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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अम० असंखे०गुणन्भ० । रदि० णियमा तं तु विहाणपदिदा अणंतभागभ. असंखे भागन्भहिया वा । एवं रदीए ।
१०७. अरदि० जह० पदेसविहत्तिओ मिच्छ०-धारसक० सत्तणोक० णियमा अज० असंखे० भागब्भहिया। सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० णियमा अज० असंखे०गुणब्भ० । सोग० णियमा तं तु विद्वाणपदिदं अणंतभागभ. असंखे०भागन्भ० वा । एवं सोगस्स । एवं सत्तमाए। पढमादि जाव छहि ति एवं चेव । णवरि इत्थि-णसयवेदाणं जहण्णपदेसवि० अणंताणु चउक्क० अविहत्तिओ।
६ १०८. तिरिक्श्वगदीए तिरिक्वाणं पढमपुढविभंगो। णवरि इत्थि-णqसयवेद० जह० विहत्तिओ मिच्छ० -सम्म०--सम्मामि०--अणंताणु०चउकाणं णियमा अविहत्तिओ। एवं पंचिंदियतिरिक्ख-पंचि०तिरि०पज्जत्ताणं । पंचि०तिरि० जोणिणीणं पढमपुढविभंगो।
___१०६. पंचिं०तिरि०अपज्ज. मिच्छत्त० जह० पदेसविहत्तिओ सम्म०सम्मामि० णियमा अज. असंखे०गुणब्भः। सोलसक०-भय-दुगुंछ० णियमा तंतु सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। रतिकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है। यदि अजघन्य प्रदेश विभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है। या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिये।
६ १०७ अरतिकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और सात नोकपायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। सम्यक्त्व,सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्ताबन्धीचतुष्ककी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। शोककी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है । यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है। या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। सातवीं पृथिवीमें इसी प्रकार जानना चाहिए। पहिलीसे लेकर छठी पृथिवी तक इसी प्रकार भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाला जीव अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अविभक्तिवाला होता है।
१०८.तिय॑ञ्चगतिमें तियश्चोंका भङ्ग पहली पृथिवीके समान है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाला जीव मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व
और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी नियमसे अविभक्तिवाला होता है । इसी प्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च और पञ्चन्द्रिय तियश्च पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनियोंमें पहिली पृथिवीके समान भङ्ग है।
६१०६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी
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