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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं सरिसी चेव सेढीए अणंतगुणहीणाहियभावणिरवेक्खा होइ ति एदेणाहिप्पारण पयट्टमेदं मुत्त । जइ एवं, जत्थ वा तत्थ वा सामित्तमदाऊण केणाहिप्पारण उवसंतकसायचरो चेय देवो अवलंबिओ ? ण, अण्णत्थ मुत्तत्तासंसपयडीणं सामित्तस्स दाउमसक्कियत्तेणेत्थेव सामित्तविहाणादो । एत्थ जस्स जस्स जहण्णसामित्तमिच्छिज्जइ तस्स तस्स उवसंतकसायपच्छायददेवपढमसमए उदयं काऊण गहेयव्वं, अण्णहा अणुदइल्लत्तण उदयावलियभंतरे णिक्खेवासंभवादो। एत्थ चोदओ भणइ–ण एवं घडदे, देवेमुप्पण्णपढमसमए लोभं मोत्तूण सेसकसायाणमुदयासंभवादो। कुदो एस विसेसो लब्भए चे? परमगुरूवएसादो। तदो लोभकसायवदिरित्तकसायाणमेत्थ सामित्तेण ण होदव्वं, तत्थ तेसिमुदयाभावादो त्ति । एत्थ परिहारो वुचदे-सच्चमेवेदमेत्थ वि जइ तहाविहो अहिप्पाओ अवलंबिओ होज, किंतु ण देवेमुप्पण्णपढमसमए एवंविहो णियमो अस्थि, अविसेसेण सव्वकसायाणमुदओ तत्थ ण विरुज्झइ त्ति एसो चुण्णिमुत्तयाराहिप्पाओ, अण्णहा एत्थ सामित्तविहाणाणुववत्तीए । तदो देवेमुप्पण्णपढमसमए सव्वकसायाणमुदओ संभवइ ति तत्थ जहण्णसामित्तविहाणमविरुद्धं सिद्धं ।
अभिप्रायसे यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उपशमश्रेणिमें जो विशुद्धिका अनन्तगुणा हीनाधिकभाव देखा जाता है उसकी यहां अपेक्षा नहीं की गई है।
शंका-यदि ऐसा है तो जहां कहीं भी स्वामित्वका विधान न करके उपशान्तकषायचर देवकी अपेक्षा ही स्वामित्वका विधान किस अभिप्रायसे किया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अन्यत्र सूत्र में कही गई सब प्रकृतियोंके स्वामित्वका विधान करना सम्भव नहीं था, इसलिये यहां ही स्वामित्वका विधान किया है। यहांपर जिस जिस प्रकृतिका जघन्य स्वामित्व.लाना इष्ट हो उस उसका उपशान्तकषायसे मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उदय कराकर स्वामित्वका ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा उदय न होनेके का उदयावलिके भीतर अनुदयवाली प्रकृतियोंके निपेकोंका निक्षेप होना सम्भव नहीं है।
शंका-यहांपर शंकाकारका कहना है कि उक्त कथन नहीं बन सकता है, क्योंकि देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें लोभको छोड़कर शेष कषायोंका उदय नहीं पाया जाता है। यदि कहा जाय कि यह विशेषता कहांसे प्राप्त हुई तो इसका उत्तर यह है कि परम गुरुके उपदेशसे यह विशेषता प्राप्त हुई है, इसलिये लोभकषायके सिवा शेष कषायोंका स्वामित्व यहां देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें नहीं होना चाहिये, क्योंकि वहां उनका उदय वहीं पाया जाता ?
समाधान-अब यहां इस शंकाका परिहार करते हैं-यह कहना तब सही होता जब यहां भी वैसा ही अभिप्राय विवक्षित होता। किन्तु प्रकृतमें चूर्णिसूत्रकारका यह अभिप्राय है कि देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें इसप्रकारका नियम नहीं पाया जाता और सामान्यसे सब कषायोंका उदय वहाँ विरोधको नहीं प्राप्त होता। यदि ऐसा न होता तो यहां स्वामित्वका विधान ही नहीं किया जा सकता था, यतः देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें सब कषायोंका उदय सम्भव है इसलिये वहां जो जघन्य स्वामित्वका विधान किया है सो वह बिना विरोधके सिद्ध है।
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