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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे अंतरं पलिदो० देसूणाणि। अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । सम्म०सम्मामि० भुज०-अवहि-अवत्त० जह० पलिदो० असंखे०भागो, अप्प० जह० अंतोमु०, उक्क० सयपदाणं सगहिदी देसूणा । बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० भुज-अप्पदर० ओघो। अहि. जह० एगस०, उक्क. सगहिदी देसूणा । पुरिस० तिणि पलिदो० देसूणाणि । इत्थि०-णवंसय०-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं तिरिक्खोघो । ६३००. पंचि०तिरिक्खअपज्ज० मिच्छ ०-सोलसक०-भय-दुगुंछा० भुज०अप्प०-अवहि० जह एगस०, उक्क. अंतोमु० । सत्तणोक. भुज०-अप्प. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सम्म-सम्मामि० अप्प० णत्थि अंतरं । ३०१. मणुस्सगईए मणुस्सतियस्स पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि छण्णोक० अवट्टि० जह० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । सम्म०-सम्मामि० भुज० जह० बन्धीचतुष्ककी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्यप्रमाण है। अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमहत है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। मात्र पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। विशेषार्थ_पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। इसे ध्यान में रखकर यहाँ अन्तर काल घटित करके बतलाया गया है। शेष विशेषता स्वामित्वको ध्यानमें रखकर जान लेनी चाहिए। ६३००. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सात नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ-इन तिर्यञ्चोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोंका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक अल्पतरपद होता है, इसलिए उसके अन्तर कालका निषेध किया है। ३०१. मनुष्यगतिमें मनुष्यत्रिकमें पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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