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________________ २३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ मुत्तत्यसंबंधो। तत्थ का विहासा णाम ? मुत्तेण सूचिदत्यस्स विसेसियूण भासा विहासा विवरण ति वुत्तं होदि। पदेसविहत्तीए सवित्थरं परूविय समताए किमहमेसो अहियारो ओदिण्णो त्तिण पञ्चवहे यं, तिस्से चेव चूलियाभावेणेदस्सावयारब्भुवगमादो। कधमेसो पदेसविहत्तीए चूलिया ति वुत्ते वुच्चदे-तत्थ खलु उक्कड्डणाए उकस्सपदेससंचओ परूविदो ओकड्डणावसेण च खविदकम्मंसियम्मि जहण्णपदेससंचओ। तत्थ य कदमाए हिदीए हिदपदेसग्गमुक्कड्डणाए ओकड्डणाए च पाओग्गमप्पाओग्गं वा ति ण एरिसो विसेसो सम्ममवहारिओ। तदो तस्स तहाविहसत्तिविरहाविरहलक्खणत्तेण पत्तझीणाझीणववएसस्स हिदीओ अस्सिदूण परूषणहमेसो अहियारो ओदिण्णो त्ति चूलियाववएसो ण विरुज्झदे । शंका-सूत्रमें आये हुए 'विभाषा' इस पदका क्या अर्थ है ? । समाधान-सूत्रसे जो अर्थ सूचित होता है उसका विशेष रूपसे विवरण करना विभाषा है यह इस पदका अर्थ है। विभाषाका अर्थ विवरण है यह इसका तात्पर्य है। __यदि कोई ऐसी आशंका करे कि प्रदेशविभक्तिका विस्तारसे कथन हो लिया है, अतः इस अधिकारके कथन करनेकी क्या आवश्यकता है सो उसकी ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसीके चूलिका रूपसे यह अधिकार स्वीकार किया गया है। शंका-यह अधिकार प्रदेशविभक्ति अधिकारका चूलिका है सो कैसे ? समाधान--प्रदेशविभक्तिका कथन करते समय उत्कर्षणके द्वारा उत्कृष्ट प्रदेशसंचयका भी कथन किया है और अपकर्षणके वशसे क्षपित काशके जघन्य प्रदेशसञ्चयका भी कथन किया है। किन्तु वहाँ इस विशेषताका सम्यक् रीतिसे विचार नहीं किया गया है कि किस स्थितिमें स्थित कर्म उत्कर्षण और अपकर्षणके योग्य हैं तथा किस स्थितिमें स्थित कर्म उत्कर्षण और अपकर्षणके अयोग्य हैं, तथापि इसका विचार किया जाना आवश्यक है अतः इसप्रकारकी शक्तिके सद्भाव और असद्भावके कारण झोनाझीन इस संज्ञाको प्राप्त हुए कर्मपरमाणुओंका स्थितियोंकी अपेक्षा कथन करने के लिए यह अधिकार आया है, इसलिए इसे चूलिका कहने में कोई विरोध नहीं है। विशेषार्थ-पूर्वमें प्रदेशविक्तका विस्तारसे विवेचन किया है । तथापि उससे यह ज्ञात न हो सका कि सत्तामें स्थित कर्मपरमाणुओंमेंसे कौनसे कर्मपरमाणु उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदयके योग्य हैं और कौनसे कर्मपरमाणु इनके अयोग्य हैं। इसीप्रकार इससे यह भी ज्ञात न हो सका कि इन कर्मपरमाणुओं से कौनसे कर्मपरमाणु उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त हैं, कौनसे कर्मपरमाणु निषेकस्थिति प्राप्त हैं, कौनसे कर्मपरमाणु श्रधःनिषेकस्थितिप्राप्त हैं और कौनसे कर्मपरमाणु उदयस्थितिप्राप्त हैं। परन्तु इन सब बातोंका ज्ञान करना आवश्यक है, इसीलिए प्रदेश विभक्तिके चूलिकारूपसे झीनाझीन और स्थितिग ये दो अधिकार आये हैं। चूलिकाका अर्थ है पूर्वमें कहे गये किसी विषयके सम्बन्धमें विशेष वक्तव्य । आशय यह है कि पूर्व में जिस विषयका वर्णन कर चुकते हैं उसमें बहुतसी ऐसी बातें छूट जाती हैं जिनका कथन करना आवश्यक रहता है या जिनका कथन किये बिना उस विषयकी पूरी जानकारी नहीं हो पाती, इसलिये इन सब बातोंका खुलासा करनेके लिये एक या एकसे अधिक स्वतन्त्र अधिकार रचे जाते हैं जिनका पूर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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