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________________ ३२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ www.rrrrrrr विशेषार्थ- यहां पर आठ कषाय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन प्रकृतियोंके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके जघन्य स्वामित्वका विधान करते हुए यह बतलाया है कि जो उपशान्तकषाय छद्मस्थ जीव मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है उसके प्रथम समयमें यह जघन्य स्वामित्व प्राप्त होता है। यहांपर शंकाकारने मुख्यतया तीन शंकाए उठाई हैं जिनमेंसे पहली शंकाका भाव यह है कि उपशान्तकषायमें बारह कषायों और नोकषायोंकी प्रथम स्थिति तो पाई नहीं जाती, क्योंकि वहां अन्तरकालकी स्थितियोंमें निषेकोंका अभाव रहता है। अब जब यह जीव मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है तब वहां इनकी प्रथम स्थिति एकसाथ कैसे उत्पन्न हो सकती है। इस शंकाका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि उपशान्तकषाय गुणस्थानमें जो करण उपशान्त रहते हैं वे देवके प्रथम समयमें अपना काम करने लगते हैं, इसलिये वहां द्वितीय स्थितिमें स्थित इन कर्मों के कर्मपरमाणु अपकर्षित होकर प्रथम स्थितिमें आ जाते हैं। उसमें भी जिन प्रकृतियोंका प्रथम समयसे ही उदय होता है उनके कर्मपरमाणु उदय समयसे निक्षिप्त होते हैं और जिनका उदय प्रथम समयसे नहीं होता उनके कमंपरमाणु उदयावलिके बाहरकी स्थितिमें निक्षिप्त होते हैं, इसलिये वहां प्रथम स्थितिमें विवक्षित प्रकृतियोंके कर्मपरमाणु सम्भव हो जानेसे जघन्य स्वामित्व भी प्राप्त किया जा सकता है। दूसरी शंका यह है कि यतः संज्वलन लोभका उपशम दसवें गुणस्थानके अन्तमें होता है अतः इसकी अपेक्षा जो उपशान्तकषाय छमस्थ जीव मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है उसके प्रथम समयमें जघन्य स्वामित्व भले ही प्राप्त होओ, क्योंकि इसके पूर्व मरकर जो जीव देवोंमें उत्पन्न होता है उसके संज्वलन लोभकी उदय समयसे लेकर अन्तरकालके पूर्व तककी या अन्तरकालके बिना ही प्रथम स्थिति पूर्ववत् बनी रहती है अतः ऐसे जीवको देवोंमें उत्पन्न करानेपर संज्वलन लोभकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व नहीं प्राप्त किया जा सकता। तथा शेष तीन संज्वलनोंकी अपेक्षा भी जघन्य स्वामित्व पूर्वोक्त प्रकारसे भले ही प्राप्त हो जाओ, क्योंकि इनकी अपेक्षा भी जघन्य स्वामित्व अन्य प्रकारसे नहीं बन सकता है। उदाहरणार्थ एक सक्ष्मसाम्पराय संयत जीव मरकर देव हुआ और उसके देव होनेके प्रथम समयमें मायासंज्वलनका उदय है तो इसमें लोभसंज्वलनके निषेक स्तिबुकसंक्रमण द्वारा संक्रमित होंगे जिससे मायासंज्वलनकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व नहीं बन सकेगा। इसीप्रकार मान और क्रोधसंज्वलनके सम्बन्धमें जानना चाहिये । इसलिये यद्यपि संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रकारसे जघन्य स्वामित्व बन जाता है पर शेष कषायोंकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रकारसे जघन्य स्वामित्व नहीं बनता, क्योंकि यदि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानका जीव उनका अन्तर करके मरता और देवोंमें उत्पन्न होता है तो उसके उपशान्तकषायचर देवकी अपेक्षा उदयावलिमें कम परमाणु पाये जाते हैं, इसलिये सत्र में उपशान्तकषायचर देवकी अपेक्षा आठ कषायोंका जघन्य स्वामित्व कहना ठीक नहीं। इसप्रकार पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन नोकषायोंका जघन्य स्वामित्व भी उपशान्तकषायचर देवकी अपेक्षा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि जो जीव उपशमश्रेणिसे उतरकर और अनिवृत्तिकरणमें पहुँचकर इनका अपकर्षण करने के एक समय पहले मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें इनका अपकर्षण करता है उसके उपशान्तकषायचर देवकी अपेक्षा उदयावलिमें कम परमाणु प्राप्त होते हैं, इसलिये इनका जघन्य स्वामित्व भी अनिवृत्तिचर देवके ही होता है उपशान्तकषायचर देवके नहीं। उपशान्तकषायचर देवकी अपेक्षा अनिवृत्तिचर देवके प्रथम समयमें अपकर्षणसे उदयावलिमें कम परमाणु संक्लेशकी अधिकतासे प्राप्त होते हैं, क्योंकि ऐसा नियम है कि जिसके संक्लेशकी अधिकता होती है उसके अपकर्षण कम परमाणुओं का होता है और जिसके विशुद्धिकी अधिकता होती है उसके अपकर्षण अधिक परमाणुओंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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