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________________ ३२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ अत्थि तेसिमुदीरिजमाणदव्वमुवसंतकसायचरमदेवविसोहीदो अणंतगुणहीणविसोहिए पुचिल्लसामिदब्बादो थोवयरमुदयादी संछुहदि, विसोहिपरतंताए उदीरणाए तत्तारतमाणुविहाणस्स गाइयत्तादो। ण एत्थ त्थिवुक्कसंकमस्स संभवो आसंकणिज्जो, जेसिमुदयो गत्थि तेसिमुदयावलियबाहिरे एयगोवुच्छायारेण णिसेयदसणादो विवक्खियकसायस्स सजादियसंजलणपढमहिदीए सह तत्थुप्पायणादो च। तम्हा अहकसायाणं मज्झे जस्स जस्स जहण्णसामित्तमिच्छिज्जदि तस्स तस्स एवं देवेसुप्पण्णपढमसमए उदयं काऊण सामित्तं दायव्वं, अण्णहा जहण्णभावाणुववत्तीदो । तहा पुरिसवेद--हस्स--रदि--भय-दुगुंछाणमप्पप्पणो द्वाणे ओयरमाणअणियट्टिउवसामओ ओकड्डियूण उदए दाहिदि ति अदाऊण कालं करिय देवेमुप्पण्णपढमसमए ओकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदियजहण्णसामित्तमत्थसंबंधेण दायव्वं ? ण एत्थ वि कसायाणं त्थिवुक्कसंकमसंभावो संकियव्वो, कसायत्थिवुक्कसंकमस्स णोकसाएमु अणभुवगमादो। कुदो एवं चे? त्थिवुक्कसंकमस्स पाएण समाणजाइयपयडीसु चेव पडिबंधब्भुवगमादो। तम्हा हिरवज्जमेदमेत्थ सामित्तमिदि । एत्थ परिहारो उच्चदे-उवसमसेढीए कालं काऊण देवेमुप्पण्णपढमसमए जस्स वा तस्स वा विसोही है। यथा-यह तो प्रसिद्ध बात है कि उपशान्तकषायचर देवसे इसकी विशुद्धि अनन्तगुणी हीन होती है, इसलिये उपशान्तकषायचर देव अपने प्रथम समयमें जिन प्रकृतियोंका उदय है उनकी उदीरणा करते हुए जितने द्रव्यको उदयादिमें निक्षिप्त करता है उससे यह जीव थोड़े द्रव्यको उदयादिमें निक्षिप्त करता है, क्योंकि उदीरणा विशुद्धिके अनुसार होती है, इसलिये यहां जो उदीरणाके होनेका इसप्रकारका विधान किया है सो वह न्याय्य है। यहां स्तिबुकसंक्रमणको सम्भावनाविषयक आशंका करना भी उचित नहीं है, क्योंकि एक तो यहां जिनका उद्य नहीं होता उनके केवल उदयावलिके बाहर ही एक गोपुच्छके आकाररूपसे निषेक देखे जाते हैं और दूसरे विवक्षित कषायका सजातीय संज्वलनकी प्रथम स्थितिके साथ वहीं उत्पाद होता है, इसलिये आठ कषायोंमेंसे जिस जिसका जघन्य स्वामित्व चाहा जाय उस उसका पूर्वोक्त प्रकारसे देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उदय कराके स्वामित्वका विधान करना चाहिये, अन्यथा जघन्यपना नहीं प्राप्त हो सकता। तथा जो उपशामक उतरकर अनिवृत्तिकरणमें आया है वह पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका अपने अपने स्थानमें अपकर्षण करके उद्यमें देगा किन्तु न देकर मरा और देवोंमें उत्पन्न हो गया उसके वहां उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें अपकर्षणादि तीनोंके ही झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका जघन्य स्वामित्व प्रकरणवश देना चाहिये। किन्तु यहांपर भी कषायोंके स्तिबुक संक्रमणकी सम्भावनाकी आशंका करना उचित नहीं है, क्योंकि कषायोंका स्तिबुक संक्रमण नोकषायोंमें नहीं स्वीकार किया है। यदि कहा जाय कि ऐसा क्यों है सो इसका उत्तर यह है कि स्तिबुकसंक्रमणका सम्बन्ध प्रायः समान जातीय प्रकृतियोंमें ही स्वीकार किया है, इसलिये यहांपर जो उक्त प्रकारसे स्वामित्व बतलाया है वह निर्दोष है ? समाधान-अब यहां इसका परिहार करते हैं-जो भी कोई उपशमश्रेणिमें मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके वहां उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें विशुद्धि समान ही होती है इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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