्रं व अणुत्तसिद्धं । तस्सेव पदेसग्गस्स जइ दुसमयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिकता तं कम्ममेत्थ आदेसो होतं पि ण सक्कमुक्कडिदु; तत्तो उवरि सत्तिद्विदीए एगस्स वि समयस्स अभावादो । तस्सेव पदेसग्गस्स जइ वि तिसमयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिकता तं पि उक्कड्डणादो झीणहिदियं । एत्थ कारणमणंतर परुविंदं । एतो उवरि पुव्वं व सेसजहण्णाबाहमेता झीणहिदियविप्पा उपायव्वा । ततो परमभीणद्विदिया, जहण्णावाहमेत्तमविच्छाविय एकिस्से हिदीए क्रिखेव स तदणंतरज्वरिमवियप्पे संभवादो । एदेण कारणेण अवत्थुवियप्पा
* दो समय अधिक उदयावलिकी जो अन्तिम स्थिति है उस स्थितिके कर्म परमाणुओं के भी ये ही सबके सब विकल्प होते हैं ।
६ ४४६. अब इस सूत्र का अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है— पूर्व निर्दिष्ट एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिके दोनों ही प्ररूपणाओंके द्वारा जितने भी विकल्प कहे हैं न्यूनाधिक किये बिना वे सबके सब विकल्प यहां भी दो समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिके कर्म परमाणुको विवक्षित करके कहने चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम प्ररूपणा के करने पर यदि बन्ध होनेके बाद कर्मपरमाणुओं की एक समय अधिक आवलिसे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई हो तो वे कर्मपरमाणु इस विवक्षित स्थिति में नहीं होते, क्योंकि इस विवक्षित स्थिति से नीचेकी स्थिति में ही उन कर्मपरमाणुओं की स्थिति समाप्त हो गयी है । किन्तु इससे नीचेकी स्थितियों के कर्मपरमाणुओंका इस विवक्षित स्थिति में नहीं पाया जाना पहले के समान अनुक्तसिद्ध है। उन्हीं कर्मपरमाणुओं की यदि दो समय अधिक आवलिसे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई हो तो वे कर्मपरमाणु यद्यपि इस विवक्षित स्थिति में पाये अवश्य जाते हैं परन्तु उनका उत्कर्षण नहीं हो सकता, क्योंकि इसके ऊपर शक्तिस्थितिका एक भी समय नहीं पाया जाता है । उन्हीं कर्मपरमाणुओंकी यदि तीन समय अधिक आवलिसे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई हो तो वे कर्मपरमाणु भी उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं । ये कर्मपरमाणु उत्कर्षंणसे झीन स्थितिवाले क्यों हैं इसका कारण पहले कह आये हैं । इसी प्रकार इसके आगे भी पहले के समान बाकीके जघन्य आबाधाप्रमाण भीन स्थितिविकल्प उत्पन्न कर लेने चाहिये। इससे आगे अमीन स्थितिविकल्प होते हैं, क्योंकि इसके आगे के विकल्पमें जघन्य आवाधाप्रमाण स्थितिको प्रतिस्थापनारूपसे स्थापित करके आवाधाके ऊपरकी एक स्थितिमें निक्षेप सम्भव है । इस कारण से यहाँ अवस्तुविकल्प एक अधिक होते हैं
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गा० २२] पदेसविहत्तीए मीणाझीणचूलियाए परूवणा
રહ रूवाहिया झीणहिदियवियप्पा च रूजूणा होति । अझीणद्विदिएसु णत्थि णाणतं । विदियपरूवणाए वि एदिस्से हिदीए पदेसग्गस्स एगो समओ पबद्धस्स अइच्छिदो त्ति अवत्थ । दो समया पबद्धस्स अधिच्छिदा त्ति अवत्थ । एवं णिरंतरं गंतूण आवलिया समयपबद्धस्स पुव्वं व अइच्छिदा त्ति अवत्थु । तिस्से चेव हिदीए पदेसगस्स समयुक्तरावलिया बद्धस्स अइच्छिदा त्ति एसो आदेसो होज्ज । तं पुण पदेसग्गं कम्महिदि णो सक्कमुकड्डिहुँ, समयाहियाए आवलियाए णिसेगं पडुच्च तिसमयाहियदोआवलियाहि वा ऊणियं कम्महिदि सकमुक्कड्डिदूं, तेतियमेत्तीए चेव सत्तिहिदीए अवसेसादो ति । एत्तियो चेव विसेसो णत्थि अण्णत्थ कत्थ वि । एसो चेव विसेसो सुत्तणिलीणो चेय पज्जवहियणयावलंबणेण परूविदो ण सुत्तबहिन्भूदो त्ति ।
और झीन स्थितिविकल्प एक कम होते हैं। हाँ अझीन स्थितियोंमें कोई भेद नहीं है। दूसरी प्ररूपणाके करने पर भी जिन कर्मपरमाणुओंको बन्ध करनेके बाद एक समय व्यतीत हुआ है वे कर्मपरमाणु इस विवक्षित स्थितिमें नहीं हैं। जिन्हें वांधनेके बाद दो समय व्यतीत हुए हैं के कर्मपरमाणु भी नहीं हैं। इस प्रकार निरन्तर जाकर बांधनेके बाद जिन्हें एक श्रावलि व्यतीत हुई है व कर्मपरमाणु भी नहीं हैं। मात्र जिन कर्मपरमाणुओंको बांधनेके बाद एक समय अधिक एक आवलि व्यतीत हुई है वे कर्मपरमाणु इस विवक्षित स्थितिमें हैं। किन्तु उन कर्मपरमाणुओंका कर्मस्थितिप्रमाण उत्कर्षण नहीं हो सकता; किन्तु यस्थितिकी अपेक्षा एक समय अधिक एक आवलि कम कमस्थितिप्रमाण और निषेक स्थितिकी अपेक्षा तीन समय अधिक दो श्रावलिकम कर्मस्थितिप्रमाण उत्कर्षण हो सकता है, क्योंकि उन कर्मपरमाणुओंमें उतनी ही शक्ति स्थिति शेष है। इस प्रकार इस स्थितिकी अपेक्षा इतनी ही विशेषता है, अन्यत्र
और कोई विशेषता नहीं। किन्तु यह विशेषता सूत्र में गर्भित है जिसका पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे कथन किया गया है। अतः यह विशेषता सूत्रके बाहर नहीं है।
विशेषार्थ-पहले एक समय अधिक एक आवलिकी अन्तिम स्थितिकी प्रधानतासे दो प्रकार की प्ररूप णाओं द्वारा उत्कर्षणविषयक प्ररूपणा की गई रही। अब यहाँ दो समय अधिक एक श्रावलिकी अन्तिम स्थितिकी प्रधानतासे उत्कर्षण विषयक प्ररूपणा की गई है। सो सामान्यसे इन दोनों स्थितियोंमें स्थित कर्मपरमाणुओंकी अपेक्षा उत्कर्षण विषयक प्ररूपणामें कोई अन्तर नहीं है। पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा जो भी थोड़ा बहुत अन्तर है उसका उल्लेख टीकामें कर ही दिया है। पहली प्ररूपणाके अनुसार तो यह अन्तर बतलाया है कि एक समय अधिक एक श्रावलिकी अन्तिम स्थितिमें जितने अवस्तुविकल्प और झीन स्थितिविकल्प होते हैं उनसे इस विवक्षित स्थितिमें अवस्तु विकल्प एक अधिक और झीन स्थितिविकल्प एक कम होते हैं। पूर्वमें उदयावलिके ऊपरकी प्रथम स्थितिको लेकर विचार किया गया था, इसलिये अवस्तु विकल्प एक आवलिप्रमाण थे किन्तु यहाँ उदयावलिके ऊपर द्वितीय स्थितिको लेकर विचार किया जा रहा है इसलिये यहाँ अवस्तु विकल्प एक अधिक हो गया है। और यहाँ आबाधामें एक समय कम हो गया है इसलिये पहलेसे झीनस्थिति विकल्प एक कम हो गया है। तथा दूसरी प्ररूपणाके अनुसार निषेकस्थितकी अपेक्षा उत्कर्षण एक समय घट जाता है, क्योंकि जिस स्थितिका उत्कर्षण हो रहा है उसमें एक समय बढ़ गया है, इसलिये शक्तिस्थितिमें एक समय घट जाने से निषेकस्थितिको अपेक्षा उत्कर्षण एक समय कम प्राप्त होता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ® एवं तिसमयाहियाए चदुसमयाहियाए जाव आवाधाए आवलि. यूणाए एवदिमादो त्ति।
४४७. एत्थ उदयावलियाए इदि अणुवट्टदे । तेणेवं संबंधो काययो, जहा समयाहियाए दुसमयाहियाए च उदयावलियाए णिरंभणं काऊण एदे वियप्पा परूविदा, एवं तिसमयाहियाए चउसमयाहियाए उदयावलियाए इच्चादिहिदीणं पूध पुध णिरंभणं काऊण पुव्वुत्तासेसवियप्पा वत्तव्वा जाव आबाधाए प्रावलियूणाए जाव चरिमहिदी एवदिमादो त्ति । गवरि संतकम्ममस्सियूण अवत्थुवियप्पा हिदि पडि रूवाहियकमेण झीणहिदिवियप्पा च रूवणकमेण णेदव्वा । गवकबंधमस्सियूण पत्थि णाणत्तं । एदासिं च द्विदीणमइच्छावणा रूवूणादिकमेणाणवहिदा दहव्वा । आवाहाचरिमसमयादो उवरिमाणंतरहिदीए सव्वासि पि एदासिमझीणहिदियस्स पदेसग्गस्स उक्कड्डणाए णिक्खेवुवलंभादो। ण एस कमो उपरिमासु हिदीसु, तत्थ आवलियमेत्तीए अइच्छावणा [प] अवहिदसरूवेणुवलंभादो। एदस्स च विसेसस्स अस्थि तपरूवणहमेत्य आवलियूणाबाहाचरिमहिदीए सुत्तयारेण णिसेयपरूवणाविसओ को।
* इसी प्रकार तीन समय अधिक और चार समय अधिक उदयावलिसे लेकर एक आवलि कम आबाधा काल तक की पृथक पृथक स्थितिमें पूर्वोक्त सब विकल्प होते हैं।
१४४७. इस सूत्रमें 'उदयावलियाए' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। उससे इस सूत्रका इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए कि जिस प्रकार एक समय अधिक और दो समय अधिक उदयावलिको विवक्षित करके ये विकल्प कहे हैं उसी प्रकार तीन समय अधिक और चार समय अधिक उदयावलि आदि स्थितियोंको पृथक्-पृथक् विवक्षित करके पूर्वाक्त सब विकल्प कहने चाहिये। इस प्रकार यह क्रम एक आवलि कम आबाधा काल तक जाता है । यही अन्तिम स्थिति है जहाँ तक ये विकल्प प्राप्त होते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि सत्कर्मकी अपेक्षा उत्तरोत्तर एक एक स्थितिके प्रति अवस्तु विकल्प एक एक बढ़ता जाता है और झीन स्थितिविकल्प एक एक कम होता जाता है। किन्तु नवकबन्धकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। फिर भी इन स्थितियोंकी अतिस्थापना उत्तरोत्तर एक एक समय कम होती जानेके कारण वह अनवस्थित जाननी चाहिये; क्योंकि आबाधाके अन्तिम समयसे आगेकी अनन्तर स्थितिमें इन सभी स्थितियोंके अझीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण होकर निक्षेप देखा जाता है। परन्तु यह क्रम एक
आवलिकम आबाधाकालसे आगेकी स्थितियोंमें नहीं बनता, क्योंकि वहाँ पर अवस्थितरूपसे एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना पाई जाती है। इस विशेषके अस्तित्वका कथन करनेके लिए यहाँ पर एक आवलि कम आबाधाकी चरम स्थितिको सूत्रकारने निषेक प्ररूपणाका विषय किया है।
विशेषार्थ-एक समय अधिक उदयावलि और दो समय अधिक उदयावलिको विवक्षित करके सामान्यसे जितने विकल्प प्राप्त हुए थे वे सबके सब विकल्प और कितनी स्थितियों
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा
आवलियाए समयूणाए ऊणियाए पायाहाए एवडिमाए हिदीए जं पदेसग्गं तस्स के वियप्पा ।
४४८. पुव्वमावलियाए ऊणिया जा आवाहा तिस्से चरिमहिदीए पदेसग्गमवहिं काऊण हेहिमासेसहिदीणं वियप्पा परूविदा । संपहि तदणंतरउवरिमाए हिदीए आवलियाए समयूणाए अणिया जा आवाहा एवडिमाए जं पदेसग्गं तस्स के वियप्पा होति ? ण ताव पुव्वुत्ता चेव णिरवसेसा, तेसि हेहिमाणंतरहिदीए मज्जादाभावेण परूविदत्तादो। ण च तेसिमेत्थ वि संभवे तहा परूवणं सफलं होदि, विप्पडिसेहादो। अह अण्णे, के ते ? ण तेसिं सरूवं जाणामो त्ति एसो एदस्स
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को विवक्षित करनेसे प्राप्त हो सकते हैं यह बात यहाँ बतलाई गई है। बात यह है कि एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिमें कितनी स्थितियोंके कर्मपरमाणु सम्भव हैं और कितनी स्थितियोंके नहीं। तथा इस स्थितिके किन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण हो सकता है और किनका नहीं यह जैसे पहले बतलाया है वैसे ही एक आवलिकम आबाधाके भीतर सब स्थितियोंमें सामान्यसे वही क्रम बन जाता है, इसलिये इस सब कथनको सामान्यसे एक समान कहा है। किन्तु विवक्षित स्थिति उत्तर त्तर आगे आगेकी होती जानेके कारण अवस्तु विकल्प एक एक बढ़ता जाता है और झीनस्थितिविकल्प एक एक कम होता जाता है। तथा अतिस्थापना भी घटती जाती है। जब समयाधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिके कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण विवक्षित था तब अतिस्थापना समयाधिक प्रावलिसे न्यून आबाधाकाल प्रमाण थी । जब दो समय अधिक उद्यावलिकी अन्तिम स्थितिके कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण विवक्षित हुआ तब प्रतिस्थापना दो समय अधिक एक आवलिसे न्यून आबाधाकाल प्रमाण रही। इसी प्रकार आगे आगे अतिस्थापनामें एक एक समय कम होता जाता है। यहाँ इतना विशेष और जानना चाहिए कि जिस हिसाबसे अतिस्थापना कम होती जाती है उसी हिसाबसे शक्तिस्थिति भी घटती जाती है। अब देखना यह है कि यही क्रम आवलिकम आवाधासे आगेकी स्थितियों का क्यों नहीं बतलाया। टीकाकारने इस प्रश्नका यह उत्तर दिया है कि प्रावलिकम आबाधासे आगेकी स्थितियोंमें स्थित कर्मपरमाणुओंका उत्कर्पण होने पर प्रतिस्थापना निश्चितरूपसे एक आवलि प्राप्त होती है। यही कारण है कि प्रावलिकम आबाधासे आगेकी स्थितियोंका क्रम भिन्न प्रकारसे बतलाया है।
* एक समय कम एक आवलिसे न्यून आबाधाप्रमाण स्थितिमें जो कर्मपरमाणु पाये जाते हैं उनके कितने विकल्प होते हैं।
१४४८. पहले आवलिकम आबाधाकी अन्तिम स्थितिके कर्मपरमाणुओंकी मर्यादा करके पूर्वकी सब स्थितियोंके विकल्प कहे। अब यह बतलाना है कि उससे आगेकी जो एक समय कम एक आवलिसे न्यून आबाधा है और उसमें जो कर्मपरमाणु हैं उनके कितने विकल्प होते हैं ? यदि कहा जाय कि पूर्वोक्त सब विकल्प होते हैं सो तो बात है नहीं, क्योंकि वे सब विकल्प इससे अनन्तरवर्ती पूर्वकी स्थिति तक ही कहे हैं। अब यदि उनको यहाँ भी सम्भव मानकर इस प्रकारके कथनको सफल कहा जाय सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा कथन करना निषिद्ध है। अब यदि अन्य विकल्प होते हैं तो वे कौन हैं, क्योंकि हम उनके स्वरूपको नहीं
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२६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडै
[पदेसवित्ती ५ पुच्छामुत्सस्स भावत्यो । संपहि एदिस्से पुच्छाए उत्तरमाह
- जस्स पदेसग्गस समयाहियाए प्रावलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कंता तं पि पदेसग्गमेदिस्से हिदीए पत्थि ।
४४६. एदिस्से णिरुद्धाए हिदीए तं पदेसग्गं गस्थि जस्स समयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता। कुदो ? एत्तो दूरयरं हेहदो ओसरिय तस्स अबढाणादो । तत्तो पुण हेटिमा आवलियमेत्ता अवत्थुवियप्पा अणुत्तसिद्धा त्ति
ण परूविदा । ., जस्स पदेसग्गरस दुसमयाहियाए प्रावलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कंता तं पि पत्थि ।
$ ४५०. एत्य एदिस्से हिदीए इदि अणुवट्टदे । सेसं सुगम ।
जानते इस प्रकार यह इस पृच्छासूत्रका भावार्थ है । अब इस पृच्छाका उत्तर कहते हैं--
* जिन कर्म परमाणुओंकी एक समय अधिक प्रावलिसे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है वे कर्मपरमाणु भी इस स्थितिमें नहीं हैं ।
४४६. इस विवक्षित स्थितिमें वे कर्म परमाणु नहीं हैं जिनकी एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है; क्योंकि वे कर्मपरमाणु इस विवक्षित स्थितिसे बहुत दूर पीछे जाकर अवस्थित हैं। तथा इन कर्मपरमाणुओंसे पूर्वकी एक आवलिप्रमाण स्थितिमें स्थित कर्मपरमाणु भी इस विवक्षित स्थितिमें नहीं हैं यह वात अनुक्तसिद्ध है, इसलिये इसका यहाँ कथन नहीं किया।
विशेषाथ-आबाधाकालमें से एक समय कम एक आवलिके घटा देने पर जो अन्तकी स्थिति प्राप्त हो वह यहाँ विवक्षित स्थिति है। अब यह विचार करना है कि इस स्थितिमें किन स्थितियोंके कर्मपरमाणु हैं और किनके नहीं। एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिसे यह विवक्षित स्थिति बहुत काल आगे जाकर प्राप्त होती है, इसलिये इस विवक्षित स्थितिमें एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिके कर्मपरमाणु नहीं पाये जा सकते यह इस सूत्रका तात्पर्य है। किन्तु इस विवक्षित स्थितिमें एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिसे पूर्वकी एक श्रावलिप्रमाण स्थितियोंके कर्मपरमाणु भी तो नहीं पाये जाते फिर यहाँ उनका निषेध क्यों नहीं किया, यह एक प्रश्न है जिसका समाधान किया जाना
आवश्यक है । अतएव इसी प्रश्नका समाधान करनेके लिये टीकामें यह बतलाया है कि जब अगली स्थितिके कर्मपरमाणुओंका विवक्षित स्थितिमें निषेध पर दिया तब इससे पिछली स्थितियोंके कर्मपरमाणुअोंका विवक्षित स्थितिमें निषेध बिना कहे ही हो जाता है, इसलिये उनके निषेधका यहाँ अलगसे उल्लेख नहीं किया।
* जिन कर्मपरमाणुओंकी दो समय अधिक एक श्रावलिसे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है वे कर्मपरमाणु भी इप्त विवक्षित स्थितिय नहीं हैं ।
$ ४५०. इस सूत्रमें 'एदिस्से हिदीए' इस पदकी अनुवृत्ति होती है । शेष अर्थ सुगम है ।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा .. २६३
* एवं गंतूण जद्देही एसा हिदी एत्तिएण ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता जस्स पदेसग्गस्स तमेदिस्से हिदीए पदेसग्गं होज । तं पुण उकाडणादो झीणहिदियं ।
४५१. के ही एसा हिदी ? जद्देही समयूणावलियपरिहीणाबाहा तद्देही । सेसं सुगमं ।
8 एदं हिदिमादि कादूण जाव जहरिणयाए आवाहाए एत्तिएण ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता जस्स पदेसग्गस्स तं पि पदेसग्गमेदिस्से हिवीए होज । तं पुण सव्वमुफडणादो झीणहिदियं ।
४५२. कुदो ? अवहिदाए अइच्छावणाए आवलियमेत्तीए समयूणसणेण अज्ज वि संपुण्णत्ताभावादो । एदमेत्थतणचरिमवियप्पस्स वुत्तं, सेसासेसमझिमवियप्पाणं पि एदं चेव कारणं वत्तव्वं, विसेसाभावादो ।
* इस प्रकार आगे जाकर जितनी यह विवक्षित स्थिति है इससे न्यून शेष कर्मस्थिति जिन कर्मपरमाणुओंकी व्यतीत हो गई है वे कर्मपरमाणु इस स्थिति हो सकते हैं । परन्तु वे कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं। .
४५१. शंका-इस स्थितिका कितना प्रमाण है ?
समाधान-एक समय कम आवलिसे न्यून आबाधा जितनी है उतना इस स्थितिका प्रमाण है।
शेष कथन सुगम है। . विशेषार्थ-इस सूत्रमें यह बतलाया है कि इस विवक्षित स्थितिमें किस स्थितिसे पूर्वके कर्मपरमाणु नहीं हैं और वह प्रारम्भकी कौनसी स्थिति है जिसके परमाणु इसमें हैं। जैसा कि पहले लिख पाये हैं कि इस विवक्षित स्थितिमें जिन कर्मपरमाणुओंकी एक समय अधिक
आवलिसे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है वे कर्मपरमाणु नहीं है। जिनकी दो समय अधिक श्रावलिसे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है वे कर्मपरमाणु भी नहीं हैं। इसी प्रकार उत्तरोत्तर एक एक समय बढ़ाते हुए जिनकी एक प्रावलि न्यून आवाधाप्रमाण कर्मस्थिति शेष रही है वे कर्मपरमाणु भी इस विवक्षित स्थितिमें नहीं हैं। मात्र जिनकी एक समय कम आवलिसे न्यन आबाधाप्रमाण कमस्थिति शेष है वे कर्मपरमाणु इस विवक्षित स्थितिमें अवश्य पाये जाते हैं। फिर भी इन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण नहीं हो सकता, क्योंकि इनमें एक समयमात्र भी शक्तिस्थिति नहीं पाई जाती है यह इस सूत्रका भाव है।
* इस स्थितिसे लेकर जघन्य आबाधा तक जितनी स्थिति है उससे न्यून कर्मस्थिति जिन कर्मपरमाणुओंकी व्यतीत हो गई है वे कर्मपरमाणु भी इस विवक्षित स्थितिमें हैं परन्तु वे सबके सब उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं।
६४५२. क्योंकि अवस्थित अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण बतलाई है वह एक समय कम होनेसे अभी पूरी नहीं हुई है। यह यहाँ अन्तिम विकल्पका कारण कहा है। वाकीके सब मध्यम विकल्पोंका भी यही कारण कहना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है।
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जयधवलाहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
९४५३. संपहियरुिद्धहिदीए पुव्वमादिद्वहेद्विमहिदीणं च साहारणी एसा परूवणा; तत्थ वि आबाहामेताव से सकम्मडिदियस्स पदेसग्गस्स झीणडिदियत्तुवभादो | संपहि एत्थतण असामण्णवियप्पपरूवणमुत्तरां पबंध -
२६४
* बाधाए समयुत्तराए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता जस्स पदेसग्गस्स तं पि एदिस्से द्विदीए पदेसग्गं होज्ज । तं पुण उकडणादो डिदियं ।
९४५४. जइ वि एत्थ अइच्छावरणा श्रावलियमेती पुरणा तो विणिक्खेवाभावेण उकडणादो झीण द्विदियत्तमिदि घेत्तव्वं । कुदो लिक्खेवाभावो ? आवलियमेत्तं मोतृण उबरि सत्तिद्विदीए अभावादो । एसो एत्थ विरुद्धद्विदीए संतकम्ममस्तियूण
विशेषार्थ - प्रकृत सूत्र में यह बतलाया है कि इस विवक्षित स्थितिमें स्थित किस स्थिति तकके कर्मंपरमाणुओंका उत्कर्षंण नहीं हो सकता। यह तो पहले ही बतला आये हैं कि एक समय कम एक श्रावलिसे न्यून आबाधाप्रमाण स्थिति से लेकर आगे सर्वत्र अतिस्थापना एक आवलि प्राप्त होती है। अब जब इस नियमको सामने रखकर विचार किया जाता है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जिन कर्मपरमाणुओं की एक समय कम एक आवलिसे न्यून आबाधा प्रमाण स्थिति से लेकर बाधाप्रमाण स्थिति शेष है उनका भी उत्कर्षण नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें प्रारम्भके विकल्प में एक समयमात्र भी शक्तिस्थिति या अतिस्थापना नहीं पाई जाती । दूसरे विकल्पमें प्रतिस्थापना केवल एक समयमात्र पाई जाती है। तीसरे विकल्पमें दो समय अतिस्थापना पाई जाती है इस प्रकार आगे आगे जाने पर अन्तिम विकल्प में वह अतिस्थापना एक समय कम एक आवलि पाई जाती है । परन्तु पूरी आवलिप्रमाण प्रतिस्थापना किसी भी विकल्प में नहीं पाई जाती, इसलिये इन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण नहीं हो सकता यह इस सूत्र का भाव है ।
४५३. किन्तु इस समय जो स्थिति विवक्षित है और इससे पूर्वकी जो स्थितियाँ विवक्षित रहीं उन दोनोंके प्रति यह प्ररूपणा साधारण है; क्योंकि वहाँ भी जिन कर्मपरमाणुओंकी स्थिति बाधाप्रमाण शेष रही है उनमें भीनस्थितिपना स्वीकार किया गया है। अब इस स्थितिसम्बन्धी साधारण विकल्पका कथन करनेके लिये आगेकी रचना है
* जिन कर्मपरमाणुओं की व्यतीत हुई है वे कर्मपरमाणु भी वाले हैं ।
एक समय अधिक आवाधासे न्यून कर्मस्थिति इस स्थितिमें हैं पर वे उत्कर्षणसे झीन, स्थिति
९४५४. यद्यपि यहाँ एक अवलिप्रमाण अतिस्थापना पूरी हो गई है तो भी निक्षेपका अभाव होनेसे वे कर्मपरमाणु उत्कर्षण से झीनस्थितिवाले हैं यह यहाँ ग्रहण करना चाहिये । शंका - निक्षेपका प्रभाव क्यों है ?
समाधान — क्योंकि इन कर्मपरमाणुओंकी एक आवलिके सिवा और अधिक शक्ति स्थिति नहीं पाई जाती, इसलिये निक्षेपका अभाव है ।
इस विवक्षित स्थितिमें सत्कर्मकी अपेक्षासे जो यह विकल्प विशेष कहा है सो यह
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गा०२२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूषणा
२६५ हेहिल्लहिदीहितो अपुणरुतो वियप्पविसेसो हेहिमहिदिपदेसग्गाणमाषाहासेसमेत्तमधिच्छाविय तदणंतरोवरिमाए एकिस्से हिदीए णिक्खेवुवलंभादो । गवकबंधमस्सियूण पुण श्रावलियमेत्ता चेय अवत्थुवियप्पा पुव्वं व सव्यत्य अणूणाहिया होति त्ति पत्थि तत्थ णाणतं । वरि पुवपरूविदाणमावलियमेत्तणवकबंधाणं मझे पढमसमयपद्धस्सावलियाविच्छिदबंधस्स जहा णिसे यसरूवेण वत्थुत्तमेत्य दीसइ, हेडिमसमए चेव तदाबाहापरिच्छित्तिदसणादो। तं पि कुदो ? जहण्णाबाहाए चेव सब्वत्थ विवक्खियत्तादो। कथं पुण संपुण्णावलियमेत्तपमाणमेत्थ तब्वियप्पाणमिदि णासंकणिज्जं, तकालियणवकबंधेण सह तेसिं तदविरोहादो। एत्तिओ चेव विसेसो, णत्थि अण्णो को इ विसेसो ति जाणावणहमुत्तरमुत्तं
तेण परमज्झीणहिदियं । ६४५५. तत्तो समयुत्तरवाहापरिहीणविदिक्कतकम्मटिदियादो णिरुदहिदिपदेसग्गादो परमण्णं पदेसग्गमज्झीणहिदियमुक्कड्डणादो ति अहियारवसेणाहिसंबंधो । कुदो एदमझीणद्विदियं ? अधिच्छावणा-णिक्खेवाणमेत्य संभवादो। केत्तियमेत्ती विकल्प पूर्व की स्थितियोंसे अपुनरुक्त है; क्योंकि पूर्वकी स्थितियोंके कर्मपरमाणुओंकी जो श्राबाधा शेष रहती है उसे अतिस्थापनारूपसे स्थापित करके उससे आगेकी एक स्थिति में निक्षेप पाया जाता है। नवकबन्धकी अपेक्षा तो सर्वत्र न्यूनाधिकतासे रहित पहलेके समान एक
आवलिप्रमाण ही अवस्तु विकल्प होते हैं, इसलिये उनके कथनमें सर्वत्र कोई भेद नहीं है । किन्तु इतनी विशेष । है कि पहले जो एक आवलिप्रमाण नवकबन्ध कहे हैं उनमें से जिसे बधे एक आवलि हो गया है ऐसे प्रथम समयप्रबद्धके निषेकोंकी जैसी रचना हुई उसके अनुसार सद्भाव यहाँ विवक्षित स्थिति में दिखाई देता है; क्योंकि इससे पूर्वके समयमें ही उस समयप्रवद्धके आबाधाका अन्त देखा जाता है।
शंका-सो कैसे ? समाधान—क्योंकि सर्वत्र जघन्य आबाधा ही विवक्षित है।
यदि ऐसा है तो फिर यहाँ पर नवकबन्धसम्बन्धी अवस्तुविकल्प पूरी आवलिप्रमाण कैसे हो सकते हैं सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि तत्कालिक नवकबन्धके साथ उन्हें पूरी प्रावलिप्रमाण माननेमें कोई विरोध नहीं आता। यहाँ इतनी ही विशेषता है अन्य कोई विशेषता नहीं है इस प्रकार इस बातके जतानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* उससे आगे अझीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं।
४५५. उमसे आगे अर्थात् पहले जो एक समय अधिक आबाधासे हीन कर्मस्थिति और इस स्थितिके जो कर्मपरमाणु कहे हैं उनसे आगे अन्य कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे अझीन स्थितिवाले हैं ऐसा यहाँ अधिकारके अनुसार अर्थ करना चाहिये।
शंका-ये कर्म परमाणु अझीन स्थितिवाले क्यों हैं ? समाधान-क्योंकि यहाँ अतिस्थापना और निक्षेप दोनों सम्भव हैं। ३४
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जयधवलासहिदे कसायपाहुरे [ पदेसविहत्ती ५ एत्थतणी अधिच्छावणा ? आवलियमेत्ती अवहिदा चेयमुवरि सव्वत्थ । केति ओ पुण एत्थ णिक्खेवो ? एओ समओ । सो च अणवहिओ समउत्तरादिकमेण उवरिमवियप्पेसु वट्टमाणो गच्छइ ।
६४५६. संपहि पयदहिदीए वियप्पे समाणिय उवरिमासु हिदीसु वियप्पगवेसणं कुणमाणो चुण्णिसुत्तयारो इदमाह
समयूणाए श्रावलियाए अणिया मावाहा । एदिस्से हिंदीए वियप्पा समत्ता।
४५७. सुगमं । * एदादो दिदीदो समयुत्तराए हिदीए वियप्पे भणिस्सामो । शंका-यहाँ अतिस्थापनाका प्रमाण कितना है ? समाधान-एक आवली, जो कि आगे सर्वत्र अवस्थित ही जानना चाहिये। शंका- यहाँ निक्षेपका प्रमाण कितना है ?
समाधान—एक समय जो कि अनवस्थित है, क्योंकि वह आगेके विकल्पों में एक-एक समय अधिकके क्रमसे बढ़ता जाता है।
विशेषार्थ-पहले यह बतलाकर कि एक समय कम आवलिसे न्यून आबाधाप्रमाण कर्मस्थितिमें जिन कर्मपरमाणुओंकी स्थिति एक समय अधिक आबाधाप्रमाण शेष हो उनका उत्कर्षण नहीं हो सकता, क्योंकि यहाँ श्रावलिप्रमाण अतिस्थापनाके रहने पर भी निक्षेपका सर्वथा अभाव है। अब यह बतलाया गया है कि उसी विवक्षित स्थितिमें जिन कर्मपरमाणोंकी स्थिति उक्त स्थितिसे अधिक शेष हो उनका उत्कर्षण हो सकता है। यहाँ सर्वत्र अतिस्थापना तो एक आवलिप्रमाण ही प्राप्त होती है न्यूनाधिक नहीं। पर निक्षेप उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। यदि पूर्वस्थितिसे एक समय अधिक स्थिति शेष हो तो निक्षेप एक समय प्राप्त होता है। यदि दो समय अधिक शेष हो तो निक्षेप दो समय प्राप्त होता है। इस प्रकार आगे आगे शेष रही स्थितिके अनुसार निक्षेप बढ़ता जाता है।
६४५६. अब प्रकृत स्थितिमें विकल्पोंको समाप्त करके आगेकी स्थितियोंमें विकल्पोंका विचार करते हुए चूर्णिसूत्रकार आगेका सूत्र कहते हैं
* विवक्षित स्थितिमें एक समय कम आवलिसे न्यून आवाधाप्रमाण अवस्तु विकल्प होते हैं। इस प्रकार इस स्थितिके विकल्प समाप्त हुए।
४५७. यह सूत्र सरल है।
विशेषार्थ विवक्षित स्थिति दो समय कम आवलिसे न्यून आवाधाकी अन्तिम स्थिति है, अतः इसमें, जिन कर्मपरमाणुओंकी स्थिति उदय समयसे लेकर एक समय कम श्रावलिसे न्यून आबाधाकाल तक शेष रही है, वे कर्मपरमाणु नहीं पाये जाते। इसीसे इस विवक्षित स्थितिमें एक समय कम आवलिसे न्यून आबाधाप्रमाण अवस्तुविकल्प बतलाये हैं।
* अब इस स्थितिसे एक समय अधिक स्थितिके विकल्प कहेंगे।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा
$ ४५८. इमादो पुव्वणिरुद्धहिदीदो समयुत्तरा जा हिदी तिस्से पदेसग्गस्स अवत्थुवियप्पे झीणाझीणहिदियवियप्पे च भणिस्सामो त्ति सुत्तत्थो ।
ॐ सा पुणे का हिदी।
४५६. सा पुण संपहि णिरुभिजमाणा का हिदी, कइत्थी सा, उदयहिदीदो केत्तियमद्धाणमुवरि चडिय ववहिदा, आबाहा चरिमसमयादो वा केत्तियमेत्तमोइण्णा ति एवमासंकिय सिस्सं णिरारेयं काउमुत्तरमुत्तं भणइ
* दुसमयूणाए श्रावलियाए उणिया जा आबाहा एसा सा हिदी ।
४६०. जेत्तिया दुसमयूणाए आवलियाए ऊणिया आबाहा एसा सा हिदी, एवडिमा सा हिदी जा संपहि वियप्पपरूवणहमाइटा । उदयहिदीदो दुसयूणावलियपरिहीणाबाहामेत्तमद्धाणमुवरि चडिय आबाहाचरिमसमयादो दुसमयूणावलियमेत्तं हेदृदो वोसरिय पुव्वाणंतरणिरुद्धहिदीए उवरि हिदा एसा हिदि ति वुत्तं होइ ।
ॐ इदाणिमेदिस्से हिदीए अवत्थुवियप्पा केत्तिया । ४६१. सुगम । 8 जावदिया हेहिल्लियाए हिंदीए अवत्थुवियप्पा तदो स्वुत्तरा ।
६४५८. इससे अर्थात् पूर्व विवक्षित स्थितिसे जो एक समय अधिक स्थिति है उस स्थितिके कर्मपरमाणुओंके अवस्तुविकल्प और झीनाझीन स्थितिविकल्प कहेंगे यह इस सूत्रका भाव है।
* वह कौनसी स्थिति है ?
६४५६. जो इस समय विवक्षित है वह कौनसी स्थिति है, उसका क्या प्रमाण है, उदयस्थितिसे कितना स्थान आगे जाकर वह स्थित है, या आबाधाके अन्तिम समयसे कितना काल पीछे जाकर वह पाई जाती है इस प्रकारकी शंका करनेवाले शिष्यको निःशंक करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* दो समय कम आवलिसे न्यून जो आवाधा है यह वह स्थिति है।
४६०. दो समय कम आवलिसे न्यून आबाधाका जितना प्रमाण हो इतनी वह स्थिति है जो इस समय विकल्पोंका कथन करनेके लिये विवक्षित है। उदय स्थितिसे दो समय कम आवलिसे हीन श्राबाधाप्रमाण स्थान आगे जाकर और आबाधाके अन्तिम समयसे दो समय कम आवलिप्रमाण स्थान पीछे जाकर पूर्वोक्त अनन्तरवर्ती विवक्षित स्थितिके आगे यह स्थिति है यह इस सूत्रका भाव है।
* अब इस स्थितिके अवस्तुविकल्प कितने हैं । $ ४६१. यह सूत्र सरल है। * पिछली स्थितिके जितने अवस्तु विकल्प हैं उनसे एक अधिक हैं ।
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अयधवलासहिदे कसायपाहुडे पदेसविहत्ती ५ ४६२. संतकम्ममस्सियूण जेतिया अणंतरहेडिमाए अवत्थुवियप्पा तदो रूवुत्तरा एत्थ ते वत्तव्या, तत्तो रूवुत्तरमदाणं चडिय एदिस्से अवहाणादो। एदं रूवुत्तरवयणमंतदीवयं । तेण हेडिमासेसहिदीणमवत्थुवियप्पा अणंतराणंतरादो रूवुत्तरा ति घेत्तव्यं । एदं च संतकम्ममस्सियूण परूविदं, ण णवकबंधमस्सिय, तत्थावलियमेत्ताणमवत्थुवियप्पाणमवहिदसरूवेणावहाणादो । एवमवत्थुवियप्पे परूविय वत्थुवियप्पाणं झीणाझीणहिदियभेदभिण्णाणं परूषणमुत्तरो पबंधो
8 जद्देही एसा हिदी तत्तियं हिदिसंतकम्मं कम्महिदीए सेसयं जस्स पदेसग्गस्स तं पयेसग्गमेदिस्से हिदीए होज तं पुण उक्कड्डणादो झीणहिदियं ।
६४६३. कुदो ? उवरि सत्तिहिदीए एयस्स वि समयस्स अभावादो ।
9 एदादो हिदीदो समयुत्तरहिदिसंतकम्म कम्महिदीए सेसयं जस्स पदेसग्गस्स तमुक्कड्डणादो झीणहिदियं ।
४६४. सुगमं ।
एवं गंतूण आबाहामेत्तहिदिसंतकम्म कम्मदिहीए सेसं जस्स पदेसग्गल्स एदीए हिदीए दीसइ तं पि उकड्डणादो झीणहिदियं ।
६४६२. सत्कर्मकी अपेक्षा जितने अनन्तरवर्ती पिछली स्थितिके अवस्तुविकल्प हैं उनसे एक अधिक यहाँ वे विकल्प हैं, क्योंकि पूर्वस्थितिसे एक स्थान आगे जाकर यह स्थिति अवस्थित है। इस सूत्र में जो 'रूवुत्तरा' वचन आया है सो यह अन्तदीपक है। इससे यह मालूम होता है कि पीछे सर्वत्र पूर्व पूर्व अनन्तरवर्ती स्थितिसे आगे आगेकी स्थितिके अवस्तु विकल्प एक एक अधिक होते हैं। यह सब सत्कर्मकी अपेक्षासे कहा है, नवकबन्धकी अपेक्षासे नहीं, क्योंकि नवकबन्धकी अपेक्षासे सर्वत्र एक श्रावलिप्रमाण ही अवस्तुविकल्प पाये जाते हैं। इस प्रकार अवस्तुविकल्पोंका कथन करके झीनाझीनस्थितियोंकी अपेक्षासे अनेक प्रकारके वस्तुविकल्पोंका कथन करनेके लिये आगेकी रचना है --
* जितनी यह स्थिति है उतना स्थितिसत्कर्म जिन कर्मपरमाणुओंका शेष है व कर्मपरमाणु इस स्थितिमें हैं। किन्तु वे उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले हैं ।
5 : ६३. क्योंकि ऊपर एक समयमात्र भी शक्तिस्थिति नहीं पाई जाती है।
* इस स्थितिसे जिन कर्मपरमाणुओंका कर्मस्थितिमें एक समय अधिक स्थितिसत्कर्म शेष है वे कर्मपरमाणु भी उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले हैं ।
$ ४६४. यह सूत्र सरल है।
* इसी प्रकार आगे जाकर कर्मस्थितिमें जिन कर्मपरमाणुओंका आवाधाप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष है वे कर्मपरमाणु भी इस स्थितिमें पाये जाते हैं। परन्तु वे भी उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं।
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गा० २२) पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा
२६६ ४६५. एत्य तं पि सद्दो आवित्तीए दोवारमहिसंबंधेयव्यो । तं पि पदेसग्गमेदिस्से हिदीए दीसइ । दिस्समाणं पि तमुक्कड्डणादो झीणहिदियमिदि।
आषाहासमयुत्तरमेत्तं हिदिसंतकम्मं कम्महिदीए सेसं जस्स पदेसग्गस्स तं पि उकडणादो झीणहिदियं ।।
४६६. कम्महिदीए अभंतरे जस्स पदेसग्गरस समयुत्तराबाहामेत्तहिदिसंतकम्ममवसेसं तं पि एदिस्से हिदीए द्विदमुक्कड्डणादो झीणहिदियं । कुदो ? अधिच्छावणाए अज्ज वि समयूणत्तदंसणादो।
आवाधादुसमयुत्तरमेत्तहिदिसंतकम्मं कम्महिदीए सेसं जस्स पदेसग्गरस एदिस्से हिंदीए दिस्सह तं पदेसग्गमुक्कड्डणादो झीणहिदिर्य ।
६.४६७. कुदो अधिच्छावणाए आवलियमेत्तीए संपुण्णाए संतीए झीगहिदियत्तमेदस्स ? ण, णिक्खेवाभावेण तहाभावाविरोहादो।
६४६५. इस सूत्रमें 'तं पि' शब्दकी आवृत्ति करके दो बार सम्बन्ध कर लेना चाहिये। यथा-वे कर्मपरमाण भी इस स्थितिमें पाये जाते हैं। पाये जाकर भी वे उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं।
* तथा जिन कर्मपरमाणुओंकी कर्मस्थितिमें एक समय अधिक आवाधाप्रमाण स्थिति शेष है वे कर्मपरमाणु भी उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं ।
४६६. कर्मस्थितिके भीतर जिन कर्मपरमाणोंका एक समय अधिक आबाधाप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष है वे कर्मपरमाणु भी यद्यपि इस स्थितिमें हैं तो भी वे उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं, क्योंकि अभी भी अतिस्थापनामें एक समय कम देखा जाता है।
* कर्मस्थितिके भीतर जिन कर्मपरमाणुओंका दो समय अधिक आबाधाप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष है वे कमेपरमाणु भी इस स्थितिमें पाये जाते हैं। परन्तु वे उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं।
६४६७. शंका--जब कि अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण परी है तब इन कर्मपरमाणुओंमें झीनस्थितिपना कैसे है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि निक्षेपका अभाव होनेसे इन कर्मपरमाणुओंमें झीनस्थितिपनेके होने में कोई विरोध नहीं है ।
विशेषार्थ-इन पूर्वोक्त सूत्रोंमें यह बतलाया है कि तीन समय अधिक प्रावलिसे न्यून आबाधाप्रमाण स्थितिमें झीनस्थिति विकल्प कहाँसे लेकर कहाँ तक होते हैं। यह तो पहले ही बतलाया जा चुका है कि एक समय कम आवलिसे न्यून आबाधाप्रमाण स्थितिसे लेकर आगे सर्वत्र प्रतिस्थापना एक आवलि प्राप्त होती है। विवक्षित स्थिति भी उक्त स्थितिसे दो समय आगे जाकर प्राप्त है, इसलिये इसमें भी अतिस्थापनाका प्रमाण एक आवलि प्राप्त होता है। आशय यह है कि इस स्थितिमें जो कर्मपरमाणु स्थित हैं उनमेंसे जिनकी स्थिति उसी विवक्षित
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२७०
अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ 8 तेण परमुकड्डणादो अझीणहिदियं ।
१४६८. आवलियमेत्तमइच्छावि एक्किस्से अणंतरोवरिमहिदीए णिक्खेवुवलंभादो उवरि णिक्खेवस्स समयुत्तरकमेण वड्डिदंसणादो च ।
* दुसमयूणाए श्रावलियाए ऊणिया आबाहा एवडिमाए हिदीए वियप्पा समत्ता।
एत्तो समयुत्तराए हिदीए वियप्पे भणिस्सामो ।
४६६. एतो समणंतरविदिक्कंतणिरुद्धहिदीदो जा समयुत्तरा हिदी तिस्से वियप्पे अवत्थु झीणाझीणहिदियभेदभिण्णे भणिस्सामो त्ति पइज्जासुत्त मेदं ।
* एत्तो पुण हिदीदो समयुत्तरा हिदी कदमा | ४७०. सुगम ।
* जहणिया आबाहा तिसमयूणए आवलियाए अणिया एवडिमा हिदी। स्थितिप्रमाण या उससे एक समय से लेकर एक आवलि तक अधिक है उनका उत्कर्षण नहीं हो सकता, क्योंकि यहाँ अन्तिम विकल्पमें यद्यपि अतिस्थापना पूरी हो गई है तो भी निक्षेपका सर्वत्र अभाव है।
* उससे आगे उत्कर्षणसे अझीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं ।
$ ४६८. क्योंकि यहाँ एक आवलिप्रमाण स्थितियोंको प्रतिस्थापनारूपसे स्थापित करके अनन्तरवर्ती आगेकी एक स्थितिमें निक्षेप देखा जाता है और आगे भी एक एक समय अधिकके क्रमसे निक्षेपकी वृद्धि देखी जाती है।
विशेषार्थ-दो समय कम श्रावलिसे न्यून आबाधाप्रमाण स्थितिमें जिन कर्मपरमाणुओंकी स्थिति तीन समय अधिक आबाधा प्रमाण या इससे भी अधिक है उन कर्मपरमाणोंका उत्कर्षण हो सकता है, क्योंकि यहाँ अतिस्थापना और निक्षेप दोनों पाये जाते हैं यह इस सूत्रका आशय है।
* दो समय कम आवलिसे न्यून आबाधाप्रमाण स्थितिके विकल्प समाप्त हुए। * अब इस पूर्वोक्त स्थितिसे एक समय अधिक स्थितिके विकल्प कहेंगे ।
६४६६. अब इस समनन्तर व्यतीत हुई विवक्षित स्थितिसे जो एक समय अधिक स्थिति है उसके अवस्तु और झीनाझीन स्थितियोंकी अपेक्षा नाना प्रकारके विकल्पोंको कहेंगे इस प्रकार यह प्रतिज्ञा सूत्र है।
* किन्तु इस स्थितिसे एक समय अधिक स्थिति कौन सी है । ६४७०. यह सूत्र सुगम है ।।
* तीन समय कम आवलिसे न्यून जघन्य आबाधाका जितना प्रमाण है यह वह स्थिति है।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा
४७१. उदयहिदीदो तिसमयूणावलियपरिहीणजहण्णाबाहामेत्तमुवरि चडिय आबाहाचरिमसमयादो तिसमयूणावलियमेत्तमोदरिय एसा द्विदी द्विदा ति वुत्तं होदि । एदिस्से हिदीए केत्तिया वियप्पा होति त्ति सिस्साभिप्पायमासंकिय एत्तियमेत्ता होति त्ति जाणावणहमुत्तरसुत्तमोइण्णं
* एदिस्से हिंदीए एत्तिया चेव वियप्पा । णवरि अवत्थुवियप्पा ख्वुत्तरा।
४७२, एदिस्से संपहि णिरुद्धहिदीए एत्तिया चेव वियप्पा होति जेत्तिया अणंतरहेहिमाए । णवरि संतकम्ममस्सियूण अवत्थुवियप्पा रूवुत्तरा होति, तत्तो रूवुत्तरमेत्तमद्धाणमुवरि गंतूणावहाणादो।
* एस कमो जाव जहरिणया आषाहा समयुत्तरा त्ति।
४७३. एस अणंतरपरूविदो कमो जाव जहणिया आवाहा समयुत्तरा त्ति अवहिदाणं दुसमयूणावलियमेत्तियाणमुवरिमहिदीणं षि अणणाहिओ जाणेयव्यो, विसेसाभावादो। णवरि आबाहाचरिमसमयादो अणंतरोवरिमाए द्विदीए णवकबंधमस्सियूण अवत्थुवियप्पा ण लभंति । आबाहाए बाहिं तत्कालियस्स वि णवकबंध
७१. उदय स्थितिसे तीन समय कम आवलिसे न्यून जघन्य आबाधाप्रमाण स्थान आगे जाकर और आबाधाके अन्तिम समयसे तीन समय कम एक आवलिप्रमाण स्थान पीछे आकर यह स्थिति स्थित है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस स्थितिमें कितने विकल्प होते हैं इस प्रकार शिष्यके अभिप्रायानुसार आशंका करके इतने विकल्प होते हैं यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र आया है
* इस स्थितिमें इतने ही विकल्प होते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवस्तुविकल्प एक अधिक होते हैं।
६४७२. इस समय जो स्थिति विवक्षित है उसमें इतने ही विकल्प होते हैं जितने अनन्तर पूर्ववर्ती स्थितिमें बतला आये हैं। किन्तु सत्कर्मकी अपेक्षा अवस्तुविकल्प एक अधिक होते हैं, क्योंकि पूर्व स्थितिसे एक स्थान आगे जाकर यह स्थिति अवस्थित है।
विशेषार्थ—पूर्व स्थितिसे इस स्थितिमें और कोई विशेषता नहीं है, इसलिये इसके और सब विकल्प तो पूर्व स्थितिके ही समान हैं। किन्तु अवस्तुविकल्पोंमें एककी वृद्धि हो जाती है, क्योंकि पर्व स्थितिसे एक स्थान आगे जाकर यह स्थिति स्थित है यह इस सूत्रका भाव है।
___ * एक समय अधिक जघन्य आपाधाप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक यही क्रम जानना चाहिये।
६४७३. यह जो इससे पहले क्रम कहा है वह एक समय अधिक जघन्य आबाधाके प्राप्त होने तक जो दो समय कम एक आवलिप्रमाण स्थितियाँ अवस्थित हैं उन आगेकी स्थितियोंका भी न्यूनाधिकताके बिना पूर्ववत् जानना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बाधाके अन्तिम समयसे अनन्तर स्थित आगेकी स्थितिमें नवकबन्धकी अपेक्षा अवस्तुविकल्प नहीं पाये जाते, क्योंकि आबाधाके बाहर जिस
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहती ५ पदेसणिसेयस्स पडिसेहाभावादो।
® जहणियाए आबाहा, दुसमयुत्तराए पहुडि पत्थि उपाडणादो झीणहिदियं।
४७४. एदस्स मुत्तस्स अवयवत्थपरूवणा सुगमा । एत्थ चोदनो भणदिदुसमयुत्तरजहण्णावाहाओ उवरिमहिदीमु वि उक्कडगादो झीणहिदियं पदेसग्गमस्थि, तत्थेव णिहियकम्महिदियसमयपबद्धपदेसग्गप्पहुडि अइच्छावणावलियमेत्ताणमेत्य झीणहिदियवियप्पाणमुवलंभादो। ण च गवकबंधमस्सियूण अवत्थुवियप्पा गत्थि त्ति तहा परूवणं णाइयं, तेसिमेत्थ पहाणत्ताभावादो। तदो आवलियमेत्तेसु झीणहिदियवियप्पेसु आबाहादो उवरि वि हिदि पडि लब्भमाणेसु किमेदं वुच्चदे-- आबाहाए दुसमयुत्तराए पहुडि पत्थि उक्कड्डणादो झीणहिदियमिदि ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-उक्कड्डणादो झीणा हिदी जस्स पदेसग्गस्स तमुक्कड्डणादो झीणहिदियं णाम । ण च एदं दुसमयुत्तराबाहप्प हुडि उवरिमासु हिदीसु संभवइ, तत्थ समाणिदसमय बन्ध होता है उस समय भी नवकबन्धके निषेकोंका प्रतिषेध नहीं है।
विशेषार्थ-तीन समय कम आवलिसे न्यून जघन्य आबाधाप्रमाण स्थितिके सम्बन्धमें जो क्रम कहा है वही क्रम एक समय अधिक आबाधाप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक भी प्रत्येक स्थितिका जानना चाहिये यह इस सूत्रका आशय है। किन्तु श्राबाधाप्रमाण स्थितिसे आगेकी स्थितिमें नवकबन्धकी अपेक्षा अवस्तुविकल्प नहीं पाये जाते, यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये। इसका कारण यह है कि आबाधाके भीतर निषेकरचना नहीं होनेके कारण सर्वत्र एक आवलिप्रमाण अवस्तुविकल्प प्राप्त हो जाते हैं। पर आबाधाके बाहर तो प्रारम्भसे ही निषेकरचना पाई जाती है, इसलिये वहाँ नवकबन्धकी अपेक्षा अवस्तुविकल्प किसी भी हालतमें सम्भव नहीं हैं।
___* दो समय अधिक जघन्य आवाधाप्रमाण स्थितिसे लेकर आगे उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु नहीं हैं।
६४७४. इस सूत्रके प्रत्येक पदका व्याख्यान सुगम है।
शंका--यहाँ पर शंकाकार कहता है कि दो समय अधिक जघन्य आबाधाप्रमाण स्थितिसे लेकर आगेकी स्थितियोंमें भी उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाण हैं, क्योंकि समयप्रबद्धके जिन कर्मपरमाणुओंकी कर्मस्थिति वहीं समाप्त हो गई है उन कर्मपरमाणोंसे लेकर अतिस्थापनावलिप्रमाण झीनस्थितिविकल्प यहाँ पाये जाते हैं। यदि कहा जाय कि नवकबन्धकी अपेक्षा अवस्तुविकल्प नहीं हैं, इसलिये ऐसा कथन करना न्याय्य है सो भी बात नहीं है, क्योंकि उनकी यहाँ प्रधानता नहीं है। इसलिए जब कि आबाधासे ऊपर प्रत्येक स्थितिके प्रति एक भावलिप्रमाण झीनस्थितिविकल्प पाये जाते हैं तब फिर यह क्यों कहा जाता है कि दो समय अधिक आबाधाप्रमाण स्थितिसे आगे उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु नहीं हैं ?
समाधान--अब यहाँ इस शंकाका परिहार करते हैं-जिन कर्मपरमाणुओंकी स्थिति उत्कर्षणसे झीन है वे कर्मपरमाण उत्कर्षणसे झीनस्थितिबाले कहलाते हैं। किन्तु यह अर्थ दो समय अधिक आबाधासे आगेकी स्थितियोंमें सम्भव नहीं है, क्योंकि समयप्रबद्ध के जिन
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा कम्महिदियसमयपबद्ध पडिबद्ध पदेसग्गस्स ओकड्डणाए आबाहाब्भंतरे णिक्खित्तस्स पुणो वि उक्कड्डियूण आबाहादो उवरि णिक्खेवसंभवेण तत्तो झीणहिदियत्ताणुवलंभादो। ण च णिरुद्धहिदीए चेव समवहिदाणमुक्कड्डणा ण संभवदि ति तत्तो झीणहिदियत्तं वोत्तुं जुत्तं, जत्थ वा तत्थ वा द्विदस्स णिरुद्धहिदिपदेसग्गस्स उक्कड्डणासत्तीए अच्चंताभावस्सह विवक्खियत्तादो। एसा सव्वा वि उक्कड्डणादो झीणाझीणहिदियाणमपदपरूवणा ओघेण मूलुत्तरपयडिविसेसविवक्खमकाऊण सामण्णेण परूविदा । एत्तो सव्वासु वि मग्गणासु सगसगजहण्णाबाहाओ अस्सियूण पुध पुध सव्धकम्माणमादेसपरूवणा कायव्वा ।
ॐ एवमुक्कड्डणादो झीणहिदियस्स अपदं समत्तं । * एत्तो संकमणादो झीणहिदियं । ४७५. एत्तो उपरि संकमणादो झीणहिदियं भणिस्सामो त्ति पइज्जामुत्तमेदं । * जं उदयावलियपविड तं, णत्थि अण्णो वियप्पो।
४७६. एत्थ संकमणादो झीणहिदियमिदि अणुवट्टदे। तेण जमुदयावलियं पइ तं संकमणादो झीणहिदियं होदि ति संबंधो कायव्यो । कुदो उदयावलियभंतरे कर्मपरमाणुओंने वहाँ अपनी स्थिति समाप्त कर ली हो उनको अपकर्षण द्वारा आबाधाके भीतर निक्षिप्त कर देने पर उत्कर्षण होकर फिर भी उनका आबाधाके ऊपर निक्षेप सम्भव है, इसलिये उनमें उत्कर्षणसे झीनस्थितिपना नहीं पाया जाता। ___यदि कहा जाय कि विवक्षित स्थितिमें ही अवस्थित रहते हुए इनका उत्कर्षण सम्भव नहीं है, इसलिये इन्हें उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाला कहना युक्त है सो भी बात नहीं है, क्योंकि विवक्षित स्थितिके कर्मपरमाणु कहीं भी स्थित रहें किन्तु यहाँ तो उत्कर्षणशक्तिका अत्यन्त अभाव विवक्षित है। उत्कर्षणसे झीनाझीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंकी यह सबकी सब अर्थपदप्ररूपणा
ओघसे मूल और उत्तर प्रकृतिविशेषकी विवक्षा न करके सामान्यसे यहाँ कही है। आगे सभी मार्गणाओंमें अपनी अपनी जघन्य आबाधाओंकी अपेक्षा पृथक्-पृथक् सब कोकी आदेशप्ररूपणा करनी चाहिये।
* इस प्रकार उत्कर्षणसे झीनस्थितिक प्रदेशाग्रका अर्थपद समाप्त हुआ। * अब इससे आगे संक्रमणसे झीनस्थितिक अधिकारका निर्देश करते हैं ।
$४७५. इससे आगे संक्रमणसे झीनस्थितिक अधिकारको कहेंगे इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र है।
* जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे संक्रमणसे झीनस्थितिवाले हैं । इसके अतिरिक्त यहाँ दूसरा विकल्प नहीं है ।
$ ४७६. इस सूत्रमें 'संकमणादो झीण ढिदियं' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। इससे इस सूत्रका यह अर्थ होता है कि जो कर्म उदयावलिके भीतर स्थित है वह कर्म संक्रमणसे झीन
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ संकमो गत्थि १ सहावदो। एत्तिओ चेव संकमणादो झीणहिदिओ पदेसविसेसो ति जाणावणहमेदं मुत्तं । पत्थि अण्णो वियप्पो ति उदयावलियबाहिरहिदपदेसग्गं बंधावलियवदिक्कतं सव्वमेव संकमपाओग्गत्तेण तत्तो अझीणहिदियमिदि वुत्तं होइ ।
* उदयादो झीणहिदियं। ४७७. एतो उदयादो झीणहिदियं वुच्चइ ति अहियारसंभालणसुत्तमेदं । ॐ जमुहिएणं तं, णत्थि अण्णं ।
$ ४७८. एत्थ जमुद्दिण्णं दिण्णफलं होऊण तकालगलमाणं तमुदयादो झीणद्विदियमिदि मुत्तत्थसंबंधो । णत्थि अण्णं । कुदो ? सेसासेसहिदिपदेसग्गस्स कमेण उदयपाओग्गत्तदंसणादो।
warrrrrawimm warrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr.
स्थितिवाला है, क्योंकि उदयावलिके भीतर संक्रमण नहीं होता ऐसा स्वभाव है। इतने ही कर्मपरमाणु संक्रमणसे झीनस्थितिवाले हैं यह जतानेके लिये यह सूत्र आया है। यहाँ इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। इसका यह अभिप्राय है कि बन्धावलिके सिवा उदयावलिके बाहर जितने भी कर्मपरमाणु स्थित हैं वे सब संक्रमणके योग्य हैं, इसलिये वे संक्रमणसे अझीनस्थितिवाले हैं।
विशेषार्थ-विवक्षित कर्मके परमाणुओंका सजातीय कर्मरूप हो जाना संक्रमण कहलाता है। यहाँ यह बतलाया है कि इस प्रकारका संक्रमण किन परमाणुओंका हो सकता है
और किनका नहीं। जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे सबके सब संक्रमणके अयोग्य हैं और उदयावलिके बाहर जो कर्मपरमाणु स्थित हैं वे सबके सब संक्रमणके योग्य हैं यह इसका भाव है। किन्तु इससे तत्काल बंधे हुए कर्मों का भी बन्धावलिके भीतर संक्रमण प्राप्त हुआ जो कि होता नहीं, इसलिये इसका निषेध करनेके लिये टीकामें इतना विशेष
और कहा है कि बन्धावलिके सिवा उदयावलिके बाहरके कर्मपरमाणुओंका संक्रमण होता है। अब यहाँ प्रश्न यह है कि ऐसे भी कर्म हैं जिनका उदयावलिके बाहर भी संक्रमण सम्भव नहीं । जैसे आयुकर्म । अतः यहाँ इनके संक्रमणका निषेध क्यों नहीं किया सो इसका यह समाधान है कि जिन कर्मों में संक्रमण सम्भव है उन्हींकी अपेक्षासे यहाँ विचार करके यह बतलाया है कि उनमेंसे किन कर्मपरमाणुओंका संक्रमण हो सकता है और किनका नहीं। आयु कम ऐसा है जिसका संक्रमण ही नहीं होता, अतः उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है।
* अब उदयसे झीनस्थितिक अधिकारका निर्देश करते हैं।
६४७७. संक्रमणसे झीनस्थितिक अधिकारका निर्देश करनेके बाद अब उदयसे झीनस्थितिक अधिकारका कथन करते हैं इस प्रकार यह सूत्र स्वतन्त्र अधिकारकी संम्हाल करनेके लिये आया है।
* जो कर्म उदीर्ण हो रहा है वह उदयसे झीनस्थितिवाला है। इसके अतिरिक्त यहाँ और कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
६४७८. जो कर्म उदीर्ण हो रहा है अर्थात् फल देकर तत्काल गल रहा है वह उदयसे झीनस्थितिवाला है यह यहाँ इस सूत्रका अभिप्राय है। इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा विकल्प नहीं, क्योंकि बाकीकी सब स्थितियोंके कर्मपरमाणु क्रमसे उदयके योग्य देखे जाते हैं।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
२७५ ४७६. एवं सामण्णेण चउण्हं पि झीणहिदियाणं सपडिवक्रवाणममुपदपरूवणं काऊण संपहि एदेसि चेव विसेसिय परूवणमुत्तरसुत्तं भणइ
* एत्तो एगेगझीणहिदियमुक्कस्सयमणुकस्सयं जहएणयमजहएणयं च।
६४८०. जहासंखणाएण विणा पादेक्कमेदेसि झीणहिदियाणमुक्कस्सादिपदेहि संबंधपरूवणफलो एगेगे त्ति णिद्देसो, अण्णहा समसंखाणमेदेसि तहाहिसंबंधप्पसंगादो। तदो तमेक्कक चउव्वियप्पसंजुतं णिदिसइ–उक्कस्सयमणुकस्सयं जहण्णयमजहण्णयं चेदि । जत्थ बहुवयरं पदेसग्गमोकड्डणादिचउण्डं पि झीणहिदियमुवलंभइ तमुक्कस्सं णाम । एवं सेसपदाणं वत्तव्वं । एवं परूवणा गदा ।
ॐ सामित्तं । विशेषार्थ—यहाँ यह बतलाया है कि कौनसे कर्मपरमाणु उदयसे झीनस्थितिवाले हैं और कौनसे कर्मपरमाणु उदयसे अझीनस्थितिवाले हैं। जिन कर्मपरमाणुओंका उदय हो रहा है उनका पुनः उदयमें आना सम्भव नहीं, इसलिये फल देकर तत्काल गलनेवाले कर्मपरमाणु उदयसे झीनस्थितिवाले हैं और इनके अतिरिक्त शेष सब कर्मपरमाणु उदयसे अभीनस्थितिवाले हैं यह इस सूत्रका भाव है।
४७६. इस प्रकार सामान्यसे अपने प्रतिपक्षभूत कर्मपरमाणुओंके साथ चारों ही झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके अर्थपदका कथन करके अब इन्हींकी विशेषताका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं--
* इनमेंसे प्रत्येक झीनस्थितिवाले कर्म उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य हैं।
६४८०. चार प्रकारके झीनस्थितिवाले कर्मों का क्रमसे उत्कृष्ट आदि चार पदोंके साथ सम्बन्ध नहीं है, इसलिये यथासंख्य न्यायके बिना अलग अलग इन झीनस्थितिवाले कर्मों का उत्कृष्ट आदि पदोंके साथ सम्बन्धका प्ररूपण करनेके लिये सूत्र में 'एगेग' पदका निर्देश किया है । नहीं तो दोनों ही समसंख्यावाले होनेसे दोनोंका यथाक्रमसे सम्बन्ध हो जाता। इसलिये यह सूत्र वे एक एक उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इस प्रकार चार चार प्रकारके हैं इस बातका निर्देश करता है। जहाँ पर सर्वाधिक कर्मपरमाणु अपकर्षण आदि चारोंसे झीनस्थितिपनेको प्राप्त होते हैं वहाँ उत्कृष्ट विकल्प होता है। इसी प्रकार शेष पदोंका कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु, उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु, संक्रमणसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु और उदयसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु ये चार है । ये चारों ही प्रत्येक उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इस प्रकार चार चार प्रकारके हैं यह इस सूत्रका भाव है।
इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई । * अब स्वामित्वका अधिकार है।
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२७६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ४८१. एत्तो सामित्त वत्तइस्सामो त्ति अहियारसंभालणसुत्तमेदं । * मिच्छत्तस्स उकस्सयमोकड्डणादो झीणहिदियं कस्स ? $ ४८२. सुगममेदं पुच्छासुत्तं ।
* गुणिदकम्मंसियस्स सव्वलहु दंसणमोहणीयं खवेंतस्स अपच्छिमहिदिखंडयं संछुभमाणयं संछुद्धमावलिया समयूणा सेसा तस्स उकस्सयमोकडणादो झीणहिदियं ।
४८३. एदस्स मुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा-मिच्छत्तस्स उकस्सयमोकड्डणादो झीणहिदियं कस्से त्ति जादसंदेहस्स सिस्सस्स तव्विसयणिच्छयजणण गुणिदकम्मंसियस्से त्ति वुत्तं, अण्णत्थ पदेसास्स वुक्कस्सभावाणुववत्तीदो। किं सव्वस्सेव गुणिदकम्मंसियस्स ? नेत्याह-सव्वलहुं दंसणमोहणीयं खवेंतस्स । गुणिदकम्मंसियलकवणेणागंतूण सत्तमपुढविणेरइयचरिमसमए ओघुक्कस्समिच्छत्तदव्वं काऊण तत्तो णिप्पिडिय पंचिंदियतिरिक्वेसु एइंदिएसु च दोण्णि तिण्णि भवग्रहणाणि भमिय पुणो मणुस्सेसुप्पजिय अह वस्साणि बोलाविय सचलहुएण कालेण दंसणमोहणीयकम्म खवेदुमाढत्तस्से ति वुत्तं होइ।
६४८१. अब इसके आगे स्वामित्वको बतलाते हैं इस प्रकार यह सूत्र अधिकारकी संम्हाल करता है।
* मिथ्यात्वके अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है।
६४८२. यह पृच्छा सूत्र सुगम है।
* गुणितकर्माशवाले जिस जीवके सबसे थोड़े कालमें दर्शनमोहनीयकी तपणाका प्रारम्भ करनेके बाद अन्तिम स्थितिकाण्डकका पतन करके एक समय कम एक आवलि काल शेष रहा वह अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है।
६४८३. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-मिथ्यात्वके अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु किसके होते हैं इस प्रकार शिष्यको सन्देह हो जानेपर
ज्यक निश्चयके पैदा करनेके लिये सूत्र में गणिदकम्मंसियस्स' यह पद कहा है, क्योंकि गणित काशवाले जीवके सिवा अन्यत्र अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु उत्कृष्ट नहीं हो सकते । क्या सभी गुणितकाशवाले जीवोंके अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु उत्कृष्ट होते हैं ? नहीं, यही बतलानेके लिये सूत्र में 'सव्वलहुदसणमोहणीयं खर्वतस्स' यह पद कहा है। गुणितकमांशकी जो विधि बतलाई है उस विधिसे आकर और सातवीं पृथिवीका नारकी होकर उसके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वके द्रव्यको अोघसे उत्कृष्ट करके फिर वहाँसे निकलकर तथा पंचेन्द्रिय तिथंच और एकेन्द्रियोंमें दो तीन भवतक भ्रमण करके मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ
आठ वर्ष बिताकर अति थोड़े कालके द्वारा जिसने दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ किया उस गुणितकांशवाले जीवके अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु उत्कृष्ट होते हैं यह
तद्रिष
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
१४८४. संपहि दसणमोहणीयं खतस्स कम्हि उद्देसे सामित्तं होदि ति आसंकिय तदुद्द सपदुप्पायणमाह-अपच्छिमहिदिखंडयं संछुभमाणयं संछुद्धमावलिया समयूणा सेसा इच्चादि । अपुव्वकरणपढमसमयप्पहुडि बहुएसु हिदिखंडयसहस्सैसु पादेकमणुभागखंडयसहस्साविणाभावीसु अंतोमुहुतमेत्तकीरणद्धापडि बढेसु पदिदेसु पुणो अणियट्टि अदाए संखेजे सु भागेसु वोलीणेसु णिप्पच्छिमं हिदिखंडयं पलिदोवमासंखेजभागपमाणायाममावलियवज्ज संछुभमाणयं सम्मामिच्छत्तस्सुवरि गिरवसेसं संछुद्धं । जाधे उदयावलिया समयूणा सेसा ताधे तस्स गुणिदकम्मंसियस्स उक्कस्सयमोकड्डणादो झीणहिदियं मिच्छत्तपदेसगं होदि । कुदो आवलियाए समयूणतं ? उदयाभावेण सम्मत्तस्सुवरि तदुदयगिसेयसमाणमिच्छत्तेयहिदीए थिवुक्कसंकमेण संकंतीदो। कुदो पुण एदस्स आवलियपइपदेसग्गस्स अोकड्डणादो झीणहिदियस्स उक्कस्सत्तं ? ण, पडिसमयमसंखेजगुणाए सेडीए आरिदगुणसेडिगोवुच्छाणं हेडिमासे सतबियप्पेहितो असंखेज्जगुणागमुक्कस्सभावस्स गाइयत्तादो । उक्त कथनका तात्पर्य है।
४८. अब दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करते हुए भी किस स्थान पर उत्कृष्ट स्वामित्व होता है ऐसी आशंकाके होने पर उस स्थानका निर्देश करनेके लिये 'अपच्छिमहिदिखंडयं संछुभमाणयं संछुद्धमावलिया समयूणा सेसा' इत्यादि सूत्र कहा है । अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कीरण कालसे सम्बन्ध रखनेवाले हजारों स्थितिकाण्डकोंका और एक एक स्थितिकाण्डकके प्रति हजारों अनुभागकाण्डकोंका पतन करनेके पश्चात् जब यह जीव अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करके और उसके संख्यात बहुभागोंके व्यतीत होने पर एक आवलिके सिवा पल्यके असंख्यातवें भाग आयामवाले अन्तिम स्थितिकाण्डकका पतन करनेका प्रारम्भ करता है और उसे सबका सब सम्यग्मिथ्यात्वमें निक्षेप करनेके बाद जब एक समयकम एक श्रावलिकाल शेष रहता है तब इस गुणितकमांशवाले जीवके मिथ्यात्वके अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु होते हैं।
शंका-यहाँ आवलिको एक समय कम क्यों बतलाया ?
समाधान-क्योंकि वहाँ मिथ्यात्वका उदय न होनेसे सम्यक्त्वके उदयरूप निषेकके बराबरकी मिथ्यात्वकी एक स्थिति स्तिवुक संक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वके द्रव्यमें संक्रान्त हो गई है, इसलिये श्रावलिमें एक समय कम बतलाया है।
शंका-अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले ये कर्मपरमाणु आवलिके भीतर प्रविष्ट होनेपर ही उत्कृष्ट क्यों होते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वे कर्मपरमाणु प्रति समय असंख्यातगुणी श्रेणिके द्वारा गुणश्रेणिगोपुच्छाको प्राप्त हैं और नीचेके तत्सम्बन्धी और सब विकल्पोंसे असंख्यातगुणे हैं, इसलिये इन्हें उत्कृष्ट मानना न्याय्य है।
विशेषार्थ-यह तो पहले ही बतला पाये हैं कि जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले हैं और जो कर्मपरमाणु उदयावलिके बाहर स्थित हैं वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं। अब इन झीनस्थितिबाले कर्मपरमाणुओंमें मिथ्यात्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट विकल्प कहाँ प्राप्त होता है यह बतलाया है। मिथ्यात्वका अन्यत्र उदयावलिमें
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ४८५. संपहि एदस्स सामित्तविसईकयदव्वस्स पमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा-दिवडगुणहाणिमेत्तकस्ससमयपबद्धे दृषिय पुणो समयूणावलियाए ओवट्टिदचरिमफालीए तप्पागोग्गपलिदोवमासंखेजभागमेत्तरूवभजिदाए भागे हिदे एवं दव्वमागच्छदि,अभंतरीकयचरिमफालिणिसेयस्स गुणसेडिगोवुच्छदव्वस्स पाहणियादो। अधवा दिवडगुणहाणिगुणिदमुक्कस्ससमयपबद्धं ठविय ओकड्डुक्कड्डणभागहारेण तप्पागोग्गपलिदोवमासंखेज्जभागेण गुणिय किंचूणीकएण तम्मि भागे हिदे पयदसामित्तविसईकयदव्यमागच्छदि ति वत्तव्वं । एवमुवरि वि सव्वत्थ बत्तव्यं । संपहि एदेण समाणसामियाणं उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियाणमेदेण चेय गयत्थाणं सामित्तपरूवणहमुत्तरसुत्तमोइण्णं
ॐ तस्सेव उक्कस्सयमुक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियं ।
४८६. गयत्थमेदं मुत्तं । संपहि उदयादो झीणहिदियस्स उक्कस्ससामित्तपरूवण पुच्छासुत्तेणीवसरं करेइ
* उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं कस्स ? जितना द्रव्य रहता है उस सबसे अधिक क्षपणाके समय अन्तिम स्थितिकाण्डकके पतनके बाद उदयावलिमें रहता है, क्योंकि यहाँ उदयावलिमें गुणश्रेणिशीर्षका द्रव्य पाया जाता है जो कि उत्तरोत्तर असंख्यात गुणितक्रमसे स्थापित है, इसलिये जो जीव मिथ्यात्वकी अन्तिम स्थितिका खण्डन करके उदयावलिके भीतर प्रविष्ट है वह मिथ्यात्वके अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
६४८५. अब उत्कृष्ट स्वामित्वके विषयभूत द्रव्यके प्रमाणका विचार करते हैं जो इस प्रकार है -डेढ़ गुणहानिप्रमाण उत्कृष्ट समयप्रबद्धोंको स्थापित करके उनमें, तद्योग्य पल्यके असंख्यातवें भागसे भाजित अन्तिम फालिमें एक समय कम आवलिका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसका भाग देनेपर यह उत्कृष्ट द्रव्य आता है, क्योंकि यहाँ अन्तिम फालिके निषेकोंके भीतर गुणश्रेणि गोपुच्छाका द्रव्य प्रधान है। अथवा डेढ़गुणहानिसे गुणित उत्कृष्ट समयप्रबद्धको स्थापित करके उसमें, तत्प्रायोग्य पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणित अपकर्षण भागहारको कुछ कम करके उसका भाग देनेपर प्रकृत स्वामित्वसे सम्बन्ध रखनेवाला द्रव्य आता है ऐसा यहाँ कथन करना चाहिये। तथा इसी प्रकार आगे भी सर्वत्र कथन करना चाहिये। अब जिनका स्यामी इसीके समान है और जिनके स्वामीका जान इसीसे हो जाता है ऐसे र संक्रमणसे झीन स्थितिवालोंके स्वामित्वका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र आया है
* तथा वही उत्कर्षण और संक्रमणसे उत्कृष्ट झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका स्वामी है।
$ ४८६. इस सूत्रका अर्थ अवगतप्राय है। अब उदयसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करनेके लिये पृच्छासूत्र कहते है
* उदयसे झीन स्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है । १. "मिच्छत्तस्स उकस्सयो पदेस उदयो कस्स ।"-धव० श्रा०प० १०६५ ।
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गा० २२]
पदेस वित्तीय झीणाझीणचूलियाए सामित्त
४८७. सुगमं ।
* गुणिदकम्मंसि संजमासंजमगुणसेडी संजमगुणसेडी च एदाओ गुणडीओ काऊ मिच्छत्तं गदो । जाधे गुणसे डिसीसयाणि पढमसमयमिच्छादिस्सि उदयमागयाणि तावे तस्स उक्कस्सयमुदयादो भी हिदियं ।
४८८, एदस्स स्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा — जो गुणिदकम्मंसिओ संजमा संजमगुणसेडी संजमगुणसेडी चेदि एदाओ गुणसेडीओ सव्वुक्कस्स परिणामेहि काऊण परिणामपच्चएण मिच्छतं गओ तस्स पढमसमयमिच्छाइट्ठिस्स जाधे गुणसेडिसीसयाणि दो विएगीभूदाणि उदयमागदाणि ताधे मिच्छतस्स उक्कस्सयमुदयादो
२७६
डिदियं होदित्ति पदसंबंधो। कधमेदाओ दो वि गुणसेडीओ भिण्णकाल संबंधिणीच एयह काउंसक्किज्जंति ? ण, संजमगुणसेडिणिक्खेवायामादो संजमासंजमगुणसे डिणिक्खेवदीहत्तस्स संखेज्जगुणतेण कमेण कीरमाणीणं तासि तहाभावाविरोहादो । तदो गुणिदकम्मं सियलक्खणेणागंतूण सतमढवीदो उच्चट्टिय सव्वलहुं समयाविरोहेण
६४८७. यह सूत्र सुगम है ।
* कोई एक गुणितकर्माशवाला जीव संयमासंयमगुणश्रेणि और संयमगुणश्रेण इन दोनों गुणश्रेणियों को करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । इस प्रकार इस Grah जब मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त होते हैं तब वह उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है ।
$ ४८८. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं जो इस प्रकार है- जो गुणितकर्मांशवाला जीव सर्वोत्कृष्ट परिणामों के द्वारा संयमासंयमगुणश्रेणि और संयमगुणश्रेणि इन दोनों गुणश्रेणियों को करके अनन्तर परिणाम विशेषके कारण मिध्यात्वको प्राप्त हुआ उस मिध्यादृष्टि के प्रथम समय में जब दोनों ही गुणश्रेणिशीर्ष मिलकर उदयको प्राप्त होते हैं तब मिध्यात्वके उदयकी अपेक्षा उत्कृष्ट झीनस्थितिवाले कर्म परमाणु होते हैं यह इस सूत्रका वाक्यार्थ है
1
शंका- ये दोनों ही गुणश्रेणियाँ भिन्न कालसे सम्बन्ध रखती हैं, इसलिये इन्हें एकत्र कैसे किया जा सकता है ?
-
समाधान — नहीं, क्योंकि संयमगुणश्रेणिके निक्षेपकी दीर्घतासे संयमासंयमगुणश्रेणिके निक्षेपकी दीर्घता संख्यातगुणी है, इसलिये इन्हें क्रमसे करनेपर इनके एकत्र होनेमें कोई विरोध नहीं आता है।
किसी एक जीवने गुणित कर्मांशकी विधिसे आकर और सातवीं पृथिवीसे निकलकर अतिशीघ्र आगमोक्त विधिसे प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके उपशम सम्यक्त्वके कालको व्यतीत
१. 'गुणिदकम्मंसियस्स दोगुण सेडीसीसयस्स । - धव० ० ५० १०६५ । 'मिच्छत्तमी सगंताणुबंधिश्रसमत्तथी गिद्धीणं ।
तिरिउदएगंताण य विइया तइया य गुणसेडी ॥' - कर्मप्र० उदय गा० १३ ।
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२८०
जयधवलासहिदें कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ पढमसम्मत्तमुप्पाइय उवसमसम्मत्तद्धं वोलाविय अधापवत्त-अपुव्वकरणाणि करिय अपुवकरणचरिमसमयादो से काले गहिदसंजमासंजमो एयंताणुवढा वडिपढमसमयप्पहुडि जाव तिस्से चरिमसमो ति ताव पडिसमयमणंतगुणाए संजमासंजमविसोहीए विसुज्झतो अंतोमुदुत्तमेत्तकालं सव्वकम्माणं समयं पडि असंखेजगुणं दव्वमोड्डिय उदयावलियबाहिरे अंतोमुहुत्तायाममवहिदगुणसेढिणिक्खेवं काऊण पुणो अधापवत्तसंजदासंजदविसोहीए वि पदिदो संतो अंतोमुहुत्त कालं चदुहि वडि-हाणीहि गुणसेढिं काऊण पुणो वि ताणि चेव दो करणाणि करिय गहिदसंजमपढमसमयप्पहुडि मिच्छत्तपदेसग्गमसंखेज्जगुणाए सेढीए प्रोकड्डिय उदयावलियबाहिरहिदिमादि काण अंतोमुहत्तमेत्तहिदी संजदासंजदगुणसेदिणिक्खेवादो संखेज्जगुणहीणासु अंतोमुहुत्तमेत्त कालमवहिदगुणसेढिणिक्खेवमणंतगुणाए संजमविसोहीए करेमाणो संजदासंजदएयंताणुबडिचरिमसमयकदगुणसेढिणिक्खेवस्स संखेज्जे भागे गंतूण संखेजदिभागमेत्ते सेसे तदेयं ताणुवड्डिचरिमसमयकदगुणसेढिसीसएण सरिसं सगएयंताणुचड्डिचरिमसमयगुणसे ढिसीसयं णिक्विविय एवं दो वि गुणसेढिसीसयाणि एक्कदो काऊण पुणो अधापवत्तसंजदभावेण परिणमिय दोण्हमेदेसिमहिकयगुणसे ढिसीसयाणमुवरि
किया। अनन्तर वह अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणको करके अपूर्वकरणके अन्तिम समयसे अनन्तर समयमें संयमासंयमको प्राप्त हुआ। यहाँ इसके सर्वप्रथम एकान्तानुवृद्धिका प्रारम्भ होता है, इसलिये उसने एकान्तानुवृद्धिके प्रारम्भ होनेके प्रथम समयसे लेकर उसके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक प्रत्येक समयमें अनन्तगुणी संयमासंयमविशुद्धिसे विशुद्ध होकर अन्तर्मुहूर्त कालतक सब कर्मों के प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके उसे उदयावलिके बाहर अन्तर्मुहूर्त आयामबाले अवस्थित गुणश्रेणिरूपसे निक्षिप्त किया । फिर अधःप्रवृत्त संयतासंयत विशुद्धिसे भी गिरता हुआ अन्तर्मुहूर्त कालतक चार वृद्धि और चार हानियोंके द्वारा गुणश्रेणि की। इसके बाद फिर भी उन दो करणोंको करके संयमको प्राप्त हुआ। और इस प्रकार संयमको प्राप्त करके उसके प्रथम समयसे लेकर मिथ्यात्वके कर्मपरमाणुओंको असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे अपकर्पित करके उदयावलिके बाहरकी स्थितिसे लेकर संयतासंयतके गुणश्रेणिनिक्षेपसे संख्यातगुणी हीन अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितियों में अनन्तगुणी संयमसम्बन्धी विशुद्धिके द्वारा अन्तर्मुहूर्तकाल तक अवस्थित गुणश्रेणिका निक्षेप करता है। यहाँ पर संयतासंयतके एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामोंके अन्तिम समयमें किये गये गुणश्रेणिनिक्षेपके संख्यात बहुभागको बिताकर
और संख्यातवें भागकालके शेष रहने पर जो संयतासंयतके एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामोंके अन्तिम समयमें गुणश्रेणिशीर्षका निक्षेप किया गया है सो उसीके समान संयत भी अपने एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामोंके अन्तिम समयमें गुणश्रेणिशीर्षका निक्षेप करे। और इस प्रकार दोनों ही गुणश्रेणिशीर्षोंको एक करके फिर अधःप्रवृत्तसंयतभावको प्राप्त हो जाय । और इस
१. वड्ढावड्डी एवं भणिदे तासु चेव संजमासंजमसंजमलद्धीसु अलद्धपुव्वासु पडिलद्धासु तल्लाभपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहुत्तकालब्भतरे पडिसमयमणंतगुणाए सेटीए परिणामवड्डी गहेयव्बा; उवरुवरि परिणामवड्डीए वडावड्डीववएसालवणादो ।'-जयध० पु. का० ६३१६ ।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
२८१ अंतोमुहुत्तमेत्तकालं छवड्डि-हाणिपरिणामेहि ओकड्डिजमाणपदेसग्गस्स चउविहवडिहाणिकारणभूदेहि गुणसेटिं करेमाणो ताव गच्छदि जाव एवं पूरिदाणि गुणसेढिसीसयाणि दो वि दुचरिमसमयअपत्तउदयहिदियाणि त्ति । तदो से काले मिच्छत्तं गदस्स तस्स जाधे गुणसेढिसीसयाणि एत्तिएण पयत्तेण पूरिदाणि दो वि जुगवमुदिण्णाणि ताधे मिच्छत्तस्स उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं होदि त्ति एसो मुत्तस्स समुदायत्थो। कुदो एदस्स उदिण्णस्स उदयादो झीणहिदियत्तं ? ण, पुणो तप्पाओग्गत्ताभावं पेक्वियूण तहोचएसादो । एत्थ जाधे दो वि गुणसेढिसीसयाणि उदयावलियं ण पविसंति ताधे चेय संजदो किम मिच्छत्तं ण णीदो ? ण, अधापवत्तसंजदगुणसेढिलाहस्स अभावप्पसंगादो। जइ एवं, गुणसेढिसीसएम उदयावलियम्भंतरं पइहेसु मिच्छत्तं णेहामो उवरि अविणद्वेणुवसंजमेणावहाणफलाणुवलंभादो ति ? ण, मिच्छाइहिउदीरणादो विसोहिवसेणासंखेजगुणसंजदउदीरणाए जणिदलाहस्स एत्थ वि अभावावत्तीदो। ण च तत्थ मिच्छत्तस्स उदयाभावपुवउदीरणाभावेण पयदफलाभावो आसंकणिजो, प्रकार इस भावको प्राप्त करके अधिकृत दोनों ही गुणश्रोणिशीर्णो के आगे अपकर्षणको प्राप्त होनेवाले कर्मपरमाणुओंके चार प्रकारकी हानि और वृद्धियोंके कारणभूत छह प्रकारकी वृद्धि और हानिरूप परिणामोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्त कालतक गुणश्रेणिको करता हुआ तब तक जाता है जब जाकर पूर्वोक्त विधिसे पूरे गये दोनों ही गुणश्रेणिशीर्ष उदयस्थितिके उपान्त्य समयको प्राप्त होते हैं। इसके बाद तदनन्तर समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होने पर इसके इतने प्रयत्नसे पूरे गये दोनों ही गुणश्रेणिशीर्षे मिलकर उदयमें आते हैं तब मिथ्यात्वके उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु होते हैं । इस प्रकार यह इस सूत्रका समुदायार्थ है।
शंका-जब कि ये उदयप्राप्त हैं तब ये उदयसे झीनस्थितिवाले कैसे हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ये फिरसे उदययोग्य नहीं हो सकते, इसलिये इन्हें उदयसे झीनस्थितिवाला कहा है।
शंका-यहाँ दोनों ही गुणश्रेणिशीर्षों के उदयावलिमें प्रवेश करनेके पहले संयतको मिथ्यात्व गुणस्थान क्यों नहीं प्राप्त कराया गया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ऐसा करनेसे इसके अधःप्रवृत्तसंयतके होनेवाली गुणश्नेणिके लाभका अभाव प्राप्त होता।
शंका-यदि ऐसा है तो गुणश्रेणिशीर्षोंके उदयावलिमें प्रवेश करनेपर मिथ्यात्व गुणस्थानमें ले जाना उचित था, क्योंकि इसके आगे संयमका नाश किये बिना उसके साथ रहनेका कोई फल नहीं पाया जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यादृष्टिके होनेवाली उदीरणाकी अपेक्षा विशुद्धिके कारण संयतके होनेवाली असंख्यातगुणी उदीरणासे होनेवाला लाभ ऐसी हालतमें भी नहीं बन सकेगा, इसलिये गुणश्रोणिशीर्षोंके उदयावलिमें प्रवेश करते ही इसे मिथ्यात्वमें नहीं ले गये हैं।
यदि कहा जाय कि संयतके मिथ्यात्वका उदय न हो सकनेसे उदीरणा भी नहीं हो सकती, इसलिये यहाँ उदीरणासे होनेवाले फलकी प्राप्ति नहीं हो सकती सो ऐसी आशंका करना भी ठीक
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२८२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सम्मत्तथिवुक्कसंकममस्सियूण लाहदसणादो। अण्णं च आवलियमेत्तकालावसेसे मिच्छत्तं गच्छमाणो पुवमेव संकिलिस्सदि ति विसोहिणिबंधणो गुणसेढिलाहो बहुओ ण लब्भदि । ण च संकिलेसावूरणेण विणा मिच्छत्ताहिमुहभावसंभवो, तस्स तदविणाभावित्तादो। तेण कारणेण जाव गुणसेढिसीसयाणि दुचरिमसमयअणुदिण्णाणि ताव संजदभाबणच्छाविय पुणो से काले एगंताणुवडिचरिमगुणसे ढिसीसयाणि दो वि एकलग्गाणि उदयमागच्छिहिति त्ति मिच्छत्तं गदपढमसमए उकस्सयउदयादो झीणहिदियस्स सामित्तं दिण्णं । एत्थ पमाणाणुगमो जाणिय काययो। अहवा गुणसे ढिसीसयाणि त्ति वुत्ते दोण्हमोघचरिमगुणसेढिसीसयाणि सव्वुकस्सविसोहिणिबंधणाणि घेप्पंति ण एयंतवडावडिचरिमगुणसेढिसीसयाणि, तत्थतणचरिमविसोहीदो अधापवत्तसंजदसत्थाणविसोहीए अणंतगुणत्तादो। ण चेदं णिण्णिबंधणं, लद्धिहाणपरूवणाए परूविस्समाणप्पाबहुअणिबंधणत्तादो। तदो ओघचरिमसंजदासंजदगुणसेढिसीसयस्सुवरि सबविसुद्धसंजदणिक्खित्तगुणसे ढिसीसयमेत्थ घेत्तव्यं । एवं घेतूण एदमणंतगुणविसोहीए कदगुणसेढिसीसयदव्वं संजदासजदगुणसेढिसीसएण सह जाधे पढमसमयमिच्छादिहिस्स उदयमागयं ताधे उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियमिदि सामित्तं वत्तव्यं । नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्वसम्बन्धी स्तिवुक संक्रमणकी अपेक्षा लाभ देखा जाता है। दूसरे एक आवलिकालके शेष रहने पर यदि इस जावको मिथ्यात्वमें ले जाते हैं तो वह पहलेसे संक्लिष्ट हो जायगा और ऐसी हालतमें विशुद्धिनिमित्तक अधिक गुणश्रेणिका लाभ नहीं हो सकेगा। यदि कहा जाय कि संक्लेशरूप परिणाम हुए बिना ही मिथ्यात्वके अनुकूल भाव हो सकते हैं सो भी बात नहीं है, क्योंकि इन दोनोंका परस्परमें अविनाभाव सम्बन्ध है, इसलिये जब तक गुणश्रेणिशीर्ष उदयके उपान्त्य समयको नहीं प्राप्त होते तब तक इस जीवको संयत ही रहने दे। किन्तु तदनन्तर समयमें एकान्तानुवृद्धिके अन्तिम समयमें की गई दोनों ही गुणश्रेणियाँ उदयको प्राप्त होंगी, इसलिये मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें ही उदयसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमणुओंका स्वामी बतलाया है। यहाँ इनके प्रमाणका विचार जानकर कर लेना चाहिये। अथवा गुणश्रेणिशीर्ष ऐसा कहने पर संयमासंययम और संयम इन दोनों अवस्थाओंके सबसे उत्कृष्ट विशुद्धिके निमित्तसे अन्तमें होनेवाले ओघ गुणश्रेणिशीर्ष लेने चाहिये, एकान्तवृद्धिके अन्तमें होनेवाले गुणश्रेणिणीर्ष नहीं, क्योंकि एकान्तवृद्धिके अन्तमें होनेवाली विशुद्धिसे अधःप्रवृत्तसंयतकी स्वस्थानविशुद्धि अनन्तगुणी होती है। यदि कहा जाय कि यह कथन अहेतुक है सो भी बात नहीं है, क्योंकि लब्धिस्थानोंका कथन करते समय जो अल्पबहुत्व कहा है उससे इसकी पुष्टि होती है, इसलिये ओघसे अन्तमें प्राप्त हुए संयतासंयतके गुणश्रेणिशीर्षके ऊपर सर्वविशुद्ध संयतके प्राप्त हुआ गुणश्रेणिशीर्षका यहाँ पर ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार अनन्तगुणी विशुद्धिसे निष्पन्न हुआ यह गुणश्रेणिशीर्षका द्रव्य संयतासंयतसम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्षके साथ जब मिथ्यात्वके प्रथम समयमें उदयको प्राप्त होता है तब उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है ऐसा यहाँ कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ—यहाँ मिथ्यात्व कर्मकी अपेक्षा उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्म
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गा० २२ ]
पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
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परमाओंका स्वामी बतलाते हुए जो कुछ लिखा है उसका आशय यह है कि ऐसा जीव एक तो गुणितकौशवाला होना चाहिये, क्योंकि अन्य जीवके कर्मपरमाणुओंका उत्कृष्ट संचय नहीं हो सकता। दूसरे गुणितकर्माश होनेके बाद यथासम्भव अतिशीघ्र संयमासंयम और तदनन्तर संयमकी प्राप्ति कराकर इसे एकान्तवृद्धि परिणामों के द्वारा संयमासंयम गुणश्रेणि और संयमगुणश्रेणिकी प्राप्ति करा देनी चाहिये। किन्तु इनकी प्राप्ति इस ढंगसे करानी चाहिये जिससे इन दोनों गुणश्रेणियोंका शीर्ष एक समयवर्ती हो जाय । फिर गुणश्रेणिशीर्षों के उपान्त्य समयके प्राप्त होने तक जीवको वहीं संयमभाव के साथ रहने देना चाहिये । किन्तु जब तक यह जीव संयमभावके साथ रहे तब तक भी इसके गुणनेणिका क्रम चालू ही रखना चाहिये, क्योंकि जब तक संयमासंयमरूप या संयमरूप परिणाम बने रहते हैं तब तक गुणश्रेणिरचनाके चालू रहनेमें कोई बाधा नहीं
आती। बात इतनी है कि इन दोनों भावोंकी प्राप्ति होनेके प्रथम समयसे एकान्तवृद्धिरूप परिणाम होते हैं, इसलिये इनके निमित्तसे गुणश्रेणिरचना होती है और बादमें अधःप्रवृत्तसंयमासंयम या अधःप्रवृत्तसंयमरूप अवस्था आ जाती है, इसलिये इनके निमित्तसे गुणश्रेणि रचना होने लगती है। जिन परिणामोंकी अन्तर्मुहूर्त काल तक उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि होती जाती है
और जिनके होनेपर स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात तथा स्थितिबन्धापसरण ये क्रियाएँ पूर्ववत् चालू रहती हैं वे एकान्तवृद्धिरूप परिणाम हैं। तथा जिनके होने पर स्वस्थानके योग्य संक्लेश और विशुद्धि होती रहती है वे अधःप्रवृत्त परिणाम हैं। एकान्तवृद्धिरूप परिणामोंके होने पर मिथ्यात्वकर्मकी अपेक्षा गुणश्रेणिरचनाका क्रम इस प्रकार है
संयमासंयमगुणको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें उपरिम स्थितिमें स्थित द्रव्यका अपकर्षण करके उदयावलिके बाहर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितियोंमें गुणश्रेणिशीर्षतक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे द्रव्यका निक्षेप करता है। अर्थात् उदयावलिके बाहर अनन्तर स्थित स्थितिमें जितने द्रव्यका निक्षेप करता है उससे अगली स्थितिमें उससे भी असंख्यातगुणे द्रव्यका निक्षेप करता है। इस प्रकार यह क्रम गुणश्रेणिशीर्ष तक जानना चाहिये। किन्तु गुणश्रेणिशीर्षसे अगली स्थितिमें असंख्यातगुणे हीन द्रव्यका निक्षेप करता है और इसके आगे विशेष हीन द्रव्यका निक्षेप करता है। दूसरे समयमें प्रथम समयकी अपेक्षा भी असंख्यातगुणे द्रव्यका पूर्वोक्त क्रमसे निक्षेप करता है। इस प्रकार एकान्तानुवृद्धिका काल समाप्त होने तक यही क्रम चालू रहता है।
किन्तु अधःप्रवृत्तरूप परिणामोंकी अपेक्षा गुणश्रेणिरचनाके क्रममें कुछ अन्तर है। बात यह है कि अधःप्रवृत्तरूप परिणाम सदा एकसे नहीं रहते किन्तु संक्लेश और विशुद्धिके अनुसार उनमें घटाबढ़ी हुआ करती है, इसलिये जब जैसे परिणाम होते हैं तब उन परिणामोंके अनुसार गुणश्रेणि रचनामें भी कर्म परमाणु न्यूनाधिक प्राप्त होते हैं। विशुद्धिकी न्यूनाधिकताके अनुसार कभी प्रति समय असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके गुणश्रेणि रचना करता है। कभी प्रति समय संख्यातगुणे संख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके गुणश्रेणि रचना करता है। इसी प्रकार कभी प्रति समय संख्यातवें भाग अधिक या कभी असंख्यातवें भाग अधिक द्रव्यका अपकर्षण करके गुणनोणि रचना करता है। और यदि संक्लेशरूप परिणाम हुए तो उनमें भी जब जैसी न्यूनाधिकता होती है उसके अनुसार कभी असंख्यातगुणे हीन कभी संख्यातगुणे हीन और कभी संख्यातवें भाग हीन और कभी असंख्यातवें भाग हीन द्रव्यका अपकर्षण करके गुणश्रेणिरचना करता है। इस प्रकार संयमासंयम और संयमके अन्त तक यह क्रम चालू रहता है।
यदि संयमासंयम या संयमसे च्युत होकर अतिशीघ्र इन भावोंको जीव पुनः
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ॐ सम्मत्तस उक्कस्सयमोकडणादो उक्कड्डणादो संकमणादो उदयादो च झीणहिदियं कस्स।
४८६. सुगममेदं पुच्छासुतं । णवरि उदयावलियबाहिरहिदिसमवद्विदस्स सम्मत्तपदेसाणं बज्झमाणमिच्छत्तस्सुवरि समहिदीए संकेताणमुक्कड्डणासंभवं पेक्खियूण सम्मत्तस्स तत्तो झीणाझीणहिदियत्तमेत्थ घेत्तव्वं, अण्णहा तदणुववत्तीदो।
ॐ गुणिदकम्मसिनो सव्वलहुं दसणमोहणीयं कम्म खवेदुमाढत्तो प्राप्त करता है तो एकान्तवृद्धिरूप परिणाम और उनके कार्य नहीं होते। यहाँ एकान्तवृद्धिमें उत्तरोत्तर प्रति समय अनन्तगुणी परिणामोंकी विशुद्धि होती जाती है, इसलिये संयमासंयमी और संयमीके इन परिणामों के अन्तमें जो गुणश्रेणिशीर्ष होते हैं उनकी अपेक्षा यहाँ उत्कृष्ट स्वामित्व कहा है अथवा यद्यपि अधःप्रवृत्तरूप परिणाम घटते बढ़ते रहते हैं तथापि सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिके कारणभूत ये परिणाम अन्तिम समयमें होनेवाले एकान्तवृद्धिरूप परिणामोंसे भी अनन्तगुणे होते हैं, अतः इन परिणामोंके निमित्तसे जो गुणश्रोणिशीर्ष प्राप्त हों उनकी अपेक्षा यहाँ उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिये। इस प्रकार मिथ्यात्वकी अपेक्षा उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका उत्कृष्ट स्वामी कौन है इसका विचार किया। यहाँ उत्कृष्ट स्वामित्वका विचार करते हुए टीकामें अनेक शंका प्रतिशंकाएँ की गई हैं पर उनका विचार वहाँ किया ही है, अतः उनका यहाँ निर्देश नहीं किया।
* सम्यक्त्वके अपकर्षणसे, उत्कर्षणसे संक्रमणसे और उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ।
६४८६. यह पृच्छासूत्र सरल है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उदयावलिके बाहरकी स्थिति में स्थित जो सम्यक्त्वके प्रदेश बंधनेवाले मिथ्यात्वके ऊपर समान स्थितिमें संक्रान्त होते हैं उनका उत्कर्षण सम्भव है इसी अपेक्षासे ही यहाँ सम्यक्त्वके उत्कर्षणसे झीनाझीनस्थितिपनेका ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा सम्यक्त्वक उत्कर्षणसे झीनाझीनस्थितिपना नहीं बन सकता।
विशेषार्थ—सम्यक्त्व यह बँधनेवाली प्रकृति नहीं है, इसलिये इसका अपने बन्धकी अपेक्षा उत्कर्षण ही सम्भव नहीं है। हाँ मिथ्यात्वके बन्धकालमें सम्यक्त्वके कर्मपरमाणुओंका मिथ्यात्वमें संक्रमण होकर उनका उत्कर्षण हो सकता है । यद्यपि यह संक्रमित द्रव्य मिथ्यात्वका एक हिस्सा हो गया है तथापि पूर्वमें ये सम्यक्त्वके परमाणु रहे इस अपेक्षासे इस उत्कर्षणको सम्यक्त्वके कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण कहने में भी आपत्ति नहीं। इस प्रकार इस अपेक्षासे सम्यक्त्वके परमाणुओंका उत्कर्षण मानकर फिर यह विचार किया गया है कि सम्यक्त्वके कौनसे कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले हैं और कौनसे कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे अमीन स्थिातेवाले हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो सम्यक्त्व प्रकृतिके कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण ही घटित नहीं होता है। और तब फिर सम्यक्त्वका उत्कर्षणसे झीनाझीन स्थितिपना भी कैसे बन सकता है। अर्थात् नहीं बन सकता है। इसलिये सम्यक्त्वके उत्कर्षणकी व्यवस्था उक्त प्रकारसे करके ही झीनाझीनस्थितिपनेका विचार करना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* जिस गुणित कर्मोशवाले जीवने अतिशीघ्र दर्शनमोहनीय कर्मके क्षय करनेका
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
२८५ अघडिदियं गलतं जाधे उदयावलियं पविस्समाणं पविताधे उक्कस्सयमोकड्डणादो वि उक्कड्डणादो वि संकमणादो वि झीणहिदियं । ___६४६०. एदस्स तिण्हं झीणहिदियाणं सामित्तपरूवणासुत्तस्स अत्थो-जो गुणिदकम्मंसिओ पुव्वविहाणेणागदो सव्वलहुं दंसणमोहणीयं कम्म खवेदुमाढत्तो अपुचअणियट्टिकरणपरिणामेहि बहुएहि हिदिअणुभागखंडएहि मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते संछुहिय पुणो तं पि पलिदोवमस्स असंखे० भागमेत्तचरिमहिदिखंडयचरिमफालिसरूवेण सम्मत्ते संछुहंतो सम्मत्तस्स वि तत्कालिएण द्विदिखंड एण पलिदोवमासंखेजदि भागिएण अहवस्समेत्तहिदिसंतकम्मावसेसं काऊण तत्थ संछुहिय पुणो वि संखेजहिदिखंडयसहस्सेहि सम्मत्तहिदिमइदहरीकरिय कदकरणिज्जो होदूणावहिदो तस्स अधद्विदियं गलतं सम्मत्तं जाधे कयेण उदयावलियं पविसमाणं संतं णिरवसेसं पइ ताधे आवलियमेत्तगुणसे ढिगोवुच्छा ओदरिय अवहिदस्स ओकड्डणादो वि उक्कड्डणादो वि संकमणादो वि झीणहिदियं पदेसग होइ । एत्थ उदयावलियं पविसमाणं पविटमिदि वयणमक्कमपवेसासंकाणिरायरणदुवारेण कम्मपदेसप्पदुप्पायण दहव्वं । सेसं सुगमं । आरम्भ किया है उसके अधःस्थितिके द्वारा गलता हुआ सम्यक्त्व जब उदयापलिमें प्रवेश करता है तब वह अपकर्षणसे, उत्कर्षणसे और संक्रमणसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कमेपरमाणुओंका स्वामी होता है।
६४६०. अब तीन झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके स्वामित्वका कथन करनेवाले इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-पूर्वविधिसे आये हुए गुणितकर्मांशवाले जिस जीवने अतिशीघ्र दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयका आरम्भ करके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके निमित्तसे बहुतसे स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकोंके द्वारा मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमित किया। फिर सम्यग्मिथ्यात्वको भी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिरूपसे सम्यक्त्वमें संक्रषित किया। फिर सम्यक्त्वका भी उसी समय होनेवाले पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिका डकके द्वारा आठ वर्षप्रमाण स्थिति सत्कर्म शेष रखकर शेषको उसी शेष स्थितिमें निक्षिप्त किया। इसके बाद फिर भी संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके द्वारा सम्यक्त्व की स्थितिको अत्यन्त हस्व करके जो कृतकृत्य होकर स्थित हुआ उसके अधःस्थितिके द्वारा गलता हुआ सम्यक्त्व जब क्रमसे उद्यावलिमें पूराका पूरा प्रवेश कर जाता है तब एक आवलिप्रमाण गोपुच्छा उतर कर स्थित हुए इस जीवके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण इन तीनोंसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु होते हैं। यहाँ सूत्र में जो 'उद्यावलियं पविसमाणं पविट्ठ' यह वचन कहा है सो यह युगपत् प्रवेशकी आशंकाके निराकरण द्वारा क्रमसे होनेवाले प्रवेशका सूचन करनेके लिये जानना चाहिये। शेष कथन सुगम है।
विशेषार्थ-इस सूत्रमें अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा सम्यक्त्वके झीन स्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंके स्वामीका निर्देश किया है। यद्यपि यहाँ जो दृष्टान्त दिया है
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ४६१. संपहि उदयादो उक्कस्सझीणहिदियस्स सामित्तविसेसपरूवणमुत्तरमुत्तस्सावयारो
* तस्लेव चरिमसमयअक्खीणदसणमोहणीयस्स सव्वमुदयं तमुक्कस्सयमदयादो झीणहिदियं । .
