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________________ गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं ३१७ चिट्टइ । एत्थ असंखेजलोगपडिभागेण उदयावलियम्भंतरे णिसित्तदव्वमप्महाणं काऊण सयलसमत्थाए एदिस्से फालीए आयामे अंतोमुहुत्तोवट्टिददिवडगुणहाणीए खंडिदे अंतरदीहरा अणंतरपरूविदविक्खंभा संपहियभागहारमेत्ता खंडा लब्भंति । पुणो एदेसिमंतरे रूवृणोकड कड्डणभागहारमेत्तखंडे घेतूण पुचिल्लखेत्तस्स हेढदो संधिय दृविदे हिदि पडि विदियट्टिदिपढमणिसेयदिस्समाणपदेसग्गपमाणेण अंतरं णिरंतरमावरिदं होइ। णवरि मोवुच्छविसेसादिउत्तरअंतोमुहुत्तगच्छसंकलणाखेत्त मवसिहरूवूणोकड्डक्कहुणभागहारपरिहीणपुव्वभागहारमेत्तखंडदव्यपुजादो घेत्तृण विवज्जासं काऊण अंतरभंतरे ठवेयव्वं । अण्णहा गोवुच्छायाराणुप्पत्तीदो । एवमंतरहिदीसु पदिददव्वपमाणपरूवदा कदा। ५४ १. संपहि विदियद्विदिपढमणिसेए पडमाणदव्वपमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा--पुग्विल्लपुधविदखंडेहिंतो परूविदायामविक्खंभपमाणेहिंतो एयं खंड उच्चाइय एदमुदयावलियबाहिरहिदीसु सव्वासु वि विहज्जिय पदइ त्ति अंतरोवट्टिददिवडगुणहाणीए रूवाहियाए विक्खंभमोवट्टिय वित्थारिदे एयखंडमस्सियूण णिरुद्धहिदीए पदिदपदेसग्गमप्पणो मूलदबमोकड्डक्कड्डणभागहारेण संपहियभागहारपदुप्पण्णेण खंडिय तत्थेयखंडपमाणं होइ । सेसखंडाणि वि अस्सियूण एत्तियमेत्तं चेय असंख्यातगुणी हीन चौड़ी होकर स्थित होती है। यहाँ असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके द्वारा उदयावलिके भीतर निक्षिप्त किये गये द्रव्यकी प्रधानता न करके पूरी समर्थ इस फालिके आयाममें अन्तर्मुहूर्तसे भाजित डेढ़ गुणहानिका भाग देनेपर अन्तरकाल प्रमाण लम्बे और पूर्वोक्त विष्कम्भवाले साम्प्रतिक भागहारप्रमाण खण्ड प्राप्त होते हैं। फिर इन खण्डोंमेंसे एक कम अपकर्षणउत्कर्षण-भागहारप्रमाण खण्डोंको ग्रहण कर पूर्वोक्त क्षेत्रके नीचे मिलाकर स्थापित करने पर प्रत्येक स्थितिके प्रति द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकमें दृश्ययान कर्मपरमाणुओंके प्रमाणके हिसाबसे अन्तर निरन्तर क्रमसे आपूरित हो जाता है। किन्तु गोपुच्छविशेषके प्रारम्भसे लेकर अन्त तक जो अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गच्छ है उसके संकलनरूप क्षेत्रको एक कम अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे हीन पूर्वभागहारप्रमाण खण्डभूत द्रव्यपुंजोंमेंसे ग्रहण करके और विपरीत करके अन्तरके भीतर स्थापित कर देना चाहिये । अन्यथा गोपुच्छके आकारकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। इस प्रकार अन्तरस्थितियोंमें जितना द्रव्य प्राप्त होता है उसके प्रमाणका कथन किया। ६५४१. अब द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकमें जो द्रव्य प्राप्त होता है उसके प्रमाणका विचार करते हैं जो इस प्रकार है--जिसके आयाम और विष्कम्भके प्रमाणका पहले कथन कर आये हैं ऐसे पृथक् स्थापित पर्वोक्त खण्डमेंसे एक खण्डको निकाल ले। फिर यह खण्ड उदयावलिके बाहरकी सभी स्थितियोंमें विभक्त होकर प्राप्त होता है, इसलिये डेढ़ गुणहानिमें अन्तरकालका भाग देने पर जो लब्ध आवे एक अधिक उसका विष्कम्भमें भाग देकर प्राप्त हुई राशिको फैलाने पर एक खण्डकी अपेक्षा विवक्षित स्थितिमें जो कर्मपरमाणु प्राप्त होते हैं उनकी संख्या आती है जो अपने मूल द्रव्यमें सांप्रतिक भागहारसे गुणित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग देने पर प्राप्त हुए एक खण्डप्रमाण होता है। शेष खण्डोंकी अपेक्षा भी इतना ही द्रव्य प्राप्त होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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