________________
२३४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गर्बुस० पत्थि अप्पाबहुवे । अणंताणु०४ सव्वत्थोवा असंखे०गुणहाणि । असंखे०भागहाणि० असंखे०गुणा। बारसक०-पुरुस०-भय-दुगुंछ० सव्वत्थोवा अवहि । असंखे०भागहाणि. असंखे०गुणा । असंखे०भागवडि. संखे०गुणा । हस्स-रइअरह-सोगाणं ओघं । एवं सव्वळे । णवरि सव्वत्थ संखेज्जगुणं कायव्वं । एवं जाव अणाहारि ति णेदव्वं ।
तदो अप्पाबहुए समत्ते वडिविहत्ती समत्ता । (पदणिक्खेवविभागं वडिविहत्तिं च किं चि सुतादो । वित्थरियं वित्थरदो मुत्तत्थविसारदो समत्थे तु ॥१॥ सो जयइ जस्स परमो अप्पाबहुअंपि दव्व-पज्जायं ।
जाणइ गाणपुरंतो लोयालोएक्कदप्पणओ ॥२॥) * जहा उकस्सयं पदेससंतकम्मं तहा संतकम्महापाणि ।
६४१७. सामित्तादिअणियोगद्दारेहि जहा उक्कस्सपदेससंतकम्मं परूविदं तहा पदेससंतकम्पहाणाणि वि परवेयवाणि, विसेसाभावादो। णवरि एत्थ तिण्णि अणियोगद्दाराणि-पख्वणा पमाणमप्पाबहुए ति । तत्थ परूवणा सव्वकम्माणं जहण्णपदेससंतकम्पहाणप्पहुडि जाव उक्कस्सपदेससंतकम्महाणं ति ताव कमेण संतवियप्परूवणं । सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका अल्पबहुत्व नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धि में अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि सर्वत्र संख्यातगुणा करना चाहिए। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त होनेपर वृद्धिविभक्ति समाप्त हुई। जो सूत्रका अर्थ करनेमें विशारद और समर्थ हैं उन्होंने पदनिक्षेपविभक्ति और वृद्धिविभक्तिका सूत्रके अनुसार विस्तारसे कुछ व्याख्यान किया है ॥ १ ॥
जिनके ज्ञानरूपी पुरके भीतर लोकालोकरूपी एक उत्कृष्ट दर्पण अल्पबहुत्वको लिए हुए समस्त द्रव्य और पर्यायोंको जानता है वे भगवान् जयवन्त हों ॥२॥
* जिस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म है उसप्रकार सत्कर्मस्थान हैं।
$ ४१७. स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर जिस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्कमका कथन किया है उसप्रकार प्रदेशसत्कर्मस्थानोंका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है । इतनी विशेषता है कि यहाँ पर तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । उनमेंसे सब कर्मोके जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थानसे लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान तक क्रमसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org