___४६२. तस्सेव पुचपरूविदजीवस्स पुणो वि गालिदसमयूणावलियमेत्तगोवुच्छस्स चरिमसमय अक्खीणदसणमोहणीयभावे वट्टमाणस्स ज सव्वमुदयं तं पदेसगं तमुक्कस्सयमुदयादो झीगहिदियमिदि सुतत्थसंबंधो । एत्थ सबमुदयं तमिदि वुत्ते सर्वेषामुदयानामन्त्यं निःपश्चिममुदयप्रदेशाग्र सर्वोदयान्त्यमिति व्याख्येयं । कुदो पुण एदस्स सव्वोदयंतस्स सव्वुक्कस्सत्तं ? ण, दंसणमोहणीयदव्वस्स सव्वस्सेव त्थोवणस्स पुजीभूदस्सेत्थुवलंभादो। तदो चेयं पाठंतरमवलंबिय वक्खाणंतरमेत्थ चरिमसमयअक्खीणं जं दंसणमोहणीयं तस्स जो सव्वोदो अविवक्खियकिंचूणभावो तं घेत्तूण उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं होदि ति । वह दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समयका है और तब न तो सम्यक्त्वका संक्रमण ही होता है
और न उत्कर्षण ही। तथापि उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणु इन तीनोंके अयोग्य है इस सामान्य कथनके अनुसार उनका उत्कृष्ट प्रमाण कहाँ प्राप्त होता है इस विवक्षासे यह स्वामित्व जानना चाहिये। __६४६१. अव उदयसे उत्कृष्ट झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके स्वामित्वविशेषका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं___* जिसने दर्शनमोहनीयकी पूरी क्षपणा नहीं की है ऐसे उसी जीवके दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके अन्तिम समयमें जो सब कर्मपरमाणु उदयमें आते हैं वे उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु हैं ।
६४६२. जिसने और मी एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको गला दिया है और दर्शनमोहनीयकी पूरी क्षपणा न होनेसे उसके अन्तिम समयमें विद्यमान है ऐसे उसी पूर्वमें कहे गये जीवके जो सम्यक्त्वके सब कर्मपरमाणु उद्यमें आते हैं वे उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु हैं यह इस सूत्रका अभिप्राय है। यहाँ सूत्र में जो 'सव्वमुदयं तं, ऐसा कहा है सो इस पदका ऐसा व्याख्यान करना चाहिये कि सब उदयोंके अन्तमें जो कर्मपरमाणु हैं वे यहाँ लिये गये हैं।
शंका-सब उदयोंके अन्तमें स्थित ये कर्मपरमाणु सबसे उत्कृष्ट कैसे है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि दर्शनमोहनीयका कुछ कम सब द्रव्य एकत्रित होकर यहाँ पाया जाता है, इसलिये ये कर्मपरमाणु सबसे उत्कृष्ट हैं। उक्त सूत्रका यह एक व्याख्यान हुआ। अब पाठान्तरका अवलम्ब लेकर इसका दूसरा व्याख्यान करते हैं। यथा-अन्तिम समयमें जो अक्षीण दर्शनमोहनीय है उसका जो सर्वोदय है उसकी अपेक्षा उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कम परमाणु होते हैं । यहाँ किंचित् ऊनपनेकी विवक्षा न करके सर्वोदय पदका प्रयोग किया है इतना विशेष जानना चाहिए।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणामीणचूलियाए सामित्तं
® सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सयमोकड्णादो उक्कडणादो संकमणादो च झीणहिदियं कस्स।
४६३. सुगममेदं पुच्छासुतं । गवरि सम्मत्तस्सेव एत्थ उक्कड्डणादो झीणहिदियस्स संभवो वत्तव्यो।
* गुणिदकम्मंसियस्स सव्वलहुं दसणमोहणीयं खवमाणस्स सम्मामिच्छत्तस्स अपच्छिमहिदिखंडयं संछुभमाणयं संछुद्धमुदयावलिया उदयवज्जा
विशेषार्थ-प्रकृत सूत्रमें सम्यक्त्वकी अपेक्षा उदयसे झीन स्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है यह बतलाया है। गुणितकांशकी विधिसे आकर जिसने अतिशीघ्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ किया है वह पहले मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें और सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमें प्रक्षिप्त करनेके बाद कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होता है। फिर सम्यक्त्वको अधःस्थितिके द्वारा गलाता हुआ क्रमसे उदयके अन्तिम समयको प्राप्त होता है । इस प्रकार इस उदय समयमें सम्यक्त्वका जितना द्रव्य पाया जाता है उतना अन्यत्र सम्भव नहीं, इसलिये इसे उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी बतलाया है। यहाँ सूत्र में आये हुए 'चरिमसमयअक्खीणदसणमोहणीयल्स सव्वमुदयं इसके दो पाठ मानकर दो अर्थ सूचित किये गये हैं। प्रथम पाठ तो यही है और इसके अनुसार 'चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स' यह सूत्र में आये हुए तिस्सेव' पदका विशेषण हो जाता है और 'सव्वमुदयं' पाठ स्वतन्त्र हो जाता है। किन्तु दूसरा पाठ 'चरिमसमयअक्खीणदसणमोहणीयसव्वोदयं' ध्वनित होता है ! और इसके अनुसार 'अन्तिम समयमें अक्षीण जो दर्शनमोहनीय उसका जो सर्वोदय उसकी अपेक्षा' यह अर्थ प्राप्त होता है। मालूम होता है कि ये दो पाठ टीकाकारने दो भिन्न प्रतियोंके आधारसे सूचित किये हैं। फिर भी वे प्रथम पाठ को मुख्य मानते रहे, इसलिये उसे प्रथम स्थान दिया और पाठान्तररूपसे दूसरेकी सूचना की। यहाँ पाठ कोई भी विवक्षित रहे तब भी निष्कर्षमें कोई फरक नहीं पड़ता, क्योंकि यह दोनों ही पाठोंका निष्कर्ष है कि इस प्रकार सम्यक्त्वकी क्षपणाके अन्तिम समयमें जो उदयगत कर्मपरमाणु प्राप्त होते हैं वे उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु हैं। ____ * सम्यग्मिथ्यात्वके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणसे झीन स्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ।
४६३. यह पृच्छासूत्र सुगम है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ पर सम्यक्त्वके समान ही उत्कर्षणसे झीनस्थितिपनेके सद्भावका कथन करना चाहिये । आशय यह है सम्यक्त्वके समान सम्यग्मिथ्यात्वका भी बन्ध नहीं होता, इसलिये अपने बन्धकी अपेक्षा इसका उत्कर्षण नहीं बन सकता। अतएव जिस क्रमसे सम्यक्त्वमें उत्कर्षण घटित करके बतला आये हैं वैसे ही सम्यग्मिथ्यात्वमें घटित कर लेना चाहिये।
* अति शीघ्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले गुणितकर्माशवाले जिस जीवके सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकका क्रमसे क्षेपण हो गया है और
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ भरिदल्लिया तस्स उक्कल्सयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियं ।
$४६४. एदस्स सामित्तविहाययसुत्तस्सासेसावयवत्थपरूवणा सुगमा, मिच्छत्तसामित्त सुत्तम्मि परूविदत्तादो। णवरि उदयावलिया ति बुते उदयसमयं मोत्तण समयूणावलियमेत्तदंसणमोहणीयक्खवणगुणसे ढिगोवुच्छाहि जावदि सक ताव आरिदपदेसग्गाहि उदयावलिया संपुण्णीकया त्ति घेतव्वं । उदयसमओ किमिदि वज्जिदो ? ण, उदयाभावेण तस्स त्थिवुकसकमेण सम्मत्तदयगोवुच्छाए उवरि संकमिय विपच्चंतस्स एत्थाणुवजोगित्तादो ।
* उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं कस्स । ४६५. सुगम ।
ॐ गुणिदकम्मंसिओ संजमासंजम-संजमगुणसेढीयो काऊण ताधे गदो सम्मामिच्छत्तं जाधे गुणसेढिसीसयाणि पढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स
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उदयसमयके सिवा शेष उदयावलि पूरित हो गई है वह सम्यग्मिथ्यात्वके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणसे झीन स्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है ।
६४६४. स्वामित्वका विधान करनेवाले इस सूत्रके सब अवयवोंका अर्थ सुगम है, क्योंकि मिथ्यात्वके स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्र में उनका प्ररूपण कर आये हैं। किन्तु सूत्र में जो 'उदयावलिया उदयवज्जा भरिदल्लिया' ऐसा कहा है सो इसका आशय यह है कि उदयसमय के सिवा एक समय कम उदयावलिप्रमाण जो दर्शनमोहनीयकी क्षपणासम्बन्धी गोपुच्छाए हैं, जो कि यथासम्भव अधिकसे अधिक कर्मपरमाणुनोंसे पूरित की गई हैं, उनसे उदयावलिको परिपूर्ण करे।
शंका-यहाँ उदय समयका वर्जन क्यों किया गया है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वका उदय न होनेसे वह उदयसम्बन्धी गोपुच्छा स्तिवुक संक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वकी उदयसम्बन्धी गोपुच्छामें संक्रमित होकर फल देने लगती है, इसलिये वह यहाँ उपयोगी नहीं है।
विशेषार्थ-जो गुणितकाशवाला जीव अतिशीघ्र आकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता है उसके सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकका पतन हो जानेके बाद जो एक समय कम उदयावलि प्रमाण कर्म परमाणु शेष रहते हैं वे अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु हैं यह इस सूत्रका भाव है। शेष विशेषता जैसे सम्यक्त्वके उत्कृष्ट स्वामित्वका विशेष खुलासा करते समय लिख आये है उसी प्रकार यहाँ भी जान लेनी चाहिये ।
* उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्म परमाणुओं का स्वामी कौन है। ६४६५. यह सूत्र सुगम है।
* गुणितकौशवाला जो जीव संयमासंयम और संयमसम्बन्धी गुणश्रेणियोंको करके तब सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ जब सम्यग्मिथ्यात्वका प्राप्त होनेके प्रथम
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पदेसवित्तीय मीणा भी चूलियाए सामित्तं
गा० २२ ] उदयमागदाणि तावे तस्स पढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स उक्कस्सयमुदयादो भीडिदियं ।
९ ४६६, एत्थ जो गुणिदकम्मंसिओ संजमा संजम - संजमगुणसेढीओ काऊण ता सम्मामिच्छतं गदो जाधे पढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स गुणसेढिसीसयाणि उदयमागयाणि ति पदसंबंधो कायव्वो । सेसपरूवणाए मिच्छत्तभंगो ।
४६७, एत्थ के वि आइरिया एवं भणति – जहा सम्मामिच्छत्तस्स उदयादो झी हिदियं णाम अत्थसंबंधेण संजदासंजद-संजदगुणसेंढीओ काऊण पुणो अनंताणुविजयणगुणीए सह जाधे एदाणि तिण्णि वि गुणसेढिसीसयाणि पढमसमयसम्मामिच्छास्सि उदयमागच्छति ताघे तस्स उक्कस्तयं होइ, अणंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेडीए सुत्तपरुविददोगुणसेढीहिंतो पदेसरगं पडच असंखेज्जगुणत्तादो । जइ वि संजमा संजम - संजमगुणसेढीओ अनंताणुबंधिविसंजोयणाए ण लब्धंति तो वि एदीए चेव पज्जतं तत्तो असंखेज्जगुणत्तादो | णवरि अनंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेढिसीसयं गंथयारेण ण जोइदमिदि ण एदं घडदे | कुदो १ अनंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेढी अणि सरूवाए अच्छंतीए सम्मामिच्छत्तगुणपरिणमणाभावादो । एदं कुदो
वदे १ एदम्हादो चैव सुत्तादो। ण च संतमत्थं ण परूवेदि सुचं, तम्स अव्वावयत्तसमय गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त होते हैं तो प्रथम समयवर्ती वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है ।
$ ४६६. यहाँ पर जो गुणितकर्माशिवाला जीव संयमासंयम और संयम सम्बन्धी गुणश्रेणियोंको कर तब सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ जब सम्यग्मिध्यादृष्टि के प्रथम समय में गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त होते हैं इस प्रकार पदोंका सम्बन्ध कर लेना चाहिये । शेष प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान है ।
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४७. यहाँपर कितने ही आचार्य इस प्रकार कथन करते हैं कि उदयसे सम्यग्मिथ्यात्वका झीनस्थितिपना जैसे किसी एक गुणितकर्यांशवाले जीवने संयतासंयत और संयतकी गुणश्रेणियोंको किया । फिर उसके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्षके साथ जब ये तीनों ही गुणश्रेणिशीर्ष सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के प्रथम समय में उदयको प्राप्त होते हैं तब उसके उत्कृष्ट झोनस्थिति द्रव्य होता है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणिसूत्रमें कही गईं दो गुणश्रेणियाँ कर्मपरमाणुओं की अपेक्षा
संख्यातगुणी होती हैं । यद्यपि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके समय संयमासंयम और संयमसम्बन्धी गुण खियाँ नहीं प्राप्त होती हैं तो भी यही केवल पर्याप्त है, क्यों कि यह उन दोनोंसे असंख्यातगुणी होती है । किन्तु ग्रन्थकारने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्ष को नहीं जोड़ा है इसलिये यह बात नहीं बनती, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुण के निजी हुए बिना रहते हुए सम्यग्मिथ्यात्वगुणकी प्राप्ति नहीं होती । शंका यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- इसी सूत्र से जाना जाता है ।
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Pravrrrrwa
२६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ दोसप्पसंगादो।
४६८. अण्णं च एदस्स णिबंधणमस्थि । तं जहा--संतकम्ममहाहियारे कदि-वेदणादिचउवीसमणियोगद्दारेसु पडिबद्ध उदओ णाम अत्याहियारो डिदि-अणुभाग-पदेसाणं पयडिसमण्णियाणमुक्कस्साणुक्कस्सजहण्णाजहण्णुदयपरूवणेयवावारो, तत्थुक्कस्सपदेसुदयसामित्त साहण सम्पत्तप्पत्तियादिएकारसगुणसेढीओ परूविय पुणो जाओ' गुणसेंढीओ संकिलेसेण सह भवंतरं संकामेति ताओ वत्तइस्सामो। तं जहा--उयसमसम्मत्तगुणसेंढी संजदासंजदगुणसेढी अधापवत्तसंजदगुणसेढी ति. एदाओ तिगिण गुणसेढीओ अप्पसत्थमरणेण वि मदस्स परभवे दीसंति । सेसासु गुणसेढीमु झीणासु अप्पसत्थमरणं भवे इदि वृत्तं तं पि केणाहिप्पाएण वुत्तं, उक्कस्ससंकिलेसेण सह तासि विरोहादो त्ति । तं पि कुदो ? संकिलेसावरणकालादो पयदगुणसेढीणमायामस्स संखेज्जगुणहीणतब्भुवगमादो। तदो एदेण साहणेण एत्थ वि तासि
____ यदि कहा जाय कि सूत्र विद्यमान अर्थका कथन नहीं करता है सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर सूत्रको अव्यापकत्व दोषका प्रसंग प्राप्त होता है ।
६४६८. तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणनेणिक सद्भावमें जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणको नहीं प्राप्त होता इसका एक अन्य कारण है जो इस प्रकार है--कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वारोंसे सम्बन्ध रखनेवाले सत्कर्म महाधिकारमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यरूप उदयके कथन करने में व्यापृत एक उदय नामका अधिकार है। वहाँ उत्कृष्ट प्रदेशोदयके स्वामित्वका साधन करनेके लिये सम्यक्त्वकी उत्पत्ति आदि ग्यारह गुणश्रेणियोंका कथन करने के बाद फिर “जो गणश्रेणियाँ संक्लेशरूप परिणामोंके साथ भवान्तरमें जाती हैं उन्हें बतलाते हैं। जैसे-उपशम सम्यक्त्वगुणणि, संयतासंयतगुणश्रोणि और अधःप्रवृत्तसंथतगुणश्रेणि इस प्रकार ये तीन गुणश्रेणियां अप्रशस्त मरणके साथ भी मरे हुए जीवके परभवमें दिखाई देती हैं। किन्तु शेष गुणश्रेणियों के क्षयको प्राप्त होने पर ही अप्रशस्त मरण होता है। यह कहा है सो यह किस अभिप्रायसे कहा है ? मालूम होता है कि शेष गुणश्रेणियोंका उत्कृष्ट संक्लेशके साथ विरोध है, इसलिये ऐसा कहा है।
शंका-यह भी कैसे जाना ?
समाधान-संक्लेशको पूरा करनेका जो काल है उससे प्रकृत गुणश्रोणियोंका आयाम संख्यातगुणा हीन स्वीकार किया है, इससे जाना जाता है कि शेष गुणोणियोंका उत्कृष्ट संक्लेशके साथ विरोध है।
इसलिये इस साधनसे यहाँ भी अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें भी उनका अभाव
१. ध० प्रा०, पत्र १०६५ । “तिन्नि वि पढमिल्लायो मिच्छत्ताए वि होज अन्नभवे ।'-कर्म प्र० उदय गा० १० । 'सम्मत्त प्पादगुणसेढी देसविरदगुणसेढी अहापमत्तसंजयगुणसेढी य एया तिन्नि वि पढमिल्लीनो गुणसेढीतो मिच्छत्त वि होज अन्नभवे' ति मिच्छत गंतूण अप्पसत्थं, मरणेण मनो गुणेसेढितियदलियं परभवगतो वि किं त्रिकालं वेदिजा ।'-चूर्णि ।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
२६१ मभावो सिद्धो । ण च एत्थ संकिलेसो पत्थि ति वोर्तुं जुत्तं, संकिलेसावरणेण विणा सम्माइहिस्स सम्मामिच्छत्तगुणपरिणामासंभवादो। ण च तत्थ अप्पसत्थमरणं तं तंते ण वुतं, संकिलेसमेत्तेण सह तासिं विरोहपदुप्पायण' तहोवएसादो । तम्हा सुत्तपरूविदाणि चेय दोगुणसे ढिसीसयाणि संकिलेसकालो वि अविणस्संतसरूवाणि जाधे पढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स उदयमागयाणि ताधे तस्स उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियस्स मिच्छतस्सेव सामित्तं वत्तव्यमिदि सिद्धं ।
सिद्ध हुआ। यदि कहा जाय कि यहाँ संक्लेश नहीं होता सो भी बात नहीं है, क्योंकि संक्लेश पूरा हुए बिना सम्यग्दृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानकी प्राप्ति सम्भव नहीं। यदि कहा जाय कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें अप्रशस्त मरण होता है यह बात आगममें नहीं कही है सो ऐसा कहकर भी मुख्य बात को नहीं टाला जा सकता है, क्योंकि संक्लेशमात्रके साथ उक्त गुणश्रेणियों के विरोधका कथन करनेके लिये वैसा उपदेश दिया है। इसलिये सूत्रमें कहे गये दो गुणश्रेणिशीर्ष ही नाशको प्राप्त हुए बिना जब सम्यग्मिथ्याष्टिके प्रथम समयमें उदयको प्राप्त होते हैं तभी उसके उदयसे झोनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका मिथ्यात्वके समान उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिए यह सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ—जो जीव गुणितकमांशकी विधिसे आया और अतिशीघ्र संयमासंयम और संयमसम्बन्धी गुणश्रेणियोंको करके इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ जब सम्यग्मिथ्यात्वके प्रथम समयमें इन दोनों गुणश्रेणियोंके शीर्ष उदयको प्राप्त हुए तब इसके उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु प्राप्त होते हैं। किन्तु कुछ आचार्य इन दो गुणणि शीर्षोंके उदयके साथ अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनासम्बन्धी गुणणिशीर्षके उदयको मिलाकर तीन गुणश्रेणिशीर्षों का उदय होनेपर उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते हैं। इतना ही नहीं किन्तु वे यह भी कहते हैं कि यदि इन तीनों गुणश्रेणिशीर्षो का उदय सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानके प्रथम समयमें सम्भव न हो तो केवल एक अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणोणिशीर्षका उदय ही पर्याप्त है, क्योंकि संयमासंयम और संयमसम्बन्धी गुणोणिशीर्षों में जितने कर्मपरमाणु पाये जाते हैं उनसे इस गुणश्रेणिशीर्षमें असंख्यातगुणे कर्मपरमाणु पाये जाते हैं। किन्तु टीकाकारने उक्त आचार्यो के इस कथनको दो कारणोंसे नहीं माना है। प्रथम कारण तो यह है कि यदि सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणि पाई जाती होती तो चूर्णिसूत्रकार ने उक्त दो गुणश्रेणियोंके साथ इसका अवश्य ही समावेश किया होता, या स्वतन्त्रभावसे इसका आश्रय लेकर ही उत्कृष्ट स्वामित्वका प्रतिपादन किया होता। किन्तु जिस कारणसे सूत्रकारने ऐसा नहीं किया इससे ज्ञात होता है कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणि नहीं पाई जाती । दूसरे सत्कर्म नामक महाधिकारमें प्रदेशोदयके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करनेके लिये ग्यारह गुणश्रेणियोंका निर्देश करते हुए बतलाया है कि 'उपशमसम्यक्त्वगुणश्रेणि, संयतासंयतगुणश्रेणि और अधःप्रवृत्तसंयत गुणश्रेणि ये तीन गुणश्रेणियाँ ही मरणके बाद परभवमें दिखाई देती हैं।' इससे ज्ञात होता है कि संक्लेश परिणामों के प्राप्त होने पर केवल ये तीन गुणश्रेणियाँ ही पाई जाती हैं शेष गुणश्रेणियाँ नहीं, क्योंकि उनका काल संक्लेशको पूरा करनेके कालसे थोड़ा है। यतः सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानकी प्राप्ति संक्लेशरूप परिणाम हुए बिना बन नहीं सकती अतः सिद्ध हुआ कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणनोणि नहीं पाई जाती।
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जयधवलासहिदे फसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * अणंताणुबंधीणमुक्कस्सयमोकड्डणादितिण्हं पि भीणडिदियं कस्स ?
४६६. सुगममेदं पुच्छामुत्तं ।।
ॐ गुणिदकम्मंसिओ संजमासंजम-संजमगुणसेढीहि अविण हाहि अणंताणुबंधी विसंजोएदुमाढत्तो, तेसिमपच्छिमहिदिखंडयं संछुभमाणयं संछुद्ध तस्स उक्कस्सयमोकडणादितिण्हं पि झीणहिदियं ।
५००. जो गुणिदकम्मसिओ सबलहुमणंताणुबंधिकसाए विसंजोएदुमाढत्तो। किंभूदो सो संजमासंजम-संजमगुणसेढीए अविणहसरूवाहि उवलक्खिओ तेण जाधे तेसिमपच्छिमहिदिखंडयं सेसकसायाणमुवरि संछुब्भमाणायं संछुद्धं ताधे तस्स उक्कस्सयमोकड्डणादीणं तिण्हं पि संबंधि झीणहिदियं होदि ति सुत्तत्थसंबंधो । कुदो एदस्स उकस्सत्तं ? ण; तिण्हें पि सग-सगुक्कस्सपरिणामेहि कयगुणसेढिगोवुच्छाणं यहाँ एक यह तर्क किया जा सकता है कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें मरण नहीं होता और उपशमसम्यक्त्व गुणश्रेणि आदि तीनके सिवा शेषका निषेध मरणका आलम्बन लेकर किया है संक्लेशका आलम्बन लेकर नहीं, अतः सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणिके माननेमें कोई आपत्ति नहीं है । पर यह तर्क भी ठीक नहीं ज्ञात होता, क्योंकि संक्लेशका और मरणका परस्पर सम्बन्ध है। संक्लेशके होने पर मरण आवश्यक है यह बात नहीं पर मरणके लिये संक्लेश आवश्यक है। इसलिये यहाँ तीनके सिवा शेष गुणश्रेणियाँ संक्लेशमात्रमें सम्भव नहीं यह तात्पर्य निकलता है। यद्यपि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनावाला जीव जाता है पर वह तभी जाता है जब गुणश्रेणिका काल समाप्त हो लेता है। अतः संयमासंयम और संयम इन दो गुणश्रेणिशीर्षों के उदयकी अपेक्षा ही सम्यग्मिथ्यात्वके प्रथम समयमें उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु कहने चाहिये यह तात्पर्य निकलता है।
* अनन्तानुबन्धीके अपकर्षण आदि तीनोंके झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ?
६४६६. यह पृच्छासूत्र सुगम है।
* जिस गुणितकर्माशवाले जीवने संयमासंयम और संयमकी गुणश्रेणियोंका नाश किये बिना अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका आरम्भ किया और जिसके अनन्तानुबन्धियोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकका क्रमसे नाश हो गया वह अपकर्षण आदि तीनोंके झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है।
५००. गुणितकाशवाले जिस जीवने अतिशीघ्र अनन्तानुबन्धी कषायकी विसंयोजना का प्रारम्भ किया। विसंयोजनाका प्रारम्भ करनेवाला जो नाशको नहीं प्राप्त हुई संयमासंयम
और संयमसम्बन्धी गुणश्रेणियोंसे युक्त है। उसने जब उन अनन्तानुबन्धी कषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकको शेष कषायोंमें क्रमसे निक्षिप्त कर दिया तब उसके अपकर्षणादि तीनों सम्बन्धी उत्कृष्ट झीनस्थिति होती है यह इस सूत्रका अभिप्राय है ।
शंका-इसीके उत्कृष्टपना कैसे होता है ?
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
२६३ समयूणावलियमेत्ताणमेत्थुवलंभादो। एत्थाणताणुबंधिविसंजोयणगुणसेढी चेव पहाणा, सेसाणमेत्तो असंखेज्जगुणहीणत्तदंसणादो ।
उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं कस्स ? $ ५०१. सुगमं ।
* संजमासंजम-संजमगुणसेढीओ काऊण तत्थ मिच्छत्तं गदो जाधे गुणसेढिसीसयाणि पढमसमयमिच्छाइहिस्स उदयमागयाणि ताधे तस्स पढमसमयमिच्छाइहिस्स उक्कस्सयमुदयादो झीगहिदियं ।
५०२. एत्थ गुणिदकम्मंसियणिद्देसो किम ण कदो ? ण, तस्स पुब्बिल्लंसामित्तसुत्तादो अणुवुत्तिदंसणादो। गुणसेढीणं परिणामपरतंतभावेण ण तं णिप्फलं, पयडिगोवुच्छाए लाहदसणादो । एत्थ पदसंबंधो संजमासंजम-संजमगुणसेढीओ काऊण तत्थुद्दे से मिच्छत्तं गओ जाधे गयस्स पढपसमयमिच्छाइहिस्स दो वि गुणसेढि
समाधान नहीं, क्योंकि अपने-अपने उत्कृष्ट परिणामोंके द्वारा की गई तीनों ही गुणश्रेणिगोपुच्छाएँ एक समय कम एक आवलिप्रमाण यहाँ पाई जाती हैं, इसलिये अपकर्षणादि की झीनस्थितियोंकी अपेक्षा इसीके उत्कृष्टपना है। तो भी यहाँ अनन्तानन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणि ही प्रधान है, क्योंकि शेष दो गुणश्रेणियाँ इससे असंख्यातगुणी हीन देखी जाती हैं।
विशेपार्थ-जो गुणितकाशवाला जीव अतिशीघ्र संयमासंयम, संयम और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना इन तीनों सम्बन्धी गुणश्रोणियोंको क्रमसे करके तदनन्तर अनन्तानुबन्धीके अन्तिम स्थितिकाण्डकका पतन करके स्थित होता है उसके अनन्तानुबन्धीके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु पाये जाते हैं यह उक्त सूत्रका आशय है।
* उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ? ६५०१. यह सूत्र सुगम है।
*जो संयमासंयम और संयमसम्बन्धी गुणश्रेणियोंको करके मिथ्यात्वमें गया और वहाँ पहुँचने पर मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके प्रथम समयमें जब गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त होते हैं तब वह प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है।
६५०२. शंका--इस सूत्रमें 'गुणिदकम्मंसिय' पदका निर्देश क्यों नहीं किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उस पदकी पूर्वके स्वामित्वसूत्रसे अनुवृत्ति देखी जाती है। और गुणश्रेणियाँ परिणामों के अधीन रहती हैं, इसलिये यह निष्फल भी नहीं है, क्योंकि इससे प्रकृतिगोपुच्छाका लाभ दिखाई देता है।
___ अब इस सूत्रके पदोंका इस प्रकार सम्बन्ध करे कि संयमासंयम और संयमसम्बन्धी गुणश्रेणियोंको करके फिर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और जब मिथ्यात्वमें जाकर प्रथम
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जयधवलाहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सीसयाणि उदयमागदाणि होज्ज ताधे तस्स उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियमिदि । सम्माइडिम्मि अणंताणुबंधीणमुदयाभावेण उदीरणा पत्थि ति गुणसेढिसीसएसु आवलियपइट सु उदीरणादव्वसंगहहमेसो मिच्छत्तं णेदव्यो ति णासंकणिज्ज, तत्थ पुवमेव संकिलेसवसेण लाहादो असंखेजगुणसेढिदव्बस्स हाणिदसणादो। ण च विसोहिपरतता गुणसेहिणिज्जरा उदीरणा वा संकिलेसकाले बहुगी होइ, विरोहादो ।
* अण्हं कसायाणमुक्कस्सयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदियं कस्स?
५०३. सुगमं ।
ॐ गुणिदकम्मंसिओ कसायक्खवणाए अन्भुहिदो जाधे अहण्हं समयमें दोनों ही गुणश्रेणिशीर्ष उद्यको प्राप्त हुए उसी समय उसके उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु होते हैं। यदि यह कहा जाय कि सम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धियोंका उदय नहीं होनेसे उदीरणा नहीं होती अतएव उदीरणाद्रव्यके संग्रह करनेके लिए जब गुणणिशीर्ष आवलिके भीतर प्रविष्ट हो जाय तभी इसे मिथ्यात्वमें ले जाना चाहिये सो ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि वहाँ पहले ही संक्लेशके वशसे लाभकी अपेक्षा असंख्यातगुणे श्रेणिद्रव्यकी हानि देखी जाती है। और जो गुणश्रेणिनिर्जरा विशुद्धिके निमित्तसे होती है वह संक्लेशकालमें उदीरणाके समान बहुत होगी सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है।
विशेषार्थ--इस सूत्रमें अनन्तानुवन्धीकी अपेक्षा उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओं के स्वामीका निर्देश किया है। जो गुणितकाशकी विधिसे आकर अतिशीघ्र संयमासंयम और संयमकी गुणनोणियाँ करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उसके वहाँ प्रथम समयमें ही यदि उक्त गुणश्रेणियोंके शीर्ष उदयमें आ जाते हैं तो उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है यह इस सूत्रका भाव है। यहाँ एक शंका यह की गई है कि उदय समयमें ही इस जीवको मिथ्यात्वमें न लाकर एक श्रावलि पहलेसे ले आना चाहिये। इससे लाभ यह होगा कि उदीरणाका द्रव्य प्राप्त हो जानेसे गुणश्रेणिशीर्षके परमाणु और अधिक हो जायेंगे। इस शंकाका जो समाधान किया गया है उसका भाव यह है कि संक्लेश परिणामोंके बिना तो मिथ्यात्व गुणस्थानकी प्राप्ति होती नहीं। अब जब कि गुणश्रोणिशीर्षके आवलिके भीतर प्रवेश करते ही इसे मिथ्यात्वमें ले जाना है तो पूर्वमें ही संक्लेश परिणाम हो जानेसे उदीरणाके द्वारा होनेवाले लाभसे असंख्यातगुणे द्रव्यकी हानि हो जाती है, क्योंकि इतने समय पहलेसे ही इसकी गुणश्रेणिरचनाका क्रम बन्द हो जायगा। इसलिये ऐसे समय ही इसे मिथ्यात्वमें ले जाना चाहिये जब मिथ्यात्वमें पहुँचते ही गुणश्रेणिशीका उदय हो जाय ।
* आठ कषायोंके अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है।
६५०३. यह सूत्र सुगम है। * जिस गुणितकौशवाले जीवने कपायोंकी क्षपणाका आरम्भ किया है वह
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
२९५ कसायामपच्छिमहिदिखंडयं संछुभमाणं संछुद्धताधे उक्कस्सयं तिण्हं पि झीणहिदियं ।
५०४. एत्थ पदसंबंधो एवं कायव्वो-जो गुणिदकम्मंसिओ सव्वलहुमहवस्साणमंतोमुहुत्तब्भहियाणमुवरि कदासेसकरिणिज्जो होऊण कसायक्खवणाए अब्भुहिदो तेण जाधे अपुव्वाणियट्टिकरणपरिणामेहि द्विदिखंडयसहस्साणि पादेंतेण अहण्हं कसायाणमपच्छिमढिदिखंडयमावलियवज्ज संजलणाणमुपरि संछुभमाणयं संछुद्धं ताधे तस्स उकस्सयमोकड्डणादीणं तिण्हं पि झीणहिदियं होइ ति । कुदो एदमावलियपइदव्वमुक्कस्सं ? ण, समयूणावलियमेत्तखवयगुणसेढीणमेत्थुवलंभादो । हेडा चेय संजमासंजम-संनम-दसणमोहणीयक्खवणगुणसेढीओ घेत्तूण सामित्तं किमिदि ण परूविदं ? ण, तासि सव्वासि पि मिलिदाणं खवगगुणसेढीए असंखेजदिभागत्तादो।
* उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं कस्स ? जब आठ कषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकका क्रमसे पतन कर देता है तब वह अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है।
६५०४. यहाँ पर पदोंका सम्बन्ध इस प्रकार करना चाहिये कि जो गुणितकर्माशवाला जीव अतिशीघ्र आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तके बाद करने योग्य सब कार्यों को करके कषायोंकी क्षपणाके लिये उद्यत हुआ, वह जब अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों के द्वारा हजारों स्थितिकाण्डकोंका पतन करके आठ कषायोंके एक आवलिके सिवा अन्तिम स्थितिकाण्डकको संज्वलनोंमें क्रमसे निक्षिप्त करता है तब वह अपकर्षण आदि तीनोंके झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है।
शंका-श्रावलिके भीतर प्रविष्ट हुआ यह द्रव्य उत्कृष्ट कैसे है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि एक समय कम आवलिप्रमाण क्षपकगुणनोणियाँ यहाँ पाई जाती हैं, इसलिये यह द्रव्य उत्कृष्ट है।
शंका-उसके पूर्वमें ही संयमासंयम, संयम और दर्शनमोहनीयकी क्षपणा इन तीनों गुणश्रेणियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन क्यों नहीं किया गया है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि वे सब मिलकर भी क्षपकगुणश्रोणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं।
विशेषार्थ—गुणितकाशवाला जो जीव आठ कषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकका पतन करके जब स्थित होता है तब उसके आठ कषायोंके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु पाये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शेष शंकासमाधान सरल है।
* उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ?
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ६५०५. एत्थ अढण्हं कसायाणमिदि अहियारसंबंधो । सुगममन्यत् ।
8 गुणिदकम्मंसियस्स संजमासंजम-संजम-दंसणमोहणीयक्खवणगुणसेढीओ एदारो तिषिण गुणसेढीयो काऊण असंजमं गदो तस्स पढमसमयअसंजदस्स गुणसेढिसीसयाणि उदयमागदाणि तस्स अकसायाणमुक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं ।
५०६. एत्थ पदसंबंधो एवं कायव्यो । तं जहा-गुणिदकम्मंसियस्स अट्ठकसायाणमुक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं होइ । किं सर्वस्यैव ? नेत्याह-संजमासंजमसंजम-दसणमोहणीयक्खवणगुणसेढीओ ति एदाओ तिण्णि गुगसेढीओ कमेण काऊण असंजमं गदो तस्स पढमसमयअसंजदस्स जाधे गुणसेढिसीसयाणि उदयमागदाणि ताधे पयदुक्कस्ससामित्तं होइ ति । किमहमेसो पयदसामिओ असंजमं णीदो ? ण, अण्णहा अहकसायाणमुदयासंभवादो। एत्थाणंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेढीए सह चत्तारि गुणसेढीओ किण्ण परूविदाओ त्ति णासंकणिज्जं, तिस्से सगअपुव्वाणियटिकरणद्धाहितो विसेसाहियगलिदसेससरूवाए एतियमेत्तकालमवठाणासंभवादो । तम्हा
___६५०५. इस सूत्रमें अधिकारके अनुसार 'आठ कषायोंके' इन पदोंका सम्बन्ध कर लेना चाहिये। शेष कथन सुगम है।
___* जो गुणितकर्माशवाला जीव संयमासंयम, संयम और दर्शनमोहनीयकी तपणासम्बन्धी इन तीन गुणश्रेणियोंको करके असंयमको प्राप्त हुआ है उस असंयतके जब प्रथम समयमें गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त होते हैं तब वह आठ कपायोंके उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है।
५०६. यहाँ पदोंके सम्बन्ध करनेका क्रम इस प्रकार है-गुणितकाशवाला जीव आठ कषायोंके उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है ।
शंका-क्या सभी गुणितकाशवाले जीव स्वामी होते हैं ?
समाधान-नहीं, किन्तु जो संयमासंयम, संयम और दर्शनमोहनीयकी क्षपणा सम्बन्धी इन तीन गुणश्रेणियोंको क्रमसे करके असंयमको प्राप्त हुआ है प्रथम समयवर्ती उस असंयतके जब गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त होते हैं तब प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है।
शंका-यह प्रकृत स्वामी असंयमको क्यों प्राप्त कराया गया ?
समाधान नहीं, क्योंकि अन्यथा आठ कषायोंका उद्य नहीं बन सकता था। और यहाँ उनका उदय अपेक्षित था, इसलिये यह असंयमको प्राप्त कराया गया है।
शंका-यहाँ अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासन्बन्धी गुणश्रेणिके साथ चार गुणश्रेणियोंका कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान—यहाँ ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि वह अपने अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे कुछ ही अधिक होती है, इसलिये शेष भागके गल जानेसे इतने कालतक उसका सद्भाव मानना असंभव है।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण संजदासजद-संजदगुणसेढीओ काऊण पुणो अणंताणुबंधी विसंजोइय दंसणमोहणीयं खवेमाणो वि अहकसायाणं पुव्विल्लदोगुणसेढिसीसएहि सरिसमप्पणो गुणसेढिसीसयं काऊण अधापवत्तसंजदो जादो। गुणसेढिसीसएस उदयमागच्छमाणेसु कालं काऊण देवेसुप्पण्णपढमसमए वट्टमाणओ जो जीवो तस्स पढमसमयअसंजदस्स उदिण्णगुणसेढिसीसयस्स अहकसायाणमुक्कस्समुदयादो झीणहिदियं होदि ति सिद्धं । एत्य सत्थाणम्मि चेव असंजमं णेऊण सामित्तं किण्ण दिण्णं ? ण, सत्थाणम्मि असंजमं गच्छमाणो पुत्वमेव अंतोमुहुत्तकालं संकिलेसमावूरेइ ति एत्तियमेत्तकालपडिबद्धगुणसेढिलाहस्स विणासप्पसंगादो । सिस्सो' भणइ-एदम्हादो उवसमसेढिमस्सियूण उक्कस्सयमुदयादो झीगहिदियं बहुअं लहिस्सामो । तं जहा-जो गुणिदकम्मंसिओ सबलहुँ कसायउवसामणाए अब्भुहिदो अपुवकरणपढमसमयप्पहुडि गुणसेटिं करेमाणो अपुवकरणद्धादो अणियट्टिअद्धाओ च विसेसाहियं काऊण अणियट्टिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु से काले अंतरं पारभदि त्ति मदो देवो जादो तस्स अंतोमुहुत्तोववण्णल्लयस्स जाधे
इसलिये गुणितकाशकी विधिसे आकर और संयतासंयत तथा संयतसम्बन्धी गुणश्रेणियोंको करके फिर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता हुआ भी आठ कषायोंके पहले दो गुणश्रेणिशीर्षों के समान अपने गुणश्रेणिशोषको करके अधःप्रवृत्तसंयत हो गया। फिर गुणणिशीर्षों के उदयमें आनेपर मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार देवोंमें उत्पन्न होकर जो प्रथम समयमें विद्यमान है उस प्रथम समयवर्ती असंयतके गुणश्रोणिशीर्षके उदय होनेपर आठ कषायोंके उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु होते हैं यह सिद्ध हुआ।
शंका-यहाँ स्वस्थानमें ही असंयम प्राप्त कराकर स्वामित्वका कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान नहीं, क्योंकि यदि इस जीवको स्वस्थानमें ही असंयम प्राप्त कराते हैं तो अन्तर्मुहूर्त काल पहलेसे ही इसे संक्लेशकी प्राप्ति करानी होगी जिससे इतने कालसे सम्बन्ध रखनेवाली गुणश्रेणिका लाभ न मिल सकेगा, अतः स्वस्थानमें ही असंयम प्राप्त कराकर स्वामित्वका कथन न करके इसे देवोंमें उत्पन्न कराया गया है।
शंका-यहाँ शिष्यका कहना है कि पीछे जो क्रम कहा है इसके स्थानमें यदि उपशमश्रेणिकी अपेक्षा यह कथन किया जाय तो उदयसे झीनस्थितिवाले अधिक परमाणु प्राप्त हो सकते हैं और तब इन्हें उत्कृष्ट कहना ठीक होगा। खुलासा इस प्रकार है-गुणितकाशवाला जो जीव अतिशीघ्र कषायोंका उपशम करनेके लिये उद्यत हुआ। फिर अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर गुणश्रेणिको करता हुआ अपूर्वकरणके कालसे अनिवृत्तिकरणके कालको विशेषाधिक करके अनिवृत्तिकरणके कालका संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर तदनन्तर समयमें- अन्तरकरणका प्रारम्भ करता किन्तु ऐसा न करके मरा और देव हो गया उसके वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त
१. 'अंतरकरणं होदि त्ति जायदेवस्स तं मुहुरांतो । अट्ठएहकसायाणं ।'-कर्मप्र० उदय गा० १४ ।
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२६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ गुणसेढिसीसयमुदिण्णं ताधे उक्स्सयमुदयादो झीणहिदियं । एदं च पुचिल्लसव्वगुणसेढिसीसयदव्यादो विसोहिपाहम्मेण असंखेजगुणं, तम्हा एत्थोवसामित्तेण होदव्वं । जइ वि एसो अंतोमुहुत्तकालमुक्कड्डिय गुणसेढिदव्वमुवरि संछुहदि परपयडीसु च अधापवत्तसंकमेण संकामेदि तो वि एवं विणासिज्जमाणसव्वदव्वमप्पहाणं गुणसेढिसीसयस्स असंखेजभागत्तादो तिणेदं घडदे, देवेसुववज्जिय अंतोमुहुत्तकालमच्छमाणस्स ओकड्डुक्कड्डणादीहि गुणसेढिसीसयस्स असंखेजाणं भागाणं परिक्खयदंसणादो। ण चेदमसिद्ध, एदम्हादो चेव मुत्तादो तहाभावसाहणादो। ण च देवेसुप्पण्णपढमसमए चेव उवसामणगुणसेढिगोवुच्छावलंबणेण पयदसामित्तसमत्थणं पि समंजसं, तत्थतणगुणसे ढिगोवुच्छदव्वस्स दसणमोहक्वयगुणसैढिसीसयादो असंखेजगुणत्तणिण्णयादो । मुत्तयाराहिप्पाएण पुण दसणमोहक्खवयगुणसेढिसीसयस्सेव तत्तो असंखेज्जगुणत्तणिण्णयादो । अण्णहा तप्परिहारेणेत्थेव सामित्तविहाणाणुववत्तीदो । ण च दंसणमोहक्खवयगुणसेढिसीसएण सह तं घेत्तण सामित्तावलंबणं पि घडमाणयं गलिदसेससरूवदंसणमोहक्खवयगुणसेढिसीसयस्स तेत्तियमेत्तकालावहाणस्स अच्चंतमसंभवादो। तम्हा मुत्तत्तमेव सामित्तमविरुद्धं सिद्धं । अहवा णिवाघादेण सत्थाणे बाद जब गुणश्रोणिशीर्ष उदयको प्राप्त होता है तब उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु होते हैं। और यह द्रव्य विशुद्धिकी अधिकतासे संचित होता है, इसलिये पिछले सब गुणश्रोणिशीर्षों के द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । इसलिये यहाँ अन्य कोई स्वामी न होकर उपशामक होना चाहिये । यद्यपि यह अन्तर्मुहूर्तकाल तक उत्कर्षण करके गुणनेणिके द्रव्यको ऊपर निक्षिप्त करता है और अधःप्रवृत्त संक्रमणके द्वारा पर प्रकृतियोंमें भी संक्रमित करता है तो भी इस प्रकारसे विनाशको प्राप्त होनेवाला यह सब द्रव्य अप्रधान है, क्योंकि यह गुणनोणिशीर्षके असंख्यातदेंभागप्रमाण है ?
समाधान-सो यह कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि देवोंमें उत्पन्न होकर अन्तमुंहूर्तकालतक रहते हुए इसके अपकर्षण, उत्कर्षण आदिके द्वारा गुणश्रोणिशीर्षके असंख्यात बहुभागोंका क्षय देखा जाता है और यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि इसी सूत्रसे इसकी सिद्धि होती है। यदि कहा जाय कि देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही उपशमणिसम्बन्धी गोपुच्छोंके अवलम्बनसे प्रकृत स्वामित्वका समर्थन भी उचित है, क्योंकि यह बात निर्णीत-सी है कि वहाँ प्रथम समयमें जो गुणश्रोणिगोपुच्छका द्रव्य प्राप्त होता है वह दर्शनमोहनीयके क्षपणासम्बन्धी शीर्षसे असंख्यातगुणा होता है। सो ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि सूत्रकारके अभिप्रायसे तो दर्शनमोहनीयका क्षपणासम्बन्धी गुणणिशीर्ष ही उससे असंख्यातगुणा होता है यह बात निर्णीत है। यदि ऐसा न होता तो उपशमश्रेणिकी अपेक्षा स्वामित्वके कथनका त्याग करके सूत्र में दर्शनमोहनीयकी क्षपणाकी अपेक्षा ही स्वाभित्वका विधान नहीं बन सकता था। यदि कहा जाय कि दर्शनमोहके क्षपकसम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्षके साथ उपशमणिसम्बन्धी गुणश्रेणिको लेकर स्वामित्वका कथन बन जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहक्षपकसम्बन्धी गुणनेणिशीर्षका जो अंश गलकर शेष बचता है उसका चारित्रमोहनीयकी उपशामना होते हुए अन्तरकरणके काल के प्राप्त होनेके एक समय बादतक अवस्थित रहना अत्यन्त असम्भव है। इसलिये सूत्रमें जो स्वामित्व कहा है वही ठीक है यह बात सिद्ध हुई। अथवा निर्व्याघातसे
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणामीणचूलियाए सामित्तं
२६६ चेव सामित्तमेत्थ सुत्तयाराहिप्पेदं । ण च उवसमसेढीए तहा संभवो, विरोहादो । तदो सत्थाणे चेव असंजम णेदण सामितमेदं वत्तव्यमिदि । यहाँ स्वस्थानमें ही स्वामित्व सूत्रकारको अभिप्रेत है। किन्तु उपशमश्रेणिमें इस प्रकारसे स्वामित्वकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है, इसलिये स्वस्थानमें ही असंयमको प्राप्त कराके इस स्वामित्वका कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-यहां अाठ कषायोंके उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंके स्वामीका निर्देश करते हुए सूत्र में तो केवल इतना ही कहा है कि जो गुणितकमांशवाला जीव संयमासंयम, संयम और दर्शनमोहक्षपकसम्बन्धी गुणश्रेणियोंको करके जब असंयमभावको प्राप्त होता है तब उसके प्रथम समयमें इन तीनों गुणश्रेणियोंके शीर्षके उदय होने पर उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है। किन्तु इसका व्याख्यान करते हुए वीरसेन स्वामीने इतना विशेष बतलाया है कि ऐसे जीवको देवपर्यायमें ले जाकर वहां प्रथम समयमें गुणश्रेणिशीर्षोंके उदयको प्राप्त होने पर उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिये। उन्होंने इस व्यवस्थासे यह लाभ बतलाया है कि ऐसा करनेसे असंयमकी प्राप्तिके लिये अन्तर्मुहूर्तप्रमाण संक्लेशपूरण काल बच जाता है। जिससे अधिक गुणनेणिका लाभ मिल जाता है। अब यदि इसे देवपयोयमें न ले जाकर स्वस्थानमें ही असंयमभावकी प्राप्ति कराई जाती है तो एक अन्तर्मुहूर्त पहलेसे गुणश्रेणिका कार्य बन्द हो जायगा जिससे लाभके स्थानमें हानि होगी, इसलिये असंयमभावकी प्राप्तिके समय इसे देवपर्यायमें ले जाना ही उचित है । यह वह व्याख्यान है जिसपर टीका में अधिक जोर दिया गया है। इसके बाद एक दूसरे प्रकारसे उत्कृष्ट स्वामित्वकी उपस्थापना करके उसका खण्डन किया गया है। यह मत धवला सत्कर्ममहाधिकारके उदयप्रकरणमें और श्वेताम्बर कर्मप्रकृति व पंचसंग्रहमें पाया जाता है। इसका आशय यह है कि कोई एक गुणितकर्माशवाला जीव उपशमश्रेणिपर चढ़ा और वहां अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरणमें अन्तरकरण क्रियाके पहले तक उसने गुणश्रेणि रचना की। इसके बाद मरकर वह देव हो गया। इसप्रकार इस देवके अन्तर्मुहूर्तमें जब गुणश्रेणिशीर्षका उदय होता है तब उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है। बात यह है कि दर्शनमोहक्षपकगुणश्रेणिसे उपशामकगुणश्रेणि असंख्यातगुणी बतलाई है, इसलिये इस कथनको पूर्वोक्त कथनसे अधिक बल प्राप्त हो जाता है। तथापि टीकामें यह कहकर इस मतको अस्वीकार किया गया है कि देव होने के बाद बीचका जो अन्तर्मुहूर्त काल है उस कालमें अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण आदिके द्वारा गुणश्रेणिके बहुभाग द्रव्यका अभाव हो जाता है, इसलिये इस स्थलपर उत्कृष्ट स्वामित्व न बतलाकर चूर्णिसूत्रकारके अभिप्रायानुसार ही उत्कृष्ट स्वामित्व बतलाना ठीक है। वैसे तो इन दोनों मतोंपर विचार करनेसे यह प्रतीत होता है कि ये दोनों ही मत भिन्न-भिन्न दो परम्पराओंके द्योतक हैं, अतएव अपने-अपने स्थानमें इन दोनोंको ही प्रमाण मानना उचित है। यद्यपि इनमें से कोई एक मत सही होगा पर इस समय इसका निर्णय करना कठिन है। इसीप्रकार टीकामें यह मत भी दिया है कि उपशमश्रेणिमें पूर्वोक्त प्रकारसे मरकर जो देव होता है उसके प्रथम समयमें जो आठ कषायोंका द्रव्य उदयमें आता है वह पूर्वोक्त तीन गुणश्रेणिशीर्षों के द्रव्यसे अधिक होता है, इसलिये उत्कृष्ट स्वामित्व तीन गुणश्रेणिशीर्षोंके उदयमें न प्राप्त होकर उपशमश्रेणिमें मरकर देवपर्याय प्राप्त होनेके प्रथम समयमें प्राप्त होता पर टीकामें इस मतका भी यह कहकर निराकरण किया गया है कि सूत्रकारका यह अभिप्राय नहीं है, क्योंकि सूत्रकार तीन गुणश्रेणिशीर्षों के द्रव्यको इससे अधिक मानते हैं। तभी तो उन्होंने तीन गुणश्रेणिशीर्षों से उदयमें उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान किया है। इसके साथ ही साथ प्रसंगसे इन दो
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जयधवलाहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसवित्ती
* कोहसंजलणस्स उक्कस्सयमोकड्डुणादितिरहं पि भीषद्विदियं
कस्स ?
३००
५०७ सुगमं ।
ॐ गुणिदकम्मंसियस्स कोधं खवेंतस्स चरिमडिदिखंडय चरिमसमए असंच्छुहमाणयस्स उक्कस्लयं तिरहं पि भी हिदियं ।
५०८. एत्थ चरिमडिदिखंडयचरिमसमयअसंलुहमाणयस्से त्ति वुत्ते गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सव्वलहुं कसायक्खवणाए अन्भुट्टिदस्स को पढमहिदि गुणसेढिया रेणावद्विदं समयाहियोदयावलियवज्जं सव्वमधद्विदीए गालिय कोहवेदगचरिमसमए से काले माणवेदओ होहदि त्ति कोहचरिमडिदिकंडयचरिमसमयअसंछोहयभावेणावद्विदस्स आवलियपइडगुणसेढिगोवुच्छाओ गुणसेढिसीसएण सह आपत्तियों का और निराकरण करके टीकामें प्रकारान्तरसे सूत्रकार के अभिप्रायकी पुष्टि की गई है । प्रथम आपत्ति तो यह है कि पूर्वोक्त तीन गुण खिशीर्षो में अनन्तानुबन्धीविसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्ष को मिलाकर इन चारोंके उदयमें उत्कृष्ट स्वामित्व कहना अधिक उपयुक्त होता । पर यह कथन इसलिये नहीं बनता कि अनन्तानुबन्धीविसंयोजनागुणश्र णिका काल इतना बड़ा नहीं है कि उसका सद्भाव दर्शनमोहक्षपणा के बाद तक रहा आवे, इसलिये तो पहली आपत्तिका निराकरण हो जाता है। तथा दूसरी आपत्ति यह है कि दर्शन मोक्षाणासम्बन्धी गुण णिको उपशमश्र णिसम्बन्धीगुणश्र णिके साथ मिलाकर उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं कहा ? इसका भी यही कहकर निराकरण किया गया है कि दर्शनमोहक्षपणासम्बन्धी गुणश्रेणि उपशमन णिसम्बन्धी गुणश्रेणिके उक्त काल तक रह नहीं सकती, अतः यह कथन भी नहीं बनता । अन्तमें प्रकारान्तरसे जो सूत्रकारके अभिप्रायका समर्थन किया है उससे ऐसा ज्ञात होता है। कि सूत्रकारको स्वस्थानमें ही उत्कृष्ट स्वामित्व इष्ट रहा है । यदि उन्हें देवपर्याय में ले जाकर स्वामित्वका कथन करना इष्ट होता तो वे सूत्रमें इसका स्पष्ट उल्लेख करते ।
* क्रोधसंज्वलन के अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओं का स्वामी कौन है ?
$ ५०७. यह सूत्र सुगम है ।
* जो गुणित कर्माशवाला जीव क्रोधका क्षय कर रहा है । पर ऐसा करते हुए जिसने अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें पहुंचकर भी अभी उसका पतन नहीं किया है वह उक्त तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है ।
$ ५०८. यहां 'अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें जिसने उसका पतन किया है। उसके ऐसा कथन करनेसे यह अभिप्राय लेना चाहिये कि गुणितकर्माशकी विधिसे आकर जो अतिशीघ्र कषायकी क्षपणाके लिये उद्यत हुआ है और ऐसा करते हुए एक समय अधिक एक
वलिके सिवा क्रोधकी गुणश्रेणिरूपसे स्थित शेष सब प्रथम स्थितिको अधःस्थिति द्वारा गलाकर जो क्रोधवेदकके अन्तिम समय में स्थित है उसके गुणश्रेणिशीर्षके साथ आवलिके भीतर प्रविष्ट हुईं गुणश्र णिगोपुच्छाओं के रहते हुए प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है । यह जीव अगले
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गा० २२] पदेसवित्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
सामित्तं वट्टमाणाओ घेतूण पयदुक्कस्ससामित्तं होदि त्ति घेत्तव्वं ।
५०६. ण एत्थ गुणसेढिसीसयस्स बहिब्भावो ति पढमसमयमाणवेदयम्मि समयूणुच्छिहावलियमेत्तद्विदीओ घेत्तूण सामित्तं दायव्वमिदि संकणिज्जं, उप्पायाणुच्छेयमस्सिदूण गुणसेढिसीसयस्स वि एत्यंतब्भावुवलंभादो। एवमेवं चेय घेत्तव्वं, अण्णहा तस्सेव उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं परूविस्समाणेणुत्तरमुत्तेण सह विरोहादो। अहबा दबहियणयावलंबीभूदपुव्वगइणायावलंबणेण पढमसमयमाणवेदयस्सेव कोहचरिमहिदिखंडयचरिमसमयअसंछोहयत्तं परूवेदव्वं । ण च एवं संते उवरिमसुत्तत्थो दुग्घडो, भयणवाईणमम्हाणं तत्थ अणुप्पायाणुच्छेदं पज्जवहियणयणियमेण समवलंबिय घडावणादो । एदमत्थपदमुवरिमाणंतरसुत्तेसु वि जोजेयव्वं ।। समयमें मानवेदक होगा, इसलिये यह समय क्रोधके अन्तिम स्थितिकाण्डकका अन्तिम समय होनेसे अभी इसके अन्तिम स्थितिकाण्डकका पतन नहीं हुआ है।
६५०९. यकि कोई यहां ऐसी आशंका करे कि यहां गुणश्रेणिशीर्ष बहिभूत है, इसलिये मानवेदकके प्रथम समयमें एक समय कम उच्छिष्टावलिप्रमाण स्थितियोंकी अपेक्षा स्वामित्वका विधान करना चाहिये सो उसकी ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षा गुणश्रेणिशीर्षका भी यहां अन्तर्भाव पाया जाता है। और यह अर्थ प्रकृतमें इसी रूपसे लेना चाहिये, अन्यथा आगे जो यह सूत्र आया है कि 'इसी जीवके उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु होते हैं' सो इसके साथ विरोध प्राप्त होता है। अथवा द्रव्यार्थिक नयका आलम्बनभूत भूतपूर्वगति न्यायका सहारा लेकर प्रथम समयवर्ती मानवेदकके ही अपने अम्तिम समयवर्ती क्रोधके अन्तिम स्थितिकाण्डकका सद्भाव कहना चाहिये। यदि कहा जाय कि ऐसा मानने पर आगेके सूत्रका अर्थ घटित करना कठिन हो जायगा सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि हम लोग तो भजनावादी हैं, इसलिए पर्यायार्थिक नयके नियमानुसार अनुत्पादानुच्छेदका आलम्बन लेकर उक्त अर्थ घटित कर दिया जायगा। इस अर्थ पदको आगेके अन्तरवर्ती सूत्रोंमें भी घटित कर लेना चाहिये।
विशेषार्थ-वस्तुस्थिति यह है कि जो गुणितकर्माशवाला जीव क्षपणाके समय क्रोधवेदकके कालको बिताकर मानवेदकके कालमें स्थित है वह क्रोधसंज्वलनके अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा झीनस्थितियाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है। किन्तु यहां सूत्र में यह स्वामित्व क्रोधवेदकके अन्तिम समयमें ही बतलाया गया है जिसे घटित करनेमें बड़ी कठिनाई जाती है। बल्कि एक शंकाकारने तो इस सुत्र प्रतिपादित विषयका प्रकारान्तरसे खण्डनही कर दिया है। वह कहता है कि यहां गुणोणिशीर्षकी तो चर्चा ही छोड़ देनी चाहिये। उत्कृष्ट स्वामित्वका जितना भी द्रव्य है उसमें इसका सद्भाव तो कथमपि नहीं किया जा सकता। हां मानवेदकके प्रथम समयमें जो एक समय कम उच्छिष्टावलिप्रमाण द्रव्य शेष रहता है उसकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कहना ठीक है। पर टीकाकारने इस विरोधको दो प्रकारसे शमन किया है। (१) प्रथम तो उन्होंने उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षासे इस विरोधको शान्त किया है। उत्पादनानुच्छेद द्रव्यार्थिक नयको कहते हैं । यह सत्त्वावस्थामें ही विनाशको स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें सूक्ष्म लोभका उदय है पर वहां उसकी उदयव्युच्छित्ति बतलाई जाती हैं सो यह कथन उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षासे जानना
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं पि तस्लेव ।
$ ५१०. एत्थ कोहसंजलणस्से त्ति अणुवट्टदे, तेणेवमहिसंबंधो कायव्योतस्सेव जयद्दयविसयीकयस्स पुचिल्लसामियस्स कोहसं जलणसंबंधि उक्स्सयमुदयादो झीणहिदियमिदि। सेसं पुव्वं ब। णवरि उदिण्णमेदपदेसग्गमेयहिदिपडिबद्धमेत्थ सामित्तविसईकयं होइ।
8 एवं चेव माणसंजलणस्स । णवरि हिदिकंडयं चरिमसमयअसंछुहमाणयस्स तस्स चत्तारि वि उकस्सयाणि झीणहिदियाणि ।
५११. माणसंजलणस्स वि एवं चेव सामित्तं दायव्वं । णवरि माणहिदिकंडयं चरिमसमयअसंछुहमाणयस्से त्ति सणामपडिबद्धो आलावभेदो चेव णत्थि अण्णो त्ति समप्पणामुत्तमेयं । चाहिये। इसीप्रकार प्रकृतमें भी जब कि क्रोधवेदकके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व स्वीकार कर लिया तब गुणश्रेणिशीर्षका उत्कृष्ट स्वामित्वविषयक द्रव्यमें अन्तर्भाव माननेमें कोई आपत्ति नहीं है। इस कथनको इसी रूपमें मानने के लिये इसलिये भी जोर दिया है कि अगले सूत्र में जो उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका उत्कृष्ट स्वामित्व बतलाया है वह ऐसा माने बिना बन नहीं सकता। (२) दूसरे भूतपूर्व न्यायकी अपेक्षा मानवेदकके यह सब स्वकार करके उक्त विरोध शमन किया गया है। यद्यपि ऐसा करनेसे अगले सूत्रके साथ संगति बिठलाने में कठिनाई जाती है पर अगले सूत्रका अर्थ अनुत्पादानुच्छेद अर्थात् पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे कर लेनेपर वह कठिनाई दूर हो जाती है। इसप्रकार विविध दृष्टियोंसे विचार करके जहां जो अर्थ संगत बैठे उसे घटित कर लेना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्म परमाणुओंका स्वामी भी वही है ।
६५१०. इस सूत्रमें 'कोहसंजलणस्स' इस पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिये इस सूत्रका ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये कि जिसे पहले दो नयोंका विषय बतला आये हैं उसी पूर्वोक्त स्वामीके क्रोधसंज्वलनकी अपेक्षा उदयसे झीन स्थितिवाले उत्कृष्ट परमाणु होते हैं। शेष कथन पहलेके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि एक स्थितिगत जो कर्मपरमाणु उदयमें आ रहे हैं उनका ही यहां स्वामित्वसे सम्बन्ध है।
विशेषार्थ-क्रोधवेदकके अन्तिम समयमें क्रोधके जिन कर्मपरमाणुप्रोंका उदय हो रहा है उसमें गुणश्रेणिशीर्षका द्रव्य सम्मिलित है, अतः यहां उत्कृष्ट स्वामित्व कहा है, क्योंकि उदयगत कर्मपरमाणुओंकी यह संख्या अन्यत्र नहीं प्राप्त होती।
* इसी प्रकार मानसंज्वलनका कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि जिसने अपने अन्तिम समयमें मानस्थितिकाण्डकका पतन नहीं किया है वह चारोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है।
५१६. मानसंज्वलनके स्वामित्वका भी इसीप्रकार अर्थात् क्रोधसंज्वलनके समान विधान करना चाहिये। किन्तु जिसने मानस्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें उसका पतन नहीं किया है इसप्रकार यहां क्रोधके स्थानमें मानका सम्बन्ध होनेसे कथनमें इतना भेद हो जाता है, इसके सिवा अन्य कोई भेद नहीं है । इसप्रकार यह समपणासूत्र है।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
ॐ एवं चेव मायासंजलणस्स । णवरि मायाहिदिकंडयं चरिमसमयअसंछुहमाणयस्स तस्स चत्तारि वि उकस्सयाणि झीणहिदियाणि ।
५१२. सुगम ।
लोहसंजलणस्स उकस्सयमोकडणादितिण्हं पि झीणहिदियं कस्स?
$ ५१३. सुगममेदं पुच्छासुत्तं ।
ॐ गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसंसकम्ममावलियं पविस्समाणयं पविद्ध ताधे तस्स उक्कस्सयं तिण्हं पि झीणहिदियं ।
५१४. एत्थ गुणिदकम्मंसियणिद्दे सो तविवरीयकम्मंसियणिवारणफलो । तं पि कुदो ? गुणिदकम्मंसियादो अण्णत्थ पदेससंचयस्स उक्कस्सभावाणुववत्तीदो ।
* इसीप्रकार मायासंज्वलनका कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जिसने मायास्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें उसका पतन नहीं किया है वह चारोंकी ही अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट परमाणुओंका स्वामी है।
$ ५१२. यह सूत्र सुगम है।
विशेषार्थ-पहले जैसे क्रोधसंज्वलनके अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण और उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंके स्वामीका कथन कर आये हैं वैसे ही मानसंज्वलन और माया संज्वलनकी अपेक्षा भी जानना चाहिये। यदि उक्त कथनसे इसमें कोई विशेषता है तो वह इतनी ही कि क्रोधसंज्वलनके वेदककालमें उस प्रकृतिकी अपेक्षासे कथन किया था किन्तु यहां मानसंज्वलन और मायासंज्वलनके वेदककालमें इनकी अपेक्षा कथन करना चाहिये।
_* लोभसंज्वलनके अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ?
६५१३. यह पृच्छासूत्र सुगम है।
* जिस गुणितकर्माश जीवके सब सत्कर्म जब क्रमसे एक आवलिके भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं तब वह अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है ।
६५१४. यहाँ सूत्रमें 'गुणितकमांश' पदका निर्देश इससे विपरीत काशके निवारण करने के लिये किया है।
शंका-ऐसा करनेका क्या प्रयोजन है ?
समाधान--क्योंकि गुणितकाशके सिवा अन्यत्र कर्मपरमाणुओंका उत्कृष्ट संचय नहीं हो सकता। बस यही एक प्रयोजन है जिस कारणसे इस सूत्रमें 'गुणितकांश' पदका निर्देश किया है।
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३०४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ तस्स सबलहुं खवणाए अब्भुहिदस्स जाधे सव्वसंतकम्ममविवक्खिय थोवणभावमावलियं पविस्समाणयं पविस्समाणयं कमेण पवि ता पयदुक्कस्ससामित्तं होइ । सव्वसंतकम्मवयणेणेदेण विणहासेसदव्यमेदस्स असंखेजदिभागत्तेण अप्पहाणमिदि सूचिदं पविस्समाणयं पविमिदि एदेण अक्कमपवेसो पडिसिदो।
® उकस्सयमुदयादो झीणहिदियं कस्स ? ६५१५. सुगम ।
8 चरिमसमयसकसायखवगस्स।
$ ५१६. एत्थ चरिमसमयसकसाओ जो खवगो सुहुमसांपरायसण्णिदो तस्स पयदुक्कस्ससामित्तं होइ ति संबंधो कायव्यो। कुदो एदमुक्कस्सयं ? मोहणीयसव्वदव्वस्स एत्थेव पुजीभूदस्सुवलंभादो । एत्थ दव्वपमाणाणयणं जाणिय वत्तव्वं ।
इस जीवके अतिशीघ्र क्षपणाके लिये उद्यत होनेपर जब सब सत्कर्म क्रमसे श्रावलिके भीतर प्रविष्ट हो जाता है तब प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है। यहाँ यद्यपि कुछ ऐसे कर्म बच जाते हैं जो आवलिके भीतर प्रविष्ट नहीं होते, किन्तु यहाँ उनकी विवक्षा नहीं की गई है। इस सूत्र में जो 'सब सत्कर्म' यह वचन दिया है सो इससे यह सूचित किया है कि जो द्रव्य नष्ट हो गया है वह इसका असंख्यातवाँ भागप्रमाण होनेसे अग्रधान है। तथा सत्र में जो 'पविस्समाणयं पविट्ठ' यह वचन दिया है सो इससे अक्रमप्रवेशका निषेध कर दिया है। आशय यह है कि सब सत्कर्म क्रमसे ही आवलिके भीतर प्रविष्ट होता है।
विशेषार्थ—गुणितकाशवाला जीव अतिशीघ्र क्षपणाके लिये उद्यत होकर जब क्रमसे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें पहुँचकर लोभके सब कर्मपरमाणुओंको आवलिके भीतर प्रवेश करा देता है तब इसके उदयावलिके भीतर प्रविष्ट हुआ द्रव्य सबसे उत्कृष्ट होता है। किन्तु यह अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणके अयोग्य होता है। इसीसे इन तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी इप्से बतलाया है।
* उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओं का स्वामी कौन है । ६५१५. यह सूत्र सरल है।
* जो तपक सकपाय अवस्थाके अन्तिम समयमें स्थित है वह उदयसे झीनस्थितिबाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओं का स्वामी है ।
६५१६. यहाँ पर जो क्षपक सकषाय अवस्थाके अन्तिम समयमें स्थित है और जिसे सूक्ष्मसांपरायसंयत कहते हैं उसके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिये।
शंका-इसे ही उत्कृष्ट स्वामी क्यों कहा ? । समाधान-क्योंकि यहाँ पर मोहनीय कर्मका सब द्रव्य एकत्रित होकर पाया जाता है । यहाँ पर इस उत्कृष्ट द्रव्यके लानेके क्रमको जानकर उसका कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-सूक्ष्मसाम्पराय संयतके अन्तिम गुणश्रेणिशीर्षका सब द्रव्य इस गुणस्थानके अन्तिम समयमें उदयमें देखा जाता है। इसमें अब तक निर्जीर्ण हुए द्रव्यको छोड़कर शेष सब चारित्रमोहनीयका द्रव्य आ जाता है, इसलिये इसे उत्कृष्ट कहा है। आशय
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३०५ * इत्थिवेदस्स उकस्सयमोकडणादिचउराहं पि झीणहिदियं कस्स ?
६.५१७. सुगममेदं सामित्तविसयं पुच्छासुतं । एवं पुच्छिदे तत्थ ताव तिण्हं झीणहिदियाणमेयसामियाणं परूवणहमुत्तरसुत्तं भणइ
इत्थिवेदपूरिदकम्मंसियस्स आवलियचरिमसमयअसंछोहयस्स तिगिण वि झीणहिदियाणि उक्कस्सयाणि ।
$ ५१८. गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण पलिदोवमासंखेज्जभागमेत्तसगपूरणकालभंतरे इत्थिवेदं पूरेमाणाणमप्पविद्वविहाणे कस्स सामित्तं होइ किमविसेसेण पूरिदकम्मसियस्स तं होइ ति आसंकाणिरायरण विसेसणमाह-प्रावलियचरिमसमयअसंछोहयस्स' । चरिमसमय-दुचरिमसमयअसंछोहयादिकमेण हेहदो ओयरिय आवलियचरिमसमयअसंछोहयभावेणावहिद जीवस्से ति वुत्तं होइ। एत्थ समयूणावलियचरिमसमयअसंछोहयस्से त्ति वत्तव्वं, सवेददुचरिमसमए इत्थिवेदचरिमफालीए णिल्लेवाणुवलंभादो त्ति ? ण एस दोसो, अणुप्पायाणुच्छेदमस्सियूण चरिमसमययह है कि संज्वलन लोभके उदयसे झीनस्थितिवाले इतने कर्मपरमाणु अन्यत्र नहीं पाये जाते, अतः सूक्ष्म लोभके अन्तिम समयमें विद्यमान जीव ही संज्वलन लोभके उदयसे झीनस्थितिवाले डत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है।
* स्त्रीवेदके अपकर्षणादि चारोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ?
६५१७. यह स्वामित्वविषयक पृच्छासत्र सरल है। इस प्रकार पूछने पर उनमें से पहले एकस्वामिक तीन झीनस्थितिवालोंका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं -
___ * जिसने गुणितकर्माशकी विधिसे स्त्रीवेदको उसके कमपरमाणुओंसे भर दिया है और जो एक आवलिके अन्तिम समयमें उसका अपकर्षण आदि नहीं कर रहा है वह अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिबाले उत्कष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है।
६५१८. गुणितकांशकी विधिसे श्राकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अपने पूरण कालके भीतर स्त्रीवेदको पूरा करनेवाले जीवोंमें भेद किये बिना यह समझना कठिन है कि स्वामित्व किसको प्राप्त है ? क्या सामान्यसे गुणितकर्मांशवाले सभी जीवोंको यह स्वामित्व प्राप्त है ? इसप्रकार इस आशंकाके निराकरण करनेके लिये 'श्रावलियचरिमसमयअसंछोहयस्स' यह विशेषण कहा है। जो अन्तिम समयमें या उपान्त्य समयमें स्त्रीवेदके अपकर्षण आदिसे रहित है। तथा इसी क्रमसे पीछे जाकर जो एक आवलिके अन्तिम समयमें अपकर्षण आदि भावसे रहित है वह जीव स्वामी होता है यह उक्त कथनका तात्पय है।
शंका-यहां 'समयूणवलियचरिमसमयसंछोयस्स' ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि सवेदभागके द्विचरम समयमें स्त्रीवेदकी अन्तिम फालिका अभाव नहीं पाया जाता ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अनुत्पादानुच्छेदकी अपेक्षा अन्तिम ३९
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सवेदस्सेव तहाभावोवयारादो । एसो अत्थो पुरिस-णqसयवेदसामित्तमुत्तेमु वि जोजेयव्यो, विसेसाभावादो। पुव्वविहाणेण गंतूण सव्वलहुँ खवणाए अब्भुट्टिय सोदएण इत्थिवेदं संछुहमाणयस्स विदियहिदीए चरिमहिदिखंडयपमाणेणावहिदाए पढमहिदीए च आवलियमेत्तीए गुणसे ढिसरूवेणावसिहाए तिण्णि वि झीणहिदियाणि उक्कस्सयाणि होति त्ति सुत्तत्थसंगहो।
५१६. संपहि पुचिल्लपुच्छासुत्तविसईकयमुक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियसामित्तमुत्तरमुत्तेण भणइ
* उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं चरिमसमयइत्थिवेदक्खवयस्स ।
५२०. तस्सेव समयूणावलियमेतद्विदीओ गालिय हिदस्स जाधे पढमहिदीए चरिमणिसेश्रो उदिण्णो ताधे तस्स चरिमसमयइत्थिवेदक्खवयस्स उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियमिदि सुत्तत्थसंबंधो । .
ॐ पुरिसवेदस्स उक्कस्सयमोकड्डणादिचदुण्हं पि झीणहिदियं
५२१. सुगमं ।
समयवर्ती सवेदीके ही स्त्रीवेदकी अन्तिम फालिका अभाव उपचारसे मान लिया है। पुरुषवेद और नपुंसकवेदके स्वामित्वविषयक सूत्रों का कथन करते समय भी इसी अर्थकी योजना कर लेनी चाहिये, क्योंकि इससे उनमें कोई विशेषता नहीं है।
___ जो कोई एक जीव पूर्वविधिसे आकर और अतिशीघ्र क्षपणाके लिये उद्यत होकर स्वोदयसे स्त्रीवेदका पतन कर रहा है उसके द्वितीय स्थितिमें अन्तिम स्थितिकाण्डकके शेष रहनेपर तथा प्रथम स्थितिमें एक आवलिप्रमाण गुणश्रेणिके अवस्थित रहनेपर तीनों ही झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु उत्कृष्ट होते हैं यह इस सूत्रका अमिप्राय है।
६५१६. अब जिसका पिछले पृच्छासूत्र में उल्लेख कर आये हैं ऐसे उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंके स्वामित्वका कथन अगले सूत्रद्वारा करते हैं___* तथा स्त्रीवेदका क्षपक जीव अपने अन्तिम समयमें उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है।
- ५२२. एक समय कम प्रावलिप्रमाण स्थितियोंको गलाकर स्थित हुए उसी जीवके जब प्रथम स्थितिका अन्तिम निषेक उदयको प्राप्त होता है तब अन्तिम समयवर्ती वह स्त्रीवेदी क्षपक जीव उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है यह इस सूत्रका अभिप्राय है।
* पुरुषवेदके अपकर्षण आदि चारोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ?
६५२१. यह सूत्र सुगम है।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
* गुणिदकम्मंसियस पुरिसवेदं खवमाणयस्स आवलियचरिमसमयअसंछोहयस्स तस्स उक्कस्सयं तिण्हं पि झीण हिदियं ।
$ ५२२. एत्थ गुणिदकम्मंसियवयणेण तिण्हं वेदाणं पूरिदकम्मंसियस्स गहणं कायव्वं, अण्णहा पुरिसवेदुक्कस्ससंचयाणुववत्तीदो । सेसं सुगम ।
@ उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं चरिमसमयपुरिसवेदयस्स ।
६ ५२३. तस्सेव पुरिसवेदोदएण खवगसेढिमारूढस्स अधहिदीए गालिदपढमहिदियस्स चरिमसमयपुरिसवेदयस्स पयदुक्कस्ससामित्तं होइ ति सुत्तत्थो ।
8 णवुसयवेदयस्ल उक्कस्सयं तिण्हं पि झीणहिदियं कस्स ? $ ५२४. सुगममेदमासंकासुत्तं ।
* गुणिदकम्मंसियस पर्बुसयवेदेण उवहिदस्स खवयस्स पवुसयवेदावलियचरिमसमयअसंछोहयस्स तिगिण वि झीणहिदियाणि उक्कस्सयाणि।
५२५. एत्थ गुणिदकम्मंसियस्स पयदुक्स्सझीणद्विदियाणि होति त्ति
* जो गुणितकौशवाला जीव पुरुषवेदकी क्षपणा करता हुआ आवलिके चरम समयमें असंक्षोभक है वह अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है।
५२२. इस सत्र में जो गुणितकांश यह वचन आया है सो इससे तीनों वेदोंके गुणितकाशवाले जीवका ग्रहण करना चाहिये । अन्यथा पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय नहीं बन सकता है। शेष कथन सुगम है।
* तथा पुरुषवेदका क्षपक जीव अपने अन्तिम समयमें उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है ।
६५२३. जो पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिषर चढ़ा है और जिसने अधःस्थितिके द्वारा प्रथम स्थितिको गला दिया है उसके पुरुषवेदके उदयके अन्तिम समयमें प्रकृत उत्कष्ट स्वामित्व होता है यह इस सूत्रका अर्थ है। ____* नपुंसकवेदके अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ?
$ ५२४. यह आशंका सूत्र सरल है।
* जो गुणितकाशवाला जीव नपुसकवेदके उदयसै तपकश्रेणि पर आरोहण करके नपुसकवेदका आवलिके चरम समयमें असंक्षोभक है वह अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है।
६५२५. यहाँ गुणितकर्माशवाले जीवके प्रकृत उत्कृष्ट झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु होते हैं
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३०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ संबंधो कायव्यो । किमविसेसेण ? नेत्याह-णqसयवेदेण उवहिदखवयस्स पुणो वि तिम्लेव विसेसणमावलियचरिमसमयअसंलोहयस्से त्ति । जो आवलियमेत्तकालेण चरिमसमयअसंछोहओ होहिदि तस्स आवलियमेत्तगुणसेढिगोवुच्छाओ घेत्तूण सामित्तमेदं दहव्वमिदि वुत्तं होइ ।
* उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं तस्सेव चरिमसमयणqसयवेदक्खवयस्स ।
६५२६. तस्सेव चरिमसमयणQसयवेदक्खवयभावेणावहियस्स णयुसयवेदसंबंधिपयदुक्कस्ससामित्तं होइ। सेसं सुगमं ।
* छण्णोकसायाणमुक्कस्सियाणि तिगिण वि झीगहिदियाणि कस्स?
५२७. सुबोहमेदं पुच्छासुत्तं ।
8 गुणिदकम्मसिएण खबएण जाधे अंतरं कीरमाणं कदं तेसिं चेव कम्मसाणमुदयावलियाओ उदयवज्जाबो पुण्णाओ ताधे उक्कस्सयाणि तिरिण वि झीणहिदियाणि ।
ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिये। तो क्या यह स्वामित्व सामान्यसे सभी गुणितकर्माशवाले जीवोंके होता है ? नहीं होता, बस यही बतलानेके लिये 'जो नपुंसकवेदके उद्यसे आपकोणि पर चढ़ा है' यह कहा है। और फिर इसका भी विशेषण 'प्रावलियचरिमसमयअसंछोह्यस्स' दिया है । जो एक वलिप्रमाण कालके द्वारा अन्तिम समयमें अपकर्षणादि नहीं करेगा उसके एक श्रावलिप्रमाण गुणश्रोणिगोपुच्छाओंकी अपेक्षा यह स्वामित्व जानना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* तथा वही अन्तिम समयवर्ती नपुंसकवेदी क्षपक जीव उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है ।
६५२६. जो अन्तिम समयमें नपुंसकवेदकी क्षपणा करता हुआ स्थित है उसीके नपुंसकवेदसम्बन्धी प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है। शेष कथन सुगम है।
* छह नोकषायोंके अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ?
६ ५२७. इस पृच्छासूत्रका अर्थ समझनेके लिये सरल है।
* जो गुणितकर्माशवाला क्षपक जीव अन्तरकरण करनेके बाद जब उन्हीं कर्मपरमाणुओंकी गुणश्रेणि द्वारा उदय समयके सिवा उदयावलिको भर देता है तव वह अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३०९ ५२८. एत्थेवं सुत्तत्थसंबंधो कायव्वो-गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागदखवगेण जाधे छण्णोकसायाणमंतरं कमेग कीरमागमतोमुहुत्तेण कदं। तेसिं चेव कम्मसाणमुदयावलियाओ उदयचज्जाओ गुणसेढिगोवुच्छाहि पुण्णाओ अवसिहाओ ताधे तत्तियमेत्तगुणसेदिगोवुच्छाओ घेत्तण तस्स जीवस्स उक्कस्सयाणि तिणि वि झीणहिदियाणि होंति ति । किमहोत्थ उदयसमयवज्जिदो, ण; उदयाभावेण परपयडीस थिवुक्केण तस्स सकंतिदंसणादो।
8 तेसिं चेव उक्करप्तयमुदयादो झीणहिदियं कस्स ? ५२६. सुगमं ।
ॐ गुणिदकम्मंसियस्त खवयस्स चरिमसमयअपुवकरणे वट्टमाणयस्स।
$ ५३०. एत्थ गुणिदकम्म सिपणिद्देसो तबिवरीयकम्मसियपडिसेहफलो। खवयणि सो उपसामयणिरायरणहो । तं पि कुदो ? तव्यिसोहीदो अणंतगुणकखवय
६५२८. यहां इस सूत्रका इस प्रकार अर्थ घटित करना चाहिये कि कोई एक जीव गुणितकाशकी विधिसे आकर क्षपक हुआ फिर जब वह क्रमसे अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर छह नोकषायोंका अन्तर कर देता है और जब उसके उन्हीं कर्मों की गुणश्रेणिगोपुच्छाओंके द्वारा परिपूर्ण हुई उदय समयके सिवा उदयावलिप्रमाण गोपुच्छाएं शेष रह जाती हैं तब वह उतनी गुणश्रोणिगोगुच्छाओंका आश्रय लेकर अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है।
शंका—यहाँ उदय समयको क्यों छोड़ दिया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि यहाँ छह नोकषायोंका उदय नहीं होनेसे उसका स्तिबुक संक्रमणके द्वारा पर प्रकृतियोंमें संक्रमण देखा जाता है।
विशेषार्थ-छह नोकषायोंका उदय यथासम्भव आठवें गुणस्थान तक ही होता है, अतः . क्षपकके नौवें गुणस्थानमें उदय समयके सिवा उद्यावलिप्रमाण गुणश्रेणिगोपुच्छाओंका आश्रय लेकर यहाँ उत्कृष्ट स्वामित्व कहा है।
* उन्हीं छह नोकपायों के उदयसे झीनस्थितिबाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ?
६५२६. यह सूत्र सुगम है।
* जो गुणितकांश क्षपक जीव अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान है वह छह नोकपायोंके उदयसे झीनस्थितिबाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है ।
६५३०. इस सूत्रमें गुणितकांश पद का निर्देश इससे विपरीत क्षपितकर्माश जीवका निषेध करनेके लिये किया है। तथा क्षपक पदका निर्देश उपशामक जीवका निवारण करनेके लिये किया है।
शंका-ऐसा क्यों किया ?
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३१०
जयधवलाहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ विसोहीए बहुअस्स गुणसेढिदवस्स संगहह। दुचरिमसमयादिहेडिमापुवकरणणिवारणफलो चरिमसमयअपुवकरणणिद्देसो । तस्स पयदुक्कस्ससामित्तं होइ। तत्तो उवरि बहुदवावूरिदगुणसेढिणिसेए उदिण्णे सामित्तं किण्ण दिणं ? ण, तत्थेवेदेसिमुदयवोच्छेदेण उवरि दादुमसत्तीदो। उवसमसेडीए अणियट्टिउवसामओ से काले अंतरं काहिदि ति मदो देवो जादो तस्स अंतोमुहुत्तुववण्णल्लयस्स जाधे अपच्छिमं गुणसेढिसीसयमुदयमागयं ताधे छण्हमेदेसि कम्मंसाणं पयदुक्कस्ससामित्तं दायव्यमिदि णासंकणिजं, तत्थतणविसोहीदो अणंतगुणवसंतकसायुक्कस्सविसोहिं पेक्खियूण सव्वजहणियाए वि अपुवकरणक्खवयविसोहीए अणंतगुणत्तुवलंभादो । एत्थेव विसेसंतरपदुप्पायणहमुत्तरसुतं
* गवरि हस्स-रह-अरह-सोगाणं जइ कीरइ भय-दुगुंछाणमवेदगो
समाधान—क्योंकि उपशामककी विशुद्धिसे क्षपककी विशुद्धि अनन्तगुणी होती है जिससे गुणश्रेणि द्रव्यका अधिक संचय होता है। यही कारण है कि यहाँ उपशामक पदका निर्देश न करके क्षपक पदका निर्देश किया है।
यहाँ अपूर्वकरणके उपान्त्य समय आदि पिछले समयोंका निषेध करनेके लिये 'चरिमसमयअपुव्वकरण' पदका निर्देश किया है, क्योंकि प्रकृत विषयका उत्कृष्ट स्वामित्व इसीके होता है।
शंका_अपूर्वकरणके अन्तिम समयसे आगे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें जिसमें बहुत द्रव्यका संचय है ऐसे गुणश्रेणिनिषेकका उदय होता है, अतः इस उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान वहाँ जाकर करना चाहिये था ?
समाधान नहीं, क्योंकि अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें ही इन प्रकृतियोंकी उदयव्युच्छित्ति हो जाती है, अतः उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान आगे नहीं किया जा सकता।
शंका–उपशमश्रेणिमें अनिवृत्तिकरण उपशामक तदनन्तर समयमें अन्तर करेगा . किन्तु अन्तर न करके मरा और देव हो गया। उसके वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद जब अन्तिम गुणश्रेणिशीर्ष उदयमें आता है तब इन छह कर्मों के प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान करना चाहिये ?
समाधान-ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि उपशामक अनिवृत्तिकरणमें अन्तरकरण करनेके पूर्व जितनी विशुद्धि होती है उससे उपशान्तकषायकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है और इससे भी क्षपक अपूर्वकरणकी सबसे जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी बतलाई है। इसीसे इन छह कर्मों के प्रकृत उस्कृष्ट स्वामित्वका विधान अन्यत्र न करके क्षपक अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें किया है।
अब इस विषयमें जो विशेष अन्तर है उसका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि हास्य, रति, अरति या शोकका यदि कर रहा
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणझीणचूलियाए सामित्तं
३११ कायव्यो । जइ भयस्स तदो दुगुंछाए अवेदगो कायव्यो । अह दुगुंछाए तदो भयस्स अवेदगो कायव्यो ।
६५३१. कुदो एवं कीरदे ? ण, अविवक्खियाणं णोकसायाणमवेदगते त्थिवुक्कसंकममस्सियाणं विवक्खियपयडीणमसंखेजसमयपबद्धमेत्तगुणसेढिगोवुच्छदव्वस्स लाइदंसणादो।
५३२. संपहि पयदस्स उपसंहरणहमुत्तरमुत्तमोइण्णं* उकस्सयं सामित्तं समत्तमोघेण ।
है तो उसे भय और जुगुप्साका अवेदक रखना चाहिये। यदि भयका कर रहा है तो उसे जुगुप्साका अवेदक रखना चाहिये और जुगुप्साका कर रहा है तो भयका अवेदक रखना चाहिये।
६५३१. शंका-इस व्यवस्थाके करनेका क्या कारण है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि यदि यह जीव अविवक्षित नोकषायोंका अवेदक रहता है तो इसके विवक्षित प्रकृतियोंमें स्तिवुक संक्रमणके द्वारा असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण गुणश्रेणिगोपुच्छाके द्रव्यका लाभ देखा जाता है ।
विशेषार्थ-यहाँ पर गुणितकांश क्षपक जीवके अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व बतलाया है सो इसका कारण यह है कि छह नोकषायोंका उदयगत उत्कृष्ट द्रव्य वहीं पर प्राप्त होता है अन्यत्र नहीं। यद्यपि शंकाकार यह समझकर कि अपूर्वकरणसे अनिवृत्तिकरणमें अधिक द्रव्यका संचय होता है ऐसे जीवको अनिवृत्तिकरणमें ले गया है और वहाँ नोकषायोंका उदय न होनेसे उद्यगत उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त करनेके लिये उसे देवपर्यायमें उत्पन्न कराया है। किन्तु उपशमश्रेणिसे उपशान्तकषाय गुणस्थानमें और इससे क्षपक जीवके परिणामोंकी विशुद्धि अनन्तगुणी होती है, इसलिये गुणश्रेणिका उत्कृष्ट संचय क्षपक अपूर्वकरणमें ही होगा। यही कारण है कि उत्कृष्ट स्वामित्वका प्रतिपादन अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें किया है। तथापि ऐसा नियम है कि किसीके भय और जुगुप्सा दोनोंका उदय होता है। किसीके इनमेंसे किसी एकका उदय होता है और किसीके दोनोंका ही उदय नहीं होता। इसलिये यदि हास्य, रति, अरति या शोककी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कहना हो तो दोनोंके उदयके अभावमें कहना चाहिये। यदि भयकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कहना हो तो जुगुप्साके अभावमें कहना चाहिये और जुगुप्साकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कहना हो तो भयके अभावमें कहना चाहिये। ऐसा करनेसे लाभ यह है कि जब जिस प्रकृतिका उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त किया जायगा तब उसे जिन प्रकृतियोंका उदय न होगा, स्तिवुक संक्रमणके द्वारा उनका द्रव्य भी मिल जायगा।
$ ५३२. अब प्रकृत विषयका उपसंहार करनेके लिये आगेका सूत्र आया है* इस प्रकार ओघसे उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ ।
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३१२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ५३३. सुगम । एदेण मुत्तेण सूचिदो आदेसो गदि-इंदियादिचोद्दसमग्गणासु अणुमग्गियव्यो। एत्थ अणुकस्ससामित्तं किण्ण परूविदं इदि णासंका कायव्वा, उक्कस्सपरूवणादो चेव तस्स वि अणुत्तसिद्धीदो । उक्कस्सादो वदिरित्तमणुकस्सभिदि ।
* एत्तो जहणणयं सामित्तं वत्तहस्सामो।
$ ५३४. एत्तो आणंतरं जहण्णयमोकड्ड कड्डणादिचदुण्डं झीणहिदियाणं सामित्तमणुवत्तइस्सामो त्ति पइज्जामुत्तमेदं ।
मिच्छत्तस्स जहण्णयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियं कस्स?
६ ५३५. सुगममेदं पुच्छामुत्तं ।
* उवसामो छसु आवलियासु सेसासु आसाणं गो तस्स पढमसमयमिच्छाइहिस्स जहग्णयमोकड्डणादो उकडणादो संकमणादो च झीणहिदियं ।
६५३३. यह सूत्र सुगम है। इस सूत्रमें आये हुए ओघ पदसे आदेशका भी सूचन हो जाता है, इसलिये उसका गति और इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओंमें विचार कर कथन करना चाहिये।
शंका-यहाँ अनुत्कृष्ट स्वामित्वका कथन क्यों नहीं किया है ?
समाधान—ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन कर देनेसे ही अनुत्कृष्ट स्वामित्वका कथन हो जाता है, क्योंकि उत्कृष्टके सिवा अनुत्कृष्ट होता है ।।
विशेषार्थ—चूर्णिसूत्रकारने केवल ओघसे अपकर्षणादि चारोंकी अपेक्षा झीनस्थित्तिक उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन किया है और इसीलिये प्रकरणके अन्तमें 'ओघसे उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ' यह सूत्र रचा है। निश्चयतः इस सूत्रमें ओघ पद देखकर ही टीकामें यह सूचना की गई है कि इसी प्रकार विचार कर आदेशकी अपेक्षा भी गति आदि मार्गणाओं में इस उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करना चाहिये।
* अब इससे आगे जघन्य स्वामित्वको बतलाते हैं।
६५३४. अब इस उत्कृष्ट स्वामित्वके बाद अपकर्षणादि चारों झीनस्थितिवालोंके जघन्य स्वामित्वको बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र है ।
* मिथ्यात्वके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ।
६५३५. यह पृच्छासूत्र सरल है।
* जो उपशमसम्यग्दृष्टि छह आवलियोंके शेष रहने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ उसके मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर प्रथम समयमें वह अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कम परमाणुओंका स्वामी है ।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३१३ ५३६. एत्थ उवसामगो ति वुत्ते दंसणमोहणीयउवसामओ घेत्तव्यो, मिच्छत्तेणाहियारादो । जइ एवमुवसमसम्माइहि त्ति वत्तव्वं, अण्णहा उवसामणावावदावस्थाए चेव गहणप्पसंगादो ? ण एस दोसो, पाचओ भुजइ' ति णिव्वावारावत्थाए वि किरियाणिमित्तववएसुवलंभादो। छसु आवलियासु सेसासु आसाणं गओ ति पदेण वा उवसंतदंसणमोहणीयावत्थस्स गहणं कायव्वं । ण च तदवत्थस्स आसाणगमणे संभवो, विरोहादो। किमासाणं णाम ? सम्मत्तविराहणं। तं पि किंपञ्चइयं १ परिणामपञ्चइयमिदि भणामो । ण च सो परिणामो णिरहेउओ, अणंताणुबंधितिव्वोदयहेउत्तादो।
५३७. सम्मइंसणपरम्मुहीभावेण मिच्छत्ताहिमुहीभावो अणताणुबंधितिव्वोदयजणियतिव्वयरसंकिलेससिओ आसाणमिदि वुत्तं होइ । किमहमेसो छसु आवलियासु सेसासु आसाणं णीदो, ण वुणो उवसमसम्माइट्टी चेय मिच्छत्तं णिज्जइ
५३६. यहाँ सूत्रमें जो 'उपशामक' पद कहा है सो उससे दर्शनमोहनीयका उपशामक लेना चाहिये, क्योंकि यहाँ मिथ्यात्वका अधिकार है।
शंका-यदि ऐसा है तो सूत्रमें 'उपशमसम्यग्दृष्टि' इस पदका निर्देश करना चाहिये, अन्यथा उपशामनारूप अवस्थाके ही ग्रहणका प्रसंग प्राप्त होता है ?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जैसे 'पाचक भोजन करता है' यहाँ पाचन क्रियाके अभावमें भी पाचक शब्दका प्रयोग किया गया है वैसे ही व्यापार रहित अवस्थामें भी क्रियानिमित्तक संज्ञाका व्यवहार देखा जाता है, अतः उपशमसम्यग्दृष्टिको भी उपशामक कहने में कोई आपत्ति नहीं है।
अथवा सूत्रमें आये हुए 'छसु आवलियासु सेसासु आसाणं गओ' इस वचनसे दर्शनमोहनीय अवस्थाका उपशम करके उपशमसम्यग्दृष्टि हुए जीवका ग्रहण करना चाहिये । कारण कि उपशामकका सासादनमें जाना नहीं बन सकता, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है।
शंका-सासादनका क्या अर्थ है ? समाधान-सम्यक्त्वकी विराधना करना यही सासादनका अर्थ है। शंका-वह सासादन किस निमित्तसे होता है ?
समाधान—परिणामोंके निमित्तसे होता है ऐसा हम कहते हैं। परन्तु वह परिणाम बिना कारणके नहीं होता, क्योंकि यह अनन्तानुबन्धीके तीव्र उदयसे होता है।
६५३७. सम्यग्दर्शनसे विमुख होकर जो अनन्तानुबन्धीके तीव्र उदयसे उत्पन्न हुआ तीव्रतर संक्लेशरूप दूषित मिथ्यात्वके अनुकूल परिणाम होता है वह सासादन है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-यह जीव छह आवलिकाल शेष रहने पर सासादन गुणस्थानमें क्यों ले जाया गया है, सीधा उपशमसम्यग्दृष्टि ही मिथ्यात्वमें क्यों नहीं ले जाया गया ?
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ त्ति णासंकणिज्ज तत्थतणसंकिलेसादो एत्थ संकिलेसबहुत्तुवलभेण तहा करणादो । कुदो संकिलेसबहुत्तमिच्छिज्जदि ति चे ण, मिच्छत्तं गदपढमसमए ओकड्डि य उदयावलियभंतरे णिसिंचमाणदव्वस्स थोवयरीकरण तहाब्भुवगमादो । ण च संकिलेसकाले बहुदव्वोकड्डणासंभवो, विरोहादो ।
५३८. तदो एवं मुत्तत्थसंबंधो कायव्वो-जो उचसमसम्माइटी उवसमसम्मत्तद्धाए छसु आवलियासु सेसासु परिणामपञ्चएण आसाणं गदो, तदो तस्स अणंताणुबंधितिव्वोदयवसेण पडिसमयमणंतगुणाए संकिलेसवुडीए वोलाविय सगदस्स पढमसमयमिच्छाइहिस्स जहण्णयमोकड्डणादो झीणहिदियमिदि । एसो पयदसामिओ खविद-गुणिदकम्मंसियाणं कदरो ? अण्णदरो । कुदो ? मुत्ते खविदेयरविसेसणादसणादो। खविदकम्मंसियत्तं किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, एत्थ परिणामवसेण संकिलेसावरणलक्षणेण उदयावलियम्भंतरे ओकड्डिय णिसिंचमाणदव्वस्स खविद-गुणिदकम्मंसिएसु समाणपरिणामेसु सरिसत्तदंसणेण खविदकमंसियगहणे फलविसेसाणुव
समाधान-ऐसी आशंका करनी ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके प्राप्त होनेवाले संक्लेशसे सासादनमें बहुत अधिक संक्लेश पाया जाता है, इसलिये ऐसा किया है।
शंका-यहाँ अधिक संक्लेश किसलिये चाहा गया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें अपकर्षण होकर उदयावलिके भीतर दिये जानेवाले द्रव्यके थोड़ा प्राप्त करनेके लिये ऐसा स्वीकार किया है। यदि कहा जाय कि संक्लेशके समय बहुत द्रव्यका अपकर्षषण हो जायगा सो बात नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है।
५३८. इसलिये इस सूत्रका यह अर्थ समझना चाहिये कि जो उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व के काल में छह आवलि कालके शेष रहने पर परिणामोंके निमित्तसे सासादनको प्राप्त हुआ। फिर वहाँ अनन्तानुबन्धीके तीव्रोदयसे प्रति समय अनन्तगुणी हुई संक्लेशकी वृद्धिको बिताकर जब वह मिथ्यादृष्टि होता है तब मिथ्यादृष्टि होनेके प्रथम समयमें वह अपकर्षण आदि तीनसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है ।
शंका-यह प्रकृत स्वामी क्षपितकोश और गुणितकांश इनमेंसे कौन-सा है ? सामाधान-दोनोंमेंसे कोई भी हो सकता है। शंका-सो कैसे ?
समाधान-क्योंकि सूत्रमें क्षपितकर्माश या गुणितकांश ऐसा कोई विशेषण नहीं दिखाई देता।
शंका-यहाँ क्षपितकाश क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि संक्लेशको पूरा करनेवाले परिणामके निमित्तसे अपकर्षण करके उदयावलिके भीतर जो द्रव्य दिया जाता है वह एक समान परिणामवाले क्षपितकांश और गुणितकांश जीवोंके समान देखा जाता है, इसलिये यहाँ सूत्र में क्षपितकांश पदके ग्रहण
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३१५ लंभादो । तदो जेण वा तेण वा लक्खणेणागंतूण उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय सगदाए छावलियावसेसियाए आसाणमासादिय संकिलेसं पूरेयूण मिच्छत्तं गदपढमसमए उदीरिदथोवयरकम्मपदेसे घेत्तूण तस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ ति णिस्संसयं पडिवजेयव्वं ।
६५३६. एत्थ पयददव्वविसए सिस्साणं णिण्णयजणणहमंतरपूरणविहाणं वत्तइस्सामो । तत्थ ताव अंतरं सेसदीहत्तमुवसमसम्मत्तद्धादो संखेजगुणं होदि । कुदो एवं परिच्छिज्जदे ? दंसणमोहणीयउवसामणाए परूविस्समाणपणुवीसपडिअप्पाबहुअदंडयादो । तदो पुत्वविहाणेणागदपढमसमयमिच्छाइट्टी अंतरविदियहिदिपढमणिसेयमादि कादण जाव मिच्छत्तस्स अंतोकोडाकोडिमेतहिदीए चरिमणिसेओ ति ताव एदेसि पदेसग्गं पलिदोवमासंखे०भागमेत्तोकड्ड कड्डणभागहारेण खंडेयूण तत्थेयखंडमंतरावरणहमोकड्डदि । पुणो एवमोकड्डिददव्वमसंखेजालोगमेत्तभागहारेण खंडिय तत्थेयखंडं घेत्तूण उदए बहुअं णिसिंचदि । विदियसमए विसेसहीणं णिसेयभागहारेण । एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाबुदयावलियचरिमसमयमेतद्धाणं गंतूण असंखेज्जलोगकरनेमें विशेष लाभ नहीं है।
. इसलिये क्षपितकांश और गुणितकाश इनमेंसे किसी भी एक विधिसे आकर और उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके जब उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलि शेष रह जाय तब सासादन गुणस्थानको प्राप्त कर और संक्लेशको पूरा कर मिथ्यात्वमें जाय । इस प्रकार मिथ्यात्व को प्राप्त हुए इस जीवके उसके प्रथम समयमें उदीरणाको प्राप्त हुए थोड़ेसे कर्मपरमाणुओंकी अपेक्षा प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है इस प्रकार यह बात निःशंसयरूपसे जाननी चाहिये।
६५३६. अब यहाँ प्रकृत द्रव्यके विषयमें शिष्योंको निर्णय हो जाय इसलिये अन्तरके पूरा करनेकी विधि बतलाते हैं-यहाँ उपशमसम्यक्त्वके रहते हुए जितना अन्तरकाल समाप्त हुआ है उससे जो अन्तरकाल शेष बचा रहता है वह उपशमसम्यक्त्वके कालसे संख्यातगुणा होता है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-दर्शनमोहनीयकी उपशामनाके सिलसिलेमें जो पच्चीस स्थानीय अल्पबहुत्वदंडक कहा जायगा उससे यह जाना जाता है ।
। अतएव पूर्व विधिसे आकर जो मिथ्यादृष्टि हो गया है वह मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें अन्तरकालके ऊपर दूसरी स्थितिमें स्थित प्रथम निषेकसे लेकर मिथ्यात्वकी अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिके अन्तिम निषेक तक जितनी स्थितियाँ हैं उन सबके कर्मपरमाणुओंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारका भाग देकर वहाँ जो एक भाग प्राप्त होता है उसे अन्तरको पूरा करनेके लिये अपकर्षित करता है। फिर इस प्रकार अपकर्षित हुए द्रव्यमें असंख्यात लोकप्रमाण भागहारका भाग देकर जो एक भाग प्राप्त हो उसमें से बहुभाग उदयमें देता है। दूसरे समयमें विशेष हीन देता है। यह विशेषका प्रमाण निषेकभागहारसे ले आना चाहिये । इस प्रकार उदयावलिके अन्तिम समय तक विशेष हीन विशेष हीन द्रव्य देना चाहिये । यहाँ उदय समयसे लेकर उदयावलिके अन्तिम समय तक असंख्यात
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे - [पदेसविहत्ती ५ पडिभागेण गहिददव्वं णिहिदं ति । एदं च पयदसामित्त विसयीकयं जहण्णदव्वं । पुणो सेसअसंखेजभागे घेत्तूणुवरिमाणंतरहिदीए असंखेजगुणं णिसिंचदि। को एत्थ गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । तत्तो णिसेयभागहारेण दोगुणहाणिपमाणेण विसेसहीणं णिक्खियदि जावंतरचरिमहिदि ति । पुणो अणंतरउवरिमहिदीए दिस्समाणपदेसग्गस्सुवरिं असंखेज्जगुणहीणं संछुहदि । तत्तो प्पहुडि पुव्वविहाणेण विसेसहीणं विसेसहीणं देदि जावप्पप्पणो गहिदपदेसमहिच्छावणावलियामेत्तेण अपत्तं ति ।
५४०. एत्थ विदियहिदिपढमणिसेयम्मि दिज्जमाणदव्वस्स अंतरचरिमहिदिणिमित्तपदेसग्गादो असंखेजगुणहीणत्तसाहणमिमा ताव परूवणा कीरदे । तं जहा-- अंतोकोडाकोडिमेत्तविदियहिदिसव्वदव्वमप्पणो पढमणिसेयपमाणेण फीरमाणं दिवड्डगुणहाणिमेत्तं होइ ति कट्टु दिवडगुणहाणी आयामं विदियहिदिपढमणिसेयविक्खंभं खेतमुट्टायारेण ठविय पुणो ओकड्ड कड्डणभागहारमेत्तफालीओ उड़ फालिय तत्थेयफालिं घेत्तूण दक्खिणफासे ठविदे पढमसमयमिच्छादिहीणं अंतरावूरणहमोकड्डिददव्वं खेत्तायारेण पुव्वुतायाम पुघिल्लविक्खं भादो असंखेजगुणहीणं विक्खंभं होऊण
लोकप्रतिभागसे प्राप्त हुआ एक भागप्रमाण द्रव्य समाप्त हो जाता है। यह प्रकृत स्वामित्वका विषयभूत जघन्य द्रव्य है। फिर शेष असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्यमेंसे उपरिम अनन्तरवर्ती स्थितिमें असंख्यातगुणे द्रव्यका निक्षेप करता है।
शंका-यहाँ गुणकारका प्रमाण क्या है ? समाधान-- असंख्यात लोक ।
फिर इससे आगेकी स्थितिमें दो गुणहानिप्रमाण निषेकभागहारकी अपेक्षा विशेष हीन द्रव्यका निक्षेप करता है। इस प्रकार यह क्रम अन्तरकालके अन्तिम समय तक चालू रहता है। फिर इससे आगेकी उपरिम स्थितिमें दृश्यमान कर्मपरमाणुओंके ऊपर असंख्यातगुणे हीन द्रव्यका निक्षेप करता है। फिर इससे आगे अतिस्थापनावलिके प्राप्त होनेके पूर्व तक पूर्वविधिसे विशेष हीन विशेष हीन द्रव्यका निक्षेप करता है।
६५४०. अब यहाँ द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकमें दिया गया द्रव्य अन्तरकालकी अन्तिम स्थितिमें दिये गये द्रव्यसे जो असंख्यातगुणा हीन है सो इसकी सिद्धि करनेके लिये यह आगेकी प्ररूपणा करते हैं। जो इस प्रकार है-अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण दूसरी स्थितिमें स्थित सब द्रव्यके अपने प्रथम निषेकके बराबर हिस्से करने पर वे डेढ़ गुणहानिप्रमाण प्राप्त होते हैं ऐसा समझकर डेढ़ गुणहानिप्रमाण लम्बे और दूसरी स्थितिके प्रथम निषेकप्रमाण चौड़े क्षेत्रकी ऊर्ध्वाकाररूपसे स्थापना करो। फिर अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारप्रमाण फालियोंको ऊपरसे नीचे तक एक रेखामें फाड़ कर उनमेंसे एक फालिको ग्रहण करके उसे दक्षिण पाश्वमें रखो। इस प्रकार रखी गई इस फालिका प्रमाण मिथ्यादृष्टियोंके प्रथम समयमें अन्तरको पूरा करनेके लिये जो द्रव्य अपकर्षित किया जाता है उतना होगा और क्षेत्रके आकार रूपसे देखने पर यह पहले जो क्षेत्रकी लम्बाई बतला आये हैं उतनी लम्बी तथा पहले बतलाये गये क्षेत्रकी चौड़ाईसे
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३१७ चिट्टइ । एत्थ असंखेजलोगपडिभागेण उदयावलियम्भंतरे णिसित्तदव्वमप्महाणं काऊण सयलसमत्थाए एदिस्से फालीए आयामे अंतोमुहुत्तोवट्टिददिवडगुणहाणीए खंडिदे अंतरदीहरा अणंतरपरूविदविक्खंभा संपहियभागहारमेत्ता खंडा लब्भंति । पुणो एदेसिमंतरे रूवृणोकड कड्डणभागहारमेत्तखंडे घेतूण पुचिल्लखेत्तस्स हेढदो संधिय दृविदे हिदि पडि विदियट्टिदिपढमणिसेयदिस्समाणपदेसग्गपमाणेण अंतरं णिरंतरमावरिदं होइ। णवरि मोवुच्छविसेसादिउत्तरअंतोमुहुत्तगच्छसंकलणाखेत्त मवसिहरूवूणोकड्डक्कहुणभागहारपरिहीणपुव्वभागहारमेत्तखंडदव्यपुजादो घेत्तृण विवज्जासं काऊण अंतरभंतरे ठवेयव्वं । अण्णहा गोवुच्छायाराणुप्पत्तीदो । एवमंतरहिदीसु पदिददव्वपमाणपरूवदा कदा।
५४ १. संपहि विदियद्विदिपढमणिसेए पडमाणदव्वपमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा--पुग्विल्लपुधविदखंडेहिंतो परूविदायामविक्खंभपमाणेहिंतो एयं खंड उच्चाइय एदमुदयावलियबाहिरहिदीसु सव्वासु वि विहज्जिय पदइ त्ति अंतरोवट्टिददिवडगुणहाणीए रूवाहियाए विक्खंभमोवट्टिय वित्थारिदे एयखंडमस्सियूण णिरुद्धहिदीए पदिदपदेसग्गमप्पणो मूलदबमोकड्डक्कड्डणभागहारेण संपहियभागहारपदुप्पण्णेण खंडिय तत्थेयखंडपमाणं होइ । सेसखंडाणि वि अस्सियूण एत्तियमेत्तं चेय
असंख्यातगुणी हीन चौड़ी होकर स्थित होती है। यहाँ असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके द्वारा उदयावलिके भीतर निक्षिप्त किये गये द्रव्यकी प्रधानता न करके पूरी समर्थ इस फालिके आयाममें अन्तर्मुहूर्तसे भाजित डेढ़ गुणहानिका भाग देनेपर अन्तरकाल प्रमाण लम्बे और पूर्वोक्त विष्कम्भवाले साम्प्रतिक भागहारप्रमाण खण्ड प्राप्त होते हैं। फिर इन खण्डोंमेंसे एक कम अपकर्षणउत्कर्षण-भागहारप्रमाण खण्डोंको ग्रहण कर पूर्वोक्त क्षेत्रके नीचे मिलाकर स्थापित करने पर प्रत्येक स्थितिके प्रति द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकमें दृश्ययान कर्मपरमाणुओंके प्रमाणके हिसाबसे अन्तर निरन्तर क्रमसे आपूरित हो जाता है। किन्तु गोपुच्छविशेषके प्रारम्भसे लेकर अन्त तक जो अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गच्छ है उसके संकलनरूप क्षेत्रको एक कम अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे हीन पूर्वभागहारप्रमाण खण्डभूत द्रव्यपुंजोंमेंसे ग्रहण करके और विपरीत करके अन्तरके भीतर स्थापित कर देना चाहिये । अन्यथा गोपुच्छके आकारकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। इस प्रकार अन्तरस्थितियोंमें जितना द्रव्य प्राप्त होता है उसके प्रमाणका कथन किया।
६५४१. अब द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकमें जो द्रव्य प्राप्त होता है उसके प्रमाणका विचार करते हैं जो इस प्रकार है--जिसके आयाम और विष्कम्भके प्रमाणका पहले कथन कर आये हैं ऐसे पृथक् स्थापित पर्वोक्त खण्डमेंसे एक खण्डको निकाल ले। फिर यह खण्ड उदयावलिके बाहरकी सभी स्थितियोंमें विभक्त होकर प्राप्त होता है, इसलिये डेढ़ गुणहानिमें अन्तरकालका भाग देने पर जो लब्ध आवे एक अधिक उसका विष्कम्भमें भाग देकर प्राप्त हुई राशिको फैलाने पर एक खण्डकी अपेक्षा विवक्षित स्थितिमें जो कर्मपरमाणु प्राप्त होते हैं उनकी संख्या आती है जो अपने मूल द्रव्यमें सांप्रतिक भागहारसे गुणित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग देने पर प्राप्त हुए एक खण्डप्रमाण होता है। शेष खण्डोंकी अपेक्षा भी इतना ही द्रव्य प्राप्त होता
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ दव्वं लहामो ति खंडगुणयारो पुव्वपरूविदपमाणो एदस्स गुणयारसरूवेण ठवेयव्यो । एवं कदे सव्वखंडाणि अस्सियूण अहियारहिदीए पदिददव्यमागच्छदि । एत्थ जइ गुणगारभागहारा सरिसा होति तो सयलेयखंडपडिभागिषं पयदणिसेयदव्वपमाणं होज ? ण च एवं, भागहारं पेक्खियूण गुणगारस्स ओकडकड्डणभागहारमेत्तरूवेहि हीणत्तदंसणादो । तदो किंचूणमेयखंडपडिबद्धदव्वं पयदणिसेए दिजमाणं होइ । अंतरचरिमहिदिणिसितदव्वे पुण एदेण पमाणेण कीरमाणे सादिरेयओकडुक्कड्डणभागहारमेत्ताओ सलागाओ लभंति, पुबिल्लदव्वस्सुवरि एत्तियमेतदव्वस्स सविसेसस्स पवेसुवलंभादो। खंडं पडि उव्यरिददव्वस्स अणंतरभागहारोवट्टिदसंपुण्णोकड्ड कड्डणभागहारपदुप्पण्णसयलेयखंडपमाणत्तवलंभादो च । एत्थ तेरासियं काऊण सिस्साणं सादिरेयोकड कड्डणभागहारमेत्तगुणयारविसओ पबोहो कायव्यो । तम्हा अणंतरचरिमहिदिणिसित्तदव्वादो विदियहिदिपढमणिसेयम्मि णिवदंतदव्यमसंखेजगुणहीणपिदि सिद्धं । दिस्समाणपदेसग्गं पुण विसेसहीणं गिसेयभागहारपडिभागेण । तदो उदयावलियबाहिरे अतरपढमहिदिमादि कादण एया गोवुच्छा । जेणेवमंतरम्मि उदयावलियवज्जम्मि बहुअं दव्वं णिखिवदि तेणंतरस्स हेहदो उदयावलियभंतरे असंखेजगुणहीणा एयगोउच्छा जादा । तदो एवंविहउदयावलियम्भंतरणिसित्तदव्वं घेत्तण पयदजहण्णसामित्तमिदि सुसंबद्धं । है, इसलिये पर्वोक्त प्रमाण खण्डगुणकारको इसके गुणकाररूपसे स्थापित करना चाहिये। इस प्रकार करने पर सब खण्डोंकी अपेक्षा विवक्षित स्थितिमें जितना द्रव्य प्राप्त होता है उसका प्रमाण आता है। यहाँ यदि गुणकार और भागहार समान होते तो पूरे एक खण्डका प्रतिभाग प्रकृत निषेकके द्रव्यप्रमाण प्राप्त होता । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि भोगहारकी अपेक्षा गुणकार अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारके जितने अंक हैं उतना कम देखा जाता है। इसलिये कुछ कम एक खण्डसम्बन्धी द्रव्य प्रकृत निषेकमें दीयमान द्रव्य होता है। किन्तु अन्तरकालकी अन्तिम स्थितिमें जो द्रव्य निक्षिप्त किया गया है उसे इस प्रमाणसे करने पर साधिक अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार शलाकाएँ प्राप्त होती हैं, क्योंकि पूर्वकालीन द्रव्यके ऊपर साधिक इतने द्रव्यका प्रवेश पाया जाया है और एक खण्डके प्रति जो द्रव्य शेष बचता है वह, अन्तरभागहारसे पूरे अपकर्षणउत्कर्षणभागहारमें भाग देकर जो प्राप्त हो उससे परे एक खण्डको गुणा करने पर जो प्राप्त हो, उतना होता है । यहाँ पर त्रैराशिक करके शिष्योंको साधिक अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारप्रमाण गुणकारका ज्ञान कराना चाहिये । इसलिये अनन्तर अन्तिम स्थितिमें निक्षिप्त हुए द्रव्यसे द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकमें निक्षिप्त होनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा हीन होता है यह सिद्ध हुआ। किन्तु दृश्यमान कर्मपरमाणु निषेकभागहाररूप प्रतिभागकी अपेक्षा विशेष हीन होते हैं। इसलिये उदयावलिके बाहर अन्तरकालकी प्रथम स्थितिसे लेकर एक गोपुच्छा है। यतः इस प्रकार उदयावलिके सिवा अन्तरकालके भीतर बहुत द्रव्य निक्षिप्त होता है अतः अन्तरकालके नीचे उदयावलिके भीतर असंख्यातगुणी हीन एक गोपुच्छा प्राप्त होती है। इसलिये इस प्रकार उदयावलिके भीतर प्राप्त हुए द्रव्यकी अपेक्षा प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है यह बात सुसम्बद्ध हैं ।
विशेषार्थ—यहाँ अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा मिथ्यात्वके झीनस्थिति
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३१९ ६५४२. संपहि जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं कस्से त्ति आसंकाए णिरायरणहमिदमाह
* उदयादो जहएणयं झीणहिदियं तस्सेव प्रावलियमिच्छादिहिस्स ।
५४३. तस्सेव उवसामयस्स उवसमसम्मत्तदाए छ आवलियाओ अत्थि त्ति आसाणं गंतूण संकिलेसेण वोलाविदसगदस्स मिच्छत्तमुवणमिय पढमसमयमिच्छादिहिआदिकमेण आवलियमिच्छादिहिभावेणावद्विदस्स जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं वाले कर्मपरमाणुओंके जघन्य स्वामित्वका विचार किया जा रहा है। उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणु इन तीनोंके अयोग्य हैं यह तो पहले ही बतला आये हैं। अब यहाँ यह देखना है कि उदयावलिके भीतर मिथ्यात्वके कमसे कम कर्मपरमाणु कहाँ प्राप्त होते हैं । उपशमसम्यक्त्वके कालसे अन्तरकाल संख्यातगुणा बड़ा होता है ऐसा नियम है, अतः ऐसा जीव जब उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्व गुणस्थानमें आता है तो उसे वहाँ मिथ्यात्वका अपकर्षण करके अन्तरकालके भीतर फिरसे निषेक रचना करनी पड़ती है, इसलिये यहाँ उदयावलिमें पूर्व संचित द्रव्य न होनेसे वह कमती प्राप्त होता है । यद्यपि ऐसे जीवके संक्लेशरूप परिणाम तो होते हैं पर यह जीव उपशमसम्यक्त्वके कालको समाप्त करके मिथ्यात्वमें गया है इसलिये इसके संक्लेशरूप परिणामोंकी उत्कृष्टता नहीं प्राप्त हो सकती है और संक्लेशरूप परिणामोंकी जितनी न्यूनता रहेगी कर्मपरमाणुओंका उतना ही अधिक अपकर्षण होगा ऐसा नियम है, अतः इस प्रकार जो जीव सीधा उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वको प्राप्त होता है उसके भी अपकर्षण आदि तीनोंके अयोग्य मिथ्यात्वका जघन्य द्रव्य नहीं पाया जाता है। इसीसे चूर्णिसूत्रकारने इसे छह आवलि काल शेष रहने पर पहले सासादन गुणस्थानमें उत्पन्न कराया है और फिर मिथ्यात्वमें ले गये हैं। ऐसे जीवके संक्लेशकी अधिकता रहनेसे मिथ्यात्वके प्रथम समयमें बहुत कम मिथ्यात्वके कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण होता है। ऐसा जीव गुणितकमांश भी हो सकता है और क्षपितकर्माश भी, क्योंकि एक तो अन्तरकालके भीतर द्रव्य नहीं रहता, दूसरे इन दोनोंके उपशमसम्यक्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वमें पहुँचने तक समान परिणाम रहते हैं, अतः इन दोनोंके ही द्वितीय स्थितिमें स्थित द्रव्यमें महान् अन्तर रहते हुए भी मिथ्यात्वके प्रथम समयमें समान द्रव्यका अपकर्षण होता है। इसलिये अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका जघन्य स्वामित्व ऐसे ही प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके कहना चाहिये जो उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर छह आवलि कालतक सासादन गुणस्थानमें रहा है और फिर वहाँसे मिथ्यात्वमें गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
६५४२. अब उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है इस आशंकाके निराकरण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* वही मिथ्यादृष्टि जीव एक आवलि कालके अन्तमें उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है।
६५४३. वही उपशामक उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलि कालके रहने पर सासादनमें जाकर और संक्लेशके साथ सासादनके कालको बिताकर जब मिथ्यात्वको प्राप्त होकर वहाँ प्रथम समयसे लेकर एक आवलि कालतक मिथ्यात्वरूप परिणामोंके साथ अवस्थित रहता है तब वह उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है। मिथ्यादृष्टिके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ होदि । मिच्छाइहिपढमसमयप्पहुडि पडिसमयमणंतगुणं संकिलेसमावूरिय समयूणावलियमेत्तकालमहियारहिदीए णिसिंचमाणदव्वस्स समयणावलियमेत्तगोवुच्छविसेसेहितो असंखेजगुणहीणत्तादो पढमसमयमिच्छाइद्विपरिहारेणावलियमिच्छाइहिम्मि सामित्तं दिण्णं, अण्णहा पढमसमयम्मि चेव सामित्तप्पसंगादो । कुदो एदं परिच्छिज्जदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो।
* सम्मत्तस्स जहणणयमोकडणादितिरह पि झीपहिदियं कस्स ? $ ५४४. सुगमं ।
8 उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयवेदयसम्माइहिस्स प्रोकड्डणादो उक्कडणादो संकमणादो च झीणहिदियं ।
५४५. पढमसमयवेदयसम्माइहिस्स पयदसामित्तं होइ ति सुत्तत्थसंबंधो । किमविसिहस्स ? नेत्याह उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स उपशमसम्यक्त्वं पश्चात्कृतं येन प्रथम समयसे लेकर प्रत्येक समयमें अनन्तगुणे संक्लेशको प्राप्त करके एक समय कम आवलिप्रमाण कालतक अधिकृत स्थितिमें जो द्रव्य प्राप्त होता है वह एक समय कम आवलिप्रमाणगोपुच्छाविशेषोंसे असंख्यातगुणा हीन होता है, इसलिये प्रथमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिको छोड़कर एक श्रावलि कालतक रहे मिथ्यादृष्टिके जघन्य स्वामित्व कहा है। अन्यथा प्रथम समयमें ही जघन्य स्वामित्वका प्रसंग प्राप्त हो जाता।
शंका-जिसे मिथ्यात्व प्राप्त हुए एक आवलि काल हुआ है उसे जघन्य स्वामित्व प्राप्त होता है यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान-इसी सूत्रसे जाना।
विशेषार्थ-यद्यपि जो जीव उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर और छह आवलि कालतक सासादन गुणस्थानमें रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उसके पहले समयमें ही मिथ्यात्वका उदय हो जाता है परन्तु इस समय जो उदयगत द्रव्य है उससे एक आवलिकालके अन्तमें उदयमें आनेवाला द्रव्य न्यून होता है। इसीसे उद्यसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका जघन्य स्वामित्व मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके समयसे लेकर एक आवलिप्रमाण कालके व्यतीत होनेपर उसके अन्तिम समयमें कहा है।
___ * सम्यक्त्वके अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्म परमाणुओंका स्वामी कौन है ?
६५५४. यह सूत्र सुगम है।
* जो उपशमसम्यक्त्वसे वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उसके प्रथम समयमें वह अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी है।
६५४५. प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिके प्रकृत स्वामित्व होता है यह इस सूत्रका अभिप्राय है। क्या सामान्यसे सभी प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टियोंके जघन्य स्वामित्व होता है ? नहीं, बस इसी बातके बतलानेके लिये 'उपशमसम्मत्तपच्छायदस्स' यह पद कहा है।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३२१ स तथोच्यते । उवसमसम्मत्तं पच्छायरिय गहिदवेदयसम्मत्तस्स पढमसमए असंखेज्जलोयपडिभाएण उदयावलियभंतरे णिसित्तदव्वं घेत्तूण सम्मत्तस्स अप्पियसामित्तमिदि वुत्तं होइ । सेसपरूवणाए मिच्छत्तभंगो।
8 ५४६. संपहि जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं कस्से त्ति आसंकाणिवारणहमुत्तरसुत्तमोइण्णं
* तस्सेव प्रावलियवेदयसम्माइहिस्स जहएणयमुदयादो झीणहिदियं ।
५४७. तस्सेव पुन्विल्लसामियस्स आवलियमेत्तकालं वेदयसम्मत्ताणुपालणेण आवलियवेदयसम्माइडिववएसमुव्वहंतस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ। एत्थ पढमसमयवेदयसम्माइद्विपरिहारेण उदयावलियचरिमसमए सामित्तविहाणे पुव्वं व कारणं परूवेयव्यं । इसका अर्थ है जिसने उपशमसम्यक्त्वको पीछे कर दिया है वह जो उपशमसम्यक्त्वको त्याग कर वेदकसम्यग्दृष्टि हुआ है उसके प्रथम समयमें असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार उदयावलिके भीतर प्राप्त हुए द्रव्यकी अपेक्षा सम्यक्त्वका विवक्षित स्वामित्व होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शेष सब कथन मिथ्यात्वके समान है।
विशेषार्थ-जब उपशमसम्यग्दृष्टि उपशमसम्यक्त्वके कालको समाप्त करके वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तब वह अपने प्रथम समयमें ही सम्यक्त्व प्रकृतिका अपकर्षण करके उससे अन्तरकालको भर देता है । यद्यपि इस प्रकार अन्तरकालके भीतर अपकर्षित द्रव्य प्राप्त होता है तथापि यहाँ पूर्व संचित द्रव्य नहीं रहनेसे यह द्रव्य अति थोड़ा है, इसलिये ऐसे जीवको ही सम्यक्व प्रकृतिकी अपेक्षा अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी कहा है। यहाँ पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि उपशमसम्यग्दृष्टिको मिथ्यात्वमें ले जाकर जयन्य स्वामी क्यों नहीं कहा; क्योंकि वहाँ वेदक सम्यग्दृष्टिसे कम द्रव्यका अपकर्षण होता है। पर बात यह है कि जिस प्रकृतिका उदय होता है उदय समयसे लेकर अपकर्षित द्रव्यका निक्षेप उसी प्रकृतिका होता है। किन्तु मिथ्यात्व गुणस्थानमें सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होता नहीं, इसलिये ऐसे जीवके मिथ्यात्वमें एक आवलि कालतक उदयावलिप्रमाण निषेक ही सम्भव नहीं, अतः जघन्य स्वामित्व मिथ्यात्वमें न बतला कर वेदक सम्यक्त्वके प्रथम समयमें बतलाया है।
५४६. अब उदयसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है इम आशंकाके निवारण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* वही वेदक सम्यग्दृष्टि जीव एक आवलि कालके अन्तमें उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी है।
६५४७. एक आवलिप्रमाण कालतक वेदकसम्यक्त्वका पालन करनेसे 'आवलिक वेदकसम्यग्दृष्टि' इस संज्ञाको प्राप्त हुए उसी पूर्वोक्त जीवके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है। यहाँ प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिका परिहार करके जो उदयावलिके अन्तिम समयमें स्वामित्वका विधान किया है सो इसका पहलेके समान कारण कहना चाहिये।
विशेषार्थ जैसे मिथ्यात्वका उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामित्व उदयावलिके अन्तिम समयमें कहा है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिये।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ ® एवं सम्मामिच्छत्तस्स । ५४८. सुगममेदमप्पणासुतं ।
ॐ गवरि पढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स प्रावलियसम्मामिच्छाइहिस्स चेदि।
५४६. दोसु वि सामित्तमुत्तेसु आलावको विसेसो जाणियव्यो ।
* अहकसाय चउसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं जहण्णयमोकडणादो उक्कणादो संकमणादो च झीणहिदियं कस्स ?
$ ५५०. सुगममेदं ।
ॐ उवसंतकसाओ मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स जहरणयमोकडणादो उकड्डणादो संकमणादो च झीपहिदियं ।
१५५१. जो उवसंतकसाओ वीदरागछदुमत्थो अण्णदरकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सेढिमारूढो कालगदसमाणो मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवभावणावहियस्स
* इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके विषयमें जानना चाहिये। ६५४८. यह अर्पणासूत्र सुगम है।
* किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम समयवर्ती सम्यग्मिथ्याष्टिके और उदयावलिके अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके जघन्य स्वामित्व कहना चाहिये ।
$ ५४९. दोनों ही स्वामित्व सूत्रोंमें व्याख्यानकृत विशेषता प्रकरणसे जान लेनी चाहिये ।
विशेषार्थ-जैसे सम्यक्त्व प्रकृतिकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्वका कथन करते समय जीवको उपशमसम्यक्त्वसे वेदकसम्यक्त्वमें ले जाकर उसके प्रथम समयमें अपकर्षणादि तीनकी अपेक्षा और उदयावलिके अन्तिम समयमें उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी कहा है वैसे ही उपशमसम्यक्त्वसे सम्यग्मिथ्यात्वमें ले जाकर उसके प्रथम समयमें अपकर्षणादि तीनकी अपेक्षा और उदयावलिके अन्तिम समयमें उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी कहना चाहिये यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है।
___ * आठ कषाय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हस्य, रति, भय और जुगुप्साके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ?
६५५०. यह सूत्र सुगम है।
* जो उपशान्तकषाय जीव मरकर देव हो गया, प्रथम समयवर्ती वह देव उक्त प्रकृतियोंके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओं का स्वामी है।
६५५१. क्षपितकांश या गुणितकांश इनमेंसे किसी भी एक विधिसे पाकर जो जीव उपशमश्रेणिपर चढ़कर उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ हो गया और फिर मरकर देव हो गया
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं जहण्णयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदियं होइ ति सुत्तत्थसंबंधो । कथं देवेमुप्पण्णपढमसमए विदियहिदीए हिदपदेसग्गाणमंतरहिदीम असंताणमेक्कसराहेण उदयावलियप्पवेसो ? ण, सव्वेसि कारणाणं परिणामवसेण अक्कमेणुग्यादाणुवलंभादो । तदो उवसंतकसारण देवेमुप्पण्णपढमसमए पुवुत्तविहाणेणंतरं पूरेमाणेण उदयावलियब्भंतरे असंखेज्जलोयपडिभाएण णिसित्तदनं घेत्तूण सुत्तत्तासेसकम्माणं विवक्खियजहएणसामित्त होइ ति घेतव्वं । एत्थ केइ आइरिया एवं भणंति-जहा होउ णाम लोभसंजलणस्स उवसंतकसायपच्छायददेवम्मि देवपज्जायपढमसमए वट्टमाणयम्मि जहण्णसामित्तं, अण्णहाकाउमसत्तीदो । कुदो एवं चेत्र ? हेहा अण्णदरसंजलणपढमहिदीए पिल्लेवणासंभवादो। तहा सेससंजलाणं पि तत्थेव सामित्तं होउ णाम, अण्णहा देवेसुप्पण्णपढमसमए विवक्खियसंजलणाणमुवरि अविवक्खियसंजलणगुणसेढिदबस्स स्थिवुक्कसंकमप्पसंगेण जहण्णत्ताणुववत्तीदो। ण वुणो सेसकसायाणमेत्थ सामित्तण होयव्वं,चढमाणअणियट्टिचरदेवम्मि तेसिमंतरं काऊण देवेसुप्पण्णपढमसमए वहमाणयम्मि जहण्णसामित्त लाइदंसणादो । तं जहा-सो देवेमुप्पण्णपढमसमए जेसिमुदओ
वह प्रथम समयवर्ती देव अपकर्षणादि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्भपरमाणुओंका स्वामी होता है यह इस सूत्रका भावार्थ है।
शंका—जो कर्मपरमाणु अन्तरकालकी स्थितियोंमें न पाये जाकर द्वितीय स्थितिमें पाये जाते हैं उनका देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही एकदम उदयावलिमें कैसे प्रवेश हो जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वहां परिणामोंकी परिवशतासे सभी कारणोंका युगपत् उद्घाटन पाया जाता है, इसलिये जो उपशान्तकवाय जीव देवोंमें उत्पन्न होता है वह वहां प्रथम समयमें ही पूर्वोक्त विधिसे अन्तरकालको कर्मनिषकोंसे पूरा कर देता है। और इसप्रकार उदयावलिके भीतर असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार जो द्रव्य निक्षिप्त होता है उसकी अपेक्षा सूत्रमें कहे गये सब कर्मों का विवक्षित जघन्य स्वामित्व प्राप्त होता है, यह अर्थ यहां लेना चाहिये।
शंका-यहांपर कितने ही आचार्य इसप्रकार कथन करते हैं कि जो उपशान्तकषाय जीव मरकर देव हुआ और देव पर्यायके प्रथम समयमें विद्यमान है उसके लोभसंज्वलनका जघन्य स्वामित्व भले ही रहा आओ, क्योंकि इसको अन्य प्रकारसे घटित करना शक्य नहीं है । ऐसा ही क्यों है ऐसा पूछनेपर शंकाकार कहता है कि इससे नीचे संज्वलनकी सब प्रकृतियोंकी प्रथम स्थितिका अभाव असंभव है अतः वहां जघन्य स्वामिस्व नहीं दिया जा सकता है। उसीप्रकार शेष संज्वलनोंका भी स्वामित्व वहींपर रहा आवे, अन्यथा देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें विवक्षित संज्वलनोंके ऊपर अविवक्षित संज्वलनोंके गुणश्रेणिद्रव्यका स्तिबुक संक्रमण प्राप्त होनेसे जघन्यपना नहीं बन सकता है। परन्तु शेष कषायोंका स्वामित्व यहांपर नहीं होना चाहिये, क्योंकि जो उपशमश्रेणिपर चढ़ते हुए अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है वह पहले अनिवृत्तिकरणमें उक्त प्रकृतियोंका अन्तर करके जब मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ तब वहां उत्पन्न होनेके प्रथम समयवती उसके जघन्य स्वामित्वका कथन करनेमें लाभ देखा जाता
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३२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ अत्थि तेसिमुदीरिजमाणदव्वमुवसंतकसायचरमदेवविसोहीदो अणंतगुणहीणविसोहिए पुचिल्लसामिदब्बादो थोवयरमुदयादी संछुहदि, विसोहिपरतंताए उदीरणाए तत्तारतमाणुविहाणस्स गाइयत्तादो। ण एत्थ त्थिवुक्कसंकमस्स संभवो आसंकणिज्जो, जेसिमुदयो गत्थि तेसिमुदयावलियबाहिरे एयगोवुच्छायारेण णिसेयदसणादो विवक्खियकसायस्स सजादियसंजलणपढमहिदीए सह तत्थुप्पायणादो च। तम्हा अहकसायाणं मज्झे जस्स जस्स जहण्णसामित्तमिच्छिज्जदि तस्स तस्स एवं देवेसुप्पण्णपढमसमए उदयं काऊण सामित्तं दायव्वं, अण्णहा जहण्णभावाणुववत्तीदो । तहा पुरिसवेद--हस्स--रदि--भय-दुगुंछाणमप्पप्पणो द्वाणे ओयरमाणअणियट्टिउवसामओ ओकड्डियूण उदए दाहिदि ति अदाऊण कालं करिय देवेमुप्पण्णपढमसमए ओकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदियजहण्णसामित्तमत्थसंबंधेण दायव्वं ? ण एत्थ वि कसायाणं त्थिवुक्कसंकमसंभावो संकियव्वो, कसायत्थिवुक्कसंकमस्स णोकसाएमु अणभुवगमादो। कुदो एवं चे? त्थिवुक्कसंकमस्स पाएण समाणजाइयपयडीसु चेव पडिबंधब्भुवगमादो। तम्हा हिरवज्जमेदमेत्थ सामित्तमिदि । एत्थ परिहारो उच्चदे-उवसमसेढीए कालं काऊण देवेमुप्पण्णपढमसमए जस्स वा तस्स वा विसोही
है। यथा-यह तो प्रसिद्ध बात है कि उपशान्तकषायचर देवसे इसकी विशुद्धि अनन्तगुणी हीन होती है, इसलिये उपशान्तकषायचर देव अपने प्रथम समयमें जिन प्रकृतियोंका उदय है उनकी उदीरणा करते हुए जितने द्रव्यको उदयादिमें निक्षिप्त करता है उससे यह जीव थोड़े द्रव्यको उदयादिमें निक्षिप्त करता है, क्योंकि उदीरणा विशुद्धिके अनुसार होती है, इसलिये यहां जो उदीरणाके होनेका इसप्रकारका विधान किया है सो वह न्याय्य है। यहां स्तिबुकसंक्रमणको सम्भावनाविषयक आशंका करना भी उचित नहीं है, क्योंकि एक तो यहां जिनका उद्य नहीं होता उनके केवल उदयावलिके बाहर ही एक गोपुच्छके आकाररूपसे निषेक देखे जाते हैं और दूसरे विवक्षित कषायका सजातीय संज्वलनकी प्रथम स्थितिके साथ वहीं उत्पाद होता है, इसलिये आठ कषायोंमेंसे जिस जिसका जघन्य स्वामित्व चाहा जाय उस उसका पूर्वोक्त प्रकारसे देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उदय कराके स्वामित्वका विधान करना चाहिये, अन्यथा जघन्यपना नहीं प्राप्त हो सकता। तथा जो उपशामक उतरकर अनिवृत्तिकरणमें आया है वह पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका अपने अपने स्थानमें अपकर्षण करके उद्यमें देगा किन्तु न देकर मरा और देवोंमें उत्पन्न हो गया उसके वहां उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें अपकर्षणादि तीनोंके ही झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका जघन्य स्वामित्व प्रकरणवश देना चाहिये। किन्तु यहांपर भी कषायोंके स्तिबुक संक्रमणकी सम्भावनाकी आशंका करना उचित नहीं है, क्योंकि कषायोंका स्तिबुक संक्रमण नोकषायोंमें नहीं स्वीकार किया है। यदि कहा जाय कि ऐसा क्यों है सो इसका उत्तर यह है कि स्तिबुकसंक्रमणका सम्बन्ध प्रायः समान जातीय प्रकृतियोंमें ही स्वीकार किया है, इसलिये यहांपर जो उक्त प्रकारसे स्वामित्व बतलाया है वह निर्दोष है ?
समाधान-अब यहां इसका परिहार करते हैं-जो भी कोई उपशमश्रेणिमें मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके वहां उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें विशुद्धि समान ही होती है इस
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं सरिसी चेव सेढीए अणंतगुणहीणाहियभावणिरवेक्खा होइ ति एदेणाहिप्पारण पयट्टमेदं मुत्त । जइ एवं, जत्थ वा तत्थ वा सामित्तमदाऊण केणाहिप्पारण उवसंतकसायचरो चेय देवो अवलंबिओ ? ण, अण्णत्थ मुत्तत्तासंसपयडीणं सामित्तस्स दाउमसक्कियत्तेणेत्थेव सामित्तविहाणादो । एत्थ जस्स जस्स जहण्णसामित्तमिच्छिज्जइ तस्स तस्स उवसंतकसायपच्छायददेवपढमसमए उदयं काऊण गहेयव्वं, अण्णहा अणुदइल्लत्तण उदयावलियभंतरे णिक्खेवासंभवादो। एत्थ चोदओ भणइ–ण एवं घडदे, देवेमुप्पण्णपढमसमए लोभं मोत्तूण सेसकसायाणमुदयासंभवादो। कुदो एस विसेसो लब्भए चे? परमगुरूवएसादो। तदो लोभकसायवदिरित्तकसायाणमेत्थ सामित्तेण ण होदव्वं, तत्थ तेसिमुदयाभावादो त्ति । एत्थ परिहारो वुचदे-सच्चमेवेदमेत्थ वि जइ तहाविहो अहिप्पाओ अवलंबिओ होज, किंतु ण देवेमुप्पण्णपढमसमए एवंविहो णियमो अस्थि, अविसेसेण सव्वकसायाणमुदओ तत्थ ण विरुज्झइ त्ति एसो चुण्णिमुत्तयाराहिप्पाओ, अण्णहा एत्थ सामित्तविहाणाणुववत्तीए । तदो देवेमुप्पण्णपढमसमए सव्वकसायाणमुदओ संभवइ ति तत्थ जहण्णसामित्तविहाणमविरुद्धं सिद्धं ।
अभिप्रायसे यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उपशमश्रेणिमें जो विशुद्धिका अनन्तगुणा हीनाधिकभाव देखा जाता है उसकी यहां अपेक्षा नहीं की गई है।
शंका-यदि ऐसा है तो जहां कहीं भी स्वामित्वका विधान न करके उपशान्तकषायचर देवकी अपेक्षा ही स्वामित्वका विधान किस अभिप्रायसे किया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अन्यत्र सूत्र में कही गई सब प्रकृतियोंके स्वामित्वका विधान करना सम्भव नहीं था, इसलिये यहां ही स्वामित्वका विधान किया है। यहांपर जिस जिस प्रकृतिका जघन्य स्वामित्व.लाना इष्ट हो उस उसका उपशान्तकषायसे मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उदय कराकर स्वामित्वका ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा उदय न होनेके का उदयावलिके भीतर अनुदयवाली प्रकृतियोंके निपेकोंका निक्षेप होना सम्भव नहीं है।
शंका-यहांपर शंकाकारका कहना है कि उक्त कथन नहीं बन सकता है, क्योंकि देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें लोभको छोड़कर शेष कषायोंका उदय नहीं पाया जाता है। यदि कहा जाय कि यह विशेषता कहांसे प्राप्त हुई तो इसका उत्तर यह है कि परम गुरुके उपदेशसे यह विशेषता प्राप्त हुई है, इसलिये लोभकषायके सिवा शेष कषायोंका स्वामित्व यहां देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें नहीं होना चाहिये, क्योंकि वहां उनका उदय वहीं पाया जाता ?
समाधान-अब यहां इस शंकाका परिहार करते हैं-यह कहना तब सही होता जब यहां भी वैसा ही अभिप्राय विवक्षित होता। किन्तु प्रकृतमें चूर्णिसूत्रकारका यह अभिप्राय है कि देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें इसप्रकारका नियम नहीं पाया जाता और सामान्यसे सब कषायोंका उदय वहाँ विरोधको नहीं प्राप्त होता। यदि ऐसा न होता तो यहां स्वामित्वका विधान ही नहीं किया जा सकता था, यतः देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें सब कषायोंका उदय सम्भव है इसलिये वहां जो जघन्य स्वामित्वका विधान किया है सो वह बिना विरोधके सिद्ध है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५
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विशेषार्थ- यहां पर आठ कषाय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन प्रकृतियोंके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके जघन्य स्वामित्वका विधान करते हुए यह बतलाया है कि जो उपशान्तकषाय छद्मस्थ जीव मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है उसके प्रथम समयमें यह जघन्य स्वामित्व प्राप्त होता है। यहांपर शंकाकारने मुख्यतया तीन शंकाए उठाई हैं जिनमेंसे पहली शंकाका भाव यह है कि उपशान्तकषायमें बारह कषायों और नोकषायोंकी प्रथम स्थिति तो पाई नहीं जाती, क्योंकि वहां अन्तरकालकी स्थितियोंमें निषेकोंका अभाव रहता है। अब जब यह जीव मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है तब वहां इनकी प्रथम स्थिति एकसाथ कैसे उत्पन्न हो सकती है। इस शंकाका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि उपशान्तकषाय गुणस्थानमें जो करण उपशान्त रहते हैं वे देवके प्रथम समयमें अपना काम करने लगते हैं, इसलिये वहां द्वितीय स्थितिमें स्थित इन कर्मों के कर्मपरमाणु अपकर्षित होकर प्रथम स्थितिमें आ जाते हैं। उसमें भी जिन प्रकृतियोंका प्रथम समयसे ही उदय होता है उनके कर्मपरमाणु उदय समयसे निक्षिप्त होते हैं और जिनका उदय प्रथम समयसे नहीं होता उनके कमंपरमाणु उदयावलिके बाहरकी स्थितिमें निक्षिप्त होते हैं, इसलिये वहां प्रथम स्थितिमें विवक्षित प्रकृतियोंके कर्मपरमाणु सम्भव हो जानेसे जघन्य स्वामित्व भी प्राप्त किया जा सकता है। दूसरी शंका यह है कि यतः संज्वलन लोभका उपशम दसवें गुणस्थानके अन्तमें होता है अतः इसकी अपेक्षा जो उपशान्तकषाय छमस्थ जीव मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है उसके प्रथम समयमें जघन्य स्वामित्व भले ही प्राप्त होओ, क्योंकि इसके पूर्व मरकर जो जीव देवोंमें उत्पन्न होता है उसके संज्वलन लोभकी उदय समयसे लेकर अन्तरकालके पूर्व तककी या अन्तरकालके बिना ही प्रथम स्थिति पूर्ववत् बनी रहती है अतः ऐसे जीवको देवोंमें उत्पन्न करानेपर संज्वलन लोभकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व नहीं प्राप्त किया जा सकता। तथा शेष तीन संज्वलनोंकी अपेक्षा भी जघन्य स्वामित्व पूर्वोक्त प्रकारसे भले ही प्राप्त हो जाओ, क्योंकि इनकी अपेक्षा भी जघन्य स्वामित्व अन्य प्रकारसे नहीं बन सकता है। उदाहरणार्थ एक सक्ष्मसाम्पराय संयत जीव मरकर देव हुआ और उसके देव होनेके प्रथम समयमें मायासंज्वलनका उदय है तो इसमें लोभसंज्वलनके निषेक स्तिबुकसंक्रमण द्वारा संक्रमित होंगे जिससे मायासंज्वलनकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व नहीं बन सकेगा। इसीप्रकार मान और क्रोधसंज्वलनके सम्बन्धमें जानना चाहिये । इसलिये यद्यपि संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रकारसे जघन्य स्वामित्व बन जाता है पर शेष कषायोंकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रकारसे जघन्य स्वामित्व नहीं बनता, क्योंकि यदि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानका जीव उनका अन्तर करके मरता और देवोंमें उत्पन्न होता है तो उसके उपशान्तकषायचर देवकी अपेक्षा उदयावलिमें कम परमाणु पाये जाते हैं, इसलिये सत्र में उपशान्तकषायचर देवकी अपेक्षा आठ कषायोंका जघन्य स्वामित्व कहना ठीक नहीं। इसप्रकार पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन नोकषायोंका जघन्य स्वामित्व भी उपशान्तकषायचर देवकी अपेक्षा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि जो जीव उपशमश्रेणिसे उतरकर और अनिवृत्तिकरणमें पहुँचकर इनका अपकर्षण करने के एक समय पहले मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें इनका अपकर्षण करता है उसके उपशान्तकषायचर देवकी अपेक्षा उदयावलिमें कम परमाणु प्राप्त होते हैं, इसलिये इनका जघन्य स्वामित्व भी अनिवृत्तिचर देवके ही होता है उपशान्तकषायचर देवके नहीं। उपशान्तकषायचर देवकी अपेक्षा अनिवृत्तिचर देवके प्रथम समयमें अपकर्षणसे उदयावलिमें कम परमाणु संक्लेशकी अधिकतासे प्राप्त होते हैं, क्योंकि ऐसा नियम है कि जिसके संक्लेशकी अधिकता होती है उसके अपकर्षण कम परमाणुओं का होता है और जिसके विशुद्धिकी अधिकता होती है उसके अपकर्षण अधिक परमाणुओंका
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गा० २२ ]
पदेसविहत्तीए कीणाझीणचूलियाए सामित्तं
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* तस्सेव आवलियउववरणस्स जहणणयमुदयादो भी हिदियं । ९५५२, तस्सेव उवसंतकसायचरदेवस्स उत्पत्तिपढमसमय पहुडि आवलियमेतका बोलाविय समवडियस्स जहण्णयमुदयादो होइ । कुदो पढमसमयववण्णं परिहरिय एत्थ पयदजहण्णसामित्तं दिज्जइति णासंकणिज्जं, तत्थतणपढमणिसे यादो दस विवक्खियणिसेयस्स समऊणावलियमेत्त गोवुच्छविसेसेहि हीणत्तदंसणादो | ण च एत्थ विसमऊणावलियमेत्तका लमसं खेज्जलोयपडिभाएणोदीरिददव्वं तत्थासंतमत्थि होता है । यतः उपशान्तकषायचर देवके विशुद्धिकी अधिकता होती है अतः इसके अधिक परमाणुओं का अपकर्षण होगा । तथा अनिवृत्तिचर देव के संक्लेशकी अधिकता होती है अतः इसके कम परमाणुओं का अपकर्षण होगा, इसलिये आठ कषाय आदि उक्त प्रकृतियों का स्वामित्व उपशान्तकषायचर देवको न देकर अनिवृत्तिचर देवको देना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है । टीका में इस शंकाका समाधान करते हुए जो यह बतलाया गया है कि उपशमश्रेणिमें कहीं से भी मर कर जो देव होता है उसके एकसे परिणाम होते हैं इस विवक्षा से यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है और यहाँ पर उपशमश्रेणि में स्थान भेदसे जो हीनाधिक परिणाम पाये जाते हैं उनकी विवक्षा नहीं की गई है सो इस समाधानका आशय यह है कि चूर्णिसूत्रकारने यद्यपि उपशान्तचर देवके उक्त प्रकृतियोंका जघन्य स्वामित्व बतलाया है पर वह अनिवृत्तिचर देवके भी सम्यक् प्रकारसे बन जाता है फिर भी चूर्णिसूत्रकारने एक साथ सब प्रकृतियोंके स्वामित्वके प्रतिपादनके लिहाज से वैसा किया है।
एक मत यह पाया जाता है कि नरकगतिमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें क्रोधका, तिर्यंचगतिमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में मायाका मनुष्यगतिमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें मानका और देवगतिमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में लोभका उदय रहता है । इस नियम के आधारसे शंकाकारका कहना है कि इस हिसाब से देवगतिके प्रथम समय में केवल लोभका जघन्य स्वामित्व प्राप्त हो सकता है अन्यका नहीं, क्योंकि जिस जीवने उपशमश्रेणिमें बारह कषायोंका अन्तर कर दिया है उसके देवोंमें उत्पन्न होनेपर प्रथम समय में अपकर्षण होकर लोभका ही उदय समयसे निक्षेप होगा अन्यका नहीं । अतः जब वहाँ अन्य प्रकृतियोंका उदद्यावलिमें निक्षेप ही सम्भव नहीं तब उनका जघन्य स्वामित्व कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? इस शंकाका जो समाधान किया गया है उसका आशय यह है कि देव पर्यायके प्रथम समयमें केवल लोभके उदयका ही नियम नहीं है अतः वहाँ उक्त सभी कषायोंका जघन्य स्वामित्व बन जाता है ।
* उसी देवको जब उत्पन्न हुए एक आवलि काल हो जाता है तब वह उदयसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओं का स्वामी है ।
$ ५५२. वही उपशान्तकषायचर देव जब उत्पत्तिकालसे लेकर एक प्रावलिकाल बिताकर स्थित होता है तब वह उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओं का स्वामी होता है । यदि ऐसी आशंका की जाय कि प्रथम समय में उत्पन्न हुए देवको छोड़कर यहाँ उत्पन्न होनेसे एक आवलि कालके अन्तमें प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान क्यों किया जा रहा है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम समयवर्ती जीवके जो निषेक होता है उससे यह विवक्षित निषेक एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुच्छविशेषोंसे हीन देखा जाता है । यदि कहा जाय कि एक समय कम आवलिप्रमाण काल तक असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार उदीरणाको प्राप्त हुआ द्रव्य जो कि प्रथम समय में नहीं है यहाँ पर पाया जाता है सो ऐसा
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
ति पच्चवयं, एदम्हादो चैव सुतादो तत्वो एदस्स थोवभावसिद्धीदो ।
* अताबंधीणं जहण्णयमोकडुणादो उक्कडपादो संकमणादो च हिदियं कस्स ?
$ ५५३. सुगममेदं पुच्छासुतं ।
* सुमणि सु कम्मडिदिमणुपालियूण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लभिदाउ चत्तारि वारे कसाए उवसामेण तदो अताणुबंधी विसंजोएऊण संजोइदो तदो वेछावद्विसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपा लेयूए तदो मिच्छत्तं गदो तस्स पढमसमयमिच्छाइटिस्स जहण्णयं तिरहं पि डिदियं ।
९५५४. खविदकम्मंसिय पच्छायदभमिदवेछावद्विसागरोवमपढमसमयमिच्छा
निश्चय करना ठीक नहीं है, क्यों इसी सूत्र से प्रथम समयवर्ती द्रव्यकी अपेक्षा यह विवक्षित द्रव्य कम सिद्ध होता है ।
[ पदेसविहत्ती ५
विशेषार्थ — यहाँ पर उपशान्तकषायचर देवके उत्पन्न होनेके समय से लेकर एक आवलिकालके अन्तमें जघन्य स्वामित्व बतलाया है, देवपर्याय में उत्पन्न होनेके प्रथम समय में क्यों नहीं बतलाया इसका उत्तर यह है कि उदय समयसे लेकर एक आवलिकाल तक निषेकों की जो रचना होती है वह उत्तरोत्तर चयहीन क्रमसे होती है अतः प्रथम समय में जो द्रव्य प्राप्त होता है उससे लिके अन्तिम समय में प्राप्त होनेवाला द्रव्य एक समय कम एक आवलिप्रमाण चयोंसे हीन होता है यही कारण है कि विवक्षित जघन्य स्वामित्व देव पर्यायमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में न देकर प्रथम समयसे लेकर एक अवलिप्रमाण कालके अन्तिम समयमें दिया है । यद्यपि यह आवलिप्रमाण कालका अन्तिम समय जब तक उदय समयको प्राप्त होता है तब तक इसमें प्रति समय उदीरणाको प्राप्त होनेवाले द्रव्यका संचय होता रहता है तो भी वह सब मिलकर उक्त सूत्र के अभिप्रायानुसार प्रथम समयवतीं द्रव्यसे न्यून होता है, इसलिये विवक्षित जघन्य स्वामित्व प्रथम समय में नहीं दिया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* अनन्तानुबन्धियों के अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण से झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ?
६५५३. यह पृच्छासूत्र सुगम है ।
* कोई एक जीव है जो सूक्ष्मनिगोदियोंमें कर्म स्थितिप्रमाण काल तक रहा तदनन्तर अनेक बार संयमासंयम और संयमको प्राप्त करके चार बार कषायका उपशम किया । फिर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके उससे संयुक्त हुआ । फिर दो छयासठ सागरप्रमाण कालतक सम्यक्त्वका पालन करके मिथ्यात्वमें गया । वह प्रथम समवर्ती मिध्यादृष्टि अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओं का स्वामी है ।
$ ५५४. जो क्षपित कर्मांशविधिसे आकर और दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३२६ इहिस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ ति मुत्तत्थसंगहो । किमहमेसो मुहुमणिगोदेसु कम्महिदि हिंडाविदो ? ण, कम्महिदिमेत्त कालं तत्थावहाणेण विणा जहण्णसंचयाणुववत्तीदों। अदो चेय संपुण्णा एसा सुहुमणिगोदेसु समाणेयवा । सुत्ते पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणणियं कमहिदिमच्छिदो ति अपरूवणादो । तत्थ य संसरमाणस्स वावारविसेसो छावासयपडिबद्धो पुव्वं परूविदो ति ण पुणो परूविज्जदि गंथगउरवभएण। तदो कम्महिदिबहिन्भूदपलिदोवमासंखेजदिभागमेतकालभंतरे संजमासंजमं संजमं च बहुसो लभिदाउओ। एत्थतण 'च' सद्देण अवुत्तसमुच्चयटेण सम्मत्ताणताणुबंधिविसंजोयगकंडयाणमंतभावो वत्तव्यो । बहुसो बहुवारं लभिदाउओ लवंतओ । संजमासंजमादीणमसई लभो ण णिप्पोजणो, गुणसेदिणिज्जराए बहुदव्वगालणफलत्तादो । तत्थेव अवांतरवावारविसेसपरूवणहमेदं वुत्तं । चत्तारि वारे कसाए उवसामियण तदो अणंताणुबंधी विसंजोएऊण संजोइदो ति । बहुप्रा कसाउवसामणवारा किण्ण होंति ? ण, एयजीवस्स चत्तारि चारे मोत्तण उवसमसेढिआरोहणासंभवादो। कसायुवसामणवाराणं व संजमासंजम-संजम-सम्मत्त अणंताणुबंधिविसंजोयणकरके मिथ्यादृष्टि हुआ है उस मिथ्यादृष्टिके प्रथम समयमें जघन्य स्वामित्व होता है यह इस सूत्रका सार है।
शंका-इसे कर्मस्थितिप्रमाण काल तक सूक्ष्मनिगोदियोंमें क्यों भ्रमाया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि कर्मेस्थितिप्रमाण कालतक वहां रहे विना जघन्य संचय नहीं बन सकता है। और इसीलिये पूरी कर्मस्थितिप्रमाण कालको सूक्ष्मनिगोदियोंमें बिताना चाहिये, क्योंकि सूत्रमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालसे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कालतक रहा ऐसा सूचित भी नहीं किया है।
कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर परिभ्रमण करते हुए जो छह आवश्यकसम्बन्धी व्यापार विशेष होता है उसका पहले कथन कर आये हैं, इसलिये ग्रन्थके बढ़ जानेके भयसे उनका यहाँ पुनः कथन नहीं किया जाता है। तदनन्तर कर्मस्थितिके बाहर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके भीतर बहुत बार संयमासंयम और संयमको प्राप्त किया। यहाँ सूत्र में जो 'च' शब्द है वह अनुक्त विषयका समुच्चय करनेके लिये आया है जिससे सम्यक्त्वके काण्डकोंके अन्तर्भावका और विसंयोजनासम्बन्धी काण्डकोंके अन्तर्भावका कथन कर लेना चाहिये । इस प्रकार इन सबको बहुत बार प्राप्त करता हुआ । इन सबका अनेक बार प्राप्त करना निष्प्रयोजन नहीं है, क्योंकि इसका फल गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा बहुत द्रव्यका गला देना है। या वहीं पर अवान्तर व्यापारविशेषका कथन करनेके लिये यह कहा है। फिर चार बार कषायोंका उपशम करके फिर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके उससे संयुक्त हुआ।
शंका-कषायोंके उपशमानेके बार चारसे अधिक बहुत क्यों नहीं होते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि एक जीव चार बार ही उपशमश्रेणि पर आरोहण कर सकता है, इससे और अधिक बार उपशमणि पर आरोहण करना सम्भव नहीं है।
शंका-जैसे कषायोंके उपशमानेके बारोंका स्पष्ट निर्देश किया है वैसे ही संयमासंयम,
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३३०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ परियट्टणवाराणं एत्तियमेत्ता त्ति पमाणपरूवणा किण्ण कया ? ण, सव्वुक्कस्सा ण एत्थ होति, किंतु तप्पाओग्गा चेवे त्ति जाणावणहमेत्तियमेत्ता त्ति अपरूवणादो । कुदो सव्वुक्कस्सवाराणमसंभवो ? ण, तहा संते णिव्वाणगमणं मोत्तण वेछावहिसागरोवममेत्तकालं संसारे परिब्भमणाभावादो। ण चेसा सव्वा खविदकिरिया विसंजोइज्जमाणाणमणंताणुबंधीणं णिरत्थिया, सेसकसायदव्बस्स थोवयरीकरणेण फलोवलंभादो । णेदं पयदाणुवजोगी, अणंताणुबंधी विसंजोएऊण पुणो वि अंतोमुहुत्तेण संजुज्जंतस्स अधापवत्तसंकमेण पडिछिज्जमाणसेसकसायदव्वाणमप्पदरीभूदाणमुवजोगित्तदंसणादो । एवमणंताणुबंधी विसंजोइय अंतोमुहुत्तसंजुत्तो अघोपवत्तसंकमेण पडिबिजमाणससकसायदव्वाणमप्पदरीभूदाणमुवजोगितदंसणादो । एवमणंताणुबंधी विसंजोइय अंतोमुहुत्तसंजुत्तो अधापवत्तभागहारोवट्टिददिवगुणहाणिमेत्तेइंदियसमयपबद्धदव्वं सेसकसाएहितो पडिच्छिदं सगंतोभाविदअंतोमुहुत्तमेत्तणवकबंध घेत्तूण तदो वेलावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालियूण मिच्छत्तं गओ । किमहमेत्तो सम्मत्तलंभेण वेछावहिसंयम, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना इनके परिवर्तनवार इतने होते हैं इस प्रकार इनके प्रमाणका कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान--नहीं, क्योंकि यहाँ पर उन संयमासंयमादिके सर्वोत्कृष्ट बार नहीं होते, किन्तु तत्प्रायोग्य होते हैं इस प्रकार इस बातके जतानेके लिये इतने होते हैं यह कथन नहीं किया।
शंका-यहाँ सर्वोत्कृष्ट वार क्यों सम्भव नहीं हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि यहाँ पर सर्वोत्कृष्ट बारोंके मान लेनेपर निर्वाण गमनके सिवा दो छयासठ सागर कालतक संसारमें परिभ्रमण करना नहीं बन सकता है, इसलिये यहाँ पर सर्वोत्कृष्ट बार सम्भव नहीं है।
यदि कहा जाय कि विसंयोजनाको प्राप्त होनेवाली अनन्तानुबन्धियोंकी यह सब क्षपणा सम्बन्धी क्रिया निरर्थक है सो भी बात नहीं है, क्योंकि शेष कषायोंके द्रव्यका परिमाण अल्प कर देना यही इसका फल है । यदि कहा जाय कि शेष कषायोंका द्रव्य अल्प होता है तो होओ पर इसका प्रकृतमें क्या उपयोग है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके अन्तर्मुहूर्तमें पुनः इससे संयुक्त होने पर अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा शेष कषायोंका अल्प द्रव्य विच्छिन्न होकर इसमें प्राप्त होता है, इसलिये शेष कषायोंके द्रव्यके अल्प होनेकी उपयोगिता है। इस प्रकार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके और अन्तर्मुहूर्तमें उससे संयुक्त होकर अल्प हुए शेष कषायोंके द्रव्यके अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा उनसे विच्छिन्न होकर इसमें प्राप्त होने पर शेष कषायोंके द्रव्यके अल्प होनेकी उपयोगिता देखी जाती है। इस प्रकार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके जब पुनः अन्तर्मुहूर्तमें इससे संयुक्त होता है तब अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित डेढ़ गुणहानि प्रमाण एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्ध द्रव्य शेष कषायोंसे विभक्त होकर इसमें प्राप्त होता है तथा अन्तर्मुहूर्त काल तक मिथ्यात्वमें रहने के कारण अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नवकसमयप्रबद्ध प्राप्त होते हैं। इस प्रकार अनन्ताबन्धीके इतने द्रव्यको प्राप्त करके और तदनन्तर दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन करके यह जीव मिथ्यात्वमें जाता है।
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मा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३३१ सागरोवमाणि भमाडिदो ? ण, सम्मत्तमाहप्पेण बंधविरहियाणमणंताणुबंधीणमाएण विणा वयमुवगच्छंताणमइजहण्णगोवुच्छविहाण तहा भमाडणादो। पुणो मिच्छत्तं किं णीदो ? ण, अण्णहा एत्थुइसे दसणमोहक्खवणमाढवेतस्स पयदजहण्णसामित्तविघादप्पसंगादो। तस्स पढमसमयमिच्छाइद्विस्स जहण्णयं तिग्णं पि ओकड्णादो झीणहिदियं होइ। एत्थ सिस्सो भणइ-मिच्छाइहिपढमसमए अणंताणुबंधीणं सोदएण आवलियमेत्तहिदीओ सामित्तविसईकयायो होति । सम्माइहिचरिमसमए पुण तेसिमुदयाभावेण त्थिवुक्कसंकमणादो समयूणावलियमेतद्विदीओ लभंति, तदो तत्थेव जहण्णसामित्तं दाहामो लाहदसणादो ति ? ण एस दोसो, एत्थ वि अणंताणुबंधिकोहादीणमण्णदरस्स जहण्णभावे इच्छिज्जमाणे तस्साणुदयं कादूण परोदएणेव सामित्तविहाणे समयणावलियमेत्ताणं चेव गोवुच्छाणमुवलंभादो। तदो तप्परिहारेणेत्थेव सामित्तं दिण्णं, गोवुच्छविसेसं पडुच्च विसेसोवलद्धीदो । जइ एवमुदयावलियमाबाहं वा आवलियूणं वोलाविय उवरि जहण्णसामित्तं दाहामो ?
शंका-आगे सम्यक्त्व प्राप्त कराकर दो छयासठ सागरप्रमाण काल तक क्यों भ्रमण कराया गया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सम्यक्त्वके माहात्म्यसे बन्ध न होनेके कारण आयके बिना व्ययको प्राप्त होनेवाली अनन्तानुबन्धियोंकी गोपुच्छाओंको अत्यन्त जघन्य करनेके लिये इस प्रकार भ्रमण कराया गया है।
शंका-इस जीवको पुनः मिथ्यात्वमें क्यों ले जाया गया है ?
समाधान—नहीं, क्योंकि यदि इसे पुन: मिथ्यात्वमें नहीं ले जाया गया होता तो वह दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ कर देता जिससे इसके प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विघात प्राप्त हो जाता।
शंका-प्रथम समयवर्ती वह मिथ्यादृष्टि अपकर्षणादि तीनोंकी अपेक्षा झीन स्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है इस प्रकार यह जो कहा है सो इस विषयमें शिष्यका कहना है कि मिथ्यादृष्टिके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धियोंका उदय होनेके कारण एक आवलिप्रमाण स्थितियाँ स्वामित्वके विषयरूपसे प्राप्त होती हैं । किन्तु सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें तो अनन्तानुबन्धियोंका उदय नहीं होनेके कारण और उदय स्थितिका स्तिवुक संक्रमणद्वारा संक्रमण हो जानेसे एक समय कम एक आवलिप्रमाण स्थितियाँ प्राप्त होती है, इसलिये सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें ही प्रकृत स्वामित्वके देने में अधिक लाभ है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ मिथ्यात्व गुणस्थानके प्रथम समयमें भी अनन्तानुबन्धिसम्बन्धी क्रोधादिकमेंसे जिसका जघन्य स्वामित्व इच्छित हो उसका अनुदय कराके परोदयसे ही स्वामित्वका कथन करने पर एक समय कम एक आवलिप्रमाण ही गोपुच्छाए पाई जाती हैं, इसलिये सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयको छोड़कर मिथ्याष्टिके प्रथम समयमें ही स्वामित्वका विधान किया है, क्योंकि गोपुच्छविशेषकी अपेक्षा विशेषकी उपलब्धि होती है।
शंका-यदि ऐसा है तो उदयावलिको बिताकर या एक प्रावलि कम आबाधा कालको
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३३२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ तत्थतणगोवुच्छाणमेत्तो चडिदद्धाण मेत्त विसेसेहि हीणत्तेण लाहदसणादो । ण एत्थ णवकबंधासंका कायव्वा, आबाहादो उवरि तस्सावहाणादो त्ति ? णेदं घडदे, कुदो ? उदयावलियबाहिरे मिच्छाइहिपढमसमयप्पहुडि बज्झमाणाणमणंताणुबंधीणमुवरि समहिदीए सेसकसायदव्वस्स अधापवत्तेण संकमोवलंभादो बंधावलियमेत्तकालं वोलाविय सगणवकबंधस्स चिराणसंतेण सह ओकड्डिय समयाविरोहेणावाहाभंतरे णिक्खित्तस्सोवलंभादो च । तम्हा अधापवत्तसंकमेण पडिच्छिददव्वे उदयावलियबाहिरहिदे संते जहण्णसामित्तं दिज्जइ त्ति समंजसमेदं सुत्तं ।।
___ ५५५. तदो मुत्तस्स समुदायत्थो एवं वत्तव्यो-खविदकम्मंसियलक्खणेण कम्महिदि समयाविरोहेण परिभमिय पुणो तसभावेण संजमासंजम-संजम-सम्मत्ताणंताणुबंधिविसंजोयणकंडयाणि तप्पाओग्गपमाणाणि बहूणि लक्ष्ण चत्तारि वारे कसाए उवसामिय पुणो वि एइंदिएसु पलिदोवमासंखेजदिमागमेत्त कालभंतरे उवसामयसमयपबद्ध णिग्गालिय तत्तो णिपिडिय असणिपंचिदिएमु अंतोमुहुत्तं वोलाविय आउअबधवसेण देवेसुप्पज्जिय अंतोमुहुत्तेण छप्पज्जत्तीओ समाणिय उवसमसम्मत्तं
बिताकर ऊपरक। स्थितियोंमें जघन्य स्वामित्वका विधान करना चाहिये, क्योंकि वहाँ की गोपुच्छाए यहाँसे जितना स्थान ऊपर जाकर वे प्राप्त हुई हैं उतने विशेषोंसे हीन हैं, अतः वहाँ जघन्य स्वामित्वका विधान करने में लाभ दिखाई देता है। और यहाँ नवकबन्धके प्राप्त होनेकी भी आशंका नहीं है, क्योंकि नवकबन्धका अवस्थान आबाधाके ऊपर पाया जाता है ?
समाधान-परन्तु यह कहना घटित नहीं होता, क्योंकि एक तो उदयावलिके बाहर मिथ्यादृष्टिके प्रथम समयसे लेकर बंधनेवाले अनन्तानुबन्धियोंके ऊपर समान स्थितिमें शेष कषायोंके द्रव्यका अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा संक्रमण पाया जाता है और दूसरे बन्धावलिप्रमाण कालको बिताकर अपने नवकवन्धका प्राचीन सत्तामें स्थित कर्मके साथ अपकर्षण होकर श्रागममें बतलाई गई विधिके अनुसार आबाधाके भीतर निक्षेप देखा जाता है, इसलिये उदयावलिको बिताकर या एक आवलि कम आबाधाकालको बिताकर ऊपरकी स्थितियोंमें प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान करना उचित नहीं है।
इसलिये अधःप्रवृत्त संक्रमणके द्वारा विच्छिन्न हु ! द्रव्यके उदयावलिके बाहर स्थित रहते हुए जघन्य स्वामित्वका विधान किया गया है इसलिये यह सूत्र ठीक है।
$ ५५५. इतने निष्कर्षके बाद इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ इस प्रकार कहना चाहियेजैसी आगममें विधि बतलाई है तदनुसार कोई एक जीव क्षपितकाशकी विधिसे कर्मस्थितिप्रमाण काल तक परिभ्रमण करता रहा । फिर त्रस होकर तत्प्रायोग्य बहुत बार संयमासंयम, संयम, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजनासम्बन्धी काण्डकोंको करके चार बार कषायोंका उपशम किया। फिर दूसरी बार भी एकेन्द्रियों में जाकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके भीतर उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंको गलाकर और वहाँसे निकलकर असंज्ञी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ और वहाँ अन्तर्मुहूर्त रहकर आयुबन्ध हो जानेसे देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर अन्तर्मुहूर्तमें छह पर्याप्तियोंको पूरा करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर उपशम
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणझीणचूलियाए सामित्त पडिवजिय उवसमसम्मत्तकालभंतरे चेय अणंताणुब धिचउक्कं विसंजोइय पुणो वि परिणामवसेण अंतोमुहुतेण संजोइय पुवमुक्कड्डिदसेसकसायदव्व मधापवत्तसंकमेण पडिच्छिय अधहिदिगलणेण विज्झादसकमेण च तग्गालण वेछावहीओ समत्तमणुपालिय मिच्छतं गदपढमसमए वट्टतो जो जीवो तस्त तेसिमुक्कड्डणादितिण्हं पि जहण्णयं झीणहिदियं होइ ति ।
तस्सेव प्रावलियसमयमिच्छाइहिस्स जहग्णयमुदयादो झीणहिदियं ।
५५६. तस्सेव खविदकम्मंसियपच्छायदभमिदवेछाव हिसागरोवममिच्छाइहिस्स पढमसमयमिच्छाइहिआदिकमेण आवलियसमयमिच्छाइढिभावेणावहियस्स अहिकयकम्माणं जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं होइ त्ति मुत्तत्थो। एत्थ पढमसमयमिच्छाइहिपरिहारेणावलियचरिमसमए जहण्णसामित्तविहाणे कारणं पुव्वं परूविदं । उदयावलियबाहिरे जहण्णसामित्तं किण्ण दिण्णमिदि चे ? ण, समहिदिसंकमपडिच्छिददबस्स उदयं पइ समाणस्स तत्थ बहुत्तुवलंभादो । सम्यक्त्वके कालके भीतर ही अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके फिर भी परिणामोंकी परवशताके कारण अन्तर्मुहूर्तमें उससे संयुक्त हुआ। फिर पहले उत्कर्षणको प्राप्त हुए शेष कषायोंके द्रव्यको अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा प्राप्त करके उसे अधःस्थितिगलनाके द्वारा और विध्यात संक्रमणके द्वारा गलानेके लिये दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन किया। फिर मिथ्यात्वमें जाकर जब यह जीव उसके प्रथम समयमें विद्यमान होता है तब वह अनन्तानुबन्धियोंके अपकर्षणादि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है।
* एक आवलि काल तक मिथ्यात्वके साथ रहा हुआ वही जीव उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्म परमाणुओंका स्वामी है।
६५५६. जो क्षपित कमाराकी विधिसे आकर दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके मिथ्यादृष्टि हुआ है और जिसे मिथ्यादृष्टिके प्रथम समयसे लेकर मिथ्यात्वके साथ रहते हुए एक श्रावलिकाल हुआ है ऐसा वही मिथ्यादृष्टि जीव अधिकृत कर्मोके उदयकी अपेक्षा झीन स्थितिवाले जघन्य कर्म परमाणुओंका स्वामी होता है यह इस सूत्रका अर्थ है । यहाँ पर प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिको छोड़कर एक आवलिके अन्तिम समयमें जघन्य स्वामित्वके कथन करनेका कारण पहले कह आये हैं।
शंका-उदयावलिके बाहर जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उदयावलिके बाहर समान स्थितिमें स्थित द्रव्यका संक्रमण हो जानेसे उसकी अपेक्षा उदयमें अधिक द्रव्यकी प्राप्ति हो जाती है, इसलिये उदयावलिके बाहर जघन्य स्वामित्व नहीं दिया।
विशेषार्थ-यहाँ उदयकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धियोंके झोनस्थितिवाले जघन्य कर्म परमाणुओंका स्वामी बतलाया है। यद्यपि इसका स्वामी भी वही होता है जो क्षपितकाशकी
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
* सयवेदस्स जहण्णयमोकणादितियहं पि भीडिदियं कस्स ? ६५५७. सुगमं ।
* अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कम्मेण तिपलिदोवमिएसु उवण्णो । तदो तोमुहुत्त से से सम्मत्तं लद्ध, वेछावद्विसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालिद, संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो । चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता अपच्छिमे भवे पुव्वकोडि आउओ मस्सो जादो । तदो देसूणपुव्व कोडिसं जममगुपालियूण अंतोमुहुत्त सेसे परिणामपचएण असंजमं दो । तावजो जाव गुणसेढी सिग्गलिदा ति । तदो संजमं पडिवज्जियूए तोमुहुत्ते कम्मrखयं काहिदि त्ति तस्स पढमसमयसंजमं पडिवण्णस्स जहणयं तिन्हं पिझीएडिदियं ।
१५५८. एदस्स सामित्तमुत्तस्स अत्थविवरणं कस्सामो । तं जहा जो जीवो विधिसे आकर और दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहकर मिध्यात्वको प्राप्त हुआ है पर यह स्वामित्व मिध्यात्व को प्राप्त होनेके प्रथम समय में न देकर एक आवलिके अन्तिम समयमें देना चाहिये, क्योंकि तब उदयमें अनन्तानुबन्धीके सबसे कम कर्म परमाणु पाये जाते हैं । इस पर किसी शंकाकारका कहना है कि स्थिति के अनुसार उत्तरोत्तर एक एक चयकी हानि होती जाती है, अतः उदद्यावलिके बाहरके निषेकके उदयमें प्राप्त होने पर और भी कम द्रव्य प्राप्त होगा, इसलिये यह जघन्य स्वामित्व उदयावलिकी अन्तिम स्थितिमें न देकर उदद्यावलिके बाहरकी स्थिति में देना चाहिये । पर यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि मिध्यात्वमें अनन्तानुबन्धीका बन्ध होता है, इसलिये इसमें अन्य सजातीय प्रकृतियोंका संक्रमण होकर उदयावलिके बाहरका द्रव्य बढ़ जाता है, इसलिये वहाँ जघन्य स्वामित्व नहीं दिया जा सकता है ।
* नपुंसकवेदके अपकर्षणादि तीनों की अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओं का स्वामी कौन है ?
-
$ ५५७. यह सूत्र सुगम है ।
* कोई एक जीव अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ तीन पल्योपमकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ | फिर अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर सम्यक्त्वको प्राप्त करके दो छयासठ सागर कालतक सम्यक्त्वका पालन किया। फिर बहुत बार संयमासंयम और संयमको प्राप्त हुआ। फिर चार बार कषायोंका उपशम करके अन्तिम भवमें एक पूर्व कोटिकी आयुवाला मनुष्य हुआ । फिर कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक संयम का पालन करके जब अन्तर्मुहूर्त शेष रहा तब परिणामवश असंयमको प्राप्त हुआ और गुणश्रेणि गलने तक असंयम के साथ रहा । फिर संयमको प्राप्त होकर जो अन्तर्मुहूर्त में कर्मक्षय करेगा वह प्रथम समयवर्ती संयमी जीव तीनों की अपेक्षा झीन स्थितिवाले जघन्य कर्म परमाणुओंका स्वामी है ।
५५८. अब इस स्वामित्व सूत्रके अर्थका खुलासा करते हैं । वह इस प्रकार है - जो जीव
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गा० २२ ]
पदेस वित्तीए कीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३३५
अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कम्मेण सह गदो तिपलिदो मिएस उववण्णो ति एत्थ पदसंबंधो। किमहमेसो तिपलिदोवमिएसुप्पा इदो चे ? ण, णवुंसय वेदबंध - विरहिएस सुहतिलेस्सिएस पज्जत्तकाले तब्बंधवोच्छेदं काऊणाएण विणा अधहिदीए परपयडिसकमेण च थोवयरगोबुच्छाओ गालिय अइजहण्णीकयणिरुद्ध गोवुच्छगहण ह तत्थुपायादो । तदो चेय तेण गालिदतिपलिदोवममेत्तणकुंसयवेदणिसेएण सगाउए तोमुहुतसे सम्मतं लद्धं वेदावद्विसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालिदमिदि सुत्तावयवो सुसंबद्धो । सम्मत्तपाहम्मेण बंधविरहियस्स णवुंसयवेदस्स तत्थ वेद्यावद्विसामरोवमपमाणधूलगोबुच्छाओ गालिय अइसहगोवुच्छाहिं जहण्णसामित्तविहाण्ड' तहा भमाणस्स सहलत्तदंसणादो। एत्थेव विसेसं तर परूवणह संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो ति सुत्तावयवस्स अवयारो। ण बहुवारं संजमा संजमादिलंभो णिरत्थओ, गुणसे विणिज्जराए णवुंसयवेदपयदणिसेयाणं णिज्जरणेण तस्स सहलतदंसणादो । किमेसो वेवसागरोवमाणमव्यंतरे चेय असई संजमा संजम - अणंताणुबंधिविसंजोयणपरियट्टणवारे करेइ आहो तत्तो पुव्यमेवेति पुच्छिदे तत्तो पुव्वमेव अभवसिद्धिय
अभव्यों के योग्य जघन्य कर्मके साथ गया और तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ इस प्रकार यहाँ पदों का सम्बन्ध कर लेना चाहिये ।
शंका- इस जीवको तीन पल्यकी आयुवालोंमें क्यों उत्पन्न कराया है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि एक तो वहाँ नपुंसक वेदका बन्ध नहीं होता दूसरे शुभ तीन लेश्याएँ पाई जाती हैं इसलिये वहाँ पर्याप्त कालमें नपुंसकवेदकी बन्ध व्युच्छित्ति कराकर आायके बिना अधःस्थितिके द्वारा और परप्रकृति संक्रमणके द्वारा स्तोकतर गोपुच्छाओं को गलाकर विवक्षित कर्मके प्रति जघन्य गोपुच्छा प्राप्त करनेके लिये इस जीवको तीन पल्की आयु वालों में उत्पन्न कराया है ।
तदन्तर तीन पल्य प्रमाण नपुंसकवेदके निषेकोंको गलाकर जब आयु में अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है तब सम्यक्त्वको ग्रहण कर उसने दो छयासठ सागर काल तक उसका पालन किया। इस प्रकार सूत्रके पद सुसंबद्ध हैं । फिर सम्यक्त्व के प्रभावसे वहाँ बन्धरहित नपुंसक वेद के दो छयासठ सागरप्रमाण स्थूल गोपुच्छाओंको गलाकर अतिसूक्ष्म गोपुच्छाओंके द्वारा जघन्य स्वामित्वको प्राप्त करनेके लिये इस प्रकारके परिभ्रमण कराने में लाभ देखा जाता है। तथा इसीमें विशेष अन्तरका कथन करनेके लिये 'संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त हुआ' सूत्रके इस हिस्सेकी रचना हुई है । संयमासंयम आदिका बहुत बार प्राप्त करना निरर्थक भी नहीं है, क्योंकि गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा नपुंसकवेदके प्रकृत निषेकोंकी निर्जरा हो जानेसे उसकी सफलता देखी जाती है ।
शंका- क्या यह दो छयासठ सागर कालके भीतर ही अनेक बार संयमासंयम और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना के परिवर्तन वारोंको करता है या इससे पहले ही ?
समाधान – दो छयासठ सागर कालको प्राप्त होनेके पूर्व ही जब यह जीव अभव्यों के
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ पाओग्गजहण्णसंतकम्मेणागंतूण तसेमुप्पज्जिय तिपलिदोवमिएसुप्पज्जमाणो तम्मि संधीए पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तगुणसेडिणिज्जराकालभंतरे सेसकम्माणं व संजमासंजमादिकंडयाणि थोवूणाणि कादूण पुणो तत्थ जाणि परिसेसिदाणि ताणि वेछावहिसागरोवमभंतरे कत्थ वि कत्थ कि विक्खित्तसरूवेण करेदि त्ति एसो एत्थ परिणिच्छओ, मुत्तस्सेदस्स अंतदीपयत्तादो ।
६५५६. अत्रैवावान्तरव्यापारविशेषप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रावयवः-चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता अपच्छिमे भवे पुव्वकोडिआउओ मणुस्सो जादो इदि । पलिदोवमासंखेजदिभागमेत्तसंजमासंजमादिकंडयाणमसंजमकंडयाणं च अंतरालेसु समयाविरोहेण चत्तारि कसाउवसामणवारे गुणसेढिणिज्जराविणाभावितेण पयदोवजोगी अणुपालिय चरिमदेहहरो दीहाउओ मणुसो जादो ति वुत्तं होइ । ण पुव्वकोडाउए उप्पादो णिरत्थओ, गुणसे ढिणिज्जराविणाभाविदीहसंजमाए पयदोवजोगितादो त्ति तस्स सहलत्तपदंसणहमुवरिमो मुत्तावयवो-तदो देसूणपुवकोडिसंजममणुपालियूणे ति । एत्थ देसूणपमाणमहवस्साणि अंतोमुहुत्तब्भहियाणि । एवं देसूणपुवकोडिसंजमगुणसेढिणिज्जरं काऊणावहिदस्स आसण्णे सामित्तसमए वाचारविसेसपदुप्पायणहमंतोमुहुत्तसेसे परिणामपच्चएण असंजमं गदो ति उत्तं ।
५६०. एत्थुद्देसे असंजमगमणे फलं परूवेइ-ताव असंजदो जाव गुणसेढी योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ आकर और बसोंमें उत्पन्न होकर तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न होनेकी स्थितिमें होता है तब इस मध्यकाल में पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणश्रेणिनिर्जरा कालके भीतर शेष कर्मों के समान कुछ कम संयमासंयमादि काण्डकोंको करके फिर वहाँ जो कम शेष बचते हैं उन्हें दो छयासठ सागर कालके भीतर कहीं कहीं त्रुटित (विक्षिप्त) रूपसे करता है इस प्रकार यहाँ यह निश्चय करना चाहिये, क्योंकि यह सूत्र अन्तदीपक है ।
६५५९. अब यहीं पर अवान्तर व्यापारविशेषका कथन करनेके लिये सूत्रका अगला हिस्सा आया है कि चार बार कषायोंका उपशम करके अन्तिम भवमें पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य हुआ। इसका आशय यह है कि पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण संयमासंयम आदि काण्डकोंके और आठ संयम काण्डकोंके अन्तरालमें आगममें जो विधि बतलाई है उस विधिसे गुणश्रेणिनिर्जराका अविनाभावी होनेसे प्रकृतमें उपयोगी चार कषायोंके उपशामन वारोंको करके बड़ी आयुवाला चरमशरीरी मनुष्य हुआ। यदि कहा जाय कि एक पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यमें उत्पन्न कराना व्यर्थ है सो भी बात नहीं है, क्योंकि संयमकालका बड़ापन गुणनेणि निर्जराका अविनाभावी होनेसे प्रकृतमें उसका उपयोग है, इसलिये इसकी सफलता दिखलाने के लिये सूत्रके आगेका 'तदो देसूणपुत्वकोडिसंजममणुपालियूण' यह हिस्सा रचा गया है। यहाँपर देशोनका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष है। इस प्रकार कुछ कम पूर्वकोटि कालतक संयमगुणश्रेणिनिर्जराको करके स्थित हुए जीवके विवक्षित स्वामित्व समयके समीपमें आ जानेपर व्यापारविशेषको बतलानेके लिये 'जो अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहनेपर परिणामोंकी परवशताके कारण असंयमको प्राप्त हुआ' यह कहा है।
६५६०. अब यहाँ असंयमको प्राप्त होनेका प्रयोजन कहते हैं-यह जीव तबतक असंयत
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३३७ णिग्गलिदा त्ति । जाव संजदेण कदा गुणसेढी णिरवसेसं गलिदा ताव असंजदो होऊणच्छिदो त्ति वुत्तं होइ। ण चेदं णिरत्थयं, गुणसेढिगोवुच्छाओ असंखेजपंचिंदियसमयपबद्धपमाणाओ गालिय अइसण्हगोवुच्छाणं सामित्तविसईकरणेण फलोवलंभादो । एवमसंजदभावेण गुणसेढिं णिग्गालिय पुणो केत्तिएण वावारेण जहण्णसामित्तं पडिवज्जइ ति । एत्युत्तरमाह-तदो संजमं पडिवज्जियण इच्चाइणा । तदो असंजमादो संजमं पडिवज्जिय सव्वणिरुद्धणंतोमुहुत्तेण कम्मरवयं काहिदि त्ति अवहिदस्स तस्स पढमसमयसंजमं पडिवण्णस्स जहण्णयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदियं होइ त्ति सुतत्थसंबधो। संजदविदियादिसमएसु किम सामित्तं ण दिजदे १ ण, संजमगुणपाहम्मेण पुणो वि उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ताए गुणसेढीए उदयावलियम्भंतरप्पवेसे जहण्णताणुववत्तीदो। तम्हा एत्तिएण पयत्तेण सण्हीकयसमयूणावलियमेत्तगोवुच्छाओ घेत्तूण संजदपढमसमए पयदजहण्णसामित्तं होइ त्ति मुत्तत्यसमुच्चयो । एत्थ सिस्सो भणदि-एदम्हादो समयूणावलियमेत्तगोवुच्छदव्वादो जहण्णयमण्णमोकड्डणादिझीणहिदियं पेच्छामो। तं कधमिदि भणिदे एसो चेव
रहता है जब तक गुणश्रेणि निर्जीर्ण होती है। जब तक संयतके द्वारा की गई गुणश्रेणि पूरी गलती है तब तक यह जीव असंयत होकर रहता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यदि कहा जाय कि यह सब कथन करना निरर्थक है सो भी बात नहीं है, क्योंकि पश्चन्द्रियोंके असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण गुणश्रेणिगोपुच्छाओंको गलाकर प्रकृत स्वामित्वकी विषयभूत अतिसूक्ष्म गोपुच्छाओंके करने रूपसे इसका फल पाया जाता है। इस प्रकार असंयतरूप भावके द्वारा गुणश्रेणिको गला कर फिर कितनी प्रवृत्ति करके जघन्य स्वामित्वको प्राप्त होता है ? आगे यही बतलानेके लिये 'तदो संजमं पडिवज्जियूण' इत्यादि कहा है। आशय यह है कि फिर असंयमसे संयमको प्राप्त हुआ । इस बार संयमको तब प्राप्त कराना चाहिए जब और सब विधिके साथ कर्मक्षयको अन्तर्मुहूर्त में करनेकी स्थितिमें आ जाय। इस प्रकार संयमको प्राप्त होकर जो उसके प्रथम समयमें स्थित है वह अपकर्षणादि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य नपुंसकवेदसम्बन्धी कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है यह इस सूत्रका आशय है ।
शंका-संयत होनेसे लेकर दूसरे आदि समयोंमें यह जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया गया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि संयमगुणकी प्रधानतासे फिर भी उद्यावलिके बाहर जो गुणश्रेणिकी रचना हुई है उसके उदयावलिके भीतर प्रवेश करने पर जघन्यपना नहीं बन सकता है।
इसलिये इतने प्रयत्नसे सूक्ष्म की गई एक समय कम एक श्रावलिप्रमाण गोपुच्छाओंको लेकर संयतके प्रथम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है।
शंका-यहाँ कोई शिष्य कहता है कि यह जो एक समय कम एक श्रावलिप्रमाण गोपुच्छा द्रव्य है इससे हम अपकर्षणादि तीनकी अपेक्षा मीनस्थितिवाला अन्य जघन्य द्रव्य देखते हैं वह कैसे ऐसा पूछने पर वह बोलता है कि क्षपितकाशकी विधिसे भ्रमण करके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ खविदकम्मसियलक्खणेण भमिदजीवो पुवकोडिसंजमगुणसेढिणिज्जरं करिय अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्वए ति उवसमसेढिमारूढो अंतरकिरियापरिसमत्तीए गालिदसमयूणावलिओ कालगदो वेमाणिओ देवो जादो । सो च देवेसुप्पण्णपढमसमयम्मि पुरिसवेदमोकड्डियूणुदयादिणिक्खेवं करेइ, उदयाभावेण ओकड्डिजमाणणqसयवेदादिपयडीणमुदयावलियबाहिरे णिक्खेवं करेइ । एवमुदयावलियबाहिरे गोवुच्छायारेण णिसित्तणqसयवेदस्स जाधे विदियसमयदेवस्स एयगोवुच्छमेत्तमुदयावलियब्भंतरं पविसइ ताधे तत्थ णqसयवेदस्स प्रोकड्डणादितिण्हं पि जहण्णझीणहिदियं होइ। पुबिल्लजहण्णसामित्तविसईकयसमयूणावलियमेतणिसेएहिंतो एदस्स एयणिसेयमेत्तस्स थोवयरत्तदंसणादो ति ? णेदं घडदे, पूविल्लजहण्णदव्वादो एदस्स असंखेजगुणतुवलंभादो । तं जहा-इमस्स देवस्स संखेज्जसागरोवमपमाणाउहिदिमेत्तो सम्मत्तकालो अज्ज वि अत्थि। संपहि एत्तियमेत्तणिसेए गालिय अपच्छिमे मणुस्सभवे अवहिदो पुविल्लजहण्णदव्यसामित्रो। एदस्स पुण असंखेजगुणहाणिमेत्तगोवुच्छाओ णाज कि गलंति, तेण समयूणावलियमेत्तणिसेयदव्वादो एदमेयहिदिदव्वमसंखेज्जगुणं होइ, संखेजसागरोवमभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासीए समयूणाबलिओवट्टिदाए गुणगारसरूवेण दसणादो। तम्हा सुत्तुत्तमेव
आया हुआ यही जीव एक पूर्वकोटि काल तक संयमसम्बन्धी गुणश्रेणिकी निर्जरा करके जब जीवनमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहा तब उपशमश्रेणि पर चढ़ा और अन्तर क्रियाको समाप्त करके तथा नपुसंकवेदकी एक समय कम एक आवलिप्रमाण प्रथम स्थितिको गलाकर मरा और वैमानिक देव हो गया। और वह देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें पुरुषवेदका अपकर्षण करके उसका उदय समयसे लेकर निक्षेप करता है तथा उदय न होनेसे अपकर्षणको प्राप्त हुई नपुंसकवेद आदि प्रकृतियोंका उदयावलिके बाहर निक्षेप करता है। इस प्रकार उदयावलिके बाहर गोपुच्छाके
आकाररूपसे जो नपुंसकवेदका द्रव्य निक्षिप्त होता है उसमेंसे जब द्वितीय समयवर्ती देवके एक गोपुच्छाप्रमाण द्रव्य उदयावलिके भीतर प्रवेश करता है तब वहाँ अपकर्षणादि तीनोंकी अपेक्षा नपुंसकवेदका जघन्य मीनस्थितिक द्रव्य प्राप्त होता है। इस प्रकार पूर्वोक्त जघन्य स्वामित्वके विषयभूत एक समय कम एक आवलिप्रमाण निषेकोंसे यह एक निषेकप्रमाण द्रव्य अल्प देखा जाता है ?
समाधान-यह कहना घटित नहीं होता, क्योंकि पूर्वोक्त जघन्य द्रव्यसे यह द्रव्य असंख्यातगुणा पाया जाता है। खुलासा इस प्रकार है-इस देवके संख्यात सागर आयुप्रमाण सम्यक्त्व काल अभी भी शेष है। अब इतने निषेकोंको गलाकर अन्तिम मनुष्यभवमें उत्पन्न होने पर पूर्वोक्त जघन्य द्रव्यका स्वामी होता है। परन्तु इस द्रव्यकी असंख्यात गुणहानिप्रमाण गोपुच्छाएँ अभी भी गली नहीं हैं, इसलिये एक समय कम एक आवलिप्रमाण निषेकोंके द्रव्यसे यह एक स्थितिगत द्रव्य असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि यहाँ संख्यात सागरके भीतर नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिको एक समय कम एक आवलिसे भाजित करने पर जो लब्ध आता है उतना गुणकार देखा जाता है। इसलिये सूत्रमें कहा हुआ ही स्वामित्व
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गा० २२] पदेसविहत्तीए मीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३३९
३३९ सामित्तं गिरवजमिदि सिद्धं ।
* इत्थिवेदस्स वि जहएणयाणि तिणि वि झीणहिदियाणि एदस्स चेव तिपलिदोवमिएसु णो उववरणयस्स कायव्वाणि ।
निर्दोष है यह बात सिद्ध हुई।
विशेषार्थ- यहाँ अपकर्षणादि तीनकी अपेक्षा नपुंसकवेदके झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी बतलाया है। इसके लिये सूत्रमें जो विधि बतलाई है वह सब क्षपितकाशकी विधि है, इसलिये इसका यहाँ विशेष खुलासा नहीं किया जाता है। टीकामें उसका खुलासा किया ही है। किन्तु कुछ बातें यहाँ ज्ञातव्य हैं, इसलिये उन पर प्रकाश डाला जाता है। प्रथम बात तो यह है कि सूत्र में पहले दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण कराके फिर संयमासंयम आदि काण्डकोंके करनेका निर्देश किया है, इसलिये यह प्रश्न हुआ कि ये संयमासंयमादि काण्डकोंमें परिभ्रमण करनेके बार दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करनेके पहले होते हैं या बादमें होते हैं ? इस शंकाका जो समाधान किया है उसका
आशय यह है कि ये दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण करनेके पहले ही हो जाते हैं, क्योंकि जिस समय ये होते हैं वह काल इसके पहले ही प्राप्त होता है। पहले जघन्य प्रदेशसत्कर्मका निर्देश करते हुए भी संयमासंयमादिकके काण्डकोंको कराके ही दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ भ्रमण कराया गया है। इससे भी उक्त बातकी ही पुष्टि होती है, इसलिये यहाँ सूत्र में जो व्यतिक्रमसे निर्देश किया है वह कोई खास अर्थ नहीं रखता ऐसा यहाँ समझना चाहिये । दूसरी बात यह है कि सूत्रमें जो यह निर्देश किया है कि ऐसा जीव पूर्वोक्त विधिसे आकर जब अन्तमें संयमी होता है तब संयमको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान करना चाहिये। इस पर शंकाकारका यह कहना है कि यदि प्रथम समयमें जघन्य स्वामित्व न देकर द्वितीयादि समयोंमें जघन्य स्वामित्व दिया जाता है तो इससे विशेष लाभ है। वह यह कि प्रथम समयमें एक समय कम एक आवलिप्रमाण निषेकोंमें जितना द्रव्य होता है द्वितीयादि समयोंमें वह और कम हो जायगा, क्योंकि आगे
आगेके निषेकोंमें एक एक चयघाट द्रव्य देखा जाता है। इस शंकाका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि संयमको प्राप्त होते ही प्रथम समयसे यह जीव गुणश्रेणिकी रचना करने लगता है । यतः नपुंसकवेद अनुदयरूप प्रकृति है अतः इसकी गुणश्रणि रचना उदयावलिके बाहरके निषेकोंमें होगी। अब जब यह जीव दूसरे समयमें जाता है तब इसके उदयावलिके भीतरका प्रथम निषेक स्तिवुक संक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिरूप परिणम जानेसे उदयावलिके बाहरका एक निषेक उदयावलिमें प्रविष्ट हो जाता है। यतः उदयावलिमें प्रविष्ट हुए इस निषेकमें प्रथम समयमें अपकर्षित हुआ गुणश्रेणि द्रव्य भी आ मिला है अतः दूसरे समयमें एक समय कम एक श्रावलिप्रमाण निषेकोंका जो द्रव्य है वह प्रथम समयमें प्राप्त हुए एक समय कम एक आवलिप्रमाण निषेकोंके द्रव्यसे अधिक हो जाता है, अतः द्वितीयादि समयोंमें जघन्य स्वामित्वका विधान न करके प्रथम समयमें ही किया है।
__* अपकर्षणादि तीनोंकी अपेक्षा स्त्रीवेदके झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका भी स्वामी यही जीव है। किन्तु इसे तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न नहीं कराना चाहिये।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
९५६१. एदस्स चैवाणंतरपरुविदसामियस्स इत्थवेद संबंधीणि तिणि वि पयद जहण्णझीणडिदियाणि वत्तव्वाणि । णवरि तिपलिदोवमिएस अणुववण्णस्स काव्वाणि । कुदो ? तत्थ णकुंसयवेदस्सेव इत्थिवेदस्स बंधबोच्छेदाभावेण तत्थुपायणे फलावलं भादो |
३४०
'सयवेदस्स जहरणयमुदयादो की हिदियं कस्स ?
९५६२. सुगमं ।
जाव
* सुहुमणिगोदे कम्म हिदिमणुपालियूण तसेसु श्रागदो । संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो गओ । चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता तदो एइंदिए गदो । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमच्छिदो ताव उवसामय समयपबद्धा पिग्गलिदा त्ति । तदो पुणो मगुस्सेसु आगदो । पुव्वकोडी देसूर्ण संजममणुपालियूण अंतोमुहुत्त सेसे मिच्छत्तं गदो । दसवस्ससहस्सिएस देवेसु उववरणो । अंतो मुहुत्तमुववरणेण सम्मत्तं लद्धमंतोमुहुत्ताबसेसे जीविदsar त्ति मिच्छत्तं गदो । तदो विकडिदाओ हिंदीओ तप्पा ओग्गसव्वरहस्साए मिच्छत्तद्धाए एइंदिएसुबवण्णो । तत्थ वि
६५६१ यह जो अनन्तर जघन्य स्वामी कह आये हैं उसके ही स्त्रीवेद सम्बन्धी तीनों प्रकृत जघन्य कीनस्थितिक द्रव्य कहना चाहिये । किन्तु तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न नहीं हुए tad यह सब विधि बतलानी चाहिये, क्योंकि तीन पल्यकी आयुवालोंमें जैसे नपुंसकवेदकी बन्धव्युच्छित्ति पाई जाती है वैसे स्त्रीवेदकी बन्धव्युच्छित्ति नहीं पाई जाती, इसलिये वहाँ उत्पन्न कराने में कोई लाभ नहीं है ।
* नपुंसकवेदके उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी कौन है ? ९५६२ यह सूत्र सुगम है ।
1
* जो जीव सूक्ष्म निगोदियोंमें कर्मस्थिति प्रमाणकाल तक रहकर त्रसोंमें आया है । फिर जिसने अनेक बार संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्रको करके चार बार कषायका उपशम किया है । फिर एकेन्द्रियोंमें जाकर उपशामकसम्बन्धी समयबद्धों के गलने में लगनेवाले पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक वहाँ रहा । फिर मनुष्योंमें आकर और कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक संयमका पालन करते हुए जब अन्तर्मुहूर्त काल शेष बचा तब मिथ्यात्व में गया । फिर दस हजार वर्षकी युवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होने के अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्वको प्राप्त किया तथा जब आयु में अन्तर्मुहूर्त बाकी बचा तब मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । और वहाँ सम्यक्त्वकी अपेक्षा स्थितियों को बढ़ाकर तत्प्रायोग्य सबसे जघन्य मिथ्यात्वका काल शेष रहनेपर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ । फिर वहाँ तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ वह
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणामीणचूलियाए सामित्तं
३४१ तप्पाओग्गउक्कस्सयं संकिलेसं गदो तस्स पढमसमयएइंदियस्स जहएणयमुदयादो झीणहिदियं ।
६५६३. एत्थ मुहुमणिगोदेसु कम्महिदिमणुपालियूगे त्ति वुत्ते मुहुमवणप्फदिकाइएसु जो जीवो सव्वावासयविसुद्धो संतो कम्महिदिमणुपालियूणागदो त्ति घेत्तव्वं, अण्णहा खविदकम्मंसियत्तविरोहादो । एवमभवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्मं काऊण तसेसु आगदो। ण च तसपज्जायपरिणामो सुहुमणिगोदजोगादो असंखेज्जगुणजोगो वि संतो णिप्फलो ति जाणावण संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो गदो इच्चादी भणिदं । संजमासंजमादिगुणसेढिणिज्जराए पडिसमयमसंखेजपंचिंदियसमयपबद्धपडिबद्धाए एइंदियसंचयस्स गालणेण फलोवलंभादो । ण च एत्थतणसंचयस्स जोगबहुत्तमासंकणिज्जं, तस्स वारं पडि संखेजावलियमेत्तवयादो असंखेज्जगुणहीणतणेण पाहणियाभावादो पुणो वि तस्स एइंदिएसु पलिदोवमासंखेज्जदिभागमेत्तकालेण गालणादो च। तदेवाह-तदो एइंदिए गदो इत्यादी । एत्थ जदि वि उवसामो णवूसयवेदं ण बंधइ, तो वि पुरिसवेदादीणं तत्थ बधसंभवादो तेसिं णवकबधस्स गालणहमेसो एईदिए पवेसिदो । ण तेसिं कम्मंसाणमुवसामयसमय
प्रथम समयवर्ती एकेन्द्रिय जीव उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी है।
६५६३ यहाँ सूत्रमें जो 'सुहुमणिगोदेसु कम्मढिदिमणुपालियूण' कहा है सो इसका आशय यह है कि सब आवश्यकोंसे विशुद्ध होता हुआ जो जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंमें कर्म स्थितिप्रमाण काल तक रह कर बाहर आया है। अन्यथा उसे क्षपितकांश माननेमें विरोध श्राता है । इस प्रकार यह अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्म करके त्रसोंमें उत्पन्न हुआ। यहि कहा जाय कि सूक्ष्म निगोदियोंके योगसे त्रसपर्यायमें प्राप्त होनेवाला योग असंख्यातगुणा होता है, इसलिये त्रसपर्यायका प्राप्त कराना निष्फल है सो यह बात भी नहीं है। बस इसी बातका ज्ञान करानेके लिये सूत्रमें 'संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो गदो' इत्यादि सूत्र वचन कहा है। प्रत्येक समयमें पंचेन्द्रियोंके असंख्यात समयप्रबद्धोंसे सम्बन्ध रखनेवाली संयमासंयम आदि सम्बन्धी गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा एकेन्द्रिय पर्यायमें हुए संचयको गला देता है। इस प्रकार त्रसपर्यायमें उत्पन्न होनेकी यह सफलता है। यदि कहा जाय कि इस त्रस पर्यायमें संचय होता है वह योगकी बहुतायत के कारण बहुत होता है सो ऐसी आशंका करनी भी ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ पर जो प्रत्येक बार संख्यात आवलिप्रमाण समयप्रबद्धोंका उदय होता है उससे वह असंख्यातगुणा हीन होता है, इसलिये प्रकृतमें उसकी प्रधानता नहीं है। दूसरे फिरसे एकेन्द्रियों में जाकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा उसे गला देता है। इसकार इसी बातके बतलानेके लिये सूत्र में 'तदो एइंदिए गदो' इत्यादि वाक्य कहा है। यहाँ पर यद्यपि उपशामक जीव नपुंसकवेदका बन्ध नहीं करता है तो भी पुरुषवेदादिकका वहाँ बन्ध सम्भव होनेसे इनके नवकबन्धके गालन करनेके लिये इसे एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न कराया है। यदि कहा जाय कि वे कर्मपरमाणु उप
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३४२
जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
पबद्धेसु गलिदेसु णवंसयवेदस्स फलाभावो त्ति आसंकणिज्जं, तेसिमगालणे बज्झमाणवेदिज्ज माणणकुंसय वेदपयडीए उवरि परपय डिसंकमत्थिवुक्कसं कमदव्वस्स बहुतपसंगादो । तदो तप्परिहरणहमहवस्तव्यं तरणकुंसयवेदसंचयगालणह च तत्थ पवेसो पदोवजोगि ति सिद्धं ।
५६४. अंतदीवयं चेवेदमुवसामय समयपवद्धणिग्गालणवयणं, तेण संजदासंजदादिसमयपबद्ध णिग्गालणड मेसो बहुसो गुणसे ढिणिज्जिराकालब्धंतरे सुहुमेईदिएस पवेसणिज्ज । एत्थ पुण सुत्तावयवे निरवयवपरूविदावयवभावत्थे एवं पदसंबंधो कायन्वो - तदो पच्छा एइंदिए गदो संतो ताव अच्छिदो जाव उवसामय समयपबद्धा गालिदा ति । त्तियकालं ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं, अण्णा उवसामयसमयपबद्धाणं णिग्गलणाणुत्रवत्तीदो ।
९५६५ एवं कम्मं हदसमुत्पत्तियं काऊण तत्थतणसंचयगालणड तदो पुणो मणुस्से आगदो ति वृत्तं । तत्थागदस्स वावारविसेसप दुष्पायणढमाह - पुचकोडी देणं संजयमणुपा लियूण अंतोमुहुत्त सेसे मिच्छतं गदो। संजमगुणसेढिणिज्जराए तं मणुलभवं सहलं काऊण सव्वजहणतो मुहुत्त सेसे आए देव दिपाओगे मिच्छतं गदो
शामकके समयप्रबद्धों के साथ ही गल जाते हैं, इसलिये इससे नपुंसकवेदको कोई लाभ नहीं है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उन कर्मपरमाणुओंके नहीं गलने पर बंधनेवाली नपुंसक वेद प्रकृति में परप्रकृतिसंक्रमण के द्वारा और उदयको प्राप्त हुई नपुंसकवेद प्रकृति में स्तिवुक संक्रमण के द्वारा बहुत द्रव्यका प्रसंग प्राप्त होता है । इसलिये दोषका परिहार करनेके लिये और आठ वर्षके भीतर नपुंसकवेदका जो संचय हुआ है उसे गजानेके लिये एकेन्द्रियों में प्रवेश कराना प्रकृतमें उपयोगी है यह सिद्ध हुआ ।
$५६४ सूत्र में 'उवसामयसमयपबद्धा सिग्गलिदा' यह जो वचन दिया है वह अन्तदीपक है, इसलिये इससे यह ज्ञात होता है कि संयतासंयत आदिके समयप्रबद्धोंको गलाने के लिये भी इस जीवको बहुत बार गुणश्रेणिनिर्जरा कालके भीतर सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें प्रवेश कराना चाहिये | किन्तु यहाँ पर सूत्रके इस हिस्से के सब अवयवोंका भावार्थं कहने पर पदोंका सम्बन्ध इस प्रकार करना चाहिये - इसके बाद उपशामक के समयप्रबद्ध गलने तक यह जीव एकेन्द्रियों में रहा । वहाँ कितने काललक रहा यह बतलाने के लिए 'पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक रहा' यह कहा है । अन्यथा उपशामकके समयप्रबद्ध नहीं गल सकते हैं ।
$ ५६५ इस प्रकार कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके एकेन्द्रियों में हुए संचयको गलानेके लिये 'तो पुणो मस्से गदो' यह सूत्रवचन कहा है। फिर मनुष्यों में आकर जो व्यापार विशेष होता है उसका कथन करने के लिये 'पुच्वकोडी देणं संजम मणुपा लियूग अंतोमुहुत्त सेसे मिच्छत्तं गदो' सूत्र वचन कहा है । संयमगुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा उस मनुष्य भवको सफल करके जब सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहता है तब देवगतिके योग्य आयुका बन्ध करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
१. ता० प्रतौ 'फलाभावादो' इति पाठः ।
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.० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं त्ति उत्तं होइ । आमरणंतं गुणसेढिणिज्जरमकराविय किमहमेसो मिच्छत्तं णीदो ? ण, अण्णहा दसवस्ससहस्सिएम देवेसु उववज्जावेदुमसक्कियत्तादो। तत्थुप्पायणं च सव्वलहु एइंदिएमुप्पाइय सामितविहाणहमवगंतव्वं । जइ एवं संजदो चेव अंतोमुहुत्तसेसाउओ मिच्छत्तवसेण एइंदिएसुप्पाएयव्यो । दसवस्ससहस्सियदेवेसुप्पायणमणत्थयं, दसवस्ससहस्सब्भंतरसंचयस्स तत्थ संभवेण फलाणुवलं भादो। ण अंतोमुहुत्तमुववण्णेण सम्मत्तं लद्धमिच्चेदेण सुत्तावयवेण तस्स परिहारो, त्थिवुकसकमवसेण तत्थतणपुरिसवेदसंचयस्स दुप्पडिसेहादो ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे---ण ताव एसो संजदो मिच्छत्तं णेद्ग एइंदिएसुप्पाइ, सक्किजइ, तत्थुप्पज्जमाणस्स तस्स तिव्वसंकिलेसेण पुव्वगुणसेदिणिज्जराए थोक्यरत्तप्पसंगादो । ण एत्थ वि तहा पसंगो, देवगइपाओग्गमिच्छत्तदादो एइदियपाओग्गमिच्छत्तद्धाए संकिलेसावूरणकालस्स च संखेजगुणत्तेण एत्थतणहाणीदो बहुतरहाणीए तत्थुवलंभादो। ण एत्थ देवेसु संचओ
शंका-मरणपर्यन्त गुणश्रेणिनिर्जरा न कराके इसे मिथ्यात्वमें क्यों ले गये हैं ?
समाधान—नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वमें ले जाये बिना दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न कराना अशक्य होता, इसलिये अन्तमें इसे मिथ्यात्वमें ले गये हैं। अतिशीघ्र एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न कराके प्रकृत स्वामित्वका विधान करनेके लिये ही दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न कराया गया है यहाँ ऐसा जानना चाहिये।
शंका-यदि ऐसा है तो संयतको ही अन्तर्मुहूर्त आयुके शेष रहने पर मिथ्यात्वमें ले जाकर और उसके कारण एकेन्द्रियोमें उत्पन्न कराना चाहिये। दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न कराना अनर्थक है, क्योंकि देवोंमें उत्पन्न करानेसे दस हजार वर्षके भीतर जो संचय प्राप्त होता है वह उसके बाद एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न कराने पर वहाँ पाया जाता है, इसलिये देवोंमें उत्पन्न करानेसे कोई लाभ नहीं है। यदि कहा जाय कि इससे आगे सूत्रमें जो 'अंतोमुहुत्तमुववण्णेण सम्मत्तलद्ध' इत्यादिक कहा है सो इस वचनसे उक्त शंकाका परिहार हो जाता है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि देवपर्यायमें जो पुरुषवेदका संचय होता है एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर वह संचय स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा नपुंसकवेदमें प्राप्त होने लगनेके कारण उसका निषेध करना कठिन है ?
समाधान---अब उक्त शंकाका परिहार करते हैं -- इस संयतको मिथ्यात्वमें ले जाकर एकेन्द्रियोंमें तो उत्पन्न कराना शक्य नहीं है, क्योंकि जो संयत मिथ्यात्वमें जाकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाला है उसके तीव्र संक्लेश पाया जानेके कारण पूर्वं गुणश्रेणिनिर्जरा बहुत ही कम प्राप्त होती है।
__ यदि कहा जाय कि जो संयत मिथ्यात्वमें जाकर देव होनेवाला है उसके भी तीव्र संक्लेशके कारण पूर्व गुणश्रेणिनिर्जरा अति स्वल्प प्राप्त होती है सो यह बात नहीं है, क्योंकि देवगतिके योग्य मिथ्यात्वके कालसे एकेन्द्रियके योग्य जो मिथ्यात्वका काल है वह संख्यातगुणा है और उसके योग्य संक्लेशको प्राप्त करनेमें भी जो काल लगता है वह भी संख्यातगुणा है, इसलिये एकेन्द्रियोंके मिथ्यात्वमें गुणश्रेणिनिर्जराकी जितनी हानि होति है उससे देवगतिके मिथ्यात्वमें बहुत हानि पाई जाती है । यदि कहा जाय कि यहाँ देवोंमें अधिक संचय होता है, इसलिये उक्त दोष तो
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ अहिओ ति उत्तदोसो वि, तस्स संखेज्जावलियमेत्तसमयपबद्धपमाणस्स एयसमयगुणसेढिणिज्जराए असंखेजदिभागत्तेण पाहणियाभावादो। एदेणेव सेसगईसु वि उप्पायणासंका पडिसिद्धा, तत्थुप्पत्तिपाओग्गमिच्छत्तद्धाए बहुत्तदंसणादो। किमहमेसो दसवस्ससहस्सिएसु सम्मत्तं गेहविओ ? ण, ओकड्डणाबहुत्तेण अहियारहिदीए सण्डीकरण तहाकरणादो। मिच्छादिहिम्मि वि एत्थासंती ओकड्डणा बहुई अत्थि, तदो उहयत्थ वि सरिसमेदं फलमिदि णासंकणिज्जं, तत्थ प्रोक्कड्डणादो सम्माइडिओक्कड्डणाए विसोहिपरतंताए बहुवयरत्तदंसणादो। तम्हा सुहासियमेदमंतोमुहुत्तमुववण्णेण तेण सम्मत्तं लद्धमिदि। एवमधहिदीए णिज्जरं काऊण अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्यए त्ति मिच्छत्तं गदो, एइदिएमुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदो मिच्छत्तमेसो णीदो । तत्थ उप्पादो किमहमिच्छिज्जदे चे ? ण, एईदियोववादिणो देवस्स तप्पच्छायदपढमसमए एइंदियस्स च संकिलेसवसेण उकड्डणाबहुत्तमोकड्डणोदीरणाणं च थोवत्तमिच्छिय तहाब्भुवगमादो । बा ही रहता है अर्थात् मिथ्यात्वमें ले जाकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न करानेसे जो दोष प्राप्त होता है वह दोष यहाँ भी बना रहता है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक देवके जो संख्यात आवलिप्रमाण समयप्रबद्धोंका संचय होता है वह एक समयमें होनेवाली गुणश्रोणि निर्जराके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे उसकी यहाँ प्रधानता नहीं है। इसीसे शेष गतियोंमें भी उत्पन्न करानेकी आशंकाका निषेध हो जाता है, क्योंकि वहाँ उत्पन्न करानेके योग्य मिथ्यात्वका काल बहुत देखा जाता है।
शंका-इसे दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें ले जाकर सम्यक्त्व किसलिये ग्रहण कराया गया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि अधिक अपकर्षणाके द्वारा अधिकृत स्थितिके सुक्ष्म करने के लिये वैसा कराया गया है।
शंका—जो अपकर्षण यहाँ सम्यग्दृष्टिके नहीं होता वह मिथ्यादृष्टिके भी बहुत देखा जाता है इसलिये विवक्षित लाभ तो दोनों जगह ही समान है, फिर इसे सम्यग्दृष्टि करानेसे क्या
समाधान_ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके जो अपकर्षण होता है वह विशुद्धिके निमित्तसे होता है इसलिये वह मिथ्यादृष्टिके होनेवाले अपकर्षणसे बहुत देखा जाता है।
इसलिये सूत्रमें जो 'अंतोमुहुत्तमुववण्णेण तेण सम्मत्तं लद्धं' यह कहा है सो उचित ही कहा है। इस प्रकार उक्त जीव अधःस्थितिकी निर्जरा करता हुआ जब जीवनमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाय तब मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ, क्योंकि अन्यथा एकेन्द्रियोंमें उत्पत्ति नहीं बन सकनेके कारण इसे मिथ्यात्वमें ले गये हैं।
शंका-ऐसे जीवका अन्तमें एकेन्द्रियोंमें उत्पाद किसलिये स्वीकार किया गया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जो देव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है उसके एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें और जो एकेन्द्रिय एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है उसके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें संक्लेशके कारण उत्कर्षण बहुत होता है और अपकर्षण तथा उदीरणा
लाभ है ?
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं एदस्स चेव जाणावणहमिदमाह-तदो विकड्डिदाओ द्विदीओ ति । सव्वेसि कम्माणं हिदीओ मिच्छत्तसहगदतिव्ययरसंकिलेसवसेण सम्मादिहिबंधादो वियडिदाओ वि दूरमक्खिविय पबद्धाओ संतहिदीओ च णिरुद्धहिदीए सह वट्टमाणाओ दूरयरमुक्कड्डिय मिक्खित्ताओ ति वुत्तं होइ । तप्पाओग्गसव्वरहस्साए मिच्छत्तद्धाए एत्य सव्वरहस्सग्गहणेण ओघजहण्णमिच्छत्तकालस्स गहणं पसज्जइ ति तप्पडिसेहह तप्पाअोग्गविसेसणं कदं। एईदियुप्पत्तिप्पाओग्गसव्वजहण्णमिच्छत्तकालेणे ति भणिदं होइ। एवमेत्तिएण कालेण उक्कड्डणाए उक्कस्सहिदिबंधाविणाभाविणीए वावदो पयदगोवुच्छं सण्हीकरिय एईदिएसु उववण्णो, अण्णहा अइजहण्णणqसयवेदोदयासंभवादो । एत्थुद्देसे वि पयदोवजोगिपयत्तविसेसपदुप्पायणमाह-तत्थ वि तप्पाओग्गउक्कस्सयं संकिलेसं गदो त्ति । तत्थ वि उक्कस्सयसंकिलेसं किमिदि णीदो ? उदीरणाबहुत्तणिरायरण।
५६६. एवमेत्तिएण लक्खणेणोवलक्खियस्स तस्स पढमसमयएइंदियस्स णqसयवेदसंबंधी जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं होइ । एत्थ विदियसमयप्पहुडि उवरि गोवुच्छविसेसहाणिवसेण जहण्णसामित्तं गेण्हामो सि भणिदे ण तहा घेप्पड़,
कम होती है इसलिये ऐसा स्वीकार किया गया है।
इस प्रकार इसी बातके जतानेके लिये 'तदो विकड्डिदाओ द्विदीओ' यह सूत्रवचन कहा है। मिथ्यात्वके साथ प्राप्त हुए अति तीव्र संक्लेशरूप परिणामोंके कारण सब कर्मों की स्थितियोंको सम्यग्दृष्टिके बन्धसे बढ़ाकर अर्थात् बहुत दूर निक्षेप करके बाँधा और विवक्षित स्थितिके साथ जो सत्कर्मकी स्थितियां विद्यमान हैं उन्हें बहुत दूर उत्कर्षित करके निक्षिप्त किया यह उक्त सूत्रवचनका तात्पर्य है। तप्पाओग्गसव्वरहस्साए मिच्छत्तद्धाए' इस सूत्रवचनमें जो 'सव्वरहस्स' पदका ग्रहण किया है सो इससे ओघ जघन्य मिथ्यात्वके कालका ग्रहण प्राप्त होता है, इसलिये उसका निषेध करनेके लिये 'तत्प्रायोग्य' विशेषण दिया। इससे यहाँ एकेन्द्रियोंमें उत्पत्तिके योग्य सबसे जघन्य काल विवक्षित है यह तात्पर्य निकलता है । इस प्रकार इतने कालके द्वारा उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अविनाभावी उत्कर्षणमें लगा हुआ उक्त जीव प्रकृत गोपुच्छाको सूक्ष्म करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ, अन्यथा अत्यन्त जघन्य नपुंसकवेदका उदय नहीं बन सकता है। इस प्रकार एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर भी उक्त जीव प्रकृतमें उपयोगी पड़नेवाले जिस प्रयत्नविशेषको करता है उसका कथन करनेके लिये 'तत्थ वि तप्पाओग्गउक्कस्सयं संकिलेसं गदो' यह सूत्रवचन कहा है।
शंका-- एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर भी इस जीवको उत्कृष्ट संक्लेश क्यों प्राप्त कराया गया ?
समाधान-जिससे इसके बहुत उदीरणा न हो सके, इसलिये इसे उत्कृष्ट संक्लेश प्राप्त कराया गया है।
६५६६. इस प्रकार इतने लक्षणोंसे उपलक्षित प्रथम समयवर्ती वह एकेन्द्रिय जीव नपुंसकवेदके उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी होता है। यहाँ पर कितने ही लोग दूसरे समयसे लेकर ऊपर गोपुच्छविशेषकी हानि होनेके कारण जघन्य स्वामित्वको ग्रहण
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Marrrrr.
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ विदियादिसमएसु संकिलेससव्वहाणिदंसणादो। तम्हा एत्थेव सामित्तं गिरवजमिदि सिद्धं ।
* इत्थिवेदस्स जहएणयमुदयादो झीणहिदियं ?
५६७. कस्से त्ति अहियारे संबंधो कायचो, अण्णहा सुत्तत्थस्स असंपुण्णत्तप्पसंगादो । सेसं सुगमं ।
* एसो चेव णवुसयवेदस्स पुव्वं परविदो जाधे अपच्छिममणुस्सभवग्गहणं पुधकोडी देसूणं संजममणुपालियूण अंतोमुहत्तसेसे मिच्छत्त गयो । तदोवेमाणियदेवीसु उववरणो अंतोमुहुत्तद्धमुववरणो उकस्ससंकिलेसं गदो। तदो विकडिदाओ हिदीओ उक्कड्डिदा कम्मंसा जाधे तदो अंतोमुहुत्तद्धमकस्सइत्थिवेदस्स हिदि बंधियूण पडिभग्गो जादो। आवलियपडिभग्गाए तिस्से देवीए इत्थिवेदस्स उदयादो जहण्णयं झीणटिदियं । करनेके लिये कहते हैं परन्तु तत्त्वतः वैसा ग्रहण करना शक्य नहीं है, क्योंकि दूसरे आदि समयोंमें पूरा संक्लेश न रहकर उसकी हानि देखी जाती है, इसलिये निर्दोष रीतिसे जघन्य स्वामित्व प्रथम समयमें ही प्राप्त होता है यह बात सिद्ध होती है।
विशेषार्थ-यहाँ पर उदयकी अपेक्षा नपुंसकवेदके झीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामित्व किस प्रकारके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें होता है इसका विशेष खुलासा टीकामें किया ही है। उसका आशय इतना ही है कि उक्त क्रमसे जो जीव आकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है उसके नपुंसकवेदका द्रव्य उत्तरोत्तर घटता चला जाता है और इस प्रकार अन्तमें एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर प्रथम समयमें नपुंसकवेदका उदयगत सबसे जघन्य द्रव्य प्राप्त हो जाता है।
* उदयकी अपेक्षा स्त्रीवेदके झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी कौन है ।
३५६७. इस सूत्र में 'कस्स' इस पदका अधिकार होनेसे सम्बन्ध कर लेना चाहिये, अन्यथा सूत्रका अर्थ असंपूर्ण रहेगा। शेष कथन सुगम है। ___ * नपुसकवेदकी अपेक्षा पहले जो जीव विवक्षित था वही जब अन्तिम मनुष्य भवको ग्रहण करके और कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक संयमका पालन करके अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहने पर मिथ्यात्वमें गया। फिर वैमानिक देवियोंमें उत्पन्न हुआ। फिर वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त काल बाद उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ जिससे उसने वहाँ सम्भव उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया। और जब यह क्रिया की तभी प्राचीन सत्तामें स्थित कर्मोंका उत्कर्षण किया। फिर उस समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्ते काल तक स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके उत्कृष्ट संक्लेशसे निवृत्त हुआ। इस प्रकार निवृत्त हुए उस देवीको जब एक आवलि काल हो गया तब वह उदयकी अपेक्षा स्त्रीवेदके झीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामी है। ____१. विकड्ढणं ति उकडणं कर्म प्र. उदय गा० २२ ।।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३४७ ५६८. एदस्स सामित्तमुत्तस्स अत्थविवरणं कस्सामो-एसो चेव जीवो णवंसयवेदस्स सामित्तेण पुव्वपरूविदो समणंतरपरूविदासेसलक्षणोवलक्खिओ जाधे सामित्तकालं पेक्खियूण अपच्छिमं मणुस्सभवग्गहणं देसूणपुव्वकोडिपमाणं पुन्वविहाणेण गुणसेढिणिज्जिराविणाभाविसंजममणुपालियूग अंतोमुहुत्तसेसे सगाउए मिच्छत्तं गदो । एत्थ सव्वत्थ बि पुवपरूवणादो गस्थि णाणत्तं । णवरि किमहमेसो मिच्छत्तं णीदो त्ति पुच्छिदे इत्थिवेदएसुप्पायणमिदि वत्तव्वं, अण्णहा तत्थुप्पत्तीए असंभवादो । ण तत्थुप्पादो णिरत्थो, पयदसामित्तस्स सोदएण विणा विहाणाणुववत्तीदो। तमेवाहतदो वेमाणियदेवीसु उववण्णो त्ति। सेसगइपरिहारेण देवगदीए चे उप्पायणं गुणसेढिलाहरक्षण अण्णगइपाओग्गमिच्छत्तद्धाए बहुत्तेण तस्स विणासप्पसंगादो। अपज्जत्तदाए च थोवीकरण, अण्णहा तत्थ बहुदव्वसंचयावत्तीदो । भवणादिहेडिमदेवीसु उप्पाइय गेण्हामो, विसेसाभावादो ति णासंकणिज्जं, तत्थुप्पज्जमाणजीवस्स पुव्वमेव एतो तिब्वसंकिलेसावूरणेण गुणसेढिणिज्जरालाहबहुत्तभावावत्तीदो। तत्र तथोत्पन्नस्य
$५६८. अब इस स्वामित्वविषयक सूत्रके अर्थका खुलासा करते हैं-जिस जीवका पहले नपुंसकवेदके स्वामित्वरूपसे कथन कर आये हैं समनन्तर पूर्व में कहे गये सब लक्षणोंसे युक्त वही जीव जब स्वामित्वकालकी अपेक्षा अन्तिम मनुष्यभवको ग्रहण करके और पूर्व विधिके अनुसार गुणश्रोणिनिर्जराके अविनाभावी संयमका कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक पालन करके अपनी आयुमें अन्तर्मुहूर्त बाकी रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। यहाँ सभी जगह नपुंसकवेदसम्बन्धी पूर्व प्ररूपणासे कोई भेद नहीं है।
शंका-इस जीवको मिथ्यात्वमें किसलिये ले गये हैं ?
समाधान-स्त्रीवेदियोंमें उत्पन्न करानेके लिये इसे मिथ्यात्वमें ले गये हैं, अन्यथा इसकी उत्पत्ति स्त्रियों में नहीं हो सकती।
यदि कहा जाय कि इस जीवको मिथ्यात्वमें उत्पन्न कराना निरर्थक है सो यह बात भी नहीं है, क्योंकि स्वोदयके बिना प्रकृत स्वामित्वका विधान करना नहीं बनता है और स्त्रीवेदका उदय तब हो सकता है जब इसे मिथ्यात्वमें ले जाया जाय, इसलिये इसे मिथ्यात्वमें उत्पन्न कराया है। इसी बातको बतलानेके लिये 'तदो वेमाणियदेवीसु उववरणो' यह कहा है। इसे देवगतिमें ही क्यों उत्पन्न कराया है इस प्रश्नका उत्तर देने के लिये आचार्य कहते हैं कि गुणश्रेणिजन्य लाभकी रक्षा करनेके लिये शेष गतियोंको छोड़कर देवगतिमें ही उत्पन्न कराया है, क्योंकि अन्य गतिके योग्य मिथ्यात्वका काल बहुत होनेसे वहाँ गुणश्रोणिजन्य लाभका विनाश प्राप्त होता है। दूसरे अपर्याप्त कालको कम करनेके लिये भी देवोंमें उत्पन्न कराया है, अन्यथा वहाँ बहुत द्रव्यका संचय प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि भवनवासिनी आदि देवियोंमें उत्पन्न कराके जघन्य स्वामित्व प्राप्त कर लेंगे, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है सो ऐसी आशंका करनी भी ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ उत्पन्न होनेवाले ऐसे जीवके पहले से ही तीव्र संक्लेश पाया जाता है, इसलिये इसके गुणणिजन्य बहुत लाभ नहीं बन सकता है। अतः भवनवासिनी देवियोंमें उत्पन्न न कराके वैमानिक देवियोंमें उत्पन्न कराया
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ तस्य व्यापारविशेषप्रतिपादनार्थमाह-अंतोमुहुत्तद्धमुववण्णो इत्यादि । अत्रान्तर्मुहूर्तमपर्याप्तकाले संक्लेशोत्कर्षस्यासम्भवात्पर्याप्तकालविषयः संक्लेशोत्कर्षः प्ररूपितः । तथा परिणतः किंभयोजनमित्याशंक्याह-तदो इत्यादि । तदो तम्हा संकिलेसादो हेउभूदादो वियड्डिदाओ सव्वेसिं कम्माणं द्विदीओ अंतोकोडाकोडिमेत्तहिदिबंधादो वि दूरमुक्कड्डिय दीहाबाहाए पबद्धाओ त्ति भणिदं होइ । जाधे एवमुक्कस्सओ संकिलेसो आरिदो ताधे चेव उक्कड्डणाकमेण चिराणसंतकम्मपदेसा बज्झमाणणवकबंधुकस्सहिदीए उवरि उक्कड्डिय णिक्खित्ता, हिदिबंधस्सेव उक्कड्डणाए वि तदण्णयवदिरेयाणुविहाणत्तादो। ण च उक्कड्डणाबहुत्ताविणाभावी उक्कस्साबाहापडिबद्धो उक्कस्सओ द्विदिबंधो णिरत्थओ, णिरुद्धद्विदिपदेसाणमुक्कड्डणाए विणा सण्हीभावाणुप्पत्तीदो । एसो सव्यो वि वावारविसेसो अहियारहिदिमाबाहाब्भंतरे पवेसिय संकिलेसपरिणदपढमसमए परूविदो। तदो पहुडि अंतोमुहुत्तद्धमुक्कस्समित्थिवेदस्स हिदि बंधियूग पडिभग्गा जादा त्ति ।
$ ५६६. एत्थतणउक्स्ससद्दो अंतोमुहुत्तद्धाए हिदीए च विसेसणभावेण संबंधेयव्यो। तेण सव्वुक्कस्समंतोमुत्तकालं संकिलेसमावृरिय पण्णारससागरोवमकोडाकोडिमेत्तमित्थिवेदस्मुक्कस्सहिदि बंधिदूण एतियं कालमुक्कड्डणाए पयदणिसेयं जहण्णीहै। इस प्रकार जो जीव वैमानिक देवियोंमें उत्पन्न हुआ है उसके व्यापारविशेषका कथन करनेके लिये 'अंतोमुहुत्तद्धमुववण्णो' इत्यादि कहा है। यहाँ अपर्याप्त कालके भीतर अन्तर्मुहूर्त तक संक्लेशका उत्कर्ष नहीं हो सकता, इसलिये पर्याप्त कालविषयक संक्लेशका उत्कर्ष कहा है। इस प्रकार संक्लेशरूपसे परिणत करानेका क्या प्रयोजन है ऐसी आशंका होने पर 'तदो' इत्यादि कहा है। आशय यह है कि इस संक्लेशके कारण सब कर्मों की स्थितियोंको बढ़ाया अर्थात् जिन कर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण हो रहा था उनका बड़े आबाधाके साथ बहुत अधिक स्थितिको बढ़ाकर बन्ध किया। और जब इस प्रकारका उत्कृष्ट संक्लेश हुआ तब उत्कर्षणके क्रमानुसार प्राचीन सत्तामें स्थित कर्मपरमाणुओंको बंधनेवाले नवकबन्धकी उत्कृष्ट स्थितिके ऊपर उत्कर्षित करके निक्षिप्त किया, क्योंकि स्थितिबन्धके समान उत्कर्षणका भी संक्लेशके साथ अन्वय-व्यतिरेकसम्बन्ध पाया जाता है। यदि कहा जाय कि प्रकृतमें बहुत उत्कषणका अविनाभावी और उत्कृष्ट बाधासे सम्बन्ध रखनेवाला उत्कृष्ट स्थितिबन्ध निरर्थक है सो यह बात भी नहीं है, क्योंकि विवक्षित स्थितिके कर्मपरमाणु उत्कर्षणके बिना सूक्ष्म नहीं हो सकते, इसलिये बहुत उत्कर्षण और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध दोनों सार्थक हैं। अधिकृत स्थितिको आबाधाके भीतर प्रवेश कराके संक्लेशसे परिणत हानेके प्रथम समयमें इस सब व्यापारविशेषका कथन किया है। फिर यहाँसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके फिर उसे उत्कृष्ट संक्लेशसे निवृत्त कराया है।
५६६. यहाँ सूत्रमें जो उत्कृष्ट शब्द आया है सो उसका अन्तर्मुहूर्त काल और स्थिति इन दोनोंके साथ विशेषणरूपसे सम्बन्ध करना चाहिये। इससे यह अर्थ लेना चाहिये कि सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त काल तक संक्लेशको बढ़ाकर उसके द्वारा पन्द्रह कोडाकोड़ी सागरप्रमाण खीवेद्का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके और इतने ही काल तक उत्कर्षण द्वारा प्रकृत निषेकको जघन्य
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गा० २२ ]
पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं करिय संकिलेसादो पडिभग्गा जादा त्ति घेतव्वं, अंतोमुहुत्तादो, उवरि उक्कस्सहिदिबंधपाओग्गुकस्ससंकिलेसेगावहाणाभावादो । किमेत्थेव पडिभग्गपढमसमयजहण्णसामित्तं दिज्जइ ? न, इत्याह-आवलियपडिभग्गाए तिस्से देवीए इत्यादि । तदित्थणिसेयस्स पयत्तेण जहण्णीकयत्तादो एत्तो तस्स समयूणावलियमेत्तगोवुच्छविसेसाणं हाणिदसणादो च । जइ वि एत्थ ओकड्डणाए संभवो तो वि उदयावलियबाहिरे चेव श्रोकड्डिदपदेसग्गस्स णिक्वेवो त्ति भावत्थो। णासंखेन्जलोगपडिभागियं दव्वमासंकणिज्जं, तस्स दोगुणहाणिपडिभागियगोवुच्छविसेसादो असंखेजगुणहीणस्स पाहणियाभावादो।
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करके संक्लेशसे निवृत्त हुआ, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेशका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद फिर उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य उत्कृष्ट संक्लेशके साथ रहना नहीं बन सकता है। क्या यहाँ ही प्रतिभग्न होने के प्रथम समयमें जघन्य स्वामित्व दिया गया है। नहीं, इस प्रकार इसी बातके बतलानेके लिये 'श्रावलियपडिभग्गाए तिस्से देवीए' इत्यादि कहा है। प्रतिभग्न होनेके समयसे लेकर एक प्रावलिप्रमाण कालके अन्तमें जघन्य स्वामित्व देनेका कारण यह है कि वहाँका निषेक प्रयत्नसे जघन्य किया गया है । दूसरे प्रतिभग्न होनेके समयके निषेकसे उसमें एक समय कम एक प्रावलिप्रमाण गोपुच्छाविशेषोंकी हानि देखी जाती है। यद्यपि यहाँ अपकर्षणकी सम्भावना है तो भी अपकर्षणको प्राप्त हुए कर्मपरमाणुओंका निक्षेप अधिकतर उदयावलिके बाहर ही होता है यह इसका भावार्थ है। यदि कहा जाय कि प्रकृतमें स्त्रीवेद उदयवाली प्रकृति होनेसे अपकर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यमें असंख्यात लोकका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना द्रव्य तो इस प्रकृतिके उदयावलिके भीतर ही प्राप्त होता है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दो गुणहानि अर्थात् निषेकहारका भाग देनेसे जो गोपुच्छविशेष प्राप्त होता है उससे उक्त अपकर्षित द्रव्य असंख्यातगुणा हीन होता है, इसलिये उसकी प्रकृतमें प्रधानता नहीं है ।
विशेषार्थ—यहाँ पर उदयकी अपेक्षा स्त्रीवेदके झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी बतलाया है सो और सब विधि तो नपुंसकवेदके स्वामित्वके समान है किन्तु अन्तमें मनुष्यभवके बाद प्रक्रिया बदल जाती है। नपुंसकवेदके प्रकरणमें जैसे उस जीवको मनुष्यमें पैदा करानेके बाद फिर दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोमें ले गये और फिर वहाँसे एकेन्द्रियोंमें ले गये वैसा यहाँ न करके इस जीवको मनुष्य भवके बाद देवियोंमें उत्पन्न कराना चाहिये। फिर अन्तर्मुहूर्तके बाद स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और उत्कर्षण कराना चाहिये। फिर अन्तर्मुहूर्तमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे निवृत्त होने पर एक वलि कालके अन्तमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व कहना चाहिये। इस प्रकरणके अन्तमें टीकामें एक शंका उठाई गई है जिसका भाव यह है कि उत्कृष्ट संक्लेशसे निवृत्त होनेके प्रथम समयमें प्रस्तुत जघन्य स्वामित्व न कहकर जो उस समयसे लेकर एक
आवलिके अन्तमें जघन्य स्वामित्व कहा है सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रति समय जो उपरितन स्थितिमें स्थित द्रव्यका अपकर्षण होता है उसके कारण एक आवलिके अन्तिम समयमें स्थित द्रव्यका प्रमाण प्रथम समयमें स्थित द्रव्यके प्रमाणसे अधिक हो जाता है ? इस शंकाका समाधान दो प्रकारसे किया गया है। समाधानमें पहली बात तो यह बतलाई ग. है कि अपकर्षित द्रव्यका निक्षेप उदयावलिमें न होकर उदयावलिके बाहर होता है. इसलिये उदयावलिके अन्तिम समयमें स्थित द्रव्यका प्रमाण प्रथम समयमें स्थित द्रव्यके प्रमाणसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ॐ अरदि-सोगाणमोकड्डणादितिगझीणहिदियं जहएणयं कस्स ? ५७०. सुगमं!
8 एइंदियकम्मेण जहएणएण तसेसु आगदो। संजमासंजमं संजमं च बहुसो लद्धण तिणि वारे कसाए उवसामेयूण एइंदिए गदो । तत्थ पलिदोवमस्स असंखेज दिमागमच्छियूण जाव उवसामयसमयबद्धा गलंति तदो मणुस्सेसु आगदो । तत्थ पुव्वकोडी देसूणं संजममणुपालियूण कसाए उवसामेयूण उवसंतकसानो कालगदो देवो तेत्तीससागरोवमित्रो जादो। जाधे चेय हस्सरईओ प्रोकड्डिदाओ उदयादिणिक्खित्तानो अरदि-सोगा ओकड्डित्ता
अधिक नहीं हो सकता। पर इस उत्तर पर यह शंका होती है कि यह नियम तो अनुदयवाली प्रकृतियों के सम्बन्धमें है उदयवाली प्रकृतियोंके सम्बन्धमें नहीं, क्योंकि उदयवाली प्रकृतियोंमें अपकर्षित द्रव्यका निक्षेप उदय समयसे प्राप्त होता है, इसलिये पूर्वोक्त शंकासे मूल शंकाका निराकरण न होकर वह पूर्ववत् खड़ी रहती है, इसलिये इस अन्तर्वती शंकाको ध्यानमें रखकर समाधानमें दूसरी बात यह कही गई है कि इस प्रकार अपकर्षण होकर जिस द्रव्यका उदयावलिमें निक्षेप होता है वह द्रव्य एक गोपुच्छविशेषके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिये उसकी यहाँ प्रधानता नहीं है। असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो एक भागप्रमाण द्रव्य प्राप्त होता है उतने अपकर्षित द्रव्यका उदयावलिके अन्दर निक्षेप होता है। यह तो अपकर्षित द्रव्यका प्रमाण है। तथा दो गुणहानि आयामका भाग देनेपर गोपुच्छविशेष अर्थात् चयका प्रमाण प्राप्त होता है। सर्वत्र एक गुणहानिका काल पल्यके. असंख्यातवें भागप्रमाण है। इससे स्पष्ट है कि एक गोपुच्छविशेषसे उदयावलिमें प्राप्त होनेवाले अपकर्षित द्रव्यका प्रमाण असंख्यातगुणा हीन होता है, इसलिये वह यहाँ प्रधान नहीं है। यही कारण है कि उत्कृष्ट संक्लेशसे निवृत्त होनेके प्रथम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व न कहकर एक आवलिकालके अन्तिम समयमें कहा है।
* अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा अरति और शोकके झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी कौन है ।
६५७०. ग्रह सूत्र सुगम है।
* जो जीव एकेन्द्रियोंके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ त्रसोंमें उत्पन्न हुआ। फिर संयमासंयम और संयमको अनेक बार प्राप्त करके और तीन बार कषायोंका उपशम करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। वहाँ उपशामकके समयप्रवद्धोंके गलनेमें लगनेवाले पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक रहा । फिर आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । वहाँ कुछ कम एक पूर्वकोटि कालतक संयमका पालन करके और कषायोंको उपशमा कर उपशान्तकषाय गुणस्थानको प्राप्त हुआ। फिर मरकर तेतीस सागरकी आयुवाला देव हुआ। और जब देव हुआ तब हास्य और रतिका अपकर्पण करके उनका उदय समयसे निक्षेप किया तथा अरति और शोकका अपकर्षण करके उनका
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३५१ उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ता । से काले दुसमयदेवस्स एया हिदी अरहसोगाणमुदयावलियं पविटा ताधे अरदि-सोगाणं जहणणयं तिण्हं पि झीणहिदियं ।
___५७१. एत्य एइंदियकम्मेण जहण्णएणे त्ति उत्ते अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्मस्स गहणं कायव्वं, दोण्हमेदेसि भेदाभावादो। सेसावयवा बहुसो परूविदत्तादो सुगमा । णवरि तिण्णिवारे कसाए उवसामेयूणे त्ति वयणं चउत्थकसायुवसामणवारस्स विसेसियपरूवण । चउत्थवारे कसाए उवसायण उवसंतकसाओ कालगदो देवो तेत्तीससागरोवमिओ जादो त्ति भणंतस्साहिप्पाओ उवसमसेढीए कालगदो अहमिंददेवेसु च उपज्जइ, अण्णत्थुक्कस्ससुकलेस्साए असंभवादो ति । हंदि जाए लेस्साए परिणदो कालं करेइ तिस्से जत्थ संभवो, तत्थेव णियमेणुप्पज्जइ, ण लेस्संतरविसईकए विसए ति । कुदो एस णियमो ? सहावदो। ताधे चेव तत्थुप्पण्णपढमसमए हस्स-रदीओ ओकड्डिदाओ उदयादिणिक्खित्ताओ ति एदेण देवेमुप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहुत्तकालं हस्स-रदीणं उदयावलिके बाहर निक्षेप किया। तदनन्तर इस देवके दूसरे समयमें स्थित होनेपर अरति और शोककी एक स्थिति जब उदयावलिमें प्रवेश करती है तब यह जीव अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा अरति और शोकके झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी है।
$ ५७१. यहां सूत्रमें 'जो एइंदियकम्मेण जहण्णएण' कहा है सो इससे अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्मका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि एकेन्द्रियोंके योग्य जघन्य सत्कर्म और अभव्यों के योग्य जघन्य सत्कर्म इन दोनोंमें कोई भेद नहीं है, दोनोंका एक ही अर्थ है। सत्रके शेष अवयवोंका अनेक बार प्ररूपण किया है, इसलिये वे सुगम हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि चौथी बार कषायके उपशमानेके सम्बन्धमें विशेष वक्तव्य होनसे सत्रमें 'तिण्णिवारे कसाए उवसामेयूण' यह वचन कहा है। फिर कुछ आगे चलकर सूत्र में 'चउत्थवारे कसाए उवसामेयूण उवसंतकसायो कालगदो देवो तेत्तीससागरोवमिओ जादो' जो यह कहा है सो ऐसा कहनेका यह अभिप्राय है कि उपशमश्रेणिमें मरकर यह अहमिन्द्र देवोंमें उन्पन्न होता है, क्योंकि अन्यत्र उत्कृष्ट शुक्ललेश्याकी प्राप्ति असम्भव है। यह निश्चित है कि मरते समय पाई जानेवाली लेश्या जहां सम्भव होती है मरकर जीव नियमसे वहीं उत्पन्न होता है। किन्तु दूसरी लेश्याके विषयभूत स्थानमें नहीं उत्पन्न होता।
शंका-यह नियम किस कारणसे है ? समाधान-स्वभावसे।
फिर इसके आगे सूत्रमें जो 'ताधे चेव तत्थुप्पण्णपढमसमए हस्सरदीओ ओकड्डिदाओ उदयादिणिक्खित्ताओ' यह कहा है सो इससे यह ज्ञापित किया है कि देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक नियमसे हास्य और रतिका ही उदय होता है। तथा फिर
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ चेव णियमेणुदयो ति जाणाविदं । अरदि-सोगा ओकड्डित्ता उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ता ति एदेण वि दोण्हमेदेसिमुदयस्स तत्थच्चंताभावो सूचिदो, अण्णहा उदयावलियबाहिरे णिक्खेवणियमाभावेण असंखेजलोगपडिभागेणुदयावलियभंतरे णिसित्तदव्वं घेतूण हस्स-रईणं व जहण्णसामित्तं होज्ज ।
$ ५७२. एवमुदयाभावेणुदयावलियबाहिरे ओकड्डिय एयगोवुच्छायारेण णिक्खित्ताणमरइ-सोगाणं से काले दुसमयदेवस्स एया हिंदी उदयावलियं पविहा, हेहा एगसमयस्स गलणादो । ताधे तेसिं जहण्णयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदियं होइ, आवलियपवि? यणिसेयस्स तत्तो झीणहिदियत्तेण गहणादो । एत्थुवरि सामित्तासंकाए णत्थि संभवो, तत्थ समयं पडि णिसेयवुड्डिं मोत्तूण जहण्णभावाणुववत्तीदो । एत्थ के वि आइरिया अत्थसंबंधमत्रलंबमाणा भणति-जहा अंतरकदपढमसमयप्पहुडि समयूणावलियमेतद्धाणं गंतूण रइ-सोयाणं पढमहिदि गालिय कालं करिय देवेसु
सूत्र में 'ओकड्डित्ता उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ता' जो यह कहा है सो इस वचनके द्वारा यह सूचित किया है कि इन दोनोंका उदय वहां अत्यन्त असम्भव है। यदि ऐसा न माना जाय तो उदयावलिके बाहर ही इनके द्रव्यके निक्षेपका नियम न रहनेसे असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार उदयावलिके भीतर निक्षिप्त हुए द्रव्यकी अपेक्षा हास्य और रतिके समान इनका भी जघन्य स्वामित्व हो जाता। यतः हास्य और रतिके समान इनका जघन्य स्वामित्व नहीं बतलाया, इससे ज्ञात होता है कि देवोंमें उत्पन्न होनेपर अन्तर्मुहूर्त कालतक अरति और शोकका उदय न होकर नियमसे हास्य और रतिका ही उदय होता है।
६५७२. इस प्रकार उदय न होनेसे अपकर्षित करके एक गोपुच्छाके आकाररूपसे उदयावलिके बाहर निक्षित हुए अरति और शोककी एक स्थिति तदनन्तर द्वितीय समयवर्ती देवके उदयावलिमें प्रविष्ट होती है, क्योंकि देवके प्रथम समयसे द्वितीय समयवर्ती हो जाने के कारण उदयावलिमें नीचे एक समय गल गया है। तब अपकर्षणादि तीनोंकी अपेक्षा अरति
और शोकके झीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामी होता है, क्योंकि यहां पर उदयावलिके भीतर प्रविष्ट हुआ एक निषेक अपकर्षणादिकी अपेक्षा झीनस्थितिरूपसे ग्रहण किया गया है। यदि कहा जाय कि प्रकृतमें ऊपर अर्थात् देवपर्यायके तृतीय श्रादि समयोंमें प्रकृत स्वामित्व सम्मव है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ प्रत्येक समयमें एक एक निषेककी वृद्धि होती रहती है, इसलिये जघन्यपना नहीं बन सकता है। आशय यह है कि जैसे प्रकृत अहमिन्द्रके द्वितीय समयमें अरति और शोकका उदयावलिके भीतर एक निषेक था वह स्थिति अगले समयोंमें नहीं रहती है। किन्तु तीसरे समयमें उदयावलिमें दो निषेक हो जाते हैं, चौथे समयमें तीन निषेक हो जाते हैं। इस प्रकार उद्यावलिमें उत्तरोत्तर निषेकोंकी वृद्धि होनेसे दूसरे समयके सिवा अन्यत्र प्रकृत जघन्य स्वामित्व नहीं प्राप्त होता।
शंका-प्रकरणवश कितने ही आचार्य यहाँ पर इस प्रकार कथन करते हैं कि जैसे अन्तर करनेके बाद प्रथम समयसे लेकर एक समय कम एक आवलिप्रमाण स्थान जाने पर रति और शोककी प्रथम स्थितिको गलानेके बाद मरकर देवोंमें उत्पन्न कराने पर लाभ दिखाई
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गा० २२ ]
पदेसविहत्तीए भीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३५३
पदे लाहो दीस । तं कथं १ एत्थेव कालं काऊण देवे सुप्पण्णपढमसमए अंतरदीहप्रमाणं बहु होइ दीहमंतरं च पूरेमाणेण गोवुच्छाओ सण्हीकरिय संछुभंति, अंतरहिदीस विहज्जिय तदावूरणमोकडिददव्वस्स पदणादो । तम्हा एवं णिसिंचिया
विसिम देवस्स उदयावलियन्भंतरपविद्ध' यणिसेयदव्वमोकडणादितिन्हं पि जहणीणद्विदियं होइ । उवसंतकसाओ पुण कालं काऊण जइ तत्थुप्पइज्जइ तो अंतरदीपमाणं थोवं होइ, हेहदो चेव बहुअस्स कालस्स गालणादो । थोवे वांतरि पूरिज्जमाणे अंतरणिसेगा थोवा होऊण चिट्ठति, पुव्वुत्तदन्वस्स एत्थेव संकुडिय पदणादो ति । तदसमंजसं, कुदो १ अंतरायामाणुसारेणोकडिददव्वादो तप्पूरणह पसग्गग्गहणोवएसादो । तं जहा — दीहयरमंतरं पूरेमाणेनंतरब्भं तरणिसिंचमाणदव्वादो संखेज्जभागहीणदव्वं घेत्तूण थोवयरंतरपूरओ तत्थ णिसेयविरयणं करेई । कुदो एवं road ? विदिपिढमणिसेएण सह एयगोवुच्छण्णहाणुववत्सीदो ।
देता है वैसे ही प्रकृत में करना चाहिये । उक्त प्रकारसे मरकर देवोंमें उत्पन्न करानेसे क्या लाभ है ऐसी आशंका होने पर शंकाकार कहता है कि जो जीव इसी स्थान पर मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समय में अन्तरका प्रमाण बहुत अधिक पाया जाता है । और इस दीर्घ अन्तर में द्रव्यका निक्षेप करते हुए गोपुच्छाओंको सूक्ष्म करके उनका निक्षेप किया जाता है, क्योंकि अन्तरको पूरा करनेके लिये जो अपकर्षित द्रव्य प्राप्त होता है उसका अन्तरकी स्थितियों में विभाग होकर पतन होता है । यतः यहाँ पर अन्तरकाल बड़ा है अतः प्रत्येक निषेकमें कम द्रव्य प्राप्त हुआ । इसलिये इस प्रकारसे निक्षेप करके जो देव दूसरे समय में स्थित है उसके उदद्यावलिके भीतर प्रविष्ट हुआ एक निषेक द्रव्य अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा जघन्य झीनस्थितिरूप होता है ? किन्तु उपशान्तकषाय जीव मरकर यदि वहाँ उत्पन्न होता है तो इसके अन्तरकालका प्रमाण कम प्राप्त होता है, क्योंकि इसके यहाँ उत्पन्न होनेसे पूर्व ही अन्तरका बहुतसा काल व्यतीत हो चुका है । यतः इस देवको थोड़े ही अन्तरको पूरा करना है इसलिये इसके अन्तरसम्बन्धी निषेक थोड़े होने से स्थूल प्राप्त होते हैं, क्योंकि जो द्रव्य पहले बड़े अन्तर के भीतर विभक्त होकर प्राप्त हुआ था वह सबका सब यहाँ इस थोड़ेसे ही अन्तर में संकुचित होकर पतनको प्राप्त हुआ है ?
समाधान - यह सब कथन ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा उपदेश पाया जाता है कि जैसा अन्तरायाम होता है उसीके अनुसार उसको पूरा करनेके लिये अपकर्षित द्रव्यके कर्म परमाणु होते हैं। खुलासा इस प्रकार है - बड़े अन्तरको पूरा करनेवाला जीव अन्तरायाममें जितने द्रव्यका निक्षेप करता है थोड़े अन्तरको पूरा करनेवाला जीव उसके संख्यातवें भाग द्रव्यको लेकर वहाँ निषेकरचना करता है ।
शंका – यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान —– अन्यथा द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकके साथ एक गोपुच्छा नहीं बन सकती, इससे ज्ञात होता है कि अन्तरायामके अनुसार ही उसको भरनेके लिये अपकर्षित द्रव्य प्राप्त होता है ।
विशेषार्थ —- ऐसा सामान्य नियम है कि देवगतिमें उत्पन्न होने पर प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक रति और शोकका उदय नहीं होता, इसलिये अपकर्षण आदि तीनोंकी
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
* अरह-सोगाणं जहण्णयमुदयादो भी द्विदियं कस्स ?
६५७३. सुगमं ।
* एइंदियकम्मेण जहरणएण तसेसु श्रागदो । तत्थ संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो। चत्तारि वारे कसायमुवसामिदा । तदो एइंदिए गदो । तत्थ पलिदो मस्स असंखेज्जदिभाग मच्छिदो जाव उवसामयसमयपबद्धा गिलिदा ति । तदो मगुस्सेसु आगदो । तत्थ पुव्वकोडी देसूणं संजम
पालियू पडिवदिदेश सम्मत्तेण वेमापिएस देवेस उबवण्णो । अंतोमुहुत्तमुववण्णो उक्कस्ससंकिलेसं गदो । अंतोमुहुत्तमुक्कस्सहिदिं बंधियूण परिभग्गो जादो तस्स श्रावलियपडिभग्गस्स भय-दुगुंद्वाणं वेदयमाणस्स
३५४
[ पदेसविहत्ती ५
अपेक्षा इन दो प्रकृतियोंके झीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामित्व जो क्षपितकर्माश विधिसे आकर देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके कहा है । उसमें भी प्रकृत जबन्य स्वामित्व के लिये ऐसा स्थल चुना गया है जहाँ इन दोनों प्रकृतियोंका केवल एक एक निषेक ही उदद्यावलिके भीतर प्राप्त हो । यह तभी हो सकता है जब उपशमश्रेणिमें अन्तरकरण करनेके बाद अन्तरकालमें स्थित इस जीवको देवोंमें उत्पन्न कराया जाय । यद्यपि यह अवस्था अन्तरकरणके बादसे लेकर नौवें, दसवें या ग्यारहवें किसी भी गुणस्थानसे मरकर देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके हो सकती है पर यहाँ उपशान्तमोह गुणस्थानसे मरकर जो जीव देवों में उत्पन्न होता है उसके बतलाई है, क्योंकि तब अति और शोकका केवल एक निषेक ही उदद्यावलिमें पाया जाता है । कुछ आचार्य अन्तरकरके बाद प्रथम स्थितिके समाप्त हो जाने पर जो जीव मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है उसके दूसरे समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व बतलाते हैं पर वैसा कथन करनेमें कोई विशेष लाभ नहीं है, अतः उक्त स्वामित्व ही ठीक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शेष कथन सुगम होनेसे यहाँ उसका निर्देश नहीं किया है ।
* उदयकी अपेक्षा अरति और शोकके झीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है ?
६५७३. यह सूत्र सुगम है ।
* कोई एक जीव एकेन्द्रियोंके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ सोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ बहुतबार संयमासंयम और संयमको प्राप्त करके और चार बार कषायका उपशम करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ उपशामकके समयप्रबद्धों के गलनेवाले पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहा। फिर आकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । वहाँ कुछ कम एक पूर्वकोटि कालतक संयमका पालन कर उससे च्युत हुए बिना सम्यक्त्व के साथ वैमानिक देवोंमें उत्पन्न हुआ । फिर उत्मन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ । फिर अन्तर्मुहूर्त कालतक उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके उससे निवृत्त हुआ । इस प्रकार निवृत्त हुए इसको जब एक आवलि काल हो जाता है तब भय और जुगुप्साका भी वेदन करता
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए मीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३५५ अरदि-सोगाणं जहएणयमुदयादो झीणहिदियं ।
५७४. एदस्स मुत्तस्स अवयवत्थपरूवणा सुगमा । णवरि अपडिवदिदेण सम्मत्तेण० एवं भणिदे तत्थ पुवकोडिं संजमगुणसेढिमणुपालिय तदवसाणे मिच्छत्तमगंतूण सो संजदो अपडिवददेणेव तेण सम्मत्तेण कप्पवासियदेवेसुववण्णो त्ति भणिदं होइ । किमहमेसो गqसय-इत्थिवेदसामिओ व्व मिच्छत्तं ण णीदो त्ति ? ण, तत्थ मिच्छत्तं गच्छमाणस्स गुणसेढिणिज्जरालाहस्स असंपुण्णत्तप्पसंगादो गुणसेढिणिज्जराए संपुण्णत्तविहाण सणमोहणीयं खविय तत्थुप्पाइज्जमाणत्तादो च ण मिच्छत्तमेसो णेदु सक्किन्जदे । अंतोमुहुत्त उववण्णो उक्स्ससंकिलेसं गओ ति भणिदे छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो होऊणुक्कस्ससंकिलेसेण आवृरिदो ति वुत्तं होइ । संकिलेसावूरणे पयोजणमाह-अंतोमुहुत्तमुक्कस्सहिदि बंधियूणे त्ति । उक्कस्ससंकिलेसाणुक्कस्सहिदिमरदि-सोगाणं बंधमाणो णिरुद्ध हिदिमाबाहापविद्वत्तादो आयविरहियमुक्कड्डणाए सण्हीकरिय पुणो उक्कस्ससंकिलेसक्खएण पडिभग्गो जादो त्ति संबंधो कायव्यो । एत्थावलियपडिभग्गस्स सामित्त विहाणे पुवपरूविदं कारणं, तस्सेव विसेसणंतरमाह-भय-दुगुंछाणं वेदयमाणस्से त्ति, अण्णहा पयदणिसेयस्सुवरि भय-दुगुंछगोवुच्छाणं हुआ वह जीव उदयकी अपेक्षा अरति और शोकके झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी है।
६५७४. इस सूत्रके सब पदोंका कथन सुगम है। किन्तु सूत्रमें जो 'अपडिवदिदेण सम्मत्तेण' इत्यादि कहा है सो इसका यह अभिप्राय है कि मनुष्य पर्यायमें कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक संयमसम्बन्धी गुणश्रेणिका पालन करके उसके अन्तमें मिथ्यात्वमें न जाकर वह संयत संयमसे च्युत हुए बिना ही सम्यक्त्वके साथ कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ।
बांका-जैसे नपुंसकवेद और स्त्रीवेदके स्वामीको मिथ्यात्वमें ले गये हैं वैसे ही इसे मिथ्यात्वमें क्यों नहीं ले गये हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वमें ले जाने पर गुणश्रेणिनिर्जराका पूरा लाभ नहीं प्राप्त होता है। दूसरे पूरी गुणश्रेणिनिर्जराके प्राप्त करनेके लिये दर्शनमोहनीयकी क्षपणा कराके इसे वहाँ उत्पन्न कराया है, इसलिये इसे मिथ्यात्वमें ले जाना शक्य नहीं है।
सूत्रमें जो 'अंतोमुहुत्तउववण्णो उकस्ससंकिलेसं गओ' यह कहा है सो इसका यह अभिप्राय है कि छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होकर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ । उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होनेका प्रयोजन बतलानेके लिये सूत्र में 'अंतोमुहुत्तमुक्कस्सट्ठिदिं बंधियूण' यह कहा है। इसका प्रकृतमें ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये कि उत्कृष्ट संक्लेशसे अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाला यह जीव आबाधाके भीतर प्रविष्ट होनेके कारण आयसे रहित विवक्षित स्थितिको उत्कर्षणके द्वारा सूक्ष्म करके फिर उत्कृष्ट संक्लेशका क्षय हो जानेसे उससे निवृत्त हुआ। यहाँ निवृत्त होने पर एक आवलिके अन्तमें जो स्वामित्वका विधान किया है सो इसका कारण तो पहले कह आये हैं किन्तु यहाँ पर उसका दूसरा विशेषण बतलानेके लिये सूत्रमें 'भयदुगुंछाणं वेदयमाणस्स' यह कहा है। यदि यहाँ इन दो प्रकृतियोंका वेदक नहीं बतलाया
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ थिवुक्कसंकमेण जहण्णताणुववत्तीदो ।
® एवमोघेण सव्वमोहणीयपयडीणं जहण्णमोकडणादिझीणदियसामित्तं परविदं ।
६ ५७५. एत्तो एदेण सूचिदासेसपरूवणा चोद्दसमग्गणापडिबद्धा अजहण्णसामित्तपरूवणाए समयाविरोहेणाणुमग्गियव्वा ।
तदो सामित्ताणियोगद्दारं समत्तं । 8 अप्पाबहुअं। $ ५७६. अहियारसंभालणमुत्तमेदं ।
8 सव्वत्थोवं मिच्छत्तस्स उकस्सयमुदयादो झीणहिदियं ।
६ ५७७. कुदो १ एदस्स चेव उदयणिसेयस्स एकलग्गीभूदसंजदासंजद-संजदगुणसेडिसीसयस्स गुणिदकम्मंसियपयडिगोवुच्छसहगदस्स गहणादो ।
* उकस्सयाणि ओकडणादो उक्कड्डणादो संकमणदो च झीणजाता तो प्रकृत निषेकके ऊपर भय और जुगुप्साके गोपुच्छोंका स्तिवुक संक्रमण होते रहनेसे जघन्य स्वामित्व नहीं प्राप्त हो सकता था।
विशेषार्थ—उक्त कथनका सार यह है कि जो क्षपितकाशवाला जीव पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य होकर संयमका पालन करे और अन्तमें देव होकर पयोप्त हो जानेपर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हो। फिर अन्तर्महतं तक रति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता हुआ विवक्षित निषेकको सूक्ष्म करनेके लिये उत्कर्षण करे। फिर जब वह उत्कृष्ट संक्लेशसे च्युत होकर तबसे एक प्रावलि कालके अन्तमें स्थित होता है और भय तथा जुगुप्साके उदयसे भी युक्त रहता है तब उसके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है।
* इस प्रकार ओघसे अपकर्षणादि चारोंकी अपेक्षा मोहनीयकी सब प्रकृतियोंके झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी कहा।
६५७५. आगे इससे सूचित होनेवाली चौदह मार्गणासम्बन्धी समस्त प्ररूपणा अजघन्य स्वामित्वसम्बन्धी प्ररूपणाके साथ आगमके अनुसार जान लेनी चाहिए।
___ इस प्रकार स्वामित्व अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । * अब अल्पबहुत्वका अधिकार है। $ ५७६. अधिकारकी सम्हाल करनेके लिये यह सूत्र आया है। * मिथ्यात्वका उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला उत्कृष्ट द्रव्य सबसे थोड़ा है।
६५७७. क्योंकि यहाँ मिथ्यात्वका ऐसा उदय निषेक लिया गया है जो गुणितकांशकी प्रकृतिगोपुच्छाके साथ संयतासंयत और संयतके युगपत् प्राप्त हुए गुणश्नेणिशीर्षरूप है ।
* मिथ्यात्वके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए अप्पाबहुअं हिदियाणि तिषिण वि तुल्लागिण असंखेजगुणाणि ।
६५७८. किं कारणं ? समयूणावलियमेत्तदंसणमोहक्खवणगुणसे ढिगोवुच्छपमाणत्तादो। एत्थ गुणगारपमाणं तप्पाओग्गपलिदोरमासंखेज्जदिभागमेत्तं । कुदो ? संजमासंजम-संजमगुणसेढीहिंतो दसणमोहक्खवणगुणसेढीए असंखेजगुणत्तदंसणादो ।
ॐ एवं सम्मामिच्छत-पएणारसकसाय-छण्णोकसायाणं ।
५८९. जहा मिच्छत्तस्स चउण्हं पदाणं थोवबहुत्तगवेसणा कया एवमेदेसि पि कम्माणमुक्कस्सप्पाबहुअपरिक्खा कायव्वा, विसेसाभावादो।।
* सम्मत्तस्स सव्वत्थोवमुक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं ।
५८०. चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहगीयसव्वपच्छिमगुणसेढिलीसयस्स गहणादो।
8 सेसाणि तिगिण वि झीणहिदियाणि उक्कस्सयाणि तुल्लाणि विसेसाहियाणि ।
६५८१. कुदो तत्तो एदेसि विसेसाहियत्तं ? ण, समयूणावलियमेतदुचरिमादिगुणसेढिदव्वस्स तदसंखेजदिभागस्स तत्थ पवेसुवलंभादो। उत्कृष्ट द्रव्य ये तीनों परस्पर तुल्य होते हुए भी उससे असंख्यातगुणे हैं ।
६५७८. इसका क्या कारण है ? क्योंकि वह एक समय कम एक श्रावलिप्रमाण दर्शनमोहकी क्षपणासम्बन्धी गुणश्रेणिगोपुच्छाप्रमाण है। यहाँ गुणकारका प्रमाण तत्प्रायोग्य पल्यका असंख्यातवाँ भाग लेना चाहिये, क्योंकि संयमासंयम और संयमकी गुणश्रेणियोंसे दर्शनमोहकी क्षपणासम्बन्धी गुणश्रेणि असंख्यातगुणी देखी जाती है।
* इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय और छह नोकपायोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व है।
६ ५७९. जैसे मिथ्यात्वके चार पदोंके अल्पबहुत्वका विचार किया वैसे ही उक्त कर्मों के भी उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका विचार करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है।
* सम्यक्त्वका उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला उत्कृष्ट द्रव्य सबसे थोड़ा है।
६५८०. क्योंकि जिसने दर्शनमोहनीयकी पूरी क्षपणा नहीं की है उसके अन्तिम समयमें जो सबसे अन्तिम गुणश्रेणिशीर्षका द्रव्य विद्यमान रहता है उसका यहाँ ग्रहण किया गया है।
* सम्यक्त्वके शेष तीनों ही झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट द्रव्य परस्पर तुल्य होते हुए भी उससे विशेष अधिक हैं ।
६५८१. शंका-उससे ये विशेष अधिक क्यों हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि द्विचरम समयसे लेकर एक समय कम एक आवलिप्रमाण द्रव्यका यहाँ प्रवेश पाया जाता है जो कि पूर्वोक्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिये इसे विशेष अधिक कहा है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ 8 एवं लोभसंजलण-तिषिणवेदाणं ।
५८२. जहा सम्मत्तस्स अप्पाबहुअं परूविदमेवं लोभकसाय-संजलणतिवेदाणमणूणाहियं परूवेयव्वं, विसेसाभावादो। एवमुक्कस्सप्पाबहुअमोघेण समत्तं । एत्थादेसपरूवणा च जाणिय कायव्वा । तदो उकस्सयं समत्तं ।
* एत्तो जहण्णयं झीणहिदियं ।
$ ५८३. एत्तो उवरि जहण्णझीणहिदियस्स अप्पाबहुअं भणिस्सामो त्ति पइज्जामुत्तमेदं ।
* मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवं जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं ।
५८४. कुदो ? सासणपच्छायदपढमसमयमिच्छादिहिणो ओदारियावलियमेत्तसण्हयाणं गोवुच्छाणं चरिमणिसेयस्स पयदजहण्णसामित्तविसईकयस्स गहणादो ।
ॐ सेसाणि तिगिण वि झीणहिदियाणि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि ।
६५८५. कुदो ? संपुण्णावलियमेत्ताणमुदीरणागोवुच्छाणमिह गहणादो । को गुणगारो ? आवलिया सादिरेया । सेसं सुगमं । एदेणेव गयत्थाणमप्पणं करेइ
* इसी प्रकार लोभसंज्वलन और तीन वेदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व है।
६५८२. जिस प्रकार सम्यक्त्वका अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार लोभसंज्वलन और तीन वेदोंका न्यूनाधिकताके बिना अल्पबहुत्व कहना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार ओघसे उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। यहाँ आदेश प्ररूपणाको जानकर उसका कथन करना चाहिये । तब जाकर उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त होता है।
* इससे आगे जघन्य झीनस्थितिके द्रव्यका अल्पबहुत्व बतलाते हैं ।
६ ५८३. अब इस उत्कृष्ट अल्पबहुत्वके बाद झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका अल्पबहुत्व कहते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञा सूत्र है ।
* मिथ्यात्वका उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला उत्कृष्ट द्रव्य सबसे थोड़ा है।
$५८४. क्योंकि सासादन गुणस्थानसे पीछे लौटकर प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके जो उदयावलि संज्ञावाला गोपुच्छाएँ हैं उनमेंसे यहाँ पर प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विषयभूत अन्तिम निषेक लिया गया है।
* मिथ्यात्वके शेष तीनों ही झीनस्थितिवाले द्रव्य परस्परमें तुल्य होते हुए भी उससे असंख्यातगुणे हैं।
६५८५. क्योंकि यहाँ पर सम्पूर्ण श्रावलिप्रमाण उदीरणा गोपुच्छाओंका ग्रहण किया गया है।
शंका-गुणकारका क्या प्रमाण है ? समाधान-साधिक एक श्रावलि गुणकारका प्रमाण है।
शेष कथन सुगम है। अब इसीसे जिन प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ज्ञात हो जाता है उसका प्रमुखतासे निर्देश करते हैं
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पा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए अप्पाबहुअं ३५९
* जहा मिच्छत्तस्स जहएणयमप्पाबहुअं तहा जेसिं कम्मंसाणमुदीरणोदो अत्थि तेसि पि जहएणयमप्पाबहुअं ।
५८६. जहा मिच्छत्तस्स चत्तारि पदाणि अस्सियूण जहण्णप्पाबहुअं परूविदं तहा सेसाणं पि उदीरणोदइल्लाणं कम्माणं णेदव्वमिदि सुत्तत्थसंगहो ।
* अणंताणुबंधि-इत्थि-णवुसयवेद-अरइ-सोगा त्ति एदे अह कम्मंसे मोत्तण सेसाणमुदीरणोदयो।।
५८७. एत्थ उदीरणाए चेव उदयो उदीरणोदओ त्ति सावहारणो सुत्तावयवो, अण्णहा अणंताणुबंधिआदीणं परिवज्जणाणुववत्तीदो । जेसि कम्मसाणमुदयावलियभंतरे अंतरकरणेण अच्चंतमसंताणं कम्मपरमाणणं परिणामविसेसेणासंखेजलोगपडिभागेणोदीरिदाणमणुहवो तेसिमुदीरणोदओ ति एसो एत्थ भावत्यो । ण चाणंताणुबंधिआदीणमेवंविहो उदीरणोदयो संभवइ, तत्थ तदणुवलंभादो । तदो सुतुत्तपयडीओ अह मोत्तण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणमुदीरणाए चेव सुद्धाए पत्तजहण्णसामित्ताणं मिच्छत्तस्सेव अप्पाबहु अमणुणाहियं वत्तव्वमिदि सिद्धं ।
® जेसिं ण उदीरणोदयो तेसि पि सो चेव आलावो अप्पाबहुअस्स जहण्णयस्स ।
* जैसे मिथ्यात्वका जघन्य अल्पबहुत्व है वैसे ही जिन कर्मो का उदीरणोदय होता है उनका भी जघन्य अल्पबहुत्व जानना चाहिये ।
६५८६. जैसे मिथ्यात्वका चार पदोंकी अपेक्षा जघन्य अल्पबहुत्व कहा है वैसे उदीरणोदयवाले शेष कर्मों का भी जघन्य अल्पबहुत्व जानना चाहिये यह इस सूत्रका समुदायार्थ है।
_* अनन्तानुबन्धी, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति और शोक इन आठ कर्मो को छोड़कर शेष कर्म उदीरणोदयरूप हैं ।
६५८७. यहाँ पर उदीरणा ही उदयरूपसे विवक्षित है इसलिये उदीरणोदय यह सूत्रवचन अवधारण सहित है । अन्यथा अनन्तानुबन्धी आदिका निषेध नहीं किया जा सकता है। अन्तर कर देनेके कारण उदयावलिके भीतर जिन कर्मोके कर्मपरमाणु बिलकुल नहीं पाये जाते हैं, परिणामिवशेषके कारण असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार उदीरणाको प्राप्त हुए उनका अनुभव करना उदीरणोदय है यह इसका अभिप्राय है। अनन्तानुबन्धी आदिका इस प्रकार उदीरणोदय सम्भव नहीं है, क्योंकि इन प्रकृतियोंका उदीरणोदय नहीं पाया जाता है। इसलिये सूत्रोक्त आठ प्रकृतियों के सिवा जो सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा प्रकृतियाँ हैं इनकी शुद्ध उदीरणा होने पर ही जघन्य स्वामित्व प्राप्त होता है इसलिये इनका अल्पबहुत्व न्यूनाधिकताके बिना मिथ्यात्वके समान कहना चाहिये यह बात सिद्ध हुई।
* तथा जिनका उदीरणोदय नहीं होता उनका भी जघन्य अल्पबहुत्वविषयक आलाप उसी प्रकार है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ ५८८, पुव्वुत्तासेसपयडीणमुदीरणोदइल्लाणं जो जहण्णप्पाबहुआलावो सो चेव उदीरणोदयविरहिदपयडीणं पि कायव्यो, विसेसाभावादो। होउ णामाणताणुबंधीणमेसो अप्पाबहुआलावो, सामित्ताणुसारित्तादो। ण वुण इत्थि-णव॒सयवेदाणं, तत्थ सामित्ताणुसरणे तिण्हं पि जहण्णझीणहिदियादो उदयादो जहण्णझीणहिदियस्स असंखेज्जगुणत्तदंसणादो । ण एस दोसो, तहाणभुवगमादो। तहा चेव उवरि पक्खंतरस्स परूविस्समाणादो। किंतु त्थिउक्कसकममविवक्खिय समूहेणेव उदयादो वि जहण्णझीणहिदियस्स वेछावहिसागरोवमाणि भमाडिय सामित्तं दायबमिदि एदेगाहिप्पारण पयट्टमेदं । एदम्मि गए अवलंबिजमाणे उदयादो जहण्णझीणहिदियं पेक्खियण सेसाणं समयूणावलियगुणयारदसणादो।
~
$ ५८८. उदीरणोदयवाली पूर्वोक्त सब प्रकृतियोंका जो जघन्य अल्पबहुत्व कहा है, उदारणोदयसे रहित प्रकृतियोंका भी उसी प्रकार अल्पबहुत्व समझना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है।
शंका-अपने स्वामित्वके अनुसार होनेसे अनन्तानुबन्धियोंका यह अल्पबहुत्वालाप रहा आवे, परन्तु स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका यह अल्पबहुत्व नहीं प्राप्त होता, क्योंकि वहाँ पर स्वामित्वका अनुसरण करने पर जो अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा झीनस्थितिक जघन्य द्रव्य है उससे उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिक जघन्य द्रव्य असंख्यातगुण देखा जाता है ।
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्यों वैसा स्वीकार नहीं किया है। पक्षान्तर रूपसे आगे इसी बातका कथन भी करेंगे। किन्तु स्तिवुक संक्रमणकी विवक्षा न करके समूहरूपसे ही उदयकी अपेक्षा भी जघन्य झीनस्थितिवाले द्रव्यका स्वामित्व दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कराके देना चाहिये इस प्रकार इस अभिप्रायसे यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है। इस नयका अवलम्बन करने पर उदयकी अपेक्षा जघन्य झीनस्थितिवाले द्रव्यको देखते हुए शेष झीनस्थितिवाले द्रव्योंका गुणकार एक समय कम एक आवलिप्रमाण देखा जाता है।
विशेषार्थ जो उपशमसम्यग्दृष्टि छह आवलि कालके शेष रहने पर सासादनमें जाता है और फिर वहाँसे मिथ्यात्वमें जाता है उसके प्रथम समयमें अपकर्षणादि तीनकी अपेक्षा और एक आवलि कालके अन्तमें उदयकी अपेक्षा भीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य होता है। यतः अपर्षणादि तीनकी अपेक्षा जो झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य प्राप्त होता है वह उदयावलिके निषेक प्रमाण होता है और उदयकी अपेक्षा जो झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य प्राप्त होता है वह उदयावलिके अन्तिम निषेक प्रमाण होता है, इसलिये यहाँ उदयकी अपेक्षा झीनरितिथवाले जघन्य द्रव्यसे अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा प्राप्त हुआ झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य असंख्यातगुणा बतलाया है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन प्रकृतियोंका चारोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य भी इसी प्रकार उदीरणोदयके होने पर ही प्राप्त होता है, इसलिये इनका अल्पबहुत्व भी पूर्वोक्त प्रकारसे प्राप्त हो जाता है। अब रहीं शेष आठ प्रकृतियाँ सो इनमेंसे चार अनन्तानुबन्धी प्रकृतियाँ तो ऐसी हैं जिनका उक्त चारोंकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व अपने उदयकालमें ही प्राप्त होता है, इसलिये उनका भी अल्पबहुत्व उक्त प्रकारसे बन जाता है। शेष चारमें भी अरति और शोक ऐसी
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Mmmarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrra
गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए अप्पाबहुअं
३६१ ६५८६. संपहि एदेण मुत्तेणारइ-सोयाणं पि उदीरणोदएण विणा पत्तजहण्णसामित्ताणमप्पणाए अइप्पसत्ताए तत्थ विसेसपदुप्पायणसुत्तरमुत्तमाह
* णवरि अरइ-सोगाणं जहणणयमुदयादो झीणहिदियं थोवं । $ ५६०. कुदो ? एयणिसेयपमाणत्तादो ।
* सेसाणि तिगिण वि झीपडिदियाणि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । .. ६५६१. जइ वि तिण्हमेदासि पि झीणहिदियस्स खवियकम्मंसियपच्छायदोवसंतकसायचरदेवविदियसमए उदयावलियपविढयणिसेयं चेव घेत्तूण जहण्णसामित्तं जादं तो वि अंतोमुत्तमुवरि गंतूण जादजहण्णभावादो पुब्बिल्लेयणिसेयदव्वादो विसेसाहियत्तं ण विरुज्झदे, ओइण्णद्धाणमेत्तगोवुच्छविसेसाणमहियत्तदसणादो। एवमहिप्पायंतरमवलंबिय अप्पाबहु अमेदेसि परूविय संपहि सामित्ताणुसारेण थिवुक्कसंकमं पहाणीकाऊणप्पाबहुअपरूवणहमिदमाहप्रकृतियाँ हैं जिनके विषयमें उक्त नियम लागू नहीं होता यह बात अगले सूत्र द्वारा स्वयं चूर्णिसूत्रकार स्पष्ट करनेवाले हैं। किन्तु स्त्रीवेद और नपुंसकवेद ये दो प्रकृतियाँ ऐसी हैं जिनमें उक्त प्रकारसे अल्पबहुत्व घटित नहीं होता है।
६५८६. अब इस सूत्र द्वारा उदीरणोदयके विना अरति और शोक इन प्रकृतियोंमें भी जघन्य स्वामित्वका अतिप्रसंग प्राप्त हुआ, इसलिये इस विषयमें विशेष कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि अरति और शोकका उदीयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य थोड़ा है।
६५६०. क्योंकि इसका प्रमाण एक निषेक है।
* शेष तीनों झीनस्थितिवाले द्रव्य तुल्य होते हुए भी उससे विशेष अधिक हैं।
६५९१. यद्यपि क्षपितकाशकी विधिसे आकर जो उपशान्तकषायचर देव हुआ है उसके दूसरे समयमें उदयावलिके भीतर प्रविष्ट हुए एक निषेककी अपेक्षा अपकर्षणादि तीनोंसे ही झीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामित्व होता है तथापि अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर उदयकी अपेक्षा जघन्यभावको प्राप्त हुए पूर्वोक्त एक निषेकके द्रव्यसे इसे विशेष अधिक माननेमें कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि जितने स्थान नीचे उतरकर अपकर्षणादिकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व प्राप्त है वहाँ उतने गोपुच्छविशेषोंकी अधिकता देखी जाती है।
विशेषार्थ-उक्त कथनका यह आशय है कि अपकर्षणादि तीनकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व उपशान्तकषायचर देवके दूसरे समयमें प्राप्त हो जाता है और उदयकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व अन्तर्मुहूर्त बाद प्राप्त होता है। अब यहाँ जितना काल आगे जाकर उदयकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व प्राप्त होता है उतने गोपुच्छविशेषोंकी अर्थात् चयोंकी हानि हो जाती है, अतः अपकर्षणादि तीनकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला जो जघन्य द्रव्य होता है वह उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यसे साधिक होता है यह सिद्ध हुआ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * अहवा इत्थिवेद-पव॑सयवेदाणं जहएणयाणि प्रोकडणादीणि तिगिण वि झीणहिदियाणि तुल्लाणि थोवाणि ।
५६२. जहाकमेण वेछावहिसागरोवम-तिपलिदोवमभहियवेछावहिसागरोवमाणि भमाडिय सामित्तविहाणादो ।
* उदयादो जहएणयं झीपहिदियमसंखेजगुणं ।
१५६३. पुव्वुत्तकालमगालिय सामित्तविहाणादो । तं पि कुदो ? स्थिवुक्कसकमबहुत्तभयादो।
* अरइ-सोगाणं जहएणयाणि तिषिण वि झीणहिदियाणि तुल्लाणि थोवाणि ।
६५६४. उवसंतकसायचरविदियसमयदेवस्स उदयावलियपविठ्ठएयणिसेयस्स सव्वपयत्तेण जहण्णीकयस्स गहणादो ।
* जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं विसेसाहियं ।
इस प्रकार इन सब प्रकृतियोंका अभिप्रायान्तरकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन करके अब स्वामित्वके अनुसार स्तिबुकसंक्रमणको प्रधान करके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* अथवा स्त्रीवेद और नपुसकवेदके अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्य परस्पर तुल्य होते हुए भी थोड़े हैं।
१५६२. क्योंकि क्रमसे स्त्रीवेदकी अपेक्षा दो छयासठ सागर काल तक और नपुंसकवेदकी अपेक्षा तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कराके इन दोनों वेदोंके स्वामित्वका विधान किया गया है।
* उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य उससे असंख्यातगुणा है। ६५६३. क्योंकि पूर्वोक्त कालको न गलाकर स्वामित्वका विधान किया गया है। शंका-ऐसा क्यों किया गया। समाधान-स्तिवुकसंक्रमणके बहुत द्रव्यके प्राप्त होनेके भयसे ऐसा किया गया है।
विशेषार्थ-स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य क्रमसे दो छयासठ सागर पूर्व और तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर पूर्व प्राप्त होता है और अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य उक्त काल बाद प्राप्त होता है, इसलिये अपकर्षण आदिकी अपेक्षा प्राप्त हुए झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यसे उदयकी अपेक्षा प्राप्त हुआ झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य असंख्यातगुणा बतलाया है।
* अरति और शोकके अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्य परस्पर तुल्य होते हुए भी थोड़े हैं।
$ ५६४. क्योंकि जो उपशान्तकषायचर देव दूसरे समयमें स्थित है उसके उदद्यावलिमें प्रविष्ट हुए और सब प्रयत्नसे जघन्य किये गये एक निषेकका यहाँ पर ग्रहण किया गया है।
* उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला जघन्य द्रव्य उससे विशेष अधिक है ।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए मीणाझीणचूलियाए अप्पाबहुअं
५६५. कुदो ? हस्स-रइथिउकसंकमेण सह पत्तोदयएयणिसेयग्गहणादो । केत्यिमेत्तो विसेसो ? अंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छविसेसेहिं ऊणहस्स-रइथिवुक्कसंकममेत्तो।
५६६. संपहि एत्थुद्दे से सव्वेसिमत्थाहियाराणं साहारणभूदमप्पाबहुअदंडयं मज्झदीवयभावेण परूवइस्सामो। तं जहा-सव्वत्थोवो सव्वसंकमभागहारो । किं कारणं ? एगरूवपमाणत्तादो । गुणसंकमभागहारो असंखेजगुणो। किं कारणं ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागपमाणत्तादो । ओकडकडणभागहारो असंखेजगुणो। एसो वि पलिदो० असंखेज्जदिभागो चेव, किंतु पुग्विल्लदो एसो असंखेज्जगुणो ति गुरूवएसो। अधापवत्तभागहारो असंखेजगुणो। एदस्स कारणं सुत्तणिवद्धमेव । तं कथं ? हिदिअंतिए मिच्छत्तस्स उक्कस्सअधाणिसे यहिदिपत्तयसंबंधेण ओकड्डक्कड्डगाए कम्मस्स अवहारकालो थोवो । अधापवत्तसंकमेण कम्मस्स अवहारो असंखेज्जगुणो त्ति भणिहिदि । तदो सिद्धमेदस्सासंखेज्जगुणतं । जोगगुणगारो असंखेज्जगुणो । एदस्स कारणं वुच्चदे । तं जहा-वेदगे त्ति अणियोगदारे कोहसंजलणपदेसग्गस जहण्णबंधसंकम-उदय-उदीरण-संतकम्माणि अस्सियूणप्पाबहुअं भणिहिदि । तं कथं ? कोहसंजलण
६५६५. क्योंकि हास्य और रतिका स्तिबुकसंक्रमणसे जो द्रव्य प्राप्त होता है उसके साथ अरति और शोकके उदयको प्राप्त हुए एक निषेकका यहाँ पर ग्रहण किया गया है ।
शंका-कितना विशेष अधिक है ?
समाधान हास्य और रतिका स्तिवुकसंक्रमणसे जो द्रव्य प्राप्त होता है उसमेंसे. अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गोपुच्छविशेषोंके कम कर देनेपर जो शेष रहे उतना विशेष अधिक है।
६५६६. अब इस स्थान पर जो सभी अर्थाधिकारोंमें साधारण है ऐसे अल्पबहुत्वदण्डकको मध्यदीपकभावसे दिखलाते हैं। यथा-सर्वसंक्रमणभागहार सबसे थोड़ा है, क्योंकि उसका प्रमाण एक है। इससे गुणसंक्रमभागहार असंख्यातगुणा है, क्योंकि यह पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इससे अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार असंख्यातगुणा है। यद्यपि यह भी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है तो भी पूर्वोक्त भागहारसे यह असंख्यातगुणा है ऐसा गुरुका उपदेश है। इससे अधःप्रवृत्तसंक्रमभागहार असंख्यातगुणा है। इसके असंख्यातगुणे होनेके कारणका निर्देश सूत्रमें ही किया है।
शंका-सो कैसे ?
समाधान-आगे स्थित्यन्तिक अधिकारमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अधःनिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके सम्बन्धसे अपकर्षण-उत्कर्षणसे प्राप्त हुए कर्मका अवहारकाल थोड़ा और अधःप्रवृत्त संक्रमसे प्राप्त हुए कर्मका अवहारकाल असंख्यातगुणा है ऐसा कहेंगे, इसलिये अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे अधःप्रवृत्तभागहार असंख्यातगुणा है यह सिद्ध होता है। अधःप्रवृत्तसंक्रमभागहारके प्रमाणसे योगगुणकार असंख्यातगुणा है। अब इसका कारण कहते हैं। यथा-वेदक नामके अनुयोगद्वारमें क्रोध संज्वलनकर्मका जघन्य बन्ध, जघन्य संक्रम, जघन्य उदय, जघन्य उदीरणा और जघन्य सत्कर्म इनकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहेंगे। यथा-'क्रोधसंज्वलनकी जघन्य प्रदेशो
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
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[ पदेसविहती ५जहणपदेसुदीरणा थोवा, उदयो असंखेज्जगुणो, बंधो असंखेज्जगुणो, संकमो असंखेज्जगुणो, संतकम्मं असंखेज्जगुणमिदि । एत्थ जहण्णबधो ति उत्ते एगेइंदियसमयपत्रद्धमेत्तं गहिदं । जहण्णसंकमो त्ति उत्ते एगमेईदियसमयपबद्धं दृविय पुणो घोलमाणजहण्णजोगेण वद्धपंचिंदियसमयपवद्धमिच्छामो ति जोगगुणगारमेदस्स गुणगारण ठविय पुणो वि एदस्स हेट्ठा अधापवत्तभागहारं ठविय ओवट्टिदे जहणसंकमदव्यमागच्छइ । जइ एत्थ जोगगुणगारो थोबो होज्ज तो जहण्णसंकमदव्वस्सुवरि जब श्रसंखेज्जगुणो जाएज्ज । ण च एवं बधस्सुवरि संकमो असंखेज्जगुणो ति पढिदत्तादो । तम्हा जोगगुणगारो अधापवत्तभागहारादो असंखेज्जगुणो ति सिद्धं ? कम्मद्विदिणाणागुणहाणिसला गाओ असंखेज्जगुणा । कुदो ? किंचूणपलिदोमद्धछेदणयमाणत्तादो । एदस्स कारणस्स णिरुत्तीकरणमिदं । तं जहा — दिवड - गुणहाणि ठविय जोगगुणगारेण गुणिदे पलिदो० असंखे० भागमेत्तो चेव रासी उपज्जइ । पुणो एत्थ जोगगुणगारमवणिय तं चेत्र गुणिज्जमाणं दिवडुगुणहाणिपमाणं ठत्रिय जइ णाणागुणहाणिसलागाहि गुणिज्जइ तो दिवडकम्महिदिमेत्तो रासी उप्पज्जदि त्ति । एदेण जाणिज्जदे जहा जोगगुणगारादो कम्मद्विदिणाणागुणहाणिस लागाओ असंखेज्जगुणाभ त्ति । पलिदोवमस्स छेदणया विसेसा । केत्तियमेत्तो विसेसो ? पलिदोवमवग्गस लागछेदणयमेत्तो । कुदो एदं परिविज्जदे : परमगुरूव एसादो । दीरणा थोड़ी है। उससे उदय असंख्यातगुणा है। उससे बन्ध असंख्यातगुणा है। उससे संक्रम संख्यातगुणा है और उससे सत्कर्म संख्यातगुरणा है ।' यहाँ जघन्य बन्ध ऐसा कहनेपर उससे एकेन्द्रियके समयबद्धप्रमाण द्रव्यका ग्रहण किया है । जघन्य संक्रम ऐसा कहनेपर इस प्रकार से प्राप्त हुए संक्रम द्रव्यका ग्रहण किया है। यथा - ए - एकेन्द्रियके एक समयबद्धको स्थापित करो। फिर घोलमान जघन्य योगके द्वारा बाँधे गये पश्च न्द्रिय समयप्रबद्धको लाना चाहते हैं, इसलिये इसके गुणकाररूपसे योग गुणकारको स्थापित करो। फिर इसके नीचे अधः प्रवृत्तभागहारको स्थापित करके भाग देनेपर जघन्य संक्रमद्रव्य आता है । यदि यहाँ योगगुणकार अधः प्रवृत्तभागहार से अल्प होता तो जघन्य संक्रमद्रव्यसे जघन्य बन्ध असंख्यातगुणा हो जाता । पर ऐसा है नहीं, क्योंकि सूत्रमें बन्धसे संक्रम संख्यातगुणा बतलाया है, इसलिये अधःप्रवृत्तभागहारसे योगगुणकार
संख्यागुणा है यह सिद्ध हुआ । योगगुणकार से कर्मस्थितिके भीतर प्राप्त हुई नानागुणहानिशलाकाएँ असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि वे कुछ कम पल्यके अर्धच्छेदप्रमाण हैं। इस कारणका खुलासा इस प्रकार है - डेढ़ गुणहानिको रखकर योगगुणकारसे गुणित करनेपर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही लब्ध राशि आती है । फिर यहाँ योगगुणकारको अलग करके और गुण्यमान उसी डेढ़ गुणहानिप्रमाण राशिको स्थापित करके यदि नानागुणहानिशलाकाओं से गुणा किया जाता है तो डेढ़ गुणी कर्मस्थितिप्रमाण राशि उत्पन्न होती है। इससे ज्ञात होता है कि योगगुणकार से स्थिति भीतर प्राप्त हुई नानागुणहानिशलाकाएँ असंख्यागुणी हैं । कर्मस्थिति के भीतर प्राप्त हुई गुहाशिलाका से पल्यके अर्धच्छेद विशेष अधिक हैं ।
शंका- कितने अधिक हैं ?
समाधान - पल्की वर्गशलाकाओं के जितने अर्धच्छेद हों उतने अधिक हैं ।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणामीणचूलियाए अप्पाबहुअं
३६५ पलिदोवमपढमवग्गमूलं असंखेजगुणं । सुगममेत्य कारणं । एगपदेसगुणहाणिहाणंतरमसंखेज्जगुणं । कारणं णाणागुणहाणिसलागाहि कम्महिदीए ओवहिदाए असंखेजाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि आगच्छंति ति। दिवडगुणहाणिहाणंतरं विसेसाहियं । के० विसेसो ? दुभागमेत्तेण । गिसेयभागहारो विसेसो। के०मेत्तेण १ तिभागमेत्तेण । अण्णोण्णब्भत्थरासी असंखे०गुणो। एत्थ कारणं सुगमं । पलिदोवममसंखेजगुणं । सुगमं । विज्झादसंकमभागहारो असंखेजगुणो। किं कारणं ? अंगुलस्स असंखे०भागपमाणत्तादो। उव्वेल्लणभागहारो असंखेज्जगुणो। दोण्हमेदेसिमंगुलस्सासंखे०भागपमाणत्ताविसेसे वि पदेससंकयप्पाबहुअसुत्तादो एदस्सासंखेजगुणमवगम्मदे । अणुभागवग्गणाणं गाणापदेसगुणहाणिसलागाओ अणंतगुणाओ। किं कारणं ? अभवसिद्धिएहिंतो अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागपमाणतादो । एगपदेसगुणहाणि
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-परम गुरुओंके उपदेशसे जाना जाता है।
पल्यके अर्धच्छेदोंसे पल्यका प्रथम वर्गमूल असंख्यातगुणा है। इसका कारण सुगम है। इससे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है, क्योंकि कर्मस्थितिमें नानागुणाहानिशलाकाओंका भाग देनेपर पल्यके असंख्यात प्रथमवर्गमूल प्राप्त होते हैं। एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरसे डेढ़गुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक है।
शंका-कितना अधिक है ? समाधान-दूसरा भाग अधिक है। डेढ़गुणहानिस्थानान्तरसे निषेकभागहार विशेष अधिक है। शंका-कितना अधिक है ? समाधान-तीसरा भाग अधिक है।
निषेकभागहारसे अन्योन्याभ्यस्तराशि असंख्यातगुणी है। इसका कारण सुगम है। इससे पल्य असंख्यातगुणा है। इसका भी कारण सुगम है। इससे विध्यातसंक्रमभागहार असंख्यातगुणा है।
शंका-इसके असंख्यातगुणे होनेका क्या कारण है ?
समाधान—क्योंकि विध्यातसंक्रमभागहार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिये इसे पल्यसे असंख्यातगुणा बतलाया है।
विध्यातसंक्रमभागहारसे उद्वेलनभागहार असंख्यातगुणा है। यद्यपि ये दोनों ही भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं तो भी प्रदेशसंक्रमअल्पबहुत्वविषयक सूत्रसे ज्ञात होता है कि विध्यातसंक्रमभागहारसे उद्वेलनभागहार असंख्यातगुणा है। उद्वेलनभागहारसे अनुभाग वर्गणाओंकी नानाप्रदेशगुणहानिशलाकाएँ अनन्तगुणी हैं, क्योंकि ये अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं। इससे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर अनन्तगुणा है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ हाणंतरमणंतगुणं । दिवडगुणहाणिहाणंतरं विसेसाहियं । णिसेयभागहारो विसेसो । अण्णोण्णब्भत्थरासी अणंतगुणो ति । एवमप्पाबहुए समत्ते झीणमझीणं ति पदं समत्तं होदि ।
(हिदियं ति चूलिया भदं सम्मइंसणणाणचरित्ताणममलसाराणं । जिणवरवयणमहोवहिगम्भसमन्भूयरयणाणं ॥ सुहुमयतिहुवणसिहरहिदियंतियसिद्धवं दियं वीरं ।
इणमो पणमिय सिरसा वोच्छं ठिदियं ति अहियारं ॥१॥) * ठिदियं ति जं पदं तस्स विहासा ।
५६७. एत्तो उपरि ठिदियं ति जं पदं मूलगाहाए चरिमावयवभूदं वा सद्देण सूचिदासेसविसेसपरूवणं तस्स विहासा अहिकीरदि ति सुत्तत्थसंबंधो । तत्थ कि ठिदियं णाम ? द्विदीओ गच्छइ ति हिदियं पदेसग्गं हिदिपत्तयमिदि उत्तं होदि । इससे द्वयर्धगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक है। इससे निषेकभागहार विशेष अधिक है। इससे अन्योन्याभ्यस्तराशि अनन्तगुणी है।
इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त हो जानेपर गाथामें आये हुए 'झीणमझीणं' इस पदकी व्याख्या समाप्त होती है।
स्थितिग चूलिका __ जैसे महोदधिके गर्भसे उत्तमोत्तम रत्न निकलते हैं उसी प्रकार जो जिनेन्द्रदेवके वचनरूपी महोदधिसे निकले हैं और जो संसारके सब निर्मल पदार्थोंमें सारभूत हैं ऐसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप तीनों रत्नोंकी सदा जय हो ।। १ ।।
सुखमय और तीन लोकके अग्र भागमें स्थित सिद्धरूपसे वन्दनीय ऐसे इन वीर जिनको मस्तकसे प्रणाम करके स्थितिग नामक अधिकारका कथन करता हूँ ।।२।।
* गाथामें जो 'हिदियं' पद है उसका विशेष व्याख्यान करते हैं।
$ ५०७. इसके आगे अर्थात् मूल गाथामें आये हुए 'झीणमझीणं' पदकी व्याख्याके बाद मूल गाथाके अन्तिम चरणमें जो 'हिदियं पद है और जिसके अन्तमें आये हुए 'वा' पदसे सांगोपांग सब प्ररूपणाका सूचन होता है, अब उसके विशेष व्याख्यानका अधिकार है यह इस सूत्रका तात्पर्यार्थ है।
शंका-'हिदियं' इस पदका क्या अर्थ है ?
समाधान–'ट्ठिदियं' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ स्थितिग अर्थात् स्थितिको प्राप्त हुए कर्मपरमाणु होता है।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए समुकित्तणा
३६७ तदो उकस्सडिदिपत्तयादीणं सरूवविसेसजाणावणहूँ पदेसविहत्तीए चूलियासरूवेण एसो अहियारो समोइण्णो ति घेत्तव्यो। संपहि एत्थ संभवंताणमणियोगद्दाराणं परूवणहमुत्तरसुत्तं भणइ
ॐ तत्थ तिगिण अणियोगद्दाराणि । तं जहा-समुकित्तणा सामित्तमप्पाबहुअंच।
६५६८. तत्थ ठिदियं ति एदस्स बीजपदस्स अत्यविहासाए कीरमाणाए तिणि अणियोगदाराणि णादव्वाणि भवंति । काणि ताणि ति सिस्साभिप्पायं तं जहा ति आसंकिय तेसि णामणिद्देसो कीरदे समुक्त्तिणा इच्चाइणा । तत्थ समुक्त्तिणा णाम उक्कस्सहिदिपत्तयादीणमस्थित्तमेत्तपरूषणा । तत्थ समुकित्तिदाणं संबंधविसेसपरिक्खा सामित्तं णाम । तेसिं चेव थोवबहुत्तपरिक्खा अप्पाबहुअमिदि भण्णदे। एवमेत्य तिणि अणियोगद्दाराणि होति ति परूविय संपहि तेहि पयदस्साणुगमं कुणमाणो जहा उद्देसो तहा जिद्द सो त्ति णायादो समुक्त्तणाणुगममेव ताव विहासिदुकामो इदमाह
समुकित्तणाए अत्थि उक्कस्सहिदिपत्तयं णिसेयद्विदिपत्तयं अधाणिसेयहिदिपत्तयं उदयहिदिपत्तयं च ।
$ ५६६. सव्वेसि कम्माणमेदाणि चत्तारि वि हिदिपत्तयाणि अत्थि ति
इसलिये उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त आदिकके विशेष स्वरूपका ज्ञान करानेके लिये प्रदेशविभक्तिके चूलिकारूपसे यह अधिकार आया है यह तात्पर्य यहाँ लेना चाहिये। अब यहाँ पर जो अधिकार सम्भव हैं उनका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* इस प्रकरणमें तीन अनुयोगद्वार हैं । यथा-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ।
६५६८. यहाँ पर अर्थात् 'ठिदियं' इस बीजपदके अर्थका विवरण करते समय तीन अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। वे तीन अनुयोगद्वार कौन कौन हैं इस प्रकार शिष्यके अभिप्रायको 'तं जहा' पदद्वारा प्रकट करके समुत्कीर्तना इत्यादि पदोंद्वारा उनका नामनिर्देश किया है। इनमेंसे उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त आदि कर्मपरमाणुओंके अस्तित्वमात्रका कथन करना समुत्कीर्तना है। समुत्कीतना अनुयोगद्वारमें जिनका निर्देश किया है उनके सम्बन्धविशेषकी परीक्षा करना स्वामित्व है और उन्हींके अल्पबहुत्वकी परीक्षा करना अल्पबहुत्व कहलाता है। इस प्रकार इस प्रकरणमें तीन अनुयोगद्वार होते हैं इसका कथन करके अब उनके द्वारा प्रकृत विषयका अनुशीलन करते हुए 'उद्देश्यके अनुसार निर्देश किया जाता है' इस न्यायके अनुसार समुत्कीर्तना अनुयोगद्वारका ही विवरण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
___ * समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त, निषेकस्थितिप्राप्त, अधःनिषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त कर्मपरमाणु हैं ।
$ ५९९. सब कर्मों के ये चार स्थितिप्राप्त होते हैं यह इसका तात्पर्य है। इस प्रकार इस
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
समुक्कित्ति होइ । एवमेदेसिमुकस्सादिहि दिपत्तयाणमत्थित्तमेत्तमेदेण सुत्तेण समुक्कित्तिय संपदि तेसिं चेव सरूवविसए णिण्णयजणणहमपदं परूवेमाणो उकस्स डिदिपत्तयमेव ताव पुच्छासुत्तेण पत्तावसरं करेइ
* उक्कस्सयडिदिपत्तयं णाम किं ।
९ ६००. उकस्सद्विदिपत्तयसरूववि से सावहारणपरमेदं पुच्छासुतं । संपहि एदिस्से पुच्छाए उत्तरमाह
* जं कम्मं बंधसमयादो कम्मद्विदीए उदए दीसह तमुक्कस्सहिदिपत्तयं ।
६०१. एतदुक्तं भवति - जं कम्मपदेसग्गं बंध समयादो पहुडि कम्मद्विदिमेतकालमच्छियूण सगकम्पद्विदिचरिमसमए उदए दीसह तमुक्कस्सद्विदिपत्तयमिदि भण्णदे, अगदी माणतादो ति । णाणासमयपबद्धे अस्सियूण किरण घेप्पदे ? ण, तेसिमकमेण अग्गद्विदिपत्तयत्तासंभवादो । बंधसमए चेव किण्ण घेष्पदे १ ण, चउन्ह पि हिदिपत्तयाणमुदयं पेक्खियूण गहणादो । तत्थ वि ण चरिमणिसेयपरमाणू
सुद्धा मुकस्स द्विदिपत्तयसण्णा, किंतु पढमणिसेयादिपदेसाणं पि तत्थुक्कडिदा -
सूत्र द्वारा इन उत्कृष्ट आदि स्थितिप्राप्त कर्मपरमाणुओं का अस्तित्वमात्र बतलाकर अब उनके स्वरूपके विषय में विशेष निर्णय करनेके लिये अर्थपदका कथन करते हुए पृच्छासूत्र द्वारा सर्वप्रथम उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तके निर्देशकी ही सूचना करते हैं
* उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त किसे कहते हैं ।
$ ६०० उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तके स्वरूप विशेषका निश्चय करानेवाला यह पृच्छासूत्र है । अब इस पृच्छाका उत्तर कहते हैं
* जो कर्म बन्धसमय से लेकर कर्मस्थिति के अन्तमें उदयमें दिखाई देता है वह उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त है ।
§ ६०१. इस सूत्रका यह अभिप्राय है कि जो कर्मपरमाणु बन्ध समयसे लेकर कर्मस्थितिप्रमाण कालतक रहकर अपनी कर्मस्थितिके अन्तिम समय में उदयमें दिखाई देता है वह उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कर्म कहलाता है, क्योंकि वह स्थिति में विद्यमान रहता है ।
शंका- यह उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कर्म नाना समयप्रबद्धों की अपेक्षा क्यों नहीं लिया जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि नाना समयप्रबद्धों का एक साथ अग्रस्थितिको प्राप्त होना सम्भव नहीं है।
शंका- उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तका बन्ध समय में ही क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है ? समाधान — नहीं, क्योंकि चारों ही स्थिति प्राप्त कर्मों का उदयकी अपेक्षा ग्रहण
किया है।
उसमें भी केवल अन्तिम निषेकके परमाणुओंोंकी यह उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त संज्ञा नहीं है।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए समुक्कि तणा
३६९ मेसा सण्णा ति घेत्तव्वं, अण्णहा उकस्सयसमयपबद्धस्स अग्गहिदीए जत्तियं णिसित्तं तत्तियमुक्कस्सेणे ति भणिस्समाणपरूवणाए सह विरोहप्पसंगादो । ण च चरिमणिसेयस्सेव अणणाहियस्स जहाणिसित्तसरूवेणोदयसंभवो, अोकड्डिय विणासियत्तादो। तम्हा एयसमयपबद्धणाणाणिसेयावलंबणेण पयदहिदिपत्तयमवहिदमिदि सिद्ध।
..................wwwwwwwwwwww किन्तु प्रथम निषेक आदिके जिन परमाणुओंका उत्कर्षण होकर वहाँ निक्षेप हो गया है उनकी भी यही संज्ञा है ऐसा अर्थ यहाँपर लेना चाहिये । यदि यह अर्थ न लिया जाय तो 'एक समयप्रबद्धकी अग्रस्थितिमें जितना द्रव्य निक्षिप्त होता है उतना द्रव्य उत्कृष्ट रूपसे अग्रस्थितिप्राप्त है। यह जो सूत्र आगे कहा जायगा उसके साथ विरोध प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि न्यूनाधिकताके बिना अन्तिम निषेकका ही बन्धके समय जैसा उसमें कर्मपरमाणुओंका निक्षेप हुआ है उसी रूपसे उदय होना सम्भव है सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अपकर्षण होकर उसका विनाश देखा जाता है। इस लिये एक समयप्रबद्धके नाना निषेकोंके अवलम्बनसे ही प्रकृत स्थितिप्राप्त अवस्थित है यह बात सिद्ध होती है ।
विशेषार्थ-प्रदेशसत्कर्मका विचार करते हुए उत्कृष्टादिकके भेदसे उनका बहुमुखी विचार किया। उसके बाद यह भी बतलाया कि, सत्तामें स्थित इन कर्मो मेंसे कौन कर्मपरमाणु अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण और उदयके योग्य है और कौन कर्मपरमाणु इनके अयोग्य हैं। किन्तु अब तक यह नहीं बतलाया था जि इन सत्तामें स्थित कर्मपरमाणुओंके उदयकी अपेक्षा कितने भेद हो सकते हैं ? क्या जिन कर्मों का जिस रूपमें बन्ध होता है उसी रूप में वे उदयमें
आते हैं या उनमें हेर फेर भी सम्भव है। यदि हेर फेर सम्भव है तो उदयकी अपेक्षा उसके कितने प्रकार हो सकते हैं ? प्रस्तुत प्रकरणमें इसी बातका विस्तारसे विचार किया गया है। यहाँ ऐसे प्रकार चार बतलाये हैं-उत्कृष्टस्थितिप्राप्त, निषेकस्थितिप्राप्त, यथानिषेकस्थितिप्राप्त
और उदयस्थितिप्राप्त । इनमेंसे प्रत्येकका खुलासा चूर्णिसूत्रकारने स्वयं किया है, इसलिये यहाँ हम सबके विषयमें निर्देश नहीं कर रहे हैं। प्रकृतमें उत्कृष्टस्थितिप्राप्त विचारणीय है। चूर्णिसूत्र में इस सम्बन्धमें इतना ही कहा है कि बन्धसमयसे लेकर कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें जो उदयमें दिखाई देता है वह उत्कृष्टस्थितिप्राप्त कर्म है। इस परसे अनेक शंकाएँ पैदा होती हैं ? कि क्या उस अग्रस्थितिमें नाना समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणु लिये जा सकते हैं यह पहली शंका है। इसका समाधान नकारात्मक ही होगा, क्योंकि नाना समयप्रबद्धोंकी अग्रस्थिति एक समयमें नहीं प्राप्त हो सकती।। दूसरी शंका यह पैदा होती है कि बन्धके समय ही उत्कृष्टस्थितिप्राप्त यह संज्ञा न देकर जब वह अग्रस्थिति उदयगत होती है तभी उत्कृष्टस्थितिप्राप्त यह संज्ञा क्यों दी गई है ? इसका समाधान यह है कि ये संज्ञाएँ उदयकी अपेक्षासे ही व्यवहृत हुई हैं, इसलिये जब अग्रस्थिति उदयगत होती है तभी उत्कृष्टस्थितिप्राप्त इस संज्ञाका व्यवहार होता है। तीसरी शंका यह है कि बन्धके समय जिन कर्मपरमाणुओंमें उत्कृष्ट स्थिति पड़ती है वे ही केवल उकृष्ट स्थितिके उदयगत होनेपर उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कहलाते हैं या उत्कर्षण द्वारा उसी समयप्रबद्धकी अन्य स्थितियोंमें स्थित कर्मपरमाणुओंके भी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करके उत्कृष्ट स्थितिके उदयगत होनेपर वे कर्मपरमाणु भी उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कहलाते हैं ? इसका समाधान यह है कि अग्रस्थितिमें बन्धके समय जितने भी कर्मपरमाणु प्राप्त होते हैं अपनी स्थितिके अन्त समय तक वे वैसे ही नहीं बने रहते हैं। यदि स्थितिकाण्डकघात और संक्रमणकी चर्चाको छोड़ दिया जाय, क्योंकि वह चर्चा इस प्रकरणमें उपयोगी नहीं है तो भी बहुतसे कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ॐ णिसेयहिदिपत्तयं णाम किं ?
६०२. सव्वं पि पदेसग्गं णिसेयहिदिपत्तयमेव, णिसेयहिदिमपत्तयस्स कम्मताणुववत्तीदो। तदो किण्णाम तं णिसेयहिदिपत्तयं जं बिसेसेणापुज्वं परूविज्जदि त्ति ? एवंविहासंकासूचयमेदं पुच्छावक्कं । संपहि एदिस्से आसंकाए णिरायरण तस्स सरूवमुत्तरमुत्तेण परूवेइ
* कम्म जिस्से हिदीए णिसित्तं प्रोकड्डिदं वा उक्कड्डिदं वा तिस्से चेव हिदीए उदए दिस्सइ तं पिसेयहिदिपत्तयं ।
६०३. एवमुक्त भवति-जं कम्मं बंधसमए जिस्से हिदीए णिसित्तमोकड्डिदं वा उक्कडिदं वा संतं पुणो वि तिस्से चेव हिदीए होऊण उदयकाले दीसइ तं णिसेयहिदिपत्तयमिदि । एदं च णाणासमयपबद्धप्पयमेयणिसेयमवलंबिय पयट्टमिदि घेत्तव्वं । कथमेत्थमोकड्डिदमुक्कड्डिदं वा पदेसग्गमुदयसमए तिस्से चेव हिदीए दिस्सइ ति
हो जाता है और नीचेकी स्थितिमें स्थित बहुतसे कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण होकर वे अग्रस्थितिमें भी पहुँच जाते हैं। तात्पर्य यह है कि बन्धके समय निषेककी जैसी रचना हुई रहती है उसके अपने उदयको प्राप्त होने तक उसमें बहुत हेरफेर हो जाता है। इससे ज्ञात होता है कि एक समयप्रबद्धके नानानिषेकसम्बन्धी जितने कर्मपरमाणु अग्रस्थितिमें प्राप्त रहते हैं उनका उदय होने पर वे सब उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कहलाते हैं। चूर्णिसूत्रमें आगे जो उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कर्मके स्वामित्वका निर्देश करनेवाला सूत्र है उससे भी इसी बातकी पुष्टि होती है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कर्म किसे कहते हैं इसका विचार किया।
* निषेकस्थितिप्राप्त किसे कहते हैं ?
६.२. जितना भी कम है वह सबका सब निषेकस्थितिप्राप्त ही होता है, क्योंकि जो निषेक स्थितिको प्राप्त नहीं होता वह कर्म ही नहीं हो सकता, इसलिये वह निषेकस्थितिप्राप्त कौनसा कर्म है जिसका विशेष रूपसे यहाँ नये सिरेसे वर्णन किया जा रहा है। इस तरह इस प्रकारकी आशंकाको सूचित करनेवाला यह पृच्छासूत्र है। अब इस आशंकाका निराकरण करनेके लिये उसका स्वरूप अगले सूत्र द्वारा कहते हैं
* जो कर्म जिस स्थिति निक्षिप्त हुआ है अपकर्षित होकर या उत्कर्षित होकर उदयके समय यदि वह उसी स्थितिमें दिखाई देता है तो वह निषेकस्थितिप्राप्त कहलाता है।
६६०३. इस सत्रका यह आशय है कि बन्धके समय जो कर्म जिस स्थितिमें निक्षिप्त हुआ है अपकर्षित होकर या उत्कर्षित होकर फिर भी उदयके समय यदि वह उसी स्थितिमें दिखाई देता है तो वह कर्म निषेकस्थितिप्राप्त कहलाता है। यह सूत्र नाना समयप्रबद्धोंसे सम्बन्ध रखनेवाले एक निषेककी अपेक्षा प्रवृत्त हुआ है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये।
शंका-प्रकृतमें जिन कर्मों का अपकर्षण और उत्कर्षण हुआ है वे कर्म उदय समयमें उसी स्थितिमें कैसे दिखलाई देते हैं ?
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गा० २२ ]
पदेस वित्ती द्विदियचूलियाए समुत्तिणा
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णासंकणिज्जं पुणो वि उक्कड्डुणोकडणाहि तहाभावात्रिरोहादो । ण सव्वेसिं णिसेंयहिदिपत्यत्तादो एदस्स विसेसियपरूवणा णिरत्थिया त्ति पुच्चिल्लासंका वि, ते समेत्तो विसेसणादो |
,
* धाणिसेयद्विदिपत्तयं णाम किं ?
६६०४. किमेदसु कस्सहिदिपत्तयं व एयसमयपबद्ध पडिवद्धमाहो णाणासमयपबद्धणिबंधणिसेयद्विदिपत्तयं व, को वा तत्तो एदस्स लक्खणविसेसो त्ति ? एवं विहाहिप्पारण पयट्टमेदं पुच्छासुतं ।
* जं कम्मं जिस्से हिंदीए पिसित्तं अणोकडिदं अणुक्कडिदं तिस्से चैव हिदी उदर दिस्सइ तमधाणि सेयद्विदिपत्तयं ।
१६०५ एतदुक्तं भवति - जइ वि एदं णाणासमयपबद्धावलंबि तो वि
समाधान-—ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि पहले जिन कर्मों का अपकर्षण हुआ था उनका उत्कर्षण होकर और जिन कर्मों का उत्कर्षण हुआ था उनका अपकर्षण होकर उदय समय में फिरसे उसी स्थितिमें दिखाई देना विरोधको प्राप्त नहीं होता है ।
यदि कहा जाय कि सभी कर्म निषेकस्थितिप्राप्त होते हैं, इसलिये इसका विशेष रूप से कथन करना निरर्थक है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इससे उनमें विशेषता आ जाती है।
विशेषार्थ यहाँ पर निषेकस्थितिप्राप्त कर्मसे क्या अभिप्राय है इसका खुलासा किया गया है । यद्यपि निषेकरचना के बाहर कोई भी कर्म नहीं होता है पर प्रकृतमें यह अर्थ इष्ट है कि बन्धके समय जो कर्म जिस निषेकमें प्राप्त हुआ हो उदय के समय भी वह कर्म यदि निषेक में दिखाई देता है तो वह निषेकस्थितिप्राप्त है । जैसे उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त में अग्रस्थितिकी मुख्यता रही निषेककी नहीं वैसे ही यहाँ किसी भी स्थितिकी मुख्यता न होकर निषेककी मुख्यता है । यही कारण है कि प्रकृत में नाना समयप्रबद्धसम्बन्धी एक निषेकका ग्रहण किया है। इस एक निषेकमें विविध समयप्रबद्धोंके विविध स्थितिवाले कर्मपरमाणु पाये जाते हैं यह इसका तात्पर्य है । यहाँ इतना और विशेष जानना चाहिए कि अपकर्षण और उत्कर्षण होकर जो कर्म विवक्षित निषेकसे नीकी और ऊपर की स्थितिमें निक्षिप्त हो गये हैं, पुनः उत्कर्षण और अपकर्षण होकर यदि वे उसी विवक्षित निषेक में आकर उदय समयमें उसी निषेकमें दिखाई देते हैं तो उनका भी यहाँ ग्रहण हो जाता है।
* यथानिषेक स्थितिप्राप्त किसे कहते हैं ।
६ ६०४. क्या यह उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कर्मके समान एक समयप्रबद्ध सम्बन्धी है या निषेकस्थितिप्राप्त के समान नाना समयप्रबद्ध सम्बन्धी है ? उनसे इसके लक्षणमें क्या विशेषता है इस तरह इस प्रकार के अभिप्राय से यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है ।
* जो कर्म जिस स्थितिमें निक्षिप्त हुआ है अपकर्षण और उत्कर्षणके बिना यदि वह कर्म उदय के समय उसी स्थितिमें दिखाई देता है तो यह यथानिषेकस्थितिप्राप्त कहलाता है ।
६०. इस सूत्र का यह अभिप्राय है - यद्यपि इसका नाना समयप्रबद्धोंसे सम्बन्ध है
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुबिल्लादो एदस्स महंतो विसेसो। कुदो ? जं कम्म जिस्से हिदीए बंधसमए णिसित्तमणोकड्डिदमुक्कड्डिदं जहा णिसित्तं तहावद्विदं संतं तिस्से चेव हिदीए कम्मोदएण विपच्चिहिदि तमधाणिसेयहिदिपत्तयमिदि गहणादो । पुबिल्लं पुण अोकड्डक्कड्डणवसेंण जत्थ तत्थ वावक्खित्तसरूवेणावहिदं संगलिदसरूवेण तम्मि चेव हिदीए उदयमागच्छंतं गहिदमिदि। कथं जहाणिसेयस्स अधाणिसेयववएसो ति ण पञ्चव यं, 'वच्चंति कगतदयवा लोवं अत्थं वहति तत्थ सरा' इदि यकारस्स लोवं काऊण णिद्दे सादो । जहाणिसेयसरूवेणावहिदस्स हिदिक्खएणोदयमागच्छंतस्स णाणासमयपबद्धसंबंधपदेसजस्स अत्थाणुगओ पयदववएसो त्ति भणिदं होइ ।
उदयहिदिपत्तयं णाम किं ?
६०६. पुबिल्लाणि सव्वाणि चेव उदयं पेक्खियूण भणिदाणि तम्हा ण ततो एदस्स भेदो ति एवंविहासंकाए पयट्टमेदं पुच्छासुतं । संपहि एदिस्से आसंकाए णिरायरणहमिदमाह
तो भी निषेकस्थितिप्राप्तसे इसमें बड़ा अन्तर है, क्योंकि बन्धके समय जो कर्म जिस स्थितिमें निक्षिप्त हुआ है, अपकर्षण और उत्कर्षणके बिना जिस प्रकार निक्षिप्त हुआ है उसी प्रकार रहते हुए यदि कर्मोदयके समय उसी स्थितिमें वह फल देता है तो वह यथानिषेकस्थितिप्राप्त कर्म है ऐसा यहाँ ग्रहण किया है। परन्तु पहला जो निषेकस्थितिप्राप्त कर्म है सो वहाँ अपकर्षण
और उत्कर्षणके वशसे यत्र तत्र कहीं भी निक्षिप्त होकर कर्म अवस्थित रहता है परन्तु गलते समय उसी स्थितिमें वह कर्म उदयको प्राप्त होता है, यह अर्थ लिया गया है।
शंका-यथानिषिक्त कर्मकी यथानिषेक यह संज्ञा कैसे हो सकती है ?
समाधान-ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि- 'क, ग, त, द, य और व इनका लोप होने पर स्वर उनके अर्थकी पूर्ति करते हैं।' व्याकरणके इस नियमके अनुसार 'य' का लोप करके उक्त प्रकारसे निर्देश किया है। नाना समयप्रबद्धसम्बन्धी जो प्रदेशपुंज बन्धके समय जिस प्रकारसे निक्षिप्त हुआ है उसी प्रकारसे अवस्थित रहकर स्थितिका क्षय होने पर उदयमें आता है उसकी यह सार्थक संज्ञा है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
विशेषार्थ-निषेकस्थितिप्राप्तसे इसमें इतना ही अन्तर है कि वहाँ तो जिनका अपकर्षण उत्कर्षण होकर छान्यत्र निक्षेप हुआ है, अपकर्षण उत्कर्षण होकर वे परमाणु यदि पुनः उसी स्थितिमें प्राप्त होकर उदयमें आते हैं तो उनका ग्रहण होता है परन्तु यथानिषेकस्थितिप्राप्तमें उन्हीं परमाणुओंका ग्रहण होता है जो तदवस्थ रहकर अन्तमें उद्यमें आते हैं। इसके सिवा इन दोनोंमें और कोई अन्तर नहीं है। ___ * उदयस्थितिमाप्त किसे कहते हैं ?
६६०६. पूर्वोक्त सभी स्थितिप्राप्त कर्म उदयकी अपेक्षा ही कहे हैं, इसलिये उनसे इसमें कोई भेद नहीं रहता इस प्रकारकी आशंकाके होने पर यह पृच्छासूत्र प्रवृत्त हुआ है। अब इस आशंकाके निराकरण करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं
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गा० २२ } पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए समुकित्तणा
जं कम्ममुदए जत्थ वा तत्थ वा दिस्सइ तमुदयहिदिपत्तयं । ६६०७. एदस्स भावत्यो–ण ताव अग्गद्विदिपत्तयम्मि एदस्स अंतव्भावो, हिदिविसेसमेयसमयपबद्धं च पेक्खियूण तस्स परूवियत्तादो। एत्थ तहाविहणियमाभावादो । ण णिसेय-जहाणिसेयहिदिपत्तएमु वि, तेसि पि बंधसमयणिसेयपडिबद्धत्तादो। तदो जं कम्म जत्थ वा तत्थ वा हिदीए होदूण अविसेसेण उदयमागच्छदि तमुदयहिदिपत्तयमिदि घेत्तव्वं ।
8 एदमपदं ।
६६०८. उक्कस्सहिदिपत्तयादीणं चउण्हं पि अत्यविसयणिण्णयणिबंधमेदमपदं सव्वेसि कम्माणं साहारणभावेण परूविदमवहारेयव्वं । पुणो वि विसेसिय चउण्हमेदेसि परूवणमुत्तरसुत्तं भणइ
* एत्तो एक कहिदिपत्तयं चउब्विहमुक्कस्समणुक्कस्सं जहएणमजहणणं च ।
६०६. एत्तो अट्टपदपरूवणाणंतरमेक्कक्कद्विदिपत्तयं चउव्विहं होइ उक्कस्सादिभेएण । एत्थ एक कहिदिपत्तयग्गहणं पादेक्कं चउण्हं चउहि अहिसंबंधणहमेक्केकस्स वा मिच्छत्तादिपयडिविसेसस्स चउविहं पि हिदिपत्तयं पादेकमुक्कस्साइभेएण
* जो कर्म उदयके समय यत्र तत्र कहीं भी दिखाई देता है बह उदयस्थिति प्राप्त कहलाता है।
६६०७. इस सूत्रका भावार्थ यह है कि अग्रस्थिति प्राप्तमें तो इसका अन्तर्भाव होता नहीं, क्योंकि वह स्थितिविशेष और एक समयप्रबद्धकी अपेक्षा प्रवृत्त हुआ है। किन्तु इसमें उस प्रकारका कोई नियम नहीं पाया जाता। निषेकस्थितिप्राप्त और यथानिषेकस्थितिप्राप्त कर्मों में भी इसका अन्तर्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि वे भी बन्ध समयके निषेकोंसे प्रतिबद्ध हैं, इसलिये जो कर्म जहाँ कहीं भी स्थितिमें रहकर अन्य किसी प्रकारकी विशेषताके बिना उदयको प्राप्त होता है वह उदयस्थितिप्राप्त कर्म है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये ।
* यह अर्थपद है।
६६०८. उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त आदि चारोंका भी अर्थविषयक निर्णय करनेके सम्बन्ध यह अर्थपद आया है जो साधारणभावसे सब कर्मों का कहा गया जानना चाहिये । अब फिर भी इन चारोंके विषयमें विशेष बातके कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* एक एक स्थितिप्राप्तके चार चार भेद हैं-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ।
६६०६ अब इस अर्थपदके कथन करनेके बाद उत्कृष्ट आदिके भेदसे एक एक स्थितिप्राप्त चार-चार प्रकारका है यह बतलाते हैं। यहाँ सूत्रमें प्रत्येक स्थितिप्राप्तका चार चारसे सम्बन्ध बतलानेके लिये 'एक्केकढिदिपत्तयं, पदका ग्रहण किया है। अथवा मिथ्यात्व आदिके एक एक
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
esort होइ त्ति घेतव्वं । तदो सव्वेसिं कम्माणं पुध पुध द्विदिपत्ताणमुकस्सादिपदविसे सिदाणमोघादेसेहि परूवणा समुत्तिणाणियोगद्दारं समत्तं । सामित्तं ।
$ ६१०. सुगममेदमहियार संभालणसुतं ।
* मिच्छत्तस्स उस्सयमग्गहिदिपत्तयं कस्स ?
६११. सुगममेदं पुच्छाचक्कं । एवं सामित्तविसयाए पुच्छार तस्सेव परिकरभावेण अग्गहिदिपत्तयवियप्पपरूवणहमुत्तरमुत्तं भणइ
[ पदेस विहत्ती ५
णिरंभणं काऊण चउन्हें कायव्वा । एवं कदे
* अग्गद्विदिपत्तयमेक्को वा दो वा पदेसा एवमेगादि - एगुत्तरियाए बड्डीए जाव ताव उक्कसयं समयपबद्धस्स अग्गहिदीए जत्तियं णिमित्तं तत्तियमुक्कस्से गहिदिपत्तयं ।
$ ६१२. अग्गहिदिपत्तयस्स उक्कस्ससामित्ते पुच्छिदे तमपरूविय तन्त्रियप्पपरूवणा किम करदे ९ ण, उक्कस्सदव्वपमाणे अणवगर तव्विसयसामित्तस्स सुहेणावगं तुम सक्कियत्तादो | अहवा उक्कस्ससामित्तपरूवणाए अणुकरससामित्तं पि प्रकृतिविशेषके चारों ही स्थितिप्राप्त प्रत्येक उत्कृष्ट आदिके भेदसे चार चार प्रकार के होते हैं यह यहाँ पर लेना चाहिये । इसलिये सभी कर्मों को अलग अलग विवक्षित करके उत्कृष्ट आदि पदोंसे युक्त चारों ही स्थितिप्राप्तोंका ओघ और आदेशकी अपेक्षा कथन करना चाहिये । इस प्रकार करने पर समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार समाप्त होता है ।
* अब स्वामित्वका अधिकार है ।
$६१०. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है ।
* मिथ्यात्व कर्मकी अपेक्षा उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त कर्मका स्वामी कौन है ? $ ६९१. यह पृच्छावाक्य सरल है । इस प्रकार स्वामित्वविषयक पृच्छाके होने पर उसीके परिकररूपसे अग्रस्थितिप्राप्तके भेदोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* एक कर्मपरमाणु अग्रस्थितिप्राप्त होता है, दो कर्मपरमाणु अग्रस्थितिप्राप्त होते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक कर्मपरमाणु बढ़ाने पर एक समयबद्धकी स्थिति में जितना उत्कृष्ट द्रव्य निचिप्त होता है उत्कृष्ट रूपसे उतना द्रव्य अग्र स्थितिप्राप्त होता है ।
$६१२. शंका – पूछा तो अग्रस्थितिप्राप्त कर्मके उत्कृष्ट स्वामित्वके विषय में गया था पर उसका कथन न करके यहाँ उसके भेदोंका कथन किसलिये किया गया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट द्रव्यके प्रमाणके अवगत रहने पर तद्विषयक स्वामित्वका सुखपूर्वक ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिये यहाँ उसके भेदोंका कथन किया गया है । अथवा उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते समय अनुत्कृष्ट स्वामित्वका भी कथन करना
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए डिदियचूलियाए सामित्तं
३७५ परूवेयव्वं, अण्णहा एक्कक्क हिदिपत्तयं चउबिहमिदि परूवणाए विहलत्तप्पसंगादो। तं च उकस्सादो परमाणूणादिकमेणावहिदं गिरंतरसरूवेण जाव एओ परमाणु ति एदस्स जाणावणहमेसा परूवणा ति सुसंबद्धमेदं ।
६१३. संपहि एवं परूविदसंबंधस्सेदस्स मुत्तस्सत्थविवरणं कस्सामो। तं जहा-कम्मद्विदिपढमसमए जं बद्धं मिच्छत्तपदेसग्गं तं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तकम्महिदीए असंखेज्जे भागे अच्छिय पुणो पलिदोवमासंखेजदिभागपमाणमुक्कस्सणिल्लेवणकालमत्थि त्ति सुद्ध होऊण गच्छइ । तत्तो उपरिमाणंतरसमए वि सुद्धं होऊण गच्छइ । एवं गिरंतरं गंतूण जाव कम्मद्विदिचरिमसमए वि सुद्धं होदूण तस्स गमणं संभवइ । पुणो तमेवं णिल्लेविज्जमाणं कम्महिदीए पुग्णाए एक्को वि परमाण होयूणावहाणं लहइ। किं कारणमिदि भणिदे णिरुद्धसमयपबद्धस्स एगेण वि परमाणुणा विणा जइ कम्महिदिचरिमसमओ सुण्णो होऊण लब्भइ तो गलिदसेसैगपरमाणुणा सहियत्तं मुटु लहामो त्ति पत्थि एत्थ संदेहो। एवं दो वि परमाणू लम्भंति । एदेण कारणेण अग्गहिदिपत्त यमेको वा दो वा पदेसा ति सुत्ते उत्तं । एवमेगादि-एगुत्तरियाए वडीए ताव एवं णेदव्वं जाव समयपबद्धस्स अग्गहिदीए जत्तियमुक्कस्सयं पदेसग्गं तं णिसित्तं ति ।
६६१४. एत्थ समयपबद्धस्से त्ति भणिदे सण्णिपंचिंदियपज्जत्तएण उक्कस्सचाहिये, अन्यथा एक एक स्थिति प्राप्तको जो चार चार प्रकारका बतलाया है सो उस कथनको विफलताका प्रसंग प्राप्त होता है। और वह अनुत्कृष्ट उत्कृष्टमेंसे निरन्तर एक एक परमाणुके घटाने पर एक परमाणुके प्राप्त होने तक होता है, इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिये यह प्ररूपणा की है, इसलिये यह कथन सुसम्बद्ध है।
६६१३. इस प्रकार इस सूत्रके सम्बन्धका कथन करके अब उसके अर्थका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-कर्मस्थितिके प्रथम समयमें मिथ्यात्वका जो द्रव्य बंधा है वह सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण कमस्थितिके असंख्यात बहुभाग तक रहता है फिर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट निलेपन कालके भीतर उसका अभाव हो जाता है। या उससे एक समय और जाने पर उसका अभाव होता है। इस प्रकार निरन्तर एक एक समयके जाने पर कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें भी अभाव होकर उसका गमन सम्भव है। यद्यपि वह इस प्रकार अभावको प्राप्त होता है तो भी कभी कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें एक परमाणु भी शेष रहता है। कारण यह है कि विवक्षित समयप्रबद्धके एक परमाणुके बिना भी यदि कर्मस्थितिका अन्तिम समय शून्यरूपसे प्राप्त हो सकता है तो इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि अन्य सब परमाणुओंको गलाकर शेष बचे एक परमाणुके साथ भी कर्मस्थितिका वह अन्तिम समय प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें दो परमाणु भी प्राप्त होते हैं। इसी कारणसे सूत्रमें 'अग्गद्विदिपत्तयं एक्को वा दो वा पदेसा' यह वचन कहा है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक परमाणुको बढ़ाते हुए अग्रस्थितिमें जितना उत्कृष्ट द्रव्य निक्षिप्त होता है उसके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये।
६६१४. यहाँ सूत्रमें जो 'समयपबद्धस्स' यह पद दिया है सो उससे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेस विहत्ती ५
जोगिणा बद्धेय समयपवद्धस्स गहणं कायव्वं, अण्णहा अग्गहिदीए उक्कस्सणिसेयाणुववत्तदो । तत्त्रियमुक्कस्सेण अग्गडिदिपत्तयं जत्तियं तमणंतर परूविदं । चरिमणिसेयउक्कस्सपदेसग्गमेयसमयपबद्धणिबद्धं तत्तियमेत्तमुक्कस्सग्गेण अग्गिहिदिपतयं होइ ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । ण चेदमेत्तियं जहाणिसेय सरूत्रेण लब्भर, ओकड्डिय कम्मविदितरे विणासियत्तादो । किं तु उकडणाए कम्महिदिचरिमसमए धरिदपदेसग्गमेत्तियं होइ ति गहेयव्वं । तम्हा एयसमयपवद्धणाणाणिसेए उक्कड्डिय धरिदपदेसग्गमेत्तियमुदयगयमुक्कस्सयमग्गद्विदिपत्तयं होइ ति सिद्धं ।
६१५. एवं णिहालिदपमाणस्सेदस्स अणुक्कस्सवियप्पेहि सह सामित्तविहाणढमुत्तरमुत्तं भणइ -
* तं पुण अणदरस्स होज्ज ।
पर्याप्त द्वारा उत्कृष्ट योगसे बाँधे गये एक समयप्रबद्धका ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा स्थिति में उत्कृष्ट निषेक नहीं प्राप्त हो सकते हैं । उत्कृष्टरूपसे अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्य उतना ही होता है जितनेका अनन्तर कथन कर आये हैं । एक समयप्रबद्ध के अन्तिम निषेकमें जितना उत्कृष्ट द्रव्य होता है उतना उत्कृष्टरूपसे अग्रस्थितिप्राप्त होता है यह यहाँ इस सूचका समुदायरूप अर्थ है । जिस रूपसे इसका अग्रस्थिति में निक्षेप होता है उसी रूपसे वह उतना पाया जाता है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्यों कि अपकर्षण होकर कर्मस्थिति के भीतर ही उसका विनाश देखा जाता है। किन्तु उत्कर्षण के द्वारा कर्मस्थितिके अन्तिम समय में उतना द्रव्य पाया जा सकता हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये, इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि एक समयप्रबद्धके नानानिषेकोंका उत्कर्षण होकर उदद्यगत उतना द्रव्य हो जाता है जो अग्रस्थितिप्राप्त उत्कृष्ट द्रव्य के बराबर होता है ।
विशेषार्थ — यहाँ मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त द्रव्यके उत्कृष्ट स्वामित्वका विचार करते समय यह बतलाया गया है कि उदयके समय अप्रस्थिति में कमसे कम कितना और अधिक से अधिक कितना द्रव्य प्राप्त होता है । स्थितिकाण्डकघात आदिके द्वारा अग्रस्थितिका सर्वथा अभाव हो जाय यह दूसरी बात है पर यदि उसका अभाव नहीं होता तो यह सम्भव है कि एक परमाणुको छोड़कर उसके और सब द्रव्यका अपकर्षण होकर विनाश हो जाय । यह भी सम्भव हैं कि दो परमाणुओं के सिवा और सब द्रव्यका अपकर्षण होकर विनाश हो जाय । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक परमाणुको बढ़ाते हुए अप्रस्थिति में एक समयप्रबद्धका जितना द्रव्य प्राप्त होता है उतना प्राप्त होने तक यह द्रव्य पाया जा सकता है । पर सबका सब बन्धके समय अप्रस्थितिमें जैसा प्राप्त हुआ था वैसा ही अपने उदय कालके प्राप्त होनेतक नहीं बना रहता है, किन्तु इसमें से बहुतसे द्रव्यका अपकर्षण आदि भी हो जाता है, इसलिये यह घट तो जाता है तो भी उन्हींका पुनः या अन्य निषेकोंके द्रव्यका उत्कर्षण करके वह उतना अवश्य किया जा सकता है यह इसका भाव है ।
६१५. इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त के प्रमाणका विचार करके अब अनुत्कृष्ट विकल्पों के साथ इसके स्वामित्वका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* उस उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी कोई भी जीव होता है ।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
३७७ ___ ६१६. तं पुण पुव्वं पुच्छाए विसईकयमुक्कस्सहिदिपत्तयं सगंतोभाविदा
ताणुक्कस्सवियप्पमण्णदरस्स जीवस्स संबंधी होइ, विरोहाभावादो । गवरि खविदकम्मंसियं मोत्तूण उक्स्ससामित्तं वत्तव्वं, तत्थुक्कस्साभावादो।
* अधाणिसेयहिदिपत्तयमुक्कस्सयं कस्स ? । ६६१७. एत्थ मिच्छत्तग्गहणमणुवट्टदे । सेसं सुगमं ।
* तस्स ताव संदरिसणा।
$ ६१८. तस्स जहाणिसेयहिदिपत्तयस्स सामित्तप्परूवण ताव उवसंदरिसणा एन्थुवजोगी संबंधद्धपरूवणा कीरइ त्ति पइज्जासत्तमेदं । ___उदयादो जहएणयमाबाहामेत्तमोसक्कियूण जो समयपबद्धो तस्स पत्थि अधाणिसेयहिदिपत्तयं ।
६६१६. जहाणिसेयसामित्तसमयादो जहण्णाबाहामेत्तं हेढदो ओसकियण बद्धो जो समयपबद्धो तस्स णिरुद्धहिदीए णत्थि जहाणिसेयहिदिपत्तयं पदेसग्गमिदि वुत्तं होइ। कुदो तस्स तत्थ णत्थितं ? ततो अणंतरोवरिमहिदिमादि काऊणुवरि
६६६६. जिसका विषय पहले बतला आये हैं और जिसमें अनन्त अनुत्कृष्ट विकल्प गर्भित हैं उस उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तका कोई भी जीव स्वामी हो सकता है, क्योंकि ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि क्षपितकांश जीवको छोड़कर अन्यके उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिये, क्यों कि जो क्षपितकमांश जीव है उसके उत्कृष्ट विकल्प सम्भव नहीं है।
विशेषार्थ-एक क्षपितकांश जीवको छोड़कर अन्य सब जीवोंके बन्धके समयमें अप्रस्थितिमें जितना द्रव्य प्राप्त हुआ था उदयके समय उत्कर्षणके सम्बन्धसे उतना द्रव्य पाया जा सकता है, इसलिये उत्कृष्ट अपस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी किसो भो जीवको बतलाया है।
* उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तका स्वामी कौन है ? ६६१७. इस सूत्रमें 'मिथ्यात्व' पदको अनुवृत्ति होती है। शेष कथन सुगम है।
* अब उसका स्पष्टीकरण करते हैं ।
६६१८. अब उस यथानिषेकस्थितिप्राप्तके स्वामित्वका कथन करनेके लिए उपसंदर्शना अर्थात् प्रकृतमें उपयोगी सम्बन्धित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। इस प्रकार यह प्रतिज्ञा सूत्र है।
* उदय समयसे जघन्य आबाधाप्रमाण स्थान नीचे जाकर जो समयप्रबद्ध बँधता है उसका विवक्षित स्थितिमें यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य नहीं है।
६६:९. यथानिषेकके स्वामित्वसमयसे जघन्य आबाधाप्रमाण स्थान नीचे (पीछे) जाकर जो समयप्रबद्ध बँधा है उसका विवक्षित स्थितिमें यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य नहीं है यह इस सत्रका तात्पर्य है।
शंका-उसका वहाँ अस्तित्व क्यों नहीं है ? समाधान-क्योंकि प्रकृत स्वामित्वके समयसे जो अनन्तरवती उपरिम स्थिति है
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
पयदसमयपबद्धस्स णिसेयदंसणादो । एदं च अवस्थुवियप्पाणमं तदीवयभावेण परूविदं, तेण जहण्णाबाहामेत्ता चेव जहाणिसेयस्स अवत्थुवियप्पा परूवेयव्वा । * समयुत्तराए बाहाए एवदिमचरिमसमयपबद्धस्स अधाणिसेो अत्थि ।
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९६२०. कुदो ? आबाहामेत्तमइच्छाविय पयदसमयपबद्धस्स णिरुद्ध डिदीए णिसेय सणादो। एत्थ जहण्णग्गहणेणाणुवट्टमाणेण आबाहा विसेसियव्वा ।
* तत्तो पाए जाव असंखेज्जापि पलिदोवमवग्गमूलाणि तावदिमसमयपबद्धस्स अधाणिसे णियमा अस्थि ।
९६२१. तत्तो समयुत्तरजहण्णाबाहमेत्तमोसक्किदूण बद्धसमयपबद्धादो पहुडि हेमिसेस से ससमयपबद्धाणं जहाणिसेओ णिरुद्ध हिदीए नियमा अस्थि जाव असंखेज्जाणि पलिदो म पढमवग्गमूलाणि हेदो श्रसरियूण बद्धसमयपबद्धस्स जहाणिसेओ
उससे लेकर ऊपरकी स्थितियों में प्रकृत समयप्रबद्ध के निषेक देखे जाते हैं । अवस्तुविकल्पों के अन्तदीप रूप से इस विकल्पका कथन किया है । इसलिये यथानिषेकस्थितिप्राप्तके जघन्य आबाधाप्रमाण वस्तुविकल्पोंका कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थबाधा कालके भीतर निषेकरचना नहीं होती है ऐसा नियम है और यहाँ पर यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यको उदय समय में प्राप्त करना है । किन्तु यह तभी हो सकता है जब जघन्य बाधा के सब समय गल जावें । इसलिए यहाँ पर जघन्य आबाधा के भीतर किसी भी समय में बँधे हुए यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके अस्तित्वका विवक्षित स्वामित्व समय में निषेध किया है । सूत्रमें अन्तदीपक रूपसे मात्र अन्तिम विकल्पका निर्देश किया है, इसलिए उससे बाधा कालके भीतर बन्धको प्राप्त होनेवाले उन सब यथानिषेक स्थितिप्राप्त द्रव्योंका ग्रहण कर लेना चाहिए, क्योंकि उनका विवक्षित स्वामित्व समय में प्राप्त होना सम्भव नहीं है । * आबाधा के एक समय अधिक होने पर उस अन्तिम समयमबद्धका यथानिषेक विवक्षित स्थिति में है ।
९ ६२०. क्योंकि आबाधाप्रमाण कालको अतिस्थापनारूप से स्थापित करके प्रकृत समयप्रबद्धका निषेक विवक्षित स्थितिमें देखा जाता है । इस सूत्र में जघन्य पदके ग्रहण द्वारा उसकी अनुवृत्ति करके उससे आबाधाको विशेषित करना चाहिये ।
* फिर वहाँसे लेकर पल्यके असंख्यात कालके भीतर जितने समयप्रबद्ध बँधते हैं उनका नियमसे है ।
प्रथम वर्गमूलप्रमाण पीछेके यथानिषेक विवक्षित स्थिति में
$ ६२१. उससे अर्थात् एक समय अधिक जघन्य अबाधाप्रमाण स्थान पीछे जाकर जो समयबद्ध बँधता है उससे लेकर पल्य के असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण स्थान नीचे जाकर बँधे हुए समयबद्ध यथानिषेक तकके पीछेके बाकी सब समयप्रबद्धों का यथानिषेक विवक्षित स्थिति में नियमसे है ।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
३७९ त्ति । हेटिमासेसकम्महिदि अब्भंतरसंचिदसव्वदव्वस्स जहाणिसेओ अहियारहिदीए किण्ण लब्भइ त्ति भणिदे ण, ओकड्डक्कड्डणाहि तस्स गिल्लेवणसंभवेण णिरंतरत्थित्तणियमाभावादो। तं जहा–एयसपयम्मि बद्धकम्मपोग्गलदव्वं णिच्छएणासंखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्तणिसेएसु पिरंतरमवहाणं लहइ । पुणो तदुवरिमगोवुच्छप्पहुडि ओकड्डु कड्डणवसेण एयपरमाणुणा विणा सुद्धा होऊण गच्छइ । एवं जिल्लेविदे अहियारगोवुच्छाए उवरि तदित्थसमयपबद्धणिसेओ जहाणिसेयणिसेयसरूवेण ण लब्भइ, तेण असंखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणवेदयकालस्सेव गहणं कयं । अदो चेय णियमा अत्थि त्ति परूविदं, अणियमेण हेहिमाणं पि सांतरसरूवेण संभवविरोहाभावादो। किमेसो अधाणिसेयसंचयकालो बहुओ आहो एयगुणहाणिहाणंतरमिदि ? एसो कालो असंखेज्जगुणो, एत्थासंखेजगुणहाणीणमुवलंभादो । तम्हा एत्तियमेत्तकालभंतरसंचओ अप्पहाणीकयहेटिमसमयपबद्धो णिरुद्धहिदीए जहाणिसेयसरूवेण णियमा अस्थि त्ति सिद्धं ।
शंका-पीछेकी सब कर्मस्थितियोंके भीतर संचित हुए द्रव्यका यथानिषेक अधिकृत स्थितिमें क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा उक्त द्रव्यका अभाव सम्भव है, इसलिये उसका निरन्तर अस्तित्व पाये जानेका कोई नियम नहीं है। खुलासा इस प्रकार हैएक समयमें जो पुद्गल द्रव्य बँधता है उसका नियमसे पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमलप्रमाण निषेकोंमें निरन्तर अवस्थान पाया जाता है। फिर इससे उपरिम गोपुच्छासे लेकर एक परमाणुके बिना शेष सब द्रव्यका अपकर्षण-उत्कर्षणके कारण अभाव हो जाता है । इस प्रकार उसका अभाव हो जाने पर अधिकृत गोपुच्छामें वहाँके समयप्रबद्धका निषेक यथानिषेकरूपसे नहीं पाया जाता है, इसलिये यहाँ पर पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण वेदककालका ही ग्रहण किया है। और इसीलिये सूत्रमें 'णियमा अत्थि' यह कहा है, क्योंकि अनियमसे पीछेके समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणुओंका भी यहाँ सान्तररूपसे सद्भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता।
शंका-क्या यह यथानिषेकका संचय काल बहुत है या एक गुणहानिस्थानान्तरप्रमाण है ?
समाधान-यह काल एक गुणहानिस्थानान्तरके कालसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि यहाँ असंख्यात गुणहानियाँ पाई जाती हैं।
इसलिये इतने कालके भीतर जो संचय होता है वह विवक्षित स्थितिमें यथानिषेकरूपसे नियमसे है यह बात सिद्ध हुई। किन्तु यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि इसमें इस कालसे पीछेके समयप्रबद्धोंके द्रव्यको गौण कर दिया है। अर्थात् उस द्रव्यका यहाँ पाया जाना यद्यपि सम्भव तो है पर नियम नहीं, इसलिये उसकी विवक्षा नहीं की है।
विशेषार्थ- प्रत्येक कर्म बंधनेके बाद वेदककाल तक तो नियमसे पाया जाता है। उसके बाद उसके पाये जानेका कोई नियम नहीं है। वेदककाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता
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३८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ ६२२. एवमेदं परूविय संपहि एदस्सेव उक्कस्सअधाणिसेयसंचयस्स पमाणगवेसणहमुवरिमो मुत्तपबंधो
* एक्कस्स समयपबद्धस्स एक्किस्से हिदीए जो उक्कस्सो अधाणिसेो तत्तो केवडिगुणं उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं ।।
५२३. णिरुद्ध हिदीदो समयुत्तरजहण्णाबाहमेत्तमोसक्कियूगावहिदो जो समयपबद्धो उक्कस्सनोगेण बद्धो तस्स एयस्स समयपबद्धस्स एकिस्से जहण्णाबाहाबाहिरहिदीए जो उक्कस्सओ अधाणिसेो तत्तो केवडिगुणं पलिदोवमासंखेजदिभागमेत्तसगुक्कस्ससंचयका लब्भंतरगलिदावसिहणाणासमयपबद्धप्प यमुक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपतयं ? किं संखेज्जगुणमाहो असंखेज्जगुणमिदि पुच्छिदं होइ । एवं पुच्छिदे एवदिगुणमिदि परूविस्तमाणो तस्सेव ताव गुणयारस्स पमाणपरूवणहमवहारकालप्पाबहुअंणिदरिसण तरूवेण भणदि
* तस्स णिदरिसणं ।
६२४. तस्स गुणयारस्स सरूवपदंसह णिदरिसणं भणिस्सामो ति वुत्तं होइ।
& जहा।
है जिसे पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण बतलाया है। इसीलिये यहाँ पर विवक्षित स्थितिमें वेदककालके भीतरके यथानिषकोंका सद्भाव नियमसे बतलाया है।
$६२२. इस प्रकार इसका कथन करके यथानिषेकके इसी उत्कृष्ट प्रमाणका विचार करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* एक समयप्रबद्धकी एक स्थितिमें जो उत्कृष्ट यथानिषेक है उससे यह उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिपाप्त द्रव्य कितना गुणा है ?
६६२३. विवक्षित स्थितिसे एक समय अधिक जघन्य आबाधाप्रमाण स्थान पीछे जाकर उत्कृष्ट योगसे बाँधा गया जो समयप्रबद्ध अवस्थित है उस एक समयप्रबद्धकी जघन्य आबाधाके बाहरकी एक स्थितिमें जो उत्कृष्ट यथानिषेक प्राप्त होता है उससे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अपने उत्कृष्ट संचयकालके भीतर गलाकर शेष बचा हुआ नाना समयप्रबद्धसम्बन्धी उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य कितना गुणा होता है ? क्या संख्यातगुणा होता है या असंख्यातगुणा होता है, इस प्रकार इस सूत्र द्वारा यह बात पूछी गई है। इस प्रकार पूछने पर इतना गुणा होता है यह बतलानेकी इच्छासे सर्व प्रथम उसी गुणकारके प्रमाणका कथन करनेके लिये पहले उदाहरणरूपमें अवहारकालका अल्पबहुत्व कहते हैं- .
* उसका उदाहरण देते हैं।
६६२४. अब उसके अर्थात् गुणकारके स्वरूपको दिखलानेके लिए उदाहरण कहेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* यथा
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
३८१ ३६२५. तं जहा ति आसंकावयणमेदं ।
ॐ ओकड्ड क्कडगाए कम्मरस अवहारकालो थोवो।
६६२६. एयसमयम्मि जं पदेसग्गमोकड्डदि उक्कड्डदि वा तस्स पदेसग्गस्स आगमणहेदुभूदो जो अवहारकालो सो थोवयरो त्ति भणिदं होदि ।
* अधापवत्तसंकमेण कम्मरस अवहारकालो असंखेजगुषो।
६२७. जइ वि एत्थ मिच्छत्तस्स अधापवत्तसंकमो णस्थि तो वि ओकड्डकड्डणभागहारस्स पमाणपरिच्छेदकरणहमेदस्स तत्तो असंखेजगुणत्तं परूविदं । एदम्हादो थोवयरीभूदो ओकड्ड क्कड्ड गभागहारो एत्थ गुणयारो होदि ति । अथवा सोलसकसाय-णवणोक सायाणमयसमयम्मि बद्धमे यहिदिणिसित्तपदेसग्गमावलियमेत्तकाले वोलीणे पुणो उवरिमप्तम पप्प हुडि ओकड्ड कहुणाए विणासं गच्छइ । परपयडिसंकमेण वि तत्थोकड कड्ड गाए विणासिजमाणदव्वं पहाणं, परपयडिसंकमेण विणासिज्जमाणदबमप्पहाणमिदि जाणावणहमेदमबहारकालप्पाबहुगं भणिदं, अण्णहा तदवगमोवायाभावादो।
* ओकडकड्डणाए कम्मरस जो अवहारकालो सो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो।
६६२५. यह 'तद्यथा' इस प्रकार आशंकावचन है ।
* अपकर्षण-उत्कर्षण द्वारा कर्मका जो अवहारकाल होता है वह सबसे थोड़ा है।
६६२६. एक समयमें जो कर्म अपकर्षित होता है या उत्कर्षित होता है उस कर्मको प्राप्त करनेके लिये जो अवहारकाल है वह सबसे थोड़ा है यह इस सूत्रका तात्पर्य है।
* उससे अधःप्रवृत्तसंक्रमणद्वारा कर्मका जो अवहारकाल होता है वह असंख्यातगुणा है।
६६२७. यद्यपि यहाँ मिथ्यात्वका अधःप्रवृत्तसंक्रम नहीं होता है तो भी अपकर्षणउत्कर्षणभागहारके प्रमाणका निर्णय करनेके लिये इसे उससे असंख्यातगुणा बतलाया है। इस भागहारसे अल्परूप जो अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार है वह यहाँ गुणकार होता है। अथवा सोलह कषाय और नौ नोकषायोंमें से एक समयमें बंधा हुआ जो द्रव्य एक स्थितिमें निक्षिप्त हुआ है वह एक आवलि कालके व्यतीत होने पर उपरिम समयसे लेकर अपकर्षण-उत्कषण द्वारा विनाशको प्राप्त होता है। यहाँ परप्रकृत्तिसंक्रमणकी अपेक्षा अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाला द्रव्य ही प्रधान है किन्तु परप्रकृतिसंक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाला द्रव्य प्रधान नहीं है इस प्रकार इस बातको जतानेके लिये यह अवहारकालविषयक अल्पबहुत्व कहा है, अन्यथा उसका ज्ञान नहीं हो सकता है । ____ * अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा कर्मका जो अबहारकाल होता है वह पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
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३८२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ६२८, जो पुव्वं थोवभावेण परूविदो ओकड्डक्कड्डणाए कम्मस्स अवहारकालो सो पमाणेण पलिदोवसस्स असंखेजदिभागो होइ । कथमेदं परिच्छिज्जदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । संपहि एवमवहारिदपमाणस्स ओकड्डक्कड्डणभागहारस्त पयदगुणगारत्तविहाणमुत्तरसुत्तं
_ एवदिगुणमेक्कस्स समयपबद्धस्स एकिस्से हिदीए उक्कस्सयादो जहाणिसेयादो उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं ।।
६२६. जावदिओ एसो ओकड्ड क्कड्डणाए कम्मस्स अवहारकालो एवदिगुणं णिरुद्धहिदीदो समयुत्तरजहण्णाबाहमेत्तमोसक्कियूण बद्धसमयपबद्धपढमणिसेयपडिबद्धादो उक्कस्सयादो अधाणिसेयादो ओघुक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं सगसंचयकालभंतरसंचयं होइ ति भणिदं होदि ।
६३०. संपहि एदेण सुत्तेण परूविदोकडकड्डणभागहारमेत्तगुणगारसाहणहमिमा ताव परूवणा कीरदे। तं जहा–उक्कस्सयसामित्तसमयादो हेडदो समयुत्तर
६६२८. जो पहले अल्परूपसे कर्मका अकर्षण-उत्कर्षणअवहारकाल कहा है वह पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है ।
इस प्रकार अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारके प्रमाणका निश्चय करके अब उसका प्रकृत गुणकाररूपसे विधान करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
___* एक समयप्रबद्धकी एक स्थितिमें प्राप्त उत्कृष्ट यथानिषेकसे उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य इतना गुणा है।
६६२६, अपकर्षण-उत्कर्पणके द्वारा कर्मका यह अवहारकाल जितना है, विवक्षित स्थितिसे एक समय अधिक जघन्य आबाधाप्रमाण स्थान पीछे जाकर जो समयप्रबद्ध बँधा है उसके प्रथम निषेकसम्बन्धी उत्कृष्ट यथानिषेकसे ओघ उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य अपने संचयकालके भीतर संचय रूप होता हुआ उतना गुणा है यह इस सूत्रका तात्पर्य है।
विशेषार्थ—यहाँ विवक्षित स्थिति में यथानिषेकस्थितिप्राप्त उत्कृष्ट द्रव्य कितना होता है इसका प्रमाण बतलाया है। यह तो पहले ही बतला आये हैं कि इसमें कितने कालके भीतर संचित हुए यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका ग्रहण किया गया है। अब उस संचयको प्राप्त करनेके लिये यह करना चाहिये कि विवक्षित स्थितिसे एक समय अधिक जघन्य आबाधाप्रमाण स्थान पीछे जाकर जो समयप्रबद्ध बँधा हो उसके प्रथम निषेकमें जितना उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य हो उसे अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे गुणा कर देना चाहिये। सो ऐसा करनेसे विवक्षित स्थितिमें उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका प्रमाण आ जाता है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वहाँ प्रकरणसे कुछ अवहार कालोंका अल्पबहुत्व भी बतलाया है सो वह अपकर्षण-उत्कर्षण अवहारकालका प्रमाण प्राप्त करनेके लिये ही बतलाया है ऐसा समझना चाहिये।
६६३०. इस सूत्र द्वारा जो अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारप्रमाण गुणकार कहा है सो उसकी सिद्धिके लिये अब यह प्ररूपणा करते है। वह इस प्रकार है--उत्कृष्ट स्वामित्वके समयसे नीचे
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३८३
गा०२२]
पदेसविहत्तीए हिदियचूलियाए सामित्तं जहण्णाबाहाए हाइदूण जं बद्धकम्मं तं दिवडगुणहाणीए खंडेयूणेयखंडमहियारगोवुच्छाए उवरि संछुहदि । संपहि एदं बंधावलियादिक्कंतमोकड्ड कड्डणभागहारेण खंडिय तत्थेयखंड हेहा उवरिं च संछुहिय णासेइ । पुणो विदियसमयम्मि सेसदव्वमोकड्ड कडणभागहारेण खंडेयणेयखंडमेतं विणासेइ । णवरि पढमसमयम्मि विणासिदखंडादो विदियसमयविणासिदखंड विसेसहीणं होइ । केत्तियमेत्तेण ? पढमसमयम्मि विणासिददव्वं ओकड्ड कड्डणभागहारेण खंडिदेयखंडमेत्तेण । एवं तदियसमए वि विणासेदि । एत्थ वि अणंतरविणासिददव्वादो विसेसहीणपमाणं पुव्वं व वत्तव्वं । एवं चेव चउत्थसमयप्पहुडि गच्छइ जाव समयूणदोआवलियूणजहण्णाबाहमेत्तकालो त्ति । किं कारणं समयूणदोआवलियाओ ण लब्भंति त्ति भणिदे समयुत्तरजहण्णाबाहाए हाइदण बद्धं जं कम्मं तमाबाहापढमसमयप्पहुडि समयूणावलियमेत्तकालं बोलाविय ओकड्ड कड्डणसरूवेण मासेतुं पारभदि । पुणो ताव अोकड्ड कड्डणाए वावारो जाव अहियारहिदी उदयावलियं चरिमसमअपविहा ति। उदयावलियम्भंतरपविहाए पुण पत्थि ओकड्डणा उक्कड्डणा वा । तेण कारणेणेदं सयलमुदयावलियं पुबिल्ल
एक समय अधिक जघन्य अाबाधाको स्थापित करके वहाँ जो कर्म बंधा हो उसमें डेढ़गुणहानिका भाग देने पर जो एक भागप्रमाण द्रव्य प्राप्त हो वह अधिकारप्राप्त गोपुच्छामें निक्षिप्त होता है। फिर बँधावलिके बाद इस द्रव्यको अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे भाजित करके जो एक भाग प्राप्त होता है उसका नीचे-ऊँचे निक्षेप करके नाश कर देता है। फिर शेष द्रव्यमें अषकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग देकर जो एक भाग प्राप्त होता है उसका दूसरे समयमें नाश करता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम समयमें द्रव्यके जितने हिस्सेका नाश होता है उससे दूसरे समयमें नाशको प्राप्त होनेवाला द्रव्य विशेषहीन होता है।
शंका-कितना कम होता है ? ।
समाधान-प्रथम समयमें विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यमें अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उतना कम होता है।
इसी प्रकार तीसरे समयमें भी द्रव्यका नाश करता है। यहाँ पर भी पूर्व समयमें विनाशको प्राप्त हुए द्रव्यसे विशेष हीनका प्रमाण पहलेके समान जानना चाहिये । इसी प्रकार चौथे समयसे लेकर एक समय कम दो आवलियोंसे न्यून जघन्य आबाधाप्रमाण कालके प्राप्त होने तक यह जीव उत्तरोत्तर प्रत्येक समयमें द्रव्यका नाश करता जाता है।
शंका-यहाँ एक समय कम दो आवलियाँ क्यों नहीं प्राप्त होती हैं ?
समाधान-एक समय अधिक जघन्य आबाधा कालको स्थापित करके उस समय जो कर्म बंधता है उसे आबाधाके प्रथम समयसे लेकर एक समय कम एक श्रावलि कालके बाद अपकर्षण-उत्कर्षणरूपसे ग्रहण करता है। फिर यह अपकर्षण-उत्कर्षणका व्यापार तब तक चालू रहता है जब तक अधिकृत स्थिति उदयावलिके अन्तिम समयमें प्रवेश नहीं करती। उदयावलिके भीतर प्रवेश करने पर तो अपकर्षण और उत्कर्षण ये दोनों ही नहीं होते। इस कारणसे इस पूरी
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
समयूणबंधावलियं च एकदो मेलाविय एदाहि समयूणदो आवलियाहि परिहीणजहण्णावाहमेत तदित्थणिसेयस्स ओकड्ड कडुणकालो होइ ति भणिदं ।
३८४
१६३१. संपहि एदमेत्तियका लण्ड दव्वमिच्छिय सयलेयसमयपबद्धं ठविय एदस्स हेडा दिवगुणहाणिप दुष्पण्णमोक ड्डुकड्डुणभागहारं समयूणदो आवलियूणजहाबाहा ओट्टिय विसेसाहियं काऊण भागहारभावेण द्वविदे णासेसदव्वमागच्छइ । पुणो णद्वसेसमधाणिसे यदव्वमिच्छामो त्ति एयसमयपबद्धं उवेयूण सादिरेयदिवडूगुणहाणिमेत्तभागहारे ठविदे णासिदसेसदव्त्रमागच्छइ । एदं च पढमणिसेओ ति मणेण संकप्पिय पुत्र हवेयव्वं । एगसमयुत्तरजहण्णावाहाए ठाइदूण बद्धसमयपबद्धस्स जहाणिसेयपमाणपरूवणा गदा ।
९ ६३२. दुसमयुत्तरजहण्णावाहाए ठाइदूण बद्धसमयपबद्धस्स वि एवं चैव परूत्रणा कायन्त्रा । णवरि पढमणिसेयमोकड्ड कड्डणभागहारेण खंडिय तत्थेयखंडेण विदियणिसेओ हो होइ, एयवारमोकडकड्डणाए पत्ताहियघादत्तादो । एदं च विसेसहीणदव्वं पुव्विल्लदव्वस्स पासे विदियणिसेओ ति पुत्र उत्रेयच्वं । एवं तिसमयुत्तरावाहाबद्ध समयपबद्धप्प हुडि हेट्ठा ओदारिदूण एगेगणिसेयं पुण्यभागहारेण विसेसहीणं काऊण दव्वं जाव ओकड्ड कड्डुणभागहारमेत्तद्धाणे ति । एदं चेव उदयावलिको और पूर्वोक्त एक समय कम बन्धवलिको एकत्रित करने पर इन एक समय कम दो आवलियोंसे न्यून जघन्य आवाधाप्रमाण वहाँके निषेकका अपकर्षण- उत्कर्षंणकाल होता है यह कहा है ।
$ ६३१. अब इतने कालके भीतर नष्ट हुए इस द्रव्यके लानेकी इच्छासे पूरे एक समयप्रबद्धको स्थापित करके इसके नीचे डेढ़ गुणहानिसे गुणित अपकर्षण- उत्कर्षण भागहार में एक समय कम दो आवलियोंसे न्यून जघन्य आबाधाका भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे विशेषाधिक करके भागहाररूपसे स्थापित करने पर नष्ट हुए पूरे द्रव्यका प्रमाण आता है। फिर नष्ट होनेसे जो यथा निषेक द्रव्य बाकी बचा है उसे लानेकी इच्छा से एक समयबद्धको स्थापित करके और उसके नीचे साधिक डेढ़ गुणहानिप्रमाण भागहार के स्थापित करने पर नाश होनेसे बाकी बचे हुए द्रव्यका प्रमाण आता है । यहाँ यह जो बाकी बचे हुए द्रव्यका प्रमाण आया है इसे मनसे प्रथम निषेक मानकर अलग से स्थापित करे । इस प्रकार एक समय अधिक जघन्य बाधाको स्थापित करके बंधे हुए समयप्रबद्ध में जो यथानिषेकका प्रमाण प्राप्त होता है उसका कथन समाप्त हुआ ।
९ ६३२. दो समय अधिक जघन्य आबाधाको स्थापित करके बंधे हुए समयबद्धका भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम निषेक में अपकर्षणउत्कर्षेणभागहारका भाग देनेसे वहाँ जो एक भाग प्राप्त हो दूसरा निषेक उतना हीन होता है, क्योंकि यहाँ अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारका एकबार अधिक भाग दिया गया है। इस विशेष हीन द्रव्यको पूर्वोक्त द्रव्यके पासमें दूसरा निषेक मानकर पृथक् स्थापित करना चाहिये । इसी प्रकार तीन समय अधिक बाधाको स्थापित कर बद्धसमयप्रबद्धसे लेकर पीछे जाकर एक-एक निषेकको पूर्वोक्त भागहार द्वारा एक-एक भाग कम करके अपकर्षण- उत्कर्षणभागहारप्रमाण स्थानके
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गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
३८५ एयगुणहाणिअद्धाणपमाणमिदि थूलसरूवेण गहेयव्वं ।
६६३३. पुणो विदियगुणहाणिप्पहुडि हेढदो बहुगं झीयमाणं गच्छइ जाव अधाणिसेयकालपढमसमओ ति । एत्थ सव्वत्थ वि गुणहाणिश्रद्धाणमणंतरपरूविदमवहिदसरूवेण घेत्तव्वं । णिसेयभागहारो पुण दुगुणोक्कड कड्डणभागहारमेत्तो । एत्थ पुण एरिसीओ असंखेज्जाओ गुणहाणीओ अत्थि, अधाणिसेयसंचयकालस्स असंखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणत्तादो । तदो अधाणिसेयकालपढमसमयम्मि बद्धसमयपबद्धदव्वमेत्थ चरिमणिसेओ चि घेतव्वं ।
६६३४. संपहि एदमसंखेज्जगुणहाणिदव्वं सव्वं समयुत्तराबाहार ठाइदूण बद्धसमयपबद्धक्कस्सपढमणिसेयपमाणेण समकरणं काउण जोइदे दिवड्डोकड कड्डणभागहारमेत्तो गुणगारो उप्पजइ। सो च एसो | १ || एसो च' सुत्तुत्तगुणयारादो
|१1...
अदाहिओ जादो ति एदं मोत्तूण पयारंतरेण गुणगारपरूवणमणुवत्तइस्सामो। तं जहा-समउत्तरजहण्णाबाहाए ठाइदण बद्धसमयपबदसव्वुक्कस्सजहाणिसेयप्पहुडि हेटा विसेसहीगं विसेसहीणं होऊण गच्छमाणमोकड्ड कडणभागहारदुभागमेतद्धाणं प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये और यही एक गुणहानिस्थानका प्रमाण है ऐसा स्थूलरूपसे ग्रहण करना चाहिये।
६६३३. फिर दूसरी गुणाहानिसे लेकर यथानिषेकके कालके प्रथम समयके प्राप्त होने तक नीचे बहुतसा द्रव्य क्षयको प्राप्त हो जाता है। यहाँ सर्वत्र गुणहानिअध्वानको पूर्वमें कहे गये गुणहानिअध्वानके समान अवस्थितरूपसे ग्रहण करना चाहिये । निषेकभागहार तो अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे दूना है। परन्तु यहाँ पर ऐसी असंख्यात गुणहानियाँ होती हैं, क्योंकि यथानिषेकका संचयकाल पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है, इसलिये यथानिषेकके कालके प्रथम समयमें जो समयप्रबद्धका द्रव्य बंधता है उसे यहाँ अन्तिम निषेकरूपसे ग्रहण करना चाहिये।
६६३४. अब इस असंख्यात गुणहानिप्रमाण समस्त द्रव्यको एक समय अधिक आबाधाको स्थापित करके उस समय बँधे हुए समयप्रबद्धके उत्कृष्ट प्रथम निषेकके प्रमाणरूपसे समीकरण करके देखने पर अाकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे डेढ़ गुणा गुणकार उत्पन्न होता है। वह यह १३ है। और यह सूत्रोक्त गुणकारसे अर्धभागप्रमाण अधिक हो गया है, इसलिए इसे छोड़कर प्रकारान्तरसे गुणकारका कथन बतलाते हैं। वह इस प्रकार है-एक समय अधिक जघन्य आबाधाको स्थापित करके जो समयप्रबद्ध बंधता है उसके सबसे उत्कृष्ट यथानिषेकसे लेकर पीछेके निषेक एक एक चय कम होते जाते हैं। और इस प्रकार अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका
१. ता. प्रतौ 'एसो|२|| एसो च' इति पाठः।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गंतूणेगसमयपबद्धपडिबद्धक्कस्सजहाणिसैयद्धपमाणं चेहदि । एदं चेव एयगुणहाणिपमाणमिदि घेत्तव्वं । एवमुवरि वि सव्वत्थोकड्ड क्कड्डणभागहारं णिसेयभागहारं काऊण णेदव्बं जाव जहाणिसेयकालपढमसमओ ति । पुणो पुव्वं व सव्वदव्वे पढमणिसेयपमाणेण कदे ओकड कड्डणभागहारस्स तिण्णिचउभागमेत्ता पढमणिसेया होति । एत्थ वि गुणगारो सुत्तत्तपमाणे ण जादो तम्हा मुत्तुत्तगुणगारुप्पायणहमेत्योकडकड्डणमागहारस्स वेतिभागमेतं गुणहाणिअद्धाणमिदि घेत्तव्वं ।
६३५. संपहि एदस्स गुणहाणिअद्धाणस्स साहणमिमा परूवणा कीरदे । तं जहा–जहाणिसेयपढमगुणहाणिपढमणिसेयप्पहुडि हेडा जहाकमं जहाणिसेयगोपुच्छपती रचेयव्वा जाव ओकडुक्कड्डणभागहारवेतिभागमेत्तद्धाणमोयरिय हिदगोवुच्छा त्ति । एदं चेव एयगुणहाणिहाणंतरं । एवं विरचिदपढमगुणहाणिदव्वे णिसेयं पडि चरिमगोवुच्छपमाणं मोत्तूण सेसमहियदव्वं घेत्तृण पुध हवेयव्वं । एवं ठविदअहियदव्वपमाणगवेसणं कस्सामो । तत्थ ताव चरिमणिसेयादो अंणतरोवरिमगोवुच्छा एयपक्खेवमेत्तेण अहिया होइ । तस्स पमाणं केत्तियं ? जहण्णणिसेयस्स संखेजदिभागमेत्तं । तस्स को पडिभागो ? रूवूणोकड कड्डणभागहारो ? तं पि कुदो ? एकवारजितना प्रमाण है उससे अर्धभागप्रमाण स्थान जाकर एक समयप्रबद्धसे प्रतिबद्ध उत्कृष्ट यथानिषेकका प्रमाण आधा प्राप्त होता है। और यही एक गुणहानिका प्रमाण है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार आगे भी सर्वत्र अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारको निषेकभागहार करके यथानिषेक कालके प्रथम समयके प्राप्त होनेतक ले जाना चाहिये । फिर पहलेके समान सब द्रव्यको प्रथम निषेकके प्रमाणरूपसे करनेपर अपकर्षण उत्कर्षणभागहारके तीन बटे चार भागप्रमाण प्रथम निषेक प्राप्त होते हैं । यहाँ पर भी गुणकार सूत्र में कहे गये गुणकारके बराबर नहीं हुआ है, इसलिये सूत्रमें कहे गये गुणकारको उत्पन्न करनेके लिये यहाँ पर अपकर्षणउत्कर्षण भागहारके दो बटे तीन भागप्रमाण गुणहानिअध्वान है ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
६६३५. अब इस गुणहानिअध्वानकी सिद्धि के लिये यह प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-यथानिषेककी प्रथम गुणहानिके प्रथम समयसे लेकर नीचे अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारके दो बटे तीन भागप्रमाण स्थान जाकर जो गोपुच्छा स्थित है उसके प्राप्त होने तक क्रमसे यथानिषेक गोपुच्छाओंकी पँक्तिकी रचना करना चाहिये और यही एक गुणहानिस्थानान्तरका प्रमाण है । इस प्रकार प्रथम गुणहानिके द्रव्यको स्थापित करके उसके प्रत्येक निषेकमेंसे अन्तिम गोपुच्छाके प्रमाणके सिवा शेष अधिक द्रव्यको एकत्रित करके अलग रख दे। इस प्रकार अलग रखे गये अधिक द्रव्यके प्रमाणका विचार करते हैं। यहाँ पर अन्तिम निषेकका जितना प्रमाण है उससे अनन्तर उपरिम गोपुच्छाका प्रमाण एक प्रक्षेपमात्र अधिक है।
शंका–उसका प्रमाण कितना है ? समाधान-जघन्य निषेकके संख्यातवें भागप्रमाण है । शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ?
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्त पत्ताहियघादत्तादो। रूवूणत्तमेत्थाणवेक्खिय संपुण्णोकडुक्कड्डणभागहारमेत्तो पक्खेवपडिभागो घेत्तव्यो । एवं चरिमणिसेयादो दुचरिमणिसेयस्स विसेसो परूविदो ।
६६३६. संपहि दुचरिमादो तिचरिमस्स अहियदव्वपमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा–दुचरिमणिसेयं दोपडिरासीओ काऊण तत्थेयमोकडकडणभागहारेण खंडिय पडिरासीकयरासीए उवरि पक्खित्ते तिचरिमणिसेओ उप्पज्जइ त्ति एत्थ चरिमणिसेयादो अहियदव्वपमाणं दो पक्खेवा एओ च पक्खेवपक्खेवो होइ । एदं पि पुव्वं व पडिरासिय तत्थेयमोकड कडूणभागहारेण खंडिय तत्थेयखंडं तत्थेव पक्वित्ते चउचरिमणिसेओ उपज्जइ ति तत्थ वि जहण्णदव्वादो अहियपमाणं तिण्णि पक्खेवा तिण्णि चेव पक्खेवपक्खेवा अण्णेणो च तप्पक्खेवो लब्भइ। तहा पंचचरिमे वि पुव्वविहाणेण चत्तारि पक्खेवा छ पक्खेवपक्खेवा चत्तारि च तप्पक्खेवा अण्णेगा च चुग्णी होइ । पुणो तत्तो उवरिमे वि पंच पक्खेवा दस पक्खेवपक्खेवा तत्तियमेत्ता चेव तप्पक्खेवा पंच चुण्णीओ अवरेगा च चुण्णाचुण्णी अहियसरूवेण लभंति । एवं जत्तियमद्धाणमुवरि चढिय विसेसगवेसणा कीरइ चरिमणिसेयादो तत्थ तत्थ रूवूणचढिददाणमेत्ता पक्खेवा दुरूवूणचढिददाणसंकलणमेत्ता च पक्वेवपक्खेवा
समाधान- एक कम अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार है। शंका-ऐसा क्यों है ? समाधान—क्योंकि वह एक बार अधिक घातसे प्राप्त हुआ है।
यद्यपि ऐसा है तो भी एक कमकी विवक्षा न करके यहाँ पर प्रक्षेपका प्रतिभाग सम्पूर्ण अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारप्रमाण लेना चाहिये। इस प्रकार चरम निषेकसे द्विचरम निषेकके विशेषका कथन किया।
$ ६३६. अब द्विचरम निषेकसे त्रिचरम निषेकमें जो अधिक द्रव्य है उसके प्रमाणका विचार करते हैं। वह इस प्रकार है-द्विचरम निषेककी दो प्रति राशियाँ स्थापित करो। फिर उनमेंसे एकमें अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग दो। भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे अलग स्थापित की गई दूसरी राशिमें मिला देने पर विचरम निषेक उत्पन्न होता है, अतः उस त्रिचरम निषेकमेंचरम निषेकसे अधिक द्रव्यका प्रमाण दो प्रक्षेप और एक प्रक्षेपप्रक्षेप है। अब इस त्रिचरमनिषेककी भी पूर्ववत् प्रतिराशि करो। फिर उनमेंसे एकमें अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग दो। भाग देनेसे जो एक भाग लब्ध आवे उसे अलग स्थापित की गई उसी राशिमें मिला देनेपर चतुश्चरम निषेक उत्पन्न होता है, अतः उस निषेकमें भी जघन्य द्रव्यसे जो अधिक द्रव्य है उसका प्रमाण तीन प्रक्षेप, तीन प्रक्षेप-प्रक्षेप और एक तत्प्रक्षेप प्राप्त होता है। इसी प्रकार पाँचवें चरमनिषेकमें भी पूर्व विधिसे अधिक द्रव्यका प्रमाण चार प्रक्षेप, छह प्रक्षेप-प्रक्षेप, चार तत्प्रक्षेप
और एक चूर्णि होता है। फिर इससे ऊपरके निषेकमें भी पाँच प्रक्षेप, दस प्रक्षेप-प्रक्षेप, उतने ही अर्थात् दस ही तत्प्रक्षेप, पाँच चूर्णि और एक चूणिचूणि अधिक द्रव्य रूपसे उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार जितना अध्वान ऊपर जाकर अधिक द्रव्यका विचार करते हैं अन्तिम निषेकसे वहाँ एक कम ऊपर गये हुए अध्वान प्रमाण प्रक्षेप, दो कम ऊपर गये हुए अध्वानके संकलनप्रमाण
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ तिरूवूणचढिददाणसंकलणासंकलणामेत्ता च तप्पक्खेवा उप्पाएयव्वा, तेसिं चेव पहाणतादो ।
६३७. संपहि पढमणिसेयमस्सियण चरिमणिसेयादो बिसेसपमाणपरिक्खा कीरदे । तत्थ ताव रूवूणोकड्ड कड्डणभागहारवेतिभागमेत्ता पक्खेवा लब्भंति । ते च एदे
१ । संपहि एत्थ जइ ओकड्ड कड्डणभागहारतिभागमेत्ता पक्खेवा अत्थि तो एदं चरिमणिसेयपमाणं पावइ । तदो तेसिमुप्पायणविहिं वत्तइस्सामो । चडिददाणसंकलणमेत्ता पक्खेवपक्खेवा वि एत्थथि त्ति ६२६२ एवमेदे आणिय पक्खेवपमाणेण
कदे ओकडुक्कडणभागहारवेणवभागमेत्ता पक्खेवा होति । ०६/२ । एत्थ जइ
ओकड्डुक्कड्डणभागहारस्स णवभागमेत्ता पक्खेवा होति तो एदे तस्स तिभागमेत्ता पक्खेवा जायंति। ते पुण तिरूवृणोकडकड्डणभागहारवेतिभागसंकलणासंकलणमेत्ततप्पक्खेवे आदि कादूण सेसखंडे अवलंबिय आणेयव्वा । पुणो ते आणिय पुबिल्लोकड्ड कड्डणभागहारवेणवभागमेत्तयक्खेवाणमुवरि पक्विविय लद्धकिंचूणतत्तिभागमेत्ते पक्खेवे घेत्तण पुनपरूविदोकड्ड कड्डणभागहारवेतिभागमेतपक्खेवाणमुवरि पक्खित्ते जहण्णणिसेयपमाणं पढमणिसे यमस्सियूण अहियदव्वं होइ । एदं च मूलदव्वेण सह प्रक्षेपप्रक्षेप, तीन कम ऊपर गये हुए अध्वानके संकलनासंकलनप्रमाण तत्प्रक्षेप उत्पन्न करने चाहिये, क्योंकि यहाँ उनकी ही प्रधानता है।
६६३७. अब प्रथम निषेकमें अन्तिम निषेकसे जितना अधिक द्रव्य है उसके प्रमाणका विचार करते हैं। वहाँ एक अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारके दो बटे तीन भागप्रमाण प्रक्षेप प्राप्त होते हैं। वे ये हैं- २ । अब यहाँ पर यदि अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारके तीसरे भागप्रमाण प्रक्षेप प्राप्त होते हैं तो यह अन्तिम निषेकके प्रमाणको प्राप्त होता है, इसलिये उनके उत्पन्न करनेकी विधि बतलाते हैं-जितना अध्वान आगे गये हैं उनके संकलनमात्र प्रक्षेपप्रक्षेप भी यहाँ पर हैं इसलिए ६३६२ इस प्रकार इन्हें लाकर प्रक्षेपके प्रमाणसे करने पर अपकर्षणउत्कर्षण भागहारके दो बटे नौ भागप्रमाण प्रक्षेप होते हैं • ६२ । यहाँ पर यद्यपि अपकर्षणउत्कर्षण भागहारके नौ भागप्रमाण प्रक्षेप होते हैं तो ये उसके त्रिभागमात्र प्रक्षेप हो जाते हैं। परन्तु वे तीन रूप कम अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारके दो बटे तीन भागके संकलनासंकलनप्रमाण तत्प्रेक्षेपोंसे लेकर शेष खण्डोंका अवलम्बन करके ले आने चाहिए। पुनः उन्हें लाकर पूर्वोक्त अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारके दो बटे नौ भागप्रमाण प्रक्षेपोंके ऊपर प्रक्षिप्त करके लब्ध हुए उसके कुछ कम त्रिभागमात्र प्रक्षेपोंको ग्रहण करके पहले कहे गये अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारके दो बटे तीन भागप्रमाण प्रक्षेपोंके ऊपर प्रक्षिप्त करनेपर प्रथम निषेकके आश्रयसे जघन्य निषेकप्रमाण अधिक
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गा० २२]
पदेसविहत्तीए हिदियचूलियाए सामित्तं
अहियणिसेयादो दुगुणमेत्तं जादमिदि सिद्धं ओकड्ड कड्डणभागहारवेतिभागाणं गुणहाणिद्वाणंतरतं । एनियमेते गुणहाणिअद्धाणे संते सिद्धी सुतपरूविदो गुणगारो, सन्वदव्वे पढमणिसेयपमाणेण समकरणे कदे समुप्पण्णदिवढगुणहाणिगुणया रस्स पुण्णोकड कणभागहारपमाणत्तदंसणादो ।
९६३८. एवमेत्तिएण पबंधेण उक्कस्सअधाणिसेयद्विदिपत्तयस्स पमाणं जाणाविय संपहि तदुक्कस्ससामित्तपरूवणद्वमुत्तरमुत्तपबंधो—
* इदाणिमुक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं कस्स ? 8 ६३६. एवं निदरिसणपरूवणाए णिसेयद्विदिपत्तयं कस्से ति पुव्वपुच्छाए अणुसंधाणमुत्तमेदं ।
* सत्तमा पुढवीए रइयस्स जत्तियमधाणिसेय द्विदिपत्तयमुक्कस्सयं तत्तो विसेसुत्तरकालमुबवण्णो जो णेरइओ तस्स जहणेण उक्कस्सयमधाणि सेयद्विदिपत्तयं ।
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सव्वमवहारिदसरूवमुकस्सयमधा
$ ६४०, एदस्स सुत्तस्सत्थो बुच्चदे - तमुक्कस्सयमधाणिसेयद्विदिपत्तयं सत्तमाए पुढवीए रइयस्स होइ ति पदसंबंधो। सेसगइजीवपरिहारेण सत्तमपुढविणेरइयस्सेव सामित्तं किमड कीरदे ! ण, सेसईसु संकिलेसविसोहीहि णिज्जराबहुत्तं पेक्खिय
द्रव्य होता है । किन्तु यह मूल द्रव्य के साथ अधिकृत निषेकसे दूना हो गया है, इसलिए अपकर्षणउत्कर्ष भागहारके दो बटे तीन भागोंका गुणहानिस्थानान्तर सिद्ध हुआ । इतने मात्र गुणानिध्वान रहते हुए सूत्रमें कहा गया गुणकार सिद्ध हुआ, क्योंकि सब द्रव्यके प्रथम निषेकके प्रमाणसे समीकरण करने पर उत्पन्न हुआ डेढ़ गुणहानिप्रमाण गुणकार सम्पूर्ण अपकर्षण- उत्कर्षंणभागहार के प्रमाणरूप से देखा जाता है ।
६ ६३८. इस प्रकार इतने कथन के द्वारा उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तका प्रमाण जताकर अब उसके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करनेके लिए आगे सूत्रोंकी रचना बतलाते हैं* अब उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तका स्वामी कौन है ?
६६३६. इस प्रकार उदाहरणके कथन द्वारा जिसके पूरे स्वरूपका निश्चय कर लिया है और जिसके उत्कृष्ट स्वामित्व के विषय में पहले पृच्छा कर आये हैं अब उसी उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तके स्वामित्वका अनुसन्धान करनेके लिये यह सूत्र आया है
* सातवीं पृथिवीके नारकीके उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तका जितना काल है उससे विशेष अधिक कालके साथ जो नारकी उत्पन्न हुआ है वह उस यथानिषेकके जघन्य कालके अन्तमें उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तका स्वामी है ।
६४०. अब इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - वह उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य सातवीं पृथिवी नारकी के होता है ऐसा यहाँ पदोंका सम्बन्ध कर लेना चाहिये ।
शंका –शेष गतिके जीवोंको छोड़कर सातवीं पृथिवीके नारकीको ही स्वामी क्यों बतलाया है ?
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ तहाविहाणादो। तं जहा-सेसगदीसु विसोहिकाले बहुअमोकड्डिय हेहा संछुहइ । संकिलेसेण वि बहुअमुक्कड्डियूणुवरि संछुहइ त्ति दोहि मि पयारेहिं अहियारगोवुच्छाए बहुदव्ववओ होइ। सत्तमपुढविणेरइयम्मि पुण एयंतेण संकिलेसो चेव तेणेयपयारेणेव तत्थ णिज्जरा होइ ति सेसपरिहारेण तस्सेव गहणं कदं । अधवा सत्तमपुढविणेरइयस्स संकिलेसबहुलस्स णिकाचणादिकरणेहि बहुअं दवमाणिसेयहिदिपत्तयसरूवेण लब्भइ, ण सेसगईसु त्ति एदेणाहिप्पारण तत्थेव सामित्तं दिण्णं ।
६४१. संपहि तस्सेव विसेसलक्खणपरूवणहमुत्तरसुत्तावयवकलावो- एत्थ जत्तियमधाणिसेयद्विदिपत्तयमुक्कस्सयमिदि उत्ते पुव्वं परूविदासखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणुक्कस्सजहाणिसेयसंचयकालमेतमिदि घेत्तव्वं । तं कुदो परिच्छिज्जदे ? तत्तो विसेसुत्तरकालमुववण्णो जो गेरइओ ति सुत्तावयवादो। एत्थ विसेसुत्तरपमाणमपज्जत्तकालेण सह गदजहण्णाबाहमेत्तमिदि गहेयव्वं, आबाहाब्भंतरे जहाणिसेयसंभवाभावादो अपज्जत्तकाले वि जोगबहुत्ताभावेण सव्वुक्कस्सपदेससंचयाणुववत्तीदो । तस्स जहण्णेण इदि वुत्ते तस्स तारिसस्स गेरइयस्स जहण्णेण अंतोमुहुत्तेणब्भहिय
समाधान-नहीं, क्योंकि शेष गतियोंमें संक्लेश और विशुद्धिके कारण बहुत निर्जरा होती है, इसलिये उसे देखते हुए ऐसा विधान किया है। खुलासा इस प्रकार है-शेष गतियोंमें विशुद्धिके समय बहुत द्रव्यका अपकर्षण होकर उसका नीचेकी स्थितियोंमें निक्षेप होता है
और संक्लेशके कारण बहुत द्रव्यका उत्कर्षण होकर उसका ऊपर की स्थितियोंमें निक्षेप होता है इस प्रकार वहाँ दोनों ही प्रकारों से अधिकृत गोपुच्छाके बहत द्रव्यका ब्यय हो जाता है। किन्तु सातवीं पृथिवीके नारकीके तो एकान्तरूपसे संक्लेश ही पाया जाता है, इसलिये वहाँ एक प्रकारसे ही निर्जरा होती है, इसलिये शेष गतियोंका निराकरण करके केवल उसी गतिका ही ग्रहण किया है। अथवा सातवीं पृथिवीका नारकी संक्लेशबहुल होता है, इसलिये उसके निकाचना आदि करणोंके द्वारा यथानिषेकस्थितिप्राप्त रूपसे बहुत द्रव्य पाया जाता है, शेष गतियोंमें नहीं, इस प्रकार इस अभिप्रायसे भी वहीं पर स्वामित्व दिया है।
६६४१. अब उसीका विशेष लक्षण बतलानेके लिये सूत्रका शेष भाग आया है-यहाँ सूत्रमें जो 'जत्तियमधाणिसेयढिदिपत्तयमुक्कस्सयं' यह कहा है सो उससे पहले कहे गये पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण उत्कृष्ट यथानिषेक संचयकालका ग्रहण करना चाहिये ।
शंका--यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-इसी सूत्रमें जो 'तत्तो विसेसुत्तरकालमुववण्णो जो णेरइओ' यह वचन कहा है उससे जाना जाता है।
___ यहाँ पर विशेषोत्तर कालका प्रमाण अपर्याप्त कालके साथ व्यतीत हुआ जघन्य आबाधाप्रमाण काल ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि एक तो आबाधाकालके भीतर यथानिकोंकी सम्भावना नहीं है और दूसरे अपर्याप्त काल में भी बहुत योग न होनेके कारण सर्वोत्कृष्ट प्रदेश संचय नहीं बन सकता है। तथा सूत्र में जो 'तस्स जहण्णेण' यह कहा है सो इसका यह आशय है कि जो
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गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
३६१ मुक्कस्सयमधाणिसेयकालं भवहिदीए आदिम्मि काऊणुप्पज्जिय सबलहुँ सव्वाओ पज्जत्तीओ समाणिय उक्कस्सयजहाणिसेयहिदिपत्तयस्सादिं कादण पुरदो भण्णमाणसयविसुद्धीए सम्ममणुपालिदतकालस्स तकालचरिमसमयम्मि वट्टमाणयस्स उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं होइ ति घेत्तव्वं । अहवा जत्ति एण कालेण उक्स्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं होइ तस्स कालस्स संगहो कायव्वो। केत्तिएण च कालेण तस्स संचओ ? जहण्णएण अधाणिसेयकालेण। एतदुक्त भवति-अधाणिसेयकालो जहण्णओ वि अस्थि उक्स्सो वि । तत्थुक्कस्सकालभंतरे ओकड्ड क्कड्डणाए बहुदव्वविणासेण लाहादसणादो जहण्णकालस्सेव संगहो कायव्यो ति । तदो तिरिक्खो वा मणुस्सो वा सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववज्जमाणो जहण्णाबाहाजहण्णापज्जत्तद्धासमासमेत्तंतोमुहुत्तब्भहियं जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयसंचयकालभवहिदीए आदिम्मि काऊणुप्पज्जिय छप्पज्जत्तीओ समाणिय उकस्सअधागिसेयहिदिपत्तयसंचयमाढविय समयाविरोहेण समाणिदतकालो जो गेरइओ तस्मुक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं होइ ति सुत्तत्थसंगहो। जत्थ वा तत्थ वा णिरयाउअभंतरे संचयकालमपरूविय अंतोमुहुत्तववण्णणेरइयप्पहुडि संचयं कराविय सगसंचयकालचरिमसमए सामित्तं नारकी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट यथानिषेक कालको भवके प्रथम समयमें करके उत्पन्न हुआ है और जिसने अतिशीघ्र सब पर्याप्तियोंको समाप्त करके उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तसे लेकर आगे कही जानेवाली अपनी विशुद्धिके द्वारा उस कालका भले प्रकारसे रक्षण किया है उस नारकीके उस कालके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिये। अथवा जितने कालके द्वारा उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य प्राप्त होता है उस कालका यहाँ संग्रह करना चाहिये ।
शंका-कितने कालके द्वारा उसका संचय होता है ?
समाधान-यथानिषेकके जघन्य काल द्वारा उसका संचय होता है। आशय यह है कि यथानिषेकका जघन्य काल भी है और उत्कृष्ट काल भी है। उसमेंसे उत्कृष्ट कालके भीतर अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा बहुत द्रव्यका विनाश हो जानेके कारण लाभ दिखाई नहीं देता है, इसलिये यहाँ जघन्य कालका ही संग्रह करना चाहिये ।
इसलिये जो तिर्यश्च या मनुष्य सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हो रहा है वह जघन्य आबाधा और जघन्य अपर्याप्त कालके जोड़रूप अन्तर्मुहूर्त कालसे अधिक यथानिषेकस्थितिप्राप्तके जघन्य संचयकालको भवस्थितिके प्रथम समयमें प्राप्त करके उत्पन्न हुआ फिर छह पर्याप्तियोंको समाप्त करके और यथानिषेकस्थितिप्राप्तके उत्कृष्ट संचयका आरम्भ करके जब आगममें बतलाई हुई विधिके अनुसार उक्त कालको समाप्त कर लेता है उस नारकीके उत्कृष्ट यथानिषेकस्थिति प्राप्त द्रव्य होता है यह इस सूत्रका समुदायार्थ है।
शंका-नरकायुके भीतर जहाँ कहीं भी संचय कालका कथन न करके नारकीके उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त कालसे लेकर संचयका प्रारम्भ कराकर फिर अपने संचय कालके अन्तिम समयमें सूत्रकारने जो स्वामित्वका कथन किया है सो उनके ऐसा कहनेका क्या अभिप्राय है।
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सायपाहुडे
३६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ भणंतस्स मुत्तयारस्स को अहिप्पाओ ? ण, उवरि संकिलेसविसोहीणं परावत्तशुक्लंभादो।
__६४२. पुणो वि पयदसामियस्स संचयकालब्भंतरे आवासयविसेसपरूवणढमुत्तरो सुत्तकलावो
* एदम्हि पुण काले सो परइओ तप्पाओग्गउकस्सयाणि जोगहाणाणि अभिक्खं गदो।
समाधान नहीं, क्योंकि इस काल के सिवा अन्यत्र संक्लेश और विशुद्धिका परावर्तन नहीं बन सकता है, इसलिये और आगे जाकर ऐसा नहीं कहा है।
विशेषार्थ-एक तो शेष गतियोंमें कभी संक्लेशकी और कभी विशुद्धताकी बहुलता रहती है, इसलिये वहाँ उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तका संचय नहीं हो सकता और दूसरे यथानिषेकके उत्कृष्ट संचयके लिये निकाचितकरणकी प्राप्ति आवश्यक है। जिसमें विवक्षित कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदीरणा ये कुछ भी सम्भव नहीं हैं वह निकाचितकरण माना गया है। इस करणकी प्राप्तिके लिए बहुलतासे संक्लेशरूप परिणामोंकी प्राप्ति आवश्यक है। यतः बहुतायतसे ये परिणाम अन्य गतियों में नहीं पाये जाते, इसलिये भी वहाँ उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तका संचय नहीं हो सकता। यही कारण है कि इसका उत्कृष्ट स्वामित्व नरकगतिमें बतलाया है। उसमें भी सातवें नरकके नारकीके जितना अधिक संक्लेश सम्भव है उतना अन्यत्र सम्भव नहीं है, इसलिये यह उत्कृष्ट स्वामित्व सातवें नरकके नारकीको दिया गया है। अब यह देखना है कि सातवें नरकमें भी यह उत्कृष्ट ल्वामित्व कब प्राप्त होता है। इस विषयमें चूर्णिसूत्रकारका कहना है कि कोई मनुष्य या तिथंच ऐसे समयमें नरकमें उत्पन्न हुआ जब उत्पन्न होनेके कुछ ही काल बाद यथानिषेकस्थितिप्राप्तके उत्कृष्ट संचयका प्रारम्भ होनेवाला है उसके उस कालके समाप्त होनेके अन्तिम समयमें यह उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है । यहाँ जो कुछ अधिक काल बतलाया है सो उससे नारकीके योग्य जघन्य अपर्याप्तकाल और जघन्य आबाधाकाल लेना चाहिये। सातवें नरकमें उत्पन्न होनेके इतने काल बाद यथानिषेकस्थितिप्राप्तका संचयकाल प्रारम्भ होता है और जब यह काल समाप्त होता है तब अन्तमें उत्कृष्ट स्वामित्व होता है। यह संचय काल पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है यह तो पहले ही बतलाया जा चुका है। यद्यपि यह संचयकाल जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे अनेक प्रकारका है फिर भी यहाँ उत्कृष्ट कालका ग्रहण न करके जघन्य कालका ग्रहण किया है, क्योंकि उत्कृष्ट कालके भीतर अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा बहुत अधिक द्रव्यके विनाश होनेका भय है। सूत्रमें आये हुए 'जहण्णेण' पदसे भी इसी बातका सूचन होता है। यद्यपि इस पदका जघन्य आबाधा अर्थ करके भी काम चलाया जा सकता है, क्योंकि तब जघन्य आबाधासे अधिक उत्कृष्ट संचय कालके अन्तमें उत्कृष्ट स्वामित्व होता है यह अर्थ फलित किया जा सकता है। किन्तु इससे पूर्वोक्त अर्थ मुख्य प्रतीत होता है और यही कारण है कि इस पदके दो अर्थ करके भी टीकामें पूर्वोक्त अर्थ पर जोर दिया है।
६६४२. अब प्रकृत स्वामीके संचय कालके भीतर आवश्यक विशेषका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* परन्तु इस संचय कालके भीतर वह नारकी तत्यायोग्य उत्कृष्ट योगस्थानोंको निरन्तर प्राप्त हुआ।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
३६३ ___ ६४३. एदम्मि पुण अधाणिसेयसंचयकालभंतरे सो गैरइओ बहुसो बहुसो तप्पाओग्गुक्कस्सयाणि जोगहाणाणि परिणदो, तेहि विणा पयदुक्कस्ससंचयाणुप्पत्तीदो त्ति एदेण जोगावासयं परूविदं । एत्थ तप्पाओग्गविसेसणं समयाविरोहेण तहा परिणदो ति जाणावण । जाव संभवो ताव सव्वुकस्सजोगेणेव परिणमिय तस्सासंभवे तप्पाओग्गुक्कस्सयाणि जोगहाणि बहुसो गदो ति भणिदं होइ।
ॐ तप्पाओग्गउक्कस्सियाहि वडीहि वडिदो।
६६४४. संखेज्जगुणवडि-असंखेजगुणवडि-संखेजभागवड्डिसण्णिदाहि जोगचड्डीहि पदेसबंधउडिअविणाभावीहि समयाविरोहेण वडिदो । तासिमसंभवे पुण असंखेजभागवड्डीए वि वडिदो त्ति वुत्तं होइ । णेदं पुव्वुत्तत्थपरूवणादो पुणरुतं, तस्सेव विसेसियूण परूवणादो। तम्हा एदेण वि जोगावासयं चेव विसेसिदमिदि घेत्तव्वं ।
ॐ तिस्से हिदीए णिसेयस्स उक्कस्सपदं ।
६४५. जहाणिसेयकालब्भंतरे सव्वत्थोवजहण्णाबाहाए उक्कस्सजोगेण च जहण्णयहिदि बंधमाणो सामित्तहिदीए उकस्सपदं काऊण णिसिंचइ ति भणिदं होइ, णिसेयाणमण्णहा थोवभावाणुववत्तीदो। संपहि एदेण विहाणेणाणुसारिदथोवूण
६६४३. परन्तु इस यथानिषेकके संचय कालके भीतर वह नारकी अनेक बार तद्योग्य उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त हुआ, क्योंकि उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त हुए बिना प्रकृत उत्कृष्ट संचय नहीं बन सकता है. इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा योगावश्यकका कथन किया गया है। यहाँ सूत्रमें तत्प्रायोग्य यह विशेषण आगमानुसार उस प्रकारसे परिणत हुआ यह बतलानेके लिये दिया है । जब तक सम्भव हो तब तक सर्वोत्कृष्ट योगसे ही परिणत रहे और जब सर्वोत्कृष्ट योग सम्भव न हो तब बहुत बार तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होवे यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* तत्यायोग्य उत्कृष्ट वृद्धियोंसे वृद्धिको प्राप्त हुआ।
६६४४. प्रदेशबन्धवृद्धिकी अविनाभावी संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और संख्यातभागवृद्धि इन तीन वृद्धियोंके द्वारा जो आगममें बतलाई गई विधिके अनुसार वृद्धिको प्राप्त हुआ है। परन्तु जब ये तीन वृद्धियाँ असम्भव हों तब वह असंख्यातभागवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होवे यह उक्त कथनका सार है। यदि कहा जाय कि पुनरुक्त अर्थका कथन करनेवाला होनेसे यह सूत्र पुनरुक्त है सो भी बात नहीं है, क्योंकि उसी पूर्वोक्त सूत्रके विशेषणरूपसे इस सूत्रका कथन किया है। इसलिये इस सूत्र द्वारा भी योगावश्यकोंकी विशेषता बतलाई गई है यह अर्थ यहाँ पर लेना चाहिये। ___* उस स्थितिके निषेकके उत्कृष्ट पदको प्राप्त हुआ।
६६४५. यथानिषेक कालके भीतर सबसे कम जघन्य आबाधा और उत्कृष्ट योगके द्वारा जघन्य स्थितिको बाँधनेवाला वह जीव स्वामित्वविषयक स्थितिमें उत्कृष्टरूपसे कर्मपरमाणुओंको करके उनका निक्षेप करता है यह इस सूत्रका तात्पर्य है, अन्यथा अल्प निषेक नहीं प्राप्त हो
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ जहाणिसेयसंचयकालस्स पयदणेरइयस्स पञ्चासण्णसामित्तुद्देसे जोगावासयपडिबद्धवावारविसेसपरूवणमुत्तरो पबंधो
* जा जहएिणया भाषाहा अंतोमुहुत्तुत्तरा एवदिसमयअणुदिण्णा सा हिदी । तदो जोगहाणाणमुवरिल्लमद्ध गदो ।
६४६. अंतोमुहुत्तुत्तरा जा जहण्णाबाहा एवदिमसमयअणुदिण्णा सा हिंदी जा पुन्वणिरुद्धा सामित्तहिदी । एत्थंतोमुहुत्तपमाणं जोगजवमज्झादो उवरि अच्छणकालमत्तं । तदो जोगहाणाणमुवरिल्लमद्धं गओ जोगहाणाणमुवरिल्ल भागं गंतूणंतोमुहुत्तमेत्तकालमच्छिदो त्ति भणिदं होइ । किमहमेसो जोगहाणाणमुवरिल्लमद्धं णीदो ? जोगबहुत्तेण बहुदव्वसंचयकरण। जइ एवं, अंतोमुहुत्तं मोत्तूण सव्वकालं तत्थेव किण्ण अच्छाविदो ? ण, तत्तो अहियं कालं तत्थावहाणासंभवादो । जेणेदमंतदीवयं तेण पुव्वं पि जाव संभवो ताव तत्थच्छिदो ति घेत्तव्वं । एत्थेव णिलीणो चरिमजीवगुणहाणिहाणंतरे आवलियाए असंखेजदिभागमच्छिदो त्ति अवंतरवावारविसेसो परूवेयव्यो। सकते। अब इस विधिसे कुछ कम यथानिषेक संचयकालका अनुसरण करनेवाले प्रकृत नारकीके स्वामित्वविषयक स्थानके समीपवर्ती होनेपर योगावश्यकसे सम्बन्ध रखनेवाला जो व्यापारविशेष होता है उसका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
___ * अन्तमुहूर्त अधिक जो जघन्य आवाधा है इतने काल तक वह स्थिति अनुदीर्ण रही । अनन्तर जो योगस्थानोंके उपरिम अद्धभागको प्राप्त हुआ।
६६४६. अन्तर्मुहूर्त अधिक जो जघन्य आबाधा है इतने काल तक वह स्वामित्वस्थिति अनुदीर्ण रहती है जिसका कथन पहले कर आये हैं। यहाँ अन्तर्मुहूर्तसे योगयवमध्यसे ऊपर रहनेका जितना काल है वह काल लिया है। फिर सूत्र में जो यह कहा है कि 'तदो जोगट्ठाणाणमुवरिल्लमद्ध गो' सो इसका यह आशय है कि इसके बाद योगस्थानोंके उपरिम भागको प्राप्त होकर जो अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा है।
शंका-यह जीव योगस्थानोंके उपरिम भागको क्यों प्राप्त कराया गया है ?
समाधान-बहुत योगके द्वारा अधिक द्रव्यका संचय करनेके लिये यह जीव योगस्थानोंके उपरिम भागको प्राप्त कराया गया है।
शंका-यदि ऐसा है तो अन्तर्मुहूर्त न रखकर पूरे काल तक वहीं इस जीवको क्यों नहीं रखा गया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि इससे अधिक काल तक वहाँ रहना सम्भव नहीं है।
यतः यह कथन अन्तदीपक है अतः इससे यह अर्थ भी लेना चाहिये कि पूर्व में भी जब तक सम्भव हो तब तक यह जीव वहाँ रहे। यहाँ जीवकी अन्तिम गुणहानिस्थानान्तरमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहनेरूप जो अवान्तर व्यापारविशेष इसीमें गर्भित है उसका कथन करना चाहिये।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
३६५ ॐ दुसमयाहियाबाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए एयसमयाहियआबाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए च उक्कस्सयं जोगमुववरणो।
६४७. एत्थ तिस्से हिदीए इदि अणुवट्टदे । तेणेवमहिसंबंधो कायव्वोतिस्से सामित्तहिदीए दुसमयाहियजहण्णाबाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए समयाहियजहण्णाबाहचरिमसमयअणुदिण्णाए च उक्कस्सजोगहाणं पडिवण्णो त्ति । चरिमदुचरिम-तिचरिमसमयअणुदिण्णादिकमेणोयरिय दुसमयाहिय-एयसमयाहियाबाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए णिरुद्धद्विदीए सो गैरइओ उक्कस्सजोगहाणेण परिणदो त्ति भणिदं होइ । वे समए मोत्तूण बहुअं कालमुक्कस्सजोगेणेव किण्ण अच्छाविदो ? ण, वेसमयपाओग्गस्स तस्स तहासंभवाभावादो ।
* तस्स उकस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं ।
६४८. तस्स तारिसस्स गेरइयस्स जाधे सा हिदी उदयमागदा ताधे उक्कस्सयमधाणिसेययहिदिपत्तयं होइ ति उत्तं होइ।
-- ६४६. संपहि एत्थ उपसंहारे भण्णमाणे तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगदाराणि । तं जहा-संचयाणुगमो भागहारपमाणाणुगमो लद्धपमाणाणुगमो चेदि ।
* उस स्थितिके दो समय अधिक आबाधाके अन्तिम समयमें अनुदीर्ण होने पर और एक समय अधिक आबाधाके अन्तिम समयमें अनुदीर्ण होने पर उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ।
६६४७. इस सूत्रमें 'तिस्से हिदीए' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। इससे ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये कि उस स्वाभित्वस्थितिके दो समय अधिक जघन्य आबाधाके अन्तिम समयमें अनुदीर्ण रहने पर और एक समय अधिक जघन्य आबाधाके अन्तिम समयमें अनुदीर्ण रहने पर जो उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त हुआ है। चरम समय, द्विचरम समय और त्रिचरम समयमें अनुदीर्ण रहने आदिके क्रमसे उतरकर दो समय अधिक और एक समय अधिक आबाधाके चरम समयमें विवक्षित स्थितिके अनुदीर्ण रहने पर वह नारकी उत्कृष्ट योगस्थानसे परिणत हुआ यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-दो समयको छोड़कर बहुत काल तक उत्कृष्ट योगके साथ ही क्यों नहीं रखा गया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि जो योग दो समयके योग्य है उसका और अधिक काल तक रहना सम्भव नहीं है।
* वह नारकी उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है।
$ ६४८. इन पूर्वोक्त विशेषताओंसे युक्त जो नारकी है उसके जब वह स्थिति उदयको प्राप्त होती है तब वह उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है यह इस सूत्रका आशय है।
६६४९. अब यहाँ पर उपसंहारका कथन करते हैं। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं। यथा-संचयानुगम, भागहारप्रमाणानुगम और लब्धप्रमाणानुगम । उनमेंसे सर्व प्रथम
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३९६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ तत्थ संचयाणुगमेण जहाणिसेयकालपढमसमयसंचिददव्यमहियारहिदीए जहागिसेयसरूवेगस्थि । एवं णेदव्वं जाव चरिमसमयसंचो त्ति । संचयाणुगमो गदो।
६६५०. एत्तो भागहारपमाणाणुगमं वत्तइस्सामो । तं जहा–असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमत्तं हेहदो ओसरिय हिदपढमसमयपबद्धसंचयस्स भागहारे उप्पाइज्जमाणे समयपबद्धमेगं ठविय जहाणिसेयसंचयकालभंतरणाणागुणहाणिसलागाओ पलिदोवमपढमवग्गमूलद्धच्छेदणाहिंतो असंखेजगुणहीणाओ विरलिय दुगुणिय अण्णोण्णभासणिप्पण्णरासिसादिरेओ भागहारो ठवेयव्यो । एवं ठविदे एत्तियमेत्तगुणहाणीओ गालिय परिसेसिदमहियारगोवुच्छादो पहुडि अंतोकोडाकोडिदव्वमागच्छइ । संपहि इमं सव्वदव्यमहियारगोवुच्छपमाणेण कीरमाणं दिवट्टगुणहाणिमेत्तं होइ ति दिवडगुणहाणीओ वि भागहारत्तेण ठवेयवाओ। तदो अहियारगोवुच्छदव्वं णिसेयसरूवेणागच्छइ । पुणो जहाणिसेयहिदिपत्तयमिच्छामो ति असंखेज्जा लोगा वि भागहारसरूवेणेदस्स ठवेयव्वा । तं जहा-पयदगोवुच्छदव्वं जहाणिसे यकालपढमसमयप्पहुडि बंधावलियमेत्तकाले वोलीणे ओकड कड्डणभागहारेण खंडिदेयखंडमेत्तं हेटोवरि परसरूवेण गच्छद। विदियसमए वि ओकड्ड कड्डणभागहारपडिभागेण परसरूवेण
worrrrrrrr
संचयानुगमकी अपेक्षा विचार करते हैं- यथानिक कालके प्रथम समयमें जो द्रव्य संचित होता है वह यथानिषेकरूपसे अधिकृत स्थितिमें है । इस प्रकार संचयकालके अन्तिम समय तक जानना चाहिये। आशय यह है कि संचय कालके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक प्रत्येक समयमें यथानिषेकरूपसे संचित होनेवाला द्रव्य विवक्षित स्थितिमें पाया जाता है। इस प्रकार संचयानुगम समाप्त हुआ।
६६५०. अब इससे आगे भागहारप्रमाणानुगमको बतलाते हैं । यथा-पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण स्थान पीछे जाकर प्रथम समयमें प्राप्त हुए संचयका भागहार उत्पन्न करनेकी इच्छासे एक समयप्रबद्धको स्थापित करे। फिर उसका पल्यके प्रयम वर्गमूलके अर्धच्छेदोंसे असंख्यातगुणी हीन यथानिषेक संचयकाल के भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंका विरलन कर और दूनाकर परस्परमें गुणा करके उत्पन्न हुई राशिसे कुछ अधिक भागहार स्थापित करे। इस प्रकार स्थापित करने पर इतनी गुणहानियोंको गलानेके बाद अधिकृत गोपुच्छासे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण शेष द्रव्य प्राप्त होता है। अब इस पूरे द्रव्यको अधिकृत गोपुच्छाके बराबर हिस्सा करके विभाजित करने पर वह डेढ़ गुणहानिप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिये डेढ़ गुणहानिको भी भागहाररूपसे स्थापित करे। तब जाकर अधिकृत गोपुच्छाका द्रव्य निषेकरूपसे प्राप्त होता है। अब यहाँ यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य लाना है इसलिये इसका असंख्यात लोकप्रमाण भागहार और भी स्थापित करे। खुलासा इस प्रकार है-यथानिषेककालके प्रथम समयसे लेकर बन्धावलिप्रमाण कालके व्यतीत होने पर प्रकृत गोपुच्छाके द्रव्यमें अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग देने पर जो एक भागप्रमाण द्रव्य प्राप्त हो उतना द्रव्य नीचे ऊपर अन्य गोपुच्छारूप हो जाता है। दूसरे समयमें भी अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उतना द्रव्य अन्य गोपुच्छारूप हो जाता है। इस
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गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्त
३६७ गच्छइ । एवमेगेगखंडे गच्छमाणे पुवभागहारवेतिभागमेत्तद्धाणं गंतूण पयदणिसेयस्स अद्धमत्तं चेहइ। पुणो वि एत्तियमद्धाणं गंतूण चउभागो चेहइ । एवमुवरि वि
यव्वं जाव अहियारहिदी उदयावलियब्भंतरे पविहा ति । एवं होइ ति काऊणेत्थतणणाणागुणहाणिसलागाणं पमाणाणुगमं कस्सामो। तं कथं ? ओकड्ड कड्डणभागहारवेतिभागमेतद्धाणं गंतूण जइ एया गुणहाणिसलागा लब्भइ तो असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणं जहाणिसेयकालम्मि केत्तियाओ गाणागुणहाणिसलागाओ लहामो ति तेरासियं काऊण जोइदे असंखेजपलिदोवमपढमवग्गमलमेत्ताओ लभंति । पुणो इमाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भासे कदे असंखे जा लोगा उप्पज्जति । तदो एत्तियं पि भागहारत्तेण समयपबद्धस्स हेहदो ठवेयव्वमिदि. भणियं । पुणो एदे तिण्णि वि भागहारे अण्णोण्णपदुप्पण्णे करिय समयपबद्धम्मि भागे हिदे आदिसमयपबद्धमस्सियूण अहियारहिदीए जहाणिसयसरूवेणावहिदपदेसग्गमागच्छद । तम्हा असंखेज्जलोगमेतो आदिसमयपबद्धस्स संचयस्स अवहारो ति घेत्तव्वं । संपहि विदियसमयपबद्धसंचयस्स वि भागहारो एवं चेव वत्तव्यो। वरि पढमसमयसंचयभागहारादो सो किंचूगो होइ। केत्तिएणणो ति भणिदे ओकड कड्डणभागहारेण खंडिय तत्थेयखंडमेत्तेण । एवं भागहारो थोवूणकमेण तदियसमयपबद्धसंचयप्पहुडि प्रकार एक एक खण्डके अन्य गोपुच्छारूप होते हुए पूर्व भागहारके दो बटे तीन भागप्रमाण स्थानोंके जाने पर प्रकृत निषेक अर्धभागप्रमाण शेष रहता है। फिर भी इतने ही स्थान जाने पर प्रकृत निषेक चतुर्थ भागप्रमाण शेष रहता है। इस प्रकार आगे भी अधिकृत स्थितिके उदयावलिमें प्रवेश होने तक जानना चाहिये। ऐसा होता है ऐसा समझकर यहाँकी नाना गुणहानिशलाकाओंके प्रमाणका विचार करते हैं। यथा-अपकर्षग-उत्कर्षणभागहारके यदि दो बटे तीन भाग प्रमाण स्थान जाने पर एक गुणहानिशलाका प्राप्त होती है तो पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण यथानिषेक कालमें कितनी नाना गुणहानिशलाकाएँ प्राप्त होंगी इस प्रकार त्रैराशिक करने पर वे नाना गुणहानिशलाकाए पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण ही प्राप्त होती हैं। फिर इनका विरलन कर और दूना कर परस्परमें गुणा करने पर असंख्यात लोकप्रमाण राशि उत्पन्न होती है। इसीसे इसे भी भागहाररूपसे समयप्रबद्धके नीचे स्थापित करे यह कहा है। फिर इन तीनों ही भागहारोंका परस्परमें गुणा करके जो प्राप्त हो उसका समयप्रबद्धमें भाग देने पर प्रथम समयप्रबद्धकी अपेक्षा अधिकृत , स्थितिमें यथानिषेकरूपसे जो द्रव्य अवस्थित है उसका प्रमाण आता है, इसलिये प्रथम समयप्रबद्ध के संचयका भागहार असंख्यात लोकप्रमाण ग्रहण करना चाहिये। दूसरे समयप्रबद्ध के संचयका भी भागहार इसी प्रकार कहना चाहिये । किन्तु प्रथम समयसम्बन्धी संचयके भागहारसे वह कुछ कम होता है।
शंका--कितना कम होता है ?
समाधान-अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त होता है उतना कम होता है।
इस प्रकार भागहार उत्तरोत्तर कम होता हुआ तीसरे समयप्रबद्धके संचयसे लेकर
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३९८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ गंतूणोकडकड्डणभागहारवेतिभागमेत्तद्धाणे पुवभागहारस्स अद्धमेत्तो होइ । एवं जाणियूण णेदव्वं जाव जहाणिसेयकालचरिमसमो त्ति । णवरि चरिमसमयपबदसंचयस्स भागहारो सादिरेयदिवड्डगुणहाणिमेतो होइ।
६६५१. संपहि लद्धपमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहा-चरिमसमयम्मि बंधियण णिसित्तपमाणेण जहाणिसेयहिदिपत्तयसव्वदव्वं कीरमाणमोकड्ड कड्डणभागहारमेत्तं होइ। तं कथं १ चरिमसमयप्पहुडि ओकडक्कड्डणभागहारवेतिभागमेत्तद्धाणं हेहदो ओदरिय बद्धसमयपबद्धदव्यपढमणिसेयस्स अद्धपमाणं चेहइ त्ति । तं
चेव गुणहाणिहाणंतरं होई । तेण पढमगुणहाणिदव्वं सव्वं चरिमसमयम्मि बंधियूण णिसित्तपढमणिसेयपमाणेण कीरमाणमोकड्ड कड्डणभागहारवेतिभागाणं तिण्णिचउब्भागमेत्तपढमणिसेयपमाणं होइ । तं च संदिट्टीए एदं|१६|पुणो विदियादिसेसगुणहाणिदव्वं पि तप्पमाणेण कीरमाणं तेत्तियं चेव होइ ||६|। संपहि दोण्हमेदेसि एकदो मेलणे कदे ओकड्ड कड्डणभागहारो चेव दिवडगुणहाणिपमाणं होइ । पुणो एदेण दिवट्टगुणहाणिमोकड्डिय समयपबद्धे भागे हिदे जं लद्धं तत्तियमेत मुक्कस्ससामित्त विसईकयं जहाणिसेयहिदिपत्तयं होइ । अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारके दो बटे तीन भागप्रमाण स्थान जाने पर वह पूर्व भागहारसे आधा रह जाता है। यथानिषेक कालके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक इसी प्रकार जानकर उसका कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अन्तिम समयप्रबद्धके संचयका भागहार साधिक डेढ़ गुणहानिप्रमाण है।
६६५१. अब लब्धप्रमाणका विचार करते हैं। यथा-अन्तिम समयमें बांधकर यथानिषेकस्थितिप्राप्त सब द्रव्यके निक्षिप्त हुए द्रव्यके बराबर खण्ड करनेपर वे, अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारका जितना प्रमाण है, उतने प्राप्त होते हैं।
शंका-सो कैसे ?
समाधान-अन्तिम समयसे लेकर अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारके दो बटे तीन भाग प्रमाण स्थान पीछे जाकर बंधे हुए समयप्रबद्धके द्रव्यका प्रथम निषेक आधा रह जाता है, इसलिये वही एक गुणहानिस्थानान्तर होता है, अतः प्रथम गुणहानिके सब द्रव्यको अन्तिम समयमें बांध कर निक्षिप्त हुए प्रथम निषेकके बराबर बराबर खण्ड करनेपर अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारके दो बटे तीन भागका तीन बटे चार भागप्रमाण प्रथम निषेकोंका प्रमाण होता है । संदृष्टिकी अपेक्षा उसका प्रमाण का ! = 4 होता है। फिर दूसरी आदि शेष गुणहानियोंका द्रव्य भी तत्प्रमाण खण्ड करने पर उतना कार ही होता है। अब इन दोनोंको एकत्रित करने पर अपकर्षणउत्कर्षणभागहार ही डेढ़ गुणहानिप्रमाण होता है। फिर इससे डेढ़ गुणहानिको अपवर्तित करके समयप्रबद्ध में भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना उत्कृष्ट स्वामित्वका विषयभूत यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य होता है।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
३६६ ___६६५२. एवमेत्तिएण पबंधेण उकस्सजहाणिसेयहिदिपत्तयस्स सामित्तं परूविय संपहि एदेणेव गयत्थस्स णिसेयहिदिपत्तयस्स वि सामित्तसमुप्पण्णहमुत्तरं मुत्तं भणइ
*णिसेयहिदिपत्तयं पि उकस्सयं तस्सेव ।।
६६५३. गयत्थमेदं मुत्तं, पुग्विल्लादो अविसिहपरूवणतादो। अदो चेव कममुल्लंघिय तस्सेव पुव्वं सामित्तविहाणं कयं, अण्णहा एदस्स जाणावणोवायाभावादो। एत्थ पुण विसेसो-पमाणाणुगमे कीरमाणे पुग्विल्लदव्वादो ओकड्ड कड्डणाए गंतूण पुणो वि तत्थेव पदिददव्वमेतेणेदं विसेसाहियं होइ त्ति वत्तव्वं ।।
६५४. संपहि जहावसरपत्तमुक्कस्सयमुदयहिदिपत्तयस्स सामित्तं परूवेमाणो पुच्छामुत्तमाह
8 उदयहिदिपत्तयमुक्कस्सयं कस्स ? ६६५५. एत्थ मिच्छत्तस्से ति अहियारसंबंधो । सेसं सुगमं । * गुणिदकम्मंसिओ संजमासंजमगुणसेढिं संजमगुणसेटिं च काऊण
६६.२. इस प्रकार इतने प्रबन्धके द्वारा उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तके स्वामित्वका कथन करके अब यद्यपि निषेकस्थितिप्राप्त इसी प्रबन्धके द्वारा गतार्थ है तथापि उसके स्वामित्व को बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* उत्कृष्ट निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी भी वही है।
६६५३. यह सूत्र अवगतप्राय है, क्योंकि पिछले सूत्रसे इसके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। और इसीलिये क्रमका उल्लंघन करके पहले उसीके स्वामित्वका कथन किया है, अन्यथा इसके ज्ञान करानेका दूसरा कोई उपाय नहीं था। किन्तु प्रमाणानुगमके कथनमें यहां इतना विशेष और कहना चाहिये कि अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा जो द्रव्य अन्यत्र प्राप्त होता है वह फिरसे वहीं आ जाता है, इसलिये यथानिषेकस्थितिप्राप्तके द्रव्यसे इसका द्रव्य इतना विशेष अधिक होता है।।
विशेषार्थ—यथानिषेकस्थितिप्राप्तका जो संचयकाल और स्वामी पहले बतला आये हैं वही निषेकस्थितिप्राप्तका भी प्राप्त होता है, क्योंकि उत्कृष्ट संचय सातवें नरकमें उक्त प्रकारसे ही बन सकता है। तथापि यथानिषेकस्थितिप्राप्तसे इसका उत्कृष्ट द्रव्य विशेष अधिक हो जाता है। कारण यह है कि यथानिषेकस्थितिप्राप्तमें अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा जितना द्रव्य कम हो जाता है वह यहां पुनः बढ़ जाता है ।
६६५४. अब यथावसर प्राप्त उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्तके स्वामित्वका कथन करनेकी इच्छासे पृच्छा सूत्र कहते हैं
* उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी कौन है ।
६६५५. इस सूत्रमें मिथ्यात्वप्रकृतिका अधिकार होनेसे 'मिच्छत्तस्स' इस पदका सम्बन्ध कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है।
* जो गुणितकौशवाला जीव संयमासंयमगुणश्रेणि और संयमगुणश्रेणिको
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ मिच्छत्तं गदो जाधे गुणसेढिसीसयाणि उदिएणाणि ताधे मिच्छत्तस्स उक्कस्सयमुदयहिदिपत्तयं ।
६५६. एदस्स मुत्तस्सत्थपरूवणा उदयादो उक्कस्सझीणहिदियसामित्तसुत्तभंगो। एवं मिच्छत्तस्स चउण्हं पि हिदिपत्तयाणमुक्कस्ससामित्तं परूविय संपहि एदेण समाणसामियाणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमप्पणं करेइ
* एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पि।
६५७. जहा मिच्छत्तस्स चउण्हमग्गहिदिपत्तयादीणं सामित्तविहाणं कदमेवं सम्मत्त-सम्मापिच्छत्ताणं पि, विसेसाभावादो। णवरि सम्मत्तस्स जहाणिसेय-णिसेयहिदिपत्तयाणमुक्कस्ससामित्तं भण्णमाणे उव्वेल्लणकालादो जइ जहाणिसेयकालो बहुओ होइ तो पुव्वमेव जहाणिसेयस्सादि करिय पुणो संचयं करेमाणो चेव उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गंतूण संचयं काऊण पुणो अविणहवेदयपाओग्गकालम्मि वेदयसम्मत्तग्गहणपढमसमए वट्टमाणो जो जीवो तस्स पढमसमयवेदयसम्मादिहिस्स तिसु वि जहाणिसेयगोवुच्छासु उदयं पविस्समाणासु उक्कस्ससामितं वत्तव्वं । अध अधाणिसेयसंचयकालादी उव्वेल्लणकालो बहुओ होज्ज तो पुव्वमेव पडिवण्णसम्पत्तो मिच्छत्तं गंतूण पुणो जहाणिसेयहिदिपत्तयस्सादि काऊण करके मिथ्यात्वमें गया है उसके जब गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त हुए हैं तब वह मिथ्यात्वके उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है।
६६५६. पहले उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट द्रव्यके स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्रका जैसा विवेचन किया है उसीप्रकार इस सूत्रका भी विवेचन कर लेना चाहिये। इसप्रकार मिथ्यात्वके चारों ही स्थितिप्राप्तोंके स्वामित्वका कथन करके अब इससे जिनके स्वामी समान हैं ऐसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे कथन करते हैं
* इसीप्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके स्वामित्वका भी विधान करना चाहिये।
६६५७. जिस प्रकार मिथ्थात्वके चारों अग्रस्थितिप्राप्त आदिके स्वामित्वका कथन किया है उसीप्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भी करना चाहिये क्योंकि इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके यथानिषेक और निषेकस्थितिप्राप्तके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करने पर उद्वेलनकालसे यदि यथानिषेकका काल बहुत होवे तो पहलेसे ही यथानिषेकका प्रारम्भ करके फिर संचय करता हुआ ही उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर और अन्तर्मुहूर्त काल तक उसके साथ रहकर मिथ्यात्वमें जावे। और वहां संचय करके वेदक योग्य कालके नाश होनेके पहले ही वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके उसके प्रथम समयमें जो जीव स्थित है उस प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिके तीनों ही यथानिषेक गोपुच्छाओंके उदयमें प्रवेश करने पर उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिये । और यदि यथानिषेकके संचयकाल :: उद्वलनाका काल बहुत होवे तो पहले से ही सम्यक्त्वको प्राप्त करके मिथ्यात्वमें जावे। फिर यथानिषेकस्थितिप्राप्तका
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए डिदियचूलियाए सामित्तं
४०१ संचयं करिय गहिदवेदगसम्मत्तपढमसमए तिण्हं पि गोवुच्छाणं पदेसग्गमेकलग्गीभूदमुदयगदं धरिय हिदो जीवो पयदुक्कस्ससामिओ होइ ति वत्तव्यं । एत्थ पुण विसिहोवएसमस्सियूण अण्णदरपक्वपरिग्गहो कायव्यो; संपहियकाले तहाविहोवएसाभावादो । संपहि इममधाणिसेयगोवुच्छमुदयावलियं पवेसिय पढमसमए चेव सम्मत्तं गेण्हावेमो जहण्णाबाहमेत्तं वा सामित्तसमयादो हेटदो ओसारिय, उवरि संचयाभावादो ति भणिदे ण, सम्मत्तं पडिवज्जाविय पुणो उदयावलियं जहण्णाबाहमेत्तकालं वा वोलाविय सामित्ते दिजमाणे जहाणिसेयहिदिदबस्स बहुअस्स ओकड्डणाए विणासप्पसंगादो। किं कारणमुदयावलियबाहिरावहिदावत्थाए ताव ओकड्डणाए बहुदव्वविणासो सम्मत्ताहिमुहस्स होइ ति ण एत्थ संचओ । उदयावलियपविठ्ठपढमसमए वि सम्मत्तं गेण्हमाणो पुचमेवंतोमुहुत्तमत्थि ति तदहिमुहावत्थाए चेव विसुज्झतो बहुअं दव्यमोकड्डणाए णासेइ त्ति ण तत्थ सम्मत्तं पडिवजाविदो। एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि सामितं वत्तव्वं । णवरि पुत्वविहाणेण संचयं करिय सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स जहाणिसेयहिदिपतयं णिसेयहिदिपत्तयं च कायव्वं ।
आरम्भ करके संचय करे और इसप्रकार जब वह सं वयकालके अन्तमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके उसके प्रथम समय में विद्यमान रहे तब उसके तीनों ही गोपुच्छाओंका द्रव्य एकत्रित होकर उदयको प्राप्त होने पर प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है ऐसा कथन करना चाहिये। परन्तु यहाँ विशिष्ट उपदेशको प्राप्त करके किसी एक पक्षको स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि वर्तमान कालमें ऐसा उपदेश नहीं पाया जाता जिससे समुचित निर्णय किया जा सके।
शंका-अब इस यथानिषेकगोपुच्छाको उदयावलिमें प्रवेश कराके उसके प्रथम समयमें ही सम्यक्त्वको ग्रहण करावे या स्वामित्व समयसे जघन्य अबाधाकालका जितना प्रमाण है उतना पीछे जाकर सम्यक्त्वको ग्रहण करावे, क्योंकि इसके ऊपर उत्कृष्ट संचयका अभाव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि यदि सम्यक्त्वको प्राप्त कराके फिर उदयावलि या जघन्य अबाधाप्रमाण कालको बिताकर उत्कृष्ट स्वामित्व दिया जाता है तो अपकर्षणके द्वारा यथानिषेकस्थितिप्राप्तके बहुत द्रव्यका अपकर्षणके द्वारा विनाश प्राप्त होता है, क्योंकि उदयावलिके बाहर अवस्थित रहते हुए सम्यक्त्वके अभिमुख होनेके कारण इसके अपकर्षणके द्वारा बहुत द्रव्यका विनाश देखा जाता है इसलिये यहां उत्कृष्ट संचय नहीं हो सकता। इसीप्रकार जो उदयावलिमें प्रवेश करनेके प्रथम समयमें भी सम्यक्त्वको ग्रहण करता है वह अन्तर्मुहूर्त काल पहले ही सम्यक्त्वके सन्मुखरूप अवस्थाके होनेपर विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ अपकर्षणद्वारा बहुत द्रव्यका नाश कर देता है, इसलिये वहां स्वामित्व नहीं प्राप्त कराया है। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भी स्वामित्व कहना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्वविधिसे संचय करके जो सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है प्रथम समयवर्ती उस सम्यग्मिथ्यादृष्टिके यथानिषेकस्थितिप्राप्त और निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य करना चाहिये।
विशेषार्थ-मालूम होता है कि यथानिषेककाल और उद्वलनाकाल इनमेंसे कौन छोटा है और कौन बड़ा इस विषयमें मतभेद रहा है। एक परम्पराके मतानुसार उद्वलनाकालसे यथानिषेककाल बड़ा है और दूसरी परम्पराके मतानुसार यथानिषेककालसे उबलनाकाल बड़ा है।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
९६५८. संपहि उदयडिदिपत्तयस्स सामित्तविसेसपरूवणद्वमुत्तरमुत्तं भणॐ एबरि उकस्सयमुदयद्विदिपत्तयमुक्कस्सयमुदयादो भी डिदिय
भंगो ।
$ ६५६. सम्मत्तस्स चरिमसमयचक्खीणदंसणमोहणीयस्स सव्वोदयं तं घेत्तूण सम्मामिच्छत्तस्स वि उदिण्णसं जमासंजम -संजमगुण से ढिगोवुच्छसीसयाणि घेत्तण पढमसमयसम्मामिच्छा इडिम्मि गुणिदकिरियपच्छायदम्मि सामित्तविहाणं पडि ततो विसेसाभावादो ।
४०२
९ ६६०. एवमेदं परूविय संपहि मिच्छत्तसमाणसामियाणं सेसाणं पि टीका में बतलाया है कि इस समय ऐसा विशिष्ट उपदेश प्राप्त नहीं जिसके आधार से यह निर्णय किया जा सके कि अमुक मत सही है, अतः विशिष्ट उपदेश मिलने पर ही इस विषयका निर्णय करना चाहये । तथापि यदि यथानिषेककाल बड़ा होवे तो उद्व ेलनाका प्रारम्भ पीछेसे कराके उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त करना चाहिये और यदि उद्वेलनाकाल बड़ा हो तो उद्वेलनाका प्रारम्भ होनेके बाद से यथानिषेकके संचयका प्रारम्भ कराके उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त करना चाहिये, क्योंकि ऐसा किये बिना उत्कृष्ट स्वामित्व नहीं प्राप्त किया जा सकता है। यहां पर टीकामें एक विवाद यह भी उठाया गया है कि सम्यक्त्व प्राप्त करानेके कितने काल बाद उत्कृष्ट स्वामित्व दिया जाय ? सिद्धान्त पक्ष सम्यक्त्व प्राप्त कराके उसके प्रथम समय में ही उत्कृष्ट स्वामित्व दिलानेका है पर शंकाकार यह स्वामित्व सम्यक्त्व प्राप्त करनेके बाद एक आवलिकाल या जघन्य आबाधाप्रमाण काल होने पर दिलाना चाहता है किन्तु विचार करने पर सिद्धान्त पक्ष ही समीचीन प्रतीत होता है जिसका विशेष खुलासा टीका में किया ही है। इसप्रकार सम्यक्त्वके यथानिषेक और निषेक स्थितिप्राप्त द्रव्यके उत्कृष्ट स्वामित्वका विचार किया । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा से भी विचार कर लेना चाहिए | किन्तु इसकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान के प्रथम समय में प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वका उदद्य वहीं पर पाया जाता है ।
$ ६५८. अब उदयस्थितिप्राप्त द्रव्य के स्वामित्वविशेषका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका भंग उदयसे उत्कृष्ट झीनस्थितिप्राप्त द्रव्यके समान है 1
$ ६५९ जिसने दर्शनमोहनीयका पूरा क्षय नहीं किया है उसके दर्शनमोहनीयका क्षय करने के अन्तिम समय में सम्यक्त्वका जो सर्वोदय होता है उसकी अपेक्षा गुणितक्रियावाले जीवके उदयस्थितिप्राप्तके उत्कृष्ट स्वामित्वका बिधान किया गया है । इसीप्रकार उदयको प्राप्त हुए संयमासंयम और संयम सम्बन्धी गुणश्रेणिगोपुच्छशीर्षो की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानके प्रथम समय में गुणितक्रियावाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्व के उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यके उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान किया है इसलिये इन दोनों प्रकृतियोंकी अपेक्षा उदयसे भीनस्थितिवाले द्रव्यके उत्कृष्ट स्वामित्व से इसमें कोई भेद नहीं है ।
विशेषार्थ - सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उदयसे झीनस्थितिवाले द्रव्यका उत्कृष्ट स्वामित्व पहले बतला आये हैं उसीप्रकार प्रकृत में जानना चाहिये ।
९६६०. इसप्रकार उक्त स्वामित्वका कथन करके मिध्यात्व के समान स्वामीवाले शेष
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४०३
गा० २२ ]
पदेसविहत्तीए हिदियचूलियाए सामित्तं ‘समप्पणहमुत्तरो पबंधो
8 अणंताणुबंधि-अकसाय-छण्णोकसायाणं मिच्छत्तभंगो।
६६६१. जहा मिच्छत्तस्स सव्वेसिमुक्कस्सहिदिपत्तयादीणं सामितपरूवणा कया तहा एदेसि पि कम्माणं कायव्या, विसेसाभावादो। संपहि एत्थ संभव विसेसपदुप्पायणमुत्तरमुत्तमाह
* णवरि अकसायाणमुक्कस्सयमुदयहिदिपत्तयं कस्स ? ६६२, सुगम ।
8 संजमासंजम-संजम-दसणमोहणीयक्खवयगुणसेढिसीसएसु त्ति एदाओ तिगिण वि गुणसेढीयो गुणिदकम्मसिएण कदाओ । एदाओ काऊण अविण सु असंजमं गो । पत्तेसु उदयगुणसेढिसीसएसु उकस्सयमुदयहिदिपत्तयं ।
६६६३. अणंताणुबंधीणमणूणाहिओ मिच्छत्तभंगो त्ति ते मोत्तूण पञ्चक्खाणापञ्चक्रवाणकसारसुक्कस्ससामित्तविहाययसुत्तस्सेदस्स उदयादो उकस्सझीणहिदियसामित्तसुत्तस्सेव अवयवसमुदायत्थपरूवणा कायना । एयंताणुवड्डिचरिमसमयसंजदासंजद-संजदपरिणामेहि कदगुणसेढिसीसयाणि दोण्णि वि एकदो काऊण पुणो वि कर्मों का भी मुख्यरूपसे कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* अनन्तानुबन्धीचतुष्क, आठ कषाय और छह नोकषायोंका भंग मिथ्यात्वके समान है।
६६६१. जिसप्रकार मिथ्यात्वके सभी उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त आदिकके स्वामित्वका कथन किया है उसी प्रकार इन कर्मों का भी करना चाहिये, क्योंकि इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। अब यहाँ जो विशेषता सम्भव है उसका कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु आठ कषायोंके उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी कौन है ? $ ६६२. यह सत्र सुगम है।
* जो गुणितकौशिक जीव संयमासंयम, संयम और दर्शनमोहनीयकी सपणासम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्ष इन तीनों ही गुणश्रेणियोंको करके और इनका नाश किये बिना असंयमको प्राप्त हुआ है वह गुणश्रेणिशीर्षों के उदयमें आनेपर उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है।
६६६३. अनन्तानुबन्धियोंका भंग न्यूनाधिकताके बिना मिथ्यात्वके समान है, अतः उन्हें छोड़कर प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण कषायोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान करनेवाले इस सूत्रके अवयवार्थ और समुदायाथैकी प्ररूपणा उदयसे झीनस्थितिवाले द्रव्यके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्रके समान करना चाहिये । एकान्तानुवृद्धिके अन्तिम समयमें संयतासंयत और संयतरूप परिणामोंके द्वारा किये गये दोनों ही गुणश्रेणिशीर्षों को मिलाकर
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४०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ ताणमुवरि दसणमोहक्खवयगुणसेढिसीसयं पक्खिविय कदकरणिजअधापवत्तसंजदभावेणंतोमुहुत्तं गुणसेढीओ श्रावूरिय से काले तिण्हं पि गुणसेढिसीसयाणमुदी होहदि त्ति कालं करिय देवेमुप्पण्णपढमसमयअसंजदम्मि सत्थाणम्मि चेव वा परिणामपच्चएणासंजमं गदपढमसमयम्मि सामित्तविहाणं पडि दोण्हं विसैसाणुवलंभादो ।
$ ६६४. एवमहकसायाणमुदयहिदिपत्तयस्स उकस्ससामित्तविसेसं सूचिय संपहि छण्णोकसायाणं पयदुक्कस्ससामित्तविसेसपरूवणहमुत्तरोपकमो
* छएणोकसायाणमुक्कस्सयमुदयहिपत्तयं कस्स ? 5 ६६५. सुगममेदमासंकासुतं । * चरिमसमयअपुव्वकरणे वठ्माणयस्स।
६६६६. एत्थ गुणिदकम्मंसियस्स खवयस्से त्ति वक्सेसो, अण्णहा उक्कस्सभावाणुववत्तीदो । सेसं सुगमं । एत्थेवांतरविसेसपरूवणहमुत्तरमुत्ताणमवयारो
हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं जद कीरइ भय-दुगुंछापमवेदो कायव्यो । फिर भी उनके ऊपर दर्शनमोहनीयकी क्षपणासम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्षको प्रक्षिप्त करके फिर कृतकृत्य
और अधःप्रवृत्तसंयमरूप भावके द्वारा अन्तर्मुहूर्त कालतक गुणश्रेणियोंको पूरण करके तदनन्तर समयमें तीनों ही गुणश्रेणिशीर्षों का उदय होगा पर ऐसा न होकर पूर्व समयमें ही मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ उस असंयत देवके वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व होता है। या स्वस्थानमें ही परिणामोंके निमित्तसे असंयमको प्राप्त होने पर उसके प्रथम समयमें ही उत्कृष्ट स्वामित्व होता है। इस प्रकार स्वामित्वकी अपेक्षा इन दोनोंमें कोई भेद नहीं है।
विशेषार्थ-अप्रत्याख्यानवरण और प्रत्याख्यानावरण इन आठ कषायोंके उदयस्थितिप्राप्त उत्कृष्ट द्रव्यका स्वामी कौन है इसका प्रकृतमें विचार किया है सो यह पूरा वर्णन इन्हीं आठ कषायोंके उदयसे झीनस्थितिप्राप्त द्रव्यके उत्कृष्ट स्वामित्वसे मिलता जुलता है, इसलिये उसके समान इसका विस्तार समझ लेना चाहिये।
६६६४. इसप्रकार आठ कषायोंके उदयस्थितिप्राप्तके उत्कृष्ट स्वामित्वविशेषको सूचित करके अब छह नोकषायोंके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वविशेषका कथन करनेके लिये आगेके सूत्र कहते हैं
* छह नोकषायोंके उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी कौन है ? ६६६५. यह आशंका सूत्र सुगम है।
* जो अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान है वह छह नोकषायोंके उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है ।
६६६६. यहाँ अपूर्वकरण गुणस्थानवाला जीव गुणितकमांश क्षपक होता है अतः सूत्र में 'गुणिदकम्मंसियस्स खवयस्स' इतना वाक्य शेष है जो जोड़ लेना चाहिये, अन्यथा उत्कृष्ट भावकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। शेष कथन सुगम है। अब इस विषयमें अवान्तर विशेषका कथन करनेके लिये आगेके सूत्र आये हैं
* हास्य, रति, अरति और शोकका यदि उत्कृष्ट स्वामित्व करता है तो उसे भय और जुगुप्साका अवेदक करना चाहिए।
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४०५
गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
४०५ ६६७. सुगम ।
* जइ भयस्स तदो दुगुंछाए अवेदो कायव्वो । अध दुगुंछाए तदो भयस्स अवेदो कायव्वो।
१६६८. सुगममेदं पि मुत्तं । एवं पुचिल्लप्पणाए विसेसपरूवणं समाणिय सेसकम्माणमुक्कस्ससामित्तविहाणहमुत्तरो पबंधो
* कोहसंजलणस्स उक्कस्सयमग्गहिदिपत्तयं कस्स ?
६६६. सुगमं । * उक्कस्सयमग्गहिदिपत्तयं जहा पुरिमाणं कायव्वं ।
६७०. जहो पुरिमाणं मिच्छत्तादिकम्माणमग्गहिदिपत्तयस्स उक्स्ससामित्तं परूविदं तहा कोहसंजलणस्स वि परूवेयव्वं, विसेसाभावादो। एवमेदस्स समप्पणं कादूण संपहि सेसाणं द्विदिपत्तयाणमुक्कस्ससामित्तविहाणमुवरिमगंथावयारो
® उक्कस्सयमधाणिसेयडिदिपत्तयं कस्स ?
६७१. सुगम । * कसाए उवसामित्ता पडिवदिदूण पुणो अंतोमुहुत्तेण कसाया ६६६७. यह सूत्र सुगम है।
* यदि भयका उत्कृष्ट स्वामित्व करता है तो उसे जुगुप्साको अवेदक करना चाहिये। यदि जुगुप्साका उत्कृष्ट स्वामित्व करता है तो उसे भयका अवेदक करना चाहिये।
६६६८. यह सूत्र भी सुगम है। इस प्रकार पहले जिनके विशेष व्याख्यानकी सूचना की रही उनका विशेष कथन समाप्त करके अब शेष कर्मो के उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* क्रोध संज्वलनके उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी कौन है। $ ६६९. यह सूत्र सूगम है।
* मिथ्यात्व आदिके समान क्रोधसंज्वलनके उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्ति द्रव्यका स्वामी करना चाहिए।
६६७०. जिस प्रकार मिथ्यात्व आदि कर्मोके अस्थितिप्राप्तके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन किया है उसी प्रकार क्रोधसंज्वलनका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि इसके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार इसका प्रमुखतासे कथन करके अब शेष स्थितिप्राप्तोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करनेके लिये आगेका ग्रन्थ आया है
* उत्कृष्ट यथानिषेक स्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी कौन है ? ६६७१. यह सूत्र सुगम है। * जो जीव कषायोंका उपशम करके उससे च्युत हुआ। फिर दूसरी बार
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४०६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ उवसामिदा विदियाए उवसामणाए आषाहा जम्हि पुण्णा सा हिदी आदिडा, तम्हि उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं ।
६७२. एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा-एक्कण जीवेण कसाए उवसामिता पडिवदिदण पुणो अंतोमुहुत्तेण कसाया उवसामिदा । सो च जीवो संखेनंतोमुहत्तब्भहियसोलसवस्मृणमधाणिसेयकालं पुव्वविहाणेण रएसु संचयं कादूण तदो उवहिदो। दो-तिण्णिभवरगहणाणि तिरिक्खेसु गमिय मणुस्सेसु आगदो त्ति घेतव्वं, अण्णहा उक्कस्ससंचयाणुप्पत्तीदो। विदियाए उवसामणाए आबाहा जम्हि पुग्णा सा हिदी आदिडा एवं भणिदे जम्मि उद्दे से सामित्तभवसंबधिविदियवारकसायउवसामणाए वावदस्स तप्पाओग्गजहणिया आबाहा पुण्णा सा हिंदी पुव्वमेव आदिवा विवक्खिया ति वुत्तं होइ।
६६७३. एत्थ गेरइएसु चेव मिच्छत्तादिकम्माणं व पयदुक्कस्ससामित्तमदादूण उवसमसेढिं चढाविय सामित्तविहाणे लाहपदंसणहमिमा ताव परूवणा कीरदे। तं जहा--संखेज्जतोमुहुत्तब्भहियसोलसवस्सेहि परिहीणं जहाणिसेयकालं पुत्वविहाणेण सत्तमपुढविणेरइएसु तदाउअचरिमभागे अधाणिसेयकालभंतरे संचयं करिय कालं काऊण दो-तिण्णिभवग्गहणाणि तिरिक्वेसु गमिय मणुस्सेसुववज्जिय गब्भादिअहवस्साणमंतोमुहुत्तभहियाणमुवरि संजमेण सह पढमसम्मत्तमुप्पाइय पुणो वेदयसम्माअन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा कषायका उपशम किया। इस प्रकार इस दूसरी उपशामनाके होनेपर अबाधा जहाँ पूर्ण होती है प्रकृतमें वह स्थिति विवक्षित है। उसके उदयको प्राप्त होनेपर उससे युक्त जीव उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है।
६६७२. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक जीव है जो कषायका उपशम करके उससे च्युत हुआ । फिर भी उसने अन्तमुहूर्त काल में कषायका उपशम किया। वह जीव पहले संख्यात अन्तर्मुहूर्त अधिक सोलह वर्ष कम यथानिषेकके कालतक पूर्वविधिसे नारकियोंमें सञ्चय करके वहाँसे निकला और दो तीन भव तिर्यञ्चोंके लेकर मनुष्यों में आया ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा उत्कृष्ट संचय नहीं बन सकता है। विदियाए उवसामणाए आबाहा जम्हि पुण्णा सा हिदी आदिट्ठा' सूत्रमें जो यह कहा है सो इसका यह आशय है कि स्वामित्वसम्बन्धी भवमें दूसरी बार कषायकी उपशामनाके जिस स्थानमें रहते हुये तत्प्रायोग्य जघन्य आबाधा पूर्ण होती है वह स्थिति पूर्व में ही विवक्षित थी।
६७३. अब प्रकृतमें नारकियोंमें ही मिथ्यात्व आदि कर्मों के समान प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व न देकर जो उपशमश्रेणिपर चढ़ाकर स्वामित्वका विधान किया है सो इसमें लाभ है यह दिखलानेके लिये यह आगेकी प्ररूपणा करते हैं। यथा-कोई एक जीव है जिसने संख्यात अन्तर्मुहूर्त अधिक सोलह वर्षसे हीन यथानिषेकका जितना काल है उतने काल तक सातवीं पृथिवीका नारकी रहते हुए अपनी आयुके अन्तिम भागमें यथानिषेकके कालके भीतर पूर्वविधिसे यथानिषेकका संचय किया फिर मरा और तिर्यंचोंके दो तीन भव लेकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर गर्भसे लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त हो जानेपर संयमके साथ प्रथमोपशम
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गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
४०७ इडिभावेणंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो वि सेढिसमारोहण दसणमोहणीयमणंताणुबधिविसंजोयणपुरस्सरमुवसामिय कसायाणमुवसामणहमधापवत्तकरणं पविठ्ठपढमसमए वट्टमाणम्मि अहियारहिदीए जहाणिसेयचिराणसंचयदव्यमेगसमयपबद्धस्स असंखेज्जभागमेत्तं होइ।
६६७४. तस्सोवणे उविज्जमाणे एगं पंचिंदियसमयपबद्धं ठविय एदम्मि ओकड्डुक्कड्डणभागहारेणोवट्टिदसादिरेयदिवडगुणहाणीए भागे हिदे तत्थतणचिराणसंतकम्मसंचयदव्वमागच्छइ। एवंविहेण पुत्रसंचएणुवसमसेहिमेत्तो बहुदव्वसंचयकरण चढमाणो अधापवत्तपढमसमयम्मि तदणंतरहेहिमहिदिव धयादो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तमोसरिदूर्णतोकोडाकोडिमेत्तहिदि बधइ ।
६७५. संपहियब धमस्सियूण अहियारगोवुच्छाए उवरि णिसित्तदव्वे इच्छिज्जमाणे एगं पंचिंदियसमयपबद्धं ठविय पुणो एदस्स असंखेजभागभहियदिवड्डभागहारं ठविदे पढमणिसेयादो संखेज्जावलियमेतद्धाणमुवरि चढियूणावहिदअहियारहिदीए णिसित्तदव्वमागच्छदि । एवं बधमस्सियूण पयदगोवुच्छसंचयभागहारो परूविदो। संपहि तत्येव हिदिपरिहाणिमस्सियण लब्भमाणसंचयाणुगमं वत्तइस्सामो । को हिदिपरिहाणिसंचओ णाम ? उच्चदे-एयं द्विदिव'धं बधिय पुणो सम्यक्त्वको उत्पन्न किया। फिर वेदकसम्यक्त्वके साथ अन्तर्मुहूर्त तक रहकर श्रेणिपर चढ़नेके लिये अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके साथ दर्शनमोहनीयका फिरसे उपशम किया। इस प्रकार यह जीव जब कषायोंका उपशम करनेके लिये उद्यत होता है तब इसके अधःकरणमें प्रवेश करके उसके प्रथम समयमें विद्यमान रहते हुये विवक्षित स्थितिमें यथानिषेकका प्राचीन सत्कर्म एक समयप्रबद्धका असंख्यातवाँ भाग प्राप्त होता है।
६६७४. अब इस द्रव्यको प्राप्त करनेके लिए भागहार क्या है यह बतलाते हैं-पंचेन्द्रियके एक समयप्रबद्धको स्थापित करे। फिर इसमें अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे भाजित साधिक डेढ़ गुणहानिका भाग देनेपर वहाँका प्राचीन सत्कर्मरूप संचयद्रव्य आता है। इस प्रकार यहाँ जो पूर्व संचय प्राप्त हुआ है सो उससे बहुत द्रव्यका संचय करनेके लिये यह जीव उपशमश्रेणिपर चढ़ता हुआ अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें इसके अनन्तरवर्ती पूर्व समयमें जितना स्थितिबन्ध किया रहा उससे पल्यके असंख्यातवें भाग कम अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिबन्धको करता है।
६६७५. अब इस समय बंधे हुए द्रव्यकी अपेक्षा अधिकृत गोपुच्छामें निक्षिप्त हुआ द्रव्य लाना चाहते हैं, इसलिये पंचेन्द्रियके एक समयप्रबद्धको स्थापित करके फिर इसका असंख्यातवाँ भाग अधिक डेढ़ गुणहानिप्रमाण भागहार स्थापित करे । ऐसा करनेसे प्रथम निषेकसे संख्यात वलि ऊपर जाकर स्थित हुई अधिकृत स्थितिमें जो द्रव्य निक्षिप्त होता है उसका प्रमाण आ जाता है । इस प्रकार बन्धकी अपेक्षा प्रकृत गोपुच्छामें संचयको प्राप्त हुए द्रव्यके भागहारका कथन किया। अब वहीं पर स्थितिपरिहानिकी अपेक्षा प्राप्त होनेवाले संचयका विचार करते हैं
शंका-स्थितिपरिहानिसंचय किसे कहते हैं
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४०८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ अंतोमुहुत्तेणण्णेगहिदिवधं बंधमाणो अग्गहिदीदो हेहा पलिदोवमस्स संखे०भागमेत्तमोसरियूण बंधइ । पुणो तं हीणहिदिपदेसग्गं सेसहिदीणमुवरि विहंजिय पदमाणं हिदिपरिहाणिसंचओ णाम । तस्सोवट्टणे ठविज्जमाणे एवं पंचिंदियसमयपबद्धं ठविय एयस्स सयलंतोकोडाकोडीअब्भंतरणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरूवूणीकदरासिम्मि परिहीणहिदिअभंतरणाणागुणहाणी विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभासजणिदरूवणरासिगोवदम्मि भागहारत्तेण ठविदे हिदिपरिहाणिदव्यमागच्छइ । पुणो तम्मि सादिरेयदिवडगुणहाणीए भागे हिदे अहियारहिदीए उवरि हिदिपरिहाणीए पदिददव्वसंचओ आगच्छइ । संपहि एवंविहेसु तिसु वि संचएस हिदिपरिहाणिसंचओ पहाणं, तस्सेव उवरि समयं पडि वडिदसणादो ।
६७६. एदं च हिदिपरिहाणिकालभाविदव्वमधापवत्तकरणपढमसमयादो
समाधान—ऐसा जीव एक स्थितिबन्धको बाँधकर अन्तर्मुहूर्तबाद जब दूसरे स्थितिबन्धको बाँधत्ता है तो वह दूसरा स्थितिबन्ध अग्रस्थितिसे पल्यका संख्यातवाँ भाग कम बाँघता है। अर्थात् पहला स्थितिबन्ध जितना होता था उससे यह पल्यका संख्यातवाँ भाग कम होता है। इस प्रकार जितनी स्थिति कम जाती है उसके कर्मपरमाणु शेष स्थितियोंमें विभक्त होकर प्राप्त होते हैं। बस इस प्रकार जो द्रव्य प्राप्त होता है उसे ही स्थितिपरिहानिसंचय कहते हैं। अब इस द्रव्यको प्राप्त करनेके लिये भागहार क्या है यह बतलाते हैं-पंचेन्द्रियके एक समयप्रबद्धको भाज्यरूपसे स्थापित करे। फिर पूरी अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर जितनी नानागुणहानिशलाकाऐं प्राप्त हों उनका विरलन करके दूना करे। फिर परस्परमें गुणा करके जो राशि उत्पन्न हो उनमेंसे एक कम करे। फिर इसमें परिहीन स्थितिके भीतर प्राप्त हुई नानागुणहानियोंका विरलन करके और विरलित राशिको दूना करके परस्परमें गुणा करनेसे जो राशि आवे एक कम उसका भाग दे और इस प्रकार जो राशि प्राप्त हो उसे पूर्वोक्त भाज्यराशिका भागहार करनेपर स्थितिपरिहानि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर इसमें डेढ़ गुणहानिका भाग देनेपर अधिकृत स्थितिमें स्थितिपरिहानिसे द्रव्यका जितना संचय प्राप्त होता है उसका प्रमाण आ जाता है। इस प्रकार यहाँ जो तीन प्रकारके संचय प्राप्त हुए हैं उनमेंसे स्थितिपरिहानिसे प्राप्त हुआ संचय प्रधान है, क्योंकि आगे प्रत्येक समयमें उसीकी वृद्धि देखी जाती है।
विशेषार्थ-बन्धकालके पूर्व समय तक अधिकृत स्थितिमें जितना द्रव्य प्राप्त हुआ रहता है वह प्राचीन सत्कर्म संचित द्रव्य है । बन्धकी अपेक्षा अधिकृत स्थितिमें जितना द्रव्य प्राप्त होता है वह बन्धकी अपेक्षा निक्षिप्त हुआ द्रव्य है । तथा स्थितिपरिहानिसे विवक्षित स्थितिमें प्रति समय जो अतिरिक्त द्रव्य प्राप्त होता है वह स्थितिपरिहानिसंचित द्रव्य है। यद्यपि स्थितिपरिहानिसंचित द्रव्य बन्धकी अपेक्षा प्राप्त होनेवाले द्रव्यमें ही आ जाता है किन्तु बन्धसे प्राप्त होनेवाले द्रव्यको ध्र व करके उत्तरोत्तर स्थितिपरिहानिसे जो अतिरिक्त द्रव्य प्राप्त होता है उसकी यहाँपर अलगसे परिगणना की है । इतना ही नहीं किन्तु वह उत्तरोत्तर बढ़ता भी जाता है, इसलिये उसकी प्रधानता भी मानी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इनमेंसे किसका कितना प्रमाण है और वह किस प्रकार प्राप्त होता है इसका विचार मूलमें किया ही है। .
६६७६. अब स्थितिपरिहानिके कालमें कितना द्रव्य प्राप्त होता है इसका विचार करते
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
४०६ तदणंतरहेहिमसमयम्मि बद्धसमयपबद्धं सादिरेयदिवडगुणहाणीए भागं घेतूण लद्धदव्वमेत्तं होद्ग पुणो द्विदिपरिहाणीए लद्ध असंखेजभागमेत्तदव्वेण अहियं होइ । इमं च तिस्से अहियारहिदीए ओकड्डुक्कड्डणाहि गच्छमाणं पि दव्वं पेक्खियूण असंखेजभागब्भहियं होइ । तं कथं ? गच्छमाणदव्वस्सोवट्टणे ठविज्जमाणे एवं पंचिंदियसमयपबद्ध ठविय पुणो एदस्स ओकड्डुक्कड्डणभागहारोवट्टिददिवडगुणहाणिमेत्तभागहारे ठविदे चिराणसंचयदव्वमागच्छदि। पुणो एदस्स ओकड्डुक्कड्डणभागहारे ठविदे सादिरेयदिवडगुणहाणिसमयपबद्धस्स पयदगोवुच्छवयागमण भागहारो जादो। पुव्वुत्तसंचओ पुण समयपबद्धं सादिरेयदिवडगुणहाणीए खंडिय तत्थेयखंड द्विदिपरिहीणदव्वं च दो वि घेत्तूण होइ, तेणेसो अणंतरहेडिमसमयसंचयादो संपहियसमयम्मि गच्छमाणदव्वादो च असंखेज्जदिमागब्भहिओ होइ त्ति सिद्धं । संपहियसंचएण चिराणसंतकम्मसंचयदव्वं पेक्खियूण असंखेजभागवडी चेव होइ । कुदो? ओकड्डुक्कड्डणभागहारोवट्टिददिवडगुणहाणिखंडिदेगसमयपबद्धमेत्तचिराणसंचयादो एदस्स वट्टमाणसमयसंचयस्स असंखेज्जगुणहीणत्तदंसणादो । एवमधापवत्तकरणपढमसमयसंचयपरूवणा कदा । एत्तो अंतोमुहुत्तमेत्तकालं सव्वमेगमवहिदहिदि बंधइ ति हैं-अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे उसके अनन्तरवर्ती नीचेके समयमें बंधे हुए समयप्रबद्धमें साधिक डेढ़ गुणहानिका भाग देनेपर जितना लब्ध आवे उतना ग्रहणकर वह लब्ध द्रव्यप्रमाण होकर पुनः स्थितिकी परिहानिसे प्राप्त हुए असंख्यात भागप्रमाण द्रव्यसे अधिक होता है। और यह द्रव्य उस अधिकृत स्थितिमें अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा व्ययको प्राप्त होनेवाले द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक होता है।
शंका-सो कैसे ?
समाधान-क्योंकि, जो द्रव्य व्ययको प्राप्त होता है उसको लानेके लिये भागहारके स्थापित करनेपर पंचेन्द्रियका एक समयप्रबद्ध स्थापित करे। फिर इसका अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे भाजित डेढ़ गुणहानिप्रमाण भागहार स्थापित करनेपर प्राचीन संचित द्रव्य प्राप्त होता है । फिर इस संचित द्रव्यके नीचे अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारको स्थापितकर भाग देनेपर प्रकृत गोपुच्छामेंसे व्ययका प्रमाणला नेके लिये वह साधिक डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रवद्धका भागहार हो जाता है। परन्तु पूर्वोक्त संचय तो एक समयप्रबद्धको साधिक डेढ़ गुणहानिसे भाजित करनेपर वहाँ प्राप्त हुआ एक भाग और स्थितिपरिहीन द्रव्य इन दोनोंको मिलाकर होता है, इसलिए यह द्रव्य अनन्तरवर्ती नीचेके समयमें संचयको प्राप्त हुए द्रव्यसे और वर्तमान कालमें व्ययको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे असंख्यातवें भाग अधिक होता है यह सिद्ध हुआ। किन्तु इस वर्तमान कालीन संचयमें प्राचीन संचय द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि डेढ़ गुणहानिमें अपकर्षणउत्कर्षण भागहारका भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त हो उसका एक समयप्रबद्धमें भाग देनेपर प्राचीन संचय द्रव्य आता है। उससे यह वर्तमान समयका संचय असंख्यातगुणा हीन देखा जाता है। इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें जो संचय होता है उसका कथन किया। अब इससे आगे एक अन्तर्मुहूर्त कालतक पूरी अवस्थित स्थितिका बन्ध होता है, इसलिये वहाँ अवस्थित संचय
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ अवहिदो संचओ होइ । गवरि गोवुच्छविसेसं पडि विसेसो अत्थि सो जाणियव्यो । तत्तो परं पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तमोसरिय अण्णे द्विदिबंधे आढत्ते असंखेज्जभागवडीए विसरिसो संचओ समुप्पज्जइ । एत्थ वि पुव्वं व परूणा कायव्वा । एवं जत्थ जत्थ हिदिबंधोसरणं भविस्सदि तत्थ तत्थ सेसहिदि हिदिपरिहाणिं च जाणिदण संचयपरूवणा कायव्वा । एवमण विहाणेण अधापवत्त-अपुवकरणाणि वोलिय अणियहिअदाए संखेजे भागे च गंतूण जाव दूरावकिट्टिसण्णिदो हिदिबंधो चेहइ ताव गच्छमाणदव्वं तदणंतरहेहिमसमयसंचयं च पेक्खियूण समयं पडि जो संचओ सो असंखेजभागवड्डीए चेव गच्छइ । तदो पलिदोवमस्स संखे०भागमेत्तदूरावकिट्टिसण्णिदहिदिबंधे अच्छिदे सेसस्स असंखेज्जा भागा हाइयण असंखेजदिभागो बज्झइ । एवं बंधमाणस्स वि असंखेजभागवड्डी चेव होऊण गच्छइ जाव जहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणिपमाणो हिदिबंधो जादो त्ति । तदित्थहिदि बधमाणस्स असंखेजभागवड्डीए पज्जवसाणं होइ । पुणो एयगुणहाणि हाइयूण बंधमाणस्स गच्छमाणदव्वं तदणंतरहेडिमसमयसंचयं च पेक्खियूण संखेजभागवड्डीए आदी जादा । एदं च सेढीए संभवं पडुच्च भणिदं, अण्णहा सेससेसस्स असंखेजे भागे परिहाविय बधमाणस्स तहाविहसंभवाणुवलंभादो। संपहि चिराणसंचयं पेक्खियूणासंखेज्जभागवड्डी चेव तस्सोकडडुक्कडुणभागहारोवट्टिददिवड्डगुणहाणिहोता है। किन्तु गोपुच्छविशेषकी अपेक्षा विशेषता है सो जान लेनी चाहिये। फिर उससे आगे पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम अन्य स्थितिबन्ध होता है, इसलिए असंख्यातभागवृद्धिसे विसदृश संचय उत्पन्न होता है। यहाँ भी पहलेके समान कथन कर लेना चाहिये । इस प्रकार जहाँ जहाँ स्थितिबन्धापसरण होगा वहाँ वहाँ शेष स्थिति और स्थितिपरिहानिको जानकर सञ्चयका कथन करना चाहिये । इस प्रकार इस विधिसे अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणको बिता कर अनिवृत्ति करणके काल में संख्यात बहुभागप्रमाण स्थान जाकर दूरापकृष्टि संज्ञावाले स्थितिबन्धके प्राप्त होने तक प्रति समयमें व्ययको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे और अनन्तरवर्ती नीचेके समयमें हुए सञ्चयसे प्रत्येक समयमें होनेवाला सञ्चय असंख्यातभागवृद्धिको लिये हुए होता है। फिर पल्यके संख्तातवें भागप्रमाण दुरापकृष्टिसंज्ञक स्थितिबंधके रहते हुए शेष स्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिका घात करके असंख्यातवाँ भाग प्रमाण स्थितिका बन्ध होता है । सो इसप्रकारका बन्ध करनेवाले जीवके भी प्रति समय असंख्यातभागवृद्धि ही होती है और यह जघन्य परीतासंख्यातके जितने अर्धच्छेद हों उतने गुणहानिप्रमाण स्थितिबन्धके प्राप्त होने तक होती रहती है। इस प्रकार यहाँ अन्तमें जो स्थिति प्राप्त हो उसका बन्ध करनेवाले जीवके असंख्यातभागवृद्धिका पर्यवसान होता है। फिर एक गुणहानिका कम स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके उस समय व्ययको प्राप्त होनेवाले द्रव्यकी अपेक्षा और अन्तरवर्ती नीचेके समयमें हुए संचयकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होता है । किन्तु यह सब श्रेणिमें सम्भव है इस अपेक्षासे कहा है, अन्यथा उत्तरोत्तर जो स्थितिबन्ध शेष रहता है उसका असंख्यातवाँ भाग कम होकर आगे आगे बन्ध होता है इस प्रकारकी सम्भावना नहीं उपलब्ध होती। यहाँ पुराने संचयकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि उसका प्रमाण एक समयप्रबद्धमें अपकर्षण-उत्कर्षणसे भाजित डेढ़ गुणहानिका भाग
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्त भजिदेयसमयपबद्धपमाणत्तदसणादो। एवं रूवूण-दुरूवूणादिकमेण जहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीसु परिहीयमाणासु संखेजभागवड्डीए गंतूण जत्थुद्देसे एयगुणहाणिआयामो हिदिवंधो जादो तत्थुद्देसे गच्छमाणदव्वं तदणंतरहेहिमसमयसंचयं च पेक्वियूण संपहियसंचओ दुगुणो जादो। चिराणसंचयं पेक्खियूण पुण तक्काले वि असंखेज्जभागवडी चेव । पुणो पढमगुणहाणिं तिणि खंडाणि काऊण तत्थ हेहिमदोखंडाणि मोत्तूण उवरिममेयखंड सेसगुणहाणीओ च ओसरिय बधमाणस्स तिगुणो संचओ जादो । तं जहा-पढमगुणहाणीए विसेसहाणिमजोइय सव्वणिसेया सरिसा त्ति आयामेण तिण्णि खंडे काऊण तत्थेयखंडमवणिय पुध हवेयव्वं । पुणो विदियादिगुणहाणिदव्वं पि तावदियं चेव होदि त्ति तहेव तिणि भागे काऊण तत्थ तिभागं घेत्तण पुन्नमवणिय पुध पिदतिभागेण सह मेलाविदे ते वि वे-तिभागा जादा । एवमेदे तिण्णि वे-तिभागा एकदो मेलिदा तिगुणतं सिद्धं । अथवा दुगुणं सादिरेयमिदि वत्तव्यं । सुहुमहिदीए णिहालिन्जमाणे गुणहाणिअमेत्तविसेसाणं हीणत्तदंसणादो । एवमुवरि वि किंचूणतं जाणिय जोजेयव्वं । एवं गंतूण पढमगुणहाणि रूवाहियजहण्णपरित्तासंखेजमेत्तखंडाणि काऊण तत्थ हेहिमदोखंडाणि मोत्तणुवरिमसचखंडाणि संसगुणहाणीओ च प्रोसरिय बधमाणे गच्छमाणदव्वं तदणंतरहेहिमसंचयं च पेक्खिय असंखेजगुणवड्डीए आदी जादा । एत्तो प्पहुडि उवरि सव्वत्थ असंखेजदेने पर जो लब्ध आवे उतना देखा जाता है। इसप्रकार एक कम दो कम आदि के क्रमसे जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदप्रमाण गुणहानियोंके हीन होनेतक संख्यातभागवृद्धिसे जाकर जहाँ एक गुणहानियामप्रमाण स्थितिबन्ध हो जाता है वहाँ व्ययको प्राप्त हुआ द्रव्य और अनन्तर नीचेके समयमें संचित हुआ द्रव्य इन दोनोंकी अपेक्षा वर्तमानकालीन संचय दूना हो जाता है। परन्तु पुराने सत्त्वकी अपेक्षा उस समय भी असंख्यातभागवृद्धि ही है। फिर प्रथम गुणहानिके तीन खण्ड करके उनमेंसे नीचेके दो खण्ड छोड़कर ऊपरके एक खंड और शेष गुणहानियोंको घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके तिगुना संचय हो जाता है । यथा-प्रथमगुणहानिमें जो उत्तरोत्तर निषेकोंकी विशेष हानि होती गई है इसकी गिनती नहीं करके सब निषेक समान हैं ऐसा मानकर उनके समान तीन खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डको निकालकर अलग स्थापित कर दे। फिर द्वितीयादि गुणहानियोंका द्रव्य भी उतना ही होता है इसलिये उसीप्रकार तीन भाग करके उनमेंसे तीसरे भागको ग्रहण करके पूर्व में निकालकर पृथक स्थापित किये गये तीसरे भागमें मिला देनेपर वे भी दो बटे तीन भागप्रमाण हो इसप्रकार इन दो बटे तीन भागोंको एकत्रित करनेपर तिगुने हो जाते हैं इसलिये इस समय तिगुना संचय होता है यह बात सिद्ध हुई। अथवा साधिक दुगुना संचय होता है ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि सूहमदृष्टिसे अवलोकन करने पर गुणहानिके अर्धभागप्रमाण विशेषोंकी हानि देखी जाती है। इसीप्रकार आगे भी कुछ कमको जानकर उसकी योजना करते जाना चाहिये। इस प्रकार आगे जाकर प्रथम गुणहानिके एक अधिक जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण खण्ड करके उनसे नीचेके दो खण्डोंके सिवा ऊपरके सब खण्ड और शेष गुणहानियोंको घटाकर बन्ध करने पर व्ययको प्राप्त हुअा द्रव्य और अनन्तर नीचेके समयमें सञ्चित हुआ द्रव्य इन दोनोंकी अपेक्षा
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ गुणवड्डी चेव होऊण गच्छइ त्ति घेत्तव्यं ।
६७७. संपहि चिराणसंचयं पेक्खियूणासंखेजभागवडीए अंतो कम्हि उद्देसे होइ त्ति भणिदे जहण्णपरित्तासंखेजेणोकड्डुक्कड्डणभागहारं खंडेयूण लद्धपमाणेण पढमगुणहाणि खंडिय तत्थ हेडिमदोखंडाणि मोत्तृणुवरिमासेसखंडाणि सेसगुणहाणीओ च हाइयूण बंधमाणस्स असंखेज्जभागवड्डीए चरिमवियप्पो होइ । तं कथमिदि भणिदे एयं पंचिंदियसमयपबद्ध ठविय पुणो एदस्स दिवडगुणहाणिभागहारं हेहदो ठविय उवरि जहण्णपरित्तासंखेजेणोवहिदोकडडुक्कड्डणभागहारे गुणयारसरूवेण ठविदे संपहियसंचओ आगच्छइ । चिराणसंचए पुण इच्छिज्जमाणे एयं पंचिंदियसमयपवद्धं ठविय पुणो एदस्स ओकड्डुक्कड्डणभागहारोवट्टिददिवगुणहाणिभागहारो ठवेयव्यो । एवं कदे चिराणसंचओ अधापवत्तकरणपढमसमयपडिबद्धो आगच्छइ । तेणासंखेजभागवडी एत्थ परिसमप्पइ त्ति पत्थि संदेहो ।
६७८. संखेजभागवडिपारंभो कत्थ होइ त्ति पुच्छिदे उक्कस्ससंखेजोवट्टिदओकड्डुक्कडुगभागहारपमाणेग पढमगुणहाणि खंडिय तत्थ हेहिमदोखंडं मोत्तूण उपरिमसव्वखंडाणि सेसगुणहाणीओ ·च हाइयूण वधमाणे संखेजभागवड्डीए आदी होइ । एत्थोवट्टणं पुव्वं व काऊण सिस्साणं पबोहो कायन्यो । एत्तो प्पहुडि संखेज्जभागवड्डी चेव होऊण गच्छदि जाव ओकड्डुकडणभागहारस्स एगरूवं भागहारत्तेण
असंख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ होता है। अब इससे आगे सर्वत्र असंख्यातगुणवृद्धिका ही क्रम चालू रहता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये।
६७७. अब पुराने सञ्चयकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धिका अन्त किस स्थानमें होता है यह बतलाते हैं--जघन्य परीतासंख्यातसे अपकर्षण-उपकर्षण भागहारको भाजित करके जो लब्ध आवे उतने प्रथम गुणहानिके खण्ड करके उनमेंसे नीचेके दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके बाकीके सब खण्ड और शेष गुणहानियोंको घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके असंख्यातभागवृद्धिका अन्तिम विकल्प होता है। यह कैसे होता है अब इसी बातको बतलाते हैं-पंचेन्द्रियके एक समयप्रबद्धको स्थापित करके नीचे इसके डेढ़ गुणहानिप्रमाण भागहारको स्थापित करनेपर और ऊपर जघन्य परीतासंख्यातसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारको गुणकाररूपपर स्थापित करनेसे वर्तमानकालीन संचय प्राप्त होता है। किन्तु पुराने सञ्चयको लानेकी इच्छासे पंचेन्द्रियके एक समयप्रबद्धको स्थापित करके फिर इसका अपकर्षण-उत्कर्षणसे भाजित डेढ़ गुणहानिप्रमाण भागहार स्थापित करे। ऐसा करनेसे अधःप्रवृत्तकरणका प्रथम समयसम्बन्धी पुराना संचय प्राप्त होता है । अतः यहाँ असंख्यातभागवृद्धि समाप्त होती है इसमें जरा भी सन्देह नहीं है।
६६७८. अब संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ कहाँपर होता है यह बतलाते हैं-प्रथम गुणहानिके उत्कृष्ट संख्यातसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारप्रमाण खण्ड करके उनमेंसे नीचेके दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके सब खण्ड और शेष गुणहानियोंको घटाकर बन्ध करनेपर संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होता है। यहाँपर पहलेके समान अपवर्तन करके शिष्योंको ज्ञान कराना चाहिये । अब इससे आगे अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका एक अङ्क भागहाररूपसे प्राप्त होनेतक
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
४१३ चेट्टइ त्ति । पुणो तकाले पढमगुणहाणिमोकडडुक्कडणभागहारमेत्तखंडाणि काऊण तत्थ हेटिमदोखंडाणि मोत्तृणुवरिमसव्वखंडेहि सह सेसासेसगुणहाणीओ परिहाविय बंधमाणे संखेज्जगुणवड्डीए आदी जादा। तदो ओकड्डुक्कड्डणभागहारदुगुणमेत्तं पढमगुणहाणिं खंडिय तत्थ हेडिमदोखंडाणि मोत्तूण उवरिमासेसखंडेहि सह सेसगुणहाणीओ ओसरिय बधमाणे चिराणसंचएण सह तिगुणं संचओ होइ । एवं तिगुणचउग्गुणादिकमेण गंतूणुक्कस्ससंखेज्जगुणोकड्डुक्कड्डणभागहारमेत्ताणि पढमगुणहाणिखंडाणि काऊण तत्थ हेहिमदोखंडाणि परिवज्जिय उवरिमासेसखंडाणि सेसगुणहाणीओ च द्विदिपरिहाणिं करिय बंधमाणे असंखेजगुणवड्डीए आदी जादा । एत्तो पाए उवरि सव्वद्धा संखेज्जगुणवड्डीए चेव गच्छइ। एवं डिदिव धसहस्साणि बहूणि गंतूण तदो उवरिमसंचयं गहिदमिच्छिय ओवट्टणे ठविज्जमाणे एयं पंचिंदियसमयपबद्धं ठविय पुणो तम्मि असंखेज्जवस्सायामेण तकालियहिदिवधेण भागे हिदे एयगोवुच्छपमाणमागच्छइ । पुणो वि अंतोमुहुत्तकालं तं चेव हिदि बधइ त्ति अंतोमुहुत्तेण तम्मि ओवट्टिदे समयपबद्धभागहारो होइ । एवमोवट्टिय इमो संचओ पुध हवेयव्यो ।
६७६. संपहि अण्णेगं हिदिबंधं बंधमाणो तदणंतरहेहिमबंधादो असंखेजगुणहीणं हेढदो ओसरइ । एत्थोवट्टणं पुव्वं व कायव्वं । णवरि पुबिल्लसंचयादो एस संचओ असंखेज्जगुणो होइ । इमं पि संचयदव्वं पुध हवेयव्वं । एवमसंखेज्ज
संख्यातभागवृद्धिका ही क्रम चालू रहता है। फिर उस समय प्रथम गुणहानिके अपकर्षण-उत्कषण भागहारप्रमाण खण्ड करके उनमेंसे नीचेके दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके सब खण्डोंके साथ बाकीकी सब गुणहानियोंको घटाकर बन्ध करनेपर संख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ होता है। फिर प्रथम गुणहानिके अपकर्षण-उत्कर्षणसे दूने खण्ड करके उनमें से नीचे के दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके सब खण्डोंके साथ शेष गुणहानियोंको घटाकर बन्ध करनेपर पुराने सत्त्वके साथ तिगुना संचय होता है । इस प्रकार प्रथम गुणहानिके तिगुने और चौगुने आदिके क्रमसे आगे जाकर अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे उत्कृष्ट संख्यातगुणे खण्ड करके उनमेंसे नीचेके दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके सब खण्ड
और शेष गुणहानिप्रमाण स्थितिको घटाकर बन्ध करनेपर असंख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ होता है। अब इससे आगे सर्वदा संख्यातगुणवृद्धिका की क्रम चालू रहता है। इस प्रकार हजारों स्थितिखण्डोंको बिताकर इससे ऊपरके सञ्चयको लानेकी इच्छासे भारहारके स्थापित करनेपर पंचेन्द्रियके एक समप्रबद्धको स्थापित करके फिर उसमें तत्काल बँधनेवाले असंख्यात बर्षप्रमाण स्थितिबन्धका भाग देनेपर एक गोपुच्छाका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर भी अन्तर्मुहूतकाल तक उसी स्थितिका बन्ध होता है, इसलिये उसमें अन्तर्मुहूर्तका भाग देनेपर जो लब्ध आवे वह समयप्रबद्धका भागहार होता है। इस प्रकार अपवर्तित करके इस सञ्चयको अलग स्थापित करना चाहिये।
६६७६. अब एक अन्य स्थितिबन्धको बाँधता हुआ इसके अनन्तरवर्ती नीचेके बन्धसे असंख्यातगुणे हीन नीचे जाकर बाँधता है । यहाँपर भी पहलेके समान अपवर्तन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्वके संचयसे यह संचय असंख्यातगुणा होता है । इस सञ्चय द्रव्यको
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जय धवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
वस्सायामाणि होऊण संखेज्जहिदिबंधसहस्साणि गच्छति जाव संखेज्जव सहिदिबंधो जादो ति । कम्हि पुणो संखेज्जवस्सियो द्विदिबंधो होइ त्ति भणिदे अंतरकरणसमत्तिपढमसमए होइ ।
४१४
S
$ ६८०, संपहि एत्थतणसंचयं गहिदुमिच्छामो त्ति ओवट्टणे उविज्जमाणे एवं पंचिदियसमयपबद्धं ठविय पुणो एदस्स संखेज्जावलियमेत्तं संपहियद्विदिव घायामं भागहारं ठविय भागे हिदे एयगोवुच्छमागच्छइ । एवमं तोमुहुत्तं चैव हिदिं बधइ तितोमुहुतेण तम्मि भागहारे ओट्टिदे समयपबद्ध भागहारो संखेज्जरूवमेत्तो होइ । एदं पि दव्वं पुध वेयव्वं । पुणो अण्णेगं द्विदिबधं बधमाणो पुव्विल्लब' धादो संखेज्जगुणहीण दो ओसरइ । एदस्स वि पुत्रओवट्टणं कायन्त्रं । णवरि पुव्विल्लसंचयादो इमो संखेज्जगुणो । एसो वि पुध ठवेयव्वो । एवमेदेण कमेण संखेज्जगुणहीणो बंध होऊण गच्छइ जाव बत्तीसवरसमेत्तो द्विदिवधो जादोति । सो कम्हि होइ ति पुच्छिदे चरिमसमय पुरिसवेदव धयम्मि होइ । तत्तो पहुडि हिदिबधो विसेसहीणो होऊण गच्छइ । एवं संखेज्जे हिदिबंधे ओसारिय णेदव्वं जाव कोहसंजलणस्स संखेज्जं तो मुहुतमहिय अवस्समेतद्विदिबंधो त्ति । तत्तो उवरि संचयं ण लहामो । किं कारणं १ एतो उवरिमडिदिव धाणमहियारद्विदीदो हेट्ठा चेव पउत्तिदंसणादो |
1
भी पृथक् स्थापित करना चाहिये । इस प्रकार संख्यात वर्षका स्थितिबन्ध प्राप्त होनेतक असंख्यात वर्षके आयामवाले संख्यात हजार स्थितिबन्ध होते हैं ।
शंका संख्यात वर्षका स्थितिबन्ध किस स्थान में होता है ?
समाधान अन्तरकरणकी समाप्तिके बाद प्रथम समय में होता है ।
९६८०. अब यहांका संचय लाना इष्ट है इसलिये इसके भागहारको बतलाते हैंपंचेन्द्रियके एक समयबद्धको स्थापित करके फिर इसका वर्तमान स्थितिबन्धके आयामवाला संख्यात आवलिप्रमाण भागहार स्थापित करके भाग देने पर एक गोपुच्छाका प्रमाण प्राप्त होता है । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त तक ही स्थिति बाँधता है इसलिये इस भागहार में अन्तर्मुहूर्तका भाग देने पर समयबद्धका भागहार संख्यात अंकप्रमाण प्राप्त होता है । इस द्रव्यकों भी पृथक् स्थापित करे | फिर एक दूसरे स्थितिबन्धको बाँधता हुआ पूर्वोक्त बन्धसे संख्यातगुणा हीन नीचे जाकर है । इसे भी पहले के समान भाजित करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि पिछले सञ्चयसे यह सञ्चय संख्यातगुणा होता है । इसे भी पृथक् स्थापित करना चाहिये । इस प्रकार बत्तीस वर्षप्रमाण स्थितिबन्धके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर बन्ध संख्यातगुणा हीन होता जाता है । शंका-बत्तीस वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध किस स्थान में जाकर होता है ? समाधान - पुरुषवेदके बन्धके अन्तिम समय में होता है ।
इससे आगे स्थितिबन्ध उत्तरोत्तर विशेष हीन होता जाता है। इस प्रकार क्रोधसंज्वलन के संख्यात अन्तर्मुहूर्तं अधिक आठ वर्षप्रमाण स्थितिबन्धके प्राप्त होने तक संख्यात स्थितिबन्ध हो लेते हैं । अब इससे आगे संचय नहीं प्राप्त होता, क्योंकि इससे ऊपरके स्थितिबन्ध अधिकृत
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गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
४१५ एवमुवरि चढिय अंतोमुहुत्तद्धमच्छिय तदो अद्धाक्खएण परिवदमाणगो सुहुमसांपराइयद्ध वोलिय अणियहिउवसामगो जादो । संयहि एवमोदरमाणस्स कम्हि पदेसे अहियारहिदिसंचयं लहइ ति पुच्छिदे जम्हि उद्देसे चढमाणस्स संचयवोच्छेदो जादो तमुद्देसं थोवंतरेण ण पावेइ ति ओयरमाणस्स संखेनंतोमुहुत्तब्भहियअढवस्समेत्तहिदिबधो जायदे । तत्तो पहुडि अहियारगोवुच्छा अधाणिसेयसंचयं लहइ । एवं णेदव्वं जाव असंखेज्जवस्समेत्तो द्विदिबधो जादो त्ति । किंविहो सो असंखेज्जवस्सिओ हिदिबंधो ति भणिदे तप्पाओग्गसंखेज्जरूवाणि ओकडडुकड्डणभागहारं च अण्णोण्णगुणं करिय णिप्पाइदो जो रासी तत्तियमेत्तो जाव एह र ताव संचयं लहामो । एत्तो उपरि संचयं ण लहामो, ओकडडुक्कड्डणाहिं गच्छमाणदव्वस्स हिदिपरिहाणिसंचयं पेक्खियूण बहुत्तुवलंभादो । एवमेत्तियमेत्तकालसंचयं काऊण तदो अणियट्टिअपुव्व-अधापवत्तकमेण हेडा परिवदिय पुणो वि अंतोमुहुत्तेण कसायउवसामणाए अब्भुहिदो। एदिस्से वि उवसमसेढीए संचयविही पुव्वं च परूवेयव्वा । णवरि चढमाणस्स जाधे संखेज्जरूवगुणिदोकड्डुक्कड्डणभागहारमेत्तहिदिबधो जादो तदो पहुडि संचयं लहामो, हेट्टा आयादो वयस्स बहुत्तोवलंभादो। सेसविहीए गस्थि स्थितिसे नीचे ही प्राप्त होते हैं। इस प्रकार ऊपर चढ़कर और अन्तर्मुहूर्त कालतक वहाँ रहकर फिर उपशान्तमोहका काल पूरा हो जानेके कारण वहाँसे गिरकर और सूक्ष्मसाम्परायिकके कालको बिताकर अनिवृत्तिउपशामक हो जाता है।
शंका-इसप्रकार उतरनेवाले इस जीवके विवक्षित स्थितिका सञ्चय किस स्थानमें प्राप्त होता है ?
समाधान-जिस स्थानमें चढ़नेवाले जीवके सञ्चयकी व्युच्छित्ति होती है उस स्थानको थोड़े अन्तरसे नहीं प्राप्त करता, इसलिए उतरनेवाले जीवके जब संख्यात अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तब वहाँसे लेकर विवक्षित गोपुच्छा यथानिषेक सञ्चयको प्राप्त होती है।
इसप्रकार असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्धके होने तक जानना चाहिये। शंका-वह असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध किस प्रकारका होता है ?
समाधान-तद्योग्य संख्यात अंकोंको और अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारको परस्परमें गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हुई उतना इतने दूर जाने तक यह संचय प्राप्त होता है, इससे ऊपर सञ्चय नहीं प्राप्त होता, क्योंकि अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा व्ययको प्राप्त होनेवाला द्रव्य स्थितिपरिहानिसे होनेवाले सञ्चयकी अपेक्षा बहुत पाया जाता है।
इस प्रकार इतने कालतक सञ्चय करके फिर अनिवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अधःप्रकरणके क्रमसे नीचे गिरकर फिर भी अन्तर्मुहूर्त बाद कषायोंका उपशम करनेके लिए उद्यत हुआ। इसके भी उपशमश्रेणिमें सञ्चयका क्रम पहलेके समान कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि चढ़नेवाले जीवके जब संख्यात अङ्कसे गुणित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तब वहाँसे सञ्चय प्राप्त होता है, क्योंकि नीचे आयसे व्यय बहुत पाया जाता है । इसके अतिरिक्त
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ णाणत्तं । एवमुवरि चढिय हेहा ओदरदूर्णतोमुहुत्तेण मिच्छत्तं गंतूण मणुस्साउअं बघिय कमेण कालं काऊण मणुसेसुववण्णो अंतोमुहुत्तब्भहियअहवस्साणमुवरि सम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवज्जिय सव्वलहुँ कसायउवसामणाए अब्भुहिदो । एत्थ वि संचयविही पुव्वं व परूवेयव्वा । णवरि चढमाणो जाव अप्पणो चरिमहिदिबंधो ताव संचयं लहदि त्ति वत्तव्वं । ओदरमाणो वि चढमाणस्स जम्मि चत्तारिमासमेत्तो चरिमहिदिबधो जादो तमुद्देसमंतोमुहुत्तेण पावेदि ति अट्टमासमेत्तहिदिब धमाढवेइ ताधे पुव्विल्लचरिमहिदिब धसंचयस्स अद्धमेत्तसंचयमहियारहिदी लहइ । एत्तो पहुडि पुवविहाणेण संचयं करेमाणो हेढा ओयरिय अंतोमुहुत्तेण पुणो वि उवसमसेढिमारूढो । एत्थ वि पुर्व व संचयं कादूगोदरमाणस्स अणियट्टिअद्धाए अब्भंतरे जाधे तप्पाओग्गसंखेज्जरूवगुणिदोकडडुक्कडणभागहारमेत्तो हिदिव'धो जादो ताधे तदित्थहिदि बंधमाणेण अहियारगोवुच्छाए उवरि पढमणिसेयं कादणुवरि पदेसरयणा कदा। एदस्सुवरि असंखेजगुणमण्णेगं हिदिबधं बधमाणस्स संचयं ण लहामो, अहियारहिदीए आबाहाब्भंतरे पवेसियत्तादो। एसो च अधाणिसेयउक्कस्ससंचओ पुव्वमुवसमसेटिं चढमाणस्सोदरमाणस्स वा तम्मि भवे आबाहाभंतरमपविसिय आगदो संपहि चेव पविहो। कथमेदं परिच्छिज्जदे ? चढमाणोदरमाणअपुवकरण-अणियट्टि
शेष विधिमें कोई भेद नहीं है। इस प्रकार ऊपर चढ़कर और नीचे उतरकर अन्तर्मुहूर्तमें यह जीव मिथ्यात्वमें गया और मनुष्यायुको बाँधकर क्रमसे मरा और मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षके बाद सम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त करके अतिशीघ्र कषायोंका उपशम करनेके लिये उद्यत हुआ। यहाँपर भी सञ्चयविधिका कथन पहलेके समान करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि चढ़नेवाला जीव अपने अन्तिम स्थितिबन्धके प्राप्त होनेतक सञ्चय करता रहता है यहाँ इतना कथन करना चाहिए। उतरनेवाला जीव भी चढ़नेवाले जीवके जिस स्थानमें चार माह प्रमाण अन्तिम स्थितिबन्ध होता है उस स्थानको अन्तर्मुहूर्तमें प्राप्त करता है, इसलिये आठ माह प्रमाण स्थितिबन्धका आरम्भ करता है। उस समय पूर्वोक्त अन्तिम स्थितिबन्धके सञ्चयका आधा संचय विवक्षित स्थितिमें प्राप्त होता है। अब यहाँसे आगे पूर्वविधिसे सञ्चय करता हुआ नीचे उतरकर अन्तर्मुहूर्त बाद फिर भी उपशमश्रेणिपर चढ़ता है। यहाँ पर भी पहलेके समान सञ्चय करके उतरनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरण कालके भीतर जब तद्योग्य संख्यात अङ्कोंसे गुणित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तब उस स्थितिको बाँधनेवाला जीव अधिकृत गोपुच्छामें प्रथम निषेकका निक्षेप करके प्रदेशरचना करता है। फिर इसके ऊपर असंख्यातगुणे अन्य स्थितिबन्धको बाँधनेवाले जीवके अधिकृत स्थितिमें सञ्चय नहीं प्राप्त होता, क्योंकि तन्न विवक्षित स्थिति अबाधाकालके भीतर पाई जाती है। यह यथानिषेकका उत्कृष्ट संचय जो जीव पहले उपशमश्रेणिपर चढ़ा था और उतरा था उसके उसी भवमें आबाधाके भीतर नहीं प्रविष्ट होकर प्राप्त हुआ था किन्तु अब प्रविष्ट हुआ है।
शंका-यह किस प्रमाण से जाना? समाधान—चढ़ते समयके और उतरते समयके अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
४१७ करण-सुहुमसांपराइय-उवसंतकसायंकालसव्वसमासादो वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सवावारेणावहिदकालादो च मोहणीयस्स अणियट्टिजहणिया आवाहा संखेज्जगुणा, तस्सेव मोहणीयस्स अपुव्वकरणम्मि उक्कस्सिया आबाहा संखेज्जगुणा, अणियट्टिम्मि मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो त्ति उवसमसेढीए अप्पाबहुअं भणिहिदि । एदेण णवदि जहा चढमाणअपुव्वाबाहादो अंतोमुहुत्तब्भहियं होऊण द्विदमहियारगोवुच्छं पुव्वं चढमाणोदरमाणाणमाबाहाम्भंतरमपविसियूणागमणं लहइ त्ति । एदं च सव्वं मणेणावहारिय विदियाए उवसामणाए आबाहा जम्हि पुण्णा सा हिंदी आदिहा ति सुत्तयारेण परूविदं ।
६६८१. एत्य विदियाए ति उत्ते विदियभवग्गहणसंबंधिणो दो वि कसाउवसामणवारा घेप्पंति, तेसिं जाइदुवारेणेयत्तावलंबणादो सुत्तस्स अंतदीवयभावेण पयट्टत्तादो वा। संपहि पुव्वं परूविदासंखेज्जवस्सहिदिवधियस्स पढमणिसेयं लद्धणाबाहान्भंतरे पविसिय अणियट्टिअद्धाए सखेज्जे भागे अपुवकरणं च वोलेयूण पुणो कमेण पमत्तापमत्तट्ठाणे अहियारगोवुच्छाए उदयमागच्छमाणे कोहसजलणस्स उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तय होइ । एदं च हियए करिय तम्हि उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयमिदि वुत्तं । तम्मि हिदिविसेसे उदयपत्ते पयदुक्कस्ससामित्तं होइ ति
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साम्पराय और उपशान्तमोह इन सब कालोंका जितना जोड़ हो उससे तथा वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रमत्त और अप्रमत्तके हजारों परिवर्तनोंमें लगनेवाले अवस्थितकालसे मोहनीयकमंकी अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी जघन्य अबाधा संख्यातगुणी होती है। इससे उसी मोहनीयकी अपूर्वकरणमें उत्कृष्ट अबाधा संख्यातगुणी होती है। इससे अनिवृत्तिकरणमें मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है। इसप्रकार आगे चलकर उपशमश्रेणिमें अल्पबहुत्व कहेंगे। इससे जाना जाता है कि जो अधिकृत गोपुच्छा चढ़ते समय प्राप्त हुए अपूर्वकरणके अबाधाकालसे अन्तर्मुहूर्त अधिक होकर स्थित है वह पूर्वमें जो उपशमश्रेणिपर चढ़ा और उतरा था उसके उस समय प्राप्त हुए अबाधाकालके भीतर नहीं प्रविष्ट होकर प्राप्त हीती है। इस सब व्यवस्थाको मनमें निश्चित करके 'विदियाए उवसामणाए अबाहा जम्हि संपुण्णा सा द्विदी आदिवा' ऐसा सूत्रकारने कहा है।
६६८१. यहाँ सुत्रमें जो 'विदियाए उवसामणाए' ऐसा कहा है सो इससे दूसरे भवसम्बन्धी कषायोंके उपशमानेके दोनों ही बार ग्रहण करने चाहिये, क्योंकि जातिकी अपेक्षा ये दोनों एक हैं, इसलिये एक वचनरूपसे इनका कथन किया है। या यह सूत्र अन्तदीपकभावसे प्रवृत्त हुआ है, इसलिये सूत्रमें एकवचनका निर्देश किया है। अब पहले जो असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध कहा है उसके प्रथम निषेकको प्राप्त कराके और अबाधाके भीतर प्रवेश कराके अनिवृत्तिकरणके संख्यात भागोंको और अपूर्वकरणको बिताकर फिर क्रमसे जब अप्रमत्तसंयत और प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें अधिकृत गोपुच्छा उदयको प्राप्त होती है तब क्रोधसंज्वलनका यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य उत्कृष्ट होता है। इसप्रकार इस बातको हृदयमें करके सूत्र में 'तम्हि उक्कस्सयमधाणिसेयट्टिदिपत्तयं' यह वचन कहा है। उस स्थितिविशेषके उदयको प्राप्त होनेपर प्रकृत उत्कृष्ट
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ भावत्थो।
६६८२. सपहि एत्थ लद्धपमाणाणुगमे भण्णमाणे पढमवारं चढमाणेण लद्धं सव्वसंचयं ठविय पुणो चउहि रूवेहि तम्हि गुणिदे एयसमयपबद्धस्स संखेजदिभागो आगच्छइ, सखेज्जवस्सियहिदिब धसंचयस्सेव पाहणियादो । एवं कोहसंजलणस्स पयदुक्कस्ससामित्तं परूविय संपहि एसो चेव णिसेयडिदिपत्तयस्स वि सामिओ होइ त्ति जाणावणमुत्तरमुत्तमोइण्णं- णिसेयहिदिपत्तयं च तम्हि चेव ।
६८३. तम्हि चेव हिदिविसेसे पुव्वणिरुद्ध णिसेयहिदिपत्तय पि उक्कस्सं होइ, दोण्हमेदेसि हिदिपत्तयाणं सामित्तं पडि विसेसादसणादो। णवरि दव्वविसेसो जाणेयव्यो, तत्तो एदस्स ओकड्डुक्कड्डणाहि गंतूण पुणो वि तत्थेव पदिददव्वमेत्तेणाहियभावोवलंभादो।
® उक्कस्सयमुदयहिदिपत्तयं कस्स ?
६८४. सुगमं । स्वामित्व होता है यह इसका भावार्थ है ।
६६८२. अब यहाँ लब्धप्रमाणका विचार करते हैं पहली बार उपशमश्रेणिपर चढ़ने और उतरनेसे जो संचय प्राप्त हो उस सबको स्थापित करे। फिर उसे चारसे गुणा करनेपर एक समयप्रबद्धका संख्यातवां भाग प्राप्त होता है, क्योंकि यहाँ पर संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्धका प्राप्त हुआ संचय ही प्रधान है। इसप्रकार क्रोधसंज्वलनके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करके अब यही निषेकस्थितिप्राप्तका भी स्वामी होता है यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र आया है
* उत्कृष्ट निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका भी वही स्वामी है ।
६६८३. जो स्थिति यथानिषेकके उत्कृष्ट स्वामित्वके समय विवक्षित थी उसी स्थितिविशेषमें निषेकस्थितिप्राप्त भी उत्कृष्ट होता है, क्योंकि इन दोनों ही स्थितिप्राप्तोंमें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं देखा जाता। किन्तु द्रव्यविशेषको जान लेना चाहिये, क्योंकि यथानिषेकस्थितिमेंसे अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा जो द्रव्य व्ययको प्राप्त हो जाता है वह इसमें पुनः जहाँका तहाँ आ जाता है इसलिये यथानिषेककी अपेक्षा इसमें इतना द्रव्य अधिक पाया जाता है ।
विशेषार्थ-पिछले सूत्रमें यथानिषेकस्थितिप्राप्तका उत्कृष्ट स्वामी बतला आये हैं। उसीप्रकार निषेक स्थितिप्राप्तका भी उत्कृष्ट स्वामी जान लेना चाहिये, इसकी अपेक्षा इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है यह इस सूत्रका भाव है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यथानिषेकस्थितिप्राप्तका जितना उत्कृष्ट द्रव्य होता है उससे निषेकस्थितिप्राप्तका उत्कृष्ट द्रव्य अधिक होता है, क्योंकि यथानिषेकमें अपकर्षण उत्कर्षणके द्वारा जिस द्रव्यकी हानि हो जाती है इसमें यह द्रव्य पुनः जहाँका तहाँ अा जाता है।
* उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी कौन है ? 5६८४. यह सत्र सुगम है।
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
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४१९ * चरिमसमयकोहवेदयस्स ।
६६८५. एत्थ गुणिदकम्मंसियविसेसणं फलाभावादो ण कदं। कुदो फलाभावो चे १ कोहसंजलणपोराणपढमहिदि सव्वं गालिय पुणो किट्टिवेदगेण
ओकड्डियूणंतरमंतरे गुणसेढिआयारेण णिसित्तपढमहिदीए समयाहियावलियचरिमणिसेयं घेत्तूण पयदसामित्तविहाणे गुणिदकम्मंसियत्तकयफलविसेसाणुवलंभादो। खवगविसेसणमेत्थाणुत्तसिद्धमिदि ण कदं । एवं कोहसंजलणस्स सव्वेसि हिदिपत्तयाणमुक्कस्ससामित्तं परूविय सेससंजलणाणं पि सव्वपदाणमेदेण समप्पणहमिदमाह
® एवं माण-माया-लोहाणं ।।
६८६. जहा कोहसंजलणस्स चउण्हं हिदिपत्तयाणं सामित्तविहाणं कयं एवं माण-माया-लोहसंजलणाणं पि कायव्वं, विसेसाभावादो। गवरि जहाणिसेय-णिसेयहिदिपत्तयाणमुक्कस्सदव्यसंचओ कोहसंजलणस्स बंधे वोच्छिण्णे वि लब्भइ जाव सगबधवोच्छेदसमओ ति। अण्णं च लोभसंजलणस्स उक्कस्सयमुदयहिदिपत्तयं गुणिदकम्मंसियस्सेव होइ, एत्तिओ चेव विसेसो।।
* जो जीव अपने अन्तिम समयमें क्रोधका वेदन कर रहा है वह उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है ।
६६८५. इस सत्रमें विशेष फल न देखकर गुणितकांश यह विशेषण नहीं दिया है। शंका-इस विशेषणका विशेष फल क्यों नहीं है ?
समाधान—यह जीव क्षपणाके समय क्रोधसंज्वलनकी पुरानी प्रथम स्थितिको पूरीकी पूरी गला देता है फिर कृष्टिका वेदन करते समय अन्तरकालके भीतर अपकर्षण द्वारा गुणश्रेणिरूपसे प्रथम स्थितिकी रचना करता है । तब एक समय अधिक एक आवलिके अन्तिम निषेककी अपेक्षा प्रकृत स्वामित्वका विधान किया जाता है, अतः इसमें गुणितकांशकृत कोई विशेष फल नहीं पाया जाता है।
__सूत्रमें चापक विशेषणका बिना कहे ही ग्रहण हो जाता है, इसलिये उसे सूत्रमें नहीं दिया है। इसप्रकार क्रोधसंज्वलनके सभी स्थितिप्राप्तोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करके शेष संज्वलनों के सभी पदोंका उत्कृष्ट स्वामित्व भी इसीके समान है यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* इसी प्रकार मान, माया और लोभसंज्वलनके सब पदोंका उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिए।
६६८६. जिसप्रकार क्रोधसंज्वलन के चारों स्थितिप्राप्तोंके स्वामित्वका कथन किया है उसी प्रकार मान, माया और लोभ संज्वलनोंका की कथन करना चाहिए, क्योंकि इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उक्त प्रकृतियोंकी अपेक्षा यथानिषेकस्थितिप्राप्त और निषेकस्थितिप्रातके उत्कृष्ट द्रव्यका संचय क्रोधसंज्वलनकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर भी अपनी अपनी बन्धव्युच्छित्तिके समय तक होता रहता है। तथा दूसरी विशेषता यह है कि लोभ संज्वलनका उदयस्थितिप्राप्त उत्कृष्ट द्रव्य गुणितकमांशके ही होता है। बस इतनी ही विशेषता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ॐ पुरिसवेदस्स चत्तारि वि डिदिपत्तयाणि कोहसंजलणभंगो।
६६८७. पुरिसवेदस्स जहावसरपत्ताणि चत्तारि वि हिदिपत्तयाणि कस्से ति मासंकिय कोहसंजलणभंगो ति अप्पणा कया, विसेसाभोवादो। संपहि उदयहिदिपत्तयसामित्तगयविसेसपदुप्पायणहमुत्तरमुत्तारंभो
® णवरि उदयहिदिपत्तयं चरिमसमयपुरिसवेदखवयस्स गुणिदकम्मंसियस्स।
६८८. तत्थ चरिमसमयकोहवेदयस्स खवयस्स पयदुक्कस्ससामितं, एत्थ पुण चरिमसमयपुरिसवेदयस्स खवयस्से त्ति वत्तव्वं । अण्णं च गुणिदकम्मंसियत्तं पि एत्थ विसेसो, तत्थ गुणिदकम्मंसियत्तस्साणुवजोगितादो । एत्थ पुण गुणिदकम्मंसियत्तमुवजोगी चेव, अण्णहा पयडिगोवुच्छाए थूलभावाणुप्पत्तीदो ।
* इत्थिवेदस्स उक्कस्सयमग्गहिदिपत्तयं मिच्छत्तभंगो।
६८६. सुगममेदमप्पणामुत्तं ।। ® उक्कस्सयअधाणिसेयहिदिपत्तयं पिसेयहिदिपत्तयं च कस्स ?
६६०. सुगममेदं पुच्छामुत्तं । * पुरुषवेदके चारों ही स्थितिप्राप्त द्रव्योंका भंग क्रोधसंज्वलनके समान है।
६६८७. अब पुरुषवेदके चारों ही स्थितिप्राप्तोंके स्वामित्वका कथन अवसर प्राप्त है, इसलिये उनका स्वामी कौन है ऐसी आशंका करके पुरुषवेदके चारों ही स्थितिप्राप्तोंका भङ्ग क्रोधसंज्वलनके समान है यह कहा है, क्योंकि क्रोधसंज्वलनके कथनसे इस कथनमें कोई विशेषता नहीं है। अब उदयस्थितिप्राप्त स्वामित्वसम्बन्धी विशेषताका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
___ * किन्तु इतनी विशेषता है कि जो गुणितकर्माशवाला जीव पुरुषवेदका चय कर रहा है वह अपने अन्तिम समयमें उसके उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका उत्कृष्ट स्वामी है।
६६८८. क्रोधसंज्वलनका कथन करते समय क्षपक क्रोधवेदकके अन्तिम समयमें प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है किन्तु यहाँ पर क्षपक पुरुषवेदकके अन्तिम समयमें यह उत्कृष्ट स्वामित्व होता है यह कहना चाहिये। दूसरे गुणितकौशवाले जीवके इसका उत्कृष्ट स्वामित्व होता है यहाँ इतनी विशेषता और है। क्रोधसंज्वलनके उदयप्राप्तको गुणितकांश होनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वहाँ उसका उपयोग नहीं है किन्तु यहाँपर गुणितकाशपना उपयोगी ही है, अन्यथा प्रकृत गोपुच्छा स्थूल नहीं हो सकती।
* स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। $ ६८६. यह अर्पणासूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त और निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी कौन है । ६६६०. यह पृच्छासूत्र सुगम है ।
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पदेस वित्ती द्विदिचूलियाए सामित्तं
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* इत्थवेदसंजदेण
इत्थवेद- पुरिसवेदपूरिदकम्मंसिएण अंतोमुहत्तस्संतो दो वारे कसाए उवसामिदा । जाधे विदियाए उवसामणाए जणस्स द्विदिबंधस्स पढमणिसेयहिदी उदयं पत्ता ताधे अधाणिसेयादो सेियादो च उक्कस्सयं हिदिपत्तयं ।
गा० २२
S६६१. एत्थ इत्थवेदसंजदेणे ति वयणं सोदरण सामित्तविहाणडौं, परोद एण पयदुकस्ससामित्तविहाणोवायाभावादो । तेणेस्थिवेदसंजदेणेस्थिवेद-पुरिसवेदपूरिदकम्मं सिएण तो मुहुत्तस्संतो दो वारे कसाया उवसामिदा । एकवारं कसाए उवसामिय पडिवदिय पुणो वि सव्वलहुं कसाया उवसामिदा ति उत्तं होइ । ण च पुरिसवेदपूरिदकम्मं सियत्तमेत्थाणुवजेगी, स्थितकसंकमेणोव जो गित्तदंसणादो। ण णसयवेदपूरियकम्मंसिएण अइप्पसंगो, असंखेज्जवरसाउएसु अधाणिसेयसंचयकाल अंतरे तस्स पूरणोवायाभावादो | सेसं जहा कोहसंजलणस्स भणिदं तहा वत्तव्यं । णवरि असंखेज्जवसा अतिरिक्खे मस्से वा संखेज्जतोमुहुत्तम्भहियसोलसवस्सेहिं सादिरेयदसवस्तसहस्स परिहीणमधाणिसेय संचयकालमणुपालिय तत्थित्थि - पुरिसवेदे पूरेयूण तदो दसवस्ससहस्सिएसुववज्जिय कमेण मणुस्सेसु आगदी त्ति वत्तव्वं । जहा कोहसंजलणस्स उवसामयसंचयाणुगमो लद्धपमाणाणुगमो च कओ तहा एत्थ वि णिरवसेसो
* स्त्रीवेद और पुरुषवेदके कर्माशको पूरण करनेवाला जो स्त्रीवेदके उदयवाला संयत जीव अन्तर्मुहूर्त के भीतर दो बार कषायका उपशम करता है और ऐसा करते हुए जब उसके दूसरी उपशामना के समय जघन्य स्थितिबन्धकी प्रथम निषेकस्थिति उदयको प्राप्त होती है तब वह उत्कृष्ट यथानिषेक और निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है ।
1
$ ६६१. सूत्र में ' इत्थवेदसंजदेण' यह वचन स्वोदयसे स्वामित्वका कथन करनेके लिये दिया है, क्योंकि परोदयसे प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । ऐसा जो स्त्रीवेदके उदयवाला संयत जीव है वह स्त्रीवेद और पुरुषवेद के कमांशका पूरण करके अन्तर्मुहूर्तकाल के भीतर दो बार कषायों को उपशमाता है। एक बार कषायों का उपशम करके और उपशम श्रेणी से च्युत होकर फिर भी अतिशीघ्र कषायोंका उपशम करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यदि कहा जाय कि पुरुषवेदके कर्मांशका पूरण करना प्रकृत में अनुपयोगी है सो ऐसी बात भी नहीं है, क्योंकि स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा उसकी उपयोगिता देखी जाती है । और ऐसा कथन करनेसे जिसने नपुंसक वेद के कर्मांशका पूरण किया है उसके साथ अतिप्रसङ्ग भी नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें यथानिषेक संचयकाल के भीतर उसका पूरण करना नहीं बन सकता है। शेष कथन क्रोधसंज्वलनके समान करना चाहिये । किन्तु प्रकृतमें इतना विशेष कहना चाहिये कि असंख्यात वर्षकी युवाले तिर्यंच और मनुष्यों में संख्यात अन्तर्मुहूर्त और सोलह वर्ष अधिक दस हजार वर्षंसे न्यून यथानिषेक संचयकालका पालन करके तथा वहाँ स्त्रीवेद और पुरुषवेदका पूरण करके फिर वहाँसे निकलकर दस हजार बर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर क्रमसे मनुष्य हुआ । क्रोधसंज्वलनका जिस प्रकार उपशामकसम्बन्धी सञ्चयका और लब्धप्रमाणका विचार किया है
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काव्वो ।
जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
* उदयद्विदिपत्तयमुकस्सयं कस्स ?
६२. इत्थवेदस्से ति अहियार संबधो । सेसं सुगमं ।
* गुणिदकम्मंसियस्स खवयस्स चरिमसमयइत्थिवेदयस्स तस्स उक्कस्सयमुदयहिदिपत्तयं ।
उसी प्रकार वह सबका सब विचार यहाँ भी करना चाहिये ।
विशेषार्थ - यहाँ पर स्त्रीवेदके यथानिषेक स्थितिप्राप्त और निषेकस्थितिप्राप्त उत्कृष्ट द्रव्य के स्वामीका विचार करते हुए जो यह बतलाया है कि पहले स्त्रीवेद और पुरुषवेदका पुरण करके स्त्रीवेदके उदयके साथ संयत होकर दो बार कषायोंका उपशम करते हुए जब दूसरी बार उपशामना के समय जघन्य स्थितिबन्धकी प्रथम निषेकस्थिति उदयमें आती है तब प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है सो इसका आशय यह है कि सर्वप्रथम यह जीव असंख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यंच या मनुष्यों में उत्पन्न होवे । फिर वहाँ यथानिषेकका जितना संचयकाल है उसमें से संख्यात अन्तर्मुहूर्त और सोलह वर्ष अधिक एक हजार वर्षसे न्यून काल के शेष रहनेपर स्त्रीवेद और पुरुषवेदका संचय प्रारम्भ करे । और इस प्रकार वहाँकी आयु समाप्त करके दस हजार वर्षकी
युवाले देवों में उत्पन्न होवे । फिर वहाँसे च्युत होकर मनुष्य होवे । फिर गर्भसे लेकर आठ वर्ष व्यतीत होनेपर अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्वके साथ संयमको प्राप्त करे । फिर द्वितीयोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके अतिशीघ्र उपशमश्रेणिपर आरोहण करे और वहाँसे च्युत होकर दूसरी बार पुनः उपशमश्रेणिपर आरोहण करे । फिर क्रमसे च्युत होकर और मिथ्यात्वमें जाकर पुनः मनुष्यायुका बन्ध करके दूसरी बार भी मनुष्य होवे और वहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से क्रिया करे । इस प्रकार दूसरी बार उपशामना करनेवाले इस जीवके जब जघन्य स्थितिबन्धकी प्रथम निषेकस्थिति उदयमें आती है तब प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है । यहाँ स्त्रीवेदके संचयके साथ जो पुरुषवेदके सञ्जयका विधान किया है सो इसका फल यह है कि स्तिवुक संक्रमणके द्वारा पुरुषवेदका द्रव्य स्त्रीवेदमें मिल जानेसे स्त्रीवेदकी यथानिषेकस्थिति या निषेकस्थितिका उदयगत उत्कृष्ट संचय बन जाता है । यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार तो नपुंसक वेदका द्रव्य भी मिलता है पर प्रकृत में उसका विधान क्यों नहीं किया सो इसका यह समाधान है कि स्त्रीवेदकी यथानिषेकस्थिति या निषेकस्थितिका उत्कृष्ट सञ्चयकाल असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें व्यतीत होता है और वहाँ नपुंसक वेदका बन्ध नहीं होता, अतः ऐसे जीवके नपुंसकवेदका अधिक समय नहीं पाया जाता । यही कारण है कि प्रकृतमें इसका उल्लेख नहीं किया है । वैसे स्त्रीवेदका उदय रहते हुए इसका द्रव्य भी स्तिवुक संक्रमणके द्वारा स्त्रीवेद में प्राप्त होता रहता है । पर उसकी परिगणना यथानिषेक स्थिति में या निषेकस्थितिमें नहीं की जा सकती। शेष व्याख्यान संज्वलन क्रोध के समान यहाँ भी जानना चाहिये ।
* उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका उत्कृष्ट स्वामी कौन है ।
[ पदेसविहत्ती ५
६ ६६२. इस सूत्र में अधिकार के अनुसार 'इत्थवेदस्स' पदका सम्बन्ध कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है।
* जो गुणितकर्माश स्त्रीवेदी क्षपक जीव अपने उदयके अन्तिम समयमें विद्यमान है वह स्त्रीवेद के उत्कृष्ट उदयस्थितिमाप्त द्रव्यका स्वामी है ।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
६६६३. एत्थ गुणिदकम्मंसियणिद्देसो तप्पडिवक्खकम्मंसियपडिसेहमुहेण पयडिगोवुच्छाए थूलभावसंपायणफलो। खवयणिद्दे सो अक्खवयवुदासपओजणो; अण्णत्थ गुणसेढीए बहुत्ताभावादो। चरिमसमयइत्थिवेदयणि सो तदण्णपरिहारदुबारेण गुणसेढिसीसयग्गहणहो । एवंविहस्स पयदुक्कस्ससामित्तं होइ।
8 एवं णवुसयवेदस्स।
६६४. जहा इथिवेदस्स चउण्हमुक्कस्सद्विदिपत्तयाणं सामित्तपरूवणा कया एवं गqसयवेदस्स वि कायव्वा, विसेसाभावादो।
* वरि णवुसयवेदोदयस्से त्ति भाषिव्वाणि ।
६ ६६५. एत्य 'णवरि' सद्दो विसेसहसूचओ। को विसेसो ? णqसयवेदस्से त्ति आलावो, अण्णहा पयदुक्कस्ससामित्वविहाणाणुववत्तीदो ।
____ एवमुक्कस्सहिदिपत्तयसामित्तं समत्तं । ॐ जहरणाणि हिदिपत्तयाणि कायव्बाणि । ६६६६. सुगममेदं पइज्जामुत्तं ।
६६६३. यहाँ सूत्रमें जो 'गुणिदकम्मंसिय' पदका निर्देश किया है सो यह इसके विपक्षी क्षपितकाशके निषेधद्वारा प्रकृत. गोपुच्छाकी स्थूलताको प्राप्त करनेके लिए किया है। 'खवय' इस पदका निर्देश अक्षपकका निराकरण करनेके लिए किया है, क्योंकि गुणश्रेणीके सिवा अन्यत्र बहुत द्रव्य नहीं पाया जाता है। तथा सूत्रमें जो 'चरिमसमयइत्थिवेदय' इस पदका निर्देश किया है सो वह स्त्रीवेदसे भिन्न वेदके निषेधद्वारा गुणश्रेणिशीर्षके ग्रहण करनेके लिये किया है। इस तरह पूर्वोक्त विशेषणोंसे युक्त जो जीव है उसके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है।
* इसी प्रकार नपुसकवेदका उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिये ।
६ ६९४. जिस प्रकार स्त्रीवेदके चारों ही स्थितिप्राप्तोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन किया है उसी प्रकार नपुंसकवेदका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि उससे इसके कथनमें कोई विशेषता नहीं है।
* किन्तु यह उत्कृष्ट स्वामित्व नपुंसकवेदके उदयवाले जीवके कहना चाहिये । ६६६५. इस सूत्रमें जो ‘णवरि' पद है वह भी विशेष अर्थका सूचक है । शंका-वह विशेषता क्या है ?
समाधान-यह उत्कृष्ट स्वामित्व नपुंसकवेवालेके ही होता है यह विशेषता है जिसका कथन यहाँ करना चाहिये, अन्यथा प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान नहीं बन सकता है ।
इसप्रकार उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त द्रव्यके स्वामित्वका कथन समाप्त हुआ। * अब जघन्य स्थितिप्राप्त द्रव्योंका कथन करते हैं । 5 ६६६. यह प्रतिज्ञासूत्र सुगम है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सबकम्माणं पि अग्गहिदियपत्तयं जहएणयमेओ पदेसो। तं पुण अण्णदरस्स होज ।
६६६७. कथमणंतपरमाणुसमण्णिदस्स अग्गहिदिणिसेयस्स जहण्णेणेओ पदेसोवलंभइ ? ण, प्रोकड्डुक्कड्डणावसेण सुद्धं पिल्लेविजमाणस्स एयपरमाणुमेत्तावहाणे विरोहाभावादो । तं पुण अण्णदरस्स होज, विरोहाभावादो ।
६१८. एवं सव्वेसिं कम्माणमग्गहिदिपत्तयजहण्णसामित्तमेकवारेण परूविय संपहि सेसहिदिपत्तयाणं जहण्णसामित्त विहाणहमुवरिमं पब धामाढवेइ ।
* मिच्छत्तस्स णिसेयहिदिपत्तयमुदयहिदिपत्तयं च जहएणयं कस्स ?
* सभी कर्मों के अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य प्रमाण एक परमाणु है और उसका स्वामी कोई भी जीव है।
६६६७. शंका-जब कि अग्रस्थितिप्राप्त निषेक अनन्त परमाणुओंसे बनता है तब फिर उसमें जघन्यरूपसे एक परमाणु कैसे पाया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अपकर्षण-उत्कर्षणके कारण उन सबका अभाव होकर एक परमाणु मात्रका सद्भाव माननेमें कोई विरोध नहीं आता है। और इसका स्वामी कोई भी जीव हो सकता है, क्योंकि इसमें कोई विरोध नहीं है।
विशेषार्थ—यहाँ सभी कर्मों के अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामीका कथन युगपत् किया है सो इसका कारण यह है कि अपकर्षण कौर उत्कर्षणके कारण अग्रस्थितिमें एक परमाणु रहकर जब वह उदयमैं आता है तब यह जघन्य स्वामित्व होता है और यह स्थिति सभी कर्मों में घटित हो सकती है, अतः सब कर्मों के स्वामित्वको युगपत् कहनेमें कोई बाधा नहीं आती। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि अग्रस्थितिके कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण होता है यह तो ठीक है पर उनका उत्कर्षण कैसे हो सकता है, क्योंकि ऐसा नियम है कि बन्धके समय जिनकी जितनी शक्तिस्थिति पाई जाती है उनका उतना ही उत्कर्षण हो सकता है। किन्तु अग्रस्थितिके कर्म परमाणुओंमें जब एक समय मात्र भी शक्तिस्थिति नहीं पाई जाती है तब फिर उनका उत्कर्षण होना सम्भव नहीं है । सो इस शंकाका यह समाधान है कि अग्रस्थितिके कर्म परमाणुओंका अपकर्षण होकर पहले उनका नीचेकी स्थितिमें निक्षेप हो जाता है और फिर उत्कर्षण हो जाता है, इस विवक्षासे अग्रस्थितिके कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण बन जाता है। इसी कारणसे यहाँ अग्रस्थितिके परमाणुओंके अपकर्षण और उत्कर्षणका विधान किया है। अथवा बन्धके समय जिन कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं हुआ उनकी अग्रस्थितिका शक्तिस्थितिप्रमाण उत्कर्षण हो सकता है, इस अपेक्षासे भी यहाँपर उत्कर्षण घटित किया जा सकता है और इसीलिए यहाँपर उत्कर्षणका विधान किया है।
६६८. इस प्रकार सभी कर्मों के अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामित्वको एक साथ कहकर अब शेष स्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामित्वका कथन करनेके लिए आगेकी रचनाका प्रारम्भ करते हैं
* मिथ्यात्वके निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है ?
