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________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ पदेसंविहीती ९ ३२७. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० सोलसक० - पुरिस०-भय- दुर्गुछ० भुज०अप्प० सम्बद्धा | अवद्वि० अनंताणु ० चक्क • अवत्त० सम्म० - सम्मोमि० अवत्त० जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । सम्म० सम्मामि० भुज० - श्रवडि ० जह० अंतोमु० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । अप्प० छण्णोक० भुज०अप्प ० सव्वद्धा । एवं सत्तसु पुढवीसु पंचिंदियतिरिक्खतिय देवगइदेवा भवणादि जाव उवरिमगेवज्जाति । १६४ ९३२८. पंचि०तिरि० अपज्ज० मिच्छ० - सोलसक०-भय- दुर्गुछा० भुज० अप्प ० सव्वद्धा । अवद्वि० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । सम्म० - सम्मोमि० भागप्रमाण काल तक करते रहें । यही कारण है कि इनके उक्त पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल वलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा उपशमश्रेणिमें पुरुषवेदके अवस्थितपदका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जानेसे विकल्परूपसे उक्तप्रमाण कहा है। उपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति होने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्ति अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है, इसलिए तो इस विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है और क्रमसे यदि नाना जीव इन प्रकृतियोंकी इस विभक्तिको करते रहें तो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल प्राप्त होता है, इसलिए इनकी इस विभक्तिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाणए कहा है । नाना जीवोंकी अपेक्षा सासादनका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनके अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्के संख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इन दोनों प्रकृतियोंकी अल्पतरविभक्ति तथा सात नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति सर्वदा होती है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि उक्त प्रकृतियोंकी ये विभक्तियाँ एकेन्द्रियादि जीवोंके भी पाई जाती हैं। शेष कथन सुगम है । । सम्यक्त्व $ ३२७. आदेश से नारकियों में मिध्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका काल सर्वदा है । इनकी अवस्थितविभक्तिका, अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल क्रमसे अन्तर्मुहूर्त और एक समय है तथा दोनों विभक्तियोंका उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । इनकी अल्पतरविभक्तिका तथा छह नोकपायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका काल सर्वदा है । इसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें, पञ्च न्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, देवगतिमें देव और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । विशेषार्थ — ओघ से सब प्रकृतियोंके सब पदोंका काल घटित करके बतला आये हैं । यहाँ भी स्वामित्वको ध्यान में रखकर वह घटित कर लेना चाहिए । विशेष वक्तव्य न होनेसे उसका अलग स्पष्टीकरण नहीं किया है। इसीप्रकार आगे भी जान लेना चाहिए । $ ३२८. पन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका काल सर्वदा है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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