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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ९ २६७, आदेसेण णेरइएसु मिच्छ० भुज ०-अवद्वि० जह० एस ०, उक्क० तेतीसं सागरो० देणाणि । अप्प० जह० एस ०, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । सम्म० सम्मामि० भुज० - श्रवडि ० - अवत्त० जह० पलिदो ० असंखे ० भागो, अप्प ० विभक्ति सासादन गुणस्थान में होती है, इसलिए इनकी अवस्थितविभक्तिका भी जघन्य अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। यह सम्भव है कि अर्ध पुद्गल परिवर्तनके प्रारम्भमें और अन्तमें इन दोनों प्रकृतियोंके उक्त चार पद हों और मध्य में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना हो जानेसे न हों, अतः यहाँ इनके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर उपार्थं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है । वेदकसम्यग्दृष्टि जीव यदि अनन्तानुबम्घीकी विसंयोजना न करे तो दो छयासठ सागर काल तक अल्पतरविभक्ति होती है, इसलिए तो इनकी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर मिध्यात्वकी भुजगारविभक्तिके समान उक्त कालप्रमाण कहा है और यदि विसंयोजना कर दे तथा मिथ्यात्वमें जाकर संयुक्त होकर अत्पतरविभक्ति करे तो इनकी अल्पतरविभक्तिका भी उक्त कालप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होनेसे वह भी उक्त कालप्रमाण कहा है। इनकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक जैसा मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका घटित करके मूल में बतलाया है. उसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। इनकी दो बार विसंयोजना होकर पुनः संयुक्त होनेमें जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त लगता है और विसंयोजना होकर संयुक्त होनेकी क्रिया अर्ध पुद्गल परिवर्तन कालके प्रारम्भमें एक बार हो तथा दूसरी बार अन्तमें हो यह भी सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनके इन दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर भी उक्त कालप्रमाण प्राप्त होनेसे उतना कहा है । इनकी अवस्थितविभक्तिका अन्तर काल मिध्यात्वकी अवस्थितविभक्तिके समान है यह स्पष्ट ही है । पुरुषवेदके सब पदोंका भङ्ग इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । मात्र इसकी अवस्थितविभक्ति सम्यग्दृष्टिके होती है और सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, इसलिए इसके उक्त पदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। स्त्रीवेदकी अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है और भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए यहाँ इसकी भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण और अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । नपुंसकवेदकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र भोगभूमिमें पर्याप्त होनेपर नपुंसक वेदका बन्ध नहीं होता, इसलिए इसकी भुजगारविभक्तका उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर प्राप्त होनेसे उक्त काल प्रमाण कहा है । हास्यादि चार सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होनेसे उक्त कालप्रमाण कहा है। यहाँ स्त्रीवेद आदि उक्त छह नोकषायों की अवस्थितविभक्ति उपशमश्रेणिमें प्राप्त होती है और उपशमश्रेणिका उत्कृष्ट अन्तर उपार्थ पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, इसलिए इनके इस पदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है । यहाँ सब प्रकृतियोंके सब पदोंका जघन्य अन्तर सुगम होनेसे घटित करके नहीं बतलाया है सो जान लेना । १४४ $ २७. आदेश से नारकियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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