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________________ १५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अप्प० णियमा अत्थि । अवहि० भयणिज्जा । एत्थ भंगाणि तिण्णि। सम्म०सम्मामि०-छण्णोक. ओघो। गवरि छण्णोक० अवहि. णत्थि । अणंताणु०चउक्क. भुज०-अप्प० णियमा अत्थि । सेसपदाणि भयणिज्जाणि । एवं सव्वणेरइय-पंचिंदियतिरिक्खतिय--मणुसतिय--देवगइदेवा भवणादि जाव उवरिमगेवजा त्ति । गवरि मणुसतिए छण्णोक० अवहि० ओघं । ३०६. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछ० भुज०. अप्प० णियमा अस्थि । सिया एदे च अवहिदविहत्तिओ च । सिया एदे च अवहिदविहत्तिया च । सम्म०-सम्मामि• अप्प० णियमा अस्थि । सत्तणोक० भुज०अप्प० णियमा अस्थि । मणुस्सअपज्ज० सव्वपयडीसु सव्वपदाणि भयणिज्जाणि । अणुदिसादि जाव सवहा त्ति मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु० चउक०-इत्थि०णस० अप्प० णियमा अस्थि । बारसक०-पुरिस०-भय०-दुगुंछ० रइयभंगो। चदुणोकसायाणमोघो । णवरि अवहि. णस्थि । एवं जाव अणाहारि ति । ___णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो। ६३०७. भागाभागाणुगमेण दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुजगार और अल्पतरविभक्ति नियमसे है। अवस्थितविभक्ति भजनीय है। यहाँ पर भङ्ग तीन हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और छह नोकषायोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्ति नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार और अल्पतरविभक्ति नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं। इसी प्रकार सब नारकी, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, देवगतिमें देव और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकमें छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। ६३०६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति नियमसे है। कदाचित् इन विभक्तियोंवाले नाना जीव हैं और अवस्थितविभक्तिवाला एक जीव है। कदाचित् इन विभक्तियोंवाले नाना जीव हैं और अवस्थितविभक्तिवाले नाना जीव हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति नियमसे है। सात नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति नियमसे है। मनुष्यअपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद भजनीय हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्ति नियमसे है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग नारकियोंके समान है। चार नोकषायोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्ति नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मागेणा तक जानना चाहिए। इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगम समाप्त हुआ। ६३०७. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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