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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सण्णियासपरूपणा विहाणपदिदा.- अणंतभागन्म० असंखे०भागभ. बा। सक्षणोक. णियमा अज० असंखे०भागन्म० । एवं सोलसक०-भय-दुगुंछाणं ।
११०. सम्म० जह० पदेसविहतिओ सम्मामि० णियमा अज. असंखे०गुणब्भ० । मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० णियमा अज. असंखे०भागभ० । एवं सम्मामि० । गवरि सम्मत्तस्स णियमा अविहत्तिओ।
१११. इत्थिवेद० जह० पदे०वि० सम्म०-सम्मामि० णियमा अज. असंखे०गुणब्भ० । मिच्छ०-सोलसक०-अहणोक० णियमा अज. असंखे भागब्भः। एवं पुरिस-णसयवेदाणं।
११२. हस्सस्स जह० पदेसविहत्तिओ रदि० णियमा तं तु विहाणपदिदाअणंतभा० असंखेज्जभागब्भहियो वा । सेसमित्थिवेदभंगो । एवं रदीए |
११३. अरदि० जह० पदे०विहत्तिओ सोग० णियमा तं तु विहाणपदिदं । सेसं हस्सभंगो । एवं सोगस्स । एवं मणुसअपज्जत्ताणं । अधिक होती है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है। यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। सात नोकपायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी मुख्यता सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६११०. सम्यक्त्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। मिथ्यात्व, सोलह कषाय
और नौ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि यह सम्यक्त्वकी नियमसे अविभक्तिवाला होता है।
१११. स्त्रीवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है। मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
$ ११२. हास्यकी जघन्य प्रदेश विभक्तिवाले जीवके रतिकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है। यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है। या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। शेष भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
११३. अरतिकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके शोककी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है। यदि अजघन्य प्रदेश विभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है। शेष भङ्ग हास्यके समान है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार अर्थात् पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए।
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