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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहन्तीए भुजगारे अंतरं १४५ जह० अंतोमु०, उक्क० सब्वेसि पि तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणंताणु०चउक० भुज०-अप्प०-अवहि. जह० एगस०, अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० चत्तारि वि पदाणि तेत्तीसं सागरो० देसणाणि। बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ० भुज०-अप्प० ओघं । अवहि० जह० एगस, उक० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । इत्थि०-णवूस० भुज० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं साग० देसूणाणि | अप्प. जह० एगस०, उक्का अंतोमु० । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमोघो । णवरि अवडि० पत्थि। एवं पढमादि जाव सत्तमा ति । णवरि सगहिदी देसूणा भाणियव्या । २६८. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मिच्छ० भुज० जह० एगसमओ, उक्क० तिणि पलिदोवमाणि पलिदो० असंखे०भाएण सादिरेयाणि । अप्प०-अवहि० ओघो। सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवहि०-अवत्त० जह० पलिदो० असंखे०भागो. अप्प० जह० अंतोमु०, उक्क० उघडपोग्गलपरिय। अणंताणु०चउक्क० भुज०-अप्प० जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । अप्प० देमूणाणि । अवहि.. सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण है, अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुककी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है, श्रवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और चारोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार और छाल्पतरविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग अोधके समान है। इतनी विशेषता है कि इनका अवस्थितपद नहीं है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी स्थिति कहनी चाहिए। विशेषार्थ—ोघमें हम सब प्रकृतियोंके अलग-अलग पदोंका अन्तर काल घटित करके बतला आये हैं। यहाँ नरकमें अपनी-अपनी विशेषताको ध्यानमें लेकर और यहाँके उत्कृष्ट कालको जानकर वह घटित कर लेना चाहिए । मात्र नरकमें उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव न होनेसे यहाँ स्त्रीवेद आदि छह नोकपायोंके अवस्थितपदका निषेध किया है। प्रत्येक नरकमें भी इन्हीं विशेषताओंको ध्यानमें लेकर यह अन्तर काल घटित कर लेना चाहिए। ६२६८. तियंञ्चगतिमें तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक तीन पल्य है । अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका भज ओघके. समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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