SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे णाणाजीवेहि कालो १६३ फोसिदं ? लोग० असंखे०भागो छचोइस०। उवरि खेत्तभंगो । एवं जाव अणाहारि ति। फोसणं समत्तं । ६३२६. गाणाजीवेहि कालाणुगमेण दुविहो गिद्दे सो-प्रोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछ० भुज०-अप्प०-अवहि. केवचिरं ? सव्वद्धा। अणंताणु च उक्क०-सम्म०-सम्मामि० अवत्त० पुरिस० अवहि० केव० ? जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो । पुरिस० अवहि० अंतोमुहुत्तं वा । सम्म०-सम्मामि० भुज० जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवहि. जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अप्प. सत्तणोक० भुज०-अप्प० सव्वदा। छण्णोक० अवहि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। एवं तिरिक्खोघो । णवरि छण्णोक० अवहि० णत्थि । पुरिस० अवढि० अंतोमुहुत्तं पि णत्थि । प्रकृतियोंके सब पदवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और वसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ऊपर के देवोंमें स्पर्शन का भङ्ग क्षेत्रके समान है । इसप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इसप्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ। ६ ३२६. नाना जीवोंकी अपेक्षा कालानुगमके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है-श्रोष और आदेश। उनमें से ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका कितना काल है ? सर्वदा काल है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्यविभक्तिका तथा पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अथवा पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अल्पतरविभक्ति तथा सात नोकषायों की भुजगार और अल्पतर विभक्तिका काल सर्वदा है। छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार सामान्य तियश्चोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें छह नोकषायोंकी अवस्थितविभक्ति नहीं है तथा पुरुषवेदकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त भी नहीं है। विशेषार्थ-यहाँ मिथ्यात्व आदि उन्नीस प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपद एकेन्द्रिय आदि सब जीवोंके होते हैं, इसलिए नाना जीवोंकी अपेक्षा इनका सर्वदा काल बन जानेसे वह सर्वदा कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्यपद ऐसे जीवोंके होता है जो विसंयोजनाके बाद पुनः उससे संयुक्त होते हैं, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद जो इनकी सत्ता से रहित जीव उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करते हैं उसके प्रथम समयमें होता है और पुरुषवेदका अवस्थित पद सम्यग्दृष्टि जीवके होता है। यह सम्भव है कि एक या नाना जीव उक्त प्रकृक्तियोंके ये पद एक समय तक ही करें और यह भी सम्भव है कि प्रावलिके असंख्यातवें For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy