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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे गाणजीवेहि भंगविचओ १४६ ६३०३. अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क०-इत्थि-णवूस अप्पं० पत्थि अंतरं । बारसक०-पुरिस०-भय०-दुगुंछा० भुज०अप्प० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे भागो। अवहि० जह० एगस०, उक० सगहिदी देसूणा । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमोघो । णवरि अहि. णस्थि । एवं जाव अणाहारि ति। __ अंतरं गदं। ३०४. णाणाजीवेहि भगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण छव्वीसं पयडीणं सव्वपदाणि णियमा अस्थि । णवरि अणंताणु०चउक्क० अवत्त० पुरिस०-इत्थि-गqस०-हस्स-रइ-अरइ-सोग अवहि. भयणिज्ज । सम्म०सम्मामि० अप्प० णियमा अस्थि । सेसपदाणि भयणिज्जाणि। एवं तिरिक्खेसु । णवरि छण्णोक० अवढि० णत्थि। ३०५. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-बारसक०-पुरिस०-भय दुगुंछा० भुज० विशेषार्थ-देवोंमें नौवें वेयक तक ही मिथ्यादृष्टि होते हैं, इसलिए इस बातको ध्यानमें रखकर अपने स्वामित्वके अनुसार यहाँ पर अन्तर काल घटित कर लेना चाहिए। ६३०३. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, लम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्तिका अन्तर काल नहीं है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनका अवस्थितपद नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-अनुदिशसे लेकर आगेके देवोंमें सब सम्यग्दृष्टि होते हैं, इसलिए उनमें मिथ्यात्व आदि नौ प्रकृतियोंकी एक अल्पतरविभक्ति होनेसे उसके अन्तर कालका निषेध किया है। शेष कथन स्पष्ट ही है। इस प्रकार अन्तर काल समाप्त हुआ। ६३०४. नाना जीवोंका अवलम्बन लेकर भङ्ग विचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंके सब पद नियमसे हैं। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्ति, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी अवस्थितविभक्ति भजनीय है । सम्यक्त्य और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति नियमसे है । शेष पद भजनीय हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्ति नहीं है। ६३०५. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका १. ता०प्रतौ ‘णवुस भुज० अध्य०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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