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________________ १४८ - जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । मणुसअपज० पंचि०तिरिक्व अपज्जत्तभंगो। ३०२. देवगईए देवेसु मिच्छ० भुज०-अवहि० जह० एगसमो, उक्क० एकत्तीसं सोगरो० देसूणाणि । अप्पद० जह• एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवहि-अवत्त. जह० पलिदो० असंखे०भागो, उक्क. एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि। अप्प० जह० अंतोमु०, उक० तं चेव । अणंताणु० चउक्क० भुज०-अप्प०-अवहि० जह० एगस०, अवत. जह. अंतोमु०, उक० चदुहं पि एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । बारसक--पुरिस०--प्रय-दुगुं० णेरइयभंगो। इत्थि०-णवूस. भुज० जह० एग०, उक्क० एकत्तीसं सागरोवमाणि देसूगाणि। अप्प० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमोघो। णवरि अवहि० पत्थि । भवणादि जाव उपरिमगेवजा ति एवं चेत्र । गरि सगहिदी भाणियन्वा । पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है।। विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकमें अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे और पूर्वकोटिपृथक्त्यके अन्तरसे उपशमणिकी प्राप्ति सम्भव होनेसे यहाँ छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है। तथा मनुष्यत्रिकमें उपशमसम्यक्त्व. की प्राप्तिके समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगार होकर कमसे कम अन्तमुहूतके भीतर क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्ति होने पर उस समय भी भुजगारपद सम्भव है या अधिकसे अधिक पूर्वकोटि पृथक्त्व कालके अन्त क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति होने पर उस समय भी भुजगारपद सम्भव है, इसलिए इन दोनों प्रकृतियोंकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूतं और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ६३०२. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर वही है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और चारों ही का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग नारकियोंके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितपद नहीं है । भवनवासियोंसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहलानी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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