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________________ गा० २२ ] पदेस वित्तीय झीणाझीणचूलिया २३५ सा च जहण्णसामित्तविहाणेण परूविदा त्ति ण पुणो परूविज्जदे | अहवा सव्वकम्माणमत्थि पदेस संतकम्मद्वाणाणि त्ति संतपरूवणा परूवणा णाम । पमाणं सव्वेसिं कम्माणमणताणि पदेस संत क्रम्मद्वाणाणि त्ति । अध्याबहुअं जहा उकस्सपदेस संतकम्मस्स परुविदं तहा अणूणा हियमेत्थ परूवेयव्वं । वरि जस्स कम्मस्स पदेसरगं विसेसाहियं तस्स पदेस संत कम्मद्वाणाणि विसेसाहियाणि, संखेज्जगुणस्स संखेज्जगुणाणि, असंखेज्जगुणस्स असंखेज्जगुणाणि, अनंतगुणस्स अनंतगुणाणि ति आळावकओ विसेसो | सेसं सुगमं । एवमेदेषु पदणिक्खेव वड्डि-हाणेसु सवित्थरं परूविदेसु उत्तरपयडिपदेस वित्ती समत्ता होदि । एवं पदेसविहत्ती समत्ता । झीणाझी चूलिया ( झाइय जिणिदयंद झाणाणलझीणघाइकम्मंसं । झणझणहियारं जहोवएसं पयासेहं ॥ १ ॥ * एत्तो भीमभीणं ति पदस्स विहासा कायव्वा । ४१८. एत्तो उवरि झीणमझीणं ति जं पदं तस्स विहासा कायव्वाति सत्कर्मके भेदोंका कथन करना प्ररूपणा है । परन्तु वह जघन्य स्वामित्वविधिके साथ कही गई है, इसलिए पुन: इसका कथन नहीं करते । अथवा सब कर्मों के प्रदेशसत्कर्मस्थान हैं, इसलिए सत्कर्मोंकी प्ररूपणा करना प्ररूपणा है । प्रमाण - सब कर्मों के अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थान हैं । अल्पबहुत्व – जिसप्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका कथन किया है उस प्रकार न्यूनाधिकता से रहित यहाँ पर कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जिस कर्मका प्रदेशा विशेष अधिक है उसके प्रदेशसत्कर्मस्थान विशेष अधिक हैं, संख्यातगुणेके संख्यातगुणे हैं, असंख्यातगुणेके संख्यातगुणे हैं और अनन्तगुणे के अनन्तगुणे हैं इसप्रकार कथनकृत विशेषता है । शेष कथन सुगम है। इसप्रकार इन पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थानों का विस्तारके साथ कथन करनेपर उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति समाप्त होती है । इसप्रकार प्रदेशविभक्ति समाप्त हुई । नाझीनचूलिका जिन जिनेन्द्र चन्द्र या चन्द्रप्रभ जिनेन्द्रने ध्यानरूपी अग्निके द्वारा घातिकर्मों को विध्वस्त कर दिया है उनका ध्यान करके मैं ( टीकाकार ) झीनाकीन नामक अधिकारको उपदेशानुसार प्रकाशित करता हूँ ॥ १॥ * इससे आगे 'भीमझीणं' इस पदका विवरण करना चाहिये । ९ ४१८. अब तक गाथामें आये हुए 'उक्कस्समणुक्कसं' इस पद तकका विवरण किया । अब इससे आगे जो 'झीणमभी' पद आया है उसका विवरण करना चाहिए इस प्रकार सूत्रार्थका सम्बन्ध है | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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