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________________ जमधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अक्त० ओघो। बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० ओघो। गवरि पुरिस० अवहि० जह• एगस०, उक० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । इत्थि. भुज. जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । अप्प० जह० एगस०, उक्क अंतोमु० । णस० अप्प० ओघो। भुज. जह० एगस०, उक्क० पुवकोडी देसूणा । हस्स-रइ-अरइसोगाणमोघो । णवरि अवहि० णत्थि । २६६. पंचिंदियतिरिक्खतिए मिच्छ० भुज०-अवहि० जह० एगसमओ, उक० सगहिदी देसूणा । अप० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अणंताणु०चउक० भुज०-अवहि० मिच्छत्तभंगो। अप्प० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। मात्र अल्पतरविभक्तिका कुछ कम तीन पल्य है। अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। स्त्रीवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूवकोटि है। हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनका अवस्थितपद नहीं है। विशेषार्थ- कोई तिर्यश्च पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति करता रहा । उसके बाद तीन पल्यकी आयुके साथ भोगभूमिमें उत्पन्न हो वहाँ भी आयुके अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने तक मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति करता रहा, इस प्रकार भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक तीन पल्य इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अल्पतरविभक्ति उत्तम भोगभूमिमें कुछ कम तीन पल्य ही बन सकती है, क्योंकि तिर्यञ्चोंमें वेदक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल इतना ही प्राप्त होता है, इसलिए इनकी अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्ति सम्यग्दृष्टिके होती है और तियंञ्चोंमें वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है, इसलिए यहाँ पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। सम्यग्दृष्टिके स्त्रीवेदकी भुजगारविभक्ति नहीं होती और तिर्यञ्चोंमें वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है, इसलिए इनमें स्त्रीवेदकी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। परन्तु नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कर्मभूमिज तियश्चके ही प्राप्त होता है और इनमें वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, इसलिए तिर्यञ्चोंमें नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ६:२६६. पञ्चेन्द्रिय तिरश्चत्रिकमें मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पत्यके असंख्यात भागप्रमाण है। अनन्तानु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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