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________________ १६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ $ ३२४. भवण०-वाण-जोइसिएमु मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछ० भुज०अप्प०-अवहि० लोगस्स असंखे०भागो अदहा वा अह-णवचोइस० । अणंताणु०. चउक० अवत्त० सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवत्त० इत्थिवेद० भुज• पुरिस० भुज०अवहि० लोग० असंखे०भागो अद्ध हा वा अहचोहस । सम्म-सम्मामि० अप्प०अवहि० इत्थि०-पुरिस० अप्प० गवुस०-चदुणोक. भुज०-अप्प० लो० असंखे०. भागो अद्ध हा वा अह-णवचोद० ।। ३२५. सणक मारादि जाव सहस्सारा ति मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछापुरिस० भुज०-अप्प०-अपहि० अणंताणु०चउक्क० अवत्त० सम्म०-सम्मामि० भुज.. अप्प०-अवत्त०-अवहि. इत्थि०-णqस०-चदुणोक. भुज०-अप्प० लोग. असंखे०भागो अहचोदस० । आणदादि जाव अच्चुदा ति सव्वपयडीणं सव्वपदेहि केव० इन दोनों प्रकृतियोंके उक्त पदवाले देवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और विहार आदिकी अपेक्षा स्पर्शन त्रस नालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ३२४. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा वसनालीके कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवक्तव्यविभक्तिवाले, स्त्रीवेदकी भुजगारविभक्तिवाले तथा पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा बसनालीके कुछ कम साढ़े तीन और कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अल्पतरविभक्तिवाले तथा नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके कुछ कम साढे तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ- यहाँ भी अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य पद, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अवक्तव्यपद, स्त्रीवेदका भुजगारपद और पुरुषवेदका भुजगार और अवस्थितपद एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय नहीं होते, इसलिए इनकी अपेक्षा स्पर्शन कहते समय त्रसनालीका कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन नहीं कहा है । शेष कथन सुगम है। ३२५. सनत्कुमार से लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पुरुषवेदकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले, अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अल्पतर, अवक्तव्य और अवस्थितविभक्तिवाले तथा स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतर विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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