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गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं . ४२५
६६६६. सुगममेदं पुच्छासुत्तं ।
® उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयमिच्छाइहिस्स तप्पामोग्गुफास्ससंकिलिहस्स तस्स जहएणयं णिसेयहिदिपत्तयमुदयहिदिपत्तयं च ।
६७००. उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयमिच्छाइहिस्स जहण्णयं णिसेयहिदिपत्तयं होइ त्ति एत्थ सुतत्थाहिसंबधो । सो च उवसमसम्माइटी छसु आवलियामु उवसमसम्मत्तद्धाए सेसासु आसाणं गंतूण मिच्छत्तं पडिवण्णो ति घेतवं, अण्णहा उक्कस्ससंकिलेसाभावेणोदीरणाए जहण्णताणुववत्तीदो। सुत्ते असंतमेदं कथमुवलब्भदे ? ण, तप्पाओग्गुकस्ससंकिलिट्ठस्से ति विसेसणेण तदुबलद्धीदो। कथमेदस्स उवसमसम्माइडिपच्छायदपढमसमयमिच्छाइटिणा उवरिमहिदीहितो ओकड्डियउदीरिददबस्स जिसेयहिदिपत्तयत्तं, कथं च ण भवे बधसमयणिसेयमस्सियूण, तस्स पुन्वं समुक्कित्तियत्तादो । ओकड्डणाणिसेयं पि पेक्खियूण ण तस्स वि णिसेयहिदिपत्तयत्तं वोत्तु जुत्तं, तहाब्भुवगमे गुणसेढिसीसओदएण णिसेयहिदिपत्तयस्स उक्स्ससामित्तविहाणाइप्पसंगादो । तदो णेदं सामित्तविहाणं घडइ ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-को
६६६६. यह पृच्छासूत्र सुगम है।
* जो उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आकर तत्मायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे युक्त प्रथम समयवतीं मिथ्यादृष्टि जीव है वह निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी है।
६७००. उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आकर जो प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव है वह निषेकस्थितिप्राप्तका जघन्य स्वामी होता है इस प्रकार यहाँ पर सूत्रका अथके साथ सम्बन्ध करना चाहिये। किन्तु वह उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलिप्रमाण कालके शेष रहनेपर सासादनमें जाकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा परिणामों में उत्कृष्ट संक्लेशके नहीं प्राप्त होनेसे जघन्य उदीरणा नहीं बन सकती है।
शंका-इसका निर्देश सूत्रमें तो किया नहीं है अतः यह अर्थ यहाँ कैसे लिया जा सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि सूत्रमें जो 'तप्पाओग्गुक्कस्ससंकिलिट्ठस्स' यह विशेषण दिया है सो इससे उक्त अर्थका ग्रहण हो जाता है।
शंका-जो जीव उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आकर प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि है वह जिस द्रव्यका ऊपरकी स्थितिमेंसे अपकर्षण करके उंदीरणा करता है वह द्रव्य निषेकस्थितिप्राप्त कैसे हो सकता है और बन्धके समय निषेकमें जो द्रव्य प्राप्त होता है वह निषेकस्थितिप्राप्त कैसे नहीं होता, क्योंकि पहले निषेकस्थितिप्राप्तका इसी रूपसे कथन किया है। यदि कहा जाय कि अपकर्षणसम्बन्धी निषेककी अपेक्षासे उसे निषेकस्थितिप्राप्त कहा जायगा सो ऐसा कान करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर गुणश्रेणिशीर्षके उदयसे निषेकस्थितिप्राप्तके उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान करनेपर अतिप्रसंग दोष आता है, इसलिये यह जो उक्त प्रकारसे स्वामित्वका कथन किया है वह नहीं बनता है ?
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहन्ती ५ एवं भणइ १ उदीरणादव्वं सव्वमेव पयदजहण्णसामित्त विसईकयमिदि । किंतु तिस्से चैव हिदीए पुन्वमंतरमुकीरमाणीए पदेसग्गमोकड्डियृणुवरिमहिदी समयाविरोहेण पक्खित्तमत्थित्तमेणिमोकड्डिय असंखेज्जळोगपडिभागेणोदयम्मि पुणो चि तत्थेव णिसिंचमाणं पयदजहण्णसामित्त विसईकयमिदि भणामो । तदो णाणंतरुत्तदोसो ति ।
-
$ ७०१. संपहि एत्थ पयदसामित्तपडिग्गहिय दव्वपमाणाणुगमं वत्तइस्सामो । तं जहा — मिच्छत्तस्स अंतर अंतर द्विदाहियारद्विदीए अंतरकरणपारंभसमए णाणासमयपबद्धपटिबद्धणिसेए अस्सियूण तप्पा ओग्गमेयसमयपबद्धमेत्तं पदेसम्मत्थितं पुण सव्वं णिसे द्विदिपत्तयं ण होइ, किंतु हेडिमोवरिमहिदीणमुक्कड्डुणोकडणेहि तत्थ संगलिददव्वेण सह समयपबद्धपमाणं होई । पुणो केत्तियमेत्तमंतरकरणपारंभ अहियारद्विदीए णिसेयद्विदिपत्तयमिदि पुच्छिदे तदसंखेज्जदिभागप्रमाणमिदि भणामो ।
समाधान - अब इस शंकाका परिहार करते हैं - प्रकृतमें ऐसा कौन कहता है कि जितना भी उदीरणाका द्रव्य है वह सभी प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विषय है । किन्तु यहाँ हम ऐसा कहते हैं कि पहले अन्तर करनेके लिये उत्कीरणा करते समय उसी स्थितिके द्रव्यका उत्कर्षण करके ऊपरकी स्थितियों में यथाविधि निक्षेप किया गया था अब इस समय असंख्यात लोकका भाग देकर जितना लब्ध हो उतने द्रव्यका अपकर्षण करके उदयगत उसी स्थिति में फिरसे निक्षेप करनेपर वह प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विषय होता है, इसलिये जो दोष पहले दे आये हैं वह यहाँ नहीं प्राप्त होता है ।
विशेषार्थ - यहाँ पर मिथ्यात्व के निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी बतलाया है । जो उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके काल में छह आवलि काल के शेष रहनेपर सासादनमें जाता है और तदनन्तर मिध्यात्वमें जाता है उसके प्रथम समय में अपकर्षित होकर जो मिध्यात्वका द्रव्य उदय में आता है वह सबसे कम होता है, इसलिये उदयस्थितिप्राप्तका जघन्य स्वामी यहाँ पर बलताया है। इसी प्रकार निषेकस्थितिप्राप्तका जघन्य स्वामी भी जान लेना चाहिये । किन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि उस समय जितना भी द्रव्य उदय में प्राप्त हुआ है वह सबका सब निषेकस्थितिप्राप्त नहीं कहलाता । किन्तु उसी स्थितिसम्बन्धी जितना भी द्रव्य अपकर्षित हो करके वहाँ पाया जाता है वह निषेकस्थिलिप्राप्त द्रव्य कहलाता है । यतः यह भी जघन्य द्रव्य होता है, इसलिये निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामित्व यहाँ पर दिया है। शेष कथन सुगम है ।
९ ७०१. अब यहाँ पर प्रकृत स्वामित्वकी अपेक्षा द्रव्यप्रमाणका विचार करते हैं। जो इस प्रकार है - अन्तरकरण के प्रारम्भ समय में अन्तर के भीतर जो विवक्षित स्थिति स्थित है उसमें मिथ्यात्वका नाना समयप्रबद्धोंसे सम्बन्ध रखनेवाले निषेकोंकी अपेक्षा तत्प्रायोग्य एक समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्य पाया जाता है परन्तु वह सबका सब निषेकस्थितिप्राप्त नहीं होता हैं । किन्तु नीचेकी स्थितियोंका उत्कर्षण होकर और ऊपरकी स्थितियोंका अपकर्षण होकर वहाँ जो द्रव्यका संकलन होता है उसके साथ वह एक समयप्रबद्धप्रमाण होता है ।
शंका- तो फिर अन्तरकरण के प्रारम्भ में विवक्षित स्थितिमें निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य कितना
होता है ?
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
४२७ तस्सोवट्टणे ठविज्जमाणे तप्पाओग्गमेयसमपबद्ध ठविय पुणो जहाणिसेयकालभंतरसंचयमिच्छामो त्ति तस्सोकड्डुक्कड्डणभागहारोवट्टिददिवडगुणहाणिभागहारे ठविदे जहाणिसेयसंचओ आगच्छइ । ओकड्डणादीहि गंतूण पुणो वि एत्थेव पदिददव्चमेदस्स असंखेज्जदिभागमेतमिच्छिय तम्मि भागहारे किंचूणीकदे पयदणिसेयदव्वमागच्छइ । असंखेज्जभागूणं चेवमंतरं करेमाणेणुकड्डिय अणुक्कीरमाणीसु हिदीसु उविददव्व होइ । पुणो एदस्सोकड्डक्कड्डणभागहारे ठविदे पढमसमयमिच्छादिहिणोकड्डिददव्वं पयदणिसेयपडिबद्धमागच्छइ।।
७०२, संपहि तप्पाओग्गुक्कस्ससंकिलेसेणोदीरिददव्वमिच्छामो त्ति असंखेजलोगभागहारमावलियाए गुणिदं ठवेऊणोकड्डिदे पयदजहण्णसामितपडिग्गहियं दव्व. मागच्छइ । एत्थ मिच्छाइद्विविदियादिसमएसु जहण्णसामित्तं दाहामो ति णासंकणिज्जं, विदियादिसमएसु उदीरिजमाणबहुअदव्वपवेसे ण जहण्णत्ताणुववत्तीदो। पढमसमयम्मि ओकड्डियण णिसितदव्वं विदियादिसमएसु उदयमागच्छमाणमत्थि चेव । तस्सुवरि पुणो वि पुव्वं तिस्से हिदीए उक्कड्डिदपदेसग्गमुदयावलियम्भंतरे ओकड्डियूण
समाधान-विवक्षित स्थितिमें जितना द्रव्य है उसका असंख्यातवाँ भागप्रमाण द्रव्य निषेकस्थितिप्राप्त होता है ऐसा हम कहते हैं।
अब इसको प्राप्त करनेके लिये भागहार क्या है यह बतलाते हैं-एक समयप्रबद्धको स्थापित करे फिर यथानिषेक कालके भीतर सञ्चय लाना इष्ट है इसलिये उसका अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे भाजित डेढ़ गुणहानिप्रमाण भागहार स्थापित करे, इससे यथानिषेकका सञ्चय आ जाता है। अपकर्षणादिकके द्वारा व्ययको प्राप्त हुआ द्रव्य फिरसे इसीमें अर्थात् यथानिषेकके द्रव्यमें सम्मिलित हो जाता है जो कि इसके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः उसे अलग करनेकी इच्छासे प्रकृत भागहारको कुछ कम कर देनेपर प्रकृत निषेकका द्रव्य आ जाता है। तात्पर्य यह है कि अन्तरको करते समय उत्कर्षण द्वारा अनुत्कीर्यमाण स्थितियोंमें जो द्रव्य प्राप्त होता है वह पूर्वोक्त द्रज्यसे असंख्यातवें भागप्रमाण कम होता है। फिर इसका अपकर्षणउत्कर्षणप्रमाण भागहार स्थापित करनेपर प्रथम समयवर्ती मियादृष्टिके द्वारा प्रकृत निषेकसम्बन्धी अपकर्षित द्रव्यका प्रमाण होता है।
६७०२. अब तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशके द्वारा उदीरणाको प्राप्त हुआ द्रव्य लाना है, इसलिये आवलिके असंख्यातवें भागसे गुणित असंख्यात लोकप्रमाण भागहारको स्थापित करके जो द्रव्य प्राप्त हो उतने द्रव्यका अपकर्षण करनेपर प्रकृत जघन्य स्वामित्वसे सम्बन्ध रखनेवाला द्रव्य आता है।
शंका-यहाँ पर मिथ्यादृष्टिके द्वितीयादि समयोंमें जघन्य स्वामित्व दिया जाना चाहिये ?
समाधान-ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि द्वितीयादि समयोंमें उदीरणाके द्वारा बहुत द्रव्यका प्रवेश हो जाता है, इसलिये वहाँ जघन्य द्रव्य नहीं प्राप्त हो सकता। आशय यह है कि जिस द्रव्यका प्रथम समयमें अपकर्षण होकर ऊपरकी स्थितियोंमें निक्षेप हुआ है वह तो द्वितीयादि समयोंमें उदयमें आता हुआ देखा ही जाता है। किन्तु इसके अतिरिक्त उस स्थितिके जिस द्रव्यका पहले उत्कर्षण हुआ था उसका अपकर्षण होकर फिरसे उदयावलिके भीतर उस
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ संछुब्भइ । एवं च सछुढे एयसमयस चयादो दुप्पहुडि समयसचओ बहुप्रो होइ सिण तत्थ लाहो अत्थि, तदो ण तत्थ सामित्तं दाउं सकिज्जइ ति भावत्यो । ण गोवुच्छविसेसहाणिमस्सियूण पञ्चवढे यं, तत्तो विदियादिसमयसंचयस्स बहुत्तभुवगमादो। एवं चेव उदयहिदिपत्तयस्स वि जहण्णसामित्तं वत्तव्वं । गवरि एदस्स पमाणाणुगमे भण्णमाणे एयं समयपबद्धं ठविय पुणो एदस्स दिवगुणहाणिगुणयारे ठविदे विदियहिदिसव्वदव्वमागच्छइ । पणो ओकड्डिददव्वमिच्छामो त्ति ओकड्डुक्कड्डणभागहारो ठवेयव्यो। पणो वि उदीरणादव्वमिच्छिय असंखेज्जा लोगा आवलियपदुप्पण्णा भागहारसरूवेण ठवेयब्वा । एवं ठविदे पयदजहण्णसामित्तविसईकयदव्यमागच्छद।
$ ७०३. एत्थ सिस्सो भणइ-उदयावलियचरिमसमए मिच्छाइडिम्मि उदयादो जहण्णझीणहिदियस्सेव पयदस्स वि जहण्णसामित्तं गेहामो, चडिददाणमेत्तगोवुच्छविस सपरिहाणिवस ण तत्थेव जहण्णत्तदसणादो । एवं णिसेयहिदिपत्तयस्स वि वत्तव्वं, अण्णहा पवावरविरोहदोसप्पसगादो ति ? ण एस दोसो, गोवुच्छविसेसेहितो विदियादिसमयसंचिददव्वबहुचाहिप्पायावलंबणेणेदस्स पयट्टत्तादो । ण स्थितिमें निक्षेप होता है। और इस प्रकार निक्षेप होनेपर एक समयके सञ्चयसे दो आदि समयोंका सञ्चय बहुत होता है, इसलिये उसमें कोई लाभ नहीं है, अतः द्वितीयादि समयोंमें स्वामित्व नहीं दिया जा सकता। यदि कहा जाय कि द्वितीयादि समयोंमें गोपुच्छविशेषकी हानि देखी जाती है, इसलिए वहाँ जघन्य स्वामित्व बन जायगा सो ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि गोपुच्छविशेषका जितना प्रमाण है इससे द्वितीयादि समयोंका सञ्चय बहुत स्वीकार किया है। प्रकृतमें जैसे निषेकस्थितिप्राप्तका जघन्य स्वामित्व कहा है उसी प्रकार उदयस्थितिप्राप्तके जघन्य स्वामित्वका भी कथन करना चाहिये। किन्तु इसका प्रमाण लानेकी इच्छासे एक समयप्रबद्धको स्थापित करके फिर इसका डेढ़ गुणहानिप्रमाण गुणकार स्थापित करनेपर द्वितीय स्थितिका सब द्रव्य आ जाता है। फिर अपकर्षित द्रष्य लाना है, इसलिये अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारको स्थापित करना चाहिये। फिर भी उदीरणाको प्राप्त हुए द्रव्यके लानेकी इच्छासे एक श्रावलिसे गुणित असंख्यात लोकप्रमाण भागहार स्थापित करना चाहिये। इस प्रकार स्थापित करनेपर प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विषयभूत द्रव्य श्रा जाता है।
६७०३. शंका-यहाँपर शिष्य कहता है कि जिसप्रकार उदयावलिके अन्तिम समयमें मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वके उदयसे झीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामित्व होता है उसीप्रकार प्रकृत उदयप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामित्व भी उदयावलिके अन्तिम समयमें ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि उदयावलिका अन्तिम समय जितना ऊपर जाकर प्राप्त है वहाँ उतने गोपुच्छविशेषोंकी हानि हो जानेसे उदयप्राप्त द्रव्यका जघन्यपना वहींपर देखा जाता है। इसी प्रकार निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका भी जघन्य स्वामित्व कहना चाहिये, अन्यथा पूर्वापर विरोध दोष प्राप्त होता है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि गोपुच्छविशेषोंकी अपेक्षा द्वितियादि समयों में
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गा० २२]
पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्त पुत्वावरविरोहदोससंभवो वि, उवएसंतरपदंसण तत्थ तहा परूवियत्तादो ।
७०४. संपहि जहाणिसेयहिदिपत्तयस्स जहण्णसामित्तं परूवेमाणो पुच्छाए अवसरं करेइसंचित होनेवाला द्रव्य बहुत होता है इस अभिप्रायसे यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है और इससे पूर्वापर विरोध दोष प्राप्त होना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि उपदेशान्तरके दिखलानेके लिये वहाँपर उस प्रकारसे कथन किया है।
विशेषार्थ-जिस समय जो द्रव्य उदयमें आता है वही उस समय उदयसे झीनस्थितिवाला द्रव्य माना गया है, क्योंकि वह द्रव्य उदयप्राप्त होनेसे निजीणे हो जानेवाला है अतः उसमें पुनः उदयकी योग्यता नहीं पाई जाती। इस प्रकार विचार करनेपर उदयस्थितिप्राप्त द्रव्य और उससे झीनस्थितिवाला द्रव्य ये दोनों एक ही ठहरते हैं। यों जब ये एक हैं तो इनका जघन्य और उत्कृष्ट स्वामित्व भी एक ही होना चाहिये। अर्थात् जो उदयसे झीनस्थितिवाले द्रव्यका उत्कृष्ट स्वामी होगा वही उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका उत्कृष्ट स्वामी होगा और जो उदयसे झीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामी होगा वहीं उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी होगा । यद्यपि स्थिति ऐसी है तथापि मिथ्थात्वकी अपेक्षा इन दोनोंका जघन्य स्वामी एक नहीं बतलाया है। उदयसेझीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामित्व बतलाते समय यह जघन्य स्वामित्व उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वको प्राप्त करनेके समयसे लेकर उदयावलिके अन्तिम समयमें दिया है किन्तु उदयस्थिति प्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामित्व बतलाते समय यह जघन्य स्वामित्व उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें दिया है। इसप्रकार देखते हैं कि इन दोनों कथनोंमें पूर्वापर विरोध है जो नहीं होना चाहिये था। टीकामें इस विरोधका जो समाधान किया गया है उसका आशय यह है कि पूर्वोक्त कथन इस आशयसे किया गया है कि मिथ्याष्टि होनेके प्रथम समयसे लेकर उदयावलिके अन्तिम समय तक एक समय कम उदयावलिके भीतर गोपुच्छ विशेषका जो द्रव्य संचित होता है उससे उस कालके भीतर अपकर्षण द्वारा संचित होनेवाला द्रव्य न्यून होता है। किन्तु यह कथन इस अभिप्रायसे किया गया है कि द्वितीयादि समयोंमें संचित होनेवाला द्रव्य गोपुच्छविशेषोंसे अधिक होता है, इसलिए उक्त दोनों कथनोंमें कोई विरोध नहीं है । इसप्रकार कौन कथन किस अभिप्रायसे किया गया है इसका पता भले ही लग जाता है तथापि इससे विरोधका परिहार नहीं होता है, क्योंकि आखिर यह प्रश्न तो बना ही रहता है कि मिथ्यादृष्टि होनेके प्रथम समयके द्रव्य और वहाँसे जाकर उद्यावलिके अन्तिम समयके द्रव्य इनमेंसे कौन कम है और कौन अधिक है ? इस शंकाका टीकामें जो समाधान किया है उसका आशय यह है कि इस विषयमें दो सम्प्रदाय पाये जाते हैं। एक सम्प्रदायके मतसे मिथ्याष्टि होनेके प्रथम समयसे लेकर उद्यावलिके अन्तिम समयमें जो द्रव्य होता है बह न्यून होता है।
और दूसरा सम्प्रदाय यह है कि मिथ्यादृष्टि होनेके प्रथम समयमें जो द्रव्य होता है वह न्यून होता है । चूर्णिसूत्रकारके सामने ये दोनों ही सम्प्रदाय रहे हैं, इसलिये उन्होंने एकका उल्लेख मिथ्यात्वके उदयसे झीनस्थितिवाले द्रव्यके जघन्य स्वामित्वको बतलाते हुए कर दिया और दूसरेका उल्लेख यहाँ किया है। सत्कर्मप्राभृत और श्वेताम्बर मान्य कर्मप्रकृति व पंचसंग्रह इनमें प्रथम मतका ही उल्लेख है। अर्थात् वहाँ मिथ्यादृष्टि होनेके प्रथम समयसे लेकर उदयावलिके अन्तिम समयमें ही जघन्य स्वामित्व बतलाया है।
६७०४. अब यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामित्वका कथन करते हुए पृच्छासूत्र कहते हैं
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ® मिच्छत्तस्स जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयं कस्स ? ७०५. सुगमं ।
जो एइंदियहिदिसंतकम्मेण जहएणएण तसेसुआगदो। अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवएणो। वेछावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालियूण मिच्छत्तं गदो । तप्पाओग्गउक्कसिया मिच्छत्तस्स जावदिया आवाहा तावदिमसमय मिच्छाइहिस्स तस्स जहएणयमधाणिसेयहिदिपत्तयं ।
७०६. एदस्स सुत्तस्सत्यो वुच्चदे । तं जहा—जो एइंदियहिदिसंतकम्मेणं जहण्णएणे त्ति उत्ते एइंदिएसु हिदिसंतकम्मं हदसमुप्पत्तियं काऊण पलिदोवमासंखेजभागूणसागरोवममेत्तसव्वजहण्णेइंदियहिदिसतकम्मेण सह गदो ति घेतव्वं । गुणिदकम्मंसियलक्खणेण तविवरीयकम्मसियलक्षणेण वा आगमणेण ण एत्थ पयोजणमत्थि । किंतु एइंदियसवजहण्णहिदिसतकम्ममेवेत्थोवजोगी, तत्थतणपदेसथोवबहुत्तेण पोजणाभावादो ति भावत्यो । कुदो पओजणाभावो ? उवरि दूरद्धाणं गंतूण वेछावहिसागरोवमावसाणे पयदसामित्तविहाणुद्दे से हेहिमसंचयस्स जहाणिसेयसरूवेणासंभवादो । एइंदियहिदिसतकम्मं पुण तत्थुद्दे से तदभावीकरणेण पयदोव
* मिथ्यात्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है ? ६७०५. यह सूत्र सुगम है।
* एकेन्द्रियोंके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ बसोंमें उत्पन्न होकर जिसने अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त किया है। फिर दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन करके जो मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है। फिर वहाँ तत्मायोग्य मिथ्यात्वकी जितनी उत्कृष्ट आषाधा हो उतने काल तक जो मिथ्यात्वके साथ रहा है वह मिथ्यात्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी है।
६७०६. अब इस सत्रका अर्थ कहते हैं। जो इसप्रकार है-सूत्रमें जो 'जो एइदियट्ठिदि संतकम्मेण जहण्णएण' यह पद कहा है सो इससे यह अर्थ लेना चाहिये कि एकेन्द्रियोंमें स्थितिसत्कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके जो जीव एकेन्द्रियका सबसे जघन्य स्थितिसत्कर्म जो पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम एक सागर बतलाया है उसके साथ त्रसोंमें उत्पन्न हुआ है। यहॉपर गुणितकमांशकी विधिसे या क्षपितकांशकी विधिसे आनेसे कोई प्रयोजन नहीं है किन्तु एकेन्द्रियका सबसे जघन्य स्थितिसत्कर्म ही यहाँ उपयोगी है, क्योंकि ऐसे जीवके कर्मा परमाणु थोड़े हैं या बहुत इससे प्रकृतमें प्रयोजन नहीं है यह उक्त कथनका भावार्थ है।
शंका-प्रकृतमें कर्मपरमाणुओंके अल्पबहुत्वसे क्यों प्रयोजन नहीं है ?
समाधान—क्योंकि ऊपर बहुत दूर जाकर दो छयासठ सागर कालके अन्तमें जहाँ प्रकृत स्वामित्वका विधान किया है वहाँ इतने नीचे के संचयका यथानिषेकरूपसे पाया जाना सम्भव नहीं है। किन्तु उस स्थानमें जाकर एकेन्द्रियके यथानिषेस्थितिप्राप्त द्रव्यका अभाव कर देनेसे
१ श्रा. प्रतौ एइंदियट्ठिदिपत्तयं इति पाठः ।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
४३१ जोगी, अण्णहा अंतोकोडाकोडीमेत्तहिदिसतकम्मस्स वेछावहिसागरोवमाणमुवरि वि संभवेण जहण्णभावाणुववत्तीदो। एइंदियजहण्णहिदिसंतकम्मेणेवे त्ति णावहारणमेत्थ कायव्वं, किंतु तत्तो समयुत्तरादिकमेण सादिरेयवेछावहिसागरोवममेत्तहिदिसंतकम्मे त्ति ताव एदेसि पि हिदिविवप्पाणमेत्य गहणे विरोहो पत्थि, वेछावहिसागरोवमाणि गालिय उवरि सामित्तविहाणादो। तदो उपलक्रवणमेत्तमेदं ति घेत्तव्वं ।
७०७. एवं विहेण हिदिसंतकम्मेण तसेसु आगदो । अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णो एवं भणिदे असण्णिपंचिंदियपज्जत्तएसु जहण्णाउएसुववज्जिय सव्वलहुं पज्जत्तीओ समाणिय अंतोमुहुत्तेण देवाउअं बंधिय कमेण कालं कादूण देवेसुववज्जिय सव्वलह सव्वाहि पज्जत्तीहि पजत्तयदो होदण विस्संतो विसोहिमापरिय सम्मत्तं पडिवण्णो त्ति भणिदं होइ । ण च सम्मत्तुप्पायणमेदं णिरत्थयं, सम्मत्तगुणपाहम्मेण मिच्छत्तस्स बंधवोच्छेदं कादर्णतोमुहुत्तमेत्तसमयपबद्धाणं गालणेण फलोवलंभादो। एदस्सेव अत्थविसेसस्स पदसण वेछावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालिणे त्ति भणिदं । एवं वेछावहिसागरोवमाणि समयाविरोहेण सम्मत्तमणुपालिय तदवसाणे मिच्छत्तं गदो, अण्णहा पयदसामित्तविहाणोवायाभावादो । एवं मिच्छत्तं
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एकेन्द्रियके योग्य स्थितिसत्कर्म ही प्रकृतमें उपयोगी है, अन्यथा अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिसत्कर्मका दो छयासठ सागरके ऊपर भी सम्भव होनेसे जघन्यपना नहीं बन सकता है।
एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मके साथ ही जो त्रसोंमें उत्पन्न हुआ है ऐसा यहाँ अवधारण नहीं करना चाहिये। किन्तु एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मसे लेकर उत्तरोत्तर एक एक समय बढ़ाते हुए साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण स्थितिसत्कर्म तकके इन सब स्थितिविकल्पोंका भी यहाँपर ग्रहण करनेमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि दो छयासठ सागर कालके चले जानेके बाद तदनन्तर स्वामित्वका विधान किया गया है, इसलिये 'एइंदियजहण्णट्ठिदिसंतकम्मेण' यह पद उक्त कथनका उपलक्षणमात्र है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये।
६७०७. इसके आगे सत्रमें 'इस प्रकारके स्थितिसत्कर्म के साथ त्रसोंमें उत्पन्न होकर अन्तमुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ' जो ऐसा कहा है सो इसका यह तात्पर्य है कि जघन्य आयुके साथ असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। फिर अतिशीघ्र पर्याप्तियोंको पूरा करके अन्तर्मुहूर्तमें देवायुका बन्ध किया और क्रमसे मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर अतिशीघ्र सब पर्याप्तियोंको पूरा किया। फिर विश्रामके बाद विशुद्धिको प्राप्त करके सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। यदि कहा जाय कि इस प्रकार सम्यक्त्वको उत्पन्न कराना निरर्थक है सो यह बात भी नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व गुणकी प्रधानतासे मिथ्यात्वकी बन्धव्युच्छित्ति करके मिथ्यात्वके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण समयप्रबद्धोंको गलाने रूप फल पाया जाता है। इस प्रकार इसी अर्यविशेषको दिखलानेके लिये सत्रमें वे छावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालियूण' यह कहा है। इस प्रकार दो छयासठ सागर काल तक यथाविधि सम्यक्त्वका पालन करके उसके अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। यदि इस जीबको अन्तमें मिथ्यात्वमें न ले जाय तो प्रकृत स्वामित्वके विधान करनेका और कोई उपाय नहीं है, इसीसे इसे अन्तमें मिथ्यात्वमें ले गये हैं। इस प्रकार मिथ्यात्वको प्राप्त हुए इस जीवके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पडिवण्णस्स सामित्तुद्देसपदुप्पायणमुवरिमो मुत्तावयवो-तप्पाओग्गुकस्सियमिच्छत्तस्स जावदिया आवाहा इच्चादि ।
७०८, एत्थ वेछावट्ठीणमंते उकस्ससंकिलेसमावूरिय मिच्छत्तं गदस्स पढमसमयमिच्छाइहिस्स सामित्तमपरूविय पुणो वि अंतोमुहुत्तं गंतूण तप्पाओग्गुकस्साबोहाचरिमसमयमिच्छाइडिम्मि कदमं लाहमुद्दिसिय जहण्णसामित्तविहाणं कीरइ त्ति णासंकणिज्नं, तप्पाओग्गउकस्ससंकिलेसमावरिय मिच्छत्तस्स तप्पाओग्गुकस्सहिदि बंधमाणेणाबाहान्भंतरावहिदाहियारहिदिपदेसाणमोकड्डुक्कड्डणाहिं जहण्णीकरणेण लाहदसणादो पढमसमयउदयगदगोवुच्छादो तप्पाओग्गुकस्साबाहचरिमसमयगोवुच्छस्स चडिददाणमेत्तगोवुच्छविसेसेहि परिहीणतदंसणादो च । ण एत्थ णवकबंधसंचयस्स संभवो, आबाहाबाहिरे तस्सावडाणादो । स्वामित्वविषयक स्थानके दिखलानेके लिए 'तप्पाओग्गुकस्सियमिच्छत्तस्स जावदिया आबाहा' इत्यादि आगेका शेष सूत्र आया है।
७०८. यहाँ पर यदि कोई ऐसी आशंका करे कि दो छयासठ सागरके अन्तमें उत्कृष्ट संक्लेशको पूरा करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुए प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके स्वामित्वका कथन न करके फिर भी अन्तर्मुहूर्त जाकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अबाधाके अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके जो जघन्य स्वामित्वका विधान किया है सो इसमें क्या लाभ है सो उसकी ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा करनेसे दो लाभ दिखाई देते हैं। प्रथम तो यह कि तत्प्रायोग्य संक्लेशको पूरा करके मिथ्यात्वकी तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके आबाधाके भीतर प्राप्त हुई अधिकृत स्थितिके कर्मपरमाणु अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा जघन्य कर दिये जाते हैं और दूसरे प्रथम समयमें उदयको प्राप्त हुई गोपुच्छासे तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अबाधाके अन्तिम समयमें जो गोपुच्छा है उसमें जितने स्थान ऊपर जाकर वह स्थित है उतने गोपुच्छविशेषोंकी हानि देखी जाती है। इसप्रकार इन दो लाभोंको देखकर मिथ्यादृष्टि होनेके प्रथम समयमें जघन्य स्वामित्वका विधान न करके उत्कृष्ट अबाधाके अन्तिम समयमें उसका विधान किया है। यदि कहा जाय कि यहाँ नवकबन्धका सञ्चय हो जायगा सो यह बात भी नहीं है, क्योंकि इसका अवस्थान अबाधाके बाहर पाया जाता है।
विशेषार्थ यहाँ मिथ्यात्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्तके जघन्य स्वामित्वका निर्देश किया है। इसकी प्रथम विशेषता यह बतलाई है कि सर्वप्रथम ऐसे जीवको एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मके साथ त्रसोंमें उत्पन्न कराना चाहिये । टीकामें इस विशेषताका खुलासा करते हुए जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि बसोंमें उत्पन्न होनेवाला यह जीव एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाला ही हो ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है किन्तु इस कथनको उपलक्षण मानकर इससे ऐसा जीव भी लिया जा सकता है जिसका मिथ्यात्व स्थितिसत्कर्म एकेद्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मसे एक समय अधिक हो, दो समय अधिक हो। इस प्रकार उत्तरोत्तर स्थिति बढ़ाते हुए जिसका स्थितिसत्कर्म साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण हो वह जीव भी यहाँ लिया जा सकता है। इसका कारण यह बतलाया है कि जब प्रकृत जघन्य स्वामित्व साधिक दो छयासठ सागरके बाद ही प्राप्त होता है तो इतने स्थितिसत्कर्मवाले जीवको ग्रहण करनेमें कोई
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मा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
४३३ ७०६, एत्य संचयाणुगमे भण्णमाणे एदमधाणिसेयहिदिपत्तयजहण्णदव्वं केत्तियमेत्तकालसंचिदमिदि उत्ते अंतोमुहुत्तमेत्तकालसंचिदमिदि घेत्तव्वं । तं जहाथावरकायादोणिग्गंतग असण्णिपंचिंदिरसुववन्जिय अंतोमुत्तकालं सागरोवमसहस्समेति मिच्छत्तहिदि बंधमाणो जहाणिसेयहिदिसंचयं काऊण पुणो देवेसुववज्जिय तत्थ वि अपज्जतकालं सचमतोकोडाकोडिमेत्तहिदिवधेण संचयं करिय पुणो वि जाव सम्मत्तगहणपाओग्गो होइ ताव संचयं करेइ ति । एवमंतोमुहुत्तसंचओ लब्भइ । उवरि सम्मत्तगुणमाहप्पेण मिच्छत्तस्स बधवोच्छेदादो पत्थि संचओ। एदं च अंतोमुहुत्तपमाणसमयपबद्धपडिबद्धदव्वं सम्मत्तेण वेछावहिसागरोवमाणि परिब्भममाणस्स संखेजस्वम्भहियआवलियछेदणयमेत्तगुणहाणीओ उवरिं चडिदस्स संखेज्जावलियमेत्तसमयपबद्धपमाणं णस्सियूणेगसमयपबद्धपमाणेणावचिहइ। पुणो एवं पि समय
आपत्ति नहीं है, क्योंकि उक्त स्थानको प्राप्त होनेके पूर्व ही यह स्थितिसत्कर्म गल जायगा। इसके बाद सम्यक्त्व उत्पन्न कराकर दो छयासठ सागर कालतक यथाविधि इस जीवको सम्यक्त्वके साथ रखा है सो इसके दो फायदे बतलाये हैं। प्रथम तो यह कि इसके मिथ्यात्वका न्यूतन बन्ध नहीं होता और दूसरा यह कि यह जीव एकेन्द्रिय पर्यायके शेष रहे सञ्चयको तो गलाता ही है साथ ही साथ एकेन्द्रिय पर्यायके बाद त्रस पर्यायमें आनेपर जो सम्यक्त्वको प्राप्त करके पूर्वतक मिथ्यात्वका न्यूतन बन्ध हुआ है उसे भी यथाशक्य निर्जीर्ण करता है। इसके बाद इसे मिथ्यात्वमें ले जाकर मिथ्यात्वका वहाँ के योग्य उत्कृष्ट बन्ध करावे और आबाधाके अन्तिम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व दे। मिथ्यात्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें यह जघन्य स्वामित्व न बतलाकर जो आबाधाके अन्तिम समयमें बतलाया है सो इसके दो कारण बतलाये
| प्रथम तो यह कि मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर जितने स्थान ऊपर जाकर आबाधाका अन्तिम समय प्राप्त होता है उतने चयोंकी उसमें हानि देखी जाती है और दूसरा यह कि अपकर्षण उत्कर्षणके द्वारा भी उसका द्रव्य कम हो जाता है। इस प्रकार इन दो लाभोंको देखकर आबाधाके अन्तिम समयमें ही जघन्य स्वामित्व दिया है।
६७०६. यहाँ पर सञ्चयानुगमका विचार करनेपर यह यथानिषेकस्थितिप्राप्त जघन्य द्रव्य कितने कालमें संचित होता है ऐसा पूछनेपर अन्तर्मुहूर्त कालमें सञ्चित होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । खुलासा इस प्रकार है--स्थावरकाय पर्यायसे निकलकर असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूत कालतक एक हजार सागरप्रमाण मिथ्यात्वकी स्थितिको बाँधत्ता हुआ यथानिषेकस्थितिका संचय करता है। फिर देवोंमें उत्पन्न होकर वहाँ भी अपर्याप्त कालतक अन्तःकोडाकोड़ीप्रमाण स्थितिबन्ध करके संचय करता है। फिर भी पर्याप्त होनेपर जबतक यह जीव सम्यक्त्व ग्रहणके योग्य होता है तबतक सञ्चय करता है। इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक होनेवाला सञ्चय प्राप्त हो जाता है । इसके आगे सम्यक्त्वगुणकी प्रधानतासे मिथ्यात्वकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, इसलिये सञ्चय नहीं प्राप्त होता। अब यह जो अन्तर्मुहूर्तप्रमाण समयप्रबद्धोंका द्रव्य है सो इसमेंसे सम्यक्त्वके साथ दो छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण करनेवाले और संख्यात अङ्क अधिक एक आवलिके अर्धच्छेदप्रमाण गुणहानियाँ ऊपर चढ़े हुए जीवके संख्यात श्रावलिप्रमाण समयप्रबद्धोंका नाश होकर एक समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्य शेष रहता है। फिर
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
पचद्धमेत्त से सदय्यमसंखेज्जाओ गुणहाणीओ गालिय पच्छा मिच्छतं गंतॄणावाहाचरिमसमए समयपबद्धस्स असंखेज्जभागमेत्तं होतॄण जहाणिसेय सरूवेण जहण्णयं होदिति । $ ७१०. एदस्स भागहारपमाणानुगमं वत्तइस्सामो । तं जहा – एयं समयपबद्धं वि पुणो एदस्स संखेज्जावलियगुणगारे ठविंदे असण्णिपंचिदिएसु देवेसु च उववज्जिय तोमुहुत्तमेत्तकालं करिय संचयदव्वं होइ । पुणो एदस्स वेळावद्विसागरोवमव्यंतरणाणागुणहाणिं विरलिय विंगं करिय अण्णोष्णव्भत्थरासिम्मि भागहारे ठविदे गलिदाव से सदव्वमागच्छइ । पुणो एदमहियारगोबुच्छपमाणेण कीरमाणं दिवडगुणहाणिमेत्तं होइ त्ति दिवगुणहाणिभागहारे उविदे अहियारगोबुच्छमागच्छइ । इमं वेळा द्विसागरोवमकालं सव्वमोकडणाए णासेइ सि । पुणो वि ओकड्डुकड्डणभागहारवेति भागा या मेणुष्पाइदणाणागुणहाणि विरलिय विगं करिय अण्णोण्णव्भासणिप्पण्णासं खेज्जलोगमेत्तरासिम्मि भागहारसरूवेण हिदे प्रोकडिदसेसं जहाणिसेय - सरूवमहिया रहिदिदव्वमा गच्छइ । एवमागच्छ ति कट्टु वेळावद्विसागरोवमणाणागुणहाणिसला गाणमण्णोष्णव्भत्थरासी दिवडुगुणहाणी असंखेज्जलोगा च अण्णोष्णपदुष्पणा संखेज्जावलियोवट्टिदा समयपबद्धस्स भागहारो भागलद्धं च पयदजहण्णसामित्तविसकयं दव्वं होइ ।
यह जो एक समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्य शेष रहा है सो उसमें से भी असंख्यात गुणहानियोंको गलाकर अनन्तर मिध्यात्व में जाकर आबाधा के अन्तिम समय में जो एक समयप्रबद्धका असंख्यातवाँ भाग शेष रहता है वही यथानिषेक जघन्य द्रव्य है ऐसा यहाँ समझना चाहिये ।
$ ७१०. अब इसके भागहार के प्रमाणका विचार करते हैं। यथा- एक समयबद्धको स्थापित करके फिर इसके संख्यात आवलिप्रमाण गुणकारके स्थापित करनेपर संज्ञी पंचेन्द्रियों और देवोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर जितने द्रव्यका संचय होता है उसका प्रमाण आता है। फिर इसकी दो छयासठ सागरके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओं को विरलन करके और दूना करके परस्पर गुणा करने से जो राशि उत्पन्न हो उसे उक्त राशिके भागहाररूप से स्थापित करने पर गलकर शेष बचे हुये द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है । फिर इसके अधिकृत गोपुच्छाके बराबर हिस्से करनेपर वे डेढ़ गुणहानिप्रमाण प्राप्त होते हैं, इसलिए डेढ़ गुणहानिको भागहार स्थापित करनेपर अधिकृत गोपुच्छा प्राप्त होती है । दो छयासठ सागर कालतक अपकर्षणके द्वारा इसका भी नाश होता रहता है, इसलिये फिर भी अपकर्षण- उत्कर्षण भागहारके दो बटे तीन भाग के भीतर जितनी नाना गुणहानियाँ प्राप्त हों उनका विरलन करके और दूना करके परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न हुई असंख्यात लोकप्रमाण राशिको भागहाररूपसे स्थापित करनेपर अपकर्षण होनेके बाद शेष बचा हुआ यथानिषेकरूप अधिकृत स्थितिका द्रव्य आता है । इस प्रकार अधिकृत स्थितिका द्रव्य प्राप्त होता है ऐसा मानकर दो छयासठ सागरके भीतर प्राप्त हुई नाना गुहा निशलाका अन्योन्याभ्यस्त राशि डेढ़ गुणहानि और असंख्यात लोक इनको परस्पर गुणा करके जो उत्पन्न हो उसमें संख्यात आवलियों का भाग देनेपर जो लब्ध आवे वह एक समय बा भागहार होता है और इस भागहारका एक समयप्रबद्ध में भाग देनेपर जो लव्य आवे उतना प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विषयभूत द्रव्य होता है ।
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गा० २२]
पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं ___ ७११. संपहि एदेणेव गयत्थं सम्मत्तस्स वि जहाणिसेयहिदिपत्त यजहण्णसामित्तं परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* जेण मिच्छत्तस्स रचिदो अधाणिसेओ तस्स चेव जीवस्स सम्मत्तस्स अधाणिसेो कायव्वो। णवरि तिस्से उक्कस्सियाए सम्मत्तद्धाए चरिमसमए तस्स चरिमसमयसम्माइहिस्स जहणणयमधाणिसेयहिदिपत्तयं ।
७१२. जेण जीवेण मिच्छत्तस्स जहण्णओ जहाणिसेश्रो पुव्वुत्तविहाणेण विरइओ तस्सेव जीवस्स सम्मत्तस्स वि जहण्णओ जहाणिसेओ कायव्यो । णवरि तिस्से उक्कस्सियाए वेछावहिसागरोवमपमाणाए सम्मत्तद्धाए चरिमसमए वट्टमाणस्स तस्स चरिमसमयसम्माइहिस्स पयदजहण्णसामित्तं कायव्वं, अण्णहा तबिहाणोवायाभावादो। तं जहा—पुव्यविहाणेणागंतूण पढमलावहिं भमिय पुणो विदियछावडीए अंतोमुहुत्तावसेसे दंसणमोहक्खवणमभुहिय अहियारहिदिदव्वं गुणसेढिणिज्जराए णासेमाणो उदयावलियबाहिरहिदमिच्छत्तचरिमफालिदव्वं सव्वं समहिदीए सम्मामिच्छत्तस्सुवरि संकामिय पुणो तेणेन विहिणा सम्मामिच्छत्तचरिमफालिदव्वं पि सव्वं सम्मत्तस्सुवरि संकामेदि । एवं तिण्हं पि जहाणिसेयहिदीओ एकदो कादूण पुणो
६७११. अब सम्यक्त्वके यथानिषेक स्थितिप्राप्तका जघन्य स्वामित्व भी इसीसे गतार्थ है यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* जिसने मिथ्यात्वका यथानिषेकपाप्त द्रव्य किया है उसी जीवके सम्यक्त्वके यथानिषेकका कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके उत्कृष्ट कालके अन्तिम समयमें उस सम्यग्दृष्टिके रहनेपर वह अपने अन्तिम समयमें यथानिषेकस्थितिप्राप्त जघन्य द्रव्यका स्वामी है ।
६७१२. जिस जीवने मिथ्यात्वका जघन्य यथानिक द्रव्य पूर्वोक्तविधिसे प्राप्त किया है उसी जीवके सम्यक्त्वके जघन्य यथानिषेकद्रव्यका भी कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि जो दो छयासठ सागरप्रमाण सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल है उसके अन्तिम समयमें विद्यमान हुए उस सम्यग्दृष्टि जीवके अन्तिम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान करना चाहिये, अन्यथा प्रकृत जघन्य स्वामित्वके विधान करनेका और कोई उपाय नहीं है। खुलासा इस प्रकार है-कोई एक जीव है जिसने पूर्वोक्त विधिसे आकर प्रथम छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण किया। फिर दूसरे छयासठ सागरमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिये उद्यत होकर वह अधिकृत स्थितिके द्रव्यका गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा नाश करने लगा और ऐसा करते हुए वह उदयावलिके बाहर स्थित हुए मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके सब द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वकी समान स्थिति में संक्रमित करके फिर उसी विधिसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके सब द्रव्यको भी सम्यक्त्वके ऊपर संक्रमित करता है। इस प्रकार तीनों ही कर्मोकी यथानिषेक स्थितियोंको एकत्रित करके फिर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके अन्तिम समयमें उन तीनों ही
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ अक्खीणदसणमोहचरिमसमयम्मि तिसु वि हिदीसु सम्मत्त सरुवेणुदयमागदासु जहण्णय. मधाणिसेयहिदिपत्तयं होइ, चरिमसमयअक्खीणदसणमोहणीयस्सेव चरिमसमयसम्माइटि ति मुत्ते विवक्खियत्तादो।
ॐ णिसेयादो च उदयादो च जहण्णयं हिदिपत्तयं कस्स ? ६७१३. एत्थ सम्मत्तस्से त्ति अहियारसंबंधो । सुगममण्णं ।
8 उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयवेदयसम्माइहिस्स तप्पाओग्गउकस्ससंकिलिहस्स तस्स जहरणयं ।
६ ७१४. एदस्स मुत्तस्स मिच्छत्तसामित्तसुत्तस्सेव गिरवयवा अत्थपरूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो। एत्तिओ पुणो विसेसो-तत्थ पढमसमयमिच्छाइहिस्स सामित्तं जादं, एत्थ पढमसमयवेदयसम्माइहिस्से त्ति । स्थितियों के सम्यक्त्वरूप से उदय में आनेपर जघन्य यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य होता है। यहाँ सूत्र में जो 'चरिमसमयसम्माइटिस्प्स' पद दिया है सो इससे दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला अन्तिम समयवर्ती जीव ही विवक्षित है।
विशेषार्थ-यहाँ सम्यक्त्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी बतलाया है। सो इसे प्राप्त करनेके लिये और सब विधि तो मिथ्यात्वके समान है किन्तु इतनी विशेषता है कि जब उक्त जीवको सम्यक्त्व के साथ दूसरे छयासठ सागरमें परिभ्रमण करते हुए अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाय तब उससे क्षायिकसम्यग्दर्शनकी प्राप्ति करावे और ऐसा करते हुए जब सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयका अन्तिम समय प्राप्त होता है तब यथानिषेकस्थितिप्राप्तका जयन्य द्रव्य होता है।
* सम्यक्त्वके निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है ?
६७१६. इस सूत्रमें 'सम्मत्तस्स' इस पदका अधिकारवश सन्बन्ध होता है। शेष कथन सुगम है।
* जो उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे युक्त प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीव है वह उक्त दोनों स्थितिमाप्त द्रव्योंका जघन्य स्वामी है।
६७१४. जिस प्रकार मिथ्यात्वविषयक स्वामित्व सूत्रका सर्वांगीण कथन किया है उसी प्रकार इस सत्रका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि इन दोनोंके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वविषयक स्वामित्वका कथन करते समय प्रथम समयवती मिथ्यादृष्टिके स्वामित्व प्राप्त कराया गया था किन्तु यहाँ पर वह प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिके प्राप्त कराना चाहिये।
विशेषार्थ-आशय यह है कि मिथ्यात्यकी अपेक्षा निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामित्व लाने के लिये जीवको उपशमसम्यक्त्वसे छह आवलिकालके शेष
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गा० २२ ]
पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं $ ७१५. संपहि सम्मत्तस्स जहाणिसे यहिदिपत्तयभंगेण सम्मामिच्छत्तजहाणिसेयहिदिपत्त यस्त सायित्त परूवणं कुणमाको सुत्त मुत्तरं भगइ
* सम्मत्तस्स जहाणो जहाणिसेओ जहा परूविप्रो तीए चेव परूवणाए सम्मामिच्छत्त गयो। तदो उकस्सियाए सम्मामिच्छत्तद्धाए चरिमसमए जहग्गयं सम्मामिच्छत्तस्स अधातिसेयहिदिपत्तयं ।।
F ७१६. सम्मत्तस्स जहण्णओ जहाणिसे ओ जहापरूविदो, तीए चेव परूवणाए अणूमाहियाए सम्मामिच्छत्तस्प्त वि पयदनहष्णसामियो परूवेयव्यो । णवरि सव्वुकस्ससम्मत्तद्धाए चरिमसमए सम्मत्तस्स णिरुद्ध जहण्णसामित्तं जादं । एवमेत्थ पुग विदियछावाहिकालभंतरे अंतोमुहुत्तावसेसे सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णस्स तप्पाओग्गुकस्संतोमुहुत्तमेत्तसम्मामिच्छ नद्धाए चरिमसमयम्मि पयदजहण्णसामितं होइ त्ति एतिओ चेव विसेसो।
रहने पर सासादनमें ले जाकर फिर मिथ्यात्वमें ले जाया गया था और तब मिथ्यात्वके प्रथम समयमें उक्त जघन्य स्वामित्व प्राप्त कराया गया था। किन्तु समयक्त्वका उदय मिथ्यात्व गुणस्थानमें सम्भव नहीं है, इसलिये जिस जीवको सम्यक्त्वकी अपेक्षा निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्रात द्रव्यका जघन्य स्वामित्व प्राप्त कराना हो उसे उपशमसम्यक्त्वका काल पूरा होनेपर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशनके साथ वेस्कसम्यक्त्वमें ले जाय । इस प्रकार जब यह जीव वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करता है तब इसके उक्त वेदकसम्यक्त्वके प्रथम समय में जवन्य स्वामित्व होता है। यहाँ सम्यक्त्वकी कम से कम उदीरणा प्राप्त करने के लिये तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशके साथ वेदकसम्यक्त्व प्राप्त कराया गया है ।
$ ७१५. अब सम्यक्त्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामित्वके समान ही सम्यग्मिथ्यात्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जवन्य स्वामित्व है यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं- * सम्यक्त्वके जघन्य यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यकी जिस प्रकार प्ररूपणा की है उसी प्ररूपणाके अनुसार कोई एक जीव सम्पग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। फिर जब वह सम्यम्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट कालके अन्तिम समयमें विद्यमान रहता है तब वह सम्यग्मिथ्यात्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी है।
$७१६. जिस प्रकार सम्यक्त्वके जघन्य यथानिषेक द्रव्यका प्ररूपण किया, न्यूनाधिकतासे रहित उसी प्ररूपणाके अनुसार सम्यग्मिथ्यात्वके प्रकृत जघन्य स्वामित्वका भी कथन करना चाहिये । किन्तु इतनो विशेषता है कि सम्यक्त्वके सर्वोत्कृष्ट कालके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वका प्रकृत जघन्य स्वामित्व प्राप्त हुआ था। किन्तु यहाँ पर दूसरे छयासठ सागरके भीतर अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहने पर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीव के सम्यग्मिथ्यात्वके तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तिम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है, इतनी ही विशेषता है।
विशेषार्थ-सम्यग्मिथ्यात्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामित्वको प्राप्त करने के लिये और सब विधि सम्यक्त्व प्रकृतिके समान जानना चाहिये । किन्तु यहाँ इतनी विशेषता
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ * सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं णिसेयादो उदयादो च हिदिपत्तयं कस्स ?
६७१७. सुगममेदं पुच्छासुतं ।
* उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स तप्पात्रो ग्गुकस्ससंकिलिहस्स।
७१८. सुगममेदं सुतं ।
* अणंताणुबंधीणं णिसेयादो अधाणिसेयादो च जहएणयं हिदिपत्तयं कस्स ?
६ ७१६. सुगममेदं पुच्छावक्कं ।
ॐ जो एइंदियढिदिसंतकम्मेण जहएणएण पंचिंदिए गो। अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवएणो । अणंताणुबंधिं विसंजोइत्ता पुणो पडिवदिदो । रहस्स
है कि दूसरे छयासठ सागरमें जब अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाय तब इस जीवको सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें ले जाय । और वहाँ जब उसका अन्तिम समय प्राप्त हो तब प्रकृत जघन्य स्वामित्व कहना चाहिये । सम्यग्मिथ्यात्वका उदय सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होता है, इसलिये तो इसे उक्त गुणस्थानमें ले गये हैं। तथा सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें जितना स्थान ऊपर जाकर प्रकृत जघन्य स्वामित्व प्राप्त होता है उतने गोपुच्छविशेषोंको कम करनेके लिये यह स्वामित्व सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान के प्रथम समयमें न बतलाकर उसके अन्तिम समयमें बतलाया है ।
* सम्यग्मिथ्यात्वके निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिद्रव्यप्राप्त द्रव्योंका जघन्य स्वामी कौन है।
६ ७१७. यह पृच्छासूत्र सुगम है।
* जो उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आकर तत्मायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे युक्त प्रथम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है वह उक्त स्थितिप्राप्त द्रव्योंका जघन्य स्वामी है।
६७१८. यह सूत्र सुगम है।
विशेषार्थ-इस आशयका सूत्र अनेक बार आ चुका है, इसलिये वहाँ जिस प्रकार वर्णन किया है उसी प्रकार प्रकृतमें भी करना चाहिये। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वका उदय मिश्र गुणस्थानमें ही होता है, इसलिये उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होने पर इस जीवको सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही ले जाना चाहिये, यहाँ इतनी विशेषता है। शेष कथन सुगम है । ___* अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य निषेकस्थितिप्राप्त और यथानिकस्थितिप्राप्त द्रव्योंका स्वामी कौन है ?
६७१६. यह पृच्छासूत्र सुगम है।
* जिसने एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मके साथ पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होकर और अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना की।
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गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
४३९ कालेण संजोएऊण सम्मत्तं पडिवएणो। वेछावहिसागरोवमाणि अणुपालियूण मिच्छत्तं गो तस्स आवलियमिच्छाइहिस्स जहएणयं णिसेयादो अधाणिसेयायो च हिविपत्तयं ।
७२०. एइदियद्विदिसंतकम्मस्स जहण्णयस्सेत्थालंबणमणुवजोगी, अणताणुवंधि विसंजोयणाए णिस्संतीकरिय पुणो पडिवादेण अइरहस्सकालपडिबद्धेण संजोइय पडिवण्णवेदयसम्मत्तम्मि अंतोमुत्तमेत्तणवकबंधं घेतण परिभमिदवेछावहिसागरोवमजीवम्मि सामित्तविहाणादो ? ण एस दोसो, सेसकसायणं जुत्तावत्थाए अधापवत्तेण समद्विदिसंकमबहुत्तणिवारण तदभुवगमादो। ण च समहिदिसंकमस्स जहाणिसेयहिदिपत्तयत्ताभावमवलंबिय पञ्चवह यं, जहाणिसित्तसरूवेण समहिदीए संकेतस्स पदेसगस्स तहाभावाविरोहादो। तम्हा गुणिदकम्मंसिओ वा खविदकम्मंसिओ वा एईदियजहण्णहिदिसंतकम्मेण सह गदो असण्णिपंचिदिएसु तप्पाअोग्गजहण्णंतोमुहुत्तमेत्तनीविएमुववज्जिय समयाविरोहेण देवेसुववण्णो । तदो अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं घेत्तूण अणंताणुबंधिं विसंजोइता पुणो अंतोमुहुत्तेण संजुत्तो होदूण सबरहस्सेण फिर जो सम्यक्त्वसे च्युत होकर और अनन्तानुबन्धीका संयोजन करके अति शीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर जो दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन करके मिथ्यात्वमें गया। उसे वहाँ गए जब एक आवलि काल होता है तब वह जीव जघन्य निषेकस्थितिप्राप्त और यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्योंका स्वामी है।
६७२०. शंका-प्रकृतमें एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मका आलम्बन करना अनुपयोगी है, क्योंकि विसंयोजना द्वारा अनन्तानुबन्धीको निःसत्त्व करके फिर सम्यक्त्वसे च्युत होकर और स्वल्प कालद्वारा अनन्तानुबन्धीसे पुनः संयुक्त होकर जो वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है और जिसने अन्तर्मुहूर्तप्रमाण नवक समयप्रबद्धोंको ग्रहण करके दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण किया है उसके प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान किया है। इस शंकाका आशय यह है कि जब कि विसंयोजनाके बाद पुनः संयुक्त होने पर दो छयासठ सागरके बाद प्रकृत जघन्य स्वामित्व कहा है तब इस जीवको प्रारम्भमें एकेन्द्रियके योग्य जघन्य सत्कर्मवाला बतलानेकी कोई आवश्यकता नहीं है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जब यह जीव अनन्तानुबन्धीसे पुनः संयुक्त होता है तब अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा इसमें शेष कषायोंका बहुत समस्थितिसंक्रम न प्राप्त हो एतदर्थ उक्त बात स्वीकार की है।
यदि कहा जाय कि जो शेष कषायोंका समस्थितिसंक्रम हुआ है उसमें यथानिषेकस्थितिपना नहीं पाया जाता है सो ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यथानिषेकरूपसे समस्थितिमें जो द्रव्य संक्रान्त होता है उसे यथानिषेकस्थितिरूप माननेमें कोई बाधा नहीं आती । इसलिये गुणितकमांश या क्षपितकांश जो जीव एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्म के साथ तत्प्रायोग्य जघन्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुवाले असंज्ञियोंमें उत्पन्न होकर यथाविधि देवोंमें उत्पन्न हुआ। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके और अनन्तानुबन्धीकी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहसी ५ कालेण सम्मत्तं पडिवण्णो। वेछावहिसागरोवमाणि समयाविरोहेण समत्तमणुपालिय तदवसाणे मिच्छ गदो तस्सावलियमिच्छाइहिस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ । ततो परं सेसकसायाणं समहिदिसंकमेण पडिच्छिदबहुदबावडाणेण जहण्णभावाणुववत्तीदो।
ॐ उदयडिदिपत्तयं जहएणयं कस्स ? ६ ७२१. अणताणुबंधिग्रहणमिहाणुवट्टदे । सेसं सुगमं ।
8 एइंदियकम्मेण जहण्णएण तसेसु भागदो। तम्हि संजमासंजमं संजमं च बहुसो लक्ष्ण चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता एइंदिए गयो । असंखेजाणि वस्साणि अच्छियूण उवसामयसमयपबद्ध सु गलिदेसु विसंयोजना करके फिर अन्तर्मुहूर्तमें अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होकर अति स्वल्प कालद्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर दो छयासठ सागर काल तक यथाविधि सम्यक्त्वका पालन करके अन्तमें मिथ्यात्व में गया उसके मिथ्यात्वमें गये एक श्रावलि कालके अन्तमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है। एक आवलि काल के बाद जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं होता इसका कारण यह है कि एक आवलि के बाद शेष कषायोंका समस्थितिसंक्रमण होकर अनन्तानुबन्धीमें बहुत द्रव्य प्राप्त हो जाता है, अतः जघन्यपना नहीं बन सकता।
विशेषार्थ-यहाँ अनन्तानुबन्धीके निषेकस्थितिप्राप्त और यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी बतलाया है। जिसे यह स्वामित्व प्राप्त कराना है उसका प्रारम्भमें एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाला होना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इससे विसंयोजनाके बाद जब यह जीव अनन्तानुबन्धीसे पुनः संयुक्त होता है तब इसके समस्थितिसंक्रमण अधिक नहीं पाया जाता है। यदि ऐसा न मानकर इसके स्थितिसत्कर्मको संज्ञीके योग्य मान लिया जाता तो इससे निषेकस्थितिप्राप्त और यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य बहुत हो जाता और तब उक्त द्रव्य को जघन्य प्राप्त करना सम्भव न होता। यही कारण है कि प्रकृतमें एकेन्द्रियके योग्य जयन्य स्थिति सत्कर्मवाले जीवको ग्रहण करके प्रकृत जघन्य स्वामित्व ग्रहण किया गया है। फिर भी यह वचन उपलक्षणरूप है जिससे यहाँ ऐसा जीव भी लिया जा सकता है जिसका स्थितिसत्कर्म अधिकसे अधिक साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण हो, क्योंकि जिस स्थल पर जाकर जघन्य स्वामित्व प्राप्त करना है उससे एक समय कम स्थितिके रहते हुए संयुक्त अवस्थामें समस्थितिसंक्रमणके द्वारा निषेकस्थितिप्राप्त और यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके अधिक होनेका डर नहीं है । शेष कथन सुगम है।
* उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है ?
६७२१. इस सूत्रमें 'अणंताणुबंधि' इस पदका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यहाँ उसकी अनुवृत्ति पाई जाती है। शेष कथन सुगम है।
* जो कोई एक जीव एकेन्द्रियके योग्य जघन्य सत्कर्म के साथ बसों में आया । वहाँ संयमासंयम और संयमको बहुतबार प्राप्त करके और चार बार कषायोंका उपशम करके एकेन्द्रियों में गया। वहाँ असंख्यात वर्षों तक रहकर उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंके गल जाने पर पंचेन्द्रियों में गया । वहाँ अन्तर्मुहूर्तमें अनन्तानु
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गा० २२ } पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं पंचिंदिएसु गदो। अंतोमुहुत्तेण अणंताणुबंधि विसंजोजित्ता तदो संजोएऊण जहएणएण अंतोमुहुत्तण पुणो सम्मत्तं लद्धण वेछावहिसागरोवमाणि अणंताणुबंधिणो गालिदा । तदो मिच्छत्त गदो तस्स आवलियमिच्छाइहिस्स जहण्णयमुदयहिदिपत्तयं ।।
६ ७२२. ण एत्थ पुणो वि विसंजोइजमाणाणमणताणुबंधीणं खविदकम्मंसियत्तं णिरत्थयमिदि आसंकणिज्जं, संजुतावत्थाए सेसकसाएहितो पडिछिन्जमाणदव्वस्स जहण्णीकरणेण फलोवलंभादो। तम्हा जो जीवो एइदियजहण्णपदेससंतकम्मेग सह तसेसु आगदो । तत्थ य संनमासंजमादीणमसई लभेण चदुक्खुत्तो कसायाणमुवसामगाए च गुणसे विसरूवेण बहुदव्वगालणं काऊण पुणो एइदिएम पलिदोवमासंखेजभागमेनकालमच्छिय गिग्गालिदोवसामयसमयपबद्धो समयाविरोहण पंचिंदिरसुववज्जिय अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तग्गहणपुरस्सरमणंताणुबंधि विसंजोइय संजुत्तो सबलहं सम्मतपडिलंभेण वेछावहिसागरोवमाणि अधहिदीए गालिय पडिवदिदो तस्स आवलियमिच्छाइहिस्स पयदजहण्णसामिन होइ ति सिद्धं ।
वन्धीकी विसंयोजना करके तदनन्तर उससे संयुक्त हो जघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा फिरसे सम्यक्त्वको प्राप्त करके दो छयासठ सागर काल तक अनन्तानुबन्धियोंको गलाता रहा । तदनन्तर मिथ्यात्वमें गया। उसे वहाँ गये जब एक आवलि काल होता है तब वह उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी है।
७२२. यदि यहाँ ऐसी आशंका की जाय कि जब अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना होनेवाली है तब उन्हें पूर्व में ही क्षपितकांश बतलाना निरर्थक है तो ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि संयुक्त अवस्थामें अनन्तानुबन्धीमें शेष कषायोंका द्रव्य जघन्य होकर प्राप्त होता है, इसलिये इसकी सफलता है। अतः जो जीव एकेन्द्रियके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ त्रसोंमें आया और वहाँ संयमासंयमादिककी अनेकबार होनेवाली प्राप्ति द्वारा और चार बार हुई कषायोंकी उपशामना द्वारा गुणश्रेणिरूपसे बहुत द्रव्यको गलाकर फिर एकेन्द्रियोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहकर और वहाँ उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंको गलाकर यथाविधि पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। फिर अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको ग्रहण करके अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना की। फिर उससे संयुक्त होकर और अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त करके अधःस्थिति द्वारा दो छयासठ सागरप्रमाण स्थितियोंको गलाकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ उसके मिथ्यात्वको प्राप्त हुए एक आवलि कालके होने पर प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है यह बात सिद्ध होती है।
विशेषार्थ—यहाँ पूर्वमें क्षपितकाशकी विधि बतलाकर फिर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कराई गई है। इस पर शंकाकारका यह कहना है कि जब आगे चलकर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होनेवाली ही है तब पूर्व में क्षपितकमांशपनेके विधान करनेकी क्या सफलता है । इसका जो समाधान किया है उसका आशय यह है कि क्षपितकाशकी विधि अन्य कषायों
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ॐ बारसकसायाणं णिसेयहिदिपत्तयमुदयहिदिपत्तयं च जहएणयं
rrrrrrra
६ ७२३. सुगम ।
® जो उपसंतकसाओ सो मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स जहणणयं णिसेयहिदिपत्तयमुदयहिदिपत्तयं च ।
६ ७२४. एदस्स मुत्तस्सत्थो उदयादो जहण्णझीणहिदियसामित्तसुत्तस्सेव वक्खाणेयव्यो। गवरि एत्थ पढमसमयसामित्तविहाणं साहिप्पाओ मिच्छत्तस्सेव वत्तवो।
* अधाणिसेयहिदिपत्तयं जहएणयं कस्स । ६ ७२५. सुगमं ।
* अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कम्मेण तसेसु उववरणो । तत्थ तप्पाओग्गुक्कस्सहिदि बंधमाणस्स जद्देही आवाहा तावदिमसमए तस्स जहएणयमधाणिसेयहिदिपत्तयं । अइक्कते काले कम्महिदिअंतो सई पि तसो ण आसी। पर भी लागू होती है। इससे यह लाभ होता है कि जब यह जीव अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होता है तब अन्य कषायोंका कम द्रव्य अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमित होता है । शेष कथन सुगम है ।
* बारह कषायोंके निषेकस्थितिमाप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है।
६७२३. यह सूत्र सुगम है ?
* जो उपशान्तकषाय जीव मरकर देव हुआ है वह प्रथम समयवर्ती देव निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी है।
७२४. जिस प्रकार उदयसे झीनस्थितिविषयक स्वामित्व सूत्रके अर्थका व्याख्यान किया है उसी प्रकार इस सूत्रके अर्थ का व्याख्यान करना चाहिये। किन्तु यहाँ जो प्रथम समयमें स्वामित्वका विधान किया है सो मिथ्यात्वके समान इसका अभिप्राय सहित व्याख्यान करना चाहिये।
* यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है ? ६७२५. यह सूत्र सुगम है।
* अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ जो त्रसोंमें उत्पन्न हुआ है। किन्तु इसके पूर्व कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर जो एक बार भी त्रस नहीं हुआ है। फिर वहाँ तत्यायोग्य उत्कृष्ट स्थितिको वाँधते हुए जितनी आबाधा होती है उसके अन्तिम समयमें वह यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी है।
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गा० २२ ]
पदेसविहत्तीए ट्ठिदियचूलियाए सामित्तं
९ ७२६. एदस्स सुत्तस्सत्थो बुच्चदे । तं जहा - जो जीवो सव्वावासयविसुद्धीए मणिगोदेसु कम्महिदिमणुपालिय अभवसिद्धियपाओग्गजहणपदेससंतकम्मं काऊण तेण सह सणिपंचिदिए उवण्णो । एसो च जीवो अकते काले कम्महिदीए अन्यंतरे सई पितसो ण आसी कम्मद्विदिव्यंतरे तसपज्जाय परिणामे को दोसो चे १ एइंदिय जोगादो असंखेज्जगुणतसकाइयजोगेण तस्थुष्पज्जिय बहुदव्वसंचयं कुणमाणस्स णिरुद्धद्विदीए जहण्णजहाणिसेयाणुपत्तिदो सदंसणादो । तसकाइएस आगंतून सम्मत्तप्पत्ति संजमासं जमादिगुण सेढिणिज्जराहिं पयदणिसेयस्स जहण्णीकरणवावारेणच्यमाणस्स लाहो दीसइ ति णासंकणिज्जं, ओकड्डुक्कडणभागहारादो जोगगुणागारस्स असंखेज्जगुणतेण अघाणिसेयदव्वस्स तत्थ णिज्जरादो आयस्स बहुतदंसणादो | तम्हा अक्कते काले कम्मद्विदिअन्यंतरे तसपज्जायपडिसेहो सफलो चि सिद्धं ।
.9
९ ७२७, एत्थ कम्म हिदि त्ति भणिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भहियएइ दियकम्म हिदीए गहणं कायव्वं, सेसकम्पडिदिअवलंबणे पयदोवजो गिफल विसेसावलंभादो । जइ एवं पच्छा वि तसभावपत्थणा णिरत्थिया ति ण पञ्चवट े,
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६७२६. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । जो इस प्रकार है- जो जीव समस्त आवश्यकों की विशुद्धिके साथ सूक्ष्मनिगोदियों में कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा और अभव्यों के योग्य जघन्य सत्कर्म को प्राप्त करके उसके साथ संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ । किन्तु यह जीव इसके पूर्व कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर एक बार भी त्रस नहीं हुआ ।
शंका – कर्मस्थिति कालके भीतर त्रस पर्यायके योग्य परिणामोंके होनेमें क्या दोष है ?
समाधान एकेन्द्रियके योगसे असंख्यातगुणे त्रसकायिकों के योग के साथ सोंमें उत्पन्न
होकर बहुत द्रव्यका संचय करनेवाले जीवके विवक्षित स्थितिमें जघन्य यथानिषेककी प्राप्ति नहीं हो सकती है । यही बड़ा दोष है जिससे इस जीवको कर्मस्थिति कालके भीतर त्रसोंमें नहीं उत्पन्न कराया है । यदि ऐसी आशंका की जाय कि त्रसकायिकों में आकर सम्यक्त्वकी उत्पत्ति और संयम संयम आदिके निमित्तसे होनेवालो गुणश्रेणिनिर्जरात्रोंके द्वारा प्रकृत निषेकको जघन्य करने में लगे हुए जीवके लाभ दिखाई देता है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अपकर्षण- उत्कर्षणरूप भागहारसे योगका गुणकार असंख्यातगुणा होनेके कारण यथानिषेक द्रव्यकी वहाँ निर्जराकी अपेक्षा आय बहुत देखी जाती है, इसलिये पिछले बीते हुए समय में कर्मस्थिति भीतर पर्यायका निषेध करना सफल है यह सिद्ध होता है ।
१७२७. यहाँ सूत्रमें जो 'कर्मस्थिति' का निर्देश किया है सो उससे पल्य के असंख्यातवें भागसे अधिक एकेन्द्रियके योग्य कर्मस्थितिका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि शेष कर्मस्थितिका अवलम्बन करने पर प्रकृत में उपयोगीरूपसे उसका कोई विशेष लाभ नहीं दिखाई देता है। यदि ऐसा है तो एकेन्द्रिय पर्यायसे निकलनेके बाद भी पीछेसे त्रसपर्यायमें उत्पन्न कराना निरर्थक है
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
।
[ पदेसविहत्ती ५ उकडणाणिबंधणलास्स तोमुहुत्तपडिबद्धस्स तत्थ दंसणादोति जाणावणहमेदमोइणं 'तत्थ तप्पा ओग्गमुकस्सहिदिं बंधमाणस्स' इच्चादि । तत्थुप्पण्णपढमसमए चेव तप्पा ओग्गुकस्ससंकिलेसेण तप्पा ओग्गुकस्सद्विदिमंतोमुहुत्तमाचाहं काऊण बंध | एवं बंधमाणस जदेही एसा तप्पा ओग्गुक्कस्सिया आवाहा तेत्तियमेत्तकालमुक्कड्डणाए वावदस्य तस्स तावदिमसमयतसस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ त्ति एसो एदस्स भावत्थो, उवरि समितात्रिहाणं पि तत्थ तसकाइयणवगबंधस्सावद्वाणादो | एत्थ संचयादिपरूवणा जाणिय कायव्वा ।
* एवं पुरिसवेद-हस्स रद्द-भय दुगंछाणं ।
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सो ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक अन्तर्मुहूर्त काल तक होनेवाला उत्कर्षणनिमित्तक लाभ वहाँ देखा जाता है । और इसी बात के बतलानेके लिये सूत्र में 'तत्थ तप्पा ओग्गमुक्कस्सट्ठिदिं बंधमाणस्स' इत्यादि वाक्य कहा है । सोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही तप्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशके द्वारा तद्योग्य उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है जिसका आबाधा काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है । इस प्रकार बन्ध करनेवाले इस जीवके तद्योग्य जितनी उत्कृष्ट बाधा होती है उतने काल तक उत्कर्षंण में लगे हुए इस सजीवके अन्तिम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है यह इस सूत्र का भावार्थ है । इसके आगे स्वामित्वका विधान इसलिये नहीं किया है, क्योंकि वहाँ कायिकके नवकबन्धका सद्भाव पाया जाता है । यहाँ पर संचय आदिकी प्ररूपणा जानकर कर लेनी चाहिए ।
।
विशेषार्थ- आशय यह है कि अभव्यों के योग्य जघन्य सत्कर्म करनेके लिये पहले इस जीवको पल्पके असंख्यातवें भागसे अधिक कर्मस्थितिप्रमाण काल तक सूक्ष्म एकेन्द्रियों में रहने दे । तथा इसका एकेन्द्रियोंमें रहनेका जो काल है उस कालके भीतर इसे त्रसोंमें उत्पन्न कराना युक्त नहीं है, क्योंकि इससे लाभके स्थान में हानि अधिक है। लाभ तो यह है कि पर्षण- उत्कर्षणके द्वारा प्रकृत निषेकका द्रव्य उत्तरोत्तर कम होता जाता है पर जितना यह द्रव्य कम होता है उससे बहुत अधिक न्यूतन द्रव्य उसमें प्राप्त होता रहता है, क्योंकि अपकर्षण- उत्कर्षण गुणकार से योगगुणकार असंख्यातगुणा बड़ा है इसलिये जब तक अभव्यके योग्य जघन्य द्रव्य नहीं होता तब तक इसे एकेन्द्रियों में ही रहने दे। फिर वहाँसे नसोंमें उत्पन्न करावे, यहाँ उत्पन्न होने पर तद्योग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे तद्योग्य उत्कृष्ट बाधा प्राप्त करनेके लिये उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करावे | फिर बाधा के अन्तिम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व प्राप्त करे । अबाधा के अन्तिम समय में प्रकृत जघन्य स्वामित्व प्राप्त कराने में दो लाभ हैं। एक तो पर्याय में आने पर जितने स्थान ऊपर जाकर जघन्य स्वामित्व प्राप्त हुआ है उतने गोपुच्छविशेषोंकी हानि देखी जाती है। और दूसरे उदयावतिके सिवा उतने काल तक उत्कर्षण होता रहता है, जिससे प्रकृत निषेकका द्रव्य उत्तरोत्तर सूक्ष्म होता जाता है । इस प्रकार बारह कषायोंके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है इसका विचार किया ।
* इसी प्रकार पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा के विषय में भी जानना चाहिये |
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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
६ ७२८. जहा बारसकसायाणं तिण्ह पि हिदिपत्तयाणं जहण्णसामित्तं परूविदं तहा एदेसि पि कम्माणं परूवेयव्वं, विसेसाभावादो ।
8 इत्थि-णवु सयवेद-अरदि-सोगाणमधाणिसेयादो जहएणयं हिदिपत्तयं जहा संजलणाणं तहा कायव्वं ।
७२६. अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णपदेससंतकम्मेण सह तसकाइएसुप्पाइय आबाहाचरिमसमए सामित्तविहाणेण विसेसाभावादो ।
* जम्हि अधाणिसेयादो जहएणयं द्विदिपत्तयं तम्हि चेव णिसेयादो जहएणयं हिदिपत्तयं ।
$ ७३०. सुगममेदमप्पणासुतं, पुविल्लादो अविसिपरूवणत्तादो ।
8 उदयहिदिपत्तयं जहा उदयादो झीणहिदियं जहएणयं तहा णि रवयवं कायव्वं । $ ७३१. सुगममेदमप्पणासुत्तं ।
एवं जहण्णसामित्तं समत्तं ।
६७२८. जिस प्रकार बारह कषायोंके तीनों ही स्थितिप्राप्त द्रव्योंके जघन्य स्वामित्वका कथन किया है उसी प्रकार पूर्वोक्त कर्मों के विषयमें भी जानना चाहिये, क्योंकि इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है।
* स्त्रीवेद, नपुसकवेद, अरति और शोकके जघन्य यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका कथन संज्वलनोंके समान करना चाहिए।
७२६. क्योंकि दोनों स्थलोंमें अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्म के साथ त्रसकायिकोंमें उत्पन्न होकर आबाधाके अन्तिम समयमें स्वामित्वका विधान किया है, इसलिए उनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है।
* उक्त कर्मोंका जिस स्थलपर जघन्य यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य होता है उसी स्थलपर जघन्य निपेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका भी कथन करना चाहिये।
६७३०. यह अर्पणासूत्र सुगम है, क्योंकि इसका व्याख्यान पूर्वोक्त सूत्रके व्याख्यानके समान है।
* तथा उक्त कर्मों के जघन्य उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका सम्पूर्ण कथन उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यके समान करना चाहिये । ६ ७३१. यह अर्पणासत्र सुगम है।
इम प्रकार जघन्य स्वामित्वका कथन समाप्त हुआ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ * अप्पाबहुअं।
5 ७३२. सुगममेदमहियारसंभालणसुत्तं । तं च दुविहं जहण्णुक्कस्सभेएण । तत्थुकस्सप्पाबहुअपरूवणमुत्तरसुत्तारंभो
* सव्वपयडीणं सव्वत्थोवमुकस्सयमग्गहिदिपत्तयं ।
६७३३. कुदो ? उक्कस्सजोगेण बद्धेयसमयपबद्धे अंगुलस्सासंखे०भागेण खंडिदे तत्थेयखंडपमाणतादो ।
* उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयमसंखेजगुणं ।
६ ७३४, एत्थ गुणगारपमाणमोकड्डुक्कड्डणभागहारपदुप्पण्णकम्मडिदिणाणागुणहाणिसलागण्णोण्णभत्थरासिमेतं । णवरि तिण्णिवेदचदुसंजलणाणं तप्पाओग्गसंखेजरूबोवट्टिदअंगुलस्सासंखे०भागमेतो गुणगारो। एत्थोवट्टणं ठविय सिस्साणं गुणगारबिसओ पडिबोहो कायव्यो ।
8 णिसेयहिदिपत्तयमुक्कस्सय विसेसाहियं ।। ७३५. केत्तियमेत्तेण ? ओकड्डुक्कड्डणाहिं गंतूण पुणो वि तत्थेव पदिददव्य
* अब अल्पवहुत्वका अधिकार है।
७३२. अधिकारका निर्देश करनेवाला यह सत्र सुगम है । वह अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट। अब इनमेंसे उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्य सबसे थोड़ा है।
६७३३. क्योंकि उत्कृष्ट योगसे बाँधे गए एक समयप्रबद्धमें अङ्गुलके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध अावे उतना इसका प्रमाण है, इसलिये यह सबसे थोड़ा है।
* उससे उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य असंख्यातगुणा है।
६७३४. यहाँपर अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे कर्मस्थितिके भीतर प्राप्त हुई नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिको गुणा करनेपर जो लब्ध आवे उतना गुणकारका प्रमाण है । अर्थात् इस गुणकार से उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यके गुणित करनेपर उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य प्राप्त होता है यह इसका भाव है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अङ्गुलके असंख्यातवें भागमें तत्प्रायोग्य संख्यात अङ्कोंका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना तीन वेद और चार संज्वलनोंकी अपेक्षा गुणकार होता है। यहाँपर भागहारको स्थापित करके शिष्योंको गुणकारविषयक ज्ञान कराना चाहिये।
* उससे उत्कृष्ट निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य विशेष अधिक है । ६ ७३५. शांका-कितना अधिक है ? समाधान-अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा जो द्रव्य व्ययको प्राप्त होता है उस .
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गा० २२ ]
मेण । तं भागहारो ।
पुण
हो ।
पदेस वित्तीय द्विदियचूलियाए अप्पाबहुअं
अधाणिसेयदव्वस्स असंखे ० भागमेत्तं । तस्स पडिभागो ओकड्डुकड्डुण
* उदयहिदिपत्तयमुक्कस्सयमसंखेज्ज गुणं ।
$ ७३६. कुदो ? सव्वेसिं कम्माणं गुणसेडिगोवुच्छोदएण पत्तकरसभावत्तादो । एत्थ गुणगारो सम्मत्तस्स अंगुलस्स असंखेदिभागो । लोहसंजलजस्स संखेज्जरुवगुणिददिवडूगुणहाणिमेत्तो । तिण्णिसं जलण-तिवेदाणं तप्पा ओग्गप लिदोवमा संखेज्जदिभागमेत्तो । सेसकम्माणमसंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्तो । एत्थोवट्टणं ठविय सिस्साणं पडिवोहो
काव्वो ।
एवमुकस्सप्पाबहुयं समत्तं ।
* जहण्णयाणि कायव्वाणि
१७३७. एतो उवरि जहण्णद्विदिपत्तगाणमप्पाबहुअं कायव्वमिदि भणिदं
* सवत्थवं मिच्छत्तस्स जहणणयमग्गहिदिपत्तयं ।
३ ७३८. किं कारणं ? एगपरमाणुपमाणत्तादो |
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फिरसे वहाँ प्राप्त होनेपर जितना इसका प्रमाण है उतना अधिक है किन्तु यह यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । उसका प्रतिभाग अपकर्षण- उत्कर्षण भागहार है I
* उससे उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्य असंख्यातगुणा है ।
६७३६. क्योंकि सभी कर्मों के गुणश्रेणिगोपुच्छा के उदयसे इस उत्कृष्ट द्रव्यकी प्राप्ति होती है, इसलिए यह उत्कृष्ट निषेकस्थितिप्राप्त से भी असंख्यातगुणा है । यहाँ सम्यक्त्वका गुणकार अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। लोभसंज्वलनका गुणकार संख्यात अङ्कों से गुणित डेढ़ प्रमाण है। तीन संज्वलन और तीन वेदों का गुणकार तद्योग्य पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा शेष कर्मों का गुणकार पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । यहाँ पर भागहारको स्थापित करके शिष्यों को प्रतिबोध कराना चाहिये ।
इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
* अब जघन्य अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये ।
९ ७३७. अब इससे आगे जघन्य स्थितिप्राप्त द्रव्यों के अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये, यह इस सूत्र का तात्पर्य है ।
* मिथ्यात्वका जघन्य अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्य सबसे थोड़ा है ।
६७३८. क्योंकि इस प्रमाण एक परमाणु है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ 8 जहणणयं णिसेयहिदिपत्तयं अणंतगुणं । ६ ७३६. कुदो ? अणंतपरमाणुपमाणत्तादो । ॐ जहएणयमुदयहिदिपत्तयमसंखेजगुणं ।
६ ७४०. कथमेदेसिमुवसमसम्माइद्विपच्छायदपढमसमयमिच्छाइहिणोदीरिदासंखेजलोगपडिभागियदव्वपडिबद्धत्तेण समाणसामियाणमण्णोण्णमवेक्खिय असंखेजगुणहीणाहियभावो त्ति णासंकणिज्जं, समाणसामियत्ते वि दवविसेसावलंबणेण तहाभावाविरोहादो । तं जहा-णिसेयहिदिपत्तयस्स अहियारहिदीए अंतरं करेमाणेण उवरिमुकड्डिदपदेसा पुणो संकिलेसवसेणासंखेजलोगपडिभाएणोदीरिदा सामित्तविसईकया उदयादो जहण्णहिदिपतयस्स पुण अंतोकोडाकोडीमेत्तोवरिमासेसहिदीहितो
ओकड्डिय उदीरिदसव्वपरमाणु सामित्तपडिग्गहिया · तदो जइ वि एकम्मि चे उद्देसे दोण्हं सामित्तं संजादं तो वि णाणेयणिसेयपडिबद्धत्तेण असंखेजगुणहीणाहियभावो ण विरुज्झदे । एत्थ गुणयारोकड्डुक्कड्डणभागहारोवट्टिददिवडगुणहाणिवग्गमेत्तो ।
~~~~~~~~~~
* उससे जघन्य निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य अनन्तगुणा है । $ ७३९. क्योंकि इसका प्रमाण अनन्त परामाणु है। * उससे जघन्य उदयस्थितिप्राप्त द्रव्य असंख्यातगुणा है।
६७४०. शंका-जब कि उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आकर प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात लोकका भाग देकर जितने द्रव्यकी उदीरणा करता है उसकी अपेक्षा इन दोनोंका स्वामी समान है तब फिर इनमेंसे एकको असंख्यातगुणा हीन और दूसरेको असंख्यातगुणा अधिक क्यों बतलाया है ?
समाधान-ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि यद्यपि इनका स्वामी समान है तथापि द्रव्यविशेषकी अपेक्षा ऐसा होनेमें कोई विरोध नहीं आता। खुलासा इस प्रकार है-निषेकस्थितिप्राप्तकी अपेक्षासे अन्तरको करनेवाले जीवके द्वारा विवक्षित स्थितिके जिन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण करके ऊपर निक्षेप किया है उनमेंसे संक्लेशके कारण असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतने वे ही कर्मपरमाणु उदीर्ण होकर स्वामित्वके बिषयभूत होते हैं । किन्तु जघन्य उदयस्थितिप्राप्तकी अपेक्षा तो अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण ऊपरकी सब स्थितियोंमेंसे अपकर्षण होकर उदीरणाको प्राप्त हुए सब परमाणु स्वामित्वरूपसे स्वीकार किये गये हैं, इसलिये यद्यपि एक ही स्थलपर दोनों स्थितिप्राप्त द्रव्योंका स्वामित्व होता है तो भी एक स्थितिप्राप्तमें नाना निषेकोंके कर्मपरमाणु हैं और दूसरेमें एक निषेकके कर्मपरमाणु हैं, इसलिए इनके परस्परमें असंख्यातगुणे अधिक और असंख्यातगुणे हीन होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। यहाँ पर अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका डेढ़ गुणहानिके वर्गमें भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना गुणकारका प्रमाण है।
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पदेस वित्तीए ट्ठिदियचूलियाए अप्पा बहु * जहरणयमधाणिसेयद्विदिपत्तयमसंखेज्जगुणं ।
९ ७४१. एत्थ गुणगारपमाणमसंखेज्जा लोगा तप्पा ओग्गा संखेज्जरुवाणि वा । कथमसंखेज्ज लोगमेत्तगुणयारुपपत्ती ? उच्चदे -- उदय हिदिपत्तयस्स जहण्णदव्वे इच्छिज्जमाणे दिगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धे ठत्रिय तेर्सि ओकड्डुकडुणभागहारेण पदुप्पण्णा असंखेज्जा लोगा भागहारसरूवेण ठवेयन्वा । एवं विदे इच्छिददव्त्रमागच्छइ । जहाणिसेय द्विदिपत्तयस्स पुण जहण्णदव्वं संखेज्जावलियमेत्तसमयपबद्धे अंगुलस्स संखेज्जदिभागेणखंडिय तत्थेयखंडमेत्तं होइ । एदस्सोवणे ठविज्जमाणे संखेज्जावलियमेतसमयपवद्धाणं वेद्यावद्विसागरोत्रमन्यंतरणाणागुणहाणिं विरलिय विगुणिय अण्णोष्णव्भत्थरासिम्मि भागहारतेण उविदे गलिद से सदव्वमागच्छइ । एवं च सव्वदन्त्रमुवरिमतोकोडाकोडीमेत्तद्वदिविसेसेसु विहज्जिय द्विदमधाणिसेय जहण्णसामित्तविसईकयगोवच्छपमाणेण कीरमाणं दिवगुणहाणिपमाणं होइ ति दिवडगुणहाणी वि एदस्स भागहारो ठaroat | एवं विदे इच्छिददव्यमागच्छइ । पुणो एदम्मि पुव्विल्लदव्वेसंखेज्जा लोगा गुणगारो आगच्छइ ।
१७४२. अहवा जहाणिसेयद्विदिपत्तयस्स वि असंखेज्जा लोगा भागहारो |
गा० २२ ]
* उससे जघन्य यथानिषेक स्थितिप्राप्त द्रव्य असंख्यातगुणा है ।
९७४१. यहाँ पर गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है या तत्प्रायोग्य असंख्यात
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शंका - असंख्यात लोकप्रमाण गुणकारकी उत्पत्ति कैसे होती है ?
समाधान - उदयस्थितिप्राप्त जघन्य द्रव्यको लानेकी इच्छासे डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंको स्थापित करके उनके भागहाररूपसे अपकर्षण- उत्कर्षंण भागहारके द्वारा उत्पन्न किये गये असंख्यात लोकोंको स्थापित करना चाहिये । इस प्रकार स्थापित करनेपर इच्छित द्रव्यका प्रमाण जाता है । किन्तु यथानिषेकस्थितिप्राप्तका जघन्य द्रव्य तो संख्यात श्रावलिप्रमाण समयप्रबद्धों में अङ्गुलके असंख्यातवें भाग का भाग देनेपर जो एक भाग आवे उतना होता है । इसका भागहार स्थापित करनेपर संख्यात आवलिप्रमाण समयप्रबद्धों के भागहाररूपसे दो छयासठ सागर के भीतर प्राप्त हुईं नाना गुणहानिशलाकाओंको विरलन करके और दूना करके परस्पर गुणा करनेसे जो अन्योन्याभ्यस्त राशि उत्पन्न होती है उसे स्थापित करनेपर गलकर जो द्रव्य शेष रहता है उसका प्रमाण आ जाता है। इस प्रकार ऊपर के अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिविशेषों में जो सब द्रव्य विभक्त होकर स्थित है उसके यथानिषेकके जघन्य स्वामित्व के विषयभूत गोपुच्छके बराबर हिस्से करनेपर वे डेढ़ गुणहानिप्रमाण प्राप्त होते हैं, इसलिए डेढ़ गुणहानिको भी इसके भागहाररूपसे स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार स्थापित करनेपर इच्छित द्रव्यका प्रमाण आ जाता है । फिर इसमें पूर्वोक्त द्रव्यका भाग देनेपर असंख्यात लोकप्रमाण गुणकार प्राप्त होता है ।
६ ७४२. अथवा यथा निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका भी असंख्यात लोकप्रमाण भागहार होता है,
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ कुदो ? पुव्वपरूविदभागहारे संते पुणो वि ओकड्डणमस्सियूणुप्पण्णवेछावहिसागरोवमभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमसंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्ताणं अण्णोण्णब्भत्थरासीए असंखेज्जलोगपमाणाए भागहारतेण पवेसदसणादो। तदो एदम्मि हेहिमरासिणा ओवट्टिदे तप्पाओग्गासंखेज्जरूवमेत्तो गुणगारो आगच्छदि त्ति घेत्तव्वं ।
® एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-पुरिसवेद हस्स-रइ-भयदुगुंछाणं।
७४३. जहा मिच्छत्तस्स जहण्णओ अप्पाबहुगआलावो को तहा सम्मत्तादिपयडीणं पि अणणाहिमो कायव्यो, विसेसाभावादो। गवरि सामित्ताणुसारेण गुणयारविसेसो जाणियव्यो ।
* अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवं जहएणयमग्गहिदिपत्तयं । ६ ७४४. सुगमं । * जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयमणंतगुणं । $ ७४५. एत्थ वि कारणं सुगमं ।
8 जहएणयं णिसेयहिदिपत्तयं विसेसाहियं । क्योंकि पूर्वोक्त भागहारके रहते हुए फिर भी अपकर्षणकी अपेक्षा दो छयासठ सागरके भीतर उत्पन्न हुई पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण नाना गुणहानिशलाकाओंकी असंख्यात लोकप्रमाण अन्योन्याभ्यस्त राशिका भागहाररूपसे प्रवेश देखा जाता है। फिर इसे नीचेकी राशिसे भाजित करनेपर तत्प्रायोग्य असंख्यात अङ्कप्रमाण गुणकार आता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
___* इसी प्रकार सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह काषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका भी जघन्य अल्पबहुत्व कहना चाहिए ।
७४३. जिस प्रकार मिथ्यात्वके जघन्य अल्पबहुत्वका कथन किया है न्यूनाधिकताके बिना उसी प्रकार सम्यक्त्व आदि प्रकृतियोंके अल्पबहुत्वका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्वके कथनसे इनके कथम में कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सबकी अपेक्षा गुणकार एकसा नहीं है इसलिए अपने अपने स्वामीके अनुसार गुणकार जानना चाहिये।
* अनन्तानुबन्धियोंका जघन्य अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्य सबसे थोड़ा है। ६७४४. इस सूत्रका अर्थ सुगम है। * उससे जघन्य यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य अनन्तगुणा है ।
६ ७४५. यहां जो जघन्य अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यसे जघन्य यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यको अनन्तगुणा बतलाया है सो इसका कारण सुगम है।
* उससे जघन्य निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य विशेष अधिक है ।
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गा० २२ ]
पदेस वित्तीय द्विदियचूलियाए अप्पाबहुअं
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$ ७४६. एदं पि सुगमं, समाणसामियत्ते वि दव्वगयविसेसमस्तियूण विसेसाहियभावस्स पुन्नमेव समत्थियत्तादो ।
* जहण्णयमुदयहिदिपत्तयमसंखेज्ज गुणं ।
5 ७४७. कुदो ? सामितभेदाभावे वि सेसकसा एहिंतो पडिच्छियूणुकडिददव्वमाहप्पेण पुबिल्लादो एदस्सा संखेज्जगुणत्तदंसणादो। एत्थ गुणगारो असंखेज्जा लोगा ।
* एवमित्थवेद
सयवेद-अरदि-सोगाणं |
९ ७४८. जहा अनंताणुबंधिचक्कस्स जहण्णद्विदिपत्तयाणमप्पा बहु परूवियं एवं पयदकम्माणं पिपरूत्रेयव्त्रं; दव्त्रयिणयावलंबणे विसेसाणुवलंभादो । पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे सामित्तानुसारेण गुणयारविसेसो जाणियव्वो ।
एवमप्पा बहु समत्तं । तदो द्विदियं ति पदस्स विहासा समत्ता । एत्थेव 'पडी य मोहणिज्जा' एदिस्से मूळगाहाए अत्थो समत्तो ।
तदो पदेसविहत्ती सचूलिया समत्ता ।
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९ ७४६. यह सूत्र भी सुगम है । यद्यपि यथानिषेक और निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी एक है तथापि द्रव्यगत विशेषताकी अपेक्षासे विशेषाधिकता होती है इसका समर्थन पहले ही
ये हैं ।
* उससे जघन्य उदयस्थितिप्राप्त द्रव्य असंख्यातगुणा है ।
$ ७४७. क्योंकि यद्यपि निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी एक है। तथापि शेष कषायोंसे संक्रमित होकर उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्य के माहात्म्यसे पूर्व की अपेक्षा यह असंख्यातगुणा देखा जाता है । यहाँ पर गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है 1
* इसीप्रकार स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति और शोकका अल्पबहुत्व जानना चाहिये ।
६४८. जिसप्रकार अनन्तानुबन्धियोंके चारों जघन्य स्थितिप्राप्त द्रव्योंका अल्पबहुत्व कहा है इसीप्रकार प्रकृत कर्मों के जघन्य स्थितिप्राप्त द्रव्योंका अल्पबहुत्व भी कहना चाहिये, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं पायी जाती । पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर तो स्वामित्व के अनुसार गुणकारविशेष जानना चाहिये ।
इसप्रकार अल्पबहुत्व के समाप्त होनेपर 'द्विदियं' पदका विशेष व्याख्यान समाप्त हुआ । तथा यहीं पर 'पयडी य मोहणिज्जा' इस मूल गाथाका अर्थं समाप्त हुआ ।
इसप्रकार चूलिका सहित प्रदेशविभक्ति समाप्त हुई ।
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१ पदेस विहत्तिचुरिण सुत्ताणि
पुस्तक ६
'पदेसविहत्ती दुविहा - मूलपय डिपदेसविहत्ती उत्तरपयडिपदेस विहत्ती च । तत्थ मूलपयडिपदेसविहत्तीए गदाए उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए एगजीवेण सामित्तं । 'मिच्छतस्स उक्कस्सपदेसविहत्ती कस्स ? बादरपुढ विजीवेसु कम्मडिदिमच्छि दाउदो उदो तसकाए वेसागरोवमसहस्साणि सादिरेयाणि श्रच्छिदाउ
पच्छिमाणि तेत्तीस सागरोवमाणि दोभवग्गहणाणि तत्थ अपच्छिमे तेत्तीसं सागरोमिए रइयभवगणे चरिमसमयणेरइयस्स तस्स मिच्छत्तस्स उक्कस्सयं पदेस संतकम्मं । एवं बारसकसाय छण्णोकसायाणं । सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्तपदेस विहत्तिओ को होदि ? गुणिदकंम्पस्सिओ दंसणमोहणीयक्खवओ जम्मि मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते पक्खित्तं तम्मि सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेस विहत्तिओ । सम्मतस्स वि तेणेव जम्मि सम्मामिच्छतं समत्ते पक्खित्तं तस्स सम्मत्तस्स उक्कस्सपदेस संतकम्मं । णवुंसय वेदस्स उक्कस्यं पदेस संतकमं कस्स ? गुणिदकम्मंसिओ ईसाणं गदो तस्स चरिमसमय देवस्स उकस्सयं पदेस संतकम्मं । 'इत्थवेदस्स उक्कस्यं पदेस संतकम्मं कस्स ? गुणिदकम्मंसिओ असंखेज्जवस्साए गदो तम्मि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण जहि पूरिदो तस्स इत्थवेदस्स उक्कस्यं पदेस संतकम्मं । पुरिसवेदस्स उक्कस्यं पदेससंतकम्मं कस्स ? गुणिदकम्मंसिओ ईसाणेसु णबुंसयवेदं पूरेण तदो कमेण असंखेज्जवस्साए उaaण्णो । तत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण इत्थिवेदो पूरिदो । तदो सम्मत्तं लब्भिदूण मदो पलिदोवमहिदीओ देवो जादो । तत्थ तेणेव पुरिसवेदो पूरिदो । तदो चुदी मणुसो जादो सव्बलहुं कसाए खवेदि । तदो णकुंसय वेदं पक्खिविण जम्हि इत्थवेदो पक्खित्तो तस्समए पुरिसवेदस्स उकस्सयं पदेस संतकम्मं । " तेणेव जाधे पुरिसवेद - छण्णोकसायाणं पदेसग्गं कोधसंजलणे "पक्खित्तं ताधे कोधसंजलणस्स उक्कस्यं पदेस संतकम्मं । एसेव कोधो जाधे माणे पक्खित्तो ताधे माणस्स उक्कस्यं पदेस संतकम्मं । एसेव माणो जाधे मायाए पक्खित्तो ताधे मायासंजलणस्स उक्कस्यं पदेससंतकम्मं । एसेव माया जाधे लोभसंजलणे पक्खित्ता ताधे लोभसंजणस्स उक्कस्यं पदेस संतकम्मं ।
(१) पृ० २ । (२) पृ० ६० । (७) पृ० ६१ । (८) पृ० ६६ । (६) पृ० (१३) पृ० ११४ ।
(३) पृ० ७२ । (४) पृ० ७६ । (५) पृ० ८१ । (६) पृ० ८८ । १०४ । (१०) पृ० ११० । (११) पृ० १११ । ( १२ ) पृ० ११३ ।
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४५४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे _'मिच्छत्तस्स जहण्णपदेससंतकम्मिो को होदि ? सुहुमणिगोदेसु कम्मतिदिमच्छिदाउओ तत्थ सबबहुआणि अपज्जत्तभवग्गहणाणि दीहाओ अपज्जत्तद्धाओ तप्पाओग्गजहण्णयाणि जोगहाणाणि अभिक्खं गदो। तदो तप्पाओग्गजहणियाए वडीए वडिदो । जदा जदा आउअं बंधदि तदा तदा तप्पाओग्गउक्कस्सएसु जोगहाणेसु वट्टदि हेडिल्लीणं हिदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदेसतप्पाओग्गं उक्कस्सविसोहिमभिक्वं गदो । जाधे अभवसिद्धियपाओग्गं जहण्णगं कम्मं कदं तदो तसेसु आगदो । संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लदो। चत्तारि वारे कसाए उत्सामित्ता तदो वेछावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालेदृण तदो दंसणमोहणीयं खवेदि । अपच्छिमहिदिखंडयमविणिजमाणयमवणिदमुदयावलियाए जं तं गलमाणं तं गलिदं। जाधे एक्किस्से हिदीए दुसमयकालहिदिगं सेसं ताधे मिच्छत्तस्स जहण्णयं पदेससंतकम्मं । तदो पदेहत्तरं दुपदेसुत्तरमेवमणंताणि हाणाणि तम्मि हिदिविसेसे । केण कारणेण ? जं तं जहाक्खयागदं तदो उक्कस्सयं पि समयपबद्धमत्तं । जो पुण तम्मि एक्कम्मि हिदिविसेस उक्कस्सगस्स विसेसो असंखेज्जा समयपवद्धा। 'तस्स पुण जहण्णयस्स संतकम्मस्स असंखेजदिभागो । एदेण कारणेण एवं फड्डयं । दोसु हिदिविसेसेसु विदियं फहयं । एवमावलियसमयूणमेत्ताणि फहयाणि। अपच्छिमस्स हिदिखंडयस्स चरिमसमयजहण्णफद्दयमादि कादूण जाव मिच्छत्तस्स उक्कस्सं ति एदमेगं फद्दयं ।
"सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णय पदेससंतकम्म कस्स १ तथा चेव सुहुमणिगोदेसु कम्महिदिमच्छिदूण तदो तसेसु संजमासंजमं संजमं सम्मतं च बहुसो लभ्रूण चत्तारि वारे कमाए उवसामेण वेछावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालेदूण मिच्छत्तं गदो । दीहाए उज्वेलणद्धाए उव्वेलिदं तस्स जाधे सव्वं उव्वेल्लिदं उदयावलिया गलिदा जाधे दुसमयकालहिदिय एक्कम्मि हिदिविसेसे सेसं ताधे सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णं पदेससंतकम्मं । "तदो पदेसुत्तरं । "दुपदेसुत्तरं । गिरंतराणि हाणाणि उक्कस्सपदेससंतकम्मं ति । "एवं चेव सम्मत्तस्स वि । “दोण्हं पि एदेसि संतकम्माणमेगं फद्दयौं ।
''अहण्हं कसायाणं जहण्णय पदेससंतकम्म कस्स ? अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णयं काऊण तसेसु आगदो संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लद्धृण चत्तारिवारे कसाए उवसामिदूण एइंदिए गदो। तत्थ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमच्छिदूण कम्मं हदसमुप्पत्तियं कादूण कालं गदो तसेसु आगदो कसाए खवेदि
(१) पृ० १२४-१२५ । (२) पृ० १५६ । (३) पृ० १५७ । (४) पृ० १५६ । (५) पृ० १६२ । (६) पृ० १६३ । (७) पृ० १६४ । (८) पृ० १६६ । (६) पृ० १६७ । (१०) पृ. २०२-२०३ । (११) पृ० ,२१७ । (१२) पृ० २१८ । (१३) पृ० २४४ । (१४) पृ० २४५ । (१५) पृ० २४६ ।
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परिसिट्ठाणि
४५५ अपच्छिमे हिदिखंडए अवगदे अघहिदिगलणाए उदयावलियाए गलतीए एकिस्से हिदीए सेसाए तम्मि जहण्णयं पदं । 'तदो पदेसुत्तरं । णिरंतराणि हाणाणि जाव एगहिदिविसेसस्स उक्कस्सपदं । एदमेगफद्दयं । एदेण कमेण अहण्हं पि कसायाणं समययूणावलियमेत्ताणि फद्दयाणि उदयावलियादो । 'अपच्छिमटिदिखंडयस्स चरमसमयजहण्णपदमादि कादण जावुक्कस्सपदेससंतकम्मं ति एदमेगं फद्दयं ।
'अणंताणुबंधीणं मिच्छत्तभंगो । णqसयवेदस्स जहण्णय पदेससंतकम्म कस्स ? तथा चेव अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णेण संतकम्मेण तसेसु ागदो संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लघृण चत्तारि बारे कसाए उवसामिण तदो तिपलिदोवमिएसु उववण्णो । तत्थ अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्वए ति सम्मत्तं घेतूण वेछावहिसागरोवमाणि सम्मत्तद्धमणुपालिदूण मिच्छत्तं गंतूण णqसयवेदमणुस्सेसु उववण्णो । सव्वचिरं संजममणुपालिदूण खवेदुमाढतो । तदो तेण अपच्छिमहिदिखंडयं संछुहमाणं संछुद्धं । उदओ णवरि णिरवसेसो तस्स चरिमसमयणqसयवेदस्स जहण्णयं पदेससंतकम्मं । तदो पदेसुत्तरं । णिरंतराणि हाणाणि जाव तप्पाओग्गो उक्कस्सो उदओ त्ति । 'एदमेगं फ६यं । "अपच्छिमस्स हिदिखंडयस्स चरिमसमयजहण्णपदमादिं कादण जाव उक्कस्सपदेससंतकम्मं णिरंतराणि हाणाणि । एवं णव॒सयवेदस्स दो फद्दयाणि । एवमित्थिवेदस्स । णवरि तिपलिदोवमिएसु णो उववण्णो । पुरिसवेदस्स जहण्णयं पदेससंतकम्मं कस्स ? चरिमसमयपुरिसवेदोदयक्खवगेण घोलमाणजहण्णजोगहाणे वट्टमाणेण जं कम्म बद्धं तं कम्ममावलियसमयअवेदो संकामेदि । जत्तो पाए संकामेदि तत्तो पाए सो समयपबद्धो आवलियाए अकम्मं होदि । तदो एगसमयमोसक्किदृण जहण्णयं पदेससंतकम्महाणं। तस्स कारणमिमा परूवणा कायव्वा । पढमसमयअवेदगस्स केत्ति या समयपबद्धा। दो आवलियाओ दुसमऊणाओ। केण कारणेण ? "जं चरिमसमयसवेदेण बद्धं तमवेदस्स विदियाए आवलियाए तिचरिमसमयादो त्ति दिस्सदि दुचरिमसमए अकम्मं होदि । जं दुचरिमसमयसवेदेण बद्धं तमवेदस्स विदियाए आवलियाए चदुचरिमसमयादो ति दिस्सदि। तिचरिमसमए अकम्मं होदि । "एदेण कमेण चरिमावलियाए पढमसमयसवेदेण जं बद्धं तमवेदस्स पदमावलियाए चरिमसमए अकम्मं होदि । जं सवेदस्स दुचरिमाए आवलियाए पढमसयए पबद्धं तं चरिम समयसवेदस्त अकम होदि । जं तिस्से चेव दुचरिमसमयसवेदावलिगए विदियसमए बद्धं तं पढमसमयअवेदस्स अकम्मं होदि। एदेण
(१) पृ० २५३ । (२) पृ० २५५ । (३) पृ० २५६ । (४) पृ० २६७-२६८ । (५) पृ० २७४ । (६) पृ० २८२ । (७) पृ० २८३ । (८) पृ० २६१ । (६) पृ० २६३ । (१०) पृ० २६४ । (११) पृ० २६५ । (१२) पृ० २६६ ।
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___ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे कारणेण वेसमयपबद्धण लहदि अवगदवेदो । सवेदस्स दुचरिमावलियाए दुसमयूणाए चरिमावलियाए सव्वे च एदे समयपबद्धे अवेदो लहदि । एसा ताव एक्का परूवणा । 'इमा अण्णा परूवणा। दोहि चरिमसमयसवेदेहि तुल्ल नोगेहि बद्धं कम्मं तेसिं तं संतकम्म चरिमसमयअणिल्लेविदं पि तुल्लं । दुचरिमसमयअणिन्लेविदं पि तुल्लं । एवं सव्वत्थ । एदाहि दोहि परूवणाहि पदेससंतकम्महाणाणि परूबेदव्वाणि । जहाजो चरिमसमयसवेदेण बदो समयपबद्धो तम्हि चरिमसमयअणिल्लेविदे घोलमाणजहण्णजोगहाणमादि कादृण जत्तियाणि जोगहाणाणि तत्तियमेताणि संतकम्महाणाणि । 'चरिमसमयसवेदेण उक्कस्सजोगेणे ति दुचरिमसमयसवेदेण जहण्णजोगहाणेणे त्ति एत्थ जोगहाणमेत्ताणि [संतकम्महाणागि] लम्भंति । 'चरिमसमयसवेदो उक्कस्सजोगो दुचरिमसमयसवेदो उक्कस्सजोगो तिचरिमसमयसवेदो अण्णदरजोगहाणे ति एत्थ पुण जोगहाणमेत्ताणि पदेससंतकम्मट्ठाणाणि [लब्भंति । एवं जोगहाणाणि दोहि आवलियाहि दुसमयूणाहि पदुप्पण्णाणि । एत्तियाणि अवेदस्स संतकम्महाणाणि सांतराणि सव्वाणि । 'चरिमसमयसवेदस्स एगं फद्दयं । दुचरिमसमयसवेदस्स चरमहिदिखंडगं चरिमसमयविणटुं । तस्स दुचरिमसमयसवेदस्स जहण्णगं संतकम्ममादि कादूण जाव पुरिसवेदस्स ओघुक्कस्सपदेससंतकम्म ति एदमेगं फद्दयं ।
"कोधसंजलणस्स जहण्णय पदेससंतकम्म कस्स ? चरिमसमयकोधवेदगेण खवगेण जहण्णजोगहाणे जं बद' तं जं वेलं चरिमसमयअणिल्लेविदं तस्स जहण्णय . संतकम्मं । "जहा पुरिसवेदस्स दोआवलियाहि दुसमऊणाहि जोगहाणाणि पदुप्पण्णाणि एवदियाणि संतकम्मट्ठाणाणि सांतराणि । एवमावलियाए समऊणाए जोगहाणाणि पदुप्पण्णाणि एत्तियाणि कोषसंजलणस्स सांतराणि संतकम्महाणाणि । "कोषसंजलणस्स उदए वोच्छिण्णे जा पढमावलिया तत्थ गुणसेढी पविल्लिया। तिस्से आवलियाए चरिमसमए एगं फद्दयं । "दुचरिमसमए अण्णं फद्दय' । “एवमावलियंसमयूणमेत्ताणि फदयाणि । चरिमसमयकोधवेदयस्स खवयस्स चरिमसमयअणिल्लेविदं खंडय होदि । तस्स जहण्णसंतकम्ममादि कादूण जाव ओघुक्कस्सं कोधसंजलणस्स संतकम्मं ति एदमेगं फद्दय ।
जहा कोधसंजलणस्स तहा माण-मायासंजलणाणं । "लोभसंजलणस्स जहण्णगं पदेससंतकम्मं कस्स ? अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णगेण कम्मेण तसकाय गदो।
(१) पृ० २६७ । (२) पृ० २६८ । (३) पृ० २६६ । (४) पृ० ३०१ । (५) पृ० ३१५ । (६) पृ० ३१७ । (७) पृ० ३१६ । (८) पृ० ३७३ । (६) पृ० ३७५ । (१०) पृ० ३७६ । (११) पृ० ३७७ । (१२) पृ० ३७८ । (१३) पृ० ३७६ । (१४) पृ० ३८० । (१५) पृ. ३८१ । (१६) पृ० ३८२ । (१७) पृ० ३८३ ।
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परिसिहाणि तम्मि संजमासंजमं संजमं च बहुवारं लदाउओ कसाए च उत्सामिदाउओ। तदो कमेण मणुस्सेसुववण्णो। दीहं संजमद्धमणुपालेदूण कसायखवणाए अब्भुट्टिदो तस्स चरिमसमयअधापवत्तकरणे जहण्णगं लोभसंजलणस्स पदेससंतकम्मं । 'एदमादिं कादण जावुक्कस्सय संतकम्मं णिरंतराणि हाणाणि । 'छण्णोकसायाणं जहण्णय पदेससंतकम्म कस्स ? अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कम्मेण तसेसु आगदो । तत्थ संजमासंजमं संजमं च बहुसो लदो। चत्वारि वारं कसाए उवसामेदूण तदो कमेण मणुसो जादो। तत्थ दीहं संजमद्धं कादण खवणाए अब्भुहिदो तस्स चरिमसमयहिदिखंडए चरिमसमयअणिल्लेविदे छण्णं कम्मंसाणं जहण्णय पदेससंतकम्म । 'तदादिय जाव उक्कस्सियादो एगमेव फद्दयं ।
पुस्तक ७ 'कालो। 'मिच्छत्तस्स उकस्सपदेसविहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि ? जहएणुकस्सेण एगसमओ । अणुकस्सपदेसविहत्तिो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुकस्सेण अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । 'अण्णोवदेसो जहण्णेण असंखेजा लोगा ति । अधवा खवगं पडुच्च वासपुधत्तं । “एवं सेसाणं कम्माणं णादण णेदव्वं । ‘णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमणुक्कस्सदव्धकालो जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सारिदेयाणि । “जहण्णकालो जाणिदण णेदव्यो।।
"अंतरं । मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेससंतकम्मियंतरं जहण्णुक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । एवं सेसाणं कम्माणं णेदव्वं । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पुरिसवेद-चदुसंजललणाणं च उक्कस्सपदेसविहत्तिअंतरं पत्थि । "अंतरं जहण्णयं जाणिदूण णेदव्वं ।
"गाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो जहण्णुक्कस्सभेदेहि । अहपदं कादूण सव्वकम्माणं णेदव्वो। "सव्वकमाणं णाणाजीवेहि कालो कायव्यो। "अंतरं णाणाजीवहि सव्वकमाणं जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा ।
"अप्पाबहुअं। सव्वत्थोवमपञ्चक्खाणमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं ।"कोधे उक्कस्सपदेससंतकम विसे साहियं । मायाए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । लोभे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । पञ्चक्रवाणमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । "कोधे उक्कस्सपदेसंतकम्मं विसेसाहियं । मायाए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं ।
(१) पृ० ३८४ । (२) पृ० ३८५-३८६ । (३) पृ० ३८६ । (४) पृ० १। (५) पृ० २ । (६) पृ० ३ । (७) पृ० ४ । (८) पृ० ५ । (६)पृ०६ । (१०) पृ० ७ । (११) पृ० २५ । (१२) पृ० २६ । (१३) पृ० २७ । (१४) ३७ । (१५) पृ० ५०। (१६) पृ० ५३ । (१७) पृ० ७४ । (१८) पृ० ७५ । (१६) पृ० ७६ ।
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जयधबलासहिदे कसायपाहुडे लोभस्स उक्स्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । अणंताणुबंधिमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । कोधे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । मायाए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । लोभे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । सम्मामिच्छत्ते उक्स्सपदेससंतकम विसेसाहियं । 'सम्मत्ते उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। मिच्छत्ते रक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय। हस्से उकस्सपदेससंतकम्ममणतगुणं। रदीए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। इत्थिवेदे । उक्कस्सपदेससंतकम्म संखेज्जगुणं ।
सोगे उक्स्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय' । अरदीए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय । णसयवेदे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। दुगुंछाए उकस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय । भए उकस्सपदेससंतकम विसेसाहिय। पुरिसवेदे उकस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। कोधसंजलणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं संखेजगुणं । 'माणसंजलणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। मायासंजलणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। लोभसंजलणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय ।
णिरयगदीए सव्वत्थोवं सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेससंतकम्म। अपञ्चक्खाणमाणे उकस्सपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं। कोधे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियौं । मायाए उकस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय । लोभे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। पच्चक्खाणमाणो उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय। कोहे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय । मायाए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। लोभे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। अणंताणुबंधिमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय । कोधे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय । मायाए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। लोभे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। सम्मत्ते उकस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। 'मिच्छत्ते उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय । हस्से उक्कस्सपदेससंतकम्ममणंतगुणं। रदीए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । इत्थिवेदे उक्कस्सपदेससंतकम्म संखेजगुणं । "सोगे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय । अरदीए उक्कस्सपदेससतकम्म विसेसाहियं । ण,सयवेदे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । दुगुंछाए उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय । भए उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय । "पुरिसवेदे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय। माणसंजलणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय । "कोषसंजलणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। मायासंजलणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। लोभसंजलणे उक्कस्सपदेससंतकम विसेसाहिय। एवं सेसाणं गदीणं णादूण णेदव्वं ।
(१) पृ० ७८ । (२) पृ० ७६ । (३) पृ०८०। (४) पृ०८१ । (५) पृ० ८२ । (६) पृ० ८३ । (७) पृ०८४ । (८) पृ० ८५ । () पृ०८६ । (१०) पृ०८७ । (११) पृ० ८८ । (१२) पृ० ६० ।
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परिसिट्ठाणि
४५९ 'एइंदिएमु सव्वत्थोवं सम्मत्ते उक्कस्सपदेससंतकम्म । 'सम्मामिच्छत्ते उकस्सपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । अपचक्खाणमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । कोई उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। मायाए उकस्सपदेससंतकम्म' बिसेसाहिय। लोभे उक्कस्सपदेससंतकम विसेसाहिय। पञ्चक्खाणमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियौं । कोहे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय । 'मायाए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। लोभे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय' । अणंताणुबंधिमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। कोहे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। मायाए उकस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। लोभे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। मिच्छत्ते उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। हस्से उक्कस्सपदेससंतकम्ममणंतगुणं । रदीए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। "इत्थिवेदे उक्कस्सपदेसस तकम्म संखेजगुणं । सोगे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । अरदीए उक्कस्सपदेससंतकम विसेसाहियं । णQसयवेदे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसे साहियं । “दुगुंछाए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। भए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहिय । पुरिसवेदे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहियं । माणसंचलणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। कोहे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। मायाए उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। लोहे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय । ___ जहण्णदंडओ ओघेण सकारणो भणिहिदि । "सव्वत्थोवं समत्ते जहण्णपदेससंतकम्म। "सम्मामिच्छिते जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । "केण कारणेण ? "सम्पत्ते उव्वेल्लिदे सम्मामिच्छत्तं जेण कालेण उव्वेल्लोद एदम्मि काले एक्कं पि पदेसगुणहाणिहाणंतरं णत्थि एदेण कारणेण । “अणंताणुबंधिमाणे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेज्जगुणं । "कोहे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहिय' । मायाए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय । लोहे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय। मिच्छत्ते जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । "अपच्चक्खाणमाणे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । "कोहे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय । मायाए जहण्णपदेससंतकम्म विसंसाहिय। लोहे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहिय । पञ्चक्खाणमाणे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय। “कोहे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय । मायाए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियौं । लोभे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय। कोहसंजलणे जहण्णपदेस
(१) पृ० ६१ । (२) पृ० ६२ । (३) पृ० ६३ । (४) पृ० ६४ । (५) पृ० ६५ । (६) पृ० ६६ । (७) पृ० ६७ । (८) पृ०६८ । (६) पृ० ६६ । (१०) पृ० १००। (११) पृ० १०२ । (१२) पृ० १०३ । (१३) पृ० १०४। (१४) पृ० १०५। (१५) पृ० १०७ । (१६) पृ० १०६ । (१७) पृ० ११० । (१८) पृ० १११ ।
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४६०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे संतकम्ममणंतगुणं । 'माणसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहिय। पुरिसवेदे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय। मायासंजलणे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । णवूसयवेदे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । इत्थिवेदस्स जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय। 'हस्से जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । 'रदीए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । सोगे जहण्णपदेससंतकम्म संखेजगुणं । अरदीए जहएणपदेससंतकम्म बिसेसाहियं । द्गुंछाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियौं । "भए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । लोभसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहिय ।
णिरयगइए सव्वत्थोर्व समत्ते जहण्णपदेससंतकम्मं । 'सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । अणंताणुबंधिमाणे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । कोहे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियौं । मायाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहिय । लोभे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय । मिच्छत्ते जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । *अपञ्चक्खाणमाणे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेज्जगुणं । कोहे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय। मायाए जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । लोभे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय । पञ्चक्खाणमाणे जहएणापदेससंतकम विसेसाहिय । कोहे जहण्णपदेससंतकम्मं क्सेिसाहियौं । मायाए जहण्णपदेससंतकम्म' विसेसाहिय। लोभे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । इथिवेदे जहण्णपदेससंतकम्ममगंतगुणं । णसयवेदे जहण्जपदेससंतकम्म संखेजगुणं । पुरिसवेदे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । "हस्से जहण्णपदेससंतकम्म संखेजगुणं । रदीए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय । सोगे जहण्णपदेसंतकम्म संखेजगुणं । अरदीए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियौं । दुगुंछाए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय। "भए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । माणसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । कोहसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय । मायासंजलणे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहिय । लोहसंजलणे जहण्णपदेससंतकम विसेसाहिय। "जहा णिरयगईए तहा सव्वासु गईसु । णवरि मणुसगदीए ओघं ।
___ "एइंदिएमु सव्वत्थोवं सम्मत्ते जहण्णपदेससंतकम्मं । सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । अणंताणुबंधिमाणे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । "कोहे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । मायाए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं ।
(१) पृ० ११२। (२) पृ० ११३ । (३) पृ० ११४ । (४) पृ० ११५ । (५) पृ० ११६ । (६) पृ० ११७ । (७) पृ० ११८ । (८) पृ० ११६ । (६) पृ०१२० । (१०) पृ० १२१ । (११) पृ० १२२ । (१२) पृ० १२३ । (१३) पृ० १२४ । (१४) पृ० १२६ ।
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परिसिट्ठाणि
४६१ लोभे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । मिच्छत्ते जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । 'अपच्चक्वाणमाणे जहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । कोधे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । मायाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । लोभे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । 'पञ्चक्खाणमाणे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । कोहे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । मायाए जहण्णपदेससंतकम विसेसाहियं । लोहे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । पुरिसवेदे जहण्णपदेससंतकम्ममणंतगुणं । इत्थिवेदे जहण्णपदेससंतकम्मं संखेजगुणं । हस्से जहण्णपदेससंतकम्मं संखेजगुणं । रदीए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । सोगे जहण्णपदेससंतकम्मं संखेजगुणं । अरदीए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । णqसयवेदे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । दुगुंछाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । भए जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । माणसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । कोहसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । मायासंजलणे जहण्णपदेससंतकम्म विसेसाहियं । लोभसंजलणे जहण्णपदेससंतकम्म विसे साहियं ।
___एतो भुजगारं 'पदणिक्खेव-वडीओ च कायवाओ। जहा उक्कस्सयं पदेससंतकम्मं तहा संतकम्माणागि । एवं पदेसविहत्ती समत्ता ।
झीणाझीणचूलिया "एत्तो झीणमझीणं ति पदस्स विहासा कायव्वा । तं जहा । अस्थि ओकड्डणादो झीणहिदियं उक्कड्डणादो झीणहिदियं संकमणादो झीणहिदियं उदयादो झीणहिदियं । 'अोकड्डणादो झीणहिदियं णाम किं ? जं कम्ममुदयावलियभंतरे हियं तमोकड्डणादो झीणहिदियं । जमुदयावलियवाहिरे हिदं तमोकड्डणादो अज्झीणहिदिय । उक्कणादो झीणहिदियौं णाम किं ? जं ताव उदयावलियपविट्ठ तं ताव उक्कड्डणादो झीणहिदिय "उदयावलिबाहिरे वि अत्थि पदेसग्गमुक्कड्डणादो झीणहिदिय। तस्स णिदरिसणं । तं जहा—जा समयाहियाए उदयावलियाए हिदी एदिस्से हिदीए जं पदेसग्गं तमादि। "तस्स पदेसग्गस्स जइ समयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता बद्धस्स तं कम्मं ण सक्का उक्कड्डिहुँ। "तस्सेव पदेसग्गस्स जइ वि दुसमयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कंता तं पि उकड्डणादो झीणहिदियं । "एवं गंतूण जदि वि जहणियाए आबाहाए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कंता तं पि
(१) पृ० १२६ । (२) पृ०१३०। (३) पृ० १३१ । (४) पृ० १३२ । (५) पृ० १३३ । (६) पृ० १७१ । (७) पृ० २३५ । (८) पृ० २३७ । (६) पृ० २३६ । (१०) पृ० २४२ । (११) पृ० २४३ । (१२) पृ० २४४ । (१३) पृ० २४५ । (१४) पृ० २४६ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे उक्कड्डणादो झीणहिदिय। 'समयुत्तराए उदयावलियाए तिस्से हिदीए जं पदेसग्गं तस्स पदेसग्गस्प्त जइ जहणियाए आबाहाए समयुत्तराए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता तं पदेसग्गं सक्का आवाधामेत्तमुक्कटिउमेकिस्से हिदीए णिसिंचिद् । 'जइ दुसमयाहियाए आबाहाए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कंता तिसमयाहियाए वा आवाहाए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता। एवं गंतूण वासेण वा वासपुधत्तेण वा सागरोवमेण वा सागरोवमपुधत्तेण वा ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता तं सव्वं पदेसग्गं उक्कड्डणादो अज्झीणहिदिय।
समयाहियाए उदयावलियाए तिस्से चेव हिदीए पदेसग्गस्स एगो समओ पबद्धस्स अइच्छिदो त्ति अवत्थु । दो समया पबद्धस्स अइच्छिदा त्ति अवत्थु । तिण्णि समया पबद्धस्स अइच्छिदा ति अवत्थु । एवं गिरंतरं गंतूण आवलिया पबद्धस्स अइच्छिदा ति अवत्थु । 'तिस्से चेव हिदीए पदेसग्गस्स समयुत्तरावलिया बद्धस्स अइच्छिदा ति एसो आदेसो होज । तं पुण पदेसग्गं कम्महिदि णो सक्का उक्कड्डिदु । समयाहियाए आवलियाए ऊणिय कम्महिदि सक्का उक्कड्डिदु। एदे वियप्पा जा समयाहियउदयावलिया तिस्से हिदीए पदेसग्गरस । एदे चेय वियप्पा अपरिसेसा जा दुसमयाहिया उदयावलिया तिस्से हिदीए पदेसग्गस्स । एवं तिसमयाहियाए चदुसमयाहियाए जाव आवाधाए आवलियूगाए एवदिमादो ति ।
आवलियाए समयूगाए ऊणियाए आबाहाए एवदिमाए हिदीए जं पदेसग्गं तस्स के वियप्पा ? "जस्स पदेसग्गस्स समयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता तं पि पदेसग्गमेदिस्से हिदीए गत्यि । जस्स पदेसग्गस्स दुसमयाहियाए
आवलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता तं पि णत्थि । "एवं गंतूण जद्देही एसा हिदी एत्तिएण ऊणा कम्महिदी विदिक्कता जस्स पदेसग्गस्स तमेदिस्से हिदीए पदेसग्गं होज । तं पुण उक्कड्डणादो झीणहिदिय । एदं हिदिमादि कादूण जाव जहणियाए आबाहाए एत्तिएण ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता जस्स पदेसग्गस्स तं पि पदेसग्गमेदिस्से हिदीए होज्ज । तं पुण सव्वमुक्कड्डणादो झीणहिदिय। "आवाधाए समयुत्तराए ऊणिया कम्महिदी विदिक्कता जस्स पदेसग्गस्स तं पि एदिस्से हिदीए पदेसग्गं होज्ज । तं पुण उक्कड्डणादो झीणहिदिय। "तेण परमज्झीणहिदिय' । "समयूगाए आवलियाए ऊणिया आवाहा एदिस्से हिदीए वियप्पा समत्ता ।
(१) पृ० २४७ । (२) पृ० २४८ । ( ३ ) पृ० २५१ । (४ ) पृ० २५२ । (५) पृ० २५३ । (६) पृ० २५७ । (७) पृ० २५८ । (८) पृ० २६० । (६) पृ० २६१ । (१०) पृ० २६२ । (११) पृ० २६३ । (१२) पृ० २६४ । (१३) पृ० २६५ । (१४) पृ० २६६ ।
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परिसिट्ठाणि एदादो हिदीदो समयुत्ताए हिदीए वियप्पे भणिस्सामो।' सा पुण का हिदी। दुसमयणाए आवलियाए ऊणिया जा आवाहा एसा सा हिदी । इदाणिमेदिस्से हिदीए अवत्थुवियप्पा केत्तिया १ जावदिया हेडिल्लियाए हिदीए अवत्थुवियप्पा तदो ख्वुत्तरा । 'जद्देही एसा हिदी तत्तिय हिदिसंतकम्म कम्महिदीए से सयौं जस्स पदेसग्गस्स तं पदेसग्गदिस्से हिदीए होज्ज । तं पुण उक्कडणादो झीणहिदियौं । एदादो हिदीदो समयुत्तरहिदिसंतकम्म कम्महिदीए सेसयं जस्स पदेसग्गस्स तमुक्कड्डणादो झीणहिदिय । एवं गंतण आबाहामेत्तहिदिसंतकम्मं कम्महिंदीए सेसं जस्स पदेसग्गस्स एदीए हिदीए दीसइ तं पि उक्कड्डणादो झीणहिदिय। 'आवाहासमयुत्तरमेतं हिदिसंतकम्मं कम्महिदीए सेसं जस्स पदेसग्गस्स तं पि उक्कड्डणादो झीणहिदिय । आवाधा दुसमयुत्तरमेत्तहिदिसंतकम्म कम्महिदीए सेसं जस्स पदेसग्गस्स एदिस्से हिदीए दिस्सइ तं पि पदेसग्गमुक्कड्डणादो झीगहिदिय । तेण परमुक्कड्डुणादो अज्झीणहिदिय । दुसमयूगाए आवलियाए ऊणिया आबाहा एवडिमाए हिदीए वियप्पा समत्ता।
एतो समयुत्तराए हिदीए वियप्पे भणिस्सामो। एत्तो पुण हिदीदो समयुत्तरा हिदी कदमा ? जहणिया आबाहा तिसमयूणाए आवलियाए अणिया एवडिमा हिदी । एदिस्से हिदीए एत्तिया चेव वियप्पा । णवरि अवत्थुवियप्पा रूवुत्तरा । एस कमो जाव जहणिया आवाहा समयुत्तरा त्ति । जहणियाए आबाहाए दुसमयुत्तराए पहुडि पत्थि उक्कड्डणादो झीणहिदिय। एवमुक्कड्डणादो झीणहिदियस्स अपदं समत्तं ।
___ एत्तो संकमणादो झीणहिदियौं । जं उदयावलियपवितं, पत्थि अण्णो वियप्पो।
'उदयादो झीणहिदिय । जमुदिण्णं तं, णस्थि अण्णं । 'एत्तो एगेगझीणडिदियमुक्कस्सयमणुक्कस्सय जहण्णयमजहण्णय च।।
सामित्तं । "मिच्छत्तस्स उक्कस्सयमोकड्डणादो झीणहिदिय कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स सव्वलहुँ दंसणमोहणीय खतस्स अपच्छिमडिदिखंडय संछुब्भमाणय संछुद्धमावलिया समयूगा सेसा तस्स उक्कस्सयमोकड्डणादो झीणहिदियं । "तस्सेव उकस्सयमुक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदिय। उकस्सयमुदयादो झीणहिदिय' कस्स ? "गुणिदकम्मंसिओ संजमासंजमगुणसेढी संजमगुणसेही च एदाओ गुणसेढीओ
(१) पृ० २६७ । ( २ ) पृ० २६८ । (३) पृ० २६६ । (४) पृ० २७० । (५) पृ० २७१ । (६) पृ० २७२ । (७) पृ० २७३ । (८) पृ० २७४ । (६) पृ० २७५ । (१०) पृ० २७६ । (११) पृ० २७८ । (१२) पृ० २७६ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे काऊण मिच्छत्तं गदो । जाधे गुणसेढिसीसयाणि पढमसमयमिच्छादिहिस्स उदयमागयाणि ताधे तस्स उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदिय ।
'सम्मत्तस्स उक्कस्सयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो उदयादो च झीणहिदियं कस्स ? गुणिदकम्मंसिओ सबलहुं दंसणमोहणीय कम्मं खवेदुमाढत्तो 'अघहिदिय गलंतं जाधे उदयावलिय पविस्समाणं पविताधे उकस्सयमोकड्डुणादो वि उक्कड्डणादो वि संकमणादो वि झीणहिदिय। तस्सेव चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स सव्वमुदयं तमुक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं ।
सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदिय कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स सव्वल हुं दंसणमोहणीय खवेमाणस्स सम्मामिच्छत्तस्स अपच्छिमहिदिखंडय संछुब्भमाणय संछुद्धं उदयावलिया उदयवज्जा भरिदल्लिया तस्स उक्कस्सयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदिय । उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियौं कस्स ? गुणिदकम्मंसिओ संजमासंजम-संजमगुणसेढीओ काऊण ताधे गदो सम्मामिच्छत्तं जाधे गुणसेढिसीसयाणि पढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स 'उदयमागदाणि ताधे तस्स पढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स उक्कस्समुदयादो झीणहिदिय।
"अणंताणुबंधीणमुक्कस्सयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदिय' कस्स ? गुणिदकम्मंसिओ संजमासंनम-संनमगुणसेढीहि अविणहाहि अणंताणुबंधी विसंजोएदुमाढत्तो तेसिमपच्छिमहिदिखंडय संछुब्भमाणय संछुद्धं तस्स उकस्सयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदिय । 'उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियौं कस्स ? संजमासंजम-संजमगुणसेढीओ काऊण तत्थ मिच्छत्तं गदो जाधे गुणसेढिसीसयाणि पढमसमयमिच्छाइहिस्स उदयमागयाणि ताधे तस्स पढमसमयमिच्छाइटिस्स उक्स्सयमुदयादो झीणहिदिय।
'अढण्हं कसायाणमुक्कस्सयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदियौं कस्स ? गुणिदकम्मंसिओ कसायक्ववणाए अब्भुहिदो जाधे अहण्हं "कसायाणमपच्छिमहिदिखंडय संछुब्भमाणयं संछुद्धं ताधे उक्कस्सय तिएहं पि झीणहिदिय। उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियौं कस्स ? "गुणिदकम्मंसियस्स संजमासनम-संजम-दंसणमोहणीयक्खवणगुणसेढीओ एदाओ तिणि गुणसेढीयो काऊण असंजमं गदो तस्स पढमसमयअसंजदस्स गुणसेढिसीसयाणि उदयमागदाणि तस्स अहकसायाणमुक्कस्सयमुदयादोझीणहिदियं ।
१२कोहसंजलणस्स उक्कस्सयमोकड्डणादितिएहं पि झीणहिदियं कस्स १ गुणिद
:
(१) पृ० २८४ । (२) २८५ । (३) पृ० २८६ । (४) पृ० २८७ । (५) २८८ । (६) पृ० २८६ । (७) पृ० २६२ । (८) पृ० २६३ । (६) पृ० २६४ । (१०) पृ० २६५ । (११) पृ० २६६ । (१२) पृ० ३०० ।
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परिसिट्ठाणि
४६५ कम्मंसियस्स कोधं खवेतस्स चरिमद्विदिखंडयचरिमसमयअसंछुहमाणयस्स उकस्सयं तिण्हं पि झीणहिदियं । 'उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियपि तस्सेव। एवं चेव माणसंजलणस्स । णवरि माणहिदिकंडय चरिमसमय असंछुहमाणयस्स तस्स चत्तारि वि उक्कस्सयाणि झीणहिदियाणि । एवं चेव मायासंजलणस्स । णवरि मायाडिदिकंडय चरिमसमयअसंछुहमाणयस्स हस्स चत्तारि वि उक्कस्सयाणि झीणहिदियाणि । लोहसंजलणस्स उक्कस्सयमोकडडणादितिण्हं पि झीणहिदिय कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसंतकम्ममावलिय पविस्समाणयं पविटुं ताधे उक्कस्सय तिराहं पि झीणहिदिय । 'उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियौं कस्स ? चरिमसमयसकसायक्खवगस्स ।
इत्थिवेदस्स उक्कस्सयमोकड्डणादिचउण्हं पि झीणहिदियं कस्स ? इथिवेदपूरिदकम्मंसियस्स आवलियचरिमसमयअसंछोहयस्स तिण्णि वि झीणहिदियाणि उक्कस्सयाणि । 'उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं चरिमसमयइत्थिवेदक्खवयस्स ।
___पुरिसवेदस्स उक्स्सयमोकड्डणादिचदुण्हं पि झीणहिदियं कस्स ? 'गुणिदकम्मसियस्स पुरिसवेदं खवेमाणयस्स आवलियचरिमसमयअसंछोहयस्स तस्स उक्कस्सयं तिहं पि झोणहिदियं । उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं चरिमसमयपुरिसवेदस्स ।
णqसयवेदस्स उक्कस्सयं तिण्हं पि झीणहिदियौं कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स णसयवेदेण अवहिदस्स खवयस्स णqसयवेदआवलियचरिमसमयअसंछोहयस्स तिण्णि वि झीणहिदियाणि उक्कस्सयाणि । उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं तस्सेव चरिमसमयणकुंसयवेदक्खवयस्स ।
छण्णोकसायाणमुक्कस्सयाणि तिण्णि वि झीणहिदियाणि कस्स १ गुणिदकम्मंसिएण खवएण जाधे अंतरं कीरमाणं कदं तेसिं चेव कम्मंसाणमुदयावलियाओ पुण्णाओ ताधे उक्कस्सयाणि तिण्णि विझीणहिदियाणि । तेसिं चेव उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स खवयस्स चरिमसमयअपुव्वकरणे वट्टमाणयस्स । णवरि हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं जइ कीरइ भय-दुगुंछाणमवेदगो "कायव्यो । जइ भयस्स तदो दुगुंछाए अवेदगो कायव्यो । अह दुगुंछाए तदो भयस्स अवेदगो कायन्यो। उक्कस्सयं सामित्तं समत्तमोघेण ।
"एत्तो जहण्णयं सामित्तं वत्तइस्सामो। मिच्छत्तस्स जहण्णयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियं कस्स ? उवसामओ छसु आवलियासु सेसासु
(१) पृ० ३०२। (२) पृ० ३०३। (३) पृ० ३०४ । (४) पृ० ३०५ । (५) पृ० ३०६ । (६) पृ० ३०७। (७) पृ० ३०८ । (८) पृ० ३०६ । (६) पृ० ३१०। (१०) पृ० ३११ । (११) पृ० ३१२।
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४६६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे आसाणं गओ तस्स पढमसमयमिच्छाइटिस्स जहण्णयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियं । 'उदयादो जहण्णयं झीणहिदिथं तस्सेव आवलियमिच्छादिहिस्स।
सम्मत्तस्स ओकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदियं कस्स १ उचसमसमत्तपच्छायदस्स पढमसमयवेदयसम्माइहिस्स ओकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियं । 'तस्सेव आवलियवेदयसम्माइहिस्स जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं । 'एवं सम्मामिच्छत्तस्स । णवरि पढमसमयसम्मामिच्छाइडिस्स आवलियसम्मामिच्छाइहिस्स चेदि ।
अटकसाय-चउसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं जहण्णयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो च झीणहिदिय कस्स ? उवसंतकसाओ मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स जहण्णयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदिय । 'तस्सेव आवलियउववण्णस्स जहण्णयमुदयादो झीणहिदियौं ।
अणंताणुबंधीणं जहण्णयमोकड्डणादो उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियं कस्स ? सुहुमणिओएसु कम्मढिदिमणुपालियूण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लभिदाउओ चत्तारि वारे कसाए उवसामयण तदो अणताणुबंधी विसंजोएऊण संजोइदो। तदो वेलावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालेयूण तदो मिच्छत्तं गदो तस्स पढमसमयमिच्छाइटिस्स जहण्णयं तिण्हं पि झीणट्ठिदियं । तस्सेव श्रावलियसमयमिच्छाइहिस्स जहण्णयमुदयादो झीणट्ठिदियं ।
'गवंसयवेदस्स जहण्णयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणट्ठिदियं कस्स ? अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कम्मेण तिपलिदोवमिएसु उववण्णो । तदो अंतोमुहुत्तसेसे सम्मत्तं लद्धं । वेलावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालिदं । संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो । चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता अपच्छिमे भवे पुनकोडाउओ मणुस्सो जादो। तदो देसूणपुवकोडिसं जममणुपालियूण अंतोमुहुत्तसेसे परिणामपच्चएण असंजमं गदो । ताव असंजदो जाब गुणसेढी णिग्गलिदा ति तदो संजमं पडिवज्जियूण अंतोमुहुत्तण कम्मक्खयं काहिदि ति तस्स पढमसमयसंजमं पडिवण्णस्स जहण्णयं तिण्हं पि झीणट्ठिदिय । इत्थिवेदस्स वि जहण्णयाणि तिण्णि वि झीणहिदियाणि एदस्स चेव । तिपलिदोवमिएसु णो उबवण्णयस्स कायव्वाणि । "णसयवेदस्स जहण्णयमुदयादो झीणहिदियौं कस्स ? सुहुमणिगोदेसु कम्मट्ठिदिमणुपालियूण तसेसु आगदो। संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो गओ। चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता
(१) पृ० ३१६ । (२) पृ० ३२० । (३) पृ० ३२२ । ( ४ ) पृ० ३२२ । (५) पृ० ३२७ । (६) पृ० ३२८ । (७) पृ० ३३३ । (८) पृ० ३३४ । (E) पृ० ३३६ । (१०) पृ० ३४० ।
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परिसिट्ठाणि
४६७ तदो एईदिए गदो। पलिदोवमस्सासंखेजदिभागमच्छिदो ताव जाव उवसामयसमयपबद्धा णिग्गलिदा ति । तदो पुणो मणुस्सेसु आगदो। पुवकोडी देसूणं संजममणुपालियूग अंतोमुहुत्त सेसे मिच्छत्तं गदो। दसवस्ससहस्सिएम देवेसु उबवण्णो। अंतोमुहुत्तमुचवण्णेण सम्मत्तं लद्धं । अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्वए ति मिच्छत्तं गदो । तदो वि विकडिदाओ द्विदीओ तप्पाअोग्गसम्बरहस्साए मिच्छत्तद्धाए एइदिएसुबवण्णो ।
तत्थ वि 'तप्पाओग्गउक्कस्सय संकिलेसं गदो तस्स पढमसमयएइ दियस्स जहण्णय· मुदयादो झीणहिदिय।
'इत्थिवेदस्स जहण्णयमुदयादो झीणटिदिय ? एसो चेव गंवुसयवेदस्स पुव्वं परूविदो जाधे अपच्छिममणुस्सभवग्गहणं पुव्यकोडी देसृणं संजममणुपालियूण अंतोमुहुत्तसेसे मिच्छत्तं गओ। तदो वेमाणियदेवीसु उबवण्णो अंतोमुहुत्तद्धमुववण्णो उक्कस्ससंकिलेसं गदो। तदो विकड्डिदाओ द्विदीओ उक्कड्डिदा कम्मंसा जाधे तदा अंतोमुहुत्तद्धमुक्कस्सइथिवेदस्स हिदि बंधियूण पडिभग्गो जादो। आवलियपडिभग्गाए तिस्से देवीए इत्थिवेदस्स उदयादो जहण्णय झीणहिदिय ।
'अरदि-सोगाणमोकडणादित्तिगझीणहिदियौं जहण्णय कस्स ? एइंदियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो। संजमासंजमं संजमं च बहुसी लघृण तिणि वारे कसाए उवसामेयूण एइंदिए गदो। तत्थ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमच्छियूण जाव उवसामयसमयपबद्धा गलंति तदो मणुस्से मु आगदो। तत्थ पुव्वकोडी देसूणं संजयमणुपालियुग कसाए उवसामयण उवसंतकसाओ कालगदो देवो तेत्तीससागरोवमिओ जादो। जाधे चेय हस्स-रईओ ओकड्डिदानो उदयादिणिक्वित्ताओ अरदि-सोगा अोकड्डिता 'उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ता । से काले दुसमयदेवस्स एया हिदी अरइ-सोगाणमुदयावलिय पविहा ताधे अरदि-सोगाणं जहण्णय तिण्हं पि झीगहिदिय । अरइ-सोगाणं जहण्णयंमुदयादो झीणहिदिय कस्स ? एइंदियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो। तत्थ संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो । चत्तारि वारे कसायमुवसामिदा । तदो एइंदिए गदो। तत्थ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमच्छिदो जाव उवसामयसमयपबद्धा णिग्गलिदा त्ति । तदो मणुस्सेसु आगदो । तत्थ पुव्वकोडी देसूणं संजममणुपालियूण अपडिबदिदेण सम्मत्तेण वेमाणिएसु देवेसु उववण्णो । अंतोमुहुत्तमुववण्णो उक्कस्ससंकिलेसं गदो । अंतोमुहुत्तमुक्कस्सहिदि बंधियण पडिभग्गो जादो। तस्स आवलियपडिभग्गस्स भय-दुगुकाणं वेदयमाणस्स
(१) पृ० ३४१ । (२) पृ० ३४६ । (३) पृ० ३५० । (४) पृ० ३५१ । (५) पृ० ३५४ ।
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जयधबलासहिदे कसायपाहुडे 'अरदि-सोगाणं जहण्णयमुदयादो झीणहिंदिय। एवमोघेण सव्वमोहणीयपयडीणं जहण्णमोकड्डणादिझीणहिदियसामित्तं परूविदं ।।
अप्पाबहुअं । सव्वत्थोवं मिच्छत्तस्स उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियौं । उक्कस्सयाणि ओकड्डणादो उकाणादो संकमणादो च झीणहिदियाणि तिणि वि तुल्लाणि असंखेज्जगुणाणि । एवं सम्मामिच्छत्त-पण्णारसकसाय-छण्णोकसायाणं । सम्मत्तस्स सव्वत्थोवमुक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियौं। सेसाणि तिण्णि वि झीणद्विदियाणि उक्कस्सयाणि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । एवं लोभसंजलण-तिण्णिवेदाणं ।
एत्तो जहण्णय झीणहिदिय । मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवं जहण्णयमदयादो झीणहिदिय। सेसाणि तिणि वि झीणहिदियाणि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि । 'जहा मिच्छत्तस्स जहण्णयमप्पाबहुलं तहा जेसि कर्मसाणमुदीरणोदो अस्थि तसि पि जहएणयमप्पाबहुअं । . अणंताणुबंधि-इत्थिवेद-णqसयवेद-अरइ-सोगा त्ति एदे अह कम्मंसे मोत्तूण सेसाणमुदीरणोदयो । जेसिं ण उदीरणोदयो तेसि पि सो चेव आलावो अप्पाबहुअस्स जहण्णयस्स । णवरि अरइ-सोगाणं जहण्णयमुदयादो झीणहिदिय थोवं । सेसाणि तिण्णि वि झीणहिदियाणि तुल्लाणि विसे साहियाणि । "अहवा इत्थि-णqसयवेदाणं जहण्णयाणि ओकड्डगादीणि तिरिण वि झीणहिदियाणि तुल्लाणि थोवाणि । उदयादो जहएणय' झीणहिदियमसंखेजगुणं । अरइ-सोगाणं जहएणयाणि तिगिण वि झीणहिदियाणि तुल्लाणि थोवाणि। जहण्णयमु दयादो झीणहिदियं विसेसाहियौं । एवमप्पाबहुए समत्ते झीणहिदियौं ति पदं समत्तं होदि।
झीणाझीणाहियारो समत्तो।
हिदियं ति चूलिया हिदियति जं पदं तस्स विहासा । तत्थ तिण्णि अणियोगदाराणि । तं जहा-- समुक्कितणा सामित्तमप्पाबहुअं च । समुक्त्तिणाए अत्थि उक्कस्सहिदिपतय णिसेय. हिदिपत्तयं अधाणिसेयहिदिपत्तयं उदयहिदिपत्तय च । “उक्कस्सयहिदिपत्तयं णाम कि ? जं कम्मं बंधसमयादो उदए दीसइ तमुक्कस्सहिदिपत्तय । "णिसेयहिदिपत्तयं णाम किं ? जं कम्मं जिस्से हिदीर णिसित्तं प्रोकड्डिदं वा उक्कड्डिदं वा तिस्स चेव हिदीए उदए
(१) पृ० ३५५ । (२) पृ० ३५६ । (३) पृ० ३५७ । (४) पृ० ३५८ । (५) पृ० ३५६ । (६) पृ० ३६१ । (७) पृ. ३६२. । (८) पृ० ३६६ । (६) पृ०.३६७ । (१०) पृ० ३६८ । (११) पृ० ३७० ।
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परिसिट्ठाणि
४६६ दिस्सइ तं णिसेयद्विदिपत्तय । 'अधाणिसेयहिदिपत्तय णाम किं ? जं कम्मं जिस्से हिदीए णिसित्तं अणोकडिदं अणुक्कड्डिदं तिस्से चेव हिदीए उदए दिस्सइ तमधाणिसेयहिदिपत्तय । 'उदयहिदिपत्तय णाम कि ? 'जं कम्म उदए जत्थ वा तत्थ वा दिस्सइ तमुदयद्विदिपत्तय । एदमपदं । एत्तो एक्केक्कहिदिपत्तय चउविहमुक्कस्समणुक्कस्सं जहण्णमजहण्णं च।
'सामित्तं । मिच्छत्तस्स उक्कस्सयमग्गद्विदिपत्तय कस्स ? अग्गहिदिपत्तयमेक्को वा दो वा पदेसा एवमेगादि-एगुत्तरियाए वड्डीए जाव ताव उवकस्सय समयपबद्धस्स अग्गहिदीए जत्तिय णिसित्तं तत्तियमुक्कस्सेण अग्गहिदिपत्तयं । 'तं पुण अण्णदरस्स होज्ज। अधाणिसेयहिदिपत्तयमुक्कस्सय कस्स ? तस्स ताव संदरिसणाउदयादो जहण्णयमाबाहामेत्तमोसक्कियूण जो समयपबद्धो तस्स पत्थि अधाणिसेयहिदिपत्तय । “समयुत्तराए वाहाए एवदिमचरिमसमयपबद्धस्स अधाणिसेओ अस्थि । तत्तो पाए जाव असंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि तावदिमसमयपबद्धस्स अधाणिसेओ गियमा अस्थि । एक्कस्स समयपबद्धस्स एक्किस्से हिदीए जो उक्कस्सओ अधाणिसेओ तत्तो केवडिगुणं उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तय १ तस्स णिदरिसणं । जहा-'ओकड्ड क्कड्डणाए कम्मरस अवहारकालो थोवो । अधापवत्तसंकमेण कम्मस्स अवहारकालो असं वेजगुणो। ओकड्डक्कड्डणाए कम्मस्स जो अवहारकालो सो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। “एवदिगुणमेक्कस्स समयपबद्धस्स एक्किस्से हिदीए उकस्सयादो जहाणिसेयादो उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं ।
- "इदाणिमुक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तय कस्स ? सत्तमाए पुढवीए गैरइयस्स जत्तियमधाणिसेयहिदिपत्तयमुक्कस्तय तत्तो विसे तुत्तरकालमुववण्णो जो रइओ तस्स जहण्णेण उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तय । एदम्हि पुण काले सो णेरइओ तप्पाओग्गुक्कस्सयाणि जोगहाणाणि अभिक्खं गदो । "तप्पाओग्गउक्कस्सयाहि वड्डीहि वडिदो । तिस्से हिदीए णिसेयस्स उक्कस्सपदं । “जा जहणिया आवाहा अंतोमुहुत्तुत्तरा एवदिसमयअणुदिण्णा सा हिदी । तदो जोगहाणाणमुवरिल्लमद्धं गदो । 'दुसमयाहियआबाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए एयसमयाहियआवाहाचरिमसमयअणुदिण्णाए च उक्कस्सयं जोगमुववण्णो । तस्स उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं । "णिसेयहिदिपत्तयं पि उक्कस्सयं तस्सेव ।
(१) पृ० ३७१ । (२) पृ० ३७२ । (३) पृ० ३७३ । (४) पृ० ३७४ । (५) पृ० ३७६ । (६) पृ० ३७७ । (७) पृ० ३७८ । (८) पृ० ३८० । (६) पृ० ३८१ । (१०) पृ० ३८२ : (११) पृ० ३८६ । (१२) पृ० ३६२ । (१३) पृ० ३६३ । (१४) पृ० ३६४ । (१५) पृ० ३६५ । (१६ पृ० ३६६ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे उदयहिदिपत्तयमुक्कस्सयं कस्स ? गुणिदकम्मंसिओ संजमासंजमगुणसेढिं संजमगुणसेटिं च काऊण 'मिच्छत्तं गदो जाधे गुणसेढिसीसयाणि उदिण्णाणि ताधे मिच्छत्तस्स उक्कस्सयमुदयहिदिपत्तयं । एवं समत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पि । 'णवरि उक्कस्सयमुदयहिदिपत्तयमुक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियभंगो।
'अणंताणुबंधिचउक्क-अहकसाय-छण्णोकसायाणं मिच्छत्तभंगो। णवरि अहकसायाणमुक्कस्सयमुदयहिदिपत्तय कस्स ? संजमासंजम-संजम-दसणमोहणीयक्रववयगुणसेढीओ ति एदाओ तिण्णि वि गुणसेढीओ गुणिदकम्मंसिएण कदाओ । एदाओ काऊण अविण? सु असंजमं गओ । पत्तेसु उदयगुणसेडिसीसएमु उक्कस्सयमुदयहिदिपत्तयं । "छण्णोकसायाणमुक्कस्सयमुदयहिदिपत्तय कस्स ? चरिमसमयअपुवकरणे वट्टमाणयस्स । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं जइ कीरइ भय-दुगुंछाणमवेदओ कायव्यो। 'जइ भयस्स तदो दुगुंछाए अवेदओ काययो। अध दुगुंछाए तदो भयस्स अवेदओ कायव्वो।
कोहसंजलणस्स उक्कस्सयमग्गहिदिपत्तयं कस्स ? उक्स्सयमांगहिदिपत्तयं जहा पुरिमाणं कायव्वं । उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं कस्स ? कसाए उवसामित्ता पडिवदिदूण पुणो अंतोमुहुत्तेण कसाया 'उवसामिदा विदियाए उवसामणाए आबाहा जम्हि पुण्णा सा हिदी आदिहा । तम्हि उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं । "णिसेयहिदिपत्तय च तम्हि चेव । उक्कस्सयमुदयहिदिपत्तय स्स ? चरिमसमयकोहवेदयस्स । एवं माण-माया-लोहाणं ।
'पुरिसवेदस्स चत्तारि वि डिदिपत्तयाणि कोहसंजलणभंगो । णवरि उदयहिदिपत्तय चरिमसमयपुरिसवेदखवयस्स गुणिदकम्मंसियस्स । इत्थिवेदस्स उक्कस्सयमग्गहिदिपत्तय मिच्छत्तभंगो। उक्स्सयअधाणिसेयहिदिपत्तय णिसेयहिदिपत्तय च कस्स ? ''इस्थिवेदसंजदेण इत्थिवेद-पुरिसवेदपूरिदकम्मंसिएण अंतोमुहुत्तस्संतो दो वारे कसाए उवसामिदा । जाधे विदियाए उवसामणाए जहण्णयस्स हिदिबंधस्स पढमणियेसहिदी उदय पत्ता ताधे अधाणिसेयादो णिसेयादो च उक्कस्सय द्विदिपत्तय । "उदयहिदिपत्तयमुक्कस्सयं कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स खवयस्स चरिमसमयइत्थिवेदयस्स तस्स उक्कस्सयमुदयहिदिपत्तय। "एवं "सयवेदस्स । णवरि णqसयवेदोदयस्से त्ति भाणिदव्याणि ।
(१) पृ० ४०० । (२) पृ० ४०२ । (३) पृ० ४०३ । ( ४ ) पृ० ४०४ । (५) पृ० ४०५ । (६) पृ० ४०६ । (७) पृ० ४१८ । (८) पृ० ४१६ । (६) पृ० ४२० । (१०) पृ० ४२१ । (११) पृ० ४२२ । (१२) पृ० ४२३ ।
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परिसिट्ठाणि
४७१ जहण्णयाणि हिदिपत्तयाणि कायव्वाणि । 'सव्वकम्माणं पि अग्गहिदिपत्तय जहण्णयमेओ पदेसो। तं पुण अण्णदरस्स होज । मिच्छत्तस्स णिसेयहिदियत्तयमुयहिदिपत्तयं च जहण्णयं कस्स ? "उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयमिच्छाइहिस्स तप्पाओग्गुक्कस्ससंकिलिहस्स तस्स जहण्णयं णिसेयहिदिपत्त यमुदयहिदिपत्तयं च । मिच्छत्तस्स जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयं कस्स ? जो एइंदियहिदिसंतकम्मेण जहण्णएण तसेमु आगदो अंतोमुहुत्तेण सम्मतं पडिवण्णो । वेछावहिसागरोवमाणि सम्मतमणुपालियूग मिच्छत्तं गदो । तपाओग्गउक्कस्सियमिच्छतस्स जावदिया आबाहा तावदिमसमयमिच्छाइहिस्स तस्स जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयं ।
'जेण मिच्छत्तस्स रचिदो अधाणिसेओ तस्स चेव जीवस्स सम्मत्तस्स अधाणिसेो काययो । णवरि तिस्से उक्कस्सियाए सम्मत्तद्धाए चरिमसमए तस्स चरिमसमयसम्माइडिस्स जहण्णयमधाणिसेयडिदिपत्तयं । "णिसेयादो च उदयादो च जहण्णयं हिदिपत्तयं कस्स ? उवसमसम्मत्त पच्छायदस्त पढमसमयवेदयसम्माइहिस्स तप्पाओग्गउक्कस्ससंकिलिटठस्स तस्स जहण्णयं । सम्मत्तस्स जहण्णओ अहाणिसेओ जहा परूविओ तीए चेव परूवणाए सम्मामिच्छत्तं गओ। तदो उक्कस्सियाए सम्मामिच्छत्तद्धाए चरिंमसमए जहण्णय सम्मामिच्छत्तस्स अक्षाणिंसेयहिदिपत्तयं । 'सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं णिसेयादो उदयादो च द्विदिपत्तयं कस्स ? उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स तप्पाओग्गुक्कस्ससंकिलिट्ठस्स । __अणंताणुबंधीणं णिसेयादो अधाणिसेयादो च जहण्णयं द्विदिपत्तय कस्स ? जो एइंदियट्ठिदिसंतकम्मेण जहण्णएण पंचिंदिए गओ। अंतोमुहुसेण सम्मत्तं पडिवण्णो । अंतोमुहुत्तेण पुणो पडिवदिदो। रहस्संकालेण संजोएऊण सम्मत्तं पडिवण्णो । वेछावहिसागरोवमाणि अणुपालियूण मिच्छत्तं गओ तस्स आवलियमिच्छाइहिस्स जहण्णय गिसेयादो अधाणिसेयादो च हिदिपत्तय। उदयहिदिपत्तय जहण्णय . कस्स ? एइदियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो। तम्हि संजमासंजमं संजमं च बहुसो लद्धण चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता एईदिए गो। असंखेज्जाणि वस्साणि अच्छिदूण उवसामयसमयपबद्धेसु गलिदेसु "पंचिदिएमु गदो। अंतोमुहुत्तेण अणंताणुबंधी विसंजोइता तदो संजोएऊण जहण्णएण अंतोमुहुत्तेण पुणो सम्मत्तं लद्धण वेछावहिसागरोवमाणि अणंताणुबंधिणो गालिदा। तदो मिच्छत्तं गदो । तस्स आवलियमिच्छाइट्ठिस्स जहण्णयमुदयट्ठिदिपत्तयं ।
(१) पृ० ४२४ । ( २ ) पृ० ४२५ । ३) पृ० ४३० । ( ४ ) पृ० ४३५ । ( ५ ) पृ० ४३६ । (६) पृ० ४३७ । (७) पृ० ४३८ । (८) पृ० ४३६ । (६) पृ० ४४० । (१०) पृ० ४४१ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 'बारसकसायाणं णिसेयहिदिपत्तयमुदयहिदिपत्तय च जहण्णय' कस्स ? जो उवसंतकसाओ सो गदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स जहण्णयं जिसेयहिदिपत्तयमुदयहिदिपत्तयं च । अधाणिसेयहिदिपत्तयं जहण्णयं कस्स ? अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कम्मेण तसेसु उववण्णो । तप्पाओग्गुक्कस्सहिदि बंधमाणस्स जद्देही आबाहा तावदिमसमए तस्स जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयं । अइक्कंते काले कम्महिदिअंतो सई पि तसो ण आसी। एवं पुरिसवेद-हस्स-रइ-भय-दुगुंछाणं । इत्थिणवंसयवेद-अरदि-सोगाणमधाणिसेयादो जहण्णयं हिंदिपत्तयं जहा संजलणाणं तहा कायव्वं । जम्हि अधाणिसेयादो जहण्णयं द्विदिपत्तयं तम्हि चेव णिसेयादो जहण्णय हिदिपत्तय । उदयहिदिपत्तय जहा उदयादो झीणहिदय जहण्णय तहा णिरवयवं कायव्वं ।
"अप्पाबहुअं । सव्वपयडीणं सव्वत्थोवमुक्कस्सयमग्गहिदिपत्तय । उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयमसंखेज्जगुणं । णिसेयहिदिपत्तयमुक्कस्सय विसेसाहिय । "उदयद्विदिपत्तयमुक्कस्सयमसंखेजगुणं । ___जहण्णयाणि कायव्वाणि । सव्वत्थोवं मिच्छत्तस्स जहण्णयमग्गहिदिपत्तय । 'जहण्णय णिसेंयहिदिपत्तय अणंतगुणं । जहण्णयमुदयविदिपत्तय' असंखेज पुणं । 'जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयमसंखेजगुणं । एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-बारस सायपुरिसवेद-हस्स-रइ-भय-दुगुंछाणं । अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवं जहण्णयमग्गहिदिपत्तय। जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयमणंतगुणं । जहण्णय णिसेयहिदिपत्तय विसेसाहिय। 'जहण्णयमुदयहिदिपत्तयमसंखेज्जगुणं । एवमित्थिवेद-णवंसयवेद-अरदि-सोगाणं ।
(तदो द्विदियौं ति पदस्म विहासा समत्ता । एत्थेव पयडीय मोहणिज्जा एदिस्से मूलगाहाए अत्थो समत्तो।
हिदिय' ति अहियारो समतो तदो पदेसविहत्ती सचूलिया समत्ता।)
(१) पृ० ४४२ । (२) पृ० ४४४ । (३) पृ० ४४५ । (४) पृ० ४४६ । (५) पृ० ४४७ । (६) पृ० ४४८ । (७) पृ० ४४६ । (८) पृ० ४५० । (६) पृ० ४५१ ।
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पृष्ठ
२ अवतरणसूची
पुस्तक ६ क्रमाङ्क पृ० क्रमाङ्क
क्रमाङ्क अ ४ अप्रतिबुद्धे श्रोतरि १४६ | ब २ बंधेण होदि उदनी ८० ! २ सम्मत्तुप्पत्ती वि य १२८ ख ३ खवगे य खीणमोहे १२६ । स ५ सदा संप्रतीक्ष्यातिथी-२८७ ।
सूचना-टीकाकारने पृष्ठ ६२ में 'प्रक्षेपकसंक्षेपेन' तथा पृष्ठ ६५ में बंधे उक्कड्डदि' ये दो अंश उद्धृत किये हैं । पुस्तक ७ के पृ० २४५ में भी बंधे उकड्डदि' इतना पदांश उद्धृत है ।
(३ ऐतिहासिक नामसूची पुस्तक ६
पृ० अ अनन्त जिन १ । य यतिवृषभगणीद्र १०७ । व व्याख्यानाचार्य भट्टारक । उ उच्चारणाचार्य १०७,३८७ यतिवृषभाचार्य
१३५, ३०१, ३४० । पुस्तक ७
२४५
श्रा श्राचार्य ( सामान्य ) | उ उच्चारणाचार्य ७, ८, ६३ य यतिवृषभभगवंत
३ ३५२ च चूर्गि, सूत्रकार २५५,२६६,३२५ यतिवृषभाचार्य आचार्यभट्टारक १०२ ज जिनेन्द्रचन्द्र २३५ वीर । जिन )
४ ग्रन्थनामोल्लेख
पुस्तक ६
पृ० उ उच्चारणा ११४ । च चूर्णिसूत्र ११४, ३८६ । व वेदना ६, १३, ७५, ३८५ उपदेश (अपवाइजमाण)२६ म महाबन्धसूत्र ६१ वेदनादि सूत्र २५०
स सूत्र (वचन) ६२, ६५ पुस्तक ७
३६३
५६, ६३, ६७ )
उ उच्चारणा २७, ५०,६४, १३३ । च चूर्णिसूत्र ७, २७, ६३, ६७ । व वेदग कदिवेदणादि चउवीस ट ट्रिदिअंतिय ३६३ | वेदना
अणियोगद्दार २६० क क्षुल्लकबन्ध
५ न्यायोक्ति
पुस्तक ६
१६
समुदाए पउत्ता सद्दा तदवयवेसु वि वति । पृ० २०४
६०
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६ चूर्णिसूत्रगतशब्दसूची
पुस्तक ६
१५६
___ ३८६
अ अकम्म २६१, २६४, |
२६५, २६६ अच्छिदाउन ७२, १२४ अट्ठ २४६, २५३ श्रणंत अणंताणुबंधी २५६ अण्ण २८८,३८० अण्णदरजीग ३१७ अघटिदिगलणा २४६ अपच्छिम ७२, ७३,
१६७, २६६ अपच्छिमट्ठिदिखंडय
१२५, २५५, २६८ अपजत्तद्धा . १२४ अपजत्तभवम्गह १२४ अब्भुटिद ३८३. ३८५ अभवसिद्धियपाश्रोग्ग १२५,
२६७, ३८३, ३८५ अभवसिद्धियपाश्रोग्गजहएणय २४६ अभिक्खं १२५ अवगद
२४६ अवगदवेद २६६ अवणिद १२५ अविणिजमायण १२५ अवेद २६४, २६५,
२६७, ३१६ असंखेज असंखेजदिभाग ६६,
१०४, १६२
असंखेजदिभागभेत्त २४६ | असंखेजवरसाउन ६६,
१०४ अंतोमुहुत्तावसेस २६८ श्रा पाउन
१२५ आगद १२५, २४६,
२६७, ३८४, ३८५ अाढत्त
२६८ आदि १६७, २५५, ३७६,
३८१,३८४ आदिय श्रावलियसमयअवेद २६१ श्रावलियसमयूणमेत्त
१६६, ३८१ श्रावलिया २६१, २६४,
२६५, ३१७,
. ३७८, ३७६ इ इत्ति ३१५, ३१७
इत्थिवेद ६६, १०४, २६१ ई ईसाण ६१, १०४
उक्कस्सग १५६, १६७ उक्कस्सजोग ३१५, ३१७ उक्कस्सपद २५३ उक्कस्सपदेसतप्पाश्रोगा
१२५ उक्कस्सपदेसविहत्तिय ८१ उक्कस्सपदेससंतकम्म ८८,
२१८, २५५ उक्करसय ७३, ६१,६६,
१०४,११०,११३, १५७, २७४, ३८४
उक्कस्सविसोहि १२५ उक्कस्सिय उत्तरपयडिपदेसविहत्ति
२, ७२ उदय २६८, २७४, २७६ उदयावलिय १२५ उदयावलिया २०३,
२४६, २५३ उवहिद ७२ उववरण २६८,
२६१,३८३ उवसमिदाउन ३८३ उज्वेलणद्धा २०३ उज्वेल्लिद २०३ एइंदिन
૨૪૯ एक्क
१२५,१५६,
२०३, २६७ एग १६३, १६७, २४५, २५५, ३७६, ३७६,
३८१, ३८६ एगजीव
७२ एगद्विदिविसेस २५३ एगफद्दय
२५३ एगसमय एत्तिय ३१६, ३७८ एत्थ ३१५ ३१७ एव २४४, २६७, २७६
३७३, ३८६ एवदिय
उ
२६१
इस शब्दानुक्रमणिकामें सर्वनाम शब्द और क्रियापद छूटे हैं । शेष पूरे शब्दोंका संग्रह है।
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H
परिसिठ्ठाणि
४७५
३७६
एवं ७६, १५६, १६६, । घ घोलमाणजहएणजोगट्ठाण जहएणग १२५, ३७३, २४३, २४४, २६१, २६१,३०१
३८३ २६८, ३१७, ३७८, | च च
जहएणजोगदाण २४४, २६७, २६६
३१५ ३८१, ३८४ चदु १२५, २०२, २४६,
जहण्णपदेससंतकम्मिश्न ओ ओंधुक्कस्स
१२४ २४६, २६७ ३८५ श्रोघुक्कस्सपदेससंतकम्म चदुचरिमसमय २६४
जहएणय १२५, १६२, चरिमट्ठिदिखंडग ३७५
२०२, २४६, २६७, क कद १२५, २४३ चरिमसमय २६५, ३७५
. २६८, २६१, ३७७, कम २५३, २६५, ३८३,
३८४,३८६ चरिमसमयअणिल्लेविद
जहण्णसंतकम्म ३८१ ३८५ ३०१,३७७, ३८१,३८६ कम्म १२५, २४६, २६१,
जहा ३०१, ३७८, ३८२ चरिमसमयअधापवत्तकरण २६८, ३८३
जाद १०४, ३८४, ३८५
३८३ कम्मट्ठिदि ७२,१२४.२०२ चरिमसमयकोधवेदग
जाधे ११०, ११३, ११४,
१२५, २०३ कम्मंस ३८६
. ३७७, ३८१
जाव १६७, २५३, २५५, कसाय १०४, २०२,२४६, चरिमसमयजहएणपद २५५
२७४, ३७६, ३८१, २५३, २६८, २८३, चरिमसमयजहएणयफद्दय
३८४, ३८६ ३८५
जीविदन्वय २६८ कसायक्खवणा ३८३ चरिमसमयट्ठिदिखंडय
जोगट्ठाण १२४, १२५,
३८६ कारण १५७, १६३, चरिमसमयणवुसयबेद
३०१, ३१६ २६३, २६६
जोगट्ठाणमेत्त ३१५, ३१७ काल २४६
२६८ केत्तिय
| ट ट्ठाण १५६, २१८, २५३ २६३
चरिमसमयणेरइय ७३ कोध
२७४, ३८४ चरिमसमयदेव ११३
६१
ट्ठाणपरूवणा २४३ कोधसंजलण ११०, १११, चरिमसमयपुरिसवेदोदय
छिदि ३७७, ३७८, ३७६,
२६१
१२५, २४६ क्खवग
छिदिखंडय १६७, २४६ ३८१, ३८२ चरिमसमयसवेद २६४,
द्विदिविसेस १५६ १५६,
२६५,३०१,३१५, ख खवग ३७७
१६४, २०३
३१७, ३७३ खवणा ३८५
२६६,३८३ चरिमावलिया २६५,२६६ खवय ३८१
णवरि २६८, २६१ खंडय
चुद
१०४
णबुसयवेद ६१ १०४ ग गद १२४, १२५, २०२, | छ छ
३८६
२६७, २६१ २४६, ३८३ | छएणोकसाय ७६, ११०, णवुसयवेदमणुस्स २६८ गलमाण १२५
३८५
णिरंतर २१८, २५३, गलिद १२५, २०३ | ज जदा १२५, ३७८
२७४, ३८४ गलंत २४६ जत्तिय
३०१ णिसेय . १२५ गुणसेदि
जत्तो
२६१ णेरड्यभवगाहण ७३ गुणिदकम्मंसिक ८१,६१,
जहक्खयागद १५७ णो ६६,१०४ जहएण २०३,२४६,२६७ | त तत्तियमेत्त
ण
३७६
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________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
२४६
तहा
.. तत्तो ।
२६१ तत्थ २, ७३, १०४, १२५,
२४६,२६८, ३७६, ३८५ तथा
२०२ तदो १०४, १२५, १५६,
१५७, २०२, २१७, .. २५३, २६८, २७४, .. १६१, ३८३, ३८५ तधा,
२६७ तप्पाश्रोग्ग २७४ तप्पाश्रोग्गउक्कस्स १२५ तप्पाश्रोग्गजहणणय १२५ तस १२५, २०२, २४६,
२६७, ३८५ तसकाय ७२, ३८३
३८२ ताधे ११३, ११४, २०३ ताव ति २१८, २५५, ३८१ तिचरिमसमय २६४ तिचरिमसमयसवेद ३१७ त्ति २६८, २७४, २६४ तिपलिदोवमित्र .. ३६८, २६१ तुल्ल
२६८ तुल्लजोग २६८
तेत्तीस ७२, ७३ द दीह १२५, २०२, ३८३,
३८५ दुचरिम
२६५ दुचरिमसमय २६४, ३८० : दुचरिमसमयअणिल्लेविद
२६६ ': दुचरिमसमयसवेद २६४, - ३१५, ३१७. ३७५, ३७६ दुचरिमसमयसवेदावलिया
२६६ दुचरिमावलिया २६६ ।
दुपदेसुत्तर १५६, २१८ । पलिदोवम ६६, १०४, दुविह दुसमयकालट्ठिदिग १२५
पलिदोवमट्ठिदिन १०४ दुसमयकालट्ठिदिय २०३ पविट्ठल्लिय
३७६ दुसमयूण २६३, २६६, पाए
२६१ ३१६, ३७८ पि १५७, २४५, २५३, देव
२६८ दो १६४, २४५, २६८, पुण १५६, १६२
२६६, ३१७ पुरिसवेद १०४, ११०, दोश्रावलिया २६३, ३७८
२६१, ३७६ ३७८ दोफद्दय
२६१
पूरिंद ६६, १०४ दोभवग्गहण ७३ फ फडग
१६३ __पक्खित्त ८१, ८८, १०४,
फद्दय १६४, १६६, १६७, - ११०, ११३, ११४
२४५, २५३, २५५, पढमसमय २६५
३७३, ३७६, ३७६, पढमसमयअवेद २६६
३८०, ३८१, ३८६ पढमसमयअवेदग २६३ ब बद्ध २६१, २६४, २६५, पढमसमयसवेद २६५
२६६, २६८, ३०१ पढमावलिया २६५, ३७६ बहुवार ३८३ पद
२४६ बहुसो १२५, २०२, २४६, पदुप्पण्ण ३१६, ३७८
२६७, ३८५ पदेससम्म
११०
बादरपुढविजीव ७२ पदेससंतकम्म ७३,६१,६६, बारसकसाय ७६
१०४, ११०, ११३, मणुस १०४, २८५ ११४, १२५, २०२, मणुस्स
३८३ २०३, २४६, २६७, मद
१०४ २६८, २६१, ३७७, माण । ३८३, ३८५. ३८६ माण मायासंजलण ३८२ पदेससंतकम्मट्ठाण २६१,
माया २६६, ३१७
मिच्छत्त ७२, ७३, ८१, पदेसविहत्ति
१.४, १२५, १६७, पदेसुत्तर १५६, २१७,
२०२, २६८
मिच्छत्तभंग २५५ २५३, २७४ पबद्ध
२६५
मूलपयडिपदेसविहत्ति २ पयार
२४३
ल लद्ध १२५, ३८५ परूवणा २६३, २६७, | लद्धाउन
३८३ २६८, २६६ लोभसंजलण ११४, ३८३ परूवेदव्व २६६ व वटमाण
२९१
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परिसिहाणि
वड्डि
वि
१२४ वड्डिद १२४ वार १२५, २०२, २४६,
२६७, ३८५
२४४ विट्ठ
३७५ विदिय १६४, २६४ विदियसमय २६६ विसेस १५६, २६८ वेछावट्टिसागरोवम १२५,
,२६८ वेल वेसमयपबद्ध २६६ वेसागरोवमसहस्स ७२
वोच्छिएण ३७६ स समयपबद्ध १५६, २६१,
२६३ समयपबद्धमेत १५७ ।
समयूण समयूणावलियमेत्त २५३ सम्मत्त ८८, १०४. १२५, २०२, २४४, २४६,
२६७, २६८ सम्मत्तद्ध २६८, २६७,
३०१ सम्मामिच्छत्त ८१,८८,
२०२, २०३, २४३ सवेद २६५, २६६ सव्व २०२, २६६, ३१६ सम्वचिरं ।
२६८ सव्वत्थ सव्वबहुभ १२४ सव्वल
१०४ संछुद्ध संछुहमाण २६८
संजम १२५, २०२, २४६, २६७, २६८,
३८३, ३८५ संजमद्ध
३८५ संजमासंजम १२५, २०२, २४६, २६७, ३८३,
३८५ संतकम्म १६२, २४५, २६७, २६८, ३७६,
३७७, ३८४ सतकम्मट्ठाण ३०१, ३७८ सागरोवमिश्र ७२,७३ सादिरेय सामित्त सांतर ३१६, ३७८ सुहमणिगोद १२४, २०२
सेस १२५, २०२, २४६ ह हदसमुप्पत्तिय २४६
हेढिल्ल
७२
५०
२६८
२६८
१२५
पुस्तक ७
अणोकड्डिद ३७१ अण्ण २७३, २७४ अण्णदर ३७५, ४२४ अण्णोवदेस ३ अंतर २५, २७, ५३,
अ अइक्कंत ४४२ । ____ अइच्छिद २५१, २५२
अम्गठिदि ३७४ अग्गट्ठिदिपत्तय ३७४,
४०५, ४२०, ४२४,
४४६, ४४७, ४५० अच्छिद ३४०, ३५४ अजहरण ३७३ अजहएणय २७५ अज्झीणटिदिय २३६,
२४८, २६५, २७० अट्ठ २६४, ३५६ अटकसाय २६६, ३२२,
३०८ ४२१
अंतो
अणंतगुण ७८,८५, १११, १२०, १३०,
४४८, ४५० अणंतागुबंधि २६२,
३२८, ३५६, ४०३,
४३८, ४४१, ४५० अणंताणुबंधिमाण ७६, ८४,६५, १०५,११७,
१२४ अणियोगद्दार अणुक्कड्डिद ३७१ अणुक्कस्स अणुक्कस्सदबकाल ५ अणुक्कस्सपदेसविहत्तिभर अणुक्कस्सय २७५ अणुपालिद
३६७
अंतोमुहुत्त ५, ३३४, ३४०,
३५४, ४०५, ४२१,
४३०, ४३८, ४४१ अंतोमुहुत्तद्ध ३४६ अंतोमुहुत्तसेस ३३४,
३४०, ३४६ अंतोमुहुत्तावसेस ३४० अंतोमुहुत्तुत्तर ३:४ अध
४०५
अट्ठपद २७३, ३७३ • आणंतकाल २, २५, ५३
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४७८
अधटिदिय २८५ अधवा अधाणिसे ३७७, ३७८,
४३५ अधाणिसेय ४२१, ४३८,
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
अवत्थु २५१ श्रवत्थुवियप्प २६७, २७१ अवहारकाल ३८१ अवेदन ४०४, ४.५ अवेदग ३१०, ३११, असंखेज २, ३, ५, ५३,
३७७, ४४० असंखेजगुण ८३, ६२, ६३, १०३, १०५ १०७, १६, ११३,
अधाणिसेयटिदिपत्तय
३६७, ३७१, ३७७. ३७८, ३८२, ३८६, ३६५, ४०५, ४०६, ४२०, ४३०, ४३५, ४३७, ४४२, ४४६,
४४६, ४५० अधापवत्तसंकम ३८१ अद्ध
३६४ अपच्चक्खाणमाण ७४,
८३,६३ १०६, ११८ अपच्छिम ३३४ अपच्छिमट्ठिदिखंडय २७६, २८७, २६२,
૨૬ अपच्छिममणुस्सभवग्गहण
श्राबाहामेत ३७७ श्राबाहामेत्तहिदिसंतकम्म
२६८ श्राबाहासमयुत्तरमेत्त २६६ पालाव
३५६ श्रावलिय ३०३ श्रावलिय उववरण ३२७ श्रावलियचरिमसमय
असंछोहय ३०७ श्रावलियपडिभम्ग
३४६, ३५४ श्रावलियपढमसमय
असंछोहय ३०५ श्रावलियमिच्छाइटि ३१६
४३६, ४४१ श्रावलियवेदयसम्माइट्टि
३२१ श्रावलियसमयमिच्छाइट्ठि
३३४
अह
अपडिवदिद ३५४ अपरिसेस २५८ अप्पाबहुअ ७४, ३५६,
३५६, ३६७, ४४६ अब्भुटिद २६४ अभवसिद्धियपाश्रोग्ग
३३४, ४४२ अभिक्खं अरइ ३१०, ३५१, ३५४, ३५६, ३६१, ३६२,
४०४ अरदि ८०, ८७, ६७,
११५, १२१, १३२ ३५०, ३५१, ३५५,
४४५, ४५१
१२०, १२४. १२६, १२६, ३५७, ३५८, ३६२, ३८१, ४४६, ४४७, ४४८, ४४६,
४५१ असंखेजदिभाग ३४०,
३५०, ३५४, ३८१ असंछुहमाणय ३०० असंजद असंजम
३३४ ४०३
३११ अहवा
३६२ आ पागद २८९, २६६, ३४०, ३५०, ३५४,
४३०,४४० प्रागय २७६, २६३ श्रादत्त २८४, २६२ आदि
२६३ श्रादिट्ठ २५३, ४०६ आदेस
२५२ बाबाधा २६०, २६४ श्राबाधादुसमयुत्तरमेत्त
द्विदिसंतकम्म २६६ श्राबाहा २४६, २४७,
२४८, ०६१ २६३, २६६, २६७, २७०, २७१, २७२, ३७८, ३६४, ४०६, ४३०,
श्रावलियसम्मामिच्छाइट्ठि
३२२ श्रावलिया २४४, २४५,
२५१, २५३, २६१, २६२, २६६, २६७,
२७०, ३१२ श्रावलियूण श्रासाण
३१२ इ इथि ३५६, ४४५ इत्थिवेद ८६,६७, ११३
१२०, १३०, ३०५, ३३६, ३४६, ३६२,
४२०, ४५१ इत्थिवेदपुरिसवेदकम्मंसिश्र
४२१ इथिवेदपूरिदकम्मंसिय
३०५ इत्थिवेदसंजद ४२१ इदाणं २६७, ३८६
३२२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
उ उक्कडुण २३७, २४२,
२४३, २४५, २४६,
२४८, २६३, २६४,
२६८, २६६, २७०,
२७२. २७३, २७८,
२८४, २८५, २८७,
२८८, ३१२, ३२०,
३२२, ३२८, ३५६ ३४६, ३७०
उडिद
उक्करस ६, ५३, ३७३
उक्कस्सा
३७८
उक्सइत्थवेद
३४६
उक्सट्ठिदि ३५४ उक्कट्ठपित्त ३६७,
३६८, ३७२, ३७३,
३६६, ४००, ४०३, ४०४, ४१८, ४२०,
४२२, ४२४, ४२५,
४४०, ४४१, ४४२,
४४५, ४४७, ४४८,
४५१
३६३
उक्करसपद उक्कस्सप देसविहति २
उक्कसप देसविहन्तिनंतर
२६
उक्करसपदेस संतकम्म ७४,
७५, ७६, ७८, ७६, ८०, ८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८, ६०, ६१, १२, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८, ६६
उक्कस्तपदे ससंतकम्मियं तर
२५ उक्करस्य २३४, २७५, २७६, २७८, २७६, २८४, २८५, २८६, २८७, २८८ २८६, २६२, २६३, २६४,
परिसिट्ठाि
२६५, २६६, ३००,
३०२, ३०३, ३०४,
३०५, ३०६, ३०७,
३०८, ३०६, ३११,
३५६, ३५७, ३७४,
३७७, ३७८, ३८२,
३८६, ३६५, ३६६,
४००, ४०३, ४०४,
४०१, ४०६. ४१८,
४२०, ४२१, ४२२, ४४६, ४४७
उदय
उकस्यट्ठिदिपत्तय ३६८ उक्कस्ससंकिलेस ३४६, ३५४ उक्कस्सिय ४३५, ४३७, ३६२ उदय २३७, २७४, २७८, २७६, २८४, २८६, २८८, २८६, २६३, २६५, २६६, ३००, ३०२, ३०४, ३०६,
३०७, ३०८, ३०६, ३१६, ३२१, ३२७, ३३३, ३४०, ३४१, ३४६, ३५५, ३५६, ३५८, ३६१, ३६८, ३७० ३७१, ३७३, ३७७, ४२१, ४३६,
४३८, ४४५
उदयगुण - दिसीस ४०३ उदयवज २८७, ३०८ उदयादिणिक्खित्त ३५० उदयावलिय २६५, ३५१ उदयावलियपविट्ठ २४२, २४६, २७३ उदयावलियबाहिर २३६,
२४३, ३५१ उदयावलियांंतर २३६ उदयावलिया २४३, २४७ २५१, २५८, २८७,
३०८
उदि उदीरणोदय
उदि
उवरिल्ल
उववरण
उववरण्य
२७४, ४००
३५६
३०७
३६४
३३४, ३४०, ३४६, ३५४, ३८६,
३६५, ४४२
३३६
उवसमसम्मत्तपच्छायद
उवसंतकसा
३२०, ४२५. ४३६,
४३८
४७९
३२२,
उवसामा
३५०, ४४२ ३१२ उवसामणा ४०६, ४२१ उवसामयसमयपबद्ध ६४०,
ए एअ
उवसामिद
३५०, ३५४, ४४०
३५४, ४०६, ४२१
वेल्लिद ऊ ऊणिय
१०४ २४४, २४५, २४६, २४७, २४८,
२५३ २६१, २६२, २६३, २६४, २६६,
२६७, २७०
४२४, ४४०
एइ दि
१, १२४, ३४०, ३५०, ३५४ एइ दियकम्म
३५०, ३५४, ४४०
एइ दियट्ठिदिसंतकम्म
४३०
एइ दियसंतकम्म ४३८ एक १०४, २४७, ३७४,
३७८, ३८२ एक्के कट्ठिदिपत्तय
३७३ २५१
एग
एगसमय
२, ५३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४८०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे एगादिएगुत्तरिय ३७४ | श्रोकड्डणादि ३६२ । एगेगमीट्ठिदिय २७५ श्रोकडुणादिचउ ३०५, एन्तिा
२६३ एत्तिय
श्रोकडणादिझीणएत्तो १३३, २३५ , २७०,
छिदियसामित्त ३५६ २७३. २७५, ३१२,
श्रोकड्डणादिति २६२, ३५८, ३७३
२६४ ३००, ३०३,
३२०, ३३४ एयसमयाहियाबाहा
श्रोकडणादितिगझीणचरिमसमयअणु
छिदिय ३५० दिण्ण ३६५
प्रोकड्डित्त ३५० एव २५१, २५२, २५८,
श्रोकडुिद ३५०, ३७० २७१ २८६, ३०२,
श्रोकड्डुक्कड्डणा ३६१ ३०३, ३०८, ३०६,
श्रोध ६६, १२३, ३११, ३१६, ३२१ ३२७, ३३३, ३३६, ६४६,
क कद ३०८, ४०३ ३५०, ३५६ ३७०,
कदम
२७० ३७१, ३६६, ४१८,
कम
२७१ ४३५, ४३७, ४४५
कम्म ४, २६, २३६, एडिम २६१, २७०
२४४, २८४, ३३४, एवदिगुण . ३८२
३६८,३७०, ३७१, एवदिमाद
३७३, ३७६, ४४२ २६० एदिमचरिमसमयपबद्ध
कम्मक्खय ३७७
• कम्महिदि . २४४, २४५, एवदिसमयअणुदिएण
२४६, २४७, २४८, ३६४
२५३, २६२, २६३,
२६४, २६८, २६६, एवं ४,२६,६०, २४६,
३४०, ३६८ २४८, २५१, २६०,
कम्मट्ठिदिअंतो ४४२ २६३, २६८, २७३,
कम्मंस ३०८, ३४६, ३५६ ३०२ ३०३, ३२२, ३५६, ३५७, ३५८,
कसा ३२८, ३३४,
३४०, ३५०,४०५, ३७४, ४००, ४१८,
४२२, ४४० ४२३, ४४४, ४५०,
कसाय २६४, २६५, ४५१
३५४, ४०५ ओ श्रोकड्डण २३७, २३६,
कसायक्खवणा २६४ २७६, २८४, २८५,
कायव्व ५०, २३५, ३११, २८७, २८८, ३१२,
३३६,४०४,४०५, ३२०, ३२२, ३२८,
४२३, ४३५, ४४५,
३०८
कारण १०३, १०४ काल २,५०, १०४,
___३५१, २६२, ४४२ कालगद ३५० किं २३६, २४२, २४६, ३६८, ३७०, ३७१,
३७२ कीरमाण केवचिरं केवडिगुण ३७८ कोध ७५.७६, ३,८४,
१२६, ३०० कोधसंजलण ६०, ४०५ कोह ८४, ६३, ६४, ६५,
६८ ५०७, ११०, १११, ११७, ११६,
१२६, १३० कोहसंजलण ४२० ख खवा
खवग खवय ३०७, ३०६,४४२ खवेमाण
२८७ खवेमाणय
खवेत २७६, ३०० ग गन ३१२, ३४०,३४६
४०३, ४३७,४३८.
४३६, ४४० गइ
१२३ गद २७६, २८८, २६३,
२६६, ३३४, ३४०, .३४६, ३५०, ३५४, ३६२, ३६४, ४००,
४३०, ४४१, गदि
६० गलंत
२८५ गलिद
४४० गालिद
४४१ गुणिदकम्मंसिअ २७६, २८४, २८८, २६२,
२६४, ३०८, ३६६, ४०३.
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिसिट्ठाणि
४८१
चरिमसमयअसंछुहमाणय ।
३०२, ३०३ चरिमसमयइस्थिवेदक्खवयः ३०६ चरिमसमयइत्थिवेदय४२२ चरिमसमयउदयट्ठिदिपत्तय चरिमसमयकोहवेदय ४१६ चरिमसमयणवुसयवेदक्खवय ३०८ चरिमसमयपुरिसवेदय
४२०
च
चरिमसमयसकसायखवग
३०४ चरिमसमयसम्माइट्ठि ४३५
गुणिदकम्मंसिय २७६, । २८७, २६६, ३०३,
३०७, ३०६,
४२०, ४२२ गुणसेढि २७६, २६६,
३३४, ४०३ गुणसेढिसीसय २७६,
२८८, २९३, २६६,
__३००, ४०० च २६, २५१, २५२,
२५८, २७१, २७६, २८४, २८७, २८८, ३०२, ३०३, ३०८, ३०६, ३१२, ३२०, ३२२, ३२८, ३३४, ३४०, ३४६, ३५०, ३५४, ३५६, ३५६, ३६७, ३७०, ३७१, ३७३, ३६५, ३६६, ४१८, ४२०, ४२१, ४२४, ४२५, ४३५, ४३६, ४३७, ४३८,
४३६, ४४०,
४४२, ४४५ चउ ३०२, ३०३, ३२८,
३३४, ३४०,
३५४, ४४० चउम्विह
३७३ चउसंजलण
३२२ चदुसमयाहिय २६० चदुसंजलण
२६ चरिमछिदिखंडयचरिम
समय चरिमसमश्र ४३५ ४१७ चरिमसमयअक्खीणदसणमोहणीय २८६ चरिमसमयअपुत्वकरण
३०६, ४०४ ।
जहएणय २७, २७५,
३१२, ३१६, ३२०, ३२१, ३२२, ३२७, ३३३, ३३४, ३३६, ३४०, ३६१, ३६२, ३७७, ४२१, ४२४, ४२५, ४३०, ४३५, ३३६, ४३७, ४३८, ४४६, ४४०, ४४१, ४४२, ४४५, ४४७,
४४८, ४४६, ४५० जहरिणय २४६, २४७, २६३, २७०, २७१,
२७२, ३६४ जहएणुक्कस्स २, २५ जहा १२३, २३४, २३७,
३५६, ३६७, ४०५,
__४३७, ४४५ जहाणिसे ४३७ जहाणिसेय ३८२ जाद ३२२, ३३४, ३४६,
३५०, ३५४, ४४२ जाधे २७६, २८५, २८८,
२६३, २६४, ३०८ ३४६, ३५०, ४००,
४२१ जाव २६०, २६३, २७१,
३३४, ३४०, ३५०,
३५४, ३७४, ३७७ जावदिय २६७, ४३०
३१२
३७३
छण्णोकसाय ३०८, ३५७,
४०३, ४०४ ज जइ २४४, २४५, २४७, २४८, ३१०, ३११,
४०४, ४०५ जदि
२४६ जत्तिय ३७४, ३८६ जत्थ जद्देही २६३, २६८, ४४२ जहण्ण ३, ५,५३, ३५६,
३७३,३८६,४२३ जहण्णअ ३३४, ३५०, ४३०, ४३७, ४३८,
४४०, ४४२ जहएणकाल ७ जहएणपदेससंतकम्म
१००, १०३, १०५, १०७, १०६, ११०, ११२, ११३, ११४, ११५, ११६,११७, ११८, ११६, १२०, १२१, १२२, १२४, १२६, १२६, १३०, १३१, १३२, १३३
जीव
जोगट्ठाण ३६२, ३६४ झ झीणट्ठिदिय २३७, २३६,
२४२, २४३, २४५, २४६, २४६, २६३, २६४, २६८, २६६, २७२, २७३, २७४, २७६, २७८, २७६,
-
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८२
२८४, २८५, २८६,
२८७, २८८,२८६,
टदि
२६२, २६३, २६४,
२६५, २६६, ३००,
३०२, ३०३, ३०४, ३०५, ३०६, ३०७, ३०८, ३०६, ३१२, ३१६, ३२०, ३२१,
३२२, ३२७, ३२८,
३३३, ३३४, ३३६,
३४०, ३४१, ३४६, ३५१, ३५४, ३५५, ३५६, ३५७, ३५८, ३६१, ३६२, ४४५
१३५
भीम भी
२३६
द्विदि २४३, २४७, २५१,
२५२, २५७, २५८,
२६१, २६३, २६४,
२६६, २६७, २६८,
२६९, २७०, ३४०,
३४६, ३५१, ३७०,
३७१, ३७८, ३८२,
३६३, ३६४, ४०६
ट्ठिदिकंडय
३०२
पित्तय ४२०, ४२१,
४२३, ४३६, ४३८, ४३६, ४४५
ट्ठिदिबंध
४२१ द्विदितकम्म २६८, २६६
ट्ठिय
ठ ठिदिय
पण
२६, १०४, २४४, २६२, २७२, २७३,
२३६
३६६
२७४, ३५६, ४४२
५, २६, १२३, २७१, ३०२, ३०३, ३१०, ३२२, ३६१, ३७७, ४०३, ४२०, ४२३, ४३५
णवरि
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
सयवेद ८०,
८७,६७,
११३, १२०, १३२,
३०७, ३३४, ३४०,
३४६, ३५६, ३६२,
४२३, ४४५, ४५१ सयवेदश्रावलिय
चरम समय संछोहय
३०७
४२३
५०, ५३
णाम २३६, २४२, २४६,
३६८, ३७०, ३७१,
३७२
णवु सयवेदोदय गाणाजीव
३५१
रिक्खित्त णिग्गलिद ३३४, ३४०,
३५४
गिरिस
यिमा
गिरयगइ
रियदि
८२
रिवयव
४४५
रिंतर
२५१
णिसित्त ३७०, ३७१, ३७४
सेय
३६३, ४३८, ४२१, ४३६, ४३६, ४४५
सेियट्ठिदिपत्तय
३७८
३७७
१२३
३६७,
३७०, ३६६, ४१८,
४२०, ४२४, ४२५,
४४२, ४४६, ४४८,
४५०
दव्व ४, ७, २६, २७ ३८६, ३६२
रश्र
रइय
३८६
२५३, ३३६
२६८, ३७४ तत्तो ३७७, ३७८, ३८६ तस्थ ३४०, ३५०, ३५४,
३६७, ३७३, ४४२
त तत्तिय
तदो २६७, ३११, ३२८,
३३४, ३४०, ३४६,
३५०, ३५४, ३६४, ४०५, ४३७, ४४१ तप्पाश्रोग्गउक्करसय ३४१,
३६२
तप्पाोग्ा उक्करससंकि लिट्ठ
४३६
पोक्कस्सिय ३६३, ४३०
तप्पा मासव्वरहस्स ३४० तपागुक्करसट्ठिदि ४४२ तप्पाश्रोग्गुक्कस्ससंकि लिट्ठ
४२५, ४३८
तस ३४०, ३५०, ३५४,
४३०, ४४०, ४४२
तहा १२३, २३४, ३५६, ४४५, २७६,०८५
ताधे २८८, २८६, २६३,
२६५, ३०३, ३०८, ३५१, ४००, ४२१
ताव २४२, २४६, ३३४,
४४२
३४०, ३७४, ३७७ तावदिमसम तावदिमसमयपबद्ध ३७७ तावदिमसमयमिच्छाइट्ठि
४३०
ति २३५, २५१, २६५,
२६६, ३००, ३०३, ३०५, ३०७, ३०८, ३२८, ३३६, ३५०,
३५१, ३५७, ३५८,
३६१, ३६२, ३६३,
३६७ ४०३
३५८ ३३४,
३३६
तिसमयाहिय २४८, २६०
तिसमयू
२७०
तिणिवेद तिपलिदोवमिश्र
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिसिझणि
४८३
३
त्ति २५१, २५२, ३३४, ३४०, ३४५, ३५६,
४०३, ४२३ तुल्ल ३५७, ३५८, ३६१,
३६२ तेत्तीससागरोवमित्र ३५० थ योव ३६१, ३६२, ३७६ द दसवस्ससहस्सित्र ३४० दंसणमोहणीय २७६,
२८४, २८७ दंसणमोहणीयक्खवयगुण
सेढिसीसय ४०३ दुगुछा ८०,८७,६८,
११५, १२१, १३२, ३१०, ३११, ३२२, ३५४, ४०४, ४०५, ४४४, ४५०
३५१ दुसमयाहिय २४५, २४८,
२५८, २६२ दुसमयाहियाबाहाचरिमसमयअणुदिएण
पुढवि
दुसमयदेव
पडुच्च पत्त
४०३, ४२१ पढमणिसेयट्ठिदि ४२१ पढमसमयअसंजद २६६ पढमसमयएइदिय ३४१ पढमसमयदेव ६२२, ४४२ पढमसमयमिच्छाइट्ठि २७६, २६३, ३१२,
३२८, ४२५ | पढमसमयवेदयसम्माइट्ठि
___३२०, ४४६ पढमसमयसम्मामिच्छा
इट्ठि २८६, ३२२, ४३८ पढमसमयसंजम ३३४ पण्णारसकसाय ३५७ पद २३५, २३६ पदणिक्खेव पदेस ३७४, ४२४ पदेसमा २४३, २४४,
२४५, २४७, २४८, २५१, २५२, २५३, २५७, २५८, २६१, २६२, २६३, २६४,
२६८, २६६ पदेसगुणहाणिट्ठाणंतर
१०४ पदेससंतकम्म २३४ पबद्ध
२६५, २७० परूवणा
४३७ परूवित्र परूविद ३४६,३५६ पलिदोवम ३४०, ३५०,
३५४,३८१ पलिदोवमवम्गमूल ३७७ पविट्ठ २८५, ३०३, ३५१ पविस्समाण २८५ पविस्समाणय पहुडि
२७२ ।
पाए
३७७ पि १०४, २४५, २४६,
२६२, २६३, २६४, २६८, २६६, २६२, २६४, २६५, ३००, ३०२, ३०३, ३०५, ३०६, ३०७, ३२०, ३२८, ३३४, ३५१, ३५६, ३६६, ४००, ४२४, ४४२
३८८ पुण २५३, २६३, २६४,
२६७, २६८, २७०, ३७५, ३६२, ४२४
४३८, ४४१ पुण्ण ३०८,४०६ पुरिमाण ४०५ पुरिसवेद २६, ८१, ८८,
६८, ११२, १२०, १३०, ३०६, ३०७,
३२२, ४२०,
४४४, ४५० पुव्व
३४६ पुवकोडाउन ३३४ पुवकोडि ३४०, ३४६,
३५०,३५४ पोग्गलपरियट्ट २,२५,५३
२४४, २५२ बंधमाण बंधसमय
३३८ बहुसो ३२८, ३३४, ३४०,
३५०, ३५६, ४४० बारसकसाय ४४२, ४५० भय ८१,८७,६८, ११६,
१२२, १३२, २१०, ३११, ३२२, ३५४,
४०४, ४०५,
४४४, ४५० भरिदल्लिय
२८८
३६५
२५१
बद्ध
४४२
दुसमयुत्तर २७२ दुसमयूण २६७, २७० देव ३२२, ३४०, ३५०,
३५४, ४४२ देवी
३४६ देसूण ३४०, ३४६,
३५०, ३५४ देसूणपुवकोडिसंजम ३३४
दो २५१, ३७४, ४२१ प पच्चक्खाणमाण ७५,८३,
६४,११०,११६,१३० पंचिंदिश ४३८, ४४१ पडिभग्ग ३४६, ३५४ पडिवएण ३३४, ४३०,
४३६ पडिवदिद. ४३८ ।
भ
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८४
भव भाणिदव्व
भुजगार
म मरणुसर्गादि
मगुस्स
मद
मास
माणसंजलग
मिच्छत्त
८२, ८,
६८, ११२ १२२,
१३२, ३०२
माया ७५, ७६, ८२, ८३,
८४, ६४, ६५, ६८,
११०, १११, ११७,
११६ १२६, १२६, १३०, ४१६ ३०३ मायासंजल ६० ११३,
मायादिकंड
१२२. १३३, ३०३
३३४
४२३
१३३
१२३
३३४, ३४०,
३५०, ३५४
३२२, ४४२
४१६
२, २५, ७८, ८५, १६, १०७,
११७, १२६, २७६,
२७६, ३१२, ३२८,
३४०, ३४६, ३५६,
३५८, ३७४, ४००,
४२४, ४३०, ४३५, ४३६, ४४१, ४४७ मिच्छत्तद्धा ३४०
मिच्छत्तभंग ४०३, ४२०
रचिद
रदि
र रइ ३१०, ३५०, ४०४.
४४४, ४५०
रहस्सकाल
रूयुत्तर
ल लद्ध लभिदाउ
४३५
७६, ६६, ११५,
१२१, १३१, ३२२
४३८
२६७, २७१
३३४ ३४०
३२८
जयधवलासद्दिदे कसायपाहुडे
लोग
३
लोभ ७५, ७६, ८३, ८४,
६४, ६५, ६६,
१०७ ११० १११,
११६, १२०,
१२६, १२६
लोभसंजल
८३, ६०,
१३३, ३५८
१३०, ४१६
१२२, ३०३
३०६, ४०४
३७४, ३६३
४४०
वा २४८, ३७०, ३७३, ३७४
वस्स
लोह
लोहसंजल
व वट्टमाणय
ड्ड
११६
वार ३२८, ३३४, ३४०, ३५०, ३५४, ४२१,
४४०
वास
वासपुधत्त
२४८
३, २४८
वि २४३, २४४, २४५,
२४६, २८५, ३०२,
३०३, ३०५, ३०७, ३०८, ३३६, ३४०,
३४०, ३५७, ३५८,
३६१, ३६२, ४०३,
४२०
विकड्डिद ३४०, ३४६ विदिक्कत २४४, २४५,
विदिय
वियप्प
२४६ २४७, २४८,
२६२, २६३, २६४
४०६, ४२१ २५७, २५८,
२६१, २६६, २७०, २७१, २७३
विसेसाहिय ७५, ७६, ७८,
७६, ८०, ८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६,
८७,८८, ६०, ६१, ६३, ६४, ६५, ६६,
६७, १०७, ११०,
१११, ११२. ११३,
११५, ११६, ११७,
११६, १२०, १२१,
१२२, १२६, १२६,
१३०, १३१, १३२,
१३३, ३५७, ३६१,
३६२, ४४६, ४५०
विसेसुत्तरकाल ३८६ विहासा २३५, ३६६
स सइ
वेदयमाण
माणि
मायदेवी
सागव ६, ३२८, ३३४, ४३०,
४३६, ४४१
३५४
३५४
३४६
४४२
सकारण
εε
सक २४४, २४७, २५३ संकमण २३७, २७३,
२७८ २८०, २८४, २८५, २८७, २८८, ३१२, ३२०, ३२२, ३२८, ३५६
संकिलेस
३४१ संखेज्जगुण ७६, ८१, ८६,
७, ११५, १२१, १३१
संछुद्ध
२७६, २८७, २६२, २६५
संभमा २७६,२८७,
२६२, २६५ संजम ३२८, ३३४, ३४०,
३४६, ३५०, ३५४, ४४०
संजमगुणसेढि २७६, ३६६ संजमगुणसे दिसीसय ४०३
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परिसिठ्ठाणि
४८५
२६६
संजमासंजम ३२८, ३३४,
३४०, ३५०,
३५४, ४४० संजमासंजमगुणसेढि
२७६, ३६६ संजमासंजम-संजमगुण
सेदि २८८, २६२ संजमासंजमसंजमदंसण
मोहणीयक्खवणगुणसेदि संजोइद
३२८ संदरिसणा ३७७ संजलण संतकम्मट्ठाण २३४ सत्तम समत २६६, २७०,
२७३, ३११ समय
२५१ समयपबद्ध ३७४, ३७७,
३७८, ३८२ समयाहिय २४३, २४४,
२५१, २५३, २६२ समयाहियउदयावलिया
२५७ समयुत्तर २४७, २६४,
२६६, २७०, २७१, ३७८ ।
समयुत्तरटिदिसंतकम्म
सवपयडि
... ४४६ २६८ । सव्वमोहणीयपयडि ३५६ समयुत्तरावलिया २५२ सव्वलहुँ २७६, २८४, समयूण २६१, २६६,
२८७ २७६, सबसंतकम्म ३०३ समुक्कित्तणा ३६७ सागरोवम २४८ सम्मत्त ५, २६, ७८,८४, सागरोवमपुधत्त २४८ ६१, १००, १०४,
साधिरेय ११६, १२४, २८४,
सामित्त २७५, ३११ ३२०, ३२८, ३३४, __३१२, ३६७, ३७४ ३५४, ३५७, ४००, सुहुमणिोश्र ३२८ ४३०, ४३५, ४३७, सुहुमणिगोद ३४० ४३८, ४३६,
३५१ ४४१, ४५०
सेस ४, २६, ६०, सम्मत्तद्धा ४३५
२६८, २६६, २७६, सम्मामिच्छत्त ५, २६,
३१२, ३५७, ३५८, ७६, ८२,६२,
३५६, ३६१ १०३, १०४, ११६,
सोग ८०,८७,६७,१२१ १२४, २८७, २८८,
१३१, ३१०, ३५०, ३२२, ३५०, ४००, ४३७, ४३८, ४५०
३५१, ३५५, ३५६, सम्मामिच्छत्तद्धा ४३७
३६१, ३६२, ४०४, सव्व २४८, २६३, २८६
४४५, ४५१ सवकम्म ५०, ५३, ४२४ । ह हस्स ७८,८५,६६, ११४, सव्वत्थोव ७४, ८२,६१,
१२१, १३१, ३२२, १००, ११६, १२४,
३१०, ३५०, ४०४, ३५६, ३५७, ३५८,
४४४, ४५० ४४६, ४४७, ४५० हेट्ठिल्लिय २६७
३८९
७ जयधवलान्तर्गतविशेषशब्दसूची
पुस्तक ६
अ अणुक्कस्सपदेसविहत्ति २ । उ उक्कड्डणाणिमित्त अंतराइयभाग
उक्कस्सपदेसविहत्ति आ ग्राउप्रभाग
उत्तरपयडिपदेसइ इथिवेद
भागाभाग
१०६ । क कम्मट्ठिदि ७३, ७४, ७७, २
कसायभाग कोहसंजलणदव ५६
१०१
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________________
४८६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
W
१७१
कोहसंजलणभाग ग गुणसंकम
गोदभाग छ छेदभागहार ज जहाक्खयागद
जीवभागाभाग ट टाण
ट्ठाणपरूवणा ण गाणावरणीयभाग
णामभाग
णोकसायभाग त तसबंधगद्धा थ थावरबंधगद्धा
| द दंसणावरणीयभाग ५ । मोहणीयभाग ५ ८३ दुगुछाभाग ५२ | र रदि-अरदिश्रब्वोगाढभाग पदेसभागाभाग ५०
५१ प पयडिगोवुच्छा १३६,१३८
ल लोभसंजलणभाग ५५. पुरिसवेद १०१
लोहसंजलणदव्व ५६ फ फव्य
१६३
व विगिदिगोवुच्छा १४१ ब बादर
वेदणीयभाग ५ १५७ ___ बादरपुढविजीवश्राउअ७४
वेदभाग ५१, ५२ १६६ भ भयभाग
५२ स सत्तिटिदि ७७ म माणसंजलणदव्व ५६ सम्मत्तभाग ५८
माणसंजलणभाग ५५ सम्भामिच्छत्तभाग ५६ २५
मायासंजलणव्व ५६ संजमकांडग २५० मायासंजलणभाग
हस्स-सोगभाग ६१ ॥ मिच्छत्तभाग ५७,६५
हदसमुप्पत्तिय २५१
पुस्तक ७
अ अधाणिसेयटिदिपत्तय ३७२ । उदयट्ठिदिपत्तय
अप्पाबहुश्र ३६७ | ओ प्रोकड्डणा आ आदि
२४३ च चदुगदिणिगोद श्रादेश
२५२ चूलिया श्रासाण
३१३ ठ ठिदिय उकडडणा २३८ ण णिच्चणिगोद उकस्सद्विदिपत्तय ३६८ ।
२७३ । णिसेयट्ठिदिपत्तय ३७० २३७ | व विहासा
स समुक्त्तिणा २३७, ३६७ ३३६ सहाव
૨૪૨ ३६६ संकम
२३८ सामित्त
३६७
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________________ भा० दि० जैनसंघ के स्वाध्यायोपयोगी प्रकाशन शाखाकार 13) पुस्तकाकार 1 कसायपाहुड (भाग 1) 2 कमायपाहुड (भाग 2) 6 कसायपाहुड ( भाग 3 4 कसायपाहुड (भाग 4) 5 कमायपाहुड (भाग 5) 6 कसायपाहुड ( भाग 6) 7 कसायपाहुड भाग 7) गोक्षमार्ग प्रकाश हवरांगचरित 10 रामचरित 11 बहन कथाकोश दो भाग अाधुनिक हिदीमें प्रादिन चरित ग्रन्थ का प्रथमवार हिन्दी में अनुवाद पद्मपुराणका कथासार प्राचीन कथाकोशका हिन्दी में प्रथमवार अनुवादके प्रत्येक भागका मूल्य - 1) जैनधर्मके सम्बन्धमें लिखी गई प्रसिद्ध सरल पुस्तक 4) पं० कैलाशचन्द्रजी कृत सरल हिन्दी टीका 2 // ) // 2 // स्वर्गीय स्वामी कर्मानन्दजी लिखित 6) स्वाध्यायोपयोगी टीका 12 जैनधर्म 1. तत्त्वार्थसूत्र 14 नमस्कारमंत्र 15 ईश्वरमीमांसा 16 छहढाला 17. द्रव्यसंग्रह प्राप्तिस्थान मैनेजर भा० दि० जन संघ चौरासी, मथुरा For Private & Personal use only