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________________ ३२३ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं जहण्णयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदियं होइ ति सुत्तत्थसंबंधो । कथं देवेमुप्पण्णपढमसमए विदियहिदीए हिदपदेसग्गाणमंतरहिदीम असंताणमेक्कसराहेण उदयावलियप्पवेसो ? ण, सव्वेसि कारणाणं परिणामवसेण अक्कमेणुग्यादाणुवलंभादो । तदो उवसंतकसारण देवेमुप्पण्णपढमसमए पुवुत्तविहाणेणंतरं पूरेमाणेण उदयावलियब्भंतरे असंखेज्जलोयपडिभाएण णिसित्तदनं घेत्तूण सुत्तत्तासेसकम्माणं विवक्खियजहएणसामित्त होइ ति घेतव्वं । एत्थ केइ आइरिया एवं भणंति-जहा होउ णाम लोभसंजलणस्स उवसंतकसायपच्छायददेवम्मि देवपज्जायपढमसमए वट्टमाणयम्मि जहण्णसामित्तं, अण्णहाकाउमसत्तीदो । कुदो एवं चेत्र ? हेहा अण्णदरसंजलणपढमहिदीए पिल्लेवणासंभवादो। तहा सेससंजलाणं पि तत्थेव सामित्तं होउ णाम, अण्णहा देवेसुप्पण्णपढमसमए विवक्खियसंजलणाणमुवरि अविवक्खियसंजलणगुणसेढिदबस्स स्थिवुक्कसंकमप्पसंगेण जहण्णत्ताणुववत्तीदो। ण वुणो सेसकसायाणमेत्थ सामित्तण होयव्वं,चढमाणअणियट्टिचरदेवम्मि तेसिमंतरं काऊण देवेसुप्पण्णपढमसमए वहमाणयम्मि जहण्णसामित्त लाइदंसणादो । तं जहा-सो देवेमुप्पण्णपढमसमए जेसिमुदओ वह प्रथम समयवर्ती देव अपकर्षणादि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्भपरमाणुओंका स्वामी होता है यह इस सूत्रका भावार्थ है। शंका—जो कर्मपरमाणु अन्तरकालकी स्थितियोंमें न पाये जाकर द्वितीय स्थितिमें पाये जाते हैं उनका देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही एकदम उदयावलिमें कैसे प्रवेश हो जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि वहां परिणामोंकी परिवशतासे सभी कारणोंका युगपत् उद्घाटन पाया जाता है, इसलिये जो उपशान्तकवाय जीव देवोंमें उत्पन्न होता है वह वहां प्रथम समयमें ही पूर्वोक्त विधिसे अन्तरकालको कर्मनिषकोंसे पूरा कर देता है। और इसप्रकार उदयावलिके भीतर असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार जो द्रव्य निक्षिप्त होता है उसकी अपेक्षा सूत्रमें कहे गये सब कर्मों का विवक्षित जघन्य स्वामित्व प्राप्त होता है, यह अर्थ यहां लेना चाहिये। शंका-यहांपर कितने ही आचार्य इसप्रकार कथन करते हैं कि जो उपशान्तकषाय जीव मरकर देव हुआ और देव पर्यायके प्रथम समयमें विद्यमान है उसके लोभसंज्वलनका जघन्य स्वामित्व भले ही रहा आओ, क्योंकि इसको अन्य प्रकारसे घटित करना शक्य नहीं है । ऐसा ही क्यों है ऐसा पूछनेपर शंकाकार कहता है कि इससे नीचे संज्वलनकी सब प्रकृतियोंकी प्रथम स्थितिका अभाव असंभव है अतः वहां जघन्य स्वामिस्व नहीं दिया जा सकता है। उसीप्रकार शेष संज्वलनोंका भी स्वामित्व वहींपर रहा आवे, अन्यथा देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें विवक्षित संज्वलनोंके ऊपर अविवक्षित संज्वलनोंके गुणश्रेणिद्रव्यका स्तिबुक संक्रमण प्राप्त होनेसे जघन्यपना नहीं बन सकता है। परन्तु शेष कषायोंका स्वामित्व यहांपर नहीं होना चाहिये, क्योंकि जो उपशमश्रेणिपर चढ़ते हुए अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है वह पहले अनिवृत्तिकरणमें उक्त प्रकृतियोंका अन्तर करके जब मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ तब वहां उत्पन्न होनेके प्रथम समयवती उसके जघन्य स्वामित्वका कथन करनेमें लाभ देखा जